उत्तराखंड के बांदासरी (Bandasari) गाँव में निर्मला देवी पवार और अन्य 10 महिलाएं, आटा, दाल, चना, बुरांश का जूस और अन्य कुछ उत्पादों की बिक्री कर रही हैं। ये महिलाएं सबसे पहले खेतों से उपज को इकट्ठा करती हैं, इन्हें साफ करके अलग-अलग चीजें बनाती हैं। फिर, इन्हें पैक करके यात्रियों को बेचती हैं। 50 वर्षीया निर्मला कहती हैं कि किसी-किसी दिन उनकी बिक्री इतनी अच्छी होती है कि उन्हें 2500 रुपये तक का मुनाफा हो जाता है।
निर्मला जैसी ही यहाँ लगभग 100 और महिलाएं हैं, जो इस तरह से अच्छी कमाई कर रही हैं। ये सभी महिलाएं उत्तराखंड वन विभाग में, भद्रीगाड रेंज के अंतर्गत आने वाले पाँच गांवों से हैं। इन गांवों की महिलाओं की आजीविका बढ़ाने का श्रेय जाता है, यहाँ की फॉरेस्ट रेंज अधिकारी मेधावी कीर्ति को। 30 वर्षीया मेधावी ने महिला सशक्तिकरण के लिए ‘धात्री‘ (माँ) नामक पहल की शुरूआत की है। धात्री के जरिए, इन ग्रामीण महिलाओं की आय लगभग 10 गुना बढ़ गयी है। यह पहल, मई 2020 में शुरू की गयी थी। कुछ महिलाओं को स्थानीय तौर पर उपलब्ध सामग्री इकट्ठा करके, उनसे जैविक प्राकृतिक और रसायन मुक्त उत्पाद बनाने के लिए रखा गया था।
समझा महिलाओं की परेशानियों को:
द बेटर इंडिया से बात करते हुए मेधावी ने बताया, “मैं बहुत छोटी थी जब मैंने अपने पिता को खो दिया और सारी जिम्मेदारियां माँ पर आ गयी। मैंने अपनी माँ को दिन-रात मेहनत करते हुए देखा है ताकि मैं अच्छे से पढ़ाई करूँ और उनकी ही मेहनत के कारण, आज मैं एक वन रेंज अधिकारी हूँ।”
वह आगे कहती हैं कि महिलाओं की परेशानियां, उनकी मेहनत और उनके त्याग को वह अच्छे से समझती हैं। इसलिए, वह जानती थी कि महिलाओं को आगे बढ़ाना बहुत ज्यादा जरूरी है। मेधावी बताती हैं, “सर्विस जॉइन करने के चार महीने बाद, मैंने प्रभागीय वनाधिकारी कहकशां नसीम को अपना बताया और उन्होंने सहमति दे दी। फिर, हमने महिलाओं को अलग-अलग कौशल की ट्रेनिंग देना शुरू किया।”
सबसे पहले 25 महिलाओं ने हल्दी साबुन, सौंदर्य प्रसाधन, अगरबत्ती, औषधीय पौधों के तेल, शैंपू और यहीं पर मिलने वाले कच्चे माल से दूसरी चीज़ें बनाने की ट्रेनिंग ली।
मेधावी के मुताबिक, “सभी कृषि उपज जैसे- राजमा, दाल या अनाज, जैविक और रसायनमुक्त हैं। क्योंकि, बहुत से किसान यहां रासायनिक खाद और कीटनाशक नहीं खरीद सकते हैं। अक्टूबर महीने में, ‘धात्री’ नाम से एक स्टोर खोला गया और यहाँ पर 100 से ज्यादा उत्पाद रखे गए।” उनकी इस पहल को बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। ग्रामीण महिलाओं ने दिवाली के सीजन में हजारों रुपयों की कमाई की।
इन महिलाओं में एक शालिनी भंडारी भी हैं। वह बताती हैं, “मैंने गाय के गोबर से बनी अगरबत्ती, मूर्तियाँ और अन्य चीजें बेचीं। पहले बिक्री कम थी और मैं प्रति माह लगभग 8 हजार रुपये कमा पाती थी। लेकिन, अब मेरा व्यवसाय एक लाख रुपये का है।” 21 वर्षीया शालिनी कहती हैं कि यह काम अच्छा है क्योंकि, महिलाओं को काम के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ता है। उन्होंने आगे बताया, “बहुत सी औरतों की शादी कम उम्र में हो जाती है और वे घर के कामों में व्यस्त हो जाती हैं। ऐसे में, वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के लिए, मौके तलाशने में असमर्थ होती हैं। कई बार तो पुरुष भी, महिलाओं को काम करने से मना कर देते हैं। इसलिए, यह पहल महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने में काफी मददगार है।”
एक गाँव से कई गाँवों तक:
धात्री की सफलता जल्द ही अन्य गाँवों में फैल गई और कई महिलाएं, इस पहल का हिस्सा बनने के लिए मेधावी से संपर्क करने लगीं। मेधावी को बहुत सी महिलाओं ने संपर्क करके कहा कि वे भी ट्रेनिंग लेना चाहती हैं। सभी गाँव की महिलाओं द्वारा बनाए गए उत्पाद ‘धात्री’ ब्रांड के अंतर्गत ही बेचे जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में, वन विभाग का काम मार्केटिंग और एक सप्लाई चेन बनाने तक सीमित है।
वह कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि इस तरह के बिजनेस मॉडल, पहले से मौजूद नहीं हैं। उन्होंने बताया “लेकिन सामूहिक और पेशेवर पैमाने पर कभी प्रयोग नहीं किया गया। महिलाएं छोटे स्तर पर, बुरांश का जूस, जैम और अन्य खाद्य उत्पाद बेचती हैं। लेकिन, ये स्वच्छता से नहीं बने होते हैं और उन्हें अपने उत्पाद को पेशेवर तरीकों से मार्केट करना नहीं आता है। लेकिन, महिलाओं का कौशल बढ़ने से काम का स्तर बढ़ा और फिर कमाई भी बढ़ी है।”
वह कहती हैं कि इन गांवों में पुरुष भी धात्री का हिस्सा बन गए हैं और महिलाओं को कच्चे माल की खरीद में मदद कर रहे हैं और उत्पादन में जरूरी सहायता प्रदान कर रहे हैं। मेधावी का कहना है कि नए जोश और आत्मविश्वास के बावजूद, शुरुआत में महिलाओं को इस पहल में शामिल करना मुश्किल था। उन्होंने कहा “वे इस बारे में आशंकित थी कि यह पहल कितनी सफल होगी। उन्हें यह भी संदेह था कि पर्यटक और ग्रामीण उनके उत्पादों को खरीदना चाहेंगे! लेकिन हमारी शुरुआती सफलता ने इन आशंकाओं को दूर कर दिया।”
महिलाएं अब पत्तों से इको फ्रेंडली प्लेट बना रही हैं। साथ ही, फूलों की पंखुड़ियों और पत्तियों से प्राकृतिक डाई बनाने की ट्रेनिंग ले रही हैं। मेधावी कहती हैं, “हमने ब्रांड का नाम टिकरी रखा है क्योंकि, यह उस गाँव का नाम है, जहाँ से काम शुरू हुआ।”
मेधावी के प्रयासों के कारण अब गाँव के सभी लोग उन्हें ‘रेंजर दीदी’ के नाम से बुलाते हैं। द बेटर इंडिया इस महिला वन अधिकारी के जज्बे को सलाम करता है।
मूल लेख: हिमांशु नित्नावरे
संपादन- जी एन झा
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