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उंगलियाँ गंवाने पर भी नहीं छोडा मोची का काम; साहस और स्वाभिमान की मिसाल है दिल्ली के दिनेश दास!

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‘द बेटर इंडिया’ में हमारी कोशिश रही है कि हम ऐसी कहानियां आपके सामने लायें जिनसे आप भारत के बेहतर पहलु को भी देख पायें। भारत के इसी बेहतर पहलु का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, वो गुमनाम नायक जो कभी सामने नहीं आ पाते पर उनकी कहानियां यदि कही जाएँ तो वे हम सभी के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन सकते है।

रूरी नहीं कि ये नायक कोई ऐसा शख्स हो जिसने कोई बहुत बड़ा काम किया हो। कई बार कई छोटी छोटी बातें हमे ज़िन्दगी के मायने सिखा जाती है। आज के हमारे नायक भी हमे, अपने जीवन से ऐसी ही एक सीख दे रहे है। सीख – कभी न हारने की, सीख – हर कठिनाई को चुनौती के रूप में स्वीकार करने की और सीख – आगे बढ़ते रहने की!

हम बात कर रहे है नई दिल्ली के रहनेवाले 39 वर्षीय दिनेश दास की। दिनेश पेशे से मोची है और दिल्ली के द्वारका इलाके के एक सड़क के किनारे बैठकर पिछले बीस सालो से अपना काम करते आ रहे है। चाहे होली हो या दिवाली, चाहे ईद हो या क्रिसमस, सड़क के इसी धुल भरे किनारे पर दिनेश आपको धुप, बारिश, सर्दी या गर्मी में अपना काम करते नज़र आ जायेंगे। पर जो नज़र नहीं आएँगी वो है उनकी उँगलियाँ।

करीब 15 साल पहले हुए उस हादसे को याद करके दिनेश आज भी सिहर उठते है जिसमे उन्हें अपनी सारी उँगलियाँ गवानी पड़ी थी।

The cobbler at work.

दिनेश बिहार में स्थित अपने ससुराल गए थे। वहां उन्हें सादा बुखार ही हुआ था जब वे उस डॉक्टर के पास गए, जिसने उन्हें गलत दवाईयां दे दी। दवाईयों के दुष्परिणाम से दिनेश के हाथो में छालें पड़ गए और जल्द ही सारी उंगलियाँ छालो से भर गयी। दिनेश को बताया गया कि यदि ये छाले इसी तरह फैलते रहे तो उन्हें अपने हाथ गंवाने पड़ सकते है। इस समय दिनेश ने एक दुसरे डॉक्टर की मदद ली जिन्होंने उन्हें अपना हाथ बचाने के लिए उनकी उंगलियाँ काटने की सलाह दी।

इसके बाद दिनेश के पंजो से वो उँगलियाँ  जा चुकी थी जिनसे वे लोगो के जुते, चप्पल ठीक कर करके अपने परिवार की रोज़ी रोटी कमाते थे।

दिनेश का परिवार 1990 में बिहार के रामगंज गाँव से रोज़गार की तलाश में दिल्ली आया था। उनके पिता भी एक मोची थे और उन्होंने शुरू से दिनेश को इस काम के सारे गुर सिखा दिए थे। 10 साल की उम्र से अपने परिवार की मदद करने के लिए दिनेश यह काम कर रहा है। फिर अचानक उँगलियाँ न होने की वजह से वह इस काम को कैसे छोड़ देता।

“मुझे अपने परिवार का पेट पालना था,” ये कहते हुए दिनेश फिर किसी चप्पल का फीता ठीक करने में लग जाते है। दिनेश को एक ही काम आता था और उंगलियां हो या न हो उन्होंने उस काम को नहीं छोड़ा।

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दिनेश अपने काम के स्थान पर रोज़ सुबह ठीक 9 बजे पहुँच जाते है। सुबह से लेके शाम तक काम कर वे किसी तरह महीने का 15000 रूपये कमा लेते है जिनसे उनका घर चलता है। रात के 9 बजे तक काम करने के बाद अपने सारे औज़ार समेट कर एक प्लास्टिक के सफ़ेद थैले को कंधे पर उठाये दिनेश घर की ओर चल देते है। यहाँ से उनके घर तक पहुँचने में करीब आधा घंटा लगता है पर वे रिक्शा नहीं लेते।

“रिक्शा 50 रुपया लेता है। 50 जाने का और 50 आने का। दिन के 100 रूपये मैं जाने आने में तो नहीं खर्च सकता न? ये पैसे उन दिनों में काम आते है जब रोज़ जितनी कमाई नहीं होती। दिल्ली में एक लीटर मलाई वाले दूध की कीमत 49 रूपये है। इन पैसो से मेरे बच्चो के लिए एक दिन का दूध आ जाता है, ” दिनेश चलते चलते बताते है।

एक कठिन जीवन होने के बावजूद दिनेश अपने अतीत को याद करके अफ़सोस करते नज़र नहीं आते। उनका मानना है कि उन्होंने सड़क के किनारे अपनी उस छोटी सी दुनियां में बैठे बैठे ही ऐसे कई हादसे देखे है, जिनके सामने उनकी परेशानी बहुत छोटी नज़र आती है।

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उन्होंने अपनी आँखों के सामने एक मारुती कार को एक दुर्घटना में हवा में उछलते हुए देखा है, जिसके बाद उस कार में बैठे परिवार के आधे लोगो की वही पर मृत्यु हो गयी थी। उन्होंने दिन दहाड़े चोरी और लूटपाट की वारदातें होते देखि है। उन्होंने लोगो को भटकते हुए और रास्ता खोते हुए देखा है। पर उनसे जितना हो सकता है वो अपनी इसी छोटी सी दुनियां से लोगो के लिए करते है। वे भटके हुए मुसाफिरों को रास्ता बताते है। वे अपने सामने हुए वारदातों के बारे में पुलिस की मदद भी करते है। इसके अलावा वे धुल भरे इन सडको के किनारे लगे राहत की कुछ साँसे देते उन पेड़ो के बारे में भी बता सकते है कि उन्हें कब और किसने बोया। और ये इसलिए क्यूंकि उन्हें बोने वाला और कोई नहीं, खुद दिनेश है।

“वो एक इमली का पेड़ है। इमली का पेड़ लगभग 18 मीटर की ऊँचाई तक बढ़ता है और करीब 100 साल तक जीता है। अगर किसी सरकारी एजेंसी या लालची बिल्डर की नज़र इस जगह पर न पड़ी तो देखना ये मेरे जाने के बाद भी यहीं होगा,” दिनेश ने अपने पीछे वाले खाली ज़मीन पर हाल ही में लगाए एक पौधे को दिखाते हुए कहा।

और अगर दिनेश की बात सच हुई तो किसे पता चलेगा कि इस पेड़ का बीज एक बिना उँगलियों वाले मोची ने बोया था, जिसने अपनी ज़िन्दगी में कभी हार नहीं मानी!

यदि आप दिनेश की किसी भी प्रकार से मदद करना चाहते है तो हमे  editorial@thebetterindia.com पर लिखकर ज़रूर बताएं।

मूल लेख – मालविका वयव्हारे 

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें contact@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter (@thebetterindia) पर संपर्क करे।

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