साल 1988 में सुरेश खोपडे को मुंबई से 20 किमी दूर स्थित भिवंडी के डिप्टी कमिश्नर के तौर पर नियुक्त किया गया। इससे पहले भिवंडी सांप्रदायिक दंगों के लिए जाना जाता था।
साल 1965, 1968, 1970 और 1984 में दंगो और समय-समय पर छोटी-मोटी मुठभेड़ों के कारण इस शहर ने अपने सैकड़ों लोग खोए थे। 1984 में दंगों को रोकने के लिए तो भारतीय सेना की टुकड़ी तक बुलानी पड़ी थी।
इसे भी ज्यादा बुरा था कि पुलिस और कानून इन दंगों के एक भी अपराधी को सजा नहीं दे पाए। 1984 के दंगों में पुलिस ने 962 लोगों को गिरफ्तार किया था और इस मुकदमे के लिए एक स्पेशल कोर्ट सेट-अप किया गया, जिसने इस केस पर 16 महीने काम किया।
खोपडे के मुताबिक इन 962 लोगों में से 961 लोगों को बरी कर दिया गया और सिर्फ एक इंसान को 5 साल की जेल और 2000 रुपये जुर्माने की सजा मिली। बाद में, उसे भी अपील पर बरी कर दिया गया।
इस सबको स्वीकार नहीं किया जा सकता था और अब वक़्त आ गया था कि यह सब बदले। इन सभी मामलों के मद्देनज़र साल 1988 में, खोपडे ने एक अनोखे पुलिसिंग सिस्टम की शुरुआत की- मोहल्ला कमिटी।
उनकी इस मोहल्ला कमिटी ने इस शहर को इस तरह से बदल दिया कि 1992-93 में मुंबई में जब दंगे हुए और वहां हज़ारों लोग मारे गए, तब भिवंडी में शांति थी और यहाँ एक भी जगह कोई फसाद नहीं हुआ।
1993 में अपने काम के लिए प्रेसिडेंट मेडल जीतने वाले खोपडे आज एक रिटायर्ड भारतीय पुलिस अफसर हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने द बेटर इंडिया से बात की और बताया कि कैसे उन्होंने भिवंडी में दंगों को खत्म किया और वहां शांति स्थापित की।

समस्या को जड़ से समझा:
पुणे में पले-बढ़े खोपडे ने कृषि विज्ञान में ग्रैजुएशन किया। इसके बाद उन्होंने साल 1978 में महाराष्ट्र पुलिस सर्विस कमीशन एग्ज़ाम पास करके राज्य पुलिस जॉइन किया।
उनकी पहली पोस्टिंग रायगढ़ जिले के पनवेल में बतौर DSP हुई और यहाँ पर उन्होंने दो खतरनाक डकैत को अपनी जान पर खेलकर पकड़ा। इन डकैतों से मुठभेड़ के दौरान उन्हें सीने, जांघ और पैर में गोलियां भी लगी, लेकिन फिर भी वह उन्हें पकड़ने में कामयाब रहे।
इसके बाद उन्हें DCP के पद पर प्रमोट किया गया और उन्हें स्टेट क्रिमिनल इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेंट की इंटेलिजेंस विंग में पोस्टिंग मिली। यहाँ पर उन्हें सांप्रदायिक हिंसा के मुकदमों को देखना था। उन्होंने गुजरात और महाराष्ट्र में हुए कई बड़े दंगों की रिपोर्ट्स को पढ़ा और उन्हें समझ में आया कि जिस तरह से पुलिस दंगों के मामलों को संभालती है, समस्या उसमें है।
वह बताते हैं कि उन्हें समझ में आया कि दंगों को संभालने के लिए पुलिस का तरीका गलत है। वे कॉल का इन्तजार करते हैं फिर हिंसा की जगह पर जाते हैं और भीड़ को हटाते हैं। जिस भी तरह से वे हिंसा को रोक सकते हैं रोकते हैं- लाठी चार्ज से, आंसू गैस, फायरिंग और फिर लोगों को गिरफ्तार करना। इसके बाद वे केस को इन्वेस्टिगेशन करके चार्ज शीट बनाते हैं और इसे कोर्ट में भेजते हैं और फिर वापस पुलिस स्टेशन में आ जाते हैं। दंगों को होने से रोकने की बजाय उनका ध्यान सिर्फ इन्हें बढ़ने से रोकना होता है।
साल 1988 में उन्हें भिवंडी में पोस्टिंग मिली। इस इलाके में पोस्टिंग लेने वाला कोई भी पुलिस अफसर खुश नहीं होता लेकिन खोपडे ने डरने के बजाय इसे एक मौके की तरह लिया। उन्हें पता था कि यही मौका है जब वह सालों से हो रहे दंगों की समस्या को खत्म करने पर काम कर सकते हैं। उन्होंने सबसे पहले 1984 के दंगों की सभी रिपोर्ट्स को पढ़ा और समझा।
उन्होंने याद करते हुए बताया, “रिपोर्ट्स को पढ़ने के बाद, मैं हिंदू-मुस्लिम, दोनों समुदायों के पीड़ित परिवारों से मिला। सबके पास बताने के लिए खौफनाक कहानी थी कि कैसे उनके अपनों को बेदर्दी से मारा गया। मुझे समझना था कि उन्हें क्यों टारगेट किया गया और मारा गया? दंगों के बाद राजनैतिक पार्टियों ने कुछ ‘बाहरी लोगों’ को इसका ज़िम्मेदार बताया। मुंबई में सीनियर अफसरों ने कहा कि अपराधी मुंबई से भिवंडी गये थे और यह आग भड़काई। लेकिन मैंने केस डायरी को पढ़ा और पीड़ितों से पूछा कि उनके अपनों को किसने मारा? उन्होंने बताया कि अपराधी उनके आस-पड़ोस में ही रहते हैं। इन दंगों को फैलाने वाले स्थानीय लोग ही थे।”
DCP खोपडे ने सभी 243 अपराधियों के बैकग्राउंड को स्टडी किया और उन्हें पता चला कि सिर्फ 3.8% लोग क्रिमिनल गतिविधियों में लिप्त हैं। अन्य सभी आम नागरिक थे।
उन्होंने बाद में इन लोगों की आर्थिक स्थिति को भी देखा और पाया कि मरने वाले 95% लोग गरीबी रेखा से नीचे वाले थे और इन हत्याओं में शामिल 63% अपराधियों की आर्थिक स्थिति भी ऐसी ही थी। हिंसा के लिए ज़िम्मेदार लोगों को बचपन से ही ऐसा माहौल मिला कि उनके मन में दूसरे समुदाय वालों के प्रति घृणा और संदेह पैदा हो गया।
वह आगे बताते हैं कि इन सभी बातों ने उन्हें सोचने पर मजबूर किया कि कैसे इन अलग समुदायों के लोगों को एक साथ एक मंच पर लाया जाये ताकि वे शांति और सद्भावना से अपने मुद्दों पर बात कर सकें।

मोहल्ला कमिटी:
1988 में पुलिस ने यहाँ पर 70 मोहल्ला कमिटी का गठन किया, जिसमें अलग-अलग धार्मिक और सामाजिक समुदायों के लोग शामिल थे, जो एक ही जगह पर रह रहे थे। इन सभी लोगों को एक साथ अपने इलाके के विकास के मुद्दों पर बात करने के लिए साथ में लाया गया ताकि उनमें सामाजिक सद्भावना बढ़े।
हर मोहल्ले में हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों से लगभग 50 सदस्य थे (कहीं-कहीं यह संख्या कम-ज्यादा थी) और हर अलग-अलग तबके के लोग थे जैसे टैक्सी ड्राइवर, रिक्शा चलाने वाले, किसान, डॉक्टर, वकील, शिक्षक आदि, जो एक ही मोहल्ले का हिस्सा थे।
सिर्फ ऐसे लोगों को अलग रखा गया जिन पर 84 के दंगों का आरोप था या फिर जो कट्टर प्रवृत्ति के थे। इन सभी मोहल्ला कमिटी के संचालन का ज़िम्मा पुलिस फोर्स में सबसे निचली रैंक पर आने वाले कॉन्स्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल को दिया गया। इन सभी को 15 दिन में एक बार मोहल्ला कमिटी के साथ मीटिंग करनी होती थी और वह भी पुलिस स्टेशन में नहीं बल्कि मोहल्ले में जाकर।
सार्वजनिक स्थान जैसे सरकरी स्कूल, सामुदायिक हॉल या फिर किसी खुले मैदान को इन मीटिंग्स के लिए चुना जाता था। हेड कॉन्स्टेबल या फिर कॉन्स्टेबल सिर्फ इस कमिटी का संचालन करते थे, और इसका मतलब यह नहीं था कि वे मोहल्ले के किसी भी निवासी पर रौब झाड़ें।
इन सभी मीटिंग्स में नागरिक बिना किसी डर या झिझक के अपनी समस्यों पर चर्चा करते, चाहे समस्या कोई भी हो।

“हमने सभी गैर-संज्ञेय मामलों को कमिटी में लाना शुरू किया। मीटिंग को हेड कॉन्स्टेबल या फिर सब-इंस्पेक्टर संचालित करते थे और सभी छोटे-मोटे झगड़ों को हल करते थे। पुलिस स्टेशन में आने वाली 95% शिकायतें गैर-संज्ञेय होती थीं जैसे कि किसी ने अपना कचरा सही जगह नहीं फेंका, वाटर सप्लाई पर नोंक-झोंक, पारिवारिक झगड़े, बच्चों के झगड़े आदि। हर बड़ा अपराध एक छोटे झगड़े से शुरू होता है। अगर हम इन छोटे झगड़ों को बढ़ने से रोक दें तो कोई बड़ा अपराध होगा ही नहीं। फिर इन मोहल्लों में रहने वाले लोगों को पता होता है कि किसने अपराध किया और अपराधी कहाँ रहता है? यहाँ पर हेड कॉन्स्टेबल कानून के बारे में लोगों को समझाता और फैसला करता। कोर्ट में सुनवाई के लिए बैठे रहने से बेहतर यह तरीका था,” उन्होंने बताया।
इसे एक स्टेप और आगे बढ़ाया गया और पुलिस नागरिकों की नगर निगम, राशन की दुकान या फिर बिजली बोर्ड से संबंधित समस्याओं को हल करने में भी मदद करने लगी। सबसे अच्छी बात थी कि इन कमिटी में दोनों समुदाय के लोग साथ में बैठ रहे थे और आपस में बात कर रहे थे। खोपडे कहते हैं,
“जब राम लाल और अब्दुल्लाह (काल्पनिक नाम) ने साथ में इन मीटिंग्स में बैठना शुरू किया तो उनके मन में एक-दूसरे के बारे में जो विचार थे, वे खत्म हुए। वक़्त के साथ उनकी दोस्ती हुई। रामलाल को समझ आया कि अब्दुल्लाह की पांच पत्नी या फिर 8 बच्चे नहीं है जैसा संप्रदायों को भड़काने वाले कहते हैं। बल्कि, रामलाल की ही तरह उनकी एक पत्नी और तीन बच्चे हैं। रामलाल की ही तरह अब्दुल्लाह भी अपने घर, मोहल्ले और भिवांडी की बेहतरी के बारे में सोचता है न कि पाकिस्तान के बारे में। ऐसे ही, अब्दुल्लाह को समझ में आया कि राम लाल भारत से इस्लाम को हटाना नहीं चाहता बल्कि उनकी ही तरह रामलाल की रोज़मर्रा की समस्याएं हैं जैसे पानी की सप्लाई, बिजली और हर दिन के खर्चे आदि।”
जात-पात या धर्म को पीछे छोड़, हेड कॉन्स्टेबल के मोहल्ले में सैकड़ों दोस्त बन गए। इससे स्थानीय पुलिस को मदद मिली। मीटिंग्स में मोहल्ला कमिटी के लोग कॉन्स्टेबल को मोहल्ले में उपद्रव करने वालों के बारे में लगातार जानकारी देते थे।
उनका रिश्ता इस कद्र बेहतर हुआ कि मोहल्ले में किसी के यहाँ शादी-ब्याह होता या फिर कोई और आयोजन होता तो लोग अपने यहाँ पर नियुक्त हेड कॉन्स्टेबल को बुलाते थे। समय के साथ हेड कॉन्स्टेबल का सम्मान मोहल्ले में काफी बढ़ गया।
फिर मोहल्ले के सभी लोग कॉन्स्टेबल से रेग्युलर तौर पर मिलते थे और इससे छोटे-छोटे भ्रष्टाचार पर रोक लगी। खोपड़े ने आगे कहा कि DCP के तौर पर उन्होंने अपने स्थानीय इंस्पेक्टर से मोहल्ले में जाकर लोगों से मिलने और उनके साथ एक बेहतर रिश्ता बनाने के लिए कहा। इस प्रक्रिया से लोकल पुलिस के व्यवहार में काफी बदलाव आया।

“DCP के रूप में मैं अपने जूनियर्स खास तौर पर कॉन्स्टेबल को कोई ऊँचा पद या फिर ज्यादा सैलरी नहीं दे सकता था। लेकिन मैंने उन्हें मोहल्ला कमिटी चलाने के लिए अथॉरिटी और सम्मान दिया। इससे उन्हें पूरे जोश से काम करने की प्रेरणा मिली,” उन्होंने बताया।
दूसरे शब्दों में कहें तो स्थानीय पुलिस और आम नागरिकों के बीच का रिश्ता डर और ताकत के दायरे से बाहर निकलकर विश्वास, सद्भावना और इंसानियत का हो गया।
1992-93 मुंबई दंगों का समय:
DCP खोपडे का मार्च 1992 में तबादला हो गया और उनके बाद, गुलाबराव पोल ने उनकी इस पहल को आगे बढ़ाया। भारतीय टेलीविज़न टॉक शो, सत्यमेव जयते में बात करते हुए पोल ने कहा, “मैं हफ्ते में कम से कम दो बार इन कम्युनिटी मीटिंग्स में जाता था। उनकी जो भी परेशानी और शिकायतें होतीं, हम उन्हें हल करने की कोशिश करते।”
हैरानी की बात यह थी कि बाबरी मस्जिद टूटने के बाद, साल 1992 के दिसंबर और 1993 की जनवरी में जब पूरे देश में दंगे हुए, तब भिवंडी एकदम शांत था। यहाँ कोई हिंसा नहीं हुई।
जब मुंबई में दंगे शुरू हुए, तब भिवंडी की सभी मोहल्ला कमिटी साथ आ गईं और स्थानीय कॉन्स्टेबल ने इलाकों की पेट्रोलिंग करना शुरू कर दिया। शहर में उपद्रव फैलाने वालों के बारे में पुलिस को लगातार जानकारी मिल रही थी और इस वजह से उन्होंने कोई हिंसा शुरू होने से पहले ही उसे रोक दिया।
“सभी मोहल्ला कमिटी ने तय कर लिया था कि बाहर जो भी हो, हम अपने यहाँ शांति बनाकर रखेंगे। दंगों के दौरान सिर्फ एक-दो जगहों पर छोटी-मोटी मुठभेड़ हुई लेकिन किसी को गंभीर चोट नहीं लगी या फिर किसी की जान नहीं गई जबकि मुंबई जल रहा था। वहां हज़ारों लोग मारे गए और करोड़ों की सम्पत्ति बर्बाद हो गई,” खोपडे ने कहा।
इस बीच, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के टूटने तक, स्थानीय पुलिस ने हिरासत में लेने के लिए 232 ज्ञात उपद्रवियों और 25 गैंगस्टरों की सूची तैयार की थी। स्थानीय पुलिस ने दंगों को नियंत्रण में करने का भी प्रशिक्षण शुरू किया, मुख्य रूप से पत्थर और बोतल फेंकने वाले लोगों से निपटने के लिए उन्होंने अभ्यास किया।
1993 में इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “पुलिस ने पुलिस बैंड और NCC कैडेट्स के साथ मार्च किया। उन्होंने कुछ इवेंट्स भी आयोजित किए जैसे कि सड़क दौड़, जिसे उन्होंने ‘एकता दौड़’ कहा और एक कविता-सम्मेलन भी आयोजित किया। 6 दिसंबर तक लोगों को शांति बनाए रखने के लिए तैयार किया जा चुका था। इसके बाद अफसरों ने मोबाइल पुलिस फोर्स को लीड किया। यह मेहनत रंग लाई। एक मुस्मिल समुदाय में कुछ युवाओं ने पुलिस पर पत्थर फेंके और एएसपी के सिर में चोट लगी पर पुलिस ने ओवररिएक्ट नहीं किया और स्थानीय लोगों ने इन दोषियों की गिरफ्तारी में मदद की।”
अगर एक साधारण कॉन्स्टेबल और आम नागरिक साथ में मिलकर काम करें तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता कि राज्य में शांति और सद्भावना न हो। सुरेश खोपड़े ने एक बेहतरीन उदहारण स्थापित किया कि कैसे कम्युनिटी पुलिसिंग लोगों के लिए काम कर सकती है।
‘पुलिसिंग मुस्लिम कम्युनिटीज: कम्पेरेटिव इंटरनेशनल कॉन्टेक्स्ट’ किताब के मुताबिक, “मोहल्ला कमिटी का यह कॉन्सेप्ट भारत के दूसरे इलाकों में भी शुरू किया गया और सभी जगह इससे सांप्रदायिक समस्याओं को हल करने में और दोनों समुदायों के बीच शांति को बढ़ावा देने में सफलता मिली। मुंबई पुलिस ने भी सुरक्षा के लिए नागरिकों से जुड़कर एक बड़ी पहल की शुरुआत की है और जिसे मोहल्ला एकता (पड़ोस एकता) समितियों के रूप में जाना जाता है, जिसने मुश्किल स्थितियों में शांति बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।”
खोपडे कहते हैं, “भिवंडी में हुआ यह प्रयोग केवल हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति बनाए रखने के बारे में नहीं था, बल्कि पुलिस संगठन में हुआ एक पूरा सुधार था – निर्णय लेने की प्रक्रिया में कॉन्स्टेबल को शामिल करना, लोगों के लिए उनका दृष्टिकोण बदलना, उनकी सोच में परिवर्तन, आदि। कॉन्स्टेबल को सशक्त करना ज़रूरी है क्योंकि वे लोगों के बीच काम करते हैं। जो कुछ भी होता है, वहां पर सबसे पहले पहुँचने वाला व्यक्ति कॉन्स्टेबल होता है। लेकिन उन्हें कोई महत्व नहीं दिया जाता है। वे उचित प्रशिक्षण प्राप्त नहीं करते हैं और उन्हें उचित दृष्टिकोण नहीं दिखाया जाता है। हमें उन्हें प्रोफेशनल ट्रेनिंग देनी चाहिए। उन्हें ढंग से ट्रेनिंग नहीं मिलती है और इस वजह से वे अपनी ड्यूटी पूरी क्षमता से नहीं कर पाते हैं।”
भिवंडी से उनके तबादले के बाद के सालों में भी अन्य अफसरों ने इस अभियान को जारी रखा। हालांकि, वह मानते हैं कि अब मोहल्ला कमिटी उतनी मीटिंग्स नहीं करतीं, जितनी उन्हें करनी चहिए।

साल 2015 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ सोशल साइंस एंड ह्यूमैनिटी में प्रकाशित एक स्टडी के मुताबिक, “बाबरी मस्जिद के टूटने के बाद भिवंडी में कोई दंगा नहीं हुआ और इसके बाद यह मोहल्ला कमिटी पूरे देश में ‘भिवंडी एक्सपेरिमेंट’ के नाम से मशहूर हो गई। हालांकि, 90 के दशक के अंत में लोकल मीटिंग्स अनियमित हो गईं और कमिटी के सदस्यों, पुलिस अधिकारियों और निवासियों के बीच दंगों को रोकने के लिए प्रयास कम होने लगे।”
बहरहाल, इस सिस्टम के सकारात्मक प्रभावों को समझकर इसे लागू करना बहुत ज़रूरी है ताकि कुछ समय पहले दिल्ली में जो दंगे हुए, वैसी स्थिति फिर से उत्पन्न न हो।
(इस पुलिसिंग मॉडल की सफलता के बाद, सुरेश खोपडे ने मराठी में एक किताब लिखी, जिसका शीर्षक था, “मुंबई जलाली भिवंडी का नाही,” जिसमें उनके प्रयासों के दस्तावेज हैं। इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है, जिसका शीर्षक है, ‘Why Mumbai Burned…And Bhiwandi Did Not’)