मध्य प्रदेश में झाबुआ जिले के छागोला गाँव में रहने वाले 27 वर्षीय हरी सिंह ‘ग्राम समृद्धि टोली’ के सदस्य हैं। इस टोली में 25-30 की संख्या में युवक शामिल हैं। वह कहते हैं, “पहले गाँव में भाईचारा तो था लेकिन गाँव की समस्याओं को लेकर कोई आपसी समझ नहीं थी। कोई विचार-विमर्श नहीं करता था। लेकिन अब हमारे गाँव में हर महीने बैठक होती है और सब मिलकर तय करते हैं कि गाँव के उत्थान के लिए क्या-क्या कदम उठाए जाने चाहिए। गाँव वालों ने मिलकर श्रमदान से दो तालाब बनाए हैं और साथ ही, सैकड़ों पेड़ लगाकर हमने गाँव में एक जंगल, ‘मातावन’ भी उगाया है।”
झाबुआ जिले के ग्रामीण इलाकों में युवाओं में इस तरह के बदलाव लाने का काम किया है 64 वर्षीय महेश शर्मा ने। ‘झाबुआ के गांधी’ के नाम से लोकप्रिय महेश शर्मा साल 1998 में झाबुआ आए थे और फिर यहीं के होकर रह गए। मूल रूप से दतिया जिले के एक गाँव से आने वाले महेश शर्मा बचपन से ही समाज सुधारकों और ऐसे लोगों के बीच पले-बढ़े जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता में अपना योगदान दिया था। वह बताते हैं कि स्कूल में उनके एक शिक्षक थे जो स्वतंत्रता सेनानी रहे थे।
कैसे हुई शुरूआत

उन्होंने बताया, “बचपन से ही, मन पर ऐसे विचारकों का प्रभाव पड़ा और मैं सामाजिक गतिविधियों से ही जुड़ा रहा। 1998 में जब झाबुआ आना हुआ तब झाबुआ और अलीराजपुर दोनों एक ही जिला थे, काफी बड़ा था यह इलाका। यहां पर भील जनजाति के लोगों की जनसंख्या काफी अधिक है। यहां आने से पहले इस जनजाति के लोगों के बारे में काफी भ्रांतियां थीं कि ये लोग अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। इनके रहन-सहन के तरीके बहुत अलग हैं। सरकार का सहयोग नहीं करते। लेकिन जब मैं इन्हीं के बीच रहा तो जाना कि हमारी सोच इनके बारे में बहुत गलत है।”
शर्मा ने सबसे पहले यहां की समस्याएं समझी और फिर लोगों से जुड़ना शुरू किया। वह पारा नामक एक जगह पर रहते थे और वहीं से उन्होंने इन लोगों को एक मंच पर लाना शुरू किया। उन्होंने उनसे पूछा कि समस्याएं क्या हैं तो पता चला कि कोई भी मूलभूत सुविधा उनतक नहीं पहुंच रही है- ना स्वच्छ पानी, ना शिक्षा और ना ही स्वास्थ्य सुविधाएं। आजीविका के लिए पलायन करना पड़ता है, अपने लोगों को छोड़ना पड़ता है। सरकार की योजनाएं बहुत हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर कितना पहुंच रही हैं, इस बात पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।

ग्रामीणों की परेशानियां एक-दूसरे से जुडी हुई थी और शर्मा ने एक समस्या के समाधान से शुरू करते हुए, हर एक परेशानी को हल करने की ठानी। उन्होंने सबसे पहले प्राकृतिक संसाधन जैसे कि जल के संरक्षण पर काम किया। उन्होंने देखा कि ये लोग मेहनतकश हैं और सबसे बड़ी बात, साथ मिलकर काम करने की ताकत है इनमें। उन्होंने अपने स्तर पर पारा के आसपास के कई गांवों के लोगों को तालाब की तकनीक समझाने वाले शिक्षकों से जोड़ा। सबसे पहले गाँव के लोगों ने तालाब की तकनीक को समझा और फिर शुरू हुआ तालाब बनाने का काम।
तालाब को लेकर किया काम
शुरूआती साल में 7-8 तालाब बने और ये तालाब छोटे थे। शर्मा कहते हैं, “हमने तालाब तो बनाए थे लेकिन उनका ग्रामीणों को कृषि में फायदा नहीं था।अब हम एक बैठक में इस पर चर्चा कर रहे थे कि यह तो आपके ज्यादा काम नहीं आयेंगे। तो उन लोगों का जवाब था, ‘कोई बात नहीं, कम से कम हमारे गाँव के जानवर, पशु-पक्षी तो पानी पिएंगे। उनकी प्यास तृप्त होगी और साथ ही, आस-पास के पेड़ों के लिए भी पानी हो जाएगा।’ उनकी इस बात ने मुझे समझाया कि इन लोगों में ‘परमार्थ’ और ‘परोपकार’ का भाव है। जो आपको किसी बड़े शहर में बहुत ही कम मिलेगा।”

इसके बाद महेश शर्मा ने झाबुआ में रहकर ही काम करने की ठानी और यहां के सभी गांवों से जुड़ना शुरू किया। साल 2007 में उन्होंने शिवगंगा संगठन की नींव रखी, जिसका उद्देश्य है ‘विकास का जतन’! उन्होंने ग्राम सशक्तिकरण की पहल की, जिसके ज़रिए गाँव के युवाओं को अपने गाँव के दुखों को समझने और फिर उनका हल ढूंढने के लिए प्रेरित किया जाता है। शर्मा ने इन युवाओं में उनके पूर्वजों यानी भीलों की परम्परा ‘हलमा’ को एक बार फिर से पुनर्जीवित किया। ‘हलमा’ का अर्थ होता है सभी का मिल-जुलकर गाँव के लिए काम करना। परमार्थ के भाव से एक-दूसरे को संकट से उबारना ही हलमा है।
‘संवर्धन से समृद्धि’
गांवों को एक साथ एक मंच पर लाने के लिए शिवगंगा संगठन ने ‘संवर्धन से समृद्धि’ की शुरुआत की। इसके ज़रिए उन्होंने जल, जंगल, ज़मीन, जानवर और जन के लिए काम किया।
जल संवर्धन: इसके तहत उन्होंने गांवों में ग्राम इंजीनियर वर्ग बनाएं, जिनमें ग्रामीणों को जल-संरक्षण की तकनीकों का प्रशिक्षण दिया जाता है। सबसे पहले यह प्रशिक्षण होता है और फिर गाँव के लोग मिलकर अपने गाँव में तालाब और कुआं खोदते हैं, हैंडपम्प और कुआं रिचार्ज करते हैं। जगह-जगह नाले बनाए गए हैं ताकि बारिश के पानी से भूजल स्तर बढ़े। अब तक उन्होंने 70 से अधिक तालाब बनाए हैं और 1 लाख से ज्यादा ट्रेंचेस/नाले बनाए हैं जिनकी सहायता से 400 करोड़ लीटर से भी ज्यादा पानी बचाया जा रहा है।

जंगल संवर्धन: इस पहल के ज़रिए उन्होंने भीलों की ‘मातावन’ लगाने की परम्परा को फिर से अस्तित्व दिया है। उन्होंने हर एक गाँव को प्रेरित किया कि वह अपने गाँव में एक जंगल विकसित करें। इस तरह से अब तक ये ग्रामीण 600 गांवों में 70 हज़ार पौधरोपण कर चुके हैं और यह प्रक्रिया लगातार जारी है।
ज़मीन संवर्धन: ज़मीन को एक बार फिर उपजाऊ और पोषण से भरपूर किया जा सके, इसके लिए किसानों को जैविक खेती से जोड़ा जा रहा है। रसायन के दुष्प्रभावों के बारे में उन्हें जागरूक किया जाता है। जैविक खेती की अलग-अलग विधियों पर गांवों में प्रशिक्षण होता है। हरी सिंह कहते हैं कि उनके गाँव में ज़्यादातर लोगों का मुख्य पेशा खेती है और पिछले 10-12 सालों में उनके यहाँ जैविक खेती करने वालों की संख्या काफी बढ़ी है।

गाँव के युवा हरी सिंह कहते हैं, “हमने पिछले 3-4 साल में गाँव में दो तालाब बनाए और साथ ही, मातावन उगाया है। तालाबों की वजह से अब किसान सिर्फ खरीफ की ही नहीं बल्कि रबी की फसल भी ले पा रहे हैं। हमने किसानों को देसी बीजों से खेती करने के लिए प्रेरित किया है। गाँव की ज़मीन भी पौधारोपण और जैविक खेती होने से पहले से ज्यादा उपजाऊ हो गई है। पहले हमारे गाँव से काफी लोग मजदूरी के लिए बाहर जाते थे लेकिन अब धीरे-धीरे ही सही यह सिलसिला कम होने लगा है। ऐसा नहीं है कि पलायन पूरी तरह से रुक गया, लेकिन इसकी शुरुआत हो चुकी है।”
जानवर संवर्धन: महेश शर्मा जानवरों के संरक्षण पर भी काफी जोर देते हैं। खेती के साथ यदि पशुपालन किया जाए और इन्हें एक दूसरे का पूरक बनाया जाए तो किसान की बाज़ार पर निर्भरता खत्म हो जाती है। गाय-भैंस के गोबर से खाद बनाई जा सकती है और साथ ही, इनके दूध को घर में उपयोग लेने के बाद, बचे हुए को डेरी पर देकर अतिरिक्त आजीविका आती है। इसी तरह, किसान मुर्गी पालन, बकरी पालन भी कर रहे हैं।

जन-संवर्धन: ग्राम विकास तभी संभव है जब गाँव के लोग साथ मिलकर काम करें और इसी भावना को लोगों के दिलों तक पहुंचाने के लिए शिवगंगा प्रयासरत है। उन्होंने 600 गांवों में ‘ग्राम समृद्धि टोली’ बनाई है। इन टोलियों में गाँव के युवाओं को शामिल किया गया है जिनका काम अपने गाँव के विकास की योजना बनाना है और फिर उस पर काम करना। हरी सिंह भी छागोला गाँव की ऐसी ही टोली का हिस्सा है। वह लगभग 18 वर्ष के थे जब उन्हें समृद्धि टोली से जुड़ने का अवसर मिला।
वह कहते हैं, “पिछले कुछ सालों में जो काम हमारे गाँव में हुआ है, वह पहले कभी नहीं हुआ था। अब आलम यह है कि शिवगंगा के किसी प्रतिनिधि को हमारे गाँव में बैठक के लिए नहीं आना पड़ता बल्कि गाँव के लोग खुद बैठक की पहल करते हैं और विचार-विमर्श करके योजना पर काम करते हैं। हमारे गाँव का विकास देखकर मध्य-प्रदेश पर्यटन विभाग की टीम भी गाँव भ्रमण के लिए आई थी। उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में, वे हमारे गाँव को ‘इको टूरिज्म’ के लिए लें।
शोध के लिए आते हैं छात्र

शिवगंगा में झाबुआ के गांवों के अलावा, बाहर से भी युवा शामिल हैं। आईआईटी जैसे उच्च संस्थानों में पढने वाले छात्र यहां पर अपने प्रोजेक्ट्स के लिए आते हैं। आईआईटी रूड़की से पढ़े नितिन धाकड़, ग्रेजुएशन के आखिरी साल में यहां पर इंटर्नशिप के लिए आए थे। उन्होंने बताया कि पढ़ाई के बाद उन्हें दिल्ली में एक अच्छी नौकरी भी मिल गई थी। लेकिन उनका मन झाबुआ में ही अटक गया था। यहां के लोगों के ‘परमार्थ’ भाव ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वह अपनी नौकरी छोड़कर शिवगंगा के साथ काम करने लगे।
नितिन बताते हैं, “सिर्फ मैं ही अकेला नहीं हूं, मेरे जैसे बहुत से छात्र यहां पर आते हैं। ज़मीनी स्तर पर इन लोगों से जुड़ते हैं। मुझे मेरे एक प्रोफेसर से महेश जी के बारे में पता चला। मैं यहां 2015 में दो महीने की इंटर्नशिप के लिए आया था। लेकिन यहां हर दिन आप कुछ न कुछ सीखते हैं। यहां पर मैं, मेरा कुछ नहीं है, बल्कि सब एक-दूसरे के हैं, हम हैं।”
पिछले 4 साल से नितिन लगातार शिवगंगा के साथ काम कर रहे हैं। शिवगंगा ने लगभग 900 ग्राम वाचनालय भी स्थापित कराए हैं जिनमें ज्ञानवर्धक किताबें और पुस्तिकाएं आदि रखवाई गई हैं।

इसके अलावा, झाबुआ में सामाजिक उद्यमिता और कौशल विकास को बढ़ावा देने के लिए एक इन्क्यूबेशन सेंटर की शुरूआत भी की गई है। नितिन बताते हैं कि आईआईटी और टीआईएसएस जैसे संस्थानों की मदद से गांवों के युवाओं को उद्यम के बारे में और फिर उसके अनुरूप कौशल की ट्रेनिंग दी जाती है। जैसे कि बांस को निर्माण कार्य में कैसे उपयोग करें। गाँव के किसानों, युवाओं के साथ-साथ महिलाओं को भी कौशल विकास से जोड़ा गया है। उनमें भी उद्यमिता के गुरों का विकास किया जा रहा है।
शर्मा द्वारा इतने सालों में जो भी विकास कार्य इन गांवों में किए गए, उनका प्रभाव कोरोना लॉकडाउन के इस मुश्किल वक़्त में देखने को मिल रहा है। हरी सिंह कहते हैं कि जैसे ही लॉकडाउन हुआ तो गाँव के जो लोग मजदूरी के लिए बाहर थे, उन्होंने लौटना शुरू किया। ऐसे में, गाँव की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ग्रामीणों ने लेते हुए, लौटने वाले इन लोगों को 14 दिनों के लिए सबसे अलग क्वारंटाइन में रखा। साथ ही, जिले के स्वास्थ्य केंद्र को भी सूचना दी गई ताकि किसी भी तरह की आपातकालीन स्थिति के लिए तैयार रहा जा सके।
इस मुश्किल वक़्त में गाँव के लोग एक-दूसरे का सहारा बन रहे हैं और अपने-अपने गांवों की सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे हैं। इस बात से समझ में आता है कि महेश शर्मा द्वारा किए गए प्रयास रंग लाए हैं। उन्होंने न सिर्फ इन गांवों में सुविधाओं पर काम किया बल्कि यहाँ के सामाजिक ढांचे में सुधार किया ताकि लोगों का नजरिया आत्म-निर्भरता और परमार्थ का हो। महेश शर्मा को उनके कामों के लिए साल 2019 में पद्मश्री से भी नवाज़ा गया था। लेकिन शर्मा के लिए उनका सबसे बड़ा सम्मान यही है कि झाबुआ के गाँव आज समृद्धि की तरफ बढ़ रहे हैं। वह भी बिना किसी और पर निर्भर हुए।

शर्मा बताते हैं, “अपने पारंपरिक साधनों और ज्ञान को सहेजते हुए, हम नवविज्ञान को भी इन गांवों तक पहुंचा रहे हैं। क्योंकि आज के समय के हिसाब से यह बहुत ज़रूरी है कि भारत के गांव भी तकनीक का सही उपयोग करते हुए विकास की राह पर बढ़ें। साथ ही, मेरा उद्देश्य है कि इन वनवासी लोगों की अपनी एक पहचान हो। लोग इन्हें इनके निस्वार्थ भाव और परोपकार के लिए जानें। यदि कोई देखना चाहता है कि बिना किसी पर निर्भर हुए स्वयं कैसे अपना विकास किया जाता है तो वह झाबुआ आए।”
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यदि आप महेश शर्मा जी से संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें 099077 00500 पर कॉल कर सकते हैं।
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