‘उम्मीद की कविता’ श्रृंखला में आज प्रस्तुत है केदारनाथ सिंह की कवितायेँ। मूलतः बलिया उत्तर प्रदेश के केदार जी ने जीवन का एक बड़ा हिस्सा बनारस और दिल्ली में बिताया है। उनकी कविताओं में गाँव और शहर के बीच का संवाद है जिसके बीच हमारी जिंदगी का सत्य अस्तित्व पाता है। एक कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन के व्यापक क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है और विशेषकर केदारनाथ जी के पास क्रांति एक बच्चे के पहले कदम की तरह शुरू होती है-नाज़ुक और खूबसूरत। केदार जी की कवितायेँ हमारे देश की जमीन की कवितायेँ हैं जहाँ परम्परा-आधुनिकता, सुख-दुःख, गाँव-शहर, खेत और बाजार एक दूसरे से बतियाते नज़र आते हैं। जीवन की तमाम चुनौतियों में उम्मीद की खोज करती प्रस्तुत हैं केदारनाथ जी की दो कवितायेँ-
कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों काले-काले कौए
हरा पत्ता कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को ज़रा भी न हो पीड़ा
रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना
अगर कभी लाल चींटियाँ दिखाई पड़ें
तो समझना आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज़
तो जान लेना बुरे दिन आने वाले हैं
मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना
कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ़ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज़ पर भरोसा करना
मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम
और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ़ कर देना
ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज़ की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे
हाथ
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.
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