बीसवीं शताब्दी में, देश की स्वाधीनता के लिए बहुत-से आंदोलन हुए, जिनका पूरे देश में असर हुआ और ब्रिटिश सरकार के पांव उखड़ने लगे। महात्मा गाँधी ने इन आंदोलनों को ज़मीनी स्तर पर ले जाने का श्रेय देश की महिलाओं को दिया क्योंकि गाँधी जी के असहयोग आंदोलन ने हर तबके, हर उम्र और हर एक प्रांत की महिला को अपने घर की दहलीज से बाहर निकालकर अंग्रजों के समक्ष खड़ा कर दिया था।
यही वह वक़्त था जब देश में नारी-उत्थान के प्रयास भी एक और पायदान ऊपर चढ़े क्योंकि अब खुद महिलाएं अपने अधिकारों के लिए सामने आ रही थीं। इन महिला स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों ने स्वदेशी के प्रचार से लेकर देश में हरिजन उद्धार पहलों तक, हर कदम पर बेमिसाल भूमिका निभाई। यह महिला स्वतंत्रता सेनानी हीं थीं जिन्होंने दूर-दराज के गांवों के लोगों के मन को भी देश प्रेम और देश भक्ति की भावना से भर दिया था।
आज द बेटर इंडिया आपको ऐसी ही एक महान महिला स्वतंत्रता सेनानी के बारे में बता रहा है। जिनके प्रयासों ने न सिर्फ देश की आज़ादी में योगदान दिया बल्कि व्यापक समाज सुधार में भी उनकी भूमिका सराहनीय है। इन महिला सेनानी का नाम है डॉ. राधाबाई!
दिलचस्प बात यह है कि राधाबाई ने न तो कोई डॉक्टरी की डिग्री हासिल की थी और न ही किसी विषय में पीएचडी की थी। फिर भी लोग उन्हें आदर और सम्मान से डॉ. राधाबाई कहते थे।
साल 1875 में महाराष्ट्र के नागपुर में जन्मी राधाबाई का ब्याह बहुत ही कम उम्र में कर दिया गया था। लेकिन मात्र 9 बरस की उम्र में ही वह विधवा हो गईं थीं। बताया जाता है कि इसके बाद उनका पालन-पोषण उनकी एक पड़ोसिन के घर में हुआ। जिनसे उन्होंने हिंदी बोलना सीखा और साथ ही, दाई का काम करने लगीं।
जैसे-जैसे वक़्त बीता, साल 1918 में राधाबाई को छत्तीसगढ़ के रायपुर (तब मध्यप्रांत का भाग हुआ करता था) में नगरपालिका में दाई की नौकरी मिली। रायपुर पहुँचकर उनके जीवन ने अलग दिशा पकड़ी।
राधाबाई अपने काम में अच्छी तो थी हीं, साथ ही, लोगों के प्रति संवेदनशील और मददगार भी थीं। उनके मन में समाज सेवा की जो भावना थी उसने बहुत से लोगों को प्रभावित किया। साल 1920 में जब गाँधी जी ने रायपुर का दौरा किया तो राधाबाई भी उनके संपर्क में आईं। गाँधी जी से प्रेरित होकर उन्होंने अपने जीवन को देश की आज़ादी के लिए समर्पित करने की ठानी।

अनेकों बार उन्होंने जेल यात्राएं कीं, अंग्रेजों द्वारा दी गईं यातनाएं सहीं लेकिन कभी भी अपने कदम पीछे नहीं हटाए। बल्कि उन्होंने घर-घर जाकर महिलाओं को आज़ादी की इस लड़ाई से जोड़ा। सबसे पहले उन्होंने ‘सत्याग्रही महिलाओं’ का एक समूह बनाया और फिर यह सब महिलाएं मिलकर आंदोलनों के मोर्चे संभालने लगीं। सभी महिलाएं राधाबाई के घर पर इकट्ठी होतीं, सुबह चरखा कातती और फिर प्रभात फेरी निकालतीं थीं।
रायपुर के मठ-मंदिर महिलाओं के लिए प्रशिक्षण स्थल हो गए थे। यहाँ दूसरी महिलाओं को चरखा कातना सिखाया जाता और साथ ही, उन्हें घूंघट छोड़कर आज़ादी के लड़ाई से जुड़ने के लिए प्रेरित किया जाता। राधाबाई के साथ इस काम में बहुत-सी महिलाएं थीं जिनमें केतकी बाई, फुलकुंवार बाई, रूखमणी बाई, पार्वती बाई, रोहिणी बाई परगानिहा एवं जमुना बाई शामिल थीं। ये सब मिलकर गाती थीं – “मेरे चरखे का टूटे न तार – चरखा चालू रहे।” ऐसा करते हुए वे अलग-अलग जगह घूमतीं।
डॉ. राधाबाई ने छुआछूत के खिलाफ भी लम्बा संघर्ष किया, घर-घर जाकर खादी के वस्त्र बेचे और इसके साथ-साथ उन्होंने शराब की दुकाने बंद कराने के लिए भी धरने दिए। धरनों के दौरान इन महिलाओं को काफी यातनाओं का सामना करना पड़ता था। लेकिन जोश भरे भाषणों के साथ ये एक-दूसरे का हौसला बढ़ाती थीं।
सन् 1930 की बात है। कुछ सत्याग्रहियों को अमरावती जेल से रायपुर जेल लाया जा रहा था। डॉ. राधाबाई अपने साथियों को लेकर स्टेशन पहुंचीं। उनके एक हाथ में थी भोजन की थाली और दूसरे में तिरंगा झंडा। अंग्रेज कलेक्टर के आदेश पर लाठीचार्ज हुआ। डॉ. राधाबाई ने लाठियां खाईं लेकिन अपने इरादों से पीछे नहीं हटीं।
साल 1932 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी डॉ. राधाबाई और उनके साथ लगभग 20 सत्याग्रही महिलाओं को गिरफ्तार किया गया। लेकिन कारावास के दिन भी राधाबाई के जज़्बे को नहीं डिगा पाए। वह बार-बार जेल जातीं और फिर छूटने के बाद, सामाजिक गतिविधियों में जुट जातीं।
महिलाओं के साथ अंग्रेजी सरकार के अभद्र व्यवहार की तस्वीर को राधाबाई ने ही जन-जन तक पहुँचाया। उन्होंने महिला सेनानियों की पीड़ा को जनक्रांति में बदल दिया। उनके भाषणों से प्रभावित होकर बहुत से नामी-गिरामी परिवारों की औरतों ने भी बाहर आने की हिम्मत जुटाई।

डॉ. राधाबाई का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम था “वेश्यावृत्ति में फंसी औरतों को मुक्ति दिलाना।” उस समय छत्तीसगढ़ के गाँवों और शहरों में सामंतों के यहाँ वेश्याओं का नाच हुआ करता था, जिसमें ‘देवदासी प्रथा’ और ‘मेड़नी प्रथा’ प्रमुख थी, इसे छत्तीसगढ़ी भाषा में “किसबिन नाचा” कहा जाता था।
“किसबिन नाचा” करने वालों की अलग एक जाति ही बन गई थी। ये लोग अपने ही परिवार की कुँवारी लड़कियों को ‘किसबिन नाचा’ के लिये अर्पित करने लगे थे। डॉ. राधाबाई ने अपने सत्याग्रहियों के साथ मिलकर इस प्रथा का विरोध किया और इस प्रथा को खत्म किया। खरोरा नाम के एक गाँव में इस प्रथा की समाप्ति सबसे पहले हुई थी।
साल 1920 से लेकर 1942 तक देश के हर एक आंदोलन में डॉ. राधाबाई ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उनकी प्रेरणा से अन्य बहुत सी महिलाएं आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बनीं। रायपुर में उनकी लोकप्रियता इतनी हो गई थी कि लोगों ने उन्हें दाई से सीधा डॉक्टर की उपाधि दे दी। जी हाँ, यह जनउपाधि थी जो राधाबाई को उनके समाज सेवा के कार्यों और आज़ादी के लिए उनके योगदान की वजह से मिली थी।
साल 1950 में इस वीरांगना ने दुनिया से विदा ली और जाते-जाते अपने घर को अनाथ-आश्रम के लिए दे गईं। यह डॉ. राधाबाई जैसे सेनानियों के योगदान का ही नतीजा है कि आज हम एक आज़ाद मुल्क में अपनी मर्जी से सांस ले रहे हैं।
लेकिन विडंबना की बात यह है कि आज बहुत प्रयासों के बाद भी हम इस वीरांगना की तस्वीर नहीं ढूंढ पाए। डॉ. राधाबाई की ही तरह और भी बहुत से ऐसे गुमनाम नायक-नायिकाएं हैं, जिनकी तस्वीरें तक उपलब्ध नहीं हैं।
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