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पेरिन बेन कैप्टेन: दादाभाई नौरोजी की पोती, जिन्होंने आजीवन देश की सेवा की!

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भारतीय स्वतंत्रता के लिए बहुत से लोगों ने अपना जीवन समर्पित किया था। यदि कभी बैठकर अतीत के पन्नों को खंगाला जाये तो आपको ऐसी बहुत सी भूली-बिसरी कहानियां मिलेंगी, जिनके बारे में हमारे इतिहासकार शायद लिखना भूल गये, ख़ासकर महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में।

चंद महिला स्वतंत्रता सेनानिओं के अलावा आपने शायद ही किसी के बारे में ज्यादा जाना व पढ़ा हो।

ऐसी ही कहानी है दादाभाई नौरोजी की पोती पेरिन बेन कैप्टेन की, जो शायद इतिहास की स्मृतियों से कहीं खो सी गयी है। पर आज द बेटर इंडिया पर हम आपको रूबरू करायेंगे भारत की इस बेटी से, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाई थी!

12 अक्टूबर 1888 को गुजरात के कच्छ जिले के मांडवी में जन्मीं पेरिन बेन, दादाभाई नौरोजी के सबसे बड़े बेटे अर्देशिर की सबसे बड़ी बेटी थीं। उनके पिता एक डॉक्टर थे। बहुत कम उम्र में ही पेरिन ने अपने पिता को खो दिया था।

साल 1893 में, जब वे महज पांच साल की थी तो उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। घर में हमेशा से पढ़ाई-लिखाई के माहौल के चलते पेरिन का झुकाव भी शिक्षा की तरफ़ था। उनकी शुरूआती पढ़ाई बॉम्बे (अब मुंबई) से हुई। इसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए फ्रांस चली गयी।

पेरिस की सोह्बन न्युवेल यूनिवर्सिटी से उन्होंने फ्रेंच भाषा में अपनी डिग्री पूरी की। पेरिस में रहते समय वे भिकाजी कामा के सम्पर्क में आयीं।

भिकाजी ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और वे उनके साथ उनकी गतिविधियों में शामिल होने लगीं।

भिकाजी कामा और सावरकर

यहीं से पेरिन की एक स्वतंत्रता सेनानी बनने की शुरुआत हुई। बताया जाता है कि जब विनायक दामोदर सावरकर को लन्दन में ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था तो उन्हें छुड़वाने में पेरिन बेन ने अहम भूमिका निभाई थी। इसके बाद उन्होंने साल 1910 में सावरकर और भिकाजी के साथ ब्रुसेल्स में मिस्र की राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लिया था।

वे पेरिस में भी विभिन्न संगठनों से जुड़ी हुई थीं, जिनमें से एक पॉलिश इ-माइग्रे था। इनके साथ मिलकर उन्होंने रूस में ज़ारिस्ट शासन के खिलाफ़ विरोध किया।

साल 1911 में वे भारत लौटीं। यहाँ वापिस आने के बाद उन्हें महात्मा गाँधी से मिलने का मौका मिला। गाँधी जी के आदर्शों से प्रभावित पेरिन ने अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। वे गाँधी जी के साथ मिलकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ़ गतिविधियाँ करने लगीं।

इस दौरान उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। लेकिन वे पीछे नहीं हटीं। साल 1920 में उन्होंने स्वदेशी अभियान का समर्थन किया और उन्होंने खादी पहनना शुरू कर दिया। और 1921 में उन्होंने गांधीवादी आदर्शों पर आधारित औरतों के अभियान, राष्ट्रीय स्त्री सभा के गठन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

साल 1925 में पेरिन ने धुनजीशा एस. कैप्टेन से विवाह किया जो कि पेशे से एक वकील थे। शादी के बाद भी वे राजनितिक गतिविधियों में सक्रीय रहीं। 1930 में वे बॉम्बे प्रांतीय कांग्रेस कमिटी की अध्यक्ष पद के लिए चुनी जाने वाली पहली महिला बनी।

उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किये गये जन असहयोग आंदोलन में भाग लिया और जेल भी गयीं। गाँधी सेवा सेना के गठन के बाद उन्हें इसकी महासचिव बनाया गया। वे साल 1958 में अपनी मृत्यु तक इस पद पर रहीं। उन्होंने हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के लिए भी काम किया।

जब भारत सरकार ने 1954 में पद्म नागरिक पुरस्कारों की शुरुआत की तो पद्म श्री के लिए पेरिन बेन का नाम पुरस्कार विजेताओं की पहली सूची में शामिल किया गया था।

पेरिन बेन लगातार गांधीजी के साथ समाज सुधार के लिए कार्य करती रहीं। उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश की सेवा की।

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संपादन – मानबी कटोच


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