चिलचिलाती धूप में भी गिरगांव के कोरोनेशन थिएटर के बाहर टिकट लेने के लिए लोगों की कतार लगी हुई थी, तारीख थी 3 मई, 1913। इस दिन भारत की पहली फीचर फिल्म, राजा हरिश्चंद्र रिलीज़ हुई थी। 50 मिनट लंबी यह साइलेंट फिल्म लगातार 23 दिनों तक थिएटर में चली और इसी के साथ नींव रखी गई, भारतीय सिनेमा की। क्या आपको पता है कि इस फिल्म में नायिका का रोल एक पुरूष ने किया था जो एक होटल में कुक का काम करता था।
दादा साहेब फालके ने किया था निर्देशन
इस फिल्म का निर्देशन, दादा साहेब फालके ने किया था, जिन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाता है। कभी फोटोग्राफी और प्रिंटिंग प्रेस का काम करने वाले फालके लंदन से फिल्म मेकिंग का कोर्स करके आए और भारत लौटकर उन्होंने ठान लिया कि उन्हें फिल्म बनानी है। जिसमें निर्देशन से लेकर अभिनय तक, सभी कुछ भारतीय करें। बहुत सोच-विचारने के बाद उन्होंने ‘राजा हरिश्चन्द्र’ की कहानी को फिल्म के लिए चुना और फिर शुरू हुआ कास्टिंग का सिलसिला।
फालके को फिल्म में पुरुषों के किरदार निभाने के लिए आसानी से रंगमंच कलाकार और अन्य अभिनेता मिल गए। राजा हरिश्चंद्र के बेटे के किरदार के लिए उन्होंने खुद अपने बेटे को लिया। लेकिन जब बात कहानी की नायिका यानी कि रानी तारामती के किरदार की आई तो फालके की मुश्किलें बढ़ गईं।

उस जमाने में रंगमंच, फिल्म और अभिनय जैसी चीजों को बहुत ही तुच्छ नज़रों से देखा जाता था। इसलिए उस समय नाटकों में महिलाओं की भूमिका भी पुरुष कलाकार ही निभाया करते थे। फालके ने हर संभव प्रयास किया कि उन्हें कोई महिला मिल जाए रानी तारामती के किरदार के लिए।
कहानी अन्ना सालुंके की
फालके ने अपनी पत्नी सरस्वती को यह किरदार निभाने के लिए कहा, पर सरस्वती पहले ही फिल्म-निर्माण में बहुत सी भूमिकाएं निभा रहीं थीं और इसलिए उन्होंने भी मना कर दिया। आखिर में फालके को एक पुरुष को ही इस किरदार के लिए चुनना पड़ा और वह थे ‘अन्ना सालुंके,’ जिन्हें अगर भारतीय सिनेमा की ‘पहली अभिनेत्री’ कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा।

सालुंके एक होटल में कुक का काम करते थे और होटल में ही फालके ने उन्हें देखा। सालुंके की कद-काठी और बनावट देखकर, फालके को उनमें रानी तारामती दिखीं और उन्होंने तुरंत सालुंके को अपने साथ काम करने के लिए पूछा। उस समय होटल में सालुंके को महीने के 10 रुपये तनख्वाह मिलती थी और फालके उन्हें 15 रुपये प्रति माह देने को तैयार थे।
बस फिर क्या था, सालुंके ने हाँ कर दी और इस तरह, भारत की पहली फीचर फिल्म को उसकी अभिनेत्री मिली। इस फिल्म के बाद सालुंके ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने साल 1913 से लेकर 1931 तक फिल्म इंडस्ट्री में काम किया।
उन्होंने अपनी शुरूआत बतौर अभिनेता की थी लेकिन बाद में, उन्हें सिनेमेटोग्राफी में आनंद आने लगा और उन्होंने बहुत-सी फ़िल्में शूट कीं। अपने 18 साल के फिल्म करियर में सालुंके ने 5 फिल्मों में अभिनेत्री की भूमिका निभाई।
शुरूआती फिल्मों में महिला किरदार निभाने के अलावा, एक और उपलब्धि है, जो अन्ना सालुंके के नाम जाती है और वह है हिंदी सिनेमा का पहला ‘डबल रोल।’ जी हाँ, उस जमाने में तकनीक भले ही बहुत ज्यादा विकसित नहीं हुई थी, लेकिन फिर भी दूर-दृष्टि रखने वालों की कोई कमी नहीं थी।

साल 1917 में दादा साहेब फालके की एक और फिल्म आई और वह थी ‘लंका दहन’। रामायण के एक किस्से को फिल्म की कहानी के तौर पर उन्होंने पेश किया। इस फिल्म की सबसे दिलचस्प बात थी कि फिल्म के मुख्य किरदार, राम और सीता, दोनों ही अन्ना सालुंके ने निभाए।
कहते हैं कि दर्शकों में शायद ही कोई हो, जो उस समय कह पाया हो कि ये दोनों किरदार एक ही व्यक्ति ने निभाए हैं। सालुंके को भारतीय सिनेमा का पहला डबल रोल निभाने का श्रेय जाता है।
एक्टिंग के साथ-साथ सालुंके की कैमरा स्किल्स भी वक़्त के साथ अच्छी होती गईं। उन्होंने लगभग 32 फिल्मों में बतौर सिनेमेटोग्राफर काम किया। जिनमें से ज़्यादातर दादा साहेब फालके ने ही निर्देशित की थीं। हालांकि, साल 1931 में साउंड तकनीक के उद्भव के बाद बोलती फ़िल्में बनने लगीं।
फिल्म इंडस्ट्री को आवाज़ मिल जाने के बाद ‘साइलेंट’ फिल्मों का जमाना चला गया और इसके साथ-साथ अन्ना सालुंके का नाम भी कहीं गुम हो गया। लेकिन आज जिस सिनेमा को हम देखते हैं, उसकी नींव को मजबूत करने में अन्ना सालुंके जैसे बहुत से लोगों का हाथ है, जिन्होंने उस जमाने में हर कदम पर संघर्ष करके अपनी भावी पीढ़ी के लिए एक नए क्षेत्र के दरवाजे खोले। यह अन्ना सालुंके ही थे जिन्होंने महिलाओं को फ़िल्मी दुनिया में कदम रखने का हौसला दिया, जिसके लिए भारतीय सिनेमा सदैव उनका ऋणी रहेगा!
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