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झारखंड: एशो-आराम की ज़िंदगी छोड़, कोयला मज़दूरों के बच्चों के जीवन को संवार रहे हैं देव कुमार वर्मा!

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32 वर्षीय देव कुमार वर्मा का जन्म झारखंड में धनबाद जिले के कतरास गाँव में हुआ। उनके पिता गाँव में पान की दुकान चलाते थे और कोयला मज़दूर थे। उनके गाँव में अधिकतर लोग या तो छोटी-मोटी दुकान चलाया करते थे या फिर कोयला मज़दूर थे और साथ ही, शराब की लत के शिकार भी। शिक्षा पर किसी का कोई ध्यान नहीं था- न तो इन मजदूरों काऔर न ही इनके बच्चों का।

पर देव और उनके परिवार ने अपनी अलग राह चुनी और सालों बाद, वे अपने गाँव वालों के लिए आदर्श बन कर उभरे।  छोटे से गाँव से होने के बाद भी, उन्होंने राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (NIT), दुर्गापुर से ग्रेजुएशन की। इसके अलावा, उन्होंने भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), लखनऊ से एमडीपी किया और फिर एलएलबी की पढ़ाई पूरी करके, महारत्ना कंपनी, कोल इंडिया लिमिटेड में 15 लाख रूपये की सालाना आय पर काम करना शुरू किया।

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देव अपने करियर के शीर्ष पर थे और उनके लिए बहुत आसान था कि किसी बड़े शहर में रहकर, वे अपने परिवार के साथ आरामदायक जीवन बिताएं। वे चाहते तो अपनी पत्नी, डॉ प्रियंका और बच्चों का भविष्य सुरक्षित करते। पर भीड़ के साथ चलना उनकी फितरत में नहीं और इसलिए उन्होंने फिर एक बार अलग राह चुनी!

द बेटर इंडिया को दिए एक ख़ास साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि कैसे कोयला मज़दूरों से भरे अपने गाँव में शिक्षा द्वारा उन्होंने बदलाव की शुरुआत की है!

वे बताते हैं,

“जहाँ मैं पला-बढ़ा, वहां पढाई को ख़ास महत्त्व नहीं दिया जाता था और अभी भी यही हाल है। झारखंड में 33% से अधिक की जनसँख्या अशिक्षित है। मेरे जिले के आस-पास के इलाकों को मिलाकर 60 लाख की जनसँख्या है, जिसमे से एक लाख से अधिक बच्चे हैं। और यहाँ केवल चार ऐसे स्कूल हैं, जहाँ अच्छी शिक्षा दी जाती है। ज़्यादातर बच्चे, जो कि गरीब परिवार से आते हैं, या तो सरकारी स्कूलों में जाते हैं या फिर पढ़ते ही नहीं हैं और मुझे इस स्थिति को बदलना था।”

चार साल तक कोलकाता में काम करने के बाद, देव का तबादला झारखंड में हुआ। उन्होंने आगे बताया कि साल 2004 के लोकसभा चुनावों ने उनके जीवन की राह को मोड़ दिया। उस समय उनकी नियुक्ति जिले के चुनाव प्रभारी के रूप में हुई थी। कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए, वे उस स्कूल के दौरे पर गये, जिसे चुनावी केंद्र बनाना था। यहाँ पर छात्रों द्वारा छुट्टी के लिए लिखे गये आवेदन पत्रों की टूटी-फूटी भाषा पढ़कर देव हैरान रह गये।

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“मुझे हैरानी हुई कि 9वीं और 10वीं कक्षा के छात्र ‘टीचर’ जैसे आसान हिंदी शब्द भी ठीक से नहीं लिख सकते थे। शिक्षकों ने भी पत्रों में बिना कोई सुधार करे, उन्हें मंज़ूरी दे दी थी। इस एक बात से मुझे स्कूलों में शिक्षा की दयनीय स्थिति की झलक मिल गयी। उसी समय मैंने इस स्थिति को सुधारने का निर्णय लिया और झारखंड के मुख्यमंत्री व शिक्षा मंत्री को पत्र लिखे। उनके जवाब के साथ एक नोट भी आया, जिसमे एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए मेरी सराहना की गयी थी।”

लेकिन सरकार से आश्वासन के बाद भी, अगले चार महीने तक ज़मीनी स्तर पर उन्होंने कोई बदलाव नहीं देखा।

देव और प्रियंका की दो बेटियाँ हैं और अपनी बच्चियों के जैसे ही वे अन्य बच्चों के भविष्य को भी संवारना चाहते थे। बच्चों की शिक्षा के प्रति उनकी चिंता ने, उन्हें इस मामले को अपने हाथ में लेने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने पैतृक घर को गाँव के बच्चो के लिए मुफ़्त ट्यूशन केंद्र में तब्दील कर दिया। सिर्फ़ पांच बच्चों से शुरू हुई उनकी कक्षा में जल्द ही बच्चों की संख्या बढ़ने लगी।

“जब बच्चों की संख्या बढ़ कर 100 हो गयी, तो हमने इस स्कूल को पंजीकृत करवाने का निर्णय लिया, और इस तरह, ‘पाठशाला’ का जन्म हुआ, जहाँ हम झारखंड के कोल बेल्ट के बच्चों को पांचवी कक्षा तक अंग्रेजी माध्यम में मुफ़्त शिक्षा देते हैं। हमने सात बच्चों और तीन शिक्षकों से शुरुआत की थी; और आज, हमारी तीन शाखाओं में कुल 500 से अधिक बच्चों के साथ 15 स्टाफ मेम्बर और नॉन स्टाफ मेम्बर हैं।”

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हालांकि, उनके रास्ते में बहुत-सी चुनौतियाँ आयीं।

कुछ बच्चे ऐसे थे, जो पहले दो दिन नियमित रूप से कक्षा में आये, पर तीसरे दिन से अनुपस्थित होने लगे; क्योंकि उनके माँ-बाप उन्हें रोक लेते थे, ताकि वे काम में उनकी मदद कर सकें।  ऐसा होने पर देव और प्रियंका बच्चों के घर जाते, उनकी अनुपस्थिति का कारण पूछते और उनके माता-पिता से बच्चों को वापिस स्कूल भेजने का अनुरोध करते।

देव ने द बेटर इंडिया को बताया, “मैं उन्हें अपने बचपन के बारे में बताता और फिर अपनी सफलता की कहानी सुनाता, ताकि उनका विश्वास हम पर बनें। अगर उनके गाँव का ही एक लड़का सरकारी अफसर बन सकता है, तो उनके बच्चों की भी ज़िन्दगी बदल सकती है। इससे उन्हें अपने बच्चो की शिक्षा को एक मौका देने की प्रेरणा मिली।

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हालांकि, मुश्किलें सिर्फ़ स्कूल के बाहर ही नहीं थीं, बल्कि क्लास के अंदर भी थीं। कई बच्चों को पहली बार नयी स्टेशनरी, वर्दी, जूते, बैग आदि मिल रहे थे। फिर आये दिन ऐसी घटना होती, जहाँ ये बच्चे छोटी- मोटी चोरियां करते थे। पर देव का लगा कि इनकी आर्थिक स्थिति को जानते हुए इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है।

और फिर इससे निपटने के लिए उन्होंने एक ऐसा तरीका निकला, जिससे कि इन घटनाओं को रोका भी जाये और साथ ही, बच्चों को ईमानदारी का महत्त्व भी पता चले।

उन्होंने बताया, “इसी तरह ‘ईमानदारी की दूकान’ का जन्म हुआ। हमने एक कमरा बनाया, जहाँ बच्चों को फ्री में दी जाने वाली सारी चीज़े, जैसे यूनिफॉर्म, जूते, आदि एक अलमारी में रखे जाते थे। हमने उनसे कहा कि अगर उन्हें ये चीज़े इस्तेमाल करनी हैं, तो कुछ न कुछ पैसे उन्हें एक डिब्बे में डालने होंगें। तो, अगर किसी किताब की कीमत 40 रुपये थी, तो हम उनसे उसके लिए 5 रुपये डालने को कहते थे।”

देव आगे बताते हैं, “हालांकि, बच्चों के लिए ये सीखना मुश्किल था कि हर चीज़ की कीमत होती है और कुछ भी हमेशा उन्हें मुफ़्त में नहीं मिलेगा। पर फिर हमने उनके व्यवहार में बदलाव देखा, जब उन्होंने इन चीज़ों की कद्र करना और सराहना करना शुरू किया। इससे चोरी की घटनाएँ कम हो गयीं। इस पहल की सराहना झारखण्ड के मुख्यमंत्री और शिक्षा सचिव ने भी की और कई विद्यालयों ने इसे अपनाया भी है।”

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आज उनके तीन स्कूलों में प्रोजेक्टर, लैपटॉप, बायोमेट्रिक हाजिरी, एक्वागार्ड कूलर, खेल मैदान, लड़के-लड़कियों के लिए अलग- अलग शौचालय आदि हैं। देव की इस पहल को उनके परिवार वालों ने शुरू से ही समर्थन दिया और पिछले कुछ सालों से उनके कई दोस्तों ने स्कूल के लिए 100 रुपये से ले कर 10,000 रुपये तक की राशि दान देकर सहयोग किया है।

वे बताते हैं, “जब भी हमें ज़रूरत होती है, मान लीजिये, जैसे 100 स्वेटर की ज़रूरत है, तो मैं वेबसाइट और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देता हूँ। जिससे शुभचिंतकों को आगे बढ़ कर, अपने हिसाब से मदद करने में आसानी होती है। मेरा ज़्यादातर वेतन, महीने के एक लाख रूपये का 60% इन स्कूलों के लिए जाता है। हमारी एक और शाखा खुलने वाली है, और इस वजह से थोड़ी मुश्किलें हैं, क्योंकि इसके निर्माण कार्य में लाखों का खर्च हुआ है। पर हम हमारे बच्चों को कोई परेशानी नहीं होने देंगे। हम यहाँ तक आये हैं और आगे भी प्रयास करते रहेंगे।”

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और इसलिए, आर्थिक तौर पर मजबूत होने बावजूद यह व्यक्ति, किसी भी तरह के फ़िज़ूलखर्च से दूर रह कर, सादगी भरा जीवन जीना पसंद करता है। सादे कपड़े पहनना और ऐसे घर में रहना, जहाँ एसी, सोफा या फिर एक्वागार्ड जैसी कोई सुविधा नहीं है।

देव बताते हैं, “बच्चों को पढ़ाई के प्रति नियमित और सजग रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहना भी चुनौतीभरा काम है।”

“हमारी मेहनत अब रंग लाने लगी है। इनमे से कई बच्चे अब अंग्रेजी बोलने लगे हैं और सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे कि आर्ट-क्राफ्ट, योग, वाद-विवाद आदि में भाग लेते हैं और जीतते हैं। इस सब से अधिक, अपने बच्चों को आगे बढ़ते देख इनके माँ-बाप के चेहरे पर जो ख़ुशी होती है, वह दिल को छूने वाली है।”

भविष्य में अपनी योजना के बारे में बताते हुए देव ने कहा, “आनंद कुमार के सुपर-30 की तरह, हम अपने बच्चों को सुपर 50 के लिए तैयार कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि ये सैनिक स्कूल और ऐसे अन्य शिक्षण संस्थानों में चयनित हो पाएं; जहाँ इन्हें उत्तम शिक्षा बिना किसी फीस के मिल पाए और इनका भविष्य संवार जाये। हम आने वाले सालों में पाठशाला का विस्तार करना चाहते हैं, ताकि अधिक से अधिक बच्चों को बड़ी कक्षाओं की पढ़ाई में भी मदद मिल सके। मेरा अंतिम उद्देश्य, एक जूनियर कॉलेज (10+2) खोलना है, जहाँ ये बच्चे मुफ़्त शिक्षा प्राप्त करें और अच्छी नौकरियाँ हासिल करके अपना भविष्य सुरक्षित कर पाएं|”

देव से सपर्क करने के लिए dev_verma22@yahoo.com पर मेल करें या फिर 9470595075 डायल कर सकते हैं!

मूल लेख: जोविटा अरान्हा 
संपादन: निशा डागर


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