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यथार्थ के कवि निराला की कविता और एक युवा का संगीत; शायद यही है इस महान कवि को असली श्रद्धांजलि!

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“वह आता–
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता

चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!”

ये पंक्तियाँ हैं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्द कविता ‘भिक्षुक’ की। भारत-वर्ष में सड़क के किनारे भीख़ मांगते बच्चे हर दिन का दृश्य है! परन्तु इस कविता को पढ़ते- पढ़ते, आप स्वयं आत्मचिंतन में पड़ जायेंगे कि कैसे आपने हर दिन आपके सामने आये इन बच्चों की लाचारगी की अवहेलना की? कैसे, आप वह कभी नहीं देख पाए, जो निराला ने देख लिया, महसूस किया, और अपनी पंक्तियों से आपके अंतर्मन तक उन बच्चों की अवस्था को सहजता से पहुंचा भी दिया!

शायद इसीलिए धर्मवीर भारती ने एक स्मरण लेख में निराला की तुलना पृथ्वी पर गंगा उतार कर लाने वाले भगीरथ से की थी। उन्होंने लिखा है, “भगीरथ अपने पूर्वजों के लिए गंगा लेकर आए थे; निराला अपनी उत्तर-पीढ़ी के लिए!”

स्त्रोत: कहवाघर

निराला का लेखन लगभग साल 1920 के आस-पास शुरू हुआ। वे बंगाली भाषा में लिखते थे। रामकृष्ण परमहंस, रविन्द्रनाथ टैगोर और स्वामी विवेकानन्द का उनपर बहुत प्रभाव था।

अपनी पत्नी मनोहरा देवी के कहने पर उन्होंने हिंदी सीखी और फिर शुरू हुआ उनके हिंदी लेखन सफ़र।

उन्होंने कोलकाता से प्रकाशित, ‘समन्वय’ और ‘मतवाला’ का सम्पादन किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका ‘सुधा’ से जुड़े रहे। साल 1942 से उन्होंने इलाहबाद में स्वतंत्र लेखन और अनुवाद शुरू किया।

उनके विद्रोही स्वभाव की झलक उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से दिखने लगी!

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर, की निकलो फिर,
गंगा-जल-धारा!
गृह-गृह की पार्वती!
पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती
उर-उर की बनो आरती!–
भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा!–
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा!

हिंदी साहित्य में मुक्तछंद को पहचान दिलाने का श्रेय निराला को ही जाता है। उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को महत्व दिया।

“वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर……

……… चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर…….

….. एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”

निराला ने हिंदी कविता को वह मशाल थमाई, जो आज तक उसके हाथों में जल रही है। उन्होंने हिंदी के विष को पिया और उसे बदले में अमृत का वरदान दिया।

रामविलास शर्मा के अनुसार, 1923 में जब कलकत्ता से ‘मतवाला’ का प्रकाशन हुआ, उस समय निराला ने उसके मुख्य पृष्ठ के लिए दो पंक्तियां लिखी थीं,

“अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं, जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला!”

शर्मा आगे लिखते हैं, “निराला ने सोचा था, ‘मतवाला ऐसा पत्र होगा जिसमें जीवन, मृत्यु, अमृत और विष और राग और विराग-संसार के इस सनातन द्वंद्व पर रचनाएं प्रकाशित होंगीं। किंतु न ‘मतवाला’ इन पंक्तियों को सार्थक करता था, न हिंदी का कोई और पत्र। इन पंक्तियों के योग्य थी केवल निराला की कविता, जिसमें एक ओर राग-रंजित धरती है-

‘रंग गई पग-पग धन्य धरा,’ तो दूसरी ओर विराग का अंधकारमय आकाश है- ‘है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार।’ इसलिए वे निराला की कविताओं में एक तरफ आनंद का अमृत तो दूसरी तरफ वेदना का विष होने की बात करते हैं।”

इसे हिन्दी साहित्य संसार की विडंबना ही कह लीजिये कि किसी भी लेखक या कवि को उनके चुनिन्दा कामों को पढ़कर स्वीकार या नकार दिया जाता है। निराला के बारे में भी यह बात भुला दी जाती है कि उन्होंने कविता के अलावा बहुत कुछ लिखा है- कहानी, उपन्यास, आत्मकथात्मक गद्य, निबंध आदि।

निराला ने गद्य को जीवन संग्राम की भाषा कहा था। उनकी ‘अलका, ‘चतुरी चमार’ या ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ जैसी रचनाएं साबित करती हैं कि उन्होंने हमारे समाज और यहाँ होने वाले सामाजिक भेदभाव को न केवल समझा बल्कि उसे नजरंदाज करने की बजाय, उस पर दृढ़ता से लिखा।

उनकी विचारधारा को ठीक से समझने के लिए उनकी कविताओं के साथ उनके गद्य को भी पढ़ना ज़रुरी है। निराला के लेखों, संपादकीय टिप्पणियों और उपन्यासों को पढ़े बगैर जाति-व्यवस्था, किसान आंदोलन, स्त्रियों की दशा आदि पर उनके विचारों और पक्ष को ठीक से नहीं समझा जा सकता।

वास्तव में आधुनिक साहित्य के जितने प्रगतिशील मूल्य हैं, उन सबके प्रति निराला पूरी तरह से सचेत और जुड़े हुए थे। यदि हम उनके लेखन को पूर्ण रूप से पढ़ें, तो हमें एहसास होगा कि उन्होंने अलग-अलग मूल्यों पर गाँधी, नेहरु और यहाँ तक कि टैगोर से भी असहमति जताई है। शायद, यह बस निराला के ही बस की बात थी!

News Track/Istampgallery.com

उनकी एक कविता की पंक्ति है,

“मेरे ही अविकसित राग से

विकसित होगा बंधु दिगंत

अभी न होगा मेरा अंत!”

बेशक, निराला ने जो हिंदी साहित्य को दिया है, उसे पढ़े बिना हिंदी साहित्य को समझना मुमकिन नहीं।

जीवन के अंतिम वर्षों में एक मानसिक रोग, स्किज़ोफ्रेनिया से ग्रस्त होने के बाद, उन्हें रांची के सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ साईकेट्री में भर्ती करवाया गया। 15 अक्टूबर 1961 को 62 साल की उम्र में निराला ने इस दुनिया से विदा ली।

स्त्रोत: कहवाघर

जिन मुद्दों पर बड़े-बड़े महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के क्लासरूम में आज बहस छिड़ती है, उन्हीं मुद्दों को आज से न जाने कितने दशक पहले ही निराला ने समाज के सामने रख दिया था। पर आज की युवा पीढ़ी में विरले ही रह गए हैं, जिन्होंने निराला को पढ़ा है।

इन्हीं विरलों में शामिल है एक हरप्रीत सिंह, जो अपने संगीत के माध्यम से निराला और उनके जैसे कवियों से आज के लोगों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।

हरप्रीत इन कवियों की कविताओं को खुद संगीतबद्ध करते हैं और फिर उन्हें गाते भी हैं। हरप्रीत हिंदी की इन बेहतरीन कविताओं के लिए आज वही कर रहें हैं जो कभी जगजीत सिंह ने उर्दू शायरी के लिए किया था।

हरप्रीत सिंह (फेसबुक)

साल 2015 में आई दिबाकर बनर्जी की फिल्म ‘तितली’ का प्रमोशनल गाना ‘कुत्ते’ में अपनी आवाज देने वाले हरप्रीत की ज़िन्दगी भी संघर्षों में बीती है। कम उम्र में ही अपने पिता को खोना और उसके बाद आय का कोई स्थिर साधन नहीं था, हरप्रीत ने बहुत सी मुश्किलों और चुनौतियों का सामना किया लेकिन उन्हें सफलता मिली निराला की प्रसिद्द कविता ‘बादल राग’ के दम पर।

गायिकी का जूनून रखने वाले हरप्रीत बताते हैं,

“मैंने कभी भी इन कविताओं को नहीं पढ़ा था, यहां तक ​​कि स्कूल में भी नहीं। मेरी एक दोस्त चाहती थी कि मैं सावन के बारे में कुछ लिखूं और गाऊं। जब मैं कुछ सोच नहीं पाया तो उसने मुझे कुछ कविताएँ पढ़ने के लिए दी। निराला की ‘बादल राग’ उनमें से एक थी। जब मैंने इसे पढ़ा, तो मुझे लगा जैसे किसी ने भी इस सुंदर मौसम पर इससे बेहतर कुछ भी नहीं लिखा है। मैंने पूरा दिन बस यही कविता पढ़ी। आखिरकार, जब मैंने अपना गिटार उठाया, तो अपने आप संगीत बन गया।”

बस यहीं से शुरू हुआ, ऐसे कवियों की कविताओं को संगीतबद्ध करने का सिलसिला।

हरप्रीत की आवाज़ में सुनिए निराला की ‘बादल राग’

हमें उम्मीद है कि आज की पीढ़ी हमारे साहित्य की धरोहर को इसी तरह संजोय रखेगी, जैसे हरप्रीत ने निराला को रखा है!

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