मैं एक किसान की बेटी हूँ। लेकिन मेरे पापा ने कभी नहीं चाहा कि हम भाई-बहनों में से कोई भी कभी भी किसानी करें। यहाँ तक कि हमारी अच्छी शिक्षा के लिए वे गाँव छोड़कर पास के शहर में बस गये। मैंने बचपन से यही सुना कि अगर अच्छे से नहीं पढ़े तो अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और फिर खेती करनी पड़ेगी।
उस समय लगता था कि जो लोग अनपढ़ होते हैं या फिर जिनमें कोई काबिलियत नहीं होती, वही खेती करते हैं। लेकिन वक़्त के साथ समझ में आया कि उन्नति के लिए हमें गाँव से शहर, या फिर अपने करियर का क्षेत्र बदलने की नहीं, बल्कि अपनी सोच और नजरिया बदलने की ज़रूरत है। क्योंकि यदि आप बदलते वक़्त के साथ, नयी तकनीक और इनोवेटिव तरीके सीखते रहें तो भारत जैसे देश में कृषि सबसे कामयाब करियर का विकल्प हो सकती है।
लेकिन अब सवाल है कि भला ऐसा कैसे हो सकता है? कौन माता-पिता चाहेंगे कि उनके बच्चे खेती करें? शायद, कोई नहीं!
पर आज हम आपको मिलवाएंगे एक ऐसे माता-पिता से जो अपने बेटे को न सिर्फ एक सफल किसान बनते हुए देखना चाहते हैं, बल्कि उनके बेटे को यह सीखने का वातावरण मिले, इसके लिए, वे शहर से गाँव की तरफ लौटे हैं।
राजस्थान में अजमेर के रहने वाले राजेन्द्र सिंह और उनकी पत्नी, चंचल कौर ने इंदौर के पास एक गाँव में डेढ़ एकड़ ज़मीन खरीदी, ताकि वे वहां रहकर अपने बच्चे को आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ खेती-किसानी का माहौल भी दे सकें। 54 वर्षीय राजेंद्र सिंह भारतीय रेलवे में कार्यरत हैं और उनकी पत्नी, चंचल कौर सरकारी स्टाफ नर्स हुआ करती थीं।
पर अपने बच्चे को एक अलग ज़िन्दगी देने की चाह में चंचल कौर ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर खेती करने का निर्णय लिया।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए राजेंद्र सिंह ने बताया, “कुछ साल पहले मेरी बहन को कैंसर डिटेक्ट हुआ और पिछले साल उनका देहांत हो गया। डॉक्टर्स ने उनके कैंसर की एक सबसे बड़ी वजह बताई आजकल का लाइफस्टाइल- हेक्टिक रूटीन, स्ट्रेस, केमिकल युक्त खान-पान आदि। इस बात ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया।”
उन्हें लगने लगा कि हम किसी बड़े शहर में रहकर भले ही कितना भी ज्यादा पैसा कमा रहे हों, लेकिन हमारा जीवन स्तर ही अच्छा नहीं है। न पीने को स्वच्छ पानी, न साफ़ हवा और आजकल तो लोगों के घरों में धूप भी नहीं आती। तो फिर इतना पैसा कमाने का क्या फायदा?
उन्होंने इस पर विचार किया और फिर इंदौर के पास एक गाँव में ज़मीन खरीदी। साल 2016 में चंचल कौर ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी। जब उन्होंने नौकरी छोड़ी तो बहुत से नाते-रिश्तेदारों व उनके कुछ साथी अफसरों ने उन्हें कहा कि वह बेवकूफी कर रहे हैं। लेकिन चंचल अपने फैसले पर अडिग थीं क्योंकि वह अपने बेटे को केवल लक्ज़री से भरा हुआ नहीं बल्कि एक स्वस्थ और स्वच्छ जीवन देना चाहती थीं।
साल 2017 में चंचल अपने बेटे के साथ इंदौर शिफ्ट हो गयीं। यहाँ पर उन्होंने अपनी ज़मीन से कुछ दूरी पर ही एक घर किराए पर लिया है क्योंकि उनके अपने घर का निर्माण अभी शुरू नहीं हुआ।
राजेंद्र बताते हैं, “यहाँ पर हमने पद्म श्री डॉ. जनक पलटा से जैविक खेती की ट्रेनिंग ली। साथ ही, सोलर कुकिंग, सोलर ड्राईंग और जीरो-वेस्ट लाइफस्टाइल जीने की कला भी सीखी।”
बेटे ने चुनी ज़िन्दगी जीने की नई राह
अपने साथ-साथ इस दम्पति ने अपने 11 वर्षीय बेटे, गुरुबख्श सिंह को भी इन सब चीज़ों की ट्रेनिंग दिलाई। वह कहते हैं कि उन्हें सबसे ज्यादा अपने बेटे की ही चिंता थी कि वह इस बदलाव से कैसे डील करेगा? लेकिन उन्हें बहुत ख़ुशी होती है जब वे देखते हैं कि उनका बेटा अपनी ज़िन्दगी खुलकर जी रहा है।

“जैविक खेती से लेकर अन्य सामाजिक गतिविधियों तक, हर जगह गुरुबख्श पूरे मन से काम करता है। और तो और, गाँव में उसके अब खूब सारे दोस्त हैं, जिन्हें वह सोलर कुकिंग के या फिर खेती के तरीके सिखाता रहता है। फिर खेल-खेल में उनसे भी कुछ न कुछ सीखता है। सबसे ज़्यादा उसे जानवरों से लगाव है। वह किसी भी बेजुबान का दर्द बर्दाशत नहीं कर पाता और कहता है कि पापा, मैं इनके लिए डॉक्टर बनूँगा,” राजेंद्र ने हंसते हुए कहा।
आजकल लोग अपने बच्चों की शिक्षा पर, उनके रहन-सहन पर लाखों खर्च करते हैं, लेकिन इन लाखों रुपयों को कमाने की जद्दोजहद में अपने बच्चे को वक़्त ही नहीं दे पाते हैं। पर राजेंद्र और चंचल की एक ही कोशिश रहती है कि वे अपने बच्चे को ज़िन्दगी जीने का अलग नजरिया दिखाएँ।
“हम हमेशा अपने बेटे से कहते हैं कि वह किसी भी दौड़ में नहीं है। उसे किसी से आगे या पीछे नहीं चलना है, बस अपनी गति से चलना है। उसे जानवरों के साथ वक़्त बिताना पसंद है तो हम उसे समय-समय पर जानवरों के अस्पताल या फिर ऐसी संस्थाओं में ले जाते हैं, जहां जानवरों के लिए काम हो रहा है। हमने उसे पूरी आज़ादी दी है, वह जो करना चाहे वह करे। हम बस उसे यही सिखाते हैं कि उसके हर एक काम में, किसी की भलाई होनी चाहिए।”
प्रकृति से पूरी तरह जुड़ी है अब इनकी जीवनशैली!
राजेंद्र और चंचल के घर में अब सौर ऊर्जा से ही खाना बनता है। घर के लिए सब्जियां भी वे अपने खेत में ही जैविक तरीके से उगाते हैं। टमाटर, भिन्डी, लाल अम्बाडी, ड्रमस्टिक, कटहल जैसी सब्जियां आपको उनके फार्म में मिल जाएंगी।

अपने घर में इस्तेमाल करने के अलावा, बाकी उपज को वे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों में बाँट देते हैं। बहुत से लोग तो अब उनके फार्म पर दौरे के लिए आने लगे हैं।
इसके अलावा, उनकी कोशिश है कि वे ‘जीरो-वेस्ट’ के कांसेप्ट के साथ ज़िन्दगी जियें।
“क्योंकि मेरा मानना है कि वेस्ट कुछ भी नहीं होता, यह बस रूप बदलता है। आप थोड़ी-सी कोशिश करके देखें, बहुत आसान है सीमित साधनों में एक स्वस्थ जीवन जीना,” उन्होंने आगे कहा।
कुछ महीनों में उनके घर का निर्माण शुरू होगा, जिसे वे ईको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल तरीके से बनाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने खास तौर पर हरियाणा के डॉ. शिव दर्शन मालिक से सम्पर्क किया है जो कि पर्यावरण के अनुकूल घर-निर्माण करते हैं।

राजेंद्र कहते हैं कि आजकल लोग गांवों को छोड़कर शहर आ जाते हैं और फिर सालों बाद, आसपास के गांवों में ज़मीन लेकर फार्महाउस बनवाते हैं। इससे बेहतर है कि वे अपनी शिक्षा का इस्तेमाल कर अपने गाँव में ही अच्छे विकल्प तैयार करें ताकि उन्हें तो क्या, बल्कि गाँव से किसी और को भी पलायन न करना पड़े।
चुनौतियाँ:
जब भी आप लीग से हटकर कुछ करते हैं तो बेशक, अनगिनत परेशानियां आपके सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। राजेंद्र और चंचल के लिए भी यह राह इतनी आसान नहीं थीं। एक-दूसरे के अलावा, उनके इस फैसले में उनका साथ देने वाला और कोई नहीं था। हर कोई उनके इस कदम को गलत ही ठहरा रहा था।
जब चंचल ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ी तब उनकी तनख्वाह उस वक़्त 90 हज़ार प्रति माह थी। लोगों ने उन्हें बहुत कुछ कहा। पर उनका मानना है, “यदि हम अपनी कामयाबी को अपने बैंक बैलेंस से नहीं, बल्कि आने वाले कल में अपनी लाइफ क्वालिटी से आंके, तो शायद बदलाव आ सकता है।”

इंदौर आकर अकेले अपने बेटे के साथ रहना भी चंचल के लिए बिल्कुल आसान नहीं था। इतने साल जिस शहर में रहे, वहां से नयी जगह आकर एडजस्ट करना एक चुनौती थी। अपनी नौकरी की वजह से राजेंद्र का भी ज़्यादा समय तक इंदौर में रुक पाना मुश्किल था। ऐसे में, गुरुबख्श की शिक्षा, खेती की ट्रेनिंग, फार्म का काम, यह सब कुछ चंचल ने अकेले ही सम्भाला और आज भी सम्भाल रही हैं।
गाँव में जो लोग उन पर हंसते थे कि क्यों वे अपनी सरकारी नौकरी छोड़ आयीं, उन्हीं से जाकर वे बात करती और उन्हें अपने फार्म में मदद के लिए बुलातीं। धीरे-धीरे वहां भी सबको उनका नजरिया समझ में आने लगा और आज गाँव के कई किसान, उनसे सीखते हुए जैविक खेती कर रहे हैं। उन्हें यह कहते हुए गर्व होता है कि उनके इन अनुभवों ने उन्हें जितना मजबूत बनाया है, उतना वह पहले कभी नहीं थीं।
एक ज़िम्मेदार नागरिक भी
राजेंद्र कहते हैं कि इस देश के नागरिक होने के नाते हमें सिर्फ़ अपने अधिकार ही नहीं, बल्कि दायित्व की बात भी करनी चाहिए। प्रशासन के खिलाफ नहीं, प्रशासन के साथ काम करें और इसकी एक बेहतरीन मिसाल उन्होंने खुद पेश की है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यून के एक आदेश के मुताबिक सड़कों पर या फिर फूटपाथ पर अक्सर पेड़ों के किनारे जो ट्री-गार्ड लगते हैं, उनका घेरा 1 मीटर की रेडियस छोड़कर होना चाहिए।
लेकिन राजेंद्र ने देखा कि इंदौर में बहुत से पेड़ों की एक दम जड़ के पास से ही वह घेरा शुरू हो गया है। इसलिए उन्होंने अपने स्तर पर शिकायतें दर्ज कराकर, प्रशासन को इस पर काम करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने खुद नगर निगम के कर्मचारियों के साथ जाकर पेड़ों को ट्री-गार्ड से फ्री कराया है। मात्र डेढ़ साल में उनकी पहल से 8, 000 पेड़ ट्री-गार्ड मुक्त हुए हैं। साथ ही, जिन भी कर्मचारियों ने इस काम में भागीदारी ली, उन्हें भी उन्होंने अपने स्तर पर सम्मानित किया।
इसके अलावा, यदि किसी सड़क पर उन्हें स्ट्रीट लाइट खराब दिखती है, स्पीड ब्रेकर टूटे दिखते हैं या फिर गड्ढे होते हैं तो वे इसकी तुरंत शिकायतें दर्ज कराते हैं। अब तक वे इस तरह की लगभग 1200 शिकायतें कर चुके हैं। राजेंद्र कहते हैं कि प्रशासन और कर्मचारियों की कमियों को कोसने के बजाय, उन्हें सुधारने में मदद करें।
अंत में वे एक ही बात कहते हैं, “चले गाँव की ओर, हमें फिर देश बनाना है।”
संपादन – मानबी कटोच
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