कोविड-19 से जूझ रहे मरीजों के लिए दवाइयां, ऑक्सीजन और बेड की कमी, किसी से छिपी नहीं है। एक तरफ स्वास्थ्य संसाधनों के आभाव में लोगों की जान जा रही है, तो दूसरी तरफ बहुत से लोग कोविड-19 के लिए जरूरी दवाइयों, ऑक्सीजन सिलिंडर आदि की कालाबाजारी जैसे गलत काम भी कर रहे हैं। लेकिन वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो अपनी हद से आगे जाकर लोगों की मदद करने में जुटे हैं। एक छोटी-सी नेक पहल भी सैकड़ों-हजारों लोगों की मदद कर सकती है। इस कहानी में, हम आपको ऐसी ही एक पहल के बारे में बता रहे हैं, जो अब जन-अभियान का रूप ले चुकी है।
हम बात कर रहे हैं, मुंबई में रहने वाले एक डॉक्टर दंपति द्वारा शुरू की गयी पहल- ‘मेड्स फॉर मोर‘ की। इसके अंतर्गत, बहुत से लोग अपने घर में बची हुई दवाइयों को, जरूरतमंदों की मदद के लिए दान कर रहे हैं। पिछले एक महीने में इस तरह से सैकड़ों लोगों ने कोविड-19 से जूझ रहे बहुत से मरीजों की मदद की है। खासकर, ऐसे लोगों की, जो ये महंगी दवाइयां नहीं खरीद सकते हैं। ये दवाइयां, सभी मरीजों को मुफ्त में दी जा रही हैं।
इस पहल को शुरू किया है, डॉ. मार्कस राणे और उनकी पत्नी, डॉ. रायना राणे ने। द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, “हमारे घर में काम करनेवाले एक स्टाफ के बेटे को कोविड-19 हो गया था। वे हमें उसकी रिपोर्ट्स दिखाने आए और पूछा कि क्या किया जाए। हमें लगा कि हमें किसी भी तरह से उनकी मदद करनी चाहिए, क्योंकि इस समय दवाइयां, इंजेक्शन सभी कुछ बहुत महंगा है।”
एक व्हाट्सएप मैसेज से शुरू हुआ जन अभियान
बाजार से दवाइयां खरीदने की बजाय, राणे दंपति ने कुछ अलग ही तरीका निकाला। डॉ. मार्कस क्लीनिकल डॉक्टर हैं और डॉ. रायना एक फ़िज़ियोथेरेपिस्ट हैं। डॉ. मार्कस पहले ही अपनी सोसाइटी में तीन-चार कोविड मरीजों का इलाज कर रहे थे और ये मरीज आइसोलेशन से बाहर आ चुके थे। इसलिए, डॉ. मार्कस ने अपनी सोसाइटी के व्हाट्सऐप ग्रुप पर मैसेज डाला कि अगर किसीके पास दवाइयां बची हुई हैं और अब उनके किसी काम की नहीं हैं, तो वे उन्हें ये दवाइयां दे सकते हैं। लेकिन दवाइयां वही होनी चाहिए, जिनके इस्तेमाल करने की आखिरी तारीख निकली न हो।
राणे दंपति ने सोचा भी नहीं था कि उनके इस एक मैसेज पर उन्हें इतनी अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। देखते ही देखते, उन्होंने सिर्फ दस दिन में अलग-अलग सोसाइटी से लगभग 20 किलो दवाइयां इकट्ठा की। सबसे अच्छी बात यह है कि किसी ने भी ‘एक्सपायर्ड’ या अन्य किसी तरह से खराब हो चुकी दवाइयां नहीं दी थीं। डॉ. मार्कस आगे बताते हैं, “कोविड-19 की पहली लहर के दौरान, मैंने नगर निगम के साथ स्लम में लोगों का चेकअप करने के लिए वॉलंटियर किया था। इस दौरान मैंने देखा कि जमीनी स्तर पर लोगों को कितनी ज्यादा मदद की जरूरत है। इस महामारी ने, न सिर्फ ज़िंदगी का नुकसान किया है बल्कि बहुत से लोगों का रोजगार भी छीना है। अगस्त 2020 में मुझे भी कोविड हो गया और मुझे स्वस्थ होने में चार-पांच महीने लग गए थे।”
इसलिए जैसे ही उन्हें मौका मिला, उन्होंने लोगों की मदद करने की ठानी। वह बताते हैं, “हमारी बिल्डिंग के बहुत से लोगों ने मदद की और साथ ही, लोगों ने इस अभियान को दूसरी सोसाइटी में रहने वाले लोगों के साथ भी साझा किया। इसलिए बहुत से लोगों ने हमसे संपर्क करना शुरू किया। हमने सभी से कहा कि वे अपने बिल्डिंग के कॉमन एरिया में एक डिब्बे में दवाइयां डालें और इन डिब्बों को हमने इकट्ठा करना शुरू किया।”
देखते ही देखते, मुंबई की सैकड़ों बिल्डिंगों से उन्हें दवाइयां मिलने लगी। बहुत से लोगों ने उन्हें दवाइयां डोनेट की, तो बहुत से लोग उनके साथ वॉलंटियर की तरह काम कर रहे हैं। ‘मेड्स फॉर मोर‘ के साथ शुरुआत से काम कर रही दीपिका गोधा बताती हैं, “जब यह अभियान शुरू हुआ, तो काफी छोटे स्तर पर हम काम कर रहे थे। पहले हम कुछ लोग, हर एक बिल्डिंग में जाकर दवाइयों के डिब्बे इकट्ठा करते थे। लेकिन अब मुंबई में हमारे कई सारे सेंटर हैं। दूसरे शहरों, जैसे दिल्ली, अहमदाबाद, गाजियाबाद, वड़ोदरा, बेंगलुरु जैसे शहरों में भी हमारी टीम काम कर रही है।”
अलग-अलग संगठनों के साथ मिलकर काम
इन दवाइयों को लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने अलग-अलग सामाजिक संगठनों के साथ टाईअप किया है। वे ‘गूँज’, ‘डॉक्टर फॉर यू’, ‘रोटरी मुंबई क्वींस नेक्लेस’, ‘ऑस्कर फाउंडेशन’, ‘रत्ना निधि चैरिटेबल ट्रस्ट’, ‘कर्नाटक हेल्थ प्रमोशन ट्रस्ट’ जैसे संगठनों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया, “सबसे पहले दवाइयां, बिल्डिंग्स से इकट्ठा की जाती हैं। इसके बाद, इन्हें इन सामाजिक संगठनों को पहुँचाया जाता है। ये संगठन दवाइयों को अलग-अलग करके और जरूरत के हिसाब से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर पहुंचाते हैं। इन संगठनों के अलावा, हम उन वॉलंटियर्स के भी शुक्रगुजार हैं, जो इन दवाइयों को इकट्ठा करके अलग-अलग जगहों पर पहुंचाते हैं। ये दवाइयां मरीजों को बिल्कुल मुफ्त में दी जा रही हैं।”
सबसे अच्छी बात यह है कि उनका यह अभियान, दूसरे शहरों तक पहुँच चुका है। लेकिन फिर भी किसी भी तरह की फंडिंग की कोई जरूरत नहीं पड़ी है। क्योंकि सभी काम, लोग मिल-जुलकर और अपनी जिम्मेदारी के साथ कर रहे हैं। अब तक लगभग दस शहरों में उनकी टीम बन चुकी है और हजारों की संख्या में लोगों की मदद हो चुकी है।
सिर्फ मुंबई से ही, अब तक वह लगभग 300 किलो दवाइयां इकट्ठा कर चुके हैं। उनके साथ काम कर रहे ऑस्कर फाउंडेशन के फाउंडर, अशोक राठोड़ कहते हैं, “हम अपनी फाउंडेशन के अंतर्गत, लोगों के लिए एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र चला रहे हैं। इस केंद्र पर, डॉ. राणे वॉलंटियर करते हैं और हमें दवाइयों की मदद भी दे रहे हैं। उनकी मदद से लगभग आठ किलो दवाइयां हमें मिली हैं। पिछले एक महीने में, हम उनकी दवाइयों से 100 से ज्यादा मरीजों की मदद कर चुके हैं। यह बहुत ही अच्छा अभियान है, क्योंकि इससे बायोमेडिकल वेस्ट पर्यावरण में जाने से बच रहा है और जरूरतमंदों की मदद हो रही है।”
वहीं, दीपिका बताती हैं कि कोविड-19 के मरीजों के लिए काम आनेवाली दवाइयों के अलावा, अब लोग डायबिटीज, हाइपरटेंशन आदि से संबंधित दवाइयां भी डोनेट कर रहे हैं। उन्होंने अपनी एक वेबसाइट भी शुरू की है, जिसपर डोनर्स रजिस्टर कर सकते हैं और उनके पास जो दवाइयां हैं, उनकी लिस्ट डाल सकते हैं। मेड्स फॉर मोर की टीम ने भी उन चीजों की लिस्ट बनाई है, जो वे ले रहे हैं, जैसे पल्स ऑक्सीमीटर, ऑक्सीजन मास्क, थर्मामीटर आदि। हालांकि, फिलहाल वे रेमेडिसिविर या टॉइलिजुमब (Tocilizumab) नहीं ले रहे हैं। क्योंकि इन्हें खास निर्देशों पर ही दिया जाता है।
यक़ीनन, यह जन अभियान काबिल-ए-तारीफ है। डॉ. मार्कस कहते हैं कि यह अभियान एक बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे नेकी का एक छोटा-सा कदम भी बड़ा बदलाव ला सकता है। अगर आप इस अभियान के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें।
संपादन- जी एन झा
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