“मृत्यु इस जीवन से अलग नहीं बल्कि इसी का एक हिस्सा है।” अशरफ थमारासेरी के बारे में जब मैं लिखने बैठा तो हरुकी मुराकामी की ये लाइनें मेरे दिमाग में आ गई।
पिछले 20 सालों में अशरफ संयुक्त अरब अमीरात में मरने वाले लगभग 5,000 प्रवासियों के पार्थिव शरीर को दुनिया भर के कई देशों में भेजने में मदद कर चुके हैं। उन्होंने इसी काम के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया और आज जब पूरी दुनिया महामारी के कारण ठहर गई है तब भी उनका काम जारी है।
पद्म श्री (2018) से सम्मानित अशरफ ने द बेटर इंडिया को विस्तार से बताया कि उन्होंने अपना जीवन इस काम में क्यों लगा दिया।
जब मौत का बुलावा आता है :
बेहतर भविष्य की उम्मीद लेकर 1998 में अशरफ अपने परिवार के साथ कोझिकोड से अजमान (यूएई में) चले गए। उन्होंने वहां एक गैराज खोला और उनका काम काफी अच्छा चलने लगा। जीवन अच्छा चल रहा था लेकिन तभी एक घटना ने उनके जीवन का मकसद बदल दिया। उन्होंने गैरेज अपने बहनोई को सौंप दिया और फुल टाइम सोशल वर्कर का काम करने लगे।
वह बताते हैं , “वर्ष 2000 में मैं शारजाह में अपने एक बीमार दोस्त से हॉस्पिटल में मिलने गया था। मैंने देखा कि दो आदमी अस्पताल के बाहर खड़े होकर लगातार रो रहे थे। मुझे लगा कि वे मलयाली हैं और मैंने उनसे पूछा कि क्या हुआ है। उन्होंने बताया कि वे दोनों भाई है, उनके पिता का निधन हो गया है और उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि पिता के शव को उनके गृहनगर कोल्लम कैसे लेकर जाएं। मुझे भी इस प्रक्रिया के बारे में ज्यादा कुछ मालूम नहीं था लेकिन मैंने उन्हें अपनी तरफ से पूरी मदद करने का आश्वासन दिया।”
अशरफ भारतीय दूतावास गए और चार दिनों के भीतर उन्होंने पार्थिव शरीर को वापस केरल भेज दिया। उस घटना के बाद से दिन भर उनके पास फोन पर फोन आने लगे और यह काम उनके जीवन का हिस्सा बन गया।
यूएई के फैक्टरी में काम करने वाले सतीश जॉय अशरफ के इस काम को बेहद करीब से जानते हैं। अशरफ के बारे में उनका कहना है, “जब पूरा परिवार किसी प्रियजन की मौत के बाद शोक में डूबा हो, तो डॉक्यूमेंटेशन और क्लियरेंस जैसी चीजों पर फोकस करना बेहद मुश्किल होता है। ऐसे में अशरफ भाई एक फ़रिश्ते की तरह मदद करते हैं।”
पार्थिव शरीर को किसी देश भेजने से पहले एम्बेल्मिंग सर्टिफिकेट लेना जरूरी होता है, जिस पर बॉडी को हवाई या समुद्री मार्ग द्वारा भेजने की घोषणा की जाती है। इसके लिए शव को एम्बेल्मिंग सेंटर में ले जाना पड़ता है और फिर शव को एक ऐसे एयरटाइट ताबूत में रखा जाता है जिसे खासकर हवा या समुद्री मार्ग के लिए ही डिजाइन किया गया होता है।
कई बार अशरफ ने प्रक्रिया का खर्च भी उठाया है और शव के साथ पैतृक स्थान पर भी गए हैं। वह बताते हैं, “मृत शरीर को एक देश से दूसरे देश भेजने की यह प्रक्रिया काफी महंगी है और कई मजदूर जो अपनी रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे इतना खर्च नहीं उठा सकते। ऐसी स्थिति में मैं पूरा खर्च वहन करता हूं और जरूरत पड़ने पर मैं उनके घर तक भी जाता हूं।”
अशरफ एक घटना को याद करते हुए बताते हैं कि एक बार वह एक शव के साथ ओडिशा आए थे और मृतक के रिश्तेदारों को चार दिनों तक खोजते रहे। अंत में उन्होंने शव के बारे में पुलिस स्टेशन को सूचना दी और यूएई लौटने का फैसला किया। लेकिन एयरपोर्ट जाते समय उन्हें पुलिस स्टेशन से फोन आया कि मृतक के परिजन शव लेने के लिए तैयार हैं और पहले वे डर के कारण शव लेने से नहीं आ रहे थे क्योंकि उनके पास उन्हें भुगतान करने के लिए पैसे नहीं थे।
वह बताते हैं कि, “काश उन्हें ये पहले पता होता कि मैं यह सब मुफ्त में करता हूं।”
2018 में अशरफ ने शवों को तौलने और 200 रुपये प्रति किलो के हिसाब से शुल्क लेने की भारतीय एयरलाइंस की नीति के खिलाफ भारतीय सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। उन्होंने एयरलाइंस द्वारा शुल्क पूरी तरह से माफ किए जाने की गुहार लगाई थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि उनके निरंतर प्रयासों के कारण देश के राष्ट्रीय वाहक एयर इंडिया ने अब शवों के आवागमन के लिए 30,000 रुपये का एक निश्चित शुल्क लागू कर दिया है इस शुल्क में मृत शरीर के वजन से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।
अभिनेत्री श्रीदेवी के पार्थिव शरीर को देश वापस लाने की पूरी प्रक्रिया के पीछे भी अशरफ का ही हाथ था। वह बताते हैं कि, “चूंकि मामला दुबई के सरकारी अभियोजन के पास लंबित था, इसलिए प्रक्रिया पूरी होने में तीन दिन से अधिक समय लग गया। ताबूत को शव वाहन में रखवाने के बाद मैं चला गया क्योंकि मुझे चार अन्य शवों के साथ भी यही प्रक्रिया करनी थी।”
कोरोना के समय में काम करना
कोविड-19 से राहत के लिए यूएई में अशरफ थमारासेरी एक डोनेशन कैम्पेन चला रहे हैं।
कई देशों में लॉकडाउन के साथ अशरफ को तीन गुना फोन कॉल्स आने लगे हैं। कई शवों को अब तक भेज दिया जाना चाहिए था लेकिन वे प्रतिबंध के कारण दूसरे देश नहीं जा सकते हैं, ऐसे समय में मुश्किलें और दुःख और बढ़ जाता है।
अशरफ बताते हैं, “इस हफ्ते मैंने केरल के कन्नूर में एक 10 साल के बच्चे के शव को भेजा था। माता-पिता को शव के साथ यात्रा करने की इजाजत नहीं थी और उन्हें बच्चे का अंतिम संस्कार ऑनलाइन देखना पड़ा। यह वास्तव में काफी कष्टदायक था, लेकिन ऐसी स्थिति में हम कुछ नहीं कर सकते।”
पिछले हफ्ते तीन अप्रवासियों के शवों को एयरपोर्ट पर उतारने से मना कर दिया गया था और उन्हें दिल्ली हवाई अड्डे से यूएई वापस भेज दिया गया था।
अशरफ बताते हैं, “परिवार के सदस्य जो पहले से ही अपने प्रियजनों को खोने के गम में डूबे थे, यह सुनकर टूट गए। मैं पूरे एक हफ्ते तक दूतावास और इमिग्रेशन ऑफिस से जूझता रहा, जब तक कि शव को भारत वापस भेजने के बाद परिवार द्वारा उसे प्राप्त नही किया गया।”
इस तरह के कई मामलों में अशरफ अब सातों दिन चौबीस घंटे काम कर रहे हैं ताकि अप्रवासी भारतीयों को महामारी के संकट से बचाने में मदद मिल सके। उन्होंने जरूरतमंदों के लिए फूड कलेक्शन ड्राइव का भी आयोजन किया है।
मजबूती के उनके स्तंभ
पूरे दिन काम के बाद जो कि सुबह 5 बजे शुरू होता है और कई फोन कॉल और रिक्वेस्ट को सावधानी पूर्वक निपटाने के बाद अशरफ अपने परिवार की मदद के लिए घर लौट आते हैं।
अशरफ की पत्नी सुहारा कहती हैं , “अशरफ एक दिन में लगभग दस शवों को देखते हैं जो एक व्यक्ति को मानसिक रूप से काफी थका देने वाला काम है। इसलिए जब वह घर जाते हैं तो हम उनसे उनके काम के बारे में नहीं पूछते हैं और न ही वह हमारे साथ दु: ख भरी कोई कहानी शेयर करते हैं। हमारे साथ उनका समय सकारात्मकता से भरा होता है और जितना संभव हो हम उस समय को मजेदार बनाने की कोशिश करते हैं।”
सुहारा बताती हैं, “शुरू में मुझे और बच्चों को आश्चर्य होता था कि वह इस तरह का काम क्यों करते हैं। मैं तो बहुत चकित थी क्योंकि उन्होंने गैराज का एक बड़ा हिस्सा दे दिया था और इसका मतलब था कि हमारे पास सिर्फ रहने भर की ही कुछ जगह बची थी। लेकिन कुछ साल बाद जब हमें भारतीय राजदूत और उनके परिवार के साथ भोजन करने का मौका मिला। तब मैंने उनके काम का महत्व समझा और यह जाना कि खाड़ी देश में एनआरआई समुदाय की वह किस तरह मदद कर रहे हैं।”
अशरफ के बच्चे, शफ़ी (22), शेफ़ाना (17), और मोहम्मद अमीन (8) भी अपने पिता की इस लंबी यात्रा में उनके साथ रहे हैं।
अशरफ बताते हैं, ” मैं अपने सबसे बड़े बेटे शफी को कुछ सोशल वर्क राउंड पर ले जाता हूं क्योंकि किसी समय मैं इस काम को नहीं कर पाया तो कोई तो होना चाहिए जो इस विरासत को आगे बढ़ाएगा।
इन वर्षों में अशरफ ने दुबई पुलिस से कई अवार्ड जीतने के साथ ही 2015 में प्रतिष्ठित प्रवासी भारतीय पुरस्कार और किंग्स यूनिवर्सिटी, टेनेसी, यूएसए द्वारा मानद डॉक्टरेट के कई पुरस्कार जीते हैं। केरल सरकार ने उन्हें 2018 में पद्मश्री पुरस्कार के लिए भी नामित किया। फिल्म निर्माता रेशेल शाह कपूर ने भी अशरफ के जीवन पर छह मिनट की डॉक्यूमेंट्री बनायी है जिसका नाम है – ‘द अंडरटेकर!’
लेकिन यह आदमी हमेशा विनम्र रहता है!
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अशरफ बताते हैं, “मैं मानता हूं कि हर किसी को इस दुनिया से शांतिपूर्वक अलविदा होने का हक है, मुझसे जो बन पड़ता है मैं हर संभव मदद करता हूं। बेशक मेरा काम का मुझपर असर पड़ता है क्योंकि मैं भी एक इंसान ही हूँ। लेकिन मृतक के परिवार को उसे अंतिम विदाई देने से पहले शांति से शोक मनाने का मौका देना चाहिए। उन्हें किसी और चीज़ के बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए। इसलिए मैंने इस पेशे में कदम रखा।”
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