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वैश्विक महामारी पार्ट 3: कहाँ से हुई थी क्‍वारंटाइन की शुरुआत?

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महामारियों से गुजरना साक्षात् मौत की सुरंग को पार करने जैसा होता है। हवाओं में तैरते, धूल—मिट्टी में छिपे या पानी में घुले और स्पर्श से जीवनदान पाते सूक्ष्म रोगाणुओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इनकी वजह से बड़े पैमाने पर फैलने वाले रोग जब महामारियों का रूप धते हैं तो गाँव, शहर और कस्बे तो क्या कई बार पूरी सभ्यता की तबाही का कारण बनते हैं।

एथेंस में फैली प्लेग के बारे में आप पिछली कड़ी में पढ़ चुके हैं कि कैसे इस विशाल साम्राज्य को निगल गई थी यह महामारी। ऐसी तबाहियों ने ही इंसानों को रोगों से बचाव की रणनीतियों के मंत्र सौंपे। और तब हमें मिले लॉकडाउन तथा क्वारंटीन जैसे उपाय जो आज भी उतने ही कारगर हैं जितने सदियों पहले थे।

जब-जब इनका पालन सही समय पर और उचित रीति से हुआ, वहां बीमारियों पर जल्‍दी काबू पा लिया गया और जहां-जहां चूक हुई या ढिलाई बरती गई, उन जगहों पर बहुत भयंकर परिणाम भुगतने पड़े। अक्‍टूबर 1918 में इंफ्लुएंज़ा महामारी को न्‍यूज़ीलैंड लाने वाले RMS Niagara समेत छह अन्‍य जहाज़ों को ऑकलैंड तट पहुंचने से पहले क्‍वारंटाइन की शर्त से मुक्‍त न किया जाता तो इस सुदूर देश तक इंफ्लुएंज़ा के जिम्‍मेदार H1N1 वायरस के पहुंचने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

उधर, ऑकलैंड से सामोआ द्वीप के लिए जब टैलून जहाज़ रवाना हुआ तो न्‍यूज़ीलैंड में इंफ्लुएंज़ा पैंडेमिक तेज़ी से फैल रहा था। इस जहाज़ के सवारों के संग यह जानलेवा वायरस पश्चिमी सामोआ की राजधानी आपिया तक पहुंच गया जहां जहाज़ को क्‍वारंटाइन किए बगैर ही तट पर आने की मंजूरी दी गई थी। अगले तीन महीनों में करीब साढ़े सात हज़ार स्‍थानीय लोगों की मौत इंफ्लुएंज़ा से हो गई।

उस समय द्वीप के इस हिस्‍से पर न्‍यूज़ीलैंड का कब्‍जा था जबकि उत्‍तरी सामोआ तब अमरीकी शासन में था और उसके गवर्नर ने कड़ी क्‍वारंटाइन नीति लागू कर दी थी। यहां तक कि पड़ोसी द्वीपों से आवाजाही भी रोक दी गई। गवर्नर नेवी कमांडर पोयेर ने स्‍थानीय लोगों को समुद्रतटों पर निगरानी करने के लिए लगा दिया था ताकि कोई भी गैर-कानूनी तरीके से अंदर न घुस सके। और अगर कोई अमरीका से यहां पहुंच जाता तो उसे कुछ निश्चित समय के लिए फौरन घर बंदी में डाल दिया जाता। उत्‍तरी सामोआ में क्‍वारंटाइन के ये नियम 1920 तक लागू रहे थे और इसका परिणाम यह हुआ कि अमरीकी शासित सामोआ में महामारी से बाल भी बांका नहीं हो पाया था। इसके उलट, द्वीप के पश्चिमी हिस्‍से में मौत ने खूब तबाही मचायी थी। इस घटना के करीब 84 साल बाद, 2002 में न्‍यूज़ीलैंड सरकार ने सामोआ पर टैलून के यात्रियों को उतरने की मंजूरी देने की अपनी भयंकर भूल के लिए माफी मांगी थी!

आपिया के बाद टैलून की अगली मंजिल टोंगा द्वीप था जो इस जहाज़ के जरिए फैल रहे मौत के पैगाम से अनजान था, लिहाज़ा क्‍वारंटाइन के बगैर जहाज़ को इसने तट पर लगने दिया। यह नवंबर 1918 का वाकया है और दिसंबर तक आते-आते इस द्वीप की 8 से 10 फीसदी आबादी महामारी की भेंट चढ़ गई थी।

यह सिलसिला अगली मंजिल नाउरो तक भी बदस्‍तूर जारी रहा। कहते हैं इतिहास में ऐसी दूसरी समुद्री यात्रा की मिसाल नहीं मिलती जिसमें इतनी कम अवधि में इतने ढेर सारे लोग मार डाले हों। लेकिन इस घटना ने महामारी विज्ञान को क्‍वारंटाइन का प्रमाणशुदा नुस्‍खा सौंपा था और आज भी महामारियों से बचाव की रणनीतियां बनाते वक़्त इस उदाहरण को सामने रखा जाता है।

‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ और लॉकडाउन

महाराष्‍ट्र में मार्च 1897 की ज्‍योतिबा यात्रा पर महामारी के चलते लगाए प्रतिबंध की बानगी देखिए। यह समझने के लिए के लिए काफी है कि सवा सौ साल पहले भी ‘सोशल डिस्‍टेन्सिंग’ का पालन करवाने के लिए प्रशासन को ‘लॉकडाउन’ करना पड़ा था– 

History Of Pandemics

अंग्रेज़ी तर्जुमा – 

(General Department Manifesto

Dated 10th March 1897

Regarding ban on Jyotiba Yatra

Number 75 – All the people are hereby intimated that epidemic of bubonic plague and cholera has started in Mumbai, Pune and many other places.  In addition to it due to drought there has been shortage of fodder.  At some places fodder is very expensive and at other places it is not at available.  Due to all these reasons the Shri Kedarling Yatra which is celebrated at Vadi Ratnagiri aka Jyotiba Dongar near Kolhapur on Chaitra Shuddha 15 has been banned and no one will be allowed to go there.  

As per orders of the Shriman Maharaj Chhatrapati Saheb Sarakar Karveer
M. Kuvarji
Civil Government Karveer
) 

कहाँ से हुई थी क्‍वारंटाइन की शुरुआत? 

संक्रमण रोकने के लिए इन्‍हें फैलाने वाले जीवाणुओं, विषाणुओं या दूसरे रोगाणुओं की जीवन-लीला को विराम देना होता है और यह तभी मुमकिन है जब उन्‍हें शिकार न मिलें। एक से दूसरे शरीर पर कूदने वाले, दूसरे से तीसरे-चौथे बदन को धराशायी करते हुए एक-एक कर कितने ही कस्‍बों-शहरों को अपना शिकार बना चुकने के बाद ये अदृश्‍य ‘दरिंदे’ भौगोलिक सीमाओं को ठेंगा दिखाकर परेदस जा पहुंचते हैं।

पहले जमाने में जब देशों के बीच आदान-प्रदान सिर्फ समुद्री मार्गों तक सीमित था, तो संक्रमणों को फैलने से रोकने के लिए विदेश यात्रा से लौटे जहाज़ को नाविकों में किसी रोग के फैलने या आशंका होने पर बंदरगाह से दूर रोक दिया जाता था और वे चालीस दिनों तक इसी तरह खड़े रहते थे। ऐसे रोगी जहाजियों को लेकर लौटने वाले जहाज़ों पर पीला झंडा लहराने की परंपरा भी थी। चालीस (लैटिन – क्‍वाद्रागिंता) दिन की इसी अलगाव की अवधि ने ‘क्‍वारंटाइन’ की प्रथा शुरु की। जहाज़ के कप्‍तान की यह प्रमुख जिम्‍मेदारी थी कि वह पोत पर लंगर डालने से पहले अपने साथ लौटने वाले नाविकों की सेहत का खुलासा करे और ऐसा न करना जुर्म माना जाता था। 

भौगोलिक सीमाबंदी से स्‍वस्‍थ आबादी को बचाना

इतिहास में ऐसे कई वाकयात मिलते हैं जब महामारियों पर अंकुश लगाने के लिए संक्रमितों को स्‍वस्‍थ लोगों से अलग-थलग रखा जाता था। बेशक, मध्‍यकालीन यूरोप में स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों को बैक्‍टीरिया या वायरस की जानकारी नहीं थी लेकिन वे इतना समझते थे कि रोगी को शेष स्‍वस्‍थ आबादी से अलग रखकर, या कारोबारी के जरिए आने वाली वस्‍तुओं को नहीं छूने से रोगों से बचा जा सकता है। यही उस दौर में ‘सोशल डिस्‍टेंसिंग’ और ‘आइसोलेशन’ की बुनियाद थी। हालांकि जब रोग तेजी से फैलने लगते और लोग अफरातफरी में शहर छोड़कर भागने लगा करते थे तो ऐसे में महामारियों का प्रसार और तेजी से होता था।

शायद मौजूदा सरकारों ने ‘लॉकडाउन’ इसी को देखकर लागू किया है और तभी अपनी-अपनी भौगोलिक सीमाओं को सील कर दिया है। इस संदर्भ में अमरीकी राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्‍प का ट्वीट काफी कुछ कहता है जो उन्‍होंने कोविड-19 फैलने के मद्देनज़र 23 मार्च को पोस्‍ट किया किया – ”दिस इज़ वाय वी नीड बॉर्डर्स।’’

मध्‍यकाल में, जिस नगर-कस्‍बे में महामारी फैलती थी वहां से लोगों को बाहर आने-जाने की मनाही होती थी, और दूसरी जगह से भी लोग वहां नहीं आ-जा सकते थे। अगर बीमारियां जानवरों से फैलने वाली होती तो उन्‍हें बाड़ों में सीमित रखा जाता ताकि उनके जरिए रोग न फैले। इस सामाजिक दूरी, संक्रमण और संक्रमित से बचकर रहने की सलाह सदियों से दी जाती रही है और मामला जब गंभीर हो जाता है तो ‘लॉकडाउन’ करना पड़ता है। जैसे कोविड-19 महामारी के दौरान किया गया है, दुनिया के देशों ने अपनी-अपनी सीमाएं आवागमन के लिए बंद कर दी हैं, ट्रैवल वीज़ा रद्द हो गए हैं, हर तरह की यात्रा के साधन भी रोक दिए गए हैं ताकि कोरोनावायरस के प्रसार को रोका जा सके। बहुत जरूरी है ऐसे कदम उठाना वरना ढीठ रोगाणुओं से मुक्ति मिलने में कई बार सालों लग जाते हैं, जैसे मध्‍यकाल में यूरोप में फैलने वाली महामारियों में होता आया था। चौदहवीं सदी में जो प्‍लेग इस महाद्वीप में दाखिल हुई थी उसने एक या दो नहीं बल्कि अगले चार साल तक लोगों को हलकान किए रखा था। इस महामारी ने अफ्रीका और यूरेशिया में लोगों की नींद उड़ाकर रख दी थी और लाखों लोगों को अपना ग्रास बनाने के बाद पिंड छोड़ा था।

कैसी थी यह बीमारी जिसने मौत का तांडव मचाया था ? और कहां से आयी थी वह महामारी जिसे ‘ब्‍लैक डैथ’ कहा गया ? जानने के लिए बने रहिए हमारे साथ।
अगली / अंतिम कड़ी में हम आपको ले चलेंगे मध्‍यकाल के यूरोप में जो आज के आधुनिक, विकसित, स्‍वच्‍छ, सुविधाओं से लैस यूरोप से बहुत फर्क था। उस दौर का यूरोपीय समाज न तो उतना उन्‍नत था और न ही साधन-संपन्‍न जितने आज के यूरोपीय समाज हैं जो संक्रमण का ‘कर्व फ्लैट’ करने के लिए सोशल डिस्‍टेंसिंग, क्‍वारंटाइन, सोशल डिस्‍टेंसिंग और आइसोलेशन जैसे कितने ही मंत्रों का कड़ाई से पालन अपने-अपने बाशिंदों द्वारा करा रहे हैं। 

यह भी पढ़ें :
वैश्विक महामारी पार्ट 1: मानव सभ्यता के इतिहास की पहली इंफ्लुएंज़ा महामारी!
वैश्विक महामारी पार्ट 2: एपिडमिक बनाम पैंडेमिक, स्‍पेनिश फ्लू का वर्ल्‍ड टूर!

संपादन – मानबी कटोच

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