आजकल ज़्यादातर किसान परिवार चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिख कर अच्छी जगह नौकरी करें। उनकी सोच है कि खेती में उन्होंने जो परेशानियां झेली हैं, वैसे उनके बच्चे न झेलें। आज कृषि के दो रूप हैं – एक वही पारम्परिक तरीके की खेती और दूसरा, बदलाव को अपनाकर, प्राकृतिक और जैविक तरीकों से की जा रही खेती।
अच्छी बात यह है कि सिर्फ किसानों के साथ अब डॉक्टर, इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले युवाओं को भी जैविक खेती का महत्व समझ में आने लगा है। द बेटर इंडिया ने आपको ऐसे बहुत से युवाओं की कहानी से अवगत कराया है, जिन्होंने अच्छी नौकरी का विकल्प छोड़ खेती शुरू की है। आज वे सफल किसानों की फेहरिस्त में शामिल होते हैं।
तमिलनाडु में चेन्नई के पास तिरुपतुर गाँव के रहने वाले नंदा कुमार भी ऐसे ही एक युवा हैं। 24 वर्षीय नंदा ने पहले बीबीए किया और फिर एमबीए किया। पढ़ाई के साथ-साथ उनका दिल खेती-किसानी से भी जुड़ा रहा। द बेटर इंडिया से बात करते हुए नंदा बताते हैं,
“मैं किसान परिवार से हूँ, मैंने हमेशा अपने यहाँ खेती होते हुए देखी। हमारे घर में पहले ग्रैजुएट मेरे पिता हैं और उन्हें रेलवे विभाग में नौकरी भी मिली। अपनी नौकरी के साथ वह खेती भी करते थे। घर के लिए अनाज, दाल, सब्ज़ियाँ आदि अपने ही खेत में उगती हैं।”
नंदा ने बचपन से ही हरे-भरे खेत देखे और उन्हें यही आदत थी कि घर के लिए सब्ज़ी खेतों से आती है। स्कूल के बाद पढ़ाई के लिए वह चेन्नई पहुंचे। यहाँ खेत-खलिहान जैसा कुछ नहीं था और इसलिए उन्हें बहुत खाली-खाली लगता था। अपने इस खालीपन को दूर करने के लिए उन्होंने किचन गार्डन शुरू किया। उसमें वह पालक, बैंगन, टमाटर और मिर्च आदि उगाने लगे।
“मुझे खेती करने की आदत इस कदर है कि मैं जहां खाली जगह देखता हूँ, वहीं पर पेड़-पौधे उगाने का सोचने लगता हूँ। अपनी इसी आदत की वजह से मैंने अपने कॉलेज में एक खाली पड़ी ज़मीन को भी मिनी जंगल का रूप दे दिया। अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर मैंने प्रशासन से उस ज़मीन पर पेड़-पौधे लगाने की अनुमति ले ली। इसके बाद हमने वहां पर कुछ सामान्य पेड़ लगाए और कुछ जगह में मौसमी सब्ज़ियाँ उगायीं,” उन्होंने आगे कहा।
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नंदा और उनके दोस्त ये सब्जियां अपने कॉलेज के शिक्षकों और अन्य स्टाफ में बाँट देते थे। कॉलेज पास करने के बाद नंदा ने किसी बड़ी कंपनी में नौकरी करने की बजाय कुछ दिनों के लिए एक कॉलेज में शिक्षक की नौकरी की ताकि इसके साथ-साथ वह अपनी किसानी का काम चालू रख सकें।
वह आगे बताते हैं कि उनकी एक एकड़ पुश्तैनी ज़मीन भी उन्हें किसानी के लिए कम लगती है। इसलिए उन्होंने गाँव में खाली पड़ी जगहों का मुआयना किया और ग्राम पंचायत से उन जगहों पर प्राकृतिक खेती करने की अनुमति मांगी।
“हमारे गाँव में बहुत सी खाली ज़मीन है, जिन्हें लोग डंपयार्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं। बहुत मुश्किल से मुझे एक जगह पर खेती करने की अनुमति मिली। सबसे पहले मैंने अपने कुछ दोस्तों के साथ वहां साफ़-सफाई करके ज़मीन को खेती के लिए तैयार किया और बीज बोए,” नंदा ने आगे बताया।

इस ज़मीन पर अच्छी उपज हुई और गाँव के लोगों को उनकी बात समझ में आने लगी। इसके बाद गाँववालों ने उन्हें और तीन डंपिंगयार्ड को मिनी फार्म में बदलने की इजाजत दे दी।
गाँव की खाली जगहों के साथ-साथ उन्होंने दो प्राइमरी स्कूल तक भी अपने इस अभियान को पहुँचाया है। नंदा बताते हैं कि उन्हें स्कूल में अनुमति लेने में कोई परेशानी नहीं हुई क्योंकि स्कूल प्रशासन ने गाँव में उनका काम देखा है। उन्होंने स्कूल में खाली पड़ी ज़मीन को किचन गार्डन लगाने के लिए उपयोग में लिया।
उनका एक प्रभावी कदम यहाँ यह भी रहा कि स्कूल में खेती की गतिविधियों में उन्होंने छात्रों को भी शामिल किया। उन्हें जैविक और स्वस्थ खाने का महत्व समझाते हुए प्राकृतिक खेती के गुर भी सिखाए। साथ ही, अब मिड-डे मील में इस्तेमाल के लिए स्कूल में उगी सब्ज़ियों का इस्तेमाल होता है।
तिम्माकुडी प्राइमरी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला कनियन कहता है, “मैं हमेशा स्कूल देर से आता था। जबसे स्कूल में खेती शुरू हुई है मैं जल्दी आता हूँ ताकि पौधों को पानी दे सकूं। पौधों को हर दिन बढ़ते हुए देखकर मुझे बहुत ख़ुशी होती है।”

नंदा ने जहां भी खेती की, प्राकृतिक और जैविक तरीकों से की। वह बताते हैं कि उन्हें रासायनिक खेती के बुरे प्रभावों के बारे में जागरूकता थी लेकिन साल 2017 से उन्होंने गंभीरता से जैविक खेती को अपनाना शुरू किया। उन्होंने किसानों के लिए होने वाली जैविक खेती की ट्रेनिंग और वर्कशॉप आदि में भाग लिया।
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अब वह बहुत से लोगों को खुद जैविक तरीकों से सब्ज़ियाँ उगाना सिखाते हैं। जैविक खेती के साथ-साथ उन्होंने एक और पहल की शुरुआत की। वह कहते हैं कि जब उन्होंने खुद खेती शुरू की तो उन्हें अहसास हुआ कि बचपन में सब्ज़ियों की जिन किस्मों को उनके खेत में बोया जाता था, वो अब हैं ही नहीं। इस बारे में उन्होंने अपने दादाजी से बात की।
“दादा ने बताया कि हाइब्रिड बीजों की वजह से अब बहुत ही कम किसान रह गये हैं जो देसी बीजों से खेती करते हैं। इस वजह से साल दर साल देसी बीजों की किस्में लुप्त हो रही हैं।”

नंदा ने निश्चय किया कि वह सब्ज़ियों की देसी और पुरानी किस्म के बीजों को सहेजेंगे ताकि एक बीज बैंक बना सकें। अपने इस सपने पर काम करते हुए उन्होंने सोशल मीडिया के ज़रिये खेती से संबंधित ग्रुप्स में लोगों से जुड़ना शुरू किया। इनमें तमिलनाडु ऑर्गेनिक फार्मर्स फोरम, देसी सीड्स, परमाकल्चर इंडिया नेटवर्क, ट्रेडिशनल सीड्स सेंटर जैसे सोशल मीडिया ग्रुप्स शामिल हैं। वह ग्रुप्स में देसी बीजों के बारे में पोस्ट डालते और लोगों से पूछते कि अगर उनके पास किसी भी किस्म के देसी बीज हैं?
फेसबुक के ज़रिए वह बहुत से देशी बीजों से खेती करने वाले किसानों के सम्पर्क में आए। देशी बीजों की खोज में उन्होंने तमिलनाडु और केरल की बहुत-सी यात्राएँ की हैं।
अब तक, उन्होंने अलग-अलग सब्जियों के 150 से भी ज्यादा किस्मों के देसी बीजों को इकट्ठा किया है। इन सब्जियों में भिन्डी, टमाटर, मिर्च, बैंगन, तरह-तरह की फलियाँ और कुछ दालें भी शामिल हैं!
बीज संरक्षण के साथ-साथ नंदा लोगों को खुद प्राकृतिक खेती के ज़रिए अपना खाना उगाने के लिए प्रेरित करते हैं। साथ ही, उनका एक उद्देश्य यह भी है कि गाँवों और शहरों में खाली बेकार पड़ी जगहों का सही इस्तेमाल हो और इनमें खाना उगाकर हम भुखमरी को खत्म कर पाएं।
“मैं हर किसी से यही कहता हूँ कि आपको जहां भी, अपने गाँव या शहर में खाली या फिर इस्तेमाल न आने वाली जगह दिखे, वहां पेड़ लगाओ और छोटा-सा फार्म बनाने की कोशिश करो। इससे हमारे चारों तरफ हरियाली होगी और इसमें हम खुद अपना खाना उगा सकते हैं। बस छोटी-सी कोशिश करने की ज़रूरत है।”
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यदि आप एक किसान हैं और देसी बीजों से खेती करना चाहते हैं आप नंदा से मुफ्त में मंगवा सकते हैं। उन्हें संपर्क करने के लिए 9514417417 पर कॉल करें और उन्हें इंस्टाग्राम पर फॉलो कर सकते है!
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