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इस दिवाली करें बदलाव की शुरुआत, हेल्दी लाइफस्टाइल के लिए गिफ्ट करें ये ख़ास तोहफे!

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क महीने पहले से ही घरों में दिवाली की साफ़-सफाई होने लगती है और साथ ही, लिस्ट तैयार होने लगती है नाते-रिश्तेदारों को क्या तोहफे भिजवाने हैं। सबसे ज़्यादा इसी बात की चिंता होती है कि किसको क्या दें और अगर किसी को कुछ पसंद नहीं आया तो?

इसलिए, द बेटर इंडिया ने इस बार कार्निवल के ज़रिए कुछ ख़ास दिवाली गिफ्ट हैंपर तैयार किए हैं। ये गिफ्ट हैंपर एकदम अलग तो हैं ही, साथ ही इको-फ्रेंडली और बजट फ्रेंडली भी हैं। इन गिफ्ट हैंपर्स को खरीदते वक़्त आपको आत्म-संतुष्टि भी होगी क्योंकि आपकी खरीददारी से इन प्रोडक्ट्स को तैयार करने वाले ग्रामीण समुदायों की आय में इज़ाफा होगा।

अलग-अलग संगठनों से आने वाले यह सभी प्रोडक्ट्स गरीब तबके से आने वाले लोग, ख़ासकर कि महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे हैं। इन प्रोडक्ट्स को बनाने में किसी भी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं होता, बल्कि सभी प्रोडक्ट्स के लिए प्रकृति से प्राप्त होने वाले तत्व इस्तेमाल होते हैं।

1. ऑल नेचुरल पर्सनल केयर गिफ्ट हैंपर

अपनी और अपनों की त्वचा का ध्यान हम सभी को रखना चाहिए और इसके लिए ज़रूरी है कि हम प्राकृतिक और केमिकल-फ्री प्रोडक्ट्स इस्तेमाल करें। इसलिए पर्सनल केयर प्रोडक्ट्स से तैयार यह हैंपर बहुत ही अच्छा विकल्प है अपने दोस्तों और करीबी लोगों को गिफ्ट करने का।

‘माउंटेन हर्ब’ के ये सभी प्रोडक्ट्स बिल्कुल ऑर्गेनिक, प्राकृतिक और हैंडमेड हैं। आपके पास दो तरह के गिफ्ट हैंपर खरीदने का विकल्प है- एक मीडियम और एक लार्ज।

मीडियम गिफ्ट हैंपर में आपको 4 साबुन, एक हैंड-वॉश और एक डिश-वॉश मिलेगा, तो लार्ज हैंपर में इन प्रोडक्ट्स के साथ-साथ आपको बॉडी-वॉश, हेयर-वॉश और एक बॉडी-ब्रश भी है। मीडियम गिफ्ट हैंपर खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें। लार्ज हैंपर खरीदने के लिए यहाँ क्लिक कर सकते हैं!

 

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2. अपनी सेहत को लेकर सजग रहने वालों के लिए है यह ग्रेनुला हैंपर

आज के समय में बहुत ज़रूरी है कि हम अपने खाने-पीने की चीज़ें बहुत ध्यान से चुनें। अपनी डाइट में प्राकृतिक और पोषण से भरपूर चीज़ें शामिल करें जैसे कि ओट्स, ड्राई फ्रूट्स, नट्स, सीड्स आदि। इसलिए कॉकोसुत्रा का यह ग्रेनुला पैक एक बेहतर विकल्प है दिवाली पर गिफ्ट करने के लिए।

इस पैक के साथ आप अपने दोस्तों को हेल्दी लाइफस्टाइल की शुरुआत करने के लिए प्रेरित करें। इस पैक में आपको ग्रेनुला के अलग-अलग पांच पैक मिलेंगे। खरीदने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

 

3. स्किनकेयर हैंपर

 

खास तौर पर त्वचा और बालों को ध्यान में रखकर तैयार किये गये इस गिफ्ट हैंपर में त्वचा की देखभाल के लिए सीरम, एक फेस-वॉश, एक हेयर सीरम, शैम्पू और एक एक्टिवेटिड चारकोल स्क्रब आपको मिलेगा।

नेचुरल वाइब्स नामक संगठन ने इन सभी प्रोडक्ट्स को आयुर्वेदिक तत्वों जैसे टी ट्री ऑइल, नीम, एलोवेरा, बादाम का तेल, आमला और भृंगराज आदि से बनाया गया है। यह संगठन पौधारोपण और पौधों के संरक्षण पर ख़ास जोर देता है क्योंकि उनके सभी प्रोडक्ट्स को बनाने का मटेरियल उन्हें पेड़ों से ही मिलता है।

इस गिफ्ट हैंपर को खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

 

4. कपल्स- स्पेशल हैंपर

अगर आप अपने ग्रुप के किसी ख़ास कपल को कुछ देने का सोच रहे हैं, तो उन्हें घर बैठे रिलैक्स करने के लिए यह हैंपर गिफ्ट करें। इस केयर पैकेज में अरोमा ऑयल्स, साबुन, कैंडल्स और नैक मसाजर आपको मिलेंगे। खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

सनफ्लावर नामक संगठन ने इस हैंपर में मिलने वाले प्रोडक्ट्स को बनाया है। सभी प्रोडक्ट्स हैंडमेड, वेगन और इको-फ्रेंडली हैं। साथ ही, यह संगठन स्थानीय और ज़रूरतमंद लोगों को रोज़गार के साधन दे रहा है।

 

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5. दिवाली का पारम्परिक तोहफा, जरा से मॉडर्न टच के साथ

दिवाली है, तो मिठाई और ड्राई फ्रूट्स नाते-रिश्तेदारों को भिजवाए बिना भला कैसे पूरी होगी? लेकिन इस बार अपने इन मिठाई के डिब्बे में जरा-सा नयापन मिला दीजिये और अपने अपनों को भेजिए सेहत का पिटारा। जी हाँ, इस पैकेज में आपको मिलेंगे आलमंड बटर चॉकलेट, ग्लूटेन फ्री चिप्स और ड्राई-फ्रूट्स के लड्डू।

इस पैक को जयपुर के ‘ग्रीन कैंटीन’ संगठन द्वारा तैयार किया गया है। उनका उद्देश्य लोगों में अपने स्वास्थ्य के प्रति जारुकता पैदा करना है।

खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

 

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6. स्टेशनरी हैंपर

अगर आपके दोस्तों में से कोई ऐसा है जिसे लिखना या फिर चित्रकारी करना पसंद है तो उनके लिए यह हैंपर बेहतरीन गिफ्ट है। इस हैंडमेड पेपर स्टेशनरी हैंपर में एक मैगज़ीन फोल्डर, एक कॉफ़ी पेपर नोटबुक, एक हाथ से बनाया हुआ पेन होल्डर, नोट-पैड और बुकमार्क्स आदि मिलेंगे।

ब्लू कैट पेपर संगठन की टीम में ज़्यादातर स्थानीय लोग काम करते हैं। इन्हें पहले हैंडमेड पेपर बनाने की प्रक्रिया की लगभग 5 महीने तक ट्रेनिंग करवाई जाती है और फिर इन्हें काम दिया जाता है। 

इस हैंपर के बारे में अधिक जानकारी और खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें।

इसके अलावा, यदि आप अपने दोस्तों को कुछ अलग-अनोखा सा तोहफ़ा देना चाहते हैं तो चेक कीजिये द बेटर इंडिया का कार्निवल स्टोर। यहाँ पर आपको ढ़ेरों इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल प्रोडक्ट्स मिलेंगे जो आप किसी को भी बिना दो बार सोचे गिफ्ट कर सकते हैं और यकीनन उन्हें पसंद आएंगे।

संपादन – मानबी कटोच 

(Inputs from Tanvi Patel)


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वो आदमी कभी औरत था

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श्चिमी दुनिया में रहने पर एक बात बहुत बाद में समझ आई कि (बहुधा) पुरुष अपने पौरुषत्व और स्त्री अपनी स्त्रियोचित भूमिका के पिंजरे में बंधे होते हैं. हालाँकि ऊपर ऊपर से देखें तो एक पश्चिमी औरत, मर्दों के सारे काम करती हुई नज़र आती है और इधर भारत में स्त्री को ज़्यादा प्रथाओं और समाजस्वीकृत व्यवहार में रहना होता है. पश्चिम में पुरुष नहीं रोता, उसे कमज़ोरी समझा जाता है, वह ज़्यादा रंग नहीं पहनेगा, थोड़ा तन के रहेगा. Machismo आमतौर पर पुरुषों से अपेक्षित होता है. भारतीय मर्द उस विश्व में अपनी मर्दानगी की झाँकी दिखाते हुए नहीं प्रस्तुत होते समाज के सामने. रंग बिरंगे कुर्ते पहन लेते हैं, शरीर अकड़ा हुआ नहीं रखते (आम तौर पर) रो भी लेते हैं.

पुराणों की देन समझें कि हमारे समाज में इस बात पर कोई दो राय नहीं रखता कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर दोनों – पुरुष तत्व व् स्त्री तत्व का समावेश होता ही है. अर्धनारीश्वर भगवान की परिकल्पना (अगर इसे सच्चाई मानते हों तो परिकल्पना शब्द पर ध्यान न दें) इसी वास्ते आवश्यक रही कि लोग अपने को पुरुष अथवा नारी ही के संकुचन में न रखें. उनकी अभिव्यक्ति और सोच लिंगभेद से स्वतंत्र रहे. मुझमें स्वयं ऐसे बहुत सारे गुण हैं जिनमें स्त्रीत्व ढूँढा जा सकता है लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि ये सभी में मानवीय गुण हैं. लोग अपनी समाज-जनित विचारधारा (यानि स्वयं के पाठन, चिंतन, मनन से गठी हुई नहीं) की रौ में उन्हें पुरुष और स्त्री गुणों में विभाजित कर देते हैं.

मेरी देखी और समझी हुई दुनिया में स्त्रियाँ संकटकाल में अमूमन आदमियों से ज़्यादा मज़बूत होती हैं. उनकी सहनशीलता (शारीरिक दर्द सहने की भी) पुरुषों को पीछे छोड़ देती है. इस दुनिया में पुरुषों को भी सजने संवरने का शौक़ होता है, रांगोली डालने का भी और घर सजाने का भी. अगर पुरुष बाइक्स का शौक़ रखते हैं तो औरतें भी वैसी ही हैं – ट्रैकिंग पर जाती हैं रफ़-टफ़ जीवन शैली रखती हैं, उधर पुरुष खाना ज़्यादा अच्छा बना सकते हैं. कपड़ों पर प्रेस बेहतर कर सकते हैं.

ये तो हुई चेतना के एक छिछले स्तर की बात, ऐसा नहीं है कि आदमी और औरत में कोई अंतर नहीं है. शारीरिक तौर पर बहुत ज़्यादा है. और ऐसा हो सकता है कि कोई मन अपने शरीर से सामंजस्य न बैठा पाए. उसे ऐसा लगे कि मैं (मन) हूँ तो स्त्री लेकिन एक पुरुष के शरीर में बेहतर रहता, या इसका उलट कि हूँ तो पुरुष लेकिन मेरा शरीर स्त्री का होना चाहिए था. विज्ञान की तरक़्क़ी का एक अजब नमूना है कि आधुनिक युग में ऐसा संभव है कि लोग लिंग परिवर्तन करवा सकते हैं. आदमी चाहे तो औरत, औरत चाहे तो मर्द बन सकती है. लेकिन समाज में आम इंसान इसे ले कर असहज हो जाता है. असहज इसलिए कि इस तरह की बातचीत हमारे यहाँ नहीं के बराबर है. मारे डर के बहुत से लोग जो अपने आप को समझ कर लिंग परिवर्तन कर सकते थे, एक अजीब तरह की कुण्ठा में जीते हैं. जिन्होंने लिंग परिवर्तन का सहज कदम उठा लिया उन्हें एब्नार्मल क़रार दे दिया जाता है.. ख़ैर हम अपना पुराना भूल गए हैं, विश्व का नया जल्दी स्वीकार नहीं करते. डबल स्टैंडर्ड्स रखते हैं ऐसे बहुतेरे विषयों पर.. देखिए कब खिड़कियाँ खुलेंगी और कब दूसरों की सोच, धर्म, जाति और लिंग के प्रति असम्मान जाएगा. ये तो वक़्त ही बताएगा लेकिन चूँकि हमारे मध्य हर तरह का साहित्य, यहाँ तक कि हमारी श्रुति परंपरा से चलती कथाएँ या पुराण ही, धीरे धीरे घटता जा रहा है समाज में समझदारी और खुलापन बढ़ने की संभावना कमज़ोर ही रहती है.

आज बड़े दिनों बाद आपके समक्ष ‘शनिवार की चाय’ ले कर प्रस्तुत हूँ. आज की कविता प्रत्यक्षा ने लिखी है जिसका शीर्षक है ‘वो आदमी कभी औरत था’. बताइये आपको कैसा लगा यह वीडियो 🙂

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अच्छी-ख़ासी नौकरी है, पर सुबह स्टेशन पर बेचते हैं पोहा; वजह दिल जीत लेगी!

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मैं अब तक सिर्फ़ दो ही बार मुंबई गयी हूँ, बहुत भागता हुआ शहर लगता है यह मुझे। जहाँ किसी को किसी के लिए वक़्त नहीं, सब अपनी ज़िंदगी के सहेजने में इतने व्यस्त हैं कि किसी और के बारे में सोचने की फुर्सत कौन ले? लेकिन कई बार कुछ वाकये मजबूर कर देते हैं कि मुंबई की जो छवि खिंच गयी है मन में, वो धुंधला कर एक नया रूप लेने लगती है और मुंबई को और करीब से जानने की चाह होने लगती है।

कुछ दिन पहले एक मुंबईकर, दीपाली भाटिया ने अपने फेसबुक पर एक पोस्ट साझा की। उनकी पोस्ट तो भले ही चंद लाइन में खत्म हो गयी, पर वहीं से यह कहानी शुरू होती है।

कहानी है एक गुजराती कपल, अंकुश अगम शाह और अश्विनी शेनॉय शाह की, जो मुंबई नगरिया में दिन-रात अपना कल बनाने में जुटे हैं। साथ ही, इस सफर में किसी का आज संवारने की कोशिश भी कर रहे हैं। अश्विनी, ट्रंकोज़ टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में टीम लीड बिज़नेस डेवलपमेंट की पोस्ट पर हैं और उनके पति, अंकुश, ग्रासरूट्स प्राइवेट लिमेटेड में बिज़नेस डेवलपमेंट मैनेजर हैं।

एक अच्छी-ख़ासी लाइफस्टाइल होने के बावजूद, ये दोनों पति-पत्नी हर सुबह कांदिवली स्टेशन वेस्ट के बाहर खाने का स्टॉल लगाते हैं। इस स्टॉल पर आपको 15 रुपये से 30 रुपये के बीच में टेस्टी और हेल्दी ब्रेकफ़ास्ट ऑप्शन जैसे पोहा, उपमा, पराठा आदि मिल जाएंगे। पोहा या उपमा की हाफ प्लेट 15 रुपये की और 2 पराठे आपको 30 रुपये में मिल जाएंगे। पर सवाल यह है कि इतने पढ़े-लिखे और कामकाजी लोगों को ये स्टॉल लगाने की क्या ज़रूरत?

अंकुश और अश्विनी स्टॉल पर

इस सवाल का जवाब आपका दिल छू लेगा और इंसानियत पर आपका भरोसा और मजबूत कर देगा। अश्विनी बताती हैं कि 8 जून को उनकी सास का देहांत हो गया था। वो और अंकुश इससे उबर रहे थे और धीरे-धीरे ज़िंदगी पटरी पर वापिस आ रही थी।

“मम्मी के जाने के बाद हमारे लिए घर और काम सम्भालना मुश्किल हो रहा था। क्योंकि उनके होने से हमें घर की बातों की टेंशन नहीं लेनी पड़ती थी। धीरे-धीरे हम सब चीज़ें संभाल तो रहे थे पर फिर भी कुछ न कुछ रह जाता। इसलिए हमने फ़ैसला किया कि हम एक कुक रख लेते हैं,” उन्होंने आगे बताया।

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जुलाई से 55 वर्षीया भावना पटेल ने उनके यहां काम करना शुरू किया। भावना बेन बहुत अच्छे से, साफ़-सफाई से स्वादिष्ट खाना बनाती और उनके घर के अलावा वह और भी कई जगह काम करने जाती हैं।

“8 अगस्त को मेरी सास की तिथि थी और इसके लिए हमने सोचा कि कुछ थोड़ा-बहुत पोहा आदि बनवाकर हम गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों में बाँट देंगे। इसलिए मैंने भावना बेन से ही पूछा कि क्या वो बना देंगी?”

भावना बेन ने तुरंत अश्विनी को हाँ कर दी। पर उनके पास सुबह इतना वक़्त नहीं होता कि वह उनके घर पर ही सब कुछ बना पातीं, इसलिए उन्होंने अश्विनी से कहा कि वह तिथि का खाना अपने घर पर बना देंगी, बस उन्हें या अंकुश को वो वहां से लाना पड़ेगा।

खाना बनाते हुए भावना बेन

“पर जब अंकुश खाना लेने उनके घर पहुंचे तो हमें पता चला भावना बेन की परिस्थितियों का। उनके पति लकवाग्रस्त हैं और घर की सभी जिम्मेदारियां भावना बेन पर हैं। इसलिए मैंने और अंकुश ने तय किया कि हम उनकी कुछ आर्थिक मदद करते हैं और अगले दिन मैंने भावना बेन से पूछा कि उन्हें अगर कुछ ज़रूरत है,” अश्विनी ने कहा।

लेकिन भावना बेन ने बहुत ही खुद्दारी और विनम्रता से किसी भी तरह की आर्थिक मदद के लिए मना कर दिया। भावना ने उनसे कहा, “हम आज तक चाहे कितनी भी गरीबी में रहे लेकिन हमेशा कमाकर खाया। कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाए। अगर आप मुझे और काम दिलवा सकते हैं कि मैं खाना बना दूँ किसी के लिए तो वो सबसे बड़ी मदद होगी। मुझे अपनी मेहनत का ही पैसा चाहिए बस।”

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उनकी इस बात ने अश्विनी और अंकुश के मन को छू लिया। इसके बाद ही अंकुश और अश्विनी ने ऐसा रास्ता ढूंढा, जिससे कि भावना बेन का आत्म-सम्मान भी बना रहे और उनकी आय भी थोड़ी अधिक हो जाए।

“हमने यह स्टॉल लगाने का फ़ैसला किया। हम भावना बेन को सारा सामान लाकर दे देते हैं और वे फिर सारी चीज़ें तैयार कर देती हैं, जो हम यहाँ ग्राहकों को खिलाते हैं क्योंकि उन्हें तब दूसरी जगह भी जाना होता है काम करने। जो भी पैसे हम यहाँ कमाते हैं, उसमें से सिर्फ़ सामान का खर्च निकालकर बाकी सब भावना बेन को दे देते हैं।”

26 सितंबर से शुरू हुए उनके इस स्टॉल पर ग्राहकों का आना-जाना अच्छा है। अश्विनी कहती हैं कि फेसबुक पर पोस्ट के बाद उन्हें और भी ग्राहक मिलने शुरू हो गये हैं। बहुत लोगों ने सोशल मीडिया पर उन्हें सराहा तो बहुत से लोगों का ध्यान पोस्ट पढ़ने के बाद उन पर गया और अब वे नियमित रूप से आ रहे हैं।

ग्राहकों को नाश्ता कराते अंकुश

सही ही कहते हैं कि अगर किसी काम को करने के पीछे आपकी नीयत साफ़ और सच्ची है तो सफलता के रास्ते अपने आप तय होने लगते हैं। हालांकि, अश्विनी और अंकुश के लिए अपनी प्रोफेशनल लाइफ के साथ-साथ यह करना आसान नहीं है। हर सुबह वे 3 बजे उठते हैं और फिर भावना बेन के साथ ब्रेकफ़ास्ट की तैयारी करते हैं। जब सारा खाना बन जाता है तो 5 बजे तक जाकर वे स्टॉल लगाते हैं।

सुबह 9:30 या फिर 10 बजे तक स्टॉल पर काम ख़त्म करके, वे घर पहुँचते हैं और वहां से तैयार होकर ऑफिस के लिए निकलते हैं। ऑफिस के बाद वे दूसरे दिन के लिए भी सब्ज़ी व अन्य सामान की शॉपिंग करते हुए आते हैं। शुरू-शुरू में तो उन्हें अपने इस रूटीन में काफ़ी थकान और परेशानी हुई, लेकिन एक बात ने उन्हें कभी भी रुकने नही दिया। और वह थी भावना बेन की मेहनत और संघर्ष।

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अश्विनी अंत में सिर्फ इतना कहती हैं,

“हम सबके घरों में कोई न कोई काम करता है और अक्सर हम अपने मूड के हिसाब से उनके साथ बर्ताव करते हैं। हम बहुत बार यह सोचते ही नहीं कि उनके घर में, उनकी ज़िंदगी में क्या चल रहा है? सबके जीवन में संघर्ष है और उनके जीवन में शायद हमसे ज़्यादा। इसलिए कोशिश करें कि अगर आप और किसी तरह से उनकी मदद नहीं कर सकते तो कम से कम उनसे अच्छा व्यवहार करें।

ऐसे ही, रास्ते में सड़क किनारे छोटे-मोटे स्टॉल-ठेले लगाने वालों से भी पैसे कम करवाने या फिर उनसे तल्ख लहजे में बात करने से पहले हमें सोचना चाहिए। पूरा दिन धूप में यूँ सड़क किनारे खड़े होना आसान नहीं होता। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम इन लोगों से सम्मान से बात करें।”

 

अधिक जानकारी के लिए आप उन्हें उनके फेसबुक पेज पर संपर्क कर सकते हैं!

 संपादन – मानबी कटोच 


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

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अहमदाबाद की सड़कों पर ऑटो, लोडिंग गाड़ी, कैब और स्कूल बस दौड़ा रही हैं ये महिलाएँ!

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“जब मेरी शादी हुई तब तो मैंने दसवीं कक्षा भी पास नहीं की थी। पर फिर मेरे पति ने मुझे आगे पढ़ने के लिए बहुत प्रेरित किया। सिर्फ़ पढ़ाई ही नहीं, बल्कि अगर कोई कोर्स करना है कुछ सीखना है या फिर जॉब, हर एक बात में उनका सपोर्ट रहता है। हमारी दो बेटियाँ हैं और वे कहते हैं कि मुझे हमारी बेटियों के लिए मिसाल बनना चाहिए,” 26 साल की जूही अपनी बेटी को गोद में खिलाते-खिलाते बड़े ही इत्मीनान से ये सब बातें बता रही थीं।

हम अहमदाबाद के एक सामाजिक संगठन, जनविकास के सेंटर पर बैठे थे, जहाँ जूही आजकल ‘ड्राईवरबेन प्रोजेक्ट’ के तहत ड्राइविंग की ट्रेनिंग के लिए आती हैं। जूही को यहाँ भेजने में उनके पति राकेश का ही हाथ है। राकेश खुद होंडा कंपनी में ड्राईवर की नौकरी करते हैं और जब उन्हें ‘ड्राईवर बेन प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चला तो उन्होंने अपनी पत्नी को भी ड्राइविंग सीखने के लिए प्रोत्साहित किया।

अपनी बेटी के साथ जूही

जनविकास संगठन और आज़ाद फाउंडेशन द्वारा साझेदारी में शुरू हुई पहल- ‘ड्राईवर बेन: एक नई पहचान’ का उद्देश्य, गरीब तबकों से आने वाली लड़कियों व महिलाओं को ड्राइविंग की ट्रेनिंग के साथ-साथ आत्मविश्वास और आत्मरक्षा के गुर सिखा, उन्हें एक बेहतर भविष्य के लिए तैयार करना है।

साल 2016 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट की हेड, कीर्ति जोशी कहती हैं,

“हमारे यहाँ बहुत से ऐसे प्रोफेशन हैं जो आज भी प्रुरुष-प्रधान हैं। ड्राइविंग भी उनमें से एक है। निजी कामों के लिए ड्राइविंग करने वाली औरतें तो बहुत दिख जाएंगी, पर अगर ड्राइविंग को पेशा बनाने की बात हो तो इस क्षेत्र में औरतें ना के बराबर हैं। हमारा उद्देश्य महिलाओं को इस पेशे के लिए तैयार करके समाज में एक बदलाव लाना है। क्योंकि औरतों के लिए कोई भी कार्य-क्षेत्र तभी सुरक्षित बनेगा, जब उस क्षेत्र में पुरुष और महिलाओं की तादाद में बराबरी हो।”

छह महीने के इस कोर्स में इन महिलाओं को सिर्फ़ गाड़ी चलाना ही नहीं सिखाया जाता, बल्कि बहुत ही सोच-विचार कर इस पूरे प्रोग्राम को डिजाईन किया गया है। कीर्ति बताती हैं कि ड्राइविंग के अलावा महिलाओं को सेल्फ-डिफेन्स ट्रेनिंग दी जाती है। उनकी ‘सेक्स एंड जेंडर’ विषय पर वर्कशॉप की जाती है ताकि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सके।

“यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि आगे भी काम करते हुए इन महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में पता हो। हमारी एक ड्राईवर बेन जिग्नाषा एक घर में निजी ड्राईवर के तौर पर नियुक्त हुईं, लेकिन वहां पर एम्पलॉयर ने उनसे अपने घर के बाकी काम, जैसे सब्जी काट दो, कपड़े सुखा दो आदि कहना भी शुरू कर दिया। लेकिन जिग्नाषा को ट्रेनिंग के समय ही हमने सिखाया था कि उन्हें सिर्फ़ उनका काम करना है बाकी किसी काम के लिए वह पाबन्द नहीं हैं। इसलिए उन्होंने वहां अपने लिए स्टैंड लिया और बहुत आराम से कह दिया कि यह उनका काम नहीं है,” कीर्ति ने आगे बताया।

प्रोजेक्ट हेड कीर्ति जोशी

महिलाओं में अपने आत्मसम्मान और दृढ़ता की भावना लाना बहुत ज़रूरी है और यह ड्राईवर बेन की ट्रेनिंग का अहम हिस्सा है। महिलाओं को समय-समय पर ज़रूरी सरकारी योजनाओं के बारे में भी बताया जाता है और बहुत-सी महिलाओं को प्रधानमंत्री जन-धन योजना आदि से जोड़कर उनके बैंक में खाता खुलवाने में भी मदद की गयी है। इस सबके अलावा, किसी भी सेक्टर में जॉब करने के लिए इनकी पर्सनलिटी डेवलपमेंट और कम्युनिकेशन स्किल्स पर भी ख़ास काम किया जाता है।

ड्राईवर बेन प्रोजेक्ट से कुछ दिन पहले ही जुड़ी, भारती बताती हैं कि उनके घर-परिवार के माहौल के चलते उनका आत्मविश्वास लगभग खत्म हो गया था। पर यहाँ आने के चंद दिनों में ही उन्होंने खुद में एक सकारात्मक उर्जा महसूस की है।

“मैंने अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ़ जाकर, जैसे-तैसे मेहनत-मजदूरी करके अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। घर में कोई भी मेरे पढ़ने के फेवर में नहीं था। पहले सेमेस्टर में तो पापा ने बात तक नहीं की थी मुझसे। भाई-बहन भी कोई ख़ास सपोर्ट नहीं करते थे, इसलिए मानसिक तौर पर मैं बहुत कमजोर पड़ने लगी थी,” उन्होंने आगे कहा।

फिर एक दिन जनविकास से कम्युनिटी मोबिलाइज़र, नौसर से भारती को ड्राईवर बेन के बारे में पता चला और उन्होंने ड्राइविंग सीखने का फ़ैसला किया। भारती में सीखने की चाह इतनी थी कि सिर्फ़ दो हफ्तों में ही उनके ट्रेनर ने कह दिया कि उन्हें अपने पहले अटेम्प्ट में ही लाइसेंस मिल जायेगा। यहाँ के माहौल और रेग्युलर वर्कशॉप ने एक बार फिर भारती के दिल में अपने पैरों पर खड़े होने का जज़्बा जगा दिया है।

10-15 महिलाओं के साथ शुरू हुआ यह प्रोजेक्ट, आज अहमदाबाद की सैकड़ों महिलाओं तक पहुँच चूका है। कीर्ति के मुताबिक अब उनकी कोशिशें रंग लाने लगी हैं। शुरूआती सालों में जहां उन्हें और उनकी टीम को महिलाओं को इस प्रोजेक्ट से जोड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही थी, वहीं अब खुद भी महिलाएँ आगे आकर जुड़ने लगी हैं।

“मुझे बहुत ख़ुशी है कि हमारे इस बार के बैच में हम 100 का आंकड़ा छूने में कामयाब रहे हैं। हमारी ट्रेन की हुई महिलाएँ आज अच्छी जगह काम कर रही हैं। हमारी एक ड्राईवर बेन, रेखा स्कूल बस चलाती हैं तो चंदा बेन, लोडिंग व्हीकल चला रही हैं,” कीर्ति ने गर्व के साथ बताया।

इस पूरे प्रोजेक्ट की सफलता का सबसे ज़्यादा श्रेय, कीर्ति इन महिलाओं के साथ-साथ कम्युनिटी मोबिलाइज़र नौसर जहाँ और ड्राइविंग ट्रेनर, आरिफ को देती हैं। कीर्ति बताती हैं कि ये नौसर बेन की मेहनत का नतीजा है जो शहर के पिछड़े इलाकों से भी आज महिलाएँ उनके यहाँ ड्राइविंग सीखने आती हैं।

भारती(बाएं) और नौसर बेन (दायें)

जनविकास और इन ज़रूरतमंद महिलाओं के बीच सेतु की तरह काम करने वाली नौसर बेन, एक सिंगल मदर हैं। उनकी बेटी 12 साल की है और वह अपनी बेटी को ख़ूब पढ़ा-लिखा कर उसे बेहतर से बेहतर भविष्य देना चाहती हैं। वह कहती हैं,

“जिन घरों में मर्दों की चलती है, वहां से ड्राइविंग जैसे प्रोफेशन के लिए महिलाओं को बाहर लाना आसान नहीं। पर मैं हार नहीं मानती, बार-बार जाकर उनसे मिलती हूँ, तरह-तरह की मिसालें देती हूँ। मैं नहीं चाहती कि कोई भी महिला मेरी तरह दर्द झेले क्योंकि मैं सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ पाई थी। फिर जब मेरा तलाक हुआ तो मुझे मेरे बहुत से अधिकारों के बारे में पता भी नहीं था। पर आज यहाँ काम करते हुए, इन औरतों के साथ-साथ मैं भी बहुत कुछ सीख रही हूँ।”

ड्राईवर बेन प्रोजेक्ट से जुड़ा हर एक इंसान, एक-दूसरे के लिए सहारा है और आगे बढ़ने की प्रेरणा है। चाहे कोई टीम का सदस्य हो, पुरानी कोई ड्राईवर बेन जो कि ट्रेनिंग पूरी कर आज नौकरी कर रही है या फिर फ़िलहाल, ट्रेनिंग लेने वाली महिला, हर कोई एक-दूसरे से कुछ न कुछ सीखता रहता है। कीर्ति कहती हैं कि सबसे पहले बैच में उन्होंने जिन महिलाओं को ट्रेनिंग दी थी, वे उन्हें हर बार नई ड्राईवर बहनों से मिलवाने के लिए बुलाती हैं।

ऐसी ही एक मीटिंग में उन्होंने हमारी मुलाकात चंदा बेन से करवाई। जीन्स-टॉप में मस्तमौला चंदा बेन को देखकर लगा ही नहीं कि वह दो बेटियों की माँ हैं। 30 साल की चंदा बेन पिछले डेढ़ साल से जनविकास के साथ जुड़ी हुई हैं। जब उनके पति ने उनकी और उनकी बेटियों की ज़िम्मेदारी लेने से मना कर दिया तो उन्होंने अपनी ज़िंदगी की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

“हमारे पास ऑटो तो था पर मुझे ड्राइविंग आती नहीं थी। इसलिए जब मैं यहाँ आई तो मैंने सबसे पहले ऑटो चलाना सीखने की बात कही। पर यहाँ मुझे ऑटो के साथ-साथ गाड़ी भी सीखने को मिली। फिर इन्होंने खुद टेस्ट आदि करवाकर लाइसेंस भी दिलवाया। मैंने शुरू में 4-5 महीने ऑटो चलाया और फिर अब लोडिंग व्हीकल चला रही हूँ। यहाँ मैंने एक बात सीखी कि अगर जीना है तो खुलकर जियो, किसी से डरकर मत रहो। इसलिए अब मैं जो करती हूँ, सिर्फ़ अपनी बेटियों के बारे में सोचती हूँ,” चंदा बेन ने कहा।

चंदा बेन

कभी पैसों के लिए अपने पति की राह तकने वाली चंदा बेन अब खुद महीने के 9-10 हज़ार रुपये कमा लेती हैं। अपने काम के साथ-साथ वे ड्राइविंग की प्रतियोगिताओ में भी भाग लेती हैं। कुछ समय पहले ही वे भुज में आयोजित थ्री-व्हीलर दौड़ में जीतकर लौटी हैं।

यहाँ आने वाली हर एक महिला की अपनी कहानी है और हर एक कहानी अपने आप में अलग है तो कहीं किसी मायने में एक जैसी भी। इन महिलाओं के एक ट्रेनर आरिफ भाई कहते हैं,

“एक औरत बाहर सिर्फ़ 10% होती है और बाकी 90% वह अपने अन्दर होती है। उसके अंदर इतना कुछ चलता रहता है कि आपको उस शबे उसका ध्यान हटाकर सिर्फ़ एक चीज़ पर लगाना है, यह मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं। बस ज़रूरत है तो बिना रुके आगे बढ़ते रहने की।”

आरिफ भाई की ट्रेनिंग में अब तक 31 महिलाओं को ड्राइविंग लाइसेंस मिला है।

ड्राईवर बेन और अन्य टीम मेम्बर्स के साथ आरिफ भाई (नीली शर्ट में)

पर आरिफ भाई सिर्फ़ उनके ट्रेनर की भूमिका में ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वह इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि कोई भी लड़की या महिला यहाँ आने के बाद ड्रॉपआउट ना करें। बहुत बार तो वह लड़कियों के घर जाकर उनके माता-पिता से बात करते हैं, उन्हें समझाते हैं और उनकी सुरक्षा की पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी अपने पर लेते हैं।

“एक लड़की थी शबनम, जब वो यहाँ सीखने आती थी तो मैं उसकी अम्मी को फ़ोन करके बताता कि पहुँच गयी है वो और फिर जब यहाँ से निकलती थी तो फिर एक बार उसके घर फ़ोन करके जानकारी देता था। इससे उनका विश्वास सिर्फ़ उनकी बेटी पर नहीं बल्कि बाहर की दुनिया पर भी बना। आज वो लड़की ऊबर कैब चला रही है,” उन्होंने आगे कहा।

ड्राइवरबेन प्रोजेक्ट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां पर इन महिलाओं को सिर्फ ड्राइविंग सिखाकर छोड़ नहीं दिया जाता है। बल्कि उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस के टेस्ट की तैयारी भी गाँधीनगर आरटीओ पर ले जाकर करवाते हैं। फिर जब उन्हें लाइसेंस मिल जाता है तो उन्हें कहीं न कहीं अच्छी जगह नौकरी दिलवाने की ज़िम्मेदारी भी संगठन ही लेता है।

अहमदाबाद में अब तक लगभग 130 महिलाओं को ड्राइविंग सिखाई जा चुकी है और इस बार के बैच में 100 महिलाएं एनरोल हुई हैं। इनमें से 50 से ज़्यादा महिलाएं प्रोफेशनली काम भी कर रही हैं।

कीर्ति कहती हैं कि हमें ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को इस क्षेत्र से जोड़ना है ताकि सिर्फ एक-दो कैब्स में ही नहीं, बल्कि हर एक इलाके में जब ड्राइवर्स की बात हो तो उन मौकों पर अपना दावा करने के लिए महिलाएं हों। इसी से बदलाव आएगा।

अंत में इस प्रोजेक्ट से जुड़ी हर एक महिला सिर्फ एक ही बात कहती है और समझती है कि औरत लाचार नहीं होती, बस ज़रूरत है तो मेहनत करने की और आगे बढ़ने के लिए लड़ने की, तो बस संघर्ष करते रहिए!

संपादन – मानबी कटोच 


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जानवरों के प्रति जुनून ऐसा कि नाम ही पड़ गया ‘कुत्ते वाली भाभी’

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बेजुबानों से बेइंतहा नफरत करने वालों के बीच कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो न केवल उनका दुःख-दर्द समझते हैं, बल्कि उनके अधिकारों के लिए कानून का दरवाज़ा खटखटाने से भी पीछे नहीं हटते। फिर भले ही इसके लिए उन्हें लाखों गालियाँ क्यों न मिलें। भोपाल की शिवांगी ठाकुर, वीना श्रीवास्तव और नीलम धुर्वे ऐसे ही लोगों में से हैं। अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने के साथ-साथ सभी पिछले काफी समय से बेजुबानों को इंसानी क्रूरता से बचाने की दिशा में काम करती आ रहीं हैं।

जानवरों के प्रति इनके जुनून का आलम यह है कि अब लोग इन्हें ‘कुत्ते वाली भाभी’ या ‘कुत्ते वाली दीदी’ भी कहने लगे हैं।

वीना श्रीवास्तव

2016 से पहले तक सभी अलग-अलग काम करते थे, लेकिन फिर एक रैली में हुई मुलाकात ने उन्हें एकजुट किया और आज सभी एक टीम के रूप बेजुबानों की आवाज़ बनी हुई हैं।

शिवांगी हर रोज़ 20-25 कुत्तों को खाना खिलाती हैं, क्योंकि वह जानती हैं कि जानवरों की आक्रामकता भूख से जुड़ी होती है, हालांकि ये बात अलग है कि अधिकांश लोग इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं होते। वैसे शिवांगी इस संबंध में जागरुकता फैला रही हैं और कुछ हद तक कामयाब भी हुई हैं। शिवांगी अब तक अनगिनत बेजुबानों को रेस्क्यू करके नया जीवन दे चुकी हैं। उनके इस अभियान की शुरुआत सही मायनों में 2012 में तब हुई जब कॉलेज जाते समय उन्हें रास्ते में एक घायल कुत्ता नज़र आया।

शिवांगी बताती हैं, “बात काफी पुरानी है, बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी जाते समय मेरी नज़र एक घायल कुत्ते पर पड़ी। मेरे लिए उसे उसी हाल में छोड़कर जाना संभव नहीं था, इसलिए मैं किसी तरह उसे डॉक्टर के पास लेकर पहुंची। डॉक्टर ने बताया कि उसे ठीक होने में समय लगेगा। अब समस्या यह थी कि कुत्ते को रखा कहां जाए, क्योंकि मेरे घर में पहले से ही एक डॉग था। तभी मुझे एक शेल्टर के बारे में पता चला, मैं वहां गई और जब पूरी तरह आश्वस्त हो गई कि कुत्ता सुरक्षित रहेगा तो उसे वहां छोड़ दिया। हालांकि, मैं उसे सही होते देखना चाहती थी, इसलिए मैंने वॉलिटियर के रूप में शेल्टर में काम करना शुरू कर दिया।”

शिवांगी ने शेल्टर की आर्थिक रूप से भी मदद की, लेकिन इसके लिए उन्होंने जिस तरह से पैसा जुटाया, आज उसे याद करके वह हंस देती हैं।

वह बताती हैं ‘मैं कॉलेज में थी, तो फीस पेरेंट्स ही देते थे। मैं फीस थोड़ी ज्यादा बताती और जो अतिरिक्त पैसे मिलते उन्हें इकठ्ठा करती, इस तरह मैंने शेल्टर में शेड आदि बनवाया।”

शिवांगी भोपाल के जाटखेड़ी इलाके में रहती हैं और यहां आसपास रहने वाले सभी लोगों को पता है कि यदि किसी भी जानवर को कोई आंच आई, तो फिर शिवांगी के प्रकोप से उन्हें कोई नहीं बचा सकता।

शिवांगी ठाकुर

हालांकि, इस नेक काम के लिए भी शिवांगी को लोगों की आलोचना और गालियों का सामना करना पड़ता है।

एक घटना का जिक्र करते हुए वह बताती हैं, “शादी के तुरंत बात मैं चिनार पार्क में रहती थी। एक दिन मैं किसी काम से घर से बाहर निकली ही थी कि घरवालों ने फ़ोन पर बताया कि कुछ लोग एक कुत्ते को जिंदा जला रहे हैं। मैं फ़ौरन वापस लौटी तो देखा कि एक युवक हाथ में पेट्रोल की बोतल लिए कुत्ते को जलाने का प्रयास कर रहा है, मैंने किसी तरह उससे बोतल छीनी। मेरे ऐसा करते ही लोग भड़क गए और गालियां देना शुरू कर दिया, लेकिन मैं खामोश रही क्योंकि मेरी पहली प्राथमिकता कुत्ते को वहां से सुरक्षित निकालना था। इसमें सफल होने के बाद मैंने लोगों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया। उनका आरोप था कि कुत्ते ने बच्ची को काटा है, जबकि ये सही था या गलत कोई नहीं जानता।”

शिवांगी एनिमल बर्थ कंट्रोल यानी एबीसी पर ज्यादा जोर देती हैं, क्योंकि कुत्तों की बढ़ती संख्या उनके और इंसान दोनों के लिए ही सही नहीं है। वह अब तक 1500 के आसपास कुत्तों का ऑपरेशन करवा चुकी हैं। नियमानुसार नगर निगम भी यही करता है। निगम कर्मी जिस इलाके से कुत्तों को पकड़ते हैं नसबंदी और एंटी रेबीज इंजेक्शन लगाने के बाद उन्हें उसी क्षेत्र में छोड़ा जाता है, लेकिन लोग चाहते हैं कि सड़कों पर घूमने वाले कुत्तों को हमेशा के लिए वहां से हटा दिया जाए, जो मुमकिन नहीं। इसी बात को लेकर लोगों का शिवांगी जैसे पशु प्रेमियों से विवाद होता रहता है। ऐसे ही एक मामले में शिवांगी के खिलाफ स्थानीय रहवासियों ने काफी हंगामा किया था। उन्हें इससे भी नारजगी थी कि शिवांगी कुत्तों को खाना खिलाती हैं, हालांकि नियम-कायदों की इस लड़ाई में जीत शिवांगी की ही हुई। इसके बाद से लोगों ने शिवांगी से उलझना बंद करना दिया, इतना ही नहीं जो लोग कल तक उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे आज वो भी इस अभियान में उनके सहभागी हैं।

वीना श्रीवास्तव के लिए बेजुबानों के प्रति अपने प्यार को बरक़रार रखना शिवांगी की अपेक्षा ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि उन्हें परिवार का पूरा साथ नहीं मिलता। वीना के पति वैसे तो उनका समर्थन करते हैं, लेकिन केवल तब तक जब तक कि उनका पशु प्रेम पारिवारिक जीवन को प्रभावित नहीं करता और जायज है ऐसा ज्यादा दिनों तक संभव नहीं हो पाता।

वीना पंचशील नगर, गेमन इंडिया, मद्रासी कॉलोनी, हर्षवर्धन नगर आदि इलाकों में हर रोज़ करीब 45 कुत्तों को खाना खिलाती हैं और 15 स्ट्रीट डॉग्स तो उनके घर में ही पल रहे हैं।

वीना श्रीवास्तव

‘द बेटर इंडिया’ से बातचीत में वीना ने कहा, “किसी भी सामान्य इंसान के लिए 15 कुत्तों के बीच रहना आसान नहीं, इसलिए कभी-कभी इस बात को लेकर मेरी घर में नोकझोंक हो जाती है। अच्छी बात यह है कि मेरा बेटा हर काम में मेरा साथ देता है, फिर चाहे वो कुत्तों को खिलाना हो या उनका इलाज करवाना।”

वीना जब घर से निकलती हैं, तो उनके पास जानवरों के खाने-पीने का सामान होता है और यदि ऐसा संभव नही हो पाता तो वह जहाँ जाती हैं, वहां कुछ न कुछ व्यवस्था कर देती हैं।

बकौल वीना, “मैं किसी जानवर को भूखा नहीं देख सकती। शादी वगैरह में भी जाती हूँ तो वहां से कुछ खाना ले जाकर बाहर कुत्तों को दे आती हूँ। शुरुआत में मेरे परिचितों को यह बेहद अजीब लगता था, लेकिन अब उन्हें आदत हो गई है। फिर भी कुछ हैं जिनकी नज़र में यह मेरा पागलपन है, मगर मैं उनकी सोच से इत्तेफाक नहीं रखती।”

वीना को भी गालियाँ और धमकियां मिलती रहती हैं। इस बारे में वह कहती हैं, “बुरा लगता है जब किसी भूखे का पेट भरने के लिए हमें कोसा जाता है, जान से मारने की धमकी दी जाती है। अधिकांश लोग चाहते हैं कि आवारा कुत्तों को खाने के लिए कुछ न दिया जाए, लेकिन वो यह नहीं समझते कि भूखा कुत्ता आक्रामक हो सकता है। कुछ वक़्त पहले इसी बात को लेकर एक युवक ने बीच सड़क पर मेरे साथ दुर्व्यवहार किया, वो गालियां बक रहा था और लोग तमाशबीन बने थे। किसी ने उसे रोकने की जहमत नहीं उठाई।”

शिवांगी की तरह वीना भी एसीबी पर खास ध्यान देती हैं, ताकि आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या को नियंत्रित किया जा सके और उनके खिलाफ होने वाले अत्याचार को भी।

पेशे से शिक्षक नीलम धुर्वे भोपाल के शिवाजी नगर इलाके में रहती हैं और पिछले 15-16 सालों से लगातार बेजुबानों की सेवा करती आ रही हैं।

नीलम धुर्वे

खास बात यह है कि उनका पूरा परिवार इस काम में उनके साथ है। नीलम के काम करने का तरीका थोड़ा जुदा है, उनकी कोशिश रहती है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ जोड़ा जाए ताकि विरोध में उठने वालीं आवाजों को मंद किया जा सके। हालांकि, जानवरों को हिंसा से बचाने के प्रयास में उन्हें खुद लोगों की हिंसा से दो-चार होना पड़ता है।

‘द बेटर इंडिया’ से बातचीत में नीलम ने कहा, “मैं रोजाना घूम-घूमकर 15-20 कुत्तों को खाना खिलाती हूँ। कई बार लोग इसे लेकर झगड़ा करते हैं। कुछ वक़्त पहले तो एक महिला ने मुझपर हँसिए से हमला किया था, भगवान का शुक्र रहा कि मैं किसी तरह बच गई।”

नीलम के मुताबिक, ऐसे कई लोग हैं जो खुद बेजुबानों के लिए कुछ करना चाहते हैं, लेकिन दूसरों के डर से या व्यस्तता के चलते ऐसा कर नहीं पाते, वह डॉग फ़ूड आदि मुझे डोनेट कर देते हैं। शिवांगी और वीना की तरह नीलम भी कुत्तों की नसबंदी का खास ख्याल रखती हैं। वह अब तक 50 के आसपास कुत्तों का ऑपरेशन करवा चुकी हैं।

स्कूल और परिवार की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ जानवरों की सेवा के लिए वक़्त निकालना कितना मुश्किल है? इसके जवाब में नीलम कहती हैं, “मुश्किल तो बहुत है, सुबह और शाम दो-दो घंटे निकालने पड़ते हैं कुत्तों को खाना खिलाने के लिए। इसके अलावा यदि मेडिकल इमरजेंसी हो तो फिर समय का पता ही नहीं चलता। मुझे बेजुबानों की मदद करना अच्छा लगता है, और जो काम आपको अच्छा लगता है उसके लिए आप किसी न किसी तरह वक़्त निकाल ही लेते हैं।”

‘द बेटर इंडिया’ के माध्यम से शिवांगी, वीना और नीलम लोगों से पशुओं के प्रति दया-भाव की अपील करना चाहती हैं। इसके साथ ही पशु प्रेमियों को उनकी सलाह है कि यदि कोई जानवरों पर क्रूरता करता है तो उसके खिलाफ सबूत इकठ्ठा करना सुनिश्चित करें जैसे कि फोटो या वीडियो, ताकि क़ानूनी कार्रवाई की जा सके। भारतीय कानून के साथ-साथ हमारे संविधान में भी बेजुबानों के अधिकारों का जिक्र है। कोई उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकता और न ही किसी को उन्हें खाना खिलाने से रोक सकता है।

यदि आप भी भोपाल की इन महिलाओं के अभियान से जुड़ना चाहते हैं या किसी रूप में उनकी सहायता करना चाहते हैं तो आप शिवांगी से 8463032751, वीना से 9826400778 और नीलम से 9009797130 पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच 


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पिता की मृत्यू के बाद छोड़नी पड़ी थी पढ़ाई, आज 70 बच्चों को पढ़ा रहा है यह शख्स!

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ड़ीसा के संबलपुर में दलदलीपड़ा इलाके में पले-बढ़े राजेंद्र सतनामी हमेशा से ही अच्छा पढ़-लिखकर ज़िंदगी में कुछ बड़ा करना चाहते थे। पर उनके पिता के देहांत के बाद उनके कंधों पर आई परिवार की ज़िम्मेदारी में उनके अपने सपने न जाने कहाँ दबकर रह गये। माँ और तीन बहन-भाइयों के पालन-पोषण के लिए उन्होंने दिन-रात मेहनत की और आज भी कर रहे हैं।

अपनी ज़िम्मेदारियों में उलझे हुए लोग जहाँ खुद को भी नहीं संभाल पाते, वहां 35 वर्षीय राजेंद्र ने अपने इलाके के 34 गरीब बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा भी उठाया है। द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया,

“हम अक्सर अपने मोहल्ले में बच्चों को ज़्यादातर खेल-कूद में ही लगा हुआ देखते थे। ये बच्चे स्कूल तो जाते हैं पर पढ़ाई नामभर के लिए करते हैं। इनके माता-पिता भी दिहाड़ी-मजदूरी में लगे रहते हैं तो ध्यान ही नहीं दे पाते कि उनके बच्चों की शिक्षा का स्तर क्या है?”

राजेंद्र सतनामी

कई बार राजेंद्र इन बच्चों से बात करते और उनसे पढ़ाई संबंधित प्रश्न पूछते। उन्हें समझ में आया कि पहली-दूसरी के बच्चों को अभी तक भाषा ज्ञान भी नहीं है। उन्होंने इस बारे में कुछ करने की ठानी और 16 दिसंबर 2016 से ‘निशुल्क शिक्षा केंद्र’ की शुरुआत की।

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‘निशुल्क शिक्षा केंद्र’ के ज़रिए हर शाम राजेंद्र इन बच्चों को मुफ़्त में ट्यूशन पढ़ाते हैं। 15 बच्चों से शुरू हुई उनकी पहल में आज कुल 70 बच्चे शामिल हैं। उन्होंने दलदलीपड़ा इलाके से अपनी पहल शुरू की, जहाँ वे 34 बच्चों को पढ़ाते हैं।

“हमारे यहाँ एक छोटा-सा क्लब है जो कि शाम में खाली ही पड़ा रहता है। हमने इलाके के लोगों से बात की कि अगर इस क्लब में बच्चों को कुछ समय पढ़ा लूँ तो? सभी ने हाँ कर दी और साथ ही, सभी ने कुछ न कुछ करके मदद ही की,” उन्होंने आगे कहा।

राजेंद्र कहते हैं कि उनकी खुद की पढ़ाई 12वीं कक्षा के बाद छूट गयी थी। इसलिए वे बड़ी कक्षाओं के गणित, अंग्रेज़ी जैसे विषय तो नहीं पढ़ा सकते थे, लेकिन उन्होंने बच्चों को मुलभुत विषय जैसे अक्षर ज्ञान, जमा-घटा, गुणा-भाग आदि करवाया। बहुत-से बच्चों को उनके पास आने से पहले ठीक से पढ़ना भी नहीं आता था। पर आज इन सभी बच्चों में काफ़ी बदलाव है।

बच्चों को सेंटर पर पढ़ाते हुए राजेंद्र

इन 34 बच्चों की उम्र 7 साल से 15 साल के बीच है और ये सभी बच्चे दूसरी कक्षा से लेकर 9वीं-10वीं कक्षा में पढ़ते हैं।  हर शाम लगभग ढाई-तीन घंटे तक बच्चों की कक्षाएं होती हैं जिसमें 2 घंटे अच्छे से पढ़ाई होती है और फिर बाकी समय में उन्हें कोई खेल खिलाया जाता है या फिर उनकी कोई एक्सरसाइज करवाई जाती है। मनोरंजन के चलते बच्चे पढ़ भी लेते हैं।

अपने इस काम में परेशानियों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा,

“शुरुआत में बच्चों को थोड़ा केन्द्रित रखना मुश्किल था। पर फिर उनका यहाँ आना नियम बन गया। एक-दूसरे के बच्चों को देखते हुए, फिर और माँ-बाप ने भी बच्चों को यहाँ भेजना शुरू किया।” इसके बाद उन्होंने आर्थिक परेशानियों पर कहा, “नहीं, हमें नहीं लगता कि ऐसी कोई ख़ास आर्थिक परेशानी हुई क्योंकि इसमें बहुत कोई इन्वेस्टमेंट नहीं था। शुरू में, बच्चों के लिए कुछ कॉपी, पेन, पेंसिल वगैरा हम लेकर आये थे पर इसमें बहुत ज़्यादा खर्च नहीं हुआ। फिर जैसे जैसे लोगों को इसके बारे में पता चला तो किसी ने किताबें दे दीं तो कोई बैठने के लिए चटाई दे गया। सबकी मदद से काम अच्छा ही चल रहा है।”

राजेंद्र से प्रभावित होकर और भी तीन-चार लोग उनके साथ इस नेक काम में जुड़ गये। हफ्ते में दो-तीन दिन ये वॉलंटियर आकर बच्चों को पढ़ाते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने शहर के और दो इलाकों, गोविंदतुला और स्टेशनपड़ा में लोगों को गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया। अब इन दो जगहों पर भी ‘निशुल्क शिक्षा केंद्र’ चल रहे हैं।

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गोविंदतुला में 18 तो स्टेशनपड़ा में 28 बच्चों को पढ़ाया जा रहा है। इस तरह से एक छोटी-सी पहल से 70 बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल पा रही है।

कुल 70 बच्चो को मिल रही है शिक्षा

इन केन्द्रों पर अलग-अलग कक्षाओं के बच्चे आते हैं। सभी बच्चों को उनकी कक्षा और सिलेबस के हिसाब से अलग-अलग ग्रुप्स में बिठाया जाता है। बड़ी कक्षाओं के बच्चों को वॉलंटियर पढ़ाते हैं तो छोटी कक्षाओं के बच्चों को कुछ विषय 9वीं-10वीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे पढ़ाते हैं। इससे उनका आत्म-विश्वास बढ़ता है और उनके अपने कॉन्सेप्ट्स क्लियर होते हैं।

अपनी आगे की योजना के बारे में बात करते हुए राजेंद्र बताते हैं,

“हम सोच रहे हैं कि ऐसे लोगों को भी शिक्षा से जोड़ें जो कि ड्रॉपआउट हैं। कुछ कक्षा पढ़ने के बाद जिन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और किसी रोज़गार में लग गये। अगर ऐसे लोगों को भी फिर से पढ़ाई से जोड़कर उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया जाये तो कम से कम वे अपनी आने वाली पीढ़ी के भविष्य के प्रति तो जागरूक होंगे।”

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शिक्षा को लेकर हमेशा से जागरूक रहे राजेंद्र ने अपने तीन-बहन भाइयों की पढ़ाई में भी कोई कमी नहीं होने दी। उनकी एक बहन स्कूल की पढ़ाई के बाद आगे स्टिचिंग आदि का कोर्स कर रही है तो दूसरी बहन बी. कॉम करने के बाद सीएमए कर रही है। वह बताते हैं कि उनके भाई-बहन पढ़ाई के साथ-साथ कुछ न कुछ काम भी करते हैं और इस तरह से उनके पूरे परिवार का खर्च चल जाता है।

अंत में वह सिर्फ़ यही कहते हैं,

“हम हर पढ़े-लिखे इंसान से यही कहेंगे कि अगर आप वाकई समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं तो अपने आस-पास 5 गरीब और ज़रूरतमंद बच्चों को पढ़ाएं। दिन में, रात में, जब भी हो, मोबाइल चलाने या फिर यूँ ही घुमने-फिरने की बजाय इन बच्चों के भविष्य को बस एक घंटा दे दो। अगर हर कोई इंसान इस तरह करे तो यक़ीनन देश में कोई अशिक्षित नहीं रहेगा।”

यदि आपके पास कोई पुरानी किताबें हैं या फिर किसी भी तरह का स्टेशनरी सामान, जो कि आपके काम का नहीं है, लेकिन किसी और के काम आ सकता है तो ‘निशुल्क शिक्षा केंद्र’ पर पढ़ने वाले बच्चों के लिए भेज दें। इसके लिए आप राजेंद्र सतनामी से 9777776731 पर फोन करके संपर्क कर सकते हैं!


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देश की आज़ादी के लिए अमेरिका की सुकून भरी ज़िंदगी छोड़ आई थी यह स्वतंत्रता सेनानी!

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भी उतनी ही भागीदारी रही, जितनी कि पुरुष सेनानियों की। अरुणा आसफ अली, लक्ष्मी सहगल, सुचेता कृपलानी, तारा रानी श्रीवास्तव, और कनकलता बरुआ आदि अनगिनत नाम हैं, जिनके बलिदान ने हमारे देश की आज़ादी की नींव रखी।

पर दुःख की बात यह है कि आज भी न जाने कितनी ही वीरांगनाओं के नाम हमारे इतिहास के पन्नों से नदारद हैं। द बेटर इंडिया की कोशिश है कि वक़्त की धुंध में ऐसी भूली-बिसरी कहानियों को हम अपने पाठकों तक पहुंचाए। आज हम आपको बता रहे हैं ‘ग़दर दी धी- गुलाब कौर’ यानी कि ‘ग़दर की बेटी- गुलाब कौर’ की कहानी!

गुलाब कौर (साभार: द सिख नेटवर्क/ट्विटर)

पंजाब में संगरूर जिले के बक्षीवाला गाँव में साल 1890 के आस-पास जन्मी गुलाब कौर के बारे में बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है। पर कुछ जानकारी के हिसाब से बताया जाता है कि उनकी शादी मानसिंह नामक एक व्यक्ति से हुई थी, जिनके साथ वह फिलीपिंस होते हुए अमेरिका जा रही थीं। यहाँ एक अच्छी और बेहतर ज़िंदगी उनके सामने थी।

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अपनी इस यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात ग़दर पार्टी के कुछ क्रांतिकारियों से हुई। ग़दर पार्टी की स्थापना विदेशों में रह रहे सिखों ने की थी और वे सभी अपने देश की आज़ादी में भाग लेने के लिए हिंदुस्तान लौट रहे थे। अगर कुछ दस्तावेज़ों की माने तो गुलाब कौर और मानसिंह ने भी उनसे प्रभावित होकर अपने वतन वापस लौटने का इरादा कर लिया था।

लेकिन फिर मानसिंह का मन बदल गया और उन्होंने अमेरिका के लिए अपनी यात्रा जारी रखी। पर गुलाब के मन पर क्रांतिकारी रंग चढ़ चूका था, उनके दिल में ब्रिटिश साम्राज्य को अपने देश से उखाड़ फेंकने की चिंगारी इस कदर जली कि उन्होंने अपनी निजी ज़िंदगी की भी परवाह नहीं की।

गुलाब ने न सिर्फ़ अपने पति बल्कि सभी तरह की सुविधाओं से भरपूर अपनी आगे की ज़िंदगी को भी छोड़ दिया और देश के लिए आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बन गयीं।

 

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अन्य और 50 ग़दर क्रांतिकारियों के साथ गुलाब कौर भारत वापस लौट आयीं। भारत पहुँचने पर वह कपूरथला, होशियारपुर और जालंधर जैसे इलाकों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ संभालने लगीं। उन्होंने यहाँ पर भारतीयों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध हथियार उठाने के लिए जागरूक किया।

गुलाब कौर पर पंजाबी भाषा में लिखी गयी किताब

साथ ही, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े सभी साहित्य और प्रकाशनों को घर-घर बांटने की ज़िम्मेदारी भी ली। पत्रकार की भूमिका निभाते हुए उन्होंने ग़दर पार्टी के क्रांतिकारियों के लिए गुप्त संदेश पहुंचाने और हथियार पहुंचाने का जोखिम भरा काम भी किया।

पर बदकिस्मती से ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और दो साल के लिए उन्हें लाहौर के शाही किले में कारावास में रखा गया। यहाँ गुलाब को बहुत सी यातनाएं झेलनी पड़ी और साल 1931 में भारत की इस बेटी ने अपनी आख़िरी साँस ली।

 

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गुलाब कौर के बारे में ज़्यादा कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है पर एस. केसर सिंह द्वारा पंजाबी में लिखी गयी एक किताब, ‘ग़दर दी धी- गुलाब कौर’ आपको ज़रूर मिल जाएगी।

द बेटर इंडिया, गुलाब कौर के बलिदान और साहस को सलाम करता है!

संपादन – मानबी कटोच 


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11वीं पास किसान ने कर दिए कुछ ऐसे आविष्कार, आज सालाना टर्नओवर हुआ 2 करोड़!

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म सभी सुनते आए हैं कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है। इस दुनिया में हमें जितने भी सुख भोगने को मिले हैं, उनमें से अधिकांश के पीछे आवश्यकता ही छिपी रही होगी, ऐसा हम कह सकते हैं। उक्त कहावत का जीता-जागता उदाहरण हैं जोधपुर जिले के रामपुरा – मथानिया गाँव के किसान अरविंद सांखला।

एक समय में तिंवरी – मथानियां जैसे गांवों का यह बेल्ट मिर्ची की भरपूर पैदावार के कारण पूरी दुनिया में विख्यात था। जोधपुर जाने वालों को मथानियां की मिर्ची लाने के लिए ज़रूर कहा जाता। पर अति हर चीज़ की बुरी होती है, यह भी शाश्वत सत्य है। मोनोक्रॉपिंग के कारण इस सरसब्ज बेल्ट में मिर्चों की खेती में रोग पनपने लगें, पानी की भूतल गहराई बढ़ने के साथ ही लवणता भी बढ़ती चली गई।

ऐसे में अरविंद सहित यहां के कुछ प्रयोगशील किसानों ने गाजर की फसल लेना शुरू किया। उनकी मेहनत रंग लायी और देखते ही देखते यहां से प्रतिदिन 20 से 25 ट्रक गाजर निर्यात होने लगी। पर यहां भी एक समस्या थी, गाजरों पर महीन जड़ों के रोम होने के कारण स्थानीय किसानों को उतना भाव नहीं मिल पा रहा था, जितनी उनकी मेहनत थी। व्यापारियों की मांग पर यहां के कुछ किसान गाजरों को तगारी या कुण्डों में धोते थे। ऐसा करने पर गाजर पर चिपकी मिट्टी तो साफ हो जाती थी, लेकिन छोटे-छोटे बालों जैसी जड़ें यथावत बनीं रहती थीं। स्थानीय किसान गांवों में उपलब्ध टाट-बोरी पर रगड़-रगड़कर गाजरों को साफ करते थे। ऐसा करने से गाजरें ‘पालिश’ हो जाती थीं। फिर भी इस तरह के तरीके काफी मेहनती और अधिक समय लेने वाले होते थे।

 

1992 में इसी गाँव के किसान अरविंद ने कृषि यंत्रों को बनाने की शुरुआत गाजरों की सफाई की इस समस्या से निजात पाने के लिए की थी। पर धीरे-धीरे उन्हें इस काम में और दिलचस्पी होने लगी और वह किसानों की समस्या का समाधान करने में जुट गए।


अरविंद केवल 11वीं तक ही पढ़ पाए थे, पर अपनी बुद्धि और मेहनत के बलबूते पर  उन्होंने  ऐसे-ऐसे आविष्कार किये कि बड़े बड़े इनोवेटर उनका लोहा मानने लगें। आज उन्होंने पांच ऎसी मशीनें बनायी हैं, जिनसे किसानों की मुश्किलें हल तो हो ही रही हैं, साथ ही इन मशीनों की इतनी डिमांड है कि आज अरविंद का सालाना टर्नओवर 2 करोड़ हो चूका है।

 

आईये जानते हैं अरविंद की बनायीं मशीनों के बारे में –

1 गाजर सफाई की मशीन 

इतने सालों में शोध करते हुए अरविन्द ने आखिर एक ऐसी गाजर साफ करने की मशीन बनायी है जिसकी क्षमता 4 कट्टों (यानी करीब 2 क्विंटल तक) की है। इस मशीन से इतनी गाजरों को एक साथ साफ करने में अब सिर्फ 15 मिनट लगते हैं। इसके ज़रिये एक घण्टे में करीब 16 कट्टे यानी 8 क्विंटल तक गाजर साफ की जा सकती हैं। इसके विपरीत, हाथ से कोई मजदूर 1 कट्टा (50 किलो) गाजर साफ करने में कम से कम 25 मिनट या इससे अधिक समय लगाता था। अब इसी मशीन पर दो आदमी 15 मिनट में 7 कट्टे एक साथ धो सकते हैं। यदि दो आदमी हों तो, एक घण्टे में करीब 30 से 40 कट्टे साफ किए जा सकते हैं।

वह बताते हैं,“गाज़र धुलाई के लिए मैंने दो तरह की मशीनें बनाई हैं, एक चेसिस तथा टायर सहित (जिसे इधर उधर ले जाया जा सकता है, मोबाइल है), दूसरी बगैर चेसिस-टायर की, जो एक ही स्थान पर रखी जाती है।”

इन मशीनों के सेण्ट्रल ड्रम में दो वृत्ताकार मोटी चकतियों की परिधि पर समान मोटाई की आयरन -पत्तियों को थोड़े-थोड़े ‘गैप’ के साथ जोड़कर इस मशीन को बनाया गया है, इससे इस पिंजरेनुमा ड्रम की भीतरी सतह इतनी खुरदरी बन जाती है कि इसको घुमाने पर गाजरों पर लगी मिट्टी और महीन जड़ें तो रगड़ खाकर साफ हो जाती हैं पर गाजरों को खरोंच तक नहीं लगती। ड्रम की वृत्ताकार चकतियों के बीचों बीच लोहे का खोखला पाईप है, जिस पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पेंसिल डालने लायक छेद होते हैं। यह पाइप पानी के पंप से जुड़ा है। मशीन चालू करने पर इस छिद्रित पाईप से तेज फव्वारे छूटते हैं, जो गोल घूमते ड्रम के अन्दर डाली हुई गाजरों पर चिपकी मिट्टी और सूक्ष्म रोम वाली गाजर को तुरन्त धो डालते हैं।

आज उनकी देखा-देखी दूसरे मिस्त्री भी इसे सफलतापूर्वक बना रहे हैं। गाजरों का सीजन कुल 4 महीने चलता है और अरविंद खुद इस दौरान औसतन 20 से 200 मशीनें (कम से कम 20, 50, 60 या 100, 200 तक मशीनें बिकती हैं एक सीजन में, जैसी डिमांड हो उसके अनुसार) बेचते हैं। पर वह एक सावधानी बरतते हैं, बिना ऑर्डर और एडवांस लिए बगैर मशीन तैयार नहीं करते।

इस मशीन की क्षमता 2000 किलो प्रति घण्टा (अधिकतम) गाजर सफाई की है और वर्तमान में इसे 40,500/- रूपए से लेकर 63,500/- तक मशीन की सुविधाओं के आधार पर बेचा जा रहा है। अब तो कृषि विभाग भी उनकी इस मशीन पर 40 प्रतिशत अनुदान देने लगा है जिससे किसानों को काफी राहत मिली है।

यह अरविन्द जैसे हुनरमंद भूमिपुत्रों की मेहनत का ही जलवा है, जो आज बाजार से खरीदी गाजर को बिना धोए सीधे खा सकते हैं, बिना किसी किरकिरी के डर के।

 

2. लोरिंग मशीन


अरविंद के गाँव के आसपास के इलाके में बरसों पहले परंपरागत कुए थे, बाद में किसानों ने बोरवेल खुदवाए। बोरवेल में पंप को लोरिंग- अनलोरिंग करना होता है। कई बार पंप ख़राब हो जाता है, इसे कई युक्तियों या जुगाड़ से बाहर निकाला जाता था। जुगाड़ रूपी झूला बनाकर 5 लोग पम्प को निकालते और सही करके वापस लगाते। इस तरह से इस काम में पूरा दिन चला जाता था।

इसके अलावा भी एक और समस्या थी, गांवों में बिजली 6 घंटे ही आती थी। इस काम को करने के चक्कर में दूसरे काम भी नहीं हो पाते थे, जो कि बिजली आने पर करने जरुरी होते थे। इस समस्या को देखते हुए उन्होंने सोचा कि समय की बचत की जा सके, ऐसी कोई युक्ति या जुगाड़ सोचना चाहिए। इस युक्ति के तहत झूले के साथ एक मोटर लगाई। मोटर लगने से काम आसान हुआ। फिर एक स्टैंड बनाया जिसकी चैसिस की साइज 6×3 और घोड़े की साइज 4×2 थी। एक गियर बॉक्स का निर्माण भी किया, जिसमें आरपीएम बना दिए।

अरविंद बताते हैं, “पहले बोरवेल की गहराई 300 फ़ीट थी, अब 100 फ़ीट से 1000 फ़ीट के बोरवेल में पम्प बैठाने का काम आसानी से हो जाता है। एक अकेला व्यक्ति यह सारा काम अब मात्र एक घंटे में कर लेता है।”

पहले जब मोटर बनाई थी तो एक समस्या थी कि जब बिजली नहीं होती थी, तब ये काम नहीं हो सकता था। इस समस्या से मुक्ति के लिए इसे डीजल इंजिन से जोड़कर काम में लेना शुरू किया गया। डीजल इंजिन की भी समस्या थी, हर किसान डीजल इंजिन लगा नहीं सकता था। एक समस्या यह भी थी कि यदि डीजल इंजिन खराब हो गया तो क्या करेंगे? फिर इसे ट्रेक्टर की पीटीओ साप्ट से जोड़ दिया गया। अब बिजली होने पर बिजली से, डीजल इंजिन से और ट्रेक्टर से काम होने लग गया है। अब किसानों को पम्प लगाने में 10 घंटे की बजाय 1-2 घण्टे लग रहे हैं।

90,000 से 1,25,000 रूपये तक की कीमत में आने वाली यह मशीन अब राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, हरियाणा, उड़ीसा आदि के किसानों तक भी पहुँच चुकी है।

 

3. लहसुन की फसल निकालने हेतु कुली मशीन


लहसुन की खेती में एक किसान दिनभर में 100 से 200 किलो लहसुन ही खेत से निकाल पाता था। एक नुकसान यह भी होता था कि दिनभर की मेहनत के बाद हाथ भी ख़राब हो जाते थे और अगले दिन खेत में मजदूरी करना संभव नहीं होता था। इस तरह से लागत बढ़ने लगी और किसान लहसुन को कम तवज्जो देने लगे, कम बुवाई करते। मार्किट में भाव भी पूरे नहीं मिलते। इस समस्या का हल निकालने के लिए अरविंद ने एक ऐसी मशीन का निर्माण किया, जिसे ट्रेक्टर के पीछे टोचिंग करके काम लिया जाता था। मशीन के पत्ते ज़मीन में 7-8 इंच या 1 फ़ीट तक गहरे जाते हैं और मिट्टी को नरम कर देते हैं, जिससे कि लहसुन को ढीली पड़ चुकी मिट्टी से आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है।

अरविंद कहते हैं, “पहले हाथ से लहसुन निकालने पर एक किसान 5 क्यारी से ही लहसुन निकाल पाता था। एक बीघा में 100 क्यारियां होती हैं। अब एक लेबर एक दिन में एक बीघा में, मतलब 100 क्यारियों में से लहसुन उखाड़ सकता है। इससे टाइम की बचत हुई है और दाम भी अच्छे मिलने लगे हैं।”

12,500 से लेकर 15,000 हज़ार रुपये तक की लागत में बनी इस मशीन की राजस्थान के कोटा में बहुत मांग है, क्यूंकि यहाँ लहसुन ज्यादा होता है।

 

4. पुदीने की मशीन

जब मार्किट तेज़ रहता है तो हरा पुदीना तुरंत बिक जाता है, लेकिन मंदी के दौर में इसमें गिरावट आ जाती है। ऐसे में किसान शेष बचे पुदीने की फसल को सुखा देते हैं। सूखने के बाद पत्ती और डंठल को अलग करना होता है, जिसमें थोड़ी मात्रा में मिट्टी भी साथ होती है। गांवों में तार वाले देसी माचे (पलंग) होते हैं, इस पर महिलाएं आमने सामने बैठ कर पत्ती और डंठल को अलग करती हैं। बाद में छोटे डंठल को अलग से निकाला जाता है। इसमें पूरे दिन में 80 किलो से ज्यादा सूखा पुदीना साफ नहीं किया जा सकता। बाद में मिट्टी को भी एक पंखा चलाकर साफ़ किया जाता है।

अब मज़दूरी 150 से 200 रूपये प्रतिदिन है। हाथ से किये गए काम में कोई न कोई कमी रह ही जाती है, अतः मार्किट में भाव कम मिलते हैं, श्रम भी लग रहा है और भाव भी नहीं मिल पा रहा है, ऐसे में कैसे बेच पाएंगे?

इस समस्या से जूझने के लिए अरविंद ने 33×62 इंच का एक फ्रेम बनाया। फ्रेम पर एक कटर सिस्टम लगाया जो पुदीने और डंठल को काटता था और डस्ट को हटाने के लिए पंखा लगाया।

अब सूखा पुदीना, धनिया और मैथी की 30 किलो 30 बोरियां एक घंटे में तैयार हो जाती है। एक आदमी अकेले यह काम कर लेता है। 55,000 से लेकर 90,000 तक की इस मशीन की दिल्ली, यूपी, गुजरात में काफी मांग है।

 

5. मिर्च साफ करने की मशीन


मथानिया मिर्च की खेती के प्रसिद्ध बेल्ट के रूप में नाम कमा चुका है। तैयार फसल की मिर्च को सूखने के लिए धुप में सुखाया जाता है। इस तरह सुखाने में मिट्टी रह जाती है, खाने में किरकिर आती है और स्वाद भी खराब हो जाता है, जिससे मार्किट वैल्यू भी नहीं मिलती।  पर अरविंद ने एक ऐसी मशीन तैयार की जिससे मिर्च से बीज, कंकड़, मिट्टी अलग हो जाती है और 250 किलो माल प्रतिघंटा साफ़ हो जाता है। इस मशीन की कीमत 40,000 से लेकर 75,000 हज़ार रुपये तक है।

पहले मिर्च देश से बाहर जाती थी तो मिर्च का सैंपल लैब टेस्टिंग में फ़ैल हो जाता था। इसलिए मिर्च को विदेश में भेजना बन्द हो गया था। अब इस मशीन से तैयार माल लेब टेस्टिंग में ओके पाया गया है और विदेश जा रहा है।

कभी किसी ज़माने में किसानी की समस्या से जूझने वाले अरविंद ने उन समस्याओं के आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि उनका समाधान निकालने में जुटे रहें। उनकी लगन और मेहनत का ही नतीजा है की आज इन मशीनों को बेचने से उनका एनुअल टर्नओवर 2 करोड़ रूपये का है।  इससे भी ज़्यादा संतुष्टि उन्हें इस बात की है कि वह किसानों की हर समस्या को हल करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं।

देश के ऐसे हुनरमंद किसानों को हमारा सलाम!

अरविंद सांखला से आप निचे दिए पते पर संपर्क कर सकते हैं –
विजयलक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स, राम कुटिया के सामने, नयापुरा, मारवाड़ मथानिया 342305, जिला जोधपुर, (राजस्थान)
मोबाइल- 09414671300
फ़ेसबुक लिंक

संपादन – मानबी कटोच 


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सड़कों पर मरते हुए छोड़ देते हैं जिन्हें लोग, उन्हें इलाज और छत देता है यह शख़्स!

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प और हम सड़क किनारे चलते किसी गरीब, बुजुर्ग और मानसिक रोगी को देखते हैं। उन्हें देख मन में अफसोस करते हैं और सोचते हैं सरकार को इनके लिए कुछ करना चाहिए। तेलंगाना राज्य के सिकंदराबाद में एक एनजीओ है, ‘गुड समैरिटन इंडिया’, जो इस मुद्दे पर जी जान लगा कर काम कर रही है। इस पहल के कर्ता-धर्ता हैं जॉर्ज राकेश बाबू। जिन्होंने अपना जीवन इन्हीं भटके हुए लोगों की सेवा में निछावर कर दिया है। जॉर्ज की दिनचर्या में उनका इलाज करवाना, देखभाल करना और मुत्यु हो जाने पर पूरे सम्मान से अंतिम संस्कार करना भी शामिल है।

 

11 साल पहले हुई थी शुरुआत 

एक चोटिल इंसान को अपने डेस्टीट्यूट होम में दवा लगाते जॉर्ज

द बेटर इंडिया से बातचीत में जॉर्ज बताते हैं कि उनके इस जूनून की शुरुआत 2008 में एक क्लीनिक से हुई थी, जो बुजर्गो के लिए फ्री क्लीनिक था। उन्होंने अक्सर महसूस किया कि बुजुर्ग लोग वहां दवाईंया लेने कम और उनसे बात करने ज्यादा आते हैं। वे इतने तन्हा हैं कि वे बस बात करना चाहते हैं। घरवालों से हताश और परेशान, इन बुज़ुर्गों की बातें सुनने वाला कोई नहीं है। धीरे-धीरे वह क्लीनिक वेलफेयर सेंटर में तबदील हो गया। जहां अब घर से बेघर हुए लोगों को लाया जाता है, उनका इलाज किया जाता है, उनकी काउंसलिंग की जाती है और ठीक होने पर उनकी घर-वापसी की कोशिश की जाती है। अगर घरवाले इन बुज़ुर्गों को अपनाने से इनकार कर दें, तो उनकी मुत्यु होने तक उनका ख्याल रखा जाता है।

2011 में ‘गुड समैरिटन इंड़िया’ को चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में रजिस्टर किया गया। यहां अब तक 300 से ज्यादा बेसहारा लोग अपना आश्रय, अपना आशियाना पा चुके हैं। दस सालों में गुड समैरिटियन इंडिया के तीन ब्रांच बन गए हैं, जिसमें से एक में इलाज होता है और दूसरी में इन बुज़ुर्गों को छोटे-मोटे स्किल्स सिखाए जाते हैं।

 

राह में आईं कई बाधाएं, फिर भी रुके नहीं जॉर्ज 

पुलिस भी अब है गुड समैरिटन्स इंडिया की इस मुहिम के साथ

ऐसा नहीं है कि सुनने में ही इतने मुश्किल लगने वाले कार्य में रुकावटें नहीं आईं। जॉर्ज बताते हैं कि शुरुआती दौर में बहुत सी कठिनाईयों का उन्हें सामना करना पड़ा। समाज के लोग उन पर विश्वास नहीं करते थे। पुलिस और अस्पताल के लोगों को समझाना कठिन हो गया था। पैसों का अभाव भी था। लेकिन जॉर्ज का दृढ़ निश्चय और समर्पण भाव ही था, जिसने इस असंभव लगने वाले काम को संभव कर दिखाया।

वो कहते हैं न कि ‘किसी चीज को दिल से चाहो तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने की कोशिश करती है’, ऐसा ही कुछ जॉर्ज के साथ भी हुआ। धीरे-धीरे लोगों का उन पर विश्वास बढ़ने लगा और अब लोग खुद उन्हें सूचित करने लगे। जहां शुरुआत में 10-15 बेघर लोगों को एक महीने में बचाया जाता था, आज उसकी संख्या 30-35 तक पहुंच चुकी है। हाल ही में जॉर्ज ने ‘एलडर्ली स्प्रिंग’ नामक एक संस्था के साथ टाइअप किया है, जो टाटा ट्रस्ट के अधीन है। साथ ही एक हेल्पलाइन नंबर भी चलाया है, जिससे लोगों की पहुंच बढ़ सके। नए शेल्टर होम (जिसे ‘जॉर्ज डेस्टीट्यूट होम’ कहते हैं) का भी निर्माण भी शुरु हो गया है। जॉर्ज अब केवल बेघर लोगों की सेवा ही नहीं, बल्कि पलायन कर काम करने आए मजदूरों की भी सहायता करते हैं, जो कोई चोट लगने के कारण अपने घर नहीं जा पाए। उन्हें ठीक कर घर भेजने का पूरा बंदोबस्त किया जाता है।

गुड समैरिटन्स इंडिया का हेल्पलाइन नंबर

अपने काम के प्रति निष्ठा को देखते हुए गैप (Global Action on Poverty) ने गुड समैरिटन को बेस्ट ह्युमेरिटेरियन का आवॉर्ड भी दिया है। जॉर्ज वर्ल्ड कम्पैशन अवॉर्ड से भी नवाज़े  गए हैं। अब लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर जॉर्ज का सहयोग देना शुरू कर दिया है।

आपसे अपील है कि आपको एक बार उनके सेंटर पर जाना चाहिए, कुछ और हो न हो, आप थोड़े और संवेदनशील जरूर बन जाएंगे। साथ ही अगर आप इस नेक काम में कोई आर्थिक सहयोग देना चाहें तो इस लिंक पर जाकर डोनेशन कर सकते हैं।

आप नीचे हुए बैंक अकाउंट में भी सीधे ट्रांसफर कर सकते हैं –

Name: Good Samaritan

Trust Type: Current Account

Account number: 019511100001440

Branch name: PETBASHIRABAD, Andhra Bank

IFSC Code: ANDB0000195

 


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मुंबई: घर-घर से इकट्ठा किये प्लास्टिक से बनेंगे अब पब्लिक पार्क के लिए बेंच!

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क्सर हम सोचते हैं कि आखिर एक पॉलिथीन या फिर एक प्लास्टिक की बोतल से क्या बिगड़ जाएगा? लेकिन सालों से हमारी इसी एक सोच ने आज देश और दुनिया में प्लास्टिक के कचरे के बड़े-बड़े पहाड़ खड़े कर दिए हैं। धीरे-धीरे यह प्लास्टिक हमारे पर्यावरण की सांसे खत्म कर रहा है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक, साल 1950 के बाद 8.3 बिलियन टन प्लास्टिक उत्पन्न हुआ है। इसमें से लगभग 60% प्लास्टिक या तो लैंडफिल में जाता है या फिर पर्यावरण में। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन होगा जब हमारे प्राकृतिक स्त्रोत को यह प्लास्टिक पूरी तरह खा जायेगा।

इन डरावने आंकड़ों के बीच अच्छी बात यह है कि आम जन अब इस बात की गंभीरता को समझते हुए इस मुद्दे पर काम करने के लिए साथ में आगे आ रहे हैं। इसका श्रेय कहीं न कहीं उन लोगों, संगठनों और संस्थाओं को जाता है जो बिना रुके और पीछे हटे लगातार आम नागरिकों को जागरूक कर रहे हैं।

मुंबई के ही रहने वाले शिशिर जोशी द्वारा शुरू किया गया संगठन, ‘प्रोजेक्ट मुंबई’ भी इसी फ़ेहरिस्त में शामिल होता है।

‘प्रोजेक्ट मुंबई’ एक पहल है नागरिकों, प्रशासन और प्राइवेट संगठनों को साथ में जोड़कर, आम मुद्दों के हल तलाशने की और फिर शहर में इसे लागू करने की। यह एक तरह का प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ लोग साथ में विचार-विमर्श करते हैं, रिसर्च करते हैं और फिर समाधानों को लागू करते हैं। उनका उद्देश्य आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर मुंबई देना है, जो अपने शहर के प्रति जागरूक हो और ज़िम्मेदार हो।

शिशिर कहते हैं,

“मुंबई शहर में हर कोई अपने शहर के लिए कुछ न कुछ करना चाहता है। आम लोगों से लेकर प्रशासन तक और फिर प्राइवेट सेक्टर भी। लेकिन बहुत-सी वजहों से अक्सर ये लोग साथ नहीं आ पाते। ऐसे में, ‘प्रोजेक्ट मुंबई’ इन तीनों के बीच एक सेतु, एक चेन का काम करता है ताकि बड़े पैमाने पर बदलाव ला सकें।”

यह भी पढ़ें: 3 डस्टबिन से बड़ा बदलाव; प्लास्टिक रीसायकल, गीले कचरे से खाद, पशुओं के लिए खाना!

शिशिर ने लगभग दो दशक तक पत्रकारिता के क्षेत्र में काम किया। वह हमेशा से सिटिज़न जर्नलिज्म से जुड़े रहे। इंडियन एक्सप्रेस, एनडीटीवी और आज तक जैसी मीडिया कंपनियों  के साथ काम करते हुए, उन्होंने देश के कई शहरों में सिटिज़न जर्नलिज्म पर वर्कशॉप भी किये। इसी दौरान उन्हें ‘प्रोजेक्ट मुंबई’ शुरू करने का ख्याल आया।

‘प्रोजेक्ट मुंबई’ में शिशिर के साथ फ़िलहाल 7 लोगों की टीम है, जो ऐसे मुद्दों पर काम करती है, जिनका असर आम लोगों की ज़िन्दगी में बड़े स्तर पर हो। हर मुद्दे पर काम करने के लिए अलग-अलग प्रोजेक्ट्स चलाये जाते हैं। हर एक प्रोजेक्ट के लिए एडवाइजरी बॉडी रखी गयी है, जो उन्हें ज़रूरी सलाह और सपोर्ट देती है। इन प्रोजेक्ट्स की फंडिंग में उन्हें प्राइवेट सीएसआर फंड्स से मदद मिलती है।

पर उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं आम मुंबईकर, जो वॉलंटियरिंग करके इन अभियानों को सफल बना रहे हैं।

‘मुंबई के लिए कुछ भी करेगा,’ उनका स्लोगन है और यही एक वाक्य काफ़ी है यहाँ हर बच्चे, युवा, महिलाओं और बुजूर्गों के मन में जोश भरने के लिए।

अपने शहर के लिए कुछ भी करेंगे

अपने इन अभियानों की शुरुआत उन्होंने शहर के 36 रेलवे स्टेशनों पर साफ़-सफाई करके सौंदर्यीकरण करने की पहल से की। और आज यह संगठन जल्लोश-क्लीन कोस्ट, म्युनिसिपल हॉस्पिटल प्रोजेक्ट, स्माइलिंग स्कूल प्रोजेक्ट, प्लास्टिक रीसायकलोथोन जैसे कई अलग-अलग अभियान चला रहा है।

इनमें से ‘जल्लोश-क्लीन कोस्ट,’ ‘बस कर मुंबईकर- एंटीलिटरिंग,’ और ‘प्लास्टिक रीसायकलोथोन’ स्वच्छता को केंद्र में रखकर शुरू किये गये अभियान हैं।

“जल्लोश क्लीन कोस्ट के ज़रिए हम लोगों के साथ मिलकर समुद्र तटों की साफ़-सफाई पर काम करते हैं तो ‘बस कर मुंबईकर’ का उद्देश्य लोगों को जगह-जगह कचरा फेंकने से रोकना है। बाकी प्लास्टिक रीसायकलोथोन’ का कॉन्सेप्ट कुछ अलग है। इसमें हम मुंबई के निवासियों को अपने घरों से प्लास्टिक कचरा इकट्ठा करके हमें दान करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं,” उन्होंने बताया।

यह भी पढ़ें: 17 साल की इस लड़की की बनाई इको-फ्रेंडली प्लास्टिक के इस्तेमाल से करें पर्यावरण की रक्षा!

साल 2018 से शुरू हुए इनके अभियान ‘प्लास्टिक रीसायकलोथोन’ को काफ़ी सफलता मिली। पहले साल में इस ड्राइव में लगभग 80, 000 लोगों ने प्लास्टिक वेस्ट डोनेट किया था, तो वहीं इस साल सवा लाख से भी ज़्यादा लोग इस पहल से जुड़े हैं।

पिछले साल इकट्ठे किये हुए वेस्ट को रीसायकल करके ‘प्रोजेक्ट मुंबई’ ने बीएमसी पार्क में लगाने के लिए बेंच बनवायीं हैं। इस साल भी उन्होंने काफ़ी मात्रा में प्लास्टिक इकट्ठा किया है। इस प्लास्टिक से वे रोज़ इस्तेमाल होने वाली ज़रूरी चीज़ें जैसे पेन, नोटबुक, कचरे के लिए बड़े डस्टबिन और बेंच आदि बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं।

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उन्होंने आगे बताया है कि जिन भी लोगों ने प्लास्टिक डोनेशन में भाग लिया, प्रोजेक्ट मुंबई टीम ने उन सभी लोगों को बदले में कपड़े का बैग दिया है। इसके पीछे उनका मकसद लोगों को पॉलिथीन छोड़कर कपड़े के थैले इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करना है। ताकि अगली बार जब आप सब्ज़ी खरीदने या अन्य कोई शॉपिंग करने निकले तो घर से कपड़े का बैग लेकर जाएँ।

इस प्रोजेक्ट की सफलता को देखते हुए उन्होंने तय किया है कि अब वे हर महीने घरों से प्लास्टिक वेस्ट इकट्ठा करने के लिए ड्राइव करेंगे। इसके साथ ही उनकी कोशिश है कि मुंबई की तरह इस पहल को अन्य शहरों में ले जाया जाए। क्योंकि उनका सिद्धांत बहुत क्लियर है – लोग, उद्देश्य और सकारात्मक बदलाव!

यदि आप मुंबईकर हैं तो ‘प्रोजेक्ट मुंबई’ की टीम से जुड़ने के लिए उनकी वेबसाइट देख सकते हैं। बाकी यदि आप ऐसा कुछ अपने शहर में शुरू करना चाहते हैं और कोई सलाह चाहते हैं तो 9653330712 पर संपर्क करें। आप उन्हें info@projectmumbai.org पर मेल भी कर सकते हैं!


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बिहार: धान की भूसी से पक रहा है खाना, 7वीं पास के इनोवेशन ने किया कमाल!

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क्सर किसान खेतों में फसल के बाद बचने वाले जैविक कचरे को यूँ ही जला देते हैं। लेकिन इस कचरे का अगर सही ढंग से इस्तेमाल किया जाये तो यही कचरा ग्रामीणों के लिए पारम्परिक ईंधन का एक अच्छा विकल्प हो सकता है और साथ ही एक अतिरिक्त आय का साधन भी। बस ज़रूरत है तो ऐसे लोगों की, जिनके पास कचरे में से खजाना खोज निकालने का नज़रिया हो।

बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के मोतिहारी के रहने वाले 50 वर्षीय अशोक ठाकुर ऐसे ही लोगों की फ़ेहरिस्त में शामिल हैं। लोहे का काम करने वाले अशोक ने कभी भी नहीं सोचा था कि उन्हें कभी अपने एक जुगाड़ के चलते ‘इनोवेटर’ कहलाने का मौका मिलेगा।

चूल्हा बनाते हुए अशोक ठाकुर

सातवीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देने वाले अशोक ने अपने पिता से लोहे का काम सीखा। उनके पिता की एक छोटी-सी वर्कशॉप थी और आज अशोक उसे ही संभाल रहे हैं। लोगों के घरों के लिए लोहे का काम करने वाले अशोक, लोहे के चूल्हे आदि भी बनाते हैं। लोहे के चूल्हे ज़्यादातर कोयले या लकड़ी के बुरादे जैसे ईंधन के लिए कारगर होते हैं। पर फिर अशोक को कुछ अलग करने की सूझी।

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द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया,

“बिहार में धान बहुत होता है क्योंकि हमारे यहाँ चावल ही ज़्यादा खाया जाता है। मैं हमेशा से देखता था कि चावल निकालने के बाद धान की भूसी को फेंक दिया जाता था। हर घर में धान की भूसी आपको यूँ ही मिल जाएगी तो बस फिर ऐसे ही दिमाग में आया कि हम इसे ईंधन के जैसे क्यों नहीं इस्तेमाल करते।”

लेकिन लोहे के जो पारम्परिक चूल्हे अशोक बनाते थे, उनमें धान की भूसी ईंधन के रूप में ज़्यादा समय के लिए कामयाब नहीं थी। इसलिए उन्होंने इस चूल्हे को मॉडिफाई करके भूसी के चूल्हे का रूप दिया। अशोक कहते हैं कि उन्होंने जो भी किया वह उनके सालों के अनुभव से किया। उनके पास कोई फिक्स डिजाईन या फिर लेआउट नहीं था, उन्होंने बस अपने आईडियाज़ पर काम किया।

भूसी से जलने वाला चूल्हा:

 

इस चूल्हे की ख़ासियत यह है कि इसे कहीं भी लाया-ले जाया सकता है क्योंकि इसका वजन सिर्फ़ 4 किलो है। इसमें धान की एक किलो भूसी लगभग एक घंटे तक जल सकती है। यह चूल्हा धुंआ-रहित है और इसे कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

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अशोक बताते हैं कि जब उन्होंने इस चूल्हे को सफलतापूर्वक बना लिया तो उनके इलाके के लोगों ने हाथों-हाथ इसे ख़रीदा। क्योंकि सबके घरों में भूसी तो आसानी से उपलब्ध थी ही और अब इस चूल्हे की वजह से उन्हें अन्य किसी ईंधन पर खर्च करने की ज़रूरत नहीं होती। साल 2013 में उन्होंने इस चूल्हे को बनाया था और अभी भी लगातार उनका यह चूल्हा डिमांड में है।

“सिर्फ़ बिहार में ही नहीं, बाहर के लोगों को भी इसके बारे में पता चला। तो अब बाहर से भी हमारे पास लोगों के फ़ोन आते हैं और वे यह चूल्हा मंगवाते हैं,” उन्होंने आगे कहा।

अशोक ने अपनी लागत और मेहनत के हिसाब से चूल्हे की कीमत भी ज़्यादा नहीं रखी है। आप उनसे यह चूल्हा मात्र 650 रुपये में खरीद सकते हैं।

नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने दी पहचान:

अनिल गुप्ता जी के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को अपना इनोवेशन दिखाते अशोक ठाकुर

साल 2013 में ‘ज्ञान और सृष्टि‘ के फाउंडर, अमित गुप्ता को अपनी शोधयात्रा के दौरान अशोक के इस अनोखे जुगाड़ को देखने और समझने का मौका मिला। उन्होंने नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के इनोवेटर्स की लिस्ट में अशोक का नाम भी शामिल कर लिया।

इसके बाद, इस चूल्हे को टेस्टिंग के लिए IIT गुवाहाटी और दिल्ली के TERI यूनिवर्सिटी भेजा गया। वहां से मिली रिपोर्ट्स के मुताबिक यह चूल्हा ग्रामीण इलाकों में हर मौसम में कारगर है। इसके बाद NIF ने अशोक ठाकुर की तरफ से इस चूल्हे पर उनका पेटेंट भी फाइल किया है।

ग्रामीणों के लिए बना रोज़गार का साधन 

“हमारे इस इनोवेशन के बाद बहुत से लोगों के लिए धान की भूसी एक रोज़गार का साधन हो गयी। बहुत-से किसान अब इसे फेंकने की बजाय बाज़ारों में इसे 10 रुपये किलोग्राम की दर से बेचते हैं। हमें ख़ुशी है कि हम इस तरह अपने लोगों के काम आ पाए हैं,” उन्होंने अंत में कहा।

इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि हमारे देश में जुगाड़ और जुगाड़ करने वालों की कोई कमी नहीं है। हम कहीं भी अपने लिए रोज़गार का तरीका निकाल सकते हैं, बस ज़रूरत है तो कुछ अलग-हटके देखने के नज़रिए की।

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अशोक ठाकुर से संपर्क करने के लिए आप 9931254424 पर कॉल कर सकते हैं!

अशोक के इनोवेशन पर नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा बनाई गयी विडियो प्रस्तुत है –

संपादन – मानबी कटोच 


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हरियाणा का यह किसान दुनिया के कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हो चुका है सम्मानित!

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फलता की यह कहानी है प्रगतिशील किसान ईश्वरसिंह कुंडू की, जो हरियाणा के छोटे से गाँव कैलरम में रहते हुए भी अपनी अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियों के चलते पूरी दुनिया के किसानों के लिए एक मिसाल बन गए हैं। कभी मुश्किल से गुज़र बसर करने वाले कुंडू आज  ‘कृषिको हर्बोलिक लैबोरेटरी’ नामक कंपनी के मालिक हैं, जो किसानों के लिए विभिन्न उत्पादों पर शोध तथा निर्माण करती है।

ईश्वर सिंह का जन्म 1961 में हरियाणा के कैथल जिले के कैलरम गाँव में किसान परिवार में हुआ था। पिता फौजी थे और माँ गृहिणी। उनके अलावा उनके 2 और भाई हैं। ईश्वरसिंह ने अपने गाँव के हाईस्कूल से दसवीं की परीक्षा पास की और उसके बाद कैथल की आईटीआई में नक़्शानवीश (ड्राफ्ट्समैन) कोर्स में दाखिला लिया। 1984 में कोर्स पूरा करने के बाद वह नौकरी की तलाश में जुट गए पर असफल रहे।

कोर्स के दौरान ही उनकी शादी भी कर दी गयी थी। संयुक्त परिवार था, खेतीबाड़ी की अच्छी ख़ासी ज़मीन थी, पर बंटवारा होते-होते उनके हिस्से में सिर्फ़ पौने दौ एकड़ ज़मीन ही आई जिससे गुज़ारा करना मुश्किल था। ऐसे में आर्थिक संबल के लिए उन्होंने दूसरी तरह के कई कामों में किस्मत आज़माई। दिल्ली में चाय की दुकान चलाई, गाँव में खेतीबाड़ी के औज़ारों की मरम्मत के साथ ही उन्हें बेचने का काम किया, एक साल तक छत्तीसगढ़ में किसी के यहां नक़्शानवीश की नौकरी की और फिर कैथल में बीज-कीटनाशक बेचने की दुकान खोली। पेस्टिसाइड्स बेचते हुए उन्हें इसके दुष्प्रभावों का गहरा अनुभव हुआ। इन्हें बेचने के दौरान ही ईश्वर को एक क़िस्म की एलर्जी सी हो गई थी। ईश्वर उनकी बू तक सहन नहीं कर पाते थे। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि इन रसायनों से किसानों की सेहत और ज़मीन दोनों की कितनी दुर्दशा हो रही है।

 

ऐसे में वह इस काम को छोड़कर 1993 में अपने गाँव चले आये और उन्होंने अपने खेतों में जैविक खेती करने की ठानी।

ईश्वर सिंह कुंडू

यह वह दौर जब आर्गेनिक खेती प्रचलन में नही थी। इस शब्द की ईश्वर को भी जानकारी नही थी। उन्होंने तो बस निर्णय कर लिया था कि देशी-तरीकों से खेती करनी है। देशी खेती का कोई ज्ञान भी नहीं था, कोई सुझाने वाला, कोई बताने वाला भी नही था। ईश्वर ने अपनी लगन के चलते जैसे अंधेरे में सुई तलाशने का काम शुरू कर दिया था। पर उन्हें इस बात का बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि उस वक़्त उनके द्वारा यूंही की जा रही यह शुरुआत उन्हें एक रोज़ दुनिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर का किसान बना देगी।

उन्होंने अपने आस-पास उपलब्ध संसाधनों से ही नवाचारी प्रयोग शुरू किए। पहला प्रयोग नीम से शुरू हुआ। फिर उनके दिमाग में ख़याल आया कि आक और धतूरा जैसी वनस्पतियों की ओर न तो किसान देखता है और न पशु इन्हें खाना पसंद करते हैं। इसी विचार से बदलाव की एक शुरुआत हुई।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए कुंडू उन दिनों में खो जाते हैं, जब उस समय में वे दिल्ली गए थे। उस दौर में लाल किले के पीछे पुरानी चीज़ों का एक बाज़ार लगता था। वहां खोजबीन के दौरान उन्हें एक किताब मिली, जिसमें आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों के बारे में जानकारियां थी। उन्होंने उसका अध्ययन किया। कुछ जड़ी बूटियों को चिन्हित किया। इस सिलेक्शन में उन्होंने अपनी अक्ल भी लगाई। जो जड़ी बूटियां मानव सेहत के लिए लाभदायक हैं, वे खेती और फसलों के लिए भी तो लाभदायक हो सकती हैं। यहीं से आयुर्वेदिक नुस्खों को खेती में प्रयोग किये जाने का एक दौर शुरू हुआ।

ईश्वरसिंह ने इन जड़ी बूटियों की छंटाई करनी शुरू के दी। कसेली, कड़वी और जीभ को ना सुहाने वाली, अति तेज गंध वाली वनस्पतियों को उन्होंने अलग किया। शोध और प्रयोग शुरू हुए। आसपास के पड़ोसी किसान कहते, “कुंडू पागल हो गया है। अब इसके बच्चों को कौन पालेगा? यह तो फांसी खाके मरेगा। बचपन से ही ज़िद्दी, जुनूनी और अपने मन की करने वाला रहा है चाहे फिर लाभ हो या हानि!”

ईश्वरसिंह बताते हैं, “धीरे-धीरे प्रयोग करता चला गया, थोड़ी बहुत सफलता भी मिलती रही, रास्ता सूझता रहा, मैं लगा रहा क्योंकि मंज़िल अभी दूर थी। मुझे और प्रयास करने थे। देखते ही देखते 5 साल पूरे हो गए। मेहनत और पागलपन का जुनून ऐसा रंग लाया कि यक़ीन ही नहीं हुआ। एक ऐसे फॉर्मूले का जन्म हो चुका था जो मेरी सोच और समझ से भी बाहर था। सबसे पहले उसे मैंने अपनी ही फसलों पर आजमाया। गाँव के लोग तो मेरा मज़ाक ही उड़ाते रहते थे, इसलिए मैंने इसे दूसरे गांवों में रह रहे अपने दोस्तों को दिया और आजमाने को कहा। उन्होंने कहा,‘वाक़ई कमाल है यह तो!”

 

ईश्वर के मुताबिक उन्हें कोई व्यापार नहीं करना था,  बल्कि उन्हें तो बस किसानों को यह समझाने की धुन थी कि जो कीटनाशक वे प्रयोग कर रहे हैं, उसके प्रयोग से केवल नुकसान ही होगा, लाभ नहीं। ईश्वर अपना बनाया कीटनाशक मुफ्त में ही किसानों को देना चाहते थे। उन्होंने कई किसानों से कहा कि वह इसका फार्मूला बता देंगे जिसके बाद वे घर पर ही इसे बना सकते हैं। पर किसीने इसमें दिलचस्पी नहीं ली।

 ईश्वर बताते हैं, “जिन किसान मित्रों के खेतों में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल हुआ था, वे बोले कि इस फॉर्मूले को बोतल में बंद करके कोई नाम देकर 100-50 रुपये की कीमत रख के देना शुरू करो तो यह मानेंगे। मुफ्त की चीज़ काम नहीं करती।”

अपने दोस्तों की इस सलाह को मानकर ईश्वर ने अपना बनाया हुआ कीटनाशक बेचना शुरू कर दिया। बस फिर क्या था? धीरे-धीरे किसानों को कुंडू के इस नवाचार पर भरोसा होने लगा।

 

ईश्वरसिंह ने कभी किसी से नहीं कहा कि उनके उत्पाद ऑर्गेनिक या बायो हैं। किसानों को इतना जरूर समझाया कि जो क्लोरपायरीफॉस और एंडोसल्फान या फोरेट आप खेतों में डाल रहे हो, उसकी जगह इसे डालकर देखो। श्वर ने खेतों में घूम-घूमकर ख़तरनाक और ज़हरीले कीटनाशकों के बारे में जागरूक करने का अभियान चलाया और किसान समझने लगे। जब ये देखा कि किसान भाई उनकी इन बातों को अब समझ रहे हैं तो ईश्वर ने उनको सिखाने के भी प्रयास शुरू किए।

 

कीटनाशक कंपनियों ने किया मुकदमा 

ईश्वर को अब लगने लगा था कि वह इन ज़हरीले रसायनों से लड़ सकते हैं, पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। 2004 में एक वक़्त ऐसा भी आया जब कुछ कंपनियों और लोगों को ईश्वरसिंह के प्रयास ठीक नही लगे।

वह कहते हैं, “इन असरदार और रसूखदार लोगों ने पुलिस को मेरे पीछे लगा दिया, चार-सौ बीसी का मुकदमा दर्ज करवाया, किसानों को गुमराह करने का आरोप लगाया पर गनीमत रही कि राज्य के कृषि विभाग ने उन लोगों का साथ नही दिया, बल्कि मेरा हौसला बढ़ाया। 6 साल तक मैंने मुक़दमा लड़ा और जीत हासिल कर अपनी खोई हुई
इज़्ज़त फिर से हासिल की।”

मुक़दमे की इसी भागमभाग में उनकी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई, जिसने उन्हें एक मैगज़ीन दी जो नवीन खोज करने वालों के बारे में थी। मैगज़ीन राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान, अहमदाबाद की थी। ईश्वर ने उनके पते पर अपनी खोज के बारे में विस्तार से एक पत्र लिखा, बदले में उन्होंने कई सारी जानकारियां मांगी। एक टीम ईश्वरसिंह के गाँव आई और उनके फार्मूले और फसलों का लैब टेस्ट कवाया गया , जिसमें हर पैमाने पर उनकी खोज खरी उतरी।

 

डॉ. कलाम ने न सिर्फ सम्मानित किया बल्कि सहयोग भी किया

 

2007 में राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने ईश्वर सिंह को सम्मानित किया। कलाम साहब ने इनकी खोज को सराहा और इस बारे में उनसे कई सवाल भी पूछे। इसके बाद उन्होने अपने ओएसडी डॉ. बृह्मसिंह को निर्देश दिए कि इनकी हरसंभव सहायता की जाए और उन्होंने पूरी मदद भी की। इस दिन के बाद से इनके उत्पाद राष्ट्रपति भवन के बाग़ों में भी प्रयोग किए जा रहे हैं।

 

ईश्वर सिंह की यह खोज पूरी तरह जड़ी बूटियों पर आधारित है। आईये जानते हैं उनके कुछ विशेष उत्पादों के बारे में –

1 . पहला उत्पाद ‛कमाल 505’ फसलों को दीमक इत्यादि से बचाने के लिए बनाया गया है। यह ज़मीन की उर्वरकशक्ति बढ़ाने के साथ ही ज़मीन में सूक्ष्मजीवों की वृद्धि में भी सहायक है।

2. दूसरी खोज ‛कमाल क्लैंप’ गाढ़े पावडर की शक्ल में है, जो ऑर्गेनिक कार्बन का भी स्त्रोत है। यह आर्सेनिक, पारा इत्यादि भारी तत्वों से पूरी तरह मुक्त है। फसलों में जड़गलन, फफूंदी जनित रोग, रूट रॉट आदि से बचाव में यह कारगर साबित हुआ है। साथ ही लगातार फसलें लेने, ज़्यादा उर्वरकों, कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण
भूमि की जो परत कठोर हो जाती है, उसमें भी यह कारगर है।

इनके उपयोग से यूरिया, डीएपी जैसे रसायनिक उर्वरकों की खपत में भी 20 से 25% तक कमी आती है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना ने इस खोज पर 3 साल तक परीक्षण किया और बहुत कारगर पाया। उनकी बनाई रिपोर्ट के मुताबिक़ इनके प्रयोग से फसल उत्पादन में भी 7 से 18% तक वृद्धि दर्ज की गई है।

3 . ‛के-55’ नामक कीटनाशक को ईश्वर ने बाग़, पॉली हाउस, कपास, मिर्च तथा सब्जियों को वायरसजनित रोगों, सफेद मक्खी व रस चूसने वाले कीटों से बचाव करने के लिए बनाया है।

4 . ‛कमाल केसरी’ भी उनका एक उत्पाद है जो उन बेहद ख़तरनाक कीटनाशी आधारित बीजोपचार उत्पादों के स्थान पर बीजोपचार के लिए बनाया गया है।

ईश्वर की इन खोजों का पेटेंट 2008 में ही भारत सरकार के पेटेंट कार्यालय द्वारा जर्नल संख्या 51 में छप चुका है। इतना ही नहीं खेतों के वैज्ञानिक, जगजीवनराम अभिनव कृषि पुरस्कार, इनोवेटिव फार्मर अवार्ड, उत्तम स्टाल अवार्ड, इएमपीआई इंडियन एक्सप्रेस इनोवेशन अवार्ड, इंडिया बुक रिकॉर्ड, लिम्का बुक रिकॉर्ड जैसे 3 दर्ज़न से अधिक पुरस्कार उनके खाते में हैं। इसके अलावा भी कई देशों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया है जिसमें इंटरनेशनल इनोवेशन फेस्टिवल, जकार्ता में मिला 1000 डॉलर का ईनाम प्रमुख है।

ईश्वर को वर्ष 2013 में ‘महिंद्रा एंड महिंद्रा’ द्वारा मुंबई में आयोजित ‘स्पार्क द राइज’ राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 44 लाख रूपये का पुरस्कार-अनुदान मिला है।

इसी साल वे भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अपने कार्यक्रम (जो राष्ट्रपति भवन द्वारा In-Residence Program for Innovators के नाम से संचालित होता है) में भी 150 प्रतिभागी इन्नोवेशन स्कॉलर्स में से चुने गए 10 स्कॉलर्स में शामिल किए गए।

यहाँ तक पहुँचने के बाद भी किसानों को जागरूक करने का अभियान उन्होंने अभी तक बन्द नहीं किया है। 100 से अधिक प्रशिक्षण शिविर आयोजित कर वे किसानों को अपने आसपास मौजूद वनस्पतियों से कारगर उत्पाद बनाने की तालीम दे चुके हैं।

आज हजारों किसान ईश्वर सिंह कुंडू और उनकी ‘कृषिको हर्बोलिक लैबोरेटरी’ से सीधे संपर्क में हैं, क्योंकि वे उनके उत्पादों की सहायता से आधे से भी कम खर्च में खेती कर अपने खेत खलिहानों से मुनाफ़ा कमा सफलता की इबारत लिख रहे हैं।

यदि आप भी ईश्वर सिंह कुंडू से संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें 09813128514/ 07015621521 पर कॉल कर सकते हैं या उन्हें kisan.kamaal@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच 


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इस दिवाली खरीदिये ये ख़ास पटाखे, जिनसे धुंआ नहीं सिर्फ़ मिठास घुलेगी!

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साल 2018 से चर्चा में आये ‘ग्रीन क्रैकर्स’ को सीएसआईआर-नीरी के वैज्ञानिकों ने बनाया है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, ये पटाखे, पारंपरिक पटाखों की तुलना में 30% कम प्रदुषण करते हैं। इन ‘ग्रीन क्रैकर्स’ को बाज़ारों में उतारने से पहले इन्हें कलर, धुंआ, आवाज़, प्रदूषक तत्व आदि के लिए टेस्ट किया गया है।

ये ग्रीन क्रैकर्स अभी तक सिर्फ़ दिल्ली में ही उपलब्ध हैं और वह भी काफ़ी कम जगहों पर। क्योंकि अभी भी बहुत से विक्रेताओं के पास लाइसेंस नहीं है। लेकिन फिर भी पटाखे तो पटाखे हैं, प्रदुषण का स्तर भले ही कम हो, लेकिन यह पूरी तरह से पर्यावरण के लिए सुरक्षित नहीं है।

इसलिए बेहतर यही है कि सभी लोग शांतिपूर्वक प्रदुषण रहित दिवाली मनाएं। क्योंकि जितना आप पटाखों पर खर्च करते हैं, उतने पैसे में आप किसी ज़रूरतमंद को कपड़े, मिठाइयाँ आदि खरीदकर दे सकते हैं। इससे पर्यावरण के साथ-साथ समाज का भी भला होगा।

इस दिवाली शोर-शराबे या फिर प्रदुषण का नहीं बल्कि खुशियों का मीठा त्यौहार मनाइये। आपकी दिवाली को ख़ास बनाने के लिए हमारे पास बहुत ही अनोखी चॉकलेट्स हैं, जो बच्चों से लेकर बड़ों तक, सभी की खुशियों की मिठास दुगुनी कर देंगी और आपको पटाखों की कमी भी महसूस नहीं होने देंगी।

इन चॉकलेट्स को पटाखों का आकार और रूप दिया गया है। कोलकाता स्थित चोको फेंटसी द्वारा तैयार यह चॉकलेट बॉक्स, दिवाली पर आपके लिए और आपके अपनों के लिए एक परफेक्ट गिफ्ट है। इस बॉक्स में आपको अलग-अलग आकार में, डार्क और मिल्क चॉकलेट्स मिलेंगी।

इस एक चॉकलेट बॉक्स की कीमत सिर्फ़ 600 रुपये है!

चोको फेंटसी के सभी प्रोडक्ट्स हैंडमेड चॉकलेट से बनते हैं और इन्हें बनाते समय स्वाद के साथ-साथ ग्राहकों के स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखा जाता है। इसके अलावा, इन चॉकलेट्स को पैक करने के लिए रीसायकल पेपर का इस्तेमाल किया गया है।

इन चॉकलेट्स को खरीदने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

तो इस दिवाली इस प्यारे से तोहफे के साथ अपने अपनों को दीजिये शांत और खुशहाल दिवाली मानाने की प्रेरणा। पहले ही हम ग्लोबल वार्मिंग, क्लाइमेट चेंज और हर दिन प्रदूषित हो रही हवा में जी रहे हैं। फ़िलहाल, हमें इन सभी मुद्दों के खिलाफ़ साथ में लड़ना चाहिए, न कि पटाखे जलाकर स्थिति को और बिगाड़ना चाहिए।

पिछले साल, दिवाली के एक दिन बाद भारत के कई बड़े शहरों की एयर क्वालिटी बहुत ज़्यादा गिर गयी थी। एयर क्वालिटी इंडेक्स में मुंबई का रैंक 361 था तो दिल्ली और कोलकाता का 420। जबकि भारत में 100 एयर क्वालिटी इंडेक्स को ही सही समझा जाता है। इन शहरों के लगभग 3 करोड़ लोग हद से ज़्यादा प्रदूषित हवा में साँस ले रहे थे।

तो इस बार द बेटर इंडिया के साथ संकल्प करें एक स्वच्छ, प्रदुषण रहित दिवाली मनाने का!

संपादन – मानबी कटोच


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राजस्थान का एक गाँव, जहाँ सालाना इक्ट्ठा होते हैं 10 हजार से भी ज्यादा कलाकर!

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ब हम उत्सवों की बात करते हैं तो उनमें रंग होते हैं, रौशनी होती है, तरह-तरह के पकवान होते हैं, बहुत सारा उत्साह होता है। भारत में हमेशा से ही उत्सवों के नए-नए रंग देखने को मिलते हैं, फिर वो यहाँ के गाँव हो या शहर। ऐसा ही एक गाँव है  राजस्थान के शेखावाटी इलाके में बसा मोमसार गाँव। जैसे ही कोई उत्सव आता है,यह गाँव तारों की तरह जगमगाने लगता है। लगभग 250 साल पुराने इस गाँव में हर एक त्योहार लोक कलाकारों के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। 200 से भी ज्यादा कलाकार इन कार्यक्रमों का हिस्सा बनते हैं, जो भिन्न-भिन्न प्रकार की कलाओं से लबरेज रहते हैं, जैसे किसी ने एक ही थाली में हजारों रंग रख दिए हों। और इनकी कलाओं के इस रंग को हजारों की तादाद में लोग देखने आते हैं।

अभी एक और उत्सव आने वाला है, दीपावली। दीपावाली मतलब रौशनी, दीये, मिठाईयां और उल्लास। राजस्थान का मतलब किले, संस्कृति और लोक कलाएं। कल्पना करिए कि कैसा हो यदि इन दोनों को मिलाकर एक उत्सव मनाया जाए और उसमें लोक कलाकार शामिल हों, पर्यटक शामिल हों और शामिल हो भारतीय संस्कृति की विविधता!

ऐसा ही एक प्रयास है मोमसार उत्सव। मोमसार उत्सव की नींव 2011 में विनोद जोशी ने रखी थी। विनोद इस दीपावाली पर भी इस उत्सव का आयोजन करवाने जा रहे हैं। यह उत्सव नवीं बार आयोजित किया जा रहा है। इस उत्सव में न केवल क्षेत्रीय कलाकर बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं बल्कि बड़ी संख्या में विदेशों से भी लोग आते हैं। इस बार के आयोजन में जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया के कलाकार आ रहे हैं।

बातचीत के दौरान हमने विनोद जोशी से पूछा कि आप क्षेत्रीय कलाकारों को ही ज्यादा तवज्जों क्यों देते हैं। तो उन्होंने बड़ी ही सरलता के साथ जवाब दिया, “सार्वजनिक तौर पर ज्यादातर लोग पहले से ही प्रसिद्ध गिने-चुने कलाकारों को जानते हैं, गिनी-चुनी लोक कलाओं को भी। कोई भी कार्यक्रम होने पर सहूलियत के हिसाब से उन्हीं चुनिंदा कलाकारों को बुलाया जाता है, जिससे बाकी के अन्य कलाकारों का मनोबल गिरता है। पर ये अन्य कलाकार भी उन प्रसिद्ध कलाकारों जितना ही गुणवान होते हैं। इसके आलावा क्षेत्रीय स्तर पर कई लोक कलाएं हैं जिनके बारे में लोग बहुत कम ही जानते हैं। मोमसार उत्सव कोशिश कर रहा है कि सभी कलाकारों को समान मौका और आमदनी मिले। साथ ही सभी लोक कलाओं को मंच प्रदान हो। जिससे ये सभी कलाकार अपनी-अपनी कला से प्रेम कर सकें और इसे आगे बढ़ाएं।”

स्थानीय कलाकारों के साथ विनोद जोशी (मध्य)

 

विनोद इन कलाकारों को लोगों से बातचीत करना सिखाते हैं, मंच पर कैसे जाएं, लोगों से कैसे डील करें, पहनावा कैसा हो। अपने हक के अनुसार आमदनी कैसे तय करें। एक रूप से वह कलाकार का पूरा पैकेज तैयार करते हैं, जिससे उनके जीवन स्तर में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ सम्मान की भी प्राप्ति हो। उनके बच्चे अपने माता-पिता को सम्मान मिलता देखें और अपने सुधरते जीवन को देख, इस कला को अपनाएं। साथ ही इसे आगे भी बढ़ाएं।

मोमसार केवल दीपावाली तक ही सीमित नहीं है। साल भर में विनोद की यह संस्था अलग-अलग त्योहारों पर 34 उत्सवों का आयोजन करवाती है। जिससे साल भर क्षेत्रीय कलाकारों के पास काम रहता है।

 

विनोद  बताते हैं, “हम अब तक तकरीबन 10 हजार से भी ज्यादा कलाकारों को अपने इस नेक्सस के साथ जोड़ चुके हैं। पहले हम टैलेंट हंट करते हैं। वहां से नगीनों को ढूंढकर उन्हें ये विस्तृत मंच देते हैं। जो नए आर्टिस्ट हैं, उन्हें प्लैटफॉर्म मिल रहा है। क्या होता है, कलबेलिया, भँवई, झूमर आदि नृत्यों के जो चर्चित कलाकार होते हैं, उन्हें ही हर जगह से इनविटेशन मिलता है। ऐसे में अन्य उभरते हुए टैलेंट्स को भी मंच मिलना बहुत जरूरी है। ताकि उनको प्रोत्साहन और रोजगार मिलता रहे। जब वो हमारे मंच पर परफॉर्म करते हैं, उनके अंदर आत्मविश्वास आता है। उन्हें अन्य जगहों से भी परफॉर्मेंस के ऑफर आने लगते हैं। हम खुद हर एक परफॉर्मेंस के लिए धनराशि देते हैं। उनको अच्छा करते देख उनके आस-पड़ोस के अन्य कलाकार भी प्रेरणा पाते हैं। यह एक चैनल बन जाता है। और एक लोककला उपेक्षा का शिकार होने से बच जाती है।”

बातचीत के इस क्रम में विनोद एक बहुत ही जरूरी बात भी रेखांकित करते हैं, कि ये जो सारी लोककलाएं हैं, वो गाँव-कस्बों से होकर ही आ रही होती हैं। जो सारी जनजातियां हैं, उनकी संस्कृतियों, त्योहारों, पूजा-पाठ और दैनिक गतिविधियों से निकल कर आई हैं। इन सबके पीछे सदियों पुरानी विरासत है। इस पहल से उनका प्रयास है कि ग्लैमर की चकाचौंध में ये आर्ट फॉर्म्स केवल मनोरंजन का ही साधन बनकर न रह जाए। उनके पीछे के इतिहास व कहानियों का महत्व भी लोग जानें। यह एक ऐसा फेस्टिवल है, जो अपनी जड़ों से जुड़ा है। यहाँ के खेत-खलिहानों में, इमारतों में बैठकर लोग संगीत का रस लेते हैं।

विनोद कहते हैं, “यह बहुत जरूरी है। हम आधुनिकता की राह पर आगे जरूर बढ़ें लेकिन हम आए कहां से हैं, यह न भूलें। हम चाहते हैं कि आज से दस साल बाद अगर कोई राजस्थान की असली रंगत व रागों से परिचित होना चाहे तो उसे भटकना न पड़े।”

आने वाले दिनों में विनोद एक मंच बनाना चाहते हैं, जहां सभी कलाकार एक हो जाएं। देश विदेश से कलाकार इकट्ठा हो। एक दूसरे की कला को देखे-सुने, उसका आनंद लें, उसका सम्मान करें और अपनी जड़ों से लोगों की पहचान कराएं।

अंत में विनोद कहते हैं, “हम चाहते हैं और कोशिश कर रहे हैं कि इस प्लेटफार्म के माध्यम से देश-विदेश हर जगह के संगीतकार और गायक आए और आपस में जुड़कर अलहदा संगीत रचें। ग्लोबल विलेज की एक परिकल्पना ये भी तो हो सकती है ना।”

इस उत्सव की अधिक जानकारी के लिए आप उनकी वेबसाइट पर जा सकते हैं!

संपादन – मानबी कटोच 


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पढ़ाई के साथ करें कमाई भी, इन प्लेटफॉर्म्स पर मिलेंगे वर्चुअल इंटर्नशिप के विकल्प!

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मैं हरियाणा के एक छोटे शहर से ताल्लुक रखती हूँ, जहाँ मेरी दुनिया स्कूल से घर और घर से स्कूल तक ही सीमित थी।  लेकिन जब बारहवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया तो पता चला कि कितना कुछ है दुनिया में जो मुझे पता ही नहीं था।

हम छोटे शहरों या फिर गाँवों से आने वाले छात्रों के लिए सबसे बड़ी परेशानी होती है जागरूकता की कमी और बहुत बार आत्मविश्वास की कमी। मैं भी अपनी ग्रेजुएशन के शुरूआती कुछ महीनों में तनाव और डर में रही कि मैं अपने क्लासमेट्स से कम हूँ। भाषा के साथ थोड़ी दिक्कत थी, कंप्यूटर स्किल्स नहीं थी और तो और टेक्स्ट बुक्स के अलावा कोई नॉवेल या फिर अन्य कुछ ख़ास पढ़ा नहीं था।

तब समझ आया कि दो ही रास्ते हैं या तो यूँ ही पीछे बैठकर भीड़ में खो जाऊं या फिर अपनी कमियों पर काम करूँ और लोगों की नज़रों में अपनी एक पहचान बनाऊं। अपने व्यक्तित्व और अपनी स्किल्स को निखारने के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है प्रैक्टिकल ज्ञान। किसी भी प्रोफेशनल क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए टेक्निकल स्किल्स के साथ-साथ कम्युनिकेशन स्किल्स, प्रेजेंटेशन स्किल्स भी अच्छी होनी चाहिए।

पर ऐसे मौके कहाँ से ढूंढे, जहां हमें अपनी कमियों को परे हटाकर कुछ सीखने का, कुछ करने का मौका मिले। तब मुझे अपने कुछ दोस्तों से अलग-अलग वर्चुअल इंटर्नशिप प्लेटफॉर्म्स के बारे में पता चला। शुरू-शुरू में ज़्यादा कुछ समझ नहीं आता था, लेकिन मैं लगातार इन वेबसाइट्स को देखती, जानने-समझने की कोशिश करती। और धीरे-धीरे इन पर इंटर्नशिप के लिए अप्लाई करना शुरू किया।

मेरी सबसे पहली वर्चुअल इंटर्नशिप ‘YourDost’ के साथ थी। जहाँ मुझे न सिर्फ़ सीखने का मौका मिला, बल्कि हर महीने अपना कुछ कमाने का भी मौका मिला। इसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, अपनी पढ़ाई के साथ मैंने इंटर्नशिप-वॉलंटियरिंग जारी रखी। और आज मेरे करियर में यह अनुभव बहुत काम आ रहा है।

इसलिए आज मैं आपको ऐसे कुछ ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के बारे में बता रही हूँ, जहाँ आपको देश के छोटे-बड़े संगठनों के साथ ऑनलाइन, ऑफलाइन काम करने का चांस मिल सकता है। सबसे अच्छी बात यह है कि इन वेबसाइट्स पर रजिस्टर करने के लिए आपको कोई फीस देने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि इन प्लेटफॉर्म्स पर आपको ऐसे विल्क्ल्प मिलेंगे जहाँ इंटर्नशिप के लिए आपको सर्टिफिकेट के साथ-साथ पैसे कमाने का भी मौका मिलेगा। ये प्लेटफॉर्म्स बिल्कुल स्टूडेंट-फ्रेंडली हैं!

 

1. इंटर्नशाला (Internshala) एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ छात्र अपने विषय और अपनी दिलचस्पी के हिसाब से इंटर्नशिप ढूंढ सकते हैं। यहाँ पर आपको इंजीनियरिंग, आर्ट्स, साइंस एंड टेक्नोलॉजी, लॉ, आईटी, कंप्यूटर, सोशल वर्क, टीचिंग और यहाँ तक कि सरकारी संगठनों में निकलने वाली इंटर्नशिप के बारे में भी पता चलेगा।

इंटर्नशाला पर स्कूल के छात्रों से लेकर मास्टर्स, पीएचडी करने वाले छात्रों के लिए इंटर्नशिप के मौके उपलब्ध हैं। देश के ज़्यादातर सभी छोटे-बड़े शहरों में स्थित अलग-अलग संगठनों में निकलने वाली समर, विंटर या फिर अन्य कोई भी इंटर्नशिप, पार्ट-टाइम जॉब, फुल-टाइम जॉब या फिर वर्क फ्रॉम होम (घर से काम करने का मौका) आदि के बारे में जानकारी मिल जाएगी।

इंटर्नशिप के साथ-साथ इंटर्नशाला पर छात्रों के लिए कुछ सर्टिफाइड ऑनलाइन ट्रेनिंग प्रोग्राम्स भी हैं जैसे वेब डेवलपमेंट, डाटा साइंस, एथिकल हैकिंग, कोर जावा, डिजिटल मार्केटिंग, ऑटो कैड आदि। लेकिन इन सर्टिफाइड ऑनलाइन ट्रेनिंग प्रोग्राम्स को लेने के लिए आपको कुछ फीस देनी होगी।

इस प्लेटफ़ॉर्म पर आपको सभी तरह की इंटर्नशिप, जैसे कि कुछ में आपको सिर्फ़ सर्टिफिकेट मिलता है तो कुछ में आपको एक न्यूनतम सैलरी भी मिलती है। अधिक जानकारी के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

2 . लेट्स इंटर्न (Let’sIntern) भी इंटर्नशिप ढूंढने के लिए अच्छा ऑनलाइन साधन है। यहाँ पर भी आपको अपनी रूचि और स्किल्स पर काम करने के लिए अच्छे विकल्प मिलेंगे। यदि आप अभी स्टूडेंट लाइफ में हैं तो इंटर्नशिप देखने के साथ-साथ आप इन वेबसाइट के ब्लॉग भी पढ़िये। इनके सभी ब्लॉग पोस्ट छात्रों के सामने आने वाली परेशानियों से ही संबंधित होते हैं।

 

3. ट्वेंटी19 (Twenty19) का स्लोगन है, ‘छात्रों की सुनों, उन्हें समझो और उन्हें वह दो जो वे चाहते हैं।’ इसी थीम पर काम करते हुए इस संगठन की कोशिश रहती है कि यहाँ पर रजिस्टर करने वाले छात्रों को न सिर्फ़ उनके क्षेत्र से जुड़ी इंटर्नशिप के मौकों के बारे में, बल्कि अन्य सभी तरह की गतिविधियाँ जैसे कि कॉलेज-यूनिवर्सिटी की टेक फेस्ट, कल्चरल फेस्ट, अलग-अलग कांटेस्ट, कॉन्फ्रेंस, सेमिनार आदि के बारे में भी जानकारी दी जाये।

वेबसाइट पर उपलब्ध उनके बायो के मुताबिक, उनका मुख्य उद्देश्य है छात्रों को अलग-अलग तरह के प्रोफेशनल माहौल का अनुभव कराके, उन्हें इस काबिल बनाना कि वे खुद अपना करियर चुनें और अपने सपनों को पूरा करें। इतना ही नहीं, यहाँ पर रजिस्टर करने वाले छात्रों को करियर डेवलपमेंट पर गाइड भी किया जाता है।

 

 

इस प्लेटफ़ॉर्म पर भी आप कुछ ऑनलाइन ट्रेनिंग प्रोग्राम कर सकते हैं जिनके लिए आपको फीस देनी होगी। बाकी कुछ बेसिक ट्रेनिंग प्रोग्राम जैसे कि प्रोफेशनल ईमेल राइटिंग, बायोडाटा बनाने के टिप्स, एक्सेल के कुछ बेसिक टिप्स, कवर लैटर लिखने की ट्रेनिंग आदि आपको फ्री में मिलती हैं।

वेबसाइट देखने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

4. वर्कटीन (WorkTeen): इस ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म को ख़ास तौर पर स्कूल के छात्रों के लिए डिजाईन किया गया है। यहाँ पर हाई स्कूल के बच्चे इंटर्नशिप या फिर वॉलंटियरिंग करने के मौके ढूंढ सकते हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस प्लेटफ़ॉर्म को साल 2016 में जयपुर के अमन सुराना ने शुरू किया था और उस वक़्त वे खुद 12वीं कक्षा के छात्र थे।

एक इंटरव्यू के दौरान अमन ने बताया कि 16 से 19 साल की उम्र वाले बच्चों के लिए स्पेशल कोर्स आईबी डिप्लोमा प्रोग्राम करने वाले छात्रों को कंपल्सरी 50 घंटे सामुदायिक कार्यों के लिए देने पड़ते हैं। इसलिए उन्होंने तय किया कि इस संगठन के ज़रिए स्कूल के बच्चों के लिए सोशल वर्क में उपलब्ध इंटर्नशिप की जानकारी दी जाएगी।

अमन और उनकी टीम ने न सिर्फ़ पहले से उपलब्ध इंटर्नशिप को इस प्लेटफ़ॉर्म पर जगह दी, बल्कि बहुत से सामाजिक संगठनों को स्कूल के बच्चों को इंटर्नशिप और वॉलंटियर करने के मौके देने के लिए भी एप्रोच किया।

छात्रों को बस वेबसाइट पर जाना है। कोई रजिस्ट्रेशन का भी झंझट नहीं है और वे अपनी स्किल्स और जगह के हिसाब से अपने लिए इंटर्नशिप ढूंढ सकते हैं। फ़िलहाल, वेबसाइट पर फीडिंग इंडिया, ओवेंडरफुल मोम बेकर्स कम्युनिटी, सेवालय, वर्ल्डवाइल्ड लाइफ जैसे संगठनों के साथ काम करने के मौके उपलब्ध हैं। आप यहाँ क्लिक करके सभी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं!

5. स्टूमैगज़ (StuMagz) के फाउंडर श्रीचरण लक्काराजू के मुताबिक, यह एक प्लेटफ़ॉर्म है जहाँ छात्र समुदाय अपने विचारों, अपनी सोच को आवाज़ दे सकते हैं- अपने जैसे और छात्रों के विचारों के बारे में जान सकते हैं। वह बताते हैं कि स्टूमैगज़ के ज़रिए वे छात्रों और कम्पनीज, दोनों के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं। यदि कोई कंपनी किसी इंटर्नशिप या फिर जॉब रोल के लिए हायरिंग करना चाहती है तो वह अपनी वैकेंसी यहाँ पोस्ट कर सकती है या फिर कोई भी संगठन किसी कॉलेज-यूनिवर्सिटी में छात्रों के लिए, छात्रों के साथ मिलकर कोई इवेंट करना चाहता है, तो इसमें भी स्टूमैगज़ उनकी मदद करता है।

इसके अलावा, कॉलेज स्टूडेंट यहाँ पर किसी भी विषय से संबंधित आर्टिक्ल, स्टोरी लिख सकते हैं। यह प्लेटफ़ॉर्म छात्रों को अपने प्रोजेक्ट करने में भी मदद करता है। यदि किसी स्टूडेंट को अपने प्रोजेक्ट में कोई मदद चाहिए जैसे कि जावा कोडिंग या फिर किसी फ्रंट डिजाइनिंग प्रोजेक्ट में तो वे यहाँ पोस्ट कर सकते हैं। इस वेबसाइट का एक फीचर इवेंट प्लान करना भी है। कॉलेज में अगर स्टूडेंट्स कोई इवेंट करना चाहते हैं तो वे यहाँ पर इवेंट क्रिएट करके अन्य कॉलेज और यूनिवर्सिटी के छात्रों को बता सकते हैं।

यहाँ पर क्लिक करें और जानें कि कैसे स्टूमैगज़ आपके लिए मददगार हो सकता है!

तो आज ही इन प्लेटफॉर्म्स को चेक करें और अपने प्रोफेशनल करियर की तरफ एक कदम उठायें!

संपादन – मानबी कटोच 


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ख़ामोशी की पंखुड़ियाँ !

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1.
जब तितलियाँ
सारी रौशनी उड़ा ले जाएँ
और तुम्हारी आँखों का उजाला
बूँद बूँद टपके
मेरे मन को सफ़ेद कर दे
गीला कर दे
बहुत दिनों तक
एक शब्द भी न बोला जाए

2.
ज़माना जिनकी सुनता था
वो तीन बन्दर थे
तीनों मर गए
तब से
ख़ामोशी ही नहीं है

3.
राख ढका
शान्त गर्म अलाव
सर्द रात, नंगे बदन
कानों पर नाखूनों के घाव
तीन बजने को आए
लेकिन पत्थर आँखों की ख़ामोशी
पूरे शहर में गूँज रही है
अभी तक

4.
अपने क़ातिल से उन्सियत
चुम्बन से मुहरबंद
मेरी ज़ुबान
न खुली, तो न खुली
उसकी शादी पर भी नहीं रोई

उन्सियत* Infatuation

5.
वे ख़ामोश रहे
क़ातिल चुनाव लड़ते रहे
विविध भारती बजता रहा

6.
सोलहवें साल में
एक उत्श्रृंखल नदी
सी लड़की ने
अपना पहला चुम्बन लिया
और तब से वो ख़ामोश है

कितनी दफ़ा यूँ होता है कि किसी की ख़ामोशी जानलेवा शोर बन जाती है. इस विषय पर कुछ लघु कविताएँ साझा हैं आज, और साथ ही कटूरा रॉबिंसन (Katurah Robinson) के साथ बनाया गया एक प्रयोगात्मक वीडियो जिसका शीर्षक है ख़ामोशी. आज की शनिवार की चाय ख़ामोशी के साथ आपकी नज़्र 🙂


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वह भारतीय जिसने दिया ‘ओयलर थ्योरी’का हल, 177 साल बाद हल हुई थी यह पहेली!

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18वीं शताब्दी के प्रसिद्ध गणितिज्ञ लियोनार्ड ओयलर ने साल 1782 में गणित की एक अनोखी पहेली बनाई, जिसका हल कोई गणितज्ञ, यहाँ तक कि खुद ओयलर भी नहीं ढूंढ पाए। पर इस पहेली को 177 साल बाद हल किया एक भारतीय गणितज्ञ ने और उनकी इस उपलब्धि को न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने फ्रंटपेज पर छापा!

आदिकाल से ही भारत विख्यात गणितज्ञों की जन्मभूमि रहा है। आर्यभट्ट का नाम तो यहाँ का बच्चा-बच्चाः जानता है पर आज हम आपको देश के एक और महान गणितज्ञ से मिलवा रहे हैं, जिनका नाम है शरदचंद्र शंकर श्रीखंडे। श्रीखंडे ने ही ओयलर की मुश्किल पहेली का हल दिया था, लेकिन आखिर क्या थी वह पहेली?

आइये जानते हैं:

मान लीजिये कि छह अलग-अलग मिलिटरी रेजिमेंट में 36 अधिकारी हैं, और हर रेजिमेंट में विभिन्न रैंक के 6 अधिकारी हैं। इसे एक वर्ग में किस प्रकार व्यवस्थित किया जाये ताकि हर पंक्ति व कॉलम में 6-6 अधिकारी हों, और किसी भी पंक्ति या कॉलम में कोई रैंक या रेजिमेंट एक बार से अधिक न आए?

जब ओयलर ने इस पहेली को बनाया, तब उन्होंने बहुत हद तक इसे लैटिन स्क्वायर (Latin Square) की मदद से हल कर लिया था पर वह इसे पूरा नहीं कर पाये। इसके बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि इस पहेली का कोई हल हो ही नहीं सकता। 1901 में फ़्रांस के गणितिज्ञ गैस्तों टैरी ने इसे सुलझाने का प्रयास किया और वह असफल रहे। उन्होंने भी मान लिया कि इस सवाल को हल करना नामुमकिन है।

लियॉनहार्ड यूलेर, जिन्होंने वह पहेली बनाई

काफी अरसे तक कई गणितज्ञ इस सवाल का हल खोजते रहे और अंत में साल 1959 में भारतीय गणितज्ञ शरदचंद्र शंकर श्रीखंडे और उनके गुरु, आर. सी. बोस ने ओयलर के अनुमान को गलत सिद्ध किया और इस पहेली को हल करने में वे कामयाब रहे।

भारतीय गणितज्ञ व ओयलर की पहेली

ओयलर ने अपने कैरियर के दौरान प्रकाशिकी (Optics), ध्वानिकी (Acoustics), चंद्रगति (Lunar Motion), कलन (Calculus), ज्यामिती (Geometry), बीजगणित (Algebra) व संख्या सिद्धांत (Number Theory) जैसे विषयों पर करीब 900 पुस्तकें लिखीं।

हालांकि, गणित के इस सम्राट ने अपने करियर के शुरूआती दिनों में ही देखने की क्षमता खो दी थी। लेकिन कभी भी उनकी प्रतिभा व मेहनत पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा।

साल 1959 में श्रीखंडे व बोस ने अपने एक और साथी ई. टी. पार्कर के साथ मिल कर ओयलर की पहेली को हल किया। उस समय श्रीखंडे और बोस, दोनों ही चैपल हिल में उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय के गणितीय सांख्यिकी विभाग (Department of Mathematical Statistics) में थे। श्रीखंडे यहाँ पर पीएचडी कर रहे थे, तो वहीं बोस साल 1949 से वहां शिक्षक के तौर पर कार्यरत थे।

राज चंद्र बोस, भारतीय गणितज्ञ और श्रीखंडे क साथी

न्यूयॉर्क टाइम्स में उनके बारे में छपने पर श्रीखंडे ने कहा था, “बोस, एर्नी (पार्कर) और मुझे अपने कार्य को न्यूयॉर्क टाइम्स के रविवार संकलन के मुख्यपृष्ठ पर देखने का दुर्लभ मौका मिला।”

Major Mathematical Conjecture Propounded 177 Years Ago Is Disproved; 3 MATHEMATICIANS SOLVE OLD PUZZLE– 26 अप्रैल 1959 के न्यूयॉर्क टाइम्स की यह हेडलाइन पूरी दुनिया को इन भारतीयों की उपलब्धि की गाथा सुना रही थी।

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक इन तीनों गणितज्ञों को उनके सहयोगियों के बीच ‘ओयलर्स स्पॉइलर’ के नाम से जाना जाता है यानी कि जिन्होंने ओयलर की थ्योरी को बिगाड़ दिया। साल 1959 में न्यूयॉर्क में आयोजित अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी की वार्षिक सभा में भी उनके इस कार्य के बारे में बताया गया।

श्रीखंडे व उनका जीवन

शरदचंद्र श्रीखंडे, इस साल वे अपना 102वां जन्मदिन मनाएंगे

श्रीखंडे का जन्म 19 अक्टूबर 1917 में मध्यप्रदेश में हुआ। वे दस भाई-बहन थे और उनके पिता सागर जिले में एक आटा चक्की पर नौकरी करते थे। पर ज़रा-सी आमदनी में बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा बड़ी चुनौती थी। श्रीखंडे बचपन से ही मेधावी छात्र रहे और इस वजह से उन्हें लगातार स्कॉलरशिप मिलती रही, जिसके सहारे उन्होंने नागपुर के गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ साइंस से बीएससी आनर्स की पढ़ाई पूरी की। यहाँ उन्हें न सिर्फ़ रैंक मिली बल्कि उन्हें गोल्ड मेडल से भी नवाज़ा गया।

नौकरी मिलना उनके लिए कभी भी आसान नहीं रहा, लेकिन फिर भी दिन-रात मेहनत करने के बाद उन्हें भारतीय सांख्यिकी संस्थान में नौकरी मिल गयी। इस नौकरी से उनकी ज़िंदगी थोड़ी संवर गयी और स्थिर हुई। यहीं पर उनकी मुलाक़ात आर. सी बोस से हुई और उन्होंने श्रीखंडे को सांख्यिकी डिजाईन के सिद्धान्त से परिचित कराया। इसी ज्ञान से आगे चल कर उन्होंने उस कठिन पहेली को हल किया।

इसके बाद उन्होंने कुछ समय के लिए उस कॉलेज में पढ़ाया, जहाँ से वे खुद पढ़े थे।

फिर स्कॉलरशिप मिलने पर श्रीखंडे ने उत्तरी कैरोलिना के विश्विद्यालय में पीएचडी करने के लिए दाखिला लिया। जल्द ही, उनकी पत्नी शकुंतला व बच्चे भी वहां शिफ्ट हो गए। श्रीखंडे का परिवार साल 1953 में भारत लौटा और 1958 तक नागपूर में रहा। इसके बाद, उन्होंने चैपल हिल में एक विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में काम किया।

साल 1963 में उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय में काम करना शुरू किया और साल 1978 में रिटायरमेंट ली।

1983-86 के बीच वे इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के मेहता रिसर्च इंस्टिट्यूट में निदेशक के रूप में कार्यरत थे। पर साल 1988 में अपनी पत्नी शकुंतला के निधन के बाद श्रीखंडे अपने बच्चों के पास अमेरिका चले गए।

वहां से वे साल 2009 में भारत लौटे और विजयवाड़ा में अपनी एक पोती के ससुराल वालों द्वारा गरीब लड़कियों के लिए चलाये जा रहे आश्रम में ही बस गये।

ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियाँ किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। जिन दिग्गजों ने विश्व में भारत को यह पहचान दिलाई है, उनमें शरदचंद्र शंकर श्रीखंडे का भी नाम आता है!

द बेटर इंडिया, भारत के इस अनमोल रत्न को सलाम करता है!

संपादन: निशा डागर 
मूल लेख: अंगारिका गोगोई 


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शूटर दादी: मिलिए दुनिया की ओल्डेस्ट शार्प शूटर चंद्रो तोमर से!

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जिस उम्र में अक्सर कामकाजी लोग रिटायरमेंट लेते हैं और ज़िंदगी भर की थकान उतारने की तैयारी में होते हैं, उस उम्र में एक महिला ने ‘नारी सशक्तिकरण’ की एक नई कहानी लिखी। नाम है चंद्रो तोमर यानी कि हमारी सबकी प्यारी ‘शूटर दादी’!

भारत में तो क्या विदेशों में भी हमारी ‘शूटर दादी’ के चर्चे हैं। 87 साल की उम्र में भी वह आपको गाँव के बच्चों को शूटिंग की ट्रेनिंग करवाते हुए मिलेंगी।

पर हमेशा से ऐसा नहीं था। ज़िंदगी भर घूँघट के पीछे रही दादी ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन उनका चेहरा बड़े-बड़े अख़बारों के फ्रंट पेज पर तस्वीर बनकर छपेगा।

“65 साल की उम्र तक तो मैं एक साधारण सी ‘दादी’ ही थी। मैं अनपढ़ हूँ और जाट परिवार से हूँ, जहाँ औरतें चारदिवारी में ही रहती हैं और सिर्फ़ घर का काम करती हैं। अब इसे किस्मत कहें या कुछ और पर साल 1998 में जब मैंने अपनी पोती शेफाली के साथ शूटिंग रेंज में कदम रखा तो मेरी ज़िंदगी ही बदल गयी,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए शूटर दादी ने बताया।

शूटर दादी चंद्रो तोमर

गाँव में युवाओं को शूटिंग के लिए प्रोत्साहित और ट्रेन करने के लिए जोहरी राइफल क्लब के प्रेसिडेंट डॉ. राजपाल सिंह ने इस शूटिंग रेंज की स्थापना की थी। शूटर दादी की पोती शेफाली, शूटिंग रेंज में अपने अनुभव को याद करते हुए बताती हैं,

“मुझे याद है कि मैं शूटिंग रेंज में बहुत डरती थी। वहां सिर्फ़ लड़के थे और मुझे लगता था कि मैं कभी शूटिंग नहीं कर पाउंगी। हर रोज़ मैं मन मारकर वहां जाती थी। दादी मेरे साथ शूटिंग रेंज जाती थीं और एक दिन जब मैं राइफल लोड नहीं कर पा रही थी, तो वो मेरी मदद करने के लिए आगे आयीं। वो दादी की एक नई ज़िंदगी की शुरुआत थी। मैं दादी के लिए चीयर कर रही थी और सिर्फ़ हमें देख-देख कर ही उन्होंने अपने जीवन का पहला निशाना लगाया, जो सीधे ‘बुल्स आय’ पर लगी।”

उनका निशाना देखकर डॉ. राजपाल को उनकी प्रतिभा का अंदाजा हो गया और उन्हें पता था कि अगर दादी को मौका दिया जाये तो वह इस खेल में माहिर हो जाएंगी। उन्होंने दादी से शूटिंग सीखने और करने के लिए कहा। लेकिन समस्या थी परिवार का समर्थन, जो मिलना मानो नामुमकिन सा था। दादी बताती हैं कि उनके घरवाले इसके बिल्कुल खिलाफ़ थे। किसी ने उनका साथ नहीं दिया।

“मैं इस बात को घर पर बताने में भी डर रही थी। पर डॉ. राजपाल ने भरोसा दिलाया कि इस बारे में घर में किसी को पता नहीं चलेगा, इसके बाद ही मैं प्रैक्टिस करने के लिए तैयार हुई। मेरे पति ने न तो कभी प्रोत्साहित किया और न ही कभी रोका। वह बस चुपचाप देखते रहे। पर आज कहानी एकदम अलग है। अब सब खुश हैं और मुझे आगे बढ़ने का हौसला भी देते हैं। पर तब कोई साथ नहीं था सिवाय मेरे दृढ़ निश्चय के।”

शूटिंग रेंज में प्रैक्टिस करते हुए

अपनी पहली शूटिंग प्रतियोगिता के अनुभव को याद करते हुए उन्होंने बताया कि पहली बार वह अपनी पोती शेफाली के साथ ही प्रतियोगिता में गयी थीं। उनका रजिस्ट्रेशन बुजूर्ग श्रेणी में हुआ था और उस मैच में उन्हें और शेफाली, दोनों को ही मेडल मिले। दूसरे ही दिन उनका फोटो सभी स्थानीय अख़बारों में था। फोटो देखकर दादी इतना डर गयीं कि घर में अगर किसी ने देख लिया तो.. और उन्होंने अखबार छिपा दिया। पर उन्हें नहीं पता था कि अखबार की तो न जाने कितनी प्रतियां छपती हैं।

जब उनके परिवार को पता चला तो उन्हें काफ़ी कुछ सुनाया गया। उन्हें शूटिंग रेंज जाने से रोक दिया गया और सब ने उन्हें बहुत हताश करने की कोशिश की। लेकिन यही वक़्त था जब दादी ने ठान लिया कि वह अपनी प्रैक्टिस जारी रखेंगी। इसलिए वह घर पर ही प्रैक्टिस करने लगीं।

शेफाली बताती हैं,

“भले ही दादी को अंग्रेजी नहीं आती, पर उन्हें पता है कि खुद को कैसे सम्भालना है। उनकी खूबी है कि वह बहुत जल्दी चीज़ें सीखती हैं। उन्हें लोगों से मिलना और बातें करना बहुत पसंद है।” वे आगे कहती हैं कि अब दादी ने अंग्रेजी के भी कई शब्द सीख लिए हैं क्योंकि प्रतियोगिताओं के लिए उन्हें अलग-अलग जगह जाना पड़ता है। एक बार वह चेन्नई में थीं और उन्होंने किसी से पानी माँगा, ‘भाई पानी दे दे,’ पर वो उनकी बात समझ ही नहीं पाए। इसके बाद से उन्होंने कुछ शब्द जैसे पानी को ‘वॉटर,’ चम्मच को ‘स्पून’ और नाश्ते को ‘ब्रेकफ़ास्ट’ आदि सीख लिए।”

अब तो दादी विदेशियों से भी बात करना मैनेज कर लेती हैं। उनके सीखने की लगन उन्हें कभी भी बुढ़ा नहीं होने देती, क्योंकि वे दिल से जवान हैं।

जो भी दादी से मिलता है, वो यही पूछता है कि आख़िर क्या राज़ है जो वह इस उम्र में भी इतनी एक्टिव हैं? इस सवाल के जवाब में वह हंसकर सिर्फ़ एक ही बात कहती हैं,

“शरीर बुढ़ा होता है पर मन बुढ़ा नहीं होता।”

अब उनकी ज़िंदगी के इस संघर्ष को बड़े परदे पर फिल्म के रुप में उतारा जा रहा है। फिल्म का नाम है ‘सांड की आँख’ और इस फिल्म में उनकी भूमिका अभिनेत्री भूमि पेडनेकर निभा रही हैं।

शूटर दादी न सिर्फ़ अपने गाँव की लड़कियों के लिए बल्कि पूरे देश की लड़कियों के लिए प्रेरणा हैं। द बेटर इंडिया उनके हौसले और जज़्बे को सलाम करता है।

मूल लेख – विद्या राजा 
संपादन – मानबी कटोच 


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35 सालों से असहाय लोगों को रोटी, कपड़ा और घर दे रहा है हरियाणा का यह ट्रक ड्राईवर!

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“साल 1978 में मैंने ट्रक पर जाना शुरू कर दिया, लेकिन उस ड्राईवर को मुझसे हर बात पर खुन्नस निकालनी होती थी क्योंकि उसकी हेराफेरी के बारे में मैं मालिक को सच बता देता था। उसने एक बार मुझे महाराष्ट्र में बीच रास्ते में ही छोड़ दिया। 3 दिन तक मैं भूखा-प्यासा 200-250 किमी चला और फिर एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचा, जहाँ से मैं दिल्ली की ट्रेन में बैठा। मुझे इतनी भूख लगी थी कि मेरे सामने एक आदमी पुड़ी खा रहा था और मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उससे पुड़ी मांग ली। उसने एक पुड़ी तो दी लेकिन जब दूसरी के लिए कहा तो बहुत गलियाँ सुनाई उसने मुझे। उस पल मेरी आँखों में आंसू थे पर मन में बस यही आया कि एक दिन ऐसा बनना है कि मैं दूसरों को खिलाऊं।”

सालों पुरानी इस घटना का जिक्र करते हुए 60 वर्षीय देव गोस्वामी की आवाज़ भारी हो गयी और उनका गला रुंध गया। आज भी उन्हें यह किस्सा याद है जैसे कि कल की ही बात हो। लेकिन अब वे उस आदमी को धन्यवाद करते हैं क्योंकि उसकी वजह से उनके मन में दूसरों के लिए कुछ करने का भाव आया।

हरियाणा के सोनीपत जिले में गन्नौर गाँव के रहने वाले देवदास गोस्वामी पिछले लगभग 35 सालों से बेघर और बेसहारा लोगों को रोटी, कपड़ा और रहने के लिए घर दे रहे हैं। देवो आश्रम के नाम से वे दो शेल्टर होम चला रहे हैं, एक गन्नौर में और एक दिल्ली के द्वारका में। गन्नौर में फ़िलहाल 100 से ज़्यादा लोग हैं तो द्वारका में 80 लोगों का पालन-पोषण हो रहा है।

देव गोस्वामी (बाएं)

ये सभी लोग बेघर, बेसहारा हैं जो इधर-उधर से भीख मांगकर अपना गुज़ारा करते हैं। इनमें बहुत से लोग मानसिक रोगी भी हैं क्योंकि वर्षों से ज़िंदगी के थपेड़े झेलते हुए वे उदासीन हो गए हैं। जहाँ भी देव को इस तरह के असहाय लोग मिलते हैं, वे उन्हें अपने साथ अपने शेल्टर होम ले आते हैं। देव बताते हैं,

“सबसे पहले हम उन्हें शीशा दिखाते हैं और फिर उन्हें नहला-धुलाकर, दाढ़ी-बाल आदि बनाकर उन्हें साफ़-सुथरे कपड़े पहनाते हैं। इसके बाद फिर से उन्हें शीशा दिखाया जाता है और यदि दोबारा शीशा देखने पर उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी तो बस फिर उन्हें ज़िंदगी की और लाना मुश्किल नहीं। इन लोगों की वह एक मुस्कराहट इतनी संतोषजनक होती है कि कभी अपने मकसद से पीछे हटने नहीं देती।”

इसके अलावा, देव लावारिस मौत मरने वालों का पूरे विधि-विधान से अंतिम संस्कार भी करते हैं। उनके इन सभी कार्यों में उनकी पत्नी तारा गोस्वामी उनका बराबर साथ देती हैं। तारा दिल्ली के शेल्टर होम को सम्भालती हैं तो देव ज़्यादातर गन्नौर के शेल्टर होम में रहते हैं। जितनी हमदर्दी उन्हें लोगों से है उतनी ही जानवरों से भी है। देव बताते हैं कि अगर कभी रोड एक्सीडेंट में कोई जानवर मर जाता है तो अक्सर आने-जाने वाले लोग उसे नज़र अंदाज कर देते हैं। लेकिन उनके जीवन का यह नियम है कि अगर कहीं भी-कभी भी उन्हें कोई जानवर ऐसे मिलता है तो वे उसे खुद दफनाते हैं।

कैसे हुई शुरुआत?

देव के इन नेक कामों की शुरुआत 80 के दशक से होती है। उन्होंने बताया कि उनके पिता ब्रिटिश आर्मी में ड्राईवर की नौकरी करते थे और माँ गृहिणी थी। उनके पिता हमेशा उन्हें अपनी यात्राओं की कहानी सुनाते थे और बस उनके किस्से-कहानी सुनकर बड़े हुए देव ने भी ठान लिया कि वह ट्रक ड्राइविंग करेंगे और लंबी-लंबी यात्राओं पर जाएंगे। नौवीं तक पढ़े देव ने हरियाणा की नॉर्दन कैरिएर्स प्राइवेट लिमिटेड नामक एक कंपनी के साथ काम करना शुरू किया।

शुरू में वह दूसरे ड्राइवर्स के साथ जाते थे और फिर साल 1980 से उन्होंने खुद गाड़ी चलाना शुरू कर दिया। देव कहते हैं,

“मैंने अपने सफ़र के दौरान लोगों को बरसों चलते देखा है। उस जमाने में सीधे-सपाट रास्ते होते थे और उन रास्तों में न जाने कितने ही लोगों को भूखे-प्यासे, नंगे पैर, बहुत बार बिना कपड़ों के चलते देखा। मेरे ज़ेहन में रेलवे स्टेशन पर मेरे साथ घटी घटना हमेशा रही और इसलिए जब मेरे अपने हाथ में ट्रक आया तो मैं अपने साथ राशन का सामान रखता। रास्ते में अगर कोई भूखा-प्यासा बेसहारा मिल जाता तो वहीं गाड़ी साइड लगाकर, खाना बनाता और उन्हें खिलाता।”

साभार: कमल गोस्वामी (देव गोस्वामी के बेटे)

खाने के अलावा देव अपने साथ कैंची, उस्तरा, ब्लेड आदि भी रखते और इन लोगों के दाढ़ी-बाल भी बना देते। वह कुछ एक्स्ट्रा कपड़े भी अपने साथ रखने लगे ताकि रास्ते में ज़रुरतमंदों को दे सकें। अपने इस काम में देव इतने मग्न रहते कि उनकी डिलीवरी में लेट-लतीफी होने लगी। कई बार तो उन्हें कंपनी से निकाल दिए जाने का नोटिस भी मिल जाता था। उनके साथी ड्राईवर उन्हें पागल कहते थे जो अपने को भुलाकर दूसरों के लिए कहीं भी रुक जाता।

लेकिन देव के लिए उनके इस काम से बढ़कर कुछ नहीं था। उनके जीवन में एक वक़्त ऐसा भी था कि उन्होंने आजीवन शादी न करने की ठान ली थी। पर फिर घरवालों के बहुत समझाने और कहने पर उन्होंने शादी की।

उनकी पत्नी तारा भी उनके इस काम से काफ़ी प्रभावित हुई और उन्होंने हमेशा उनका साथ दिया। यहाँ तक कि जब पहली बार देव ने एक लावारिस का अंतिम संस्कार किया तो उनकी पत्नी ने उस अर्थी को उनके साथ कंधा दिया। सैकड़ों मृत लोगों का अंतिम संस्कार कर चुके देव कहते हैं कि वह और उनकी पत्नी किसी धर्म या जाति को नहीं मानते। उनके लिए सबसे बड़ा धर्म लोगों की सेवा करना है।

एक बेसहारा का अंतिम संस्कार करने जाते देव और उनकी पत्नी तारा

साल 1992 के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह से इस काम के लिए समर्पित कर दिया। उनके पास जो कुछ भी बचत थी उससे उन्होंने तिहाड़ जेल फ्लाईओवर के नीचे 125 लोगों को खाना खिलाना शुरू किया। उन्होंने उनके लिए वहां त्रिपाल आदि लगाकर रहने की व्यवस्था की। उनके इस काम को देखकर और भी बहुत से लोग उनकी मदद के लिए आये।

“बस यूँ समझ लो कि इस काम में मुझे कभी भी पैसे की तंगी नहीं हुई। साल दर साल इतने सज्जन लोग जुड़ते रहे कि कोई पैसे देता तो कोई राशन पहुंचा जाता। कभी दो लोग दान देना बंद करते तो और चार लोग उन्हीं के माध्यम से दान देना शुरू कर देते। बस इसी तरह कारवां चल रहा है,” उन्होंने हंसते हुए कहा।

वह आगे बताते हैं कि कुछ साल पहले उन्हें फ्लाईओवर के नीचे से हटा दिया गया और उसके बाद उन्होंने गन्नौर में और द्वारका में शेल्टर होम चलाना शुरू किया। द्वारका में जिस जगह शेल्टर होम चल रहा है वह उन्होंने किराए पर ली हुई है। बाकी गन्नौर में वह बिल्डिंग बनवा रहे हैं जिसका काम अभी चल रहा है। इस शेल्टर होम के निर्माण के लिए उन्होंने मिलाप पर एक फण्डरेजर शुरू किया है।

लोगों को खाना खिलाते हुए

अंत में वह सिर्फ़ इतना ही कहते हैं,

“मुझे कभी भी यह डर नहीं लगा कि मैं इतने लोगों के लिए कैसे-क्या करूँगा। कहाँ से पैसेआएंगे, बस मेरी भावना सच्ची रही। मैंने मोह की जगह सेवा भाव को अपनाया। क्योंकि सिर्फ़ अपने लिए जीने में क्या जीना है, अगर जीना ही है तो दूसरों के लिए कुछ करते हुए जियो, फिर आपको दुनिया की कोई भी चीज़ नामुमकिन नहीं लगेगी।”

यदि आपको इस कहानी ने प्रेरित किया है और आप देव गोस्वामी के इस नेक काम में कोई मदद करना चाहते हैं तो मिलाप पर उनके अभियान में डोनेट कर सकते हैं। अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें!

देव गोस्वामी से संपर्क करने के लिए 9910200632 पर डायल करें!

संपादन – मानबी कटोच 


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12वीं पास किसान के बनाए ‘मम्मी-मॉडल’से अब अंतिम संस्कार में लगती हैं 4 गुना कम लकड़ियां!

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मारे देश में हमेशा से पेड़, नदी तथा पर्यावरण सरंक्षण को लेकर आवाज़ बुलंद की जाती रही है। फिर वह चिपको आंदोलन हो या जोधपुर का अमृतादेवी बिश्नोई प्रसंग, ये सभी इस बात की गवाह है कि वृक्षों के सरंक्षण के लिए यहाँ लोग जान तक की बाज़ी लगाने से पीछे नहीं हटते। शायद ये सभी जानते थे कि हम सबका इस पृथ्वी पर मौजूद सुविधाओं से सहअस्तित्व जुड़ा हुआ है और हमारे जिंदा रहने के लिए जंगलों का बचा रहना भी बेहद ज़रूरी है।

एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में रोज़ाना 26,789 लोगों की मौत हो जाती है। इनमें से 80 प्रतिशत यानी 21,431अग्नि संस्कार का उपयोग करते हैं। एक शरीर के अग्नि संस्कार में 400 किलो लकड़ी लगती है।

क्या आज तक यह बात किसी के दिमाग में आई कि दाह संस्कार में कम से कम लकड़ी का इस्तेमाल करें तो रोज़ की कितनी लकड़ियां बचाई जा सकती हैं?

गुजरात, जूनागढ़ के केशोद में रहने वाले महज़ बारहवीं पास किसान अर्जुन भाई पघडार के दिमाग में आज कुछ 40 साल पहले ही यह बात आ गयी थी।

अर्जुन भाई पघडार

कैसे हुई शुरुआत 

“बात यही कोई 40 साल पहले की है। मेरे मामाजी की मृत्यु हो गई थी, तब मैं भी अंतिम संस्कार में गया था। उस वक़्त मेरी उम्र 14 साल थी, मैंने देखा कि अंतिम संस्कार में 400 किलो से ज्यादा लकड़ियों का इस्तेमाल किया गया। यहीं से मुझे इसे कम करने का विचार आया,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए अर्जुन भाई बताते हैं।

आज अर्जुन भाई 54 साल के हो गए हैं। वह कहते हैं, “समय के साथ जिंदगी की उलझनों में उलझा रहा पर कम लकड़ी में शव का अंतिम संस्कार कैसे हो, इसके बारे में मैंने सोचना कभी बंद नहीं किया।”

और फिर एक दिन अचानक उनके मन में यह विचार आया कि शवदाह गृह को ममी के आकार का होना चाहिए, जिससे लकड़ी की खपत काम होगी। पैसे की कमी के बावजूद उन्होंने प्रोटोटाइप तैयार किया और पहली बार इसका इस्तेमाल जूनागढ़ के शवदाह गृह में किया गया। जूनागढ़ के तत्कालीन कमिश्नर विजय राजपूत ने उस वक़्त इस काम में उनकी पूरी मदद की।

अर्जुन भाई बताते हैं,“मैंने ऐसा शवदाह गृह बनाया है, जिसका इस्तेमाल करने पर अंतिम संस्कार में मात्र 70 से 100 किलो लकड़ी ही लगेगी। मेरा दावा है कि मेरे द्वारा बनाए गए इस शवदाह गृह के इस्तेमाल से देश में रोज़ाना कम से कम) 40 एकड़ जंगल बचाया जा सकता है।”

अर्जुन भाई द्वारा बनायी गयी इस अंतिम संस्कार की इस भट्टी का नाम ‛स्वर्गारोहण’ है। इसे प्रमोट करने के लिए ‛गुजरात एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी’ ने फंडिंग भी की है।

 

कैसे काम करता है ‘स्वर्गारोहण’

अपने बनाये मॉडल के साथ अर्जुन भाई

‛स्वर्गारोहण’ भट्टी वायु एवं अग्नि के संयोजन से काम करती है। एक हॉर्स पॉवर के ब्लोअर से आग लगने के बाद भट्टी में तेज हवा चलती है, जिससे तेजी से पूरी भट्टी की लकड़ियां एवं शव जलने लगता है। लकड़ी और शव को रखने के लिए अलग-अलग जाली लगाई गई है, ताकि अग्नि को जलने में आसानी रहे। नीचे वाली जाली के ऊपर लकड़ी रखी जाती है, लकड़ी के ऊपर भी जाली होती है। उसके ऊपर शव रखने के लिए जाली लगायी गई हैI लोहे से बने ऊपरी कवर का अंदरूनी हिस्सा सेरा-वूल से भरा हुआ है, जो ज्यादा तापमान को बर्दाश्त कर सकता है। इसमें ब्लोअर और नॉजल भी दिए गए हैं, ताकि अंतिम संस्कार के दौरान हवा अन्दर-बाहर आ-जा सके।  भट्टी के अंदर की गर्मी 700 डिग्री सेल्सियस से 1000 डिग्री सेल्सियस तक हो जाती है।

भट्टी के अंदर की गर्मी वातावरण में न जाए, इसके लिए फायर ब्रिक्स मेटेरियल से मम्मी के आकार का साँचा बनाया गया है। हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार दो दरवाजों का भी इस्तेमाल किया गया है – एक मुख्य द्वार और दूसरा अंतिम द्वार। अंतिम संस्कार करने संबंधी इस नई प्रक्रिया में एक सेंसर आधारित टेम्प्रेचर मीटर भी है, जिससे लोगों को अंदर के तापमान का पता चलता रहता है।

80 किलो तक के शव के संस्कार के लिए इसमें 70-100 किलो लकड़ी लगती है और समय भी डेढ़ से 2 घंटा लगता है।

अर्जुन भाई इस समय को भी ज्यादा मानते हैं जिसे भविष्य में और कम करने के साथ ही वह लकड़ियों की लागत भी कम करने के लिए भी प्रयासरत हैं।

 

कुछ इस तरह होती है पर्यावरण की रक्षा

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम को अपना मॉडल दिखाते हुए अर्जुन भाई

 

अर्जुन भाई कहते हैं, “स्वर्गारोहण से अग्नि संस्कार करने पर एक बार में लगभग 300 किलो लकड़ी बचेगी। 21,431 में से 20,000 लोगों का ही अंतिम संस्कार यदि ‛स्वर्गारोहण’ के माध्यम से किया जाए तो 60 लाख किलो लकड़ी की बचत रोज़ाना की जा सकती है।”

एक बीघा में 60 टन लकड़ी होती है, इसके हिसाब से स्वर्गारोहण में अग्नि संस्कार करने पर 100 बीघा तक जंगल बचाया जा सकता है। दूसरी तरफ एक किलो लकड़ी जलाने पर जहाँ 1.650 किलो से 1.800 किलो Co2 वातावरण में फैलती है, वही स्वर्गारोहण से अग्नि संस्कार करने पर रोज 99 लाख से एक करोड़ किलो तक Co2 वातावरण से कम हो जाएगी।इसके अलावा, संस्कार में अभी जो समय लगता है, उससे भी कम समय में अग्नि संस्कार इस भट्टी में होता है और तकरीबन 50 प्रतिशत तक समय की बचत भी होती है।

अर्जुनभाई द्वारा निर्मित ‛स्वर्गारोहण’ बामनासा (घेड) तालुका केशोद, जिला जूनागढ़ में शुरू किया जा चूका है, जिसमें अब तक 12 देहों का अग्नि संस्कार हुआ है। संस्कार के बाद अस्थियां एक ट्रे में आ जाती हैं।

राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित हो चुके हैं अर्जुन भाई 

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने किया सम्मानित

पर्यावरण को ही सब कुछ मानने वाले अर्जुन भाई जैविक खेती करके अपना गुज़ारा करते हैं, पर खेती के साथ-साथ अपनी सीमित आय में भी कोई न कोई आविष्कार करने की कोशिश में लगे रहते है। 2010 में उन्होंने पहली बार फ्लाई ऐश से ईंट बनाने की मशीन बनाई थी, जिसके लिए उन्हें साल 2015 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों ग्रासरूट इनोवेटर अवार्ड से सम्मानित किया गया था।

अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर अर्जुन भाई हर साल पक्षियों के लिए प्लास्टिक की बेकार पड़ी बोतलों और प्लेट्स का इस्तेमाल करके  मोबाइल चबूतरा (बर्ड फीडर) बनाकर निशुल्क बांटते हैं।

अर्जुन भाई के आविष्कारों तथा काम के बारे में अधिक जानने के लिए आप उन्हें 09904119954 पर कॉल कर सकते हैं या svargarohan@gmail.com पर ईमेल भी कर सकते हैं।

 

संपादन – मानबी कटोच 


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