Quantcast
Channel: The Better India – Hindi
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3559

खुद नहीं बन पाई खिलाड़ी, बिहार की 3 हज़ार लड़कियों को सीखा दिया फुटबॉल खेलना!

$
0
0

सुबह के सात बज रहे थे। बिहार की राजधानी पटना से 14 किलोमीटर दूर फुलवारी ब्लॉक के शोरामपुर हाई स्कूल के मैदान में 16 साल की एक किशोरी, खिलाड़ी की वेश भूषा में मैदान के चक्कर लगा रही थी। पास में कुछ महिलाएं और पुरुष खेतों में काम कर रहे थे। वैसे तो ये एक सामान्य दृश्य लगता है लेकिन इस इलाके के लिए यह सामान्य नहीं है। इस क्षेत्र में बिहार के महादलित कहे जाने वाले समुदायों के लोग रहते हैं। जिनमें अधिकांश लड़कियों की शादी 14 साल की उम्र तक कर दी जाती है। ऐसे में किसी लड़की का इस तरह हाफ पैंट और टी-शर्ट पहनकर खेल के मैदान पर आना यहां किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

खैर, कहानी को आगे बढ़ाते हैं। लगभग आधे घंटे में 15 लड़कियां अपनी-अपनी साइकिल से खिलाडियों के ड्रेस में मैदान पहुँचती हैं। एक लड़की निशा जो दूसरे कपड़ों में आती है, स्कूल के पास वाले घर में जाकर खेलने के लिए तैयार होती है। तभी पुनती उर्फ़ पूनम सीटी बजाती है और फुटबॉल का मैच शुरू होता है। लेकिन यह सिर्फ एक मैच नहीं होता है। यह जिद है अपनी मर्जी से जीने की, बाल विवाह से बचने की। मैच है बराबरी का, आत्मसम्मान का, सपनों का, स्वतंत्रता का और गरिमा का।

football for equality
फुटबॉल खेलती लड़कियां।

 

पूनम टीम की कप्तान  है। पूनम की कहानी भी ऐसी ही एक जिद पर आधारित है। वह भी उसी बाल विवाह की शिकार बनने वाली थी, जो कि उसके समुदाय में आम है। लेकिन फुटबॉल ने उसे बचा लिया। फुटबॉल में उसकी प्रतिभा पर विधायक से मिले सम्मान ने उसके परिवार वालों की धारणा बदल दी। अब वे उसे उसकी मर्जी से जीने और खेलने देते हैं। पूनम न सिर्फ खुद खेलती है बल्कि उसने और उसकी साथी खिलाड़ी रंजू ने मिलकर 5 स्कूल की 75 लड़कियों को फुटबॉल खेलना सिखाया है।

बिहार के पटना जिले के पुनपुन ब्लॉक के सकरैचा गाँव की रहने वाली सुबेदार पासवान और लखपति देवी की तीसरी संतान पूनम कुमारी कक्षा 11 की छात्रा है। उनके माता-पिता दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं।

football for equality
पूनम कुमारी।

 

पूनम को समाज की बंदिशों से निकालकर स्कूल के मैदान तक पहुंचाने में उस लड़की का हाथ है जो खुद तो खिलाड़ी नहीं बन पाई। लेकिन फुटबॉल से उन सैकड़ों बच्चियों की जिंदगी संवारने का काम कर रही है जो कम उम्र में ही शादी के बंधन में बांध दी जाती हैं। इनका नाम प्रतिमा कुमारी है। पूनम भी प्रतिमा के जरिये ही फुटबॉल से जुड़ी।

पूनम कहती हैं, “2 साल पहले जब मैंने प्रतिमा दीदी के कहने पर फुटबॉल क्लब में आना शुरू किया तो गाँव में यह बात चली कि यह पढ़ने के बहाने लड़के से मिलने जाती है। मेरे गाँव के सभी लोग तरह-तरह की बातें बनाते थे। कहते थे कि यह घर से भाग जाएगी किसी के साथ। लोगों की बातें सुनकर मेरे पिता ने कहा, ‘हम पूनम की शादी कर देते हैं।’
इसके बाद मैंने अपने भैया से बात की और कहा कि आप देखिए मैं कैसे खेलती हूँ। एक बार एक मैच के बाद विधायक ने मुझे इनाम दिया। इस बात की काफी चर्चा हुई और मेरे घर में सभी का व्यवहार बदल गया। मेरे भाईयों ने कहा कि कोई कुछ भी कहे , हम हमारी बहन को जानते हैं। वो ठीक है और उसकी शादी उसकी मर्जी से होगी।

football for equality
फुटबॉल प्लेयर्स के साथ प्रतिमा।

 

गौरव ग्रामीण महिला मंच की संस्थापक प्रतिमा ने पूनम जैसी कई लड़कियों को बाल विवाह से बचाया है। वह फुटबॉल के माध्यम से “बाल-विवाह” के खिलाफ लड़ती हैं। उन्होंने 3 साल में पटना के फुलवारी शरीफ ब्लॉक के सकरैचा, ढिबर, गोनपुरा, परसा और शोरमपुर पंचायतों के 15 से ज्यादा गाँवों में अब तक 3000 से ज्यादा लड़कियों को फुटबॉल खेलना सिखाया है।

सकरैचा पंचायत के टड़वा गाँव की कक्षा 11वीं की छात्रा रंजू की भी कहानी पूनम जैसी ही है। रंजू कहती है कि “पूनम की तरह ही मेरे घर में भी शादी के लिए बहुत दबाव था। जब भी कोई रिश्तेदार घर आते, तो मेरी शादी को लेकर चर्चा शुरू हो जाती थी। घरवालों को लगता था कैसे भी, जितनी जल्दी हो सके, इसकी शादी करवा दी जाए। जब मैंने खेलना शुरू किया तो घर से बहुत विरोध हुआ। लेकिन धीरे-धीरे मेरे खेलने के बाद उनको लगने लगा कि हमारी बेटी भी लड़कों की तरह खेल सकती है। मेरी माँ ने इसमें मेरा साथ दिया।”

 

football
अपनी दोस्त रूपा के साथ फुटबॉल खेलती निशा कुमारी।

 

प्र​तिमा का भी हो गया था बाल विवाह

प्रतिमा कहती हैं, मेरी शादी 16 साल की उम्र में ही हो गई थी। मैंने उस दर्द को मह्सूस किया है जो एक लड़की को बालिका वधू होने पर होता है। बाल विवाह उनको उनके मूलभूत अधिकारों से दूर करता है। मैं गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच के जरिये 2013 से इस काम में जुटी हूँ। हमारी इस पहल का उद्देश्य दलित एवं वंचित समुदाय की बेटियों को खेल के माध्यम से सशक्त और सबल बनाना है। इनमें से कई लड़कियों ने दूसरे राज्यों में जाकर भी खेला है।

ग्रामीण गौरव संस्था मंच की इस पहल में 10 लोग फुटबॉल का प्रशिक्षण देते हैं। इनमें 2 कोच और 8 सीनियर खिलाड़ी शामिल है। प्रतिमा यह काम खुद की कमाई व चंदा इकट्ठा करके करती हैं। इसके अलावा, युनिसेफ जैसी संस्थाएं भी इसमें मदद करती हैं।

football
फुटबॉल ट्रेनिंग करती लड़कियां।

 

यूनिसेफ, बिहार की संचार विशेषज्ञ निपुण गुप्ता कहती हैं कि खेल के माध्यम से लड़कियां समानता के अधिकार को प्राप्त कर सकती हैं ताकि उन्हें भी समाज में वहीं दर्जा मिले, जो लड़कों को या अन्य समुदाय की लड़कियों को प्राप्त है। यह लड़कियां दूसरी अन्य लड़कियों के लिए रोल मॉडल हैं। ये अपने परिवार की पहली जनरेशन की लड़कियां हैं, जो बाहर निकल रही हैं, जो अपने आप में बड़ी बात है।

महादलित समुदाय के लिए काम करने वाली संस्था “नारी गुंजन” की संस्थापक पद्म श्री सुधा वर्गीज कहती हैं, “यह खेल के माध्यम से लड़कियों को सशक्त बनाने की पहल है। अगर लड़कियां खेलों से जुड़ेंगी तो उनकी पढ़ाई-लिखाई भी जारी रहेगी। उन्हें बाल-विवाह से बचाया जा सकेगा। बाल विवाह समाज की समस्या है। इसका समाधान भी समाज को ही निकालना होगा।

football
लड़कियों की फुटबॉल टीम।

 

जिन सामाजिक बुराइयों के साथ जीने की लोगों ने आदत डाल ली हो, ऐसे मुद्दों पर लोगों को झकझोर कर जगाने, जागरूक करने और समाज सुधार की लड़ाई के इस नए लड़ाकों का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर आप भी प्रतिमा के इस काम में मदद करना चाहते हैं, या उनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो उनके नम्बर 8210081820 पर बात कर सकते हैं।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post खुद नहीं बन पाई खिलाड़ी, बिहार की 3 हज़ार लड़कियों को सीखा दिया फुटबॉल खेलना! appeared first on The Better India - Hindi.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 3559

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>