विदेशी राज के अधीन एक देश, 300 मिलियन लोग, जो केवल स्वतंत्रता चाहते थे और एक टीम, जो अपने आज़ाद देश के लिए खेलना चाहती थी।
वह टीम जिसने देश के लिए कई पुरुस्कार जीते लेकिन हर बार जीत के बाद यूनियन जैक को लहराते देखा। उनका बस एक सपना था कि उनकी जीत के बाद उनका राष्ट्रगान गाया जाये।
यह कहानी है, अभिनेता अक्षय कुमार की आने वाली फिल्म ‘गोल्ड’ की। फिल्म का टीज़र रिलीज़ हो चूका है और फिल्म 15 अगस्त 2018 को सिनेमाघरों में रिलीज़ होगी। इस फिल्म के ट्रेलर में आपको देशभक्ति और टीम भावना को दर्शाता है, जो साल 1948 में टीम इंडिया ने महसूस की होगी।
अक्षय कुमार द्वारा निभाई गई तपन दास की भूमिका भारतीय हॉकी के पूर्व कप्तान किशन लाल के व्यक्तित्व से प्रेरित है। शायद बहुत ही कम लोग किशन लाल के बारे में जानते होंगें।
आज हम आपको बताते हैं उस महान खिलाड़ी के जीवन के कुछ पहलु, जो यह फिल्म देखने से पहले यक़ीनन लोगों को जानने चाहिए।
बचपन

हालाँकि, साल 1948 में आज़ाद भारत की हॉकी टीम का नेतृत्व करने वाले और उन्हें उनके पहले ‘गोल्ड’ मेंडल की तरफ ले जाने वाले, किशन लाल को हमेशा से खेल में दिलचस्पी नहीं थी। 2 फरवरी 1917 को मध्यप्रदेश के मऊ में जन्में किशन लाल को बचपन से पोलो खेलना पसंद था। उन्होंने 14 वर्ष की उम्र में हॉकी खेलना शुरू किया।
हॉकी के मैदान का सफर

16 साल की उम्र में, हॉकी खेलना शुरू करने के केवल दो साल बाद, किशन लाल ने माउ हीरोज़, माउ ग्रीन वाल्स का प्रतिनिधित्व किया और बाद में इंदौर में कल्याणमल मिल्स के लिए खेला। 1937 में, भगवंत क्लब हॉकी टीम के कप्तान एमएन जुत्शी ने उनकी प्रतिभा देखी और उन्हें टिकमगढ़ में भगवंत कप के लिए खेलने का मौका मिला।
1941 में किशन लाल बीबी और सीआई रेलवे (वर्तमान में पश्चिमी रेलवे के रूप में जाना जाता है) में शामिल हो गए- जिस टीम ने बाद में 1948 के लंदन ओलंपिक में जीत हासिल की।
अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बनने का सफर

फोटो स्त्रोत
वर्ष 1947 तक, हॉकी के मैदान पर किशन लाल की प्रतिभा को प्रतिष्ठित लोगों द्वारा पहचाना जा चूका था। जिस वर्ष भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिली, किशन लाल को भारतीय हॉकी टीम के कप्तान ध्यान चंद के सहायक अध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने पूर्वी एशिया के दौरे में भारतीय राष्ट्रीय टीम के लिए खेला। उसके अगले वर्ष, किशन लाल को हॉकी टीम का कप्तान नियुक्त किया गया था।
1948 लंदन ओलंपिक्स

द्वितीय विश्व युद्ध केवल तीन साल पहले खत्म हुआ था, और भारत ने ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की थी। एक विभाजित और नवनिर्मित राष्ट्र से आने वाली भारतीय राष्ट्रीय हॉकी टीम के लिए ओलंपिक में प्रतिस्पर्धा करने की ज़िम्मेदारी निभाना आसान नहीं था। हालांकि, किशन लाल और टीम का विदेशी भूमि पर तिरंगा लहराते हुए देखने की चाह ने उन्हें जीत के लिए प्रेरित किया।
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1948 लंदन ओलंपिक में खेलने वाली टीम में मुंबई के आठ खिलाड़ी और लेस्ली क्लॉडियस व बलबीर सिंह जैसे बेहतरीन खिलाड़ी थे, जिनका नेतृत्व किशन लाल ने किया था। उन्होंने फाइनल तक पहुंचने के लिए ऑस्ट्रिया, अर्जेंटीना, स्पेन और हॉलैंड को हराया। यह पहली बार था कि भारतीय टीम ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों – ग्रेट ब्रिटेन की टीम का सामना किया।
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किशन लाल- एक आदर्श
भारतीय हॉकी इतिहास में किशन लाल को लोकप्रिय रूप से ‘दादा’ के नाम से जाना जाता था। किशन लाल के बारे में एक बार विक्टोरिया क्रॉस और परम विश्व सेवा पदक प्राप्तकर्ता गियान सिंह ने कहा, “कई बार, मुझे लगता है कि वह स्कोर करेंगे, लेकिन वह गेंद को अंदर की ओर या सेंटर-फॉरवर्ड में पास कर खेल खत्म करते हैं।”
देश का हीरो- पद्मश्री किशन लाल

क्लबों से लेकर ओलंपिक्स तक उन्होंने भारतीय हॉकी टीम का नेतृत्व किया लेकिन हॉकी के खेल के लिए अपनी प्रतिभा को नहीं खोया। इस खेल में उनके योगदान के लिए, उन्हें साल 1966 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वेपल्ली राधाकृष्णन द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
अंतिम यात्रा

22 जून 1980 को किशन लाल ने तमिलनाडु में मद्रास (चेन्नई) में अपनी आखिरी सांस ली। वे वहां मुरुगप्पा गोल्ड कप हॉकी टूर्नामेंट में मौजूद थे और उस दिन के दूसरे चरण के फाइनल में उन्हें दूरदर्शन कवरेज के लिए एक विशेषज्ञ कमेंटेटर के रूप में कमेंट्री करनी थी।
किशन लाल का अंतिम संस्कार मुंबई में सायन क्रेमेटोरियम में हुआ था। यक़ीनन, वे देश के दिग्गज खिलाडियों में से एक थे जिनकी मृत्यु का शोक पुरे देश ने मनाया।
( संपादन – मानबी कटोच )
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