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बिश्नोई, जिन्होंने सलमान ख़ान के ख़िलाफ़ 20 साल लंबी लड़ाई लड़ी!

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बहुचर्चित काला हिरण शिकार मामले में फिल्म अभिनेता सलमान ख़ान को जोधपुर कोर्ट ने दोषी करार दिया हैं.  इसके साथ तब्बू, सैफ, नीलम कोठारी और सोनाली बेंद्रेको बरी कर दिया गया है. यह मामला 1998 का है जिसमें सलमान ख़ान समेत इन बॉलीवुड कलाकारों पर शिकार का आरोप लगा था. इस मामले को इतना आगे बढ़ाने के पीछे वजह है ‘बिश्नोई समाज’, जो सलमान ख़ान को सजा दिलवाने के लिए 20 साल से लड़ रहा था. आइए जानते हैं कौन है बिश्नोई समाज के लोग और एक रसूकदार फिल्म अभिनेता के ख़िलाफ़ इतनी लम्बी लड़ाई इन्होने क्यूँ लड़ी?

बिश्नोई समाज जोधपुर के पास पश्चिमी थार रेगिस्तान से आता है और इसे प्रकृति के प्रति प्रेम के लिए जाना जाता है. बिश्नोई समाज में जानवर को भगवान तुल्य मान जाता है और इसके लिए वह अपनी जान देने के लिए भी तैयार रहते हैं.

यह समाज प्रकृति के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले लोगों को शहीद का दर्जा भी देता है. इस समाज के कई ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने जानवरों को बचाने के लिए अपनी जान भी गंवाई है.

1485 में गुरु जम्भेश्वर भगवान ने इस समाज की स्थापना की थी.

जम्भेश्वर भगवान्

इन्हें भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता था. कहा जाता है कि जम्भेश्वर एक क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे. पर अपने साथियों की तरह शिकार करने के बजाये उन्हें प्रकृति की रक्षा करने में आनद आता था. वे घंटो जंगल के जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों से बाते करते.

जब वे 34 साल के थे, तब एक बार सम्रथाल की मरुभूमि पर बैठे-बैठे ध्यान करते हुए उन्हें अपने भीतर हरियाली दिखाई दी. उन्होंने तुरंत अपने अनुयायियों को बुला भेजा और उन्हें जीवन जीने के 29 नियम दिए, जिनमे से सबसे महत्वपूर्ण नियम है ‘प्राण दया’ याने की सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव. क्यूंकि उनके अनुयायियों का जीवन इन 29 नियमों पर आधारित था, इसलिए उन्हें बिश्नोई (बीस – 20 + नोई – 9) बुलाया जाने लगा.

आज इस समाज के 10 लाख से भी ज्यादा अनुयायी हैं और 525 से भी ज्यादा समय से ये बिश्नोई इन नियमो का पालन करते हुए पर्यावरण की रक्षा कर रहे है.

इस संप्रदाय के लोग जात-पात में विश्वास नहीं करते हैं. इसलिए हिन्दू-मुसलमान दोनों ही जाति के लोग इनको स्वीकार करते हैं.

काले हिरण को ये समुदाय अपने परिवार का हिस्सा ही मानता है.

rतस्वीर साभार – गंगाधरन मेनन

यहां तक कि इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरण का बच्चा या हिरण दिखता है तो वे उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसकी देखभाल करते हैं. इस समुदाय की महिलाएं जैसे अपने बच्चे को दूध पिलाती हैं वैसे ही हिरण के बच्चे को अपना दूध पिलाती हैं.

चिपको आंदोलन में भी विश्नोई समाज का अहम योगदान है रहा है.

चिपको आन्दोलन तस्वीर साभार – विकिपीडिया

ये बिश्नोई समाज ही था जिसने पेड़ों को बचाने के लिए अपने जान की आहुती दी थी. जोधपुर के राजा द्वारा पेड़ों के काटने के फैसले के बाद एक बड़े पैमाने पर बिश्नोई समाज की महिलाएं पेड़ो से चिपक गई थी और उन्हें काटने नहीं दिया. इसी के तहत पेड़ों को बचाने के लिए बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने अपनी जान भी दे दी, जिनमे 111 महिलाएं थीं.

उस वक्त बिश्नोयियों ने ये नारा दिया था, “सर साठे रूंख रहे तो भी सस्तो जान.”

इसका मतलब था, “अगर सिर कटाकर भी पेड़ बच जाएं तो भी सस्ता है.”

जब रियासत के लोग पेड़ काटने के लिए आए तो जोधपुर के खेजड़ली और आस-पास के लोगों ने विरोध किया. उस वक्त बिश्नोई समाज की अमृता देवी ने पहल की और पेड़ के बदले खुद को पेश कर दिया.

इन्हीं बलिदानियों की याद में हर साल खेजड़ली में मेला आयोजित किया जाता है और लोग अपने पुरखों की क़ुर्बानी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. ये आयोजन न केवल अपने संकल्प को दोहराने के लिए है बल्कि नई पीढ़ी को वन्य जीवों की रक्षा और वृक्षों की हिफाजत की प्रेरणा देने का काम करता है.

हालाँकि बिश्नोई समाज की सोच में एक बड़ा बदलाव तब आया जब उन्होंने शिकारियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए शांति की जगह लाठियों का सहारा लेने की ठानी. बिश्नोई युवाओं ने टाइगर फाॅर्स नामक एक संगठन की शुरुआत की जो केवल लाठी और ढेर सारी हिम्मत के सहारे इन जानवरों के ऊपर अत्याचार करने वालो से भिड़ जाते है, फिर चाहे वो सलमान ख़ान ही क्यूँ न हो.

करीब 1000 बिश्नोई युवाओं का ये दल 20 साल पहले उस वक्त भी सक्रीय हो गया था, जब सलमान और उनके साथियों ने एक काले हिरन को मार गिराया. इन युवाओं ने उनका पीछा किया तथा वन्य विभाग को उन्हें सौंप दिया. इसके ख़िलाफ़ मुकदमा भी बिश्नोई समाज ने ही दर्ज कराया था. और आखिर 20 साल लम्बी लडाई लड़ने के बाद उन्हें इन्साफ मिल ही गया!

सोचिये! अगर हम में से हर कोई पर्यावरण के प्रति इतना सजग हो जाये तो ये धरती एक बार फिर स्वर्ग बन सकती हैं !

 

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