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शतरंज की वह महिला खिलाड़ी, जिसने पुरुषों को चेस में हराकर बनाई महिलाओं की जगह!

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रोहिणी खादिलकर शतरंज की दुनिया का वह नाम है, जो चेस खिलाड़ियों के लिए और ख़ासकर लडकियों के लिए एक प्रेरणा है। मात्र 13 साल की उम्र में राष्ट्रीय महिला चेस चैंपियन बनने वाली रोहिणी को वुमन इंटरनेशनल मास्टर होने का भी ख़िताब प्राप्त है।

साल 1963 में जन्मीं रोहिणी के पिता ‘नवकाल’ नामक एक अख़बार चलाते थे और बाद में उन्होंने एक संध्या-अख़बार ‘संध्याकाल’ भी शुरू किया। रोहिणी के अलावा उनकी दोनों बहनें, जयश्री और वासंती भी चेस खेलती थीं और वे भी इस क्षेत्र में काफी सफल रहीं। हालांकि, रोहिणी ने जो मुकाम हासिल किया, उसे शायद ही कोई भारतीय महिला शतरंज में हासिल कर पाई हो।

जब रोहिणी ने खेलना शुरू किया था तब महिलाओं का इस खेल में कोई दबदबा नहीं था। साल 1976 में रोहिणी वह पहली भारतीय महिला चेस खिलाड़ी थीं, जिन्होंने भारतीय पुरुष चैंपियनशिप में प्रतिस्पर्धा की।

पुरुष प्रतियोगिता में उनकी भागीदारी ने काफी सवाल उठाये, जिसके कारण उच्च न्यायालय में अपील भी हुई।

चैंपियनशिप प्रतियोगिता के दौरान रोहिणी खादिलकर (लाल रंग के कोट में)

ऐसे में विश्व शतरंज संघ के अध्यक्ष मैक्स यूवे ने इस पर फैसला किया और कहा कि महिलाओं को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है। रोहिणी ने तीन राज्यों के चैंपियन – गुजरात के गौरंग मेहता, महाराष्ट्र के अब्दुल जब्बार और पश्चिम बंगाल के ए. के. घोष को प्रतियोगिता में हराया था।

हालांकि, यह सफ़र उनके लिए आसन नही था। द हिन्दू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, रोहिणी ने बताया, “जब मैंने पुरुषों के खिलाफ अच्छा प्रदर्शन करना शुरू किया, तो उन्होंने मुझे हराने के लिए सबकुछ किया। वे सिगरेट पीकर मेरे चेहरे पर धुंआ उड़ाते।”

लेकिन कोई भी मुश्किल रोहिणी का रास्ता न रोक पाई। उन्होंने पांच बार भारतीय महिला चैंपियनशिप और दो बार एशियाई महिला चैम्पियनशिप जीती है। उन्होंने 56 बार शतरंज में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए विदेशों की यात्रा की है। साल 1980 में उन्हें उनकी उपलब्धियों के लिए अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया।

साल 1993 में रोहिणी ने शतरंज को अलविदा कह दिया और प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया। अपना डिप्लोमा पूरा करने के बाद रोहिणी महाराष्ट्र में शाम के अख़बार की पहली महिला संपादक बन गईं। अब वे ‘नवकाल’ की सहायक संपादक हैं और साल 1998 से ‘संध्याकाल’ की भी संपादक रही हैं।

संपादन – मानबी कटोच


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