बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक और भारतीय स्वतंत्रता संग्रामियों में से एक, महामना मदन मोहन मालवीय को साल 2014 में भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। उन्हें यह सम्मान उनकी मृत्यु के 68 वर्ष बाद मिला। जबकि बहुत से इतिहासकार, शिक्षाविद और विचारकों का मानना है कि देश के लिए महामना के त्याग और कार्यों को देखते हुए यह सम्मान उन्हें बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था।
शिक्षा के क्षेत्र में उनके व्यक्तित्व से बहुत-से लोग वाकिफ हैं। लेकिन शिक्षा के अलावा वकालत और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उनके अभूतपूर्व कार्यों की वजह से ही टैगोर और महात्मा गाँधी ने उन्हें ‘महामना’ की उपाधि से नवाज़ा।
25 दिसंबर 1861 को उत्तर-प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में एक पंडित परिवार में मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ। उन्होंने अपना उपनाम ‘चतुर्वेदी’ से बदलकर ‘मालवीय’ रख लिया क्योंकि उनके पूर्वज मालवा से इलाहाबाद आये थे।

उन्होंने इलाहाबाद जिला स्कूल से अपनी आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की और यहीं पर ‘मकरंद’ नाम से अपनी कविताएं लिखनी शुरू की, जो पत्र-पत्रिकाओं में ख़ूब छपती थीं। म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से दसवीं पास करने के बाद मालवीय ने मासिक स्कॉलरशिप पाकर कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया। वैसे तो वह आगे पढ़ना चाहते थे लेकिन परिवार की स्थिति को देखते हुए उन्होंने साल 1884 में इलाहाबाद के गवर्नमेंट हाई स्कूल में सहायक अध्यापक की नौकरी कर ली।
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शिक्षा के महत्व को समझने वाले मदन मोहन हमेशा ही शिक्षा के हक़ में रहे। उनका मानना था कि भारत की स्वतंत्रता सही मायनों में तभी सार्थक होगी जब भारतीय शिक्षित होंगे और खुद सही-गलत का फर्क करके अपने फ़ैसले ले पाने में सक्षम होंगे। धीरे-धीरे वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ने लगे और उन्होंने अपने विचार इस मंच के माध्यम से लोगों तक पहुंचाए।
पत्रकारिता में करियर:
साल 1887 में उन्होंने स्कूल की नौकरी छोडकर पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया। उन्होंने राष्ट्रवादी साप्ताहिक अख़बार, हिन्दुस्तान से शुरुआत की, जिसे चंद ही दिनों में उन्होंने एक दैनिक अख़बार बना दिया। अंग्रेजी, हिंदी भाषा के कई अख़बारों के साथ काम करने के साथ ही, उन्होंने खुद भी कई अख़बार जैसे ‘अभ्युदय,’ ‘लीडर,’ और ‘मर्यादा, शुरू किये।
‘हिंदुस्तान टाइम्स’ को भी उन्होंने ही बंद होने से बचाया और साल 1924 से 1946 तक वह इसके चेयरमैन रहे। उनके प्रयासों से ही इस अख़बार का हिंदी अंक, ‘हिंदुस्तान दैनिक’ भी शुरू हुआ।

पत्रकारिता के साथ-साथ उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई भी की और प्रैक्टिस भी। साल 1891 से उन्होंने इलाहाबाद जिला कोर्ट में अपनी प्रैक्टिस की और बाद में हाई कोर्ट चले गये। लेकिन उस समय भारतीय राजनीती में उनके बढ़ते रुतबे के चलते उन्हें वकालत छोड़नी पड़ी। आगे चलकर साल 1909 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया।
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इसके बाद उन्होंने भारत में शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने और समाज में सुधार लाने की दिशा में काम किया। क्योंकि उन्हें पता था कि जब तक भारतीय शिक्षित नहीं होंगे और उन्हें समझ नहीं होगी कि स्वतंत्रता के असल मायने क्या हैं? तब तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को वह गति नहीं मिलेगी जो मिलनी चाहिए। इसके अलावा, उनकी सोच थी कि उन्हें युवाओं को स्वतंत्र भारत के लिए तैयार करना है ताकि उन्हें पता हो कि उन्हें कैसे अपने देश के सर्वांगीण विकास में साथ देना है।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना:
इसी सोच के साथ उन्होंने साल 1915 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी। इसके निर्माण के लिए उन्होंने अलग-अलग जगह जाकर वहां के नामी-गिरामी लोगों से चंदा इकट्ठा किया। जब भी चंदा लेने जाते तो अक्सर शायर बृज नारायण चकबस्त की पंक्तियाँ दोहराया करते थे,
“ज़रा हमैयतो गैरत का हक अदा कर लो।
फ़कीर कौम के आये हैं, झोलियां भर दो।।”
इस कड़ी में एक किस्सा बहुत ही मशहूर है। बताया जाता है कि जब यूनिवर्सिटी के लिए चंदा इकट्ठा करने महामना हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ पहुंचे, तो निज़ाम ने उन्हें चंदा देने से मना कर दिया।

लेकिन मदन मोहन के इरादे तो पक्के थे कि उन्हें तो चंदा चाहिए ही चाहिए। इसलिए उन्होंने एक अलग ही तरकीब निकाली। उन्होंने निज़ाम की चप्पलें उठा लीं और उन्हें कहा कि मैं बाज़ार में लोगों को ये चप्पले बेचूंगा और उन्हें कह दूंगा कि आपके पास पैसे नहीं थे, इसलिए चप्पलें दे दीं।
ऐसे में, निज़ाम ने खुद अच्छी-ख़ासी रकम देकर उनसे अपनी ही चप्पलें खरीदीं। बाद में, बीएचयू के निर्माण के समय, महामना ने कैंपस में शिक्षकों के रहवास के लिए बनने वाली कॉलोनी को ‘निज़ाम हैदराबाद कॉलोनी’ का नाम दिया। आज बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी न सिर्फ़ देश के बल्कि पूरे विश्व के बड़े और मुख्य शिक्षण संस्थानों में से एक है।
चौरी-चौरा कांड में बचाया क्रांतिकारियों को:
वैसे तो उन्होंने 1911 में ही वकालत छोड़ दी थी। लेकिन साल 1922 में चौरी-चौरा कांड हुआ और लगभग 172 स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजी सरकार ने हिंसा के जुर्म में गिरफ्तार करके फांसी की सजा सुना दी। ऐसे में, एक बार फिर महामना ने अपनी वकालत की कमान संभाली।
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उन्होंने न सिर्फ़ इन क्रांतिकारियों का मुकदमा लड़ा, बल्कि 153 लोगों को बरी भी करवाया। बाकी सभी की भी फांसी की सजा माफ़ करवाकर, उसे उम्र कैद में बदलवा दिया। तो ऐसा था, भारत के ‘महामना’ का व्यक्तित्व। बताते हैं कि उन्होंने शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए भी अपील की थी। यदि वह अपील स्वीकार हो जाती तो भारतीय राजनीती का इतिहास आज कुछ और ही होता।

इस सबके अलावा, उन्होंने हमेशा ही स्त्री शिक्षा, उनके अधिकारों और दलितों के अधिकारों पर जोर दिया। वह हमेशा कहते थे कि वह बनारस में नहीं मरना चाहते। क्योंकि कहते हैं कि जो बनारस में मरता है, वह फिर कभी दोबारा पृथ्वी पर जन्म नहीं लेता। लेकिन महामना फिर से भारत की भूमि पर जन्म लेकर अपने जीवन को गरीबों और ज़रुरतमंदों के लिए समर्पित करना चाहते थे।
लेकिन 12 नवंबर 1946 को उन्होंने बनारस में ही अपनी आख़िरी सांस ली। द बेटर इंडिया भारत के इस अनमोल रत्न को सलाम करता है।
संपादन – मानबी कटोच
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