पि छले साल फोटोग्राफर मनोज नायर द्वारा 7 जून को खींची गई एक मादा कृष्णग्रीव सारस की तस्वीर काफी वायरल हो गयी। इस तस्वीर में एक मादा कृष्णग्रीव सारस की चोंच, एक प्लास्टिक की टूटी बोतल के ढक्कन से बंद हो गयी थी। बोलना तो दूर वह कुछ खा भी नहीं सकती थी। ढक्कन कुछ इस कदर फंसा हुआ था कि वह अपना मुंह किसी भी हालत में नहीं खोल पा रही थी। तस्वीर को देखकर लोग परेशां थे कि शायद यह बेजुबान जल्द ही भूख प्यास से मर जाएगी।
इसके ठीक छह दिन बाद यानी 13 जून 2018 को खबर आई कि राकेश अहलावत नाम के शख्स और उनके कुछ अन्य साथियों ने उस मादा सारस को प्लास्टिक के ढक्कन से निजात दिला दिया है।
सारस की चोंच से ढक्कन निकालते राकेश अहलावत व साथी।
मादा कृष्णग्रीव सारस / सारस (स्टोर्क) सबसे ज्यादा भारत में ही पाई जाती हैं, जिसकी विभिन्न प्रजातियाँ होती हैं। क्रौंच के नाम से भी पहचाना जाने वाला यह जीव दुनिया का सबसे विशाल उड़ने वाला पक्षी है।
हरियाणा के झज्जर जिले के डीघल गाँव के रहने वाले राकेश और उनके साथियों ने पहले भी ऐसे अनेक पक्षियों की जान बचाई है, जो इंसानी लापरवाही के चलते मौत के मुंह में चले जाते थे।
राकेश ने कई बार प्लास्टिक के नेट और पतंग की डोरियों में फंसे पक्षियों को बचाया है। करीब तीन साल पहले उन्होंने सर्दियों में एक स्पॉट बिल डक (देसी नाम – गुगरल) को एक मछली पकड़ने के जाल से निकालकर बचाया था।
प्लास्टिक नेट में फंसे पक्षी को बचाते हुए राकेश अहलावत
वह कहते हैं, “आज इंसान ने पक्षियों के लिए कोई भी जगह नहीं छोड़ी है। तालाबों और वेटलैंड्स के किनारे उगे पेड़ों को काटा जा रहा है। वेटलैंड्स को कॉलोनियों से बदल दिया गया है। प्रवासी पक्षी और सारस जैसे स्थानीय पक्षियों को अब बमुश्किल ही जगह मिल रही है। तालाबों पर बंधे मछली पकड़ने वाले महीन जाल में उलझकर पक्षी दम तोड़ रहे हैं। बसंत के मौसम में पतंग की डोरियां और हमारे द्वारा बाहर फेंका गया प्लास्टिक पक्षियों के लिए खतरा पैदा कर रहा है। ऐसे में हमें इन बेजुबान पक्षियों के लिए सोचना होगा।।”
राकेश पक्षियों और वन्य जीव संरक्षण के लिए पिछले 8 साल से काम कर रहे हैं। वे हर सुबह अपनी हरे रंग की मोटरसाइकिल पर पक्षियों को देखने निकल पड़ते हैं और शाम होते-होते घर पहुंचते हैं।
पक्षियों के पैर से पतंग की डोर निकालते राकेश
राकेश बताते हैं, “मैंने अपने इस काम की शुरूआत 2011 से की। मैंने दूरबीन व पक्षियों से जुड़ी एक किताब खरीदी और गाँव में ही पक्षियों को खोजना शुरू किया। बहुत जल्द ही मुझे पक्षियों के नाम याद हो गए थे। मैं तब से अब तक मेरे गाँव में ही पक्षियों की तीन सौ प्रजातियां खोज चुका हूँ। उस समय गाँव और उसके आसपास के इलाकों में पक्षियों व अन्य जानवरों का शिकार किया जाता था। मैंने शिकारियों को पकड़वाना और वाइल्ड लाइफ डिपार्टमेंट से जुर्माना लगवाना शुरू किया। आज मेरे आसपास के इलाके में एक भी शिकारी नहीं है।”
राकेश अब तक 110 के करीब शिकारियों को पकड़वा चुके हैं। कई बार तो वह अकेले होते हैं और शिकारी ज्यादा। लेकिन राकेश डरते नहीं और उन्हें पकड़वाकर उन पर कानूनी कार्रवाई करवाते हैं।
राकेश शिकारियों के साथ हुई तकरार का एक किस्सा याद करते हैं, “मैं एक बार अपने गाँव से अगले गाँव पक्षी देखने जा रहा था। रास्ते में मुझे करीब दस शिकारी नील गाय का शिकार करते दिखे। वे उसका सिर धड़ से अलग कर बोरियों में बांधकर ले जा रहे थे। मैंने उन्हें रोका तो वे धमकाने लगे। उनमें से एक तो मारने के लिए भी दौड़ा, लेकिन मैं बच गया। इतने में गाँव के मेरे कई दोस्त भी मौके पर पहुंच गए। मैंने तुरंत वाइल्ड लाइफ के अधिकारियों को फोन किया और शिकारियों को पकड़वाया। जब तक अधिकारी नहीं आए तब तक वे मुझे लगातार मारने की धमकी देते रहे और धक्का-मुक्की करते रहे। मैं कभी भी शिकारियों के डर से पीछे नहीं हटा हूँ। अगर हम आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा।”
राकेश के प्रयासों के चलते पकड़े गए शिकारी।
राकेश 2015 से दक्षिण भारत के एक एनजीओ से भी जुड़े हुए हैं जो वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कार्य करता है। राकेश पक्षियों के साथ-साथ यहां के देसी पेड़ों के लिए भी काम कर रहे हैं। वह बताते हैं, “आज देसी पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। इतना ही नहीं कई प्रजातियों के पेड़ तो विलुप्त होने की कगार पर है। हम स्थानीय पेड़ लगाने की बजाय सजावटी बाहरी पेड़ लगा रहे हैं। स्थानीय पेड़ों का संरक्षण इसलिए जरूरी है क्योंकि पक्षी अपना घोंसला स्थानीय पेड़ों पर बनाते हैं। अगर स्थानीय पेड़ नहीं होंगे तो पक्षी न तो अपना घोंसला बना सकेंगे और न ही प्रजनन क्रिया ठीक से कर पाएंगे।”
राकेश प्लास्टिक, रबड़, पतंग की डोरों को पक्षियों का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। वे कहते हैं, “हमें जितना हो सके प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करना चाहिए और खुले में तो बिल्कुल नहीं फेंकना चाहिए। हमें नदी, तालाबों और झीलों को प्रदूषित नहीं करना चाहिए। बस इतना भी इंसान कर दे तो कई पक्षियों की जान अपने आप बच जाएगी।”
राकेश अहलावत।
राकेश जैसे लोग वाकई अनमोल है जो अपना हर दिन पक्षियों के साथ बिता रहे हैं। राकेश का कार्य देखने में रोमांचित बेशक लगता हो, लेकिन उतना ही मुश्किल है। एक घायल पक्षी को पकड़ने में कई बार उन्हें चार से पांच दिन भी लग जाते हैं।
राकेश की लगातार मेहनत के बाद आज उनका गाँव डीघल पक्षियों और पक्षी प्रेमियों की पसंदीदा जगह है। उनके गाँव में अब तक पक्षियों की 300 से ज्यादा प्रजातियां देखी जा चुकी हैं। उनके गाँव में देश-विदेश से अनेक टीमें पक्षी देखने आती हैं। सीमित संसाधनों के साथ राकेश जो कार्य कर रहे हैं वह वाकई काबिले तारीफ है।
अगर आप राकेश को किसी भी प्रकार की मदद या उनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो 9817797273 पर बात कर सकते हैं।
संपादन – भगवतीलाल तेली
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