कहते हैं कि बनारस शिव का धाम है और शायद इसीलिए हर एक कला इस धाम में बसती है। बनारस घराने में गायकी से लकर नृत्य, किसी कला की कोई कमी नहीं। जहाँ ठुमरी की रानी ‘गिरिजा देवी’ बनारस के घराने से थीं वहीं महान कथक नृत्यांगना सितारा देवी की जड़ें भी बनारस से जुडी हैं।
उत्तर-प्रदेश के बनारस में संस्कृत और संगीत के विद्वान पंडित सुखदेव प्रसाद के घर में सितारा देवी का जन्म हुआ। दिन था 8 नवंबर 1920, उस दिन धनतेरस का त्यौहार था और इसीलिए उनका नाम धनलक्ष्मी रहा गया। उन्हें सभी ‘धन्नो’ कहकर पुकारते थे।
पर आज द बेटर इंडिया पर पढ़िए कि आखिर कैसे वे ‘धन्नो’ से भारत की मशहूर कथक डांसर ‘सितारा देवी’ बन गई!

पिता संगीत के विद्वान थे इसलिए घर में संगीत और नृत्य की आवाज और झंकार धन्नो के कानों में लगातार पड़ती थी। उसी झंकार को धन्नो ने धीरे-धीरे आत्मसात भी कर लिया था। अपने पिता की देख-रेख में नृत्य सीखने लगी। जिसके चलते लोगों की कड़वी बातों का भी उन्हें सामना करना पड़ा।
यहाँ तक कि समाज ने उनके परिवार का बहिष्कार कर दिया था। पर समाज के हर एक सवाल का जबाव सितारा ने अपनी बेबाकी और हुनर से दिया। कोई भी मुश्किल उनके विश्वास को ना हिला पायी। मात्र 10 साल की उम्र में उन्होंने सोलो परफॉर्म करना शुरू कर दिया था। और इसी सबके दौरान उनका नाम धन्नो से सितारा देवी रख दिया गया।
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साल 1933 में बॉलीवुड से काशी आए फिल्म निर्माता निरंजन शर्मा को एक ऐसी अदाकारा की तलाश थी जिसमें नृत्य के साथ ही सुरीले गायन की भी प्रतिभा हो। कबीर चौरा में उनकी नजर धन्नो के हुनर पर पड़ी। उन्होंने उनके पिता से धन्नो को मुंबई भेजने के लिए कहा। बताया जाता है कि जब महज 13 साल की उम्र में धन्नो को फिल्म की शूटिंग के लिए मुंबई रवाना करने मोहल्ले के बच्चे-महिलाएं तक स्टेशन गए थे।

और काशी के कबीरचौरा की गलियों में पली ‘धन्नो’ मुंबई की फिल्मी दुनिया का ‘सितारा’ बनकर छा गईं।
सितारा देवी ने अच्छन महाराज, शंभू महाराज और लच्छू महाराज से शिक्षा तो लखनऊ घराने की ली, लेकिन धीरे-धीरे अपनी एक अलग शैली विकसित की। अपनी इसी अलग शैली से उन्होंने बनारस घराने में कथक का विस्तार किया।
ये वो दौर था जब कथक के लिए लखनऊ, जयपुर और रायगढ़ जैसे घराने ज्यादा प्रचलित थे, लेकिन सितारा देवी ने बनारस घराने को एक खास पहचान दी। सितारा देवी सिर्फ 16 बरस की थीं जब एक कार्यक्रम में पंडित रवींद्र नाथ टैगोर आए थे।
टैगोर ने जब सितारा को नृत्य करते देखा तो बस देखते रह गये। इतनी कम उम्र में इतनी गहरी साधना, शायद ही उन्होंने पहले कभी देखी थी। और महकबी रबिन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें ‘नृत्य सम्रागिनी’ की उपाधि से नवाज़ा!

सितारा देवी ने निरंजन की पहली फिल्म ‘वसंत सेना’ में नृत्यांगना के तौर पर अभिनय की शुरुआत की। इसके बाद फिल्मों में कोरियोग्राफी के जरिये भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी, वहीं कथक नृत्य को दुनिया में विशिष्ट पहचान भी दिलाई।
सितारा को संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड, कालिदास सम्मान व पद्मश्री से भी नवाजा गया। बाद में इन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण दिया गया जिसे इन्होंने लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि क्या सरकार मेरे योगदान को नहीं जानती है? ये मेरे लिये सम्मान नहीं है। मैं भारत रत्न से कम नहीं लूंगी।
शोहरत और कामयाबी का लम्बा सफ़र तय करने वाली सितारा देवी ने 94 वर्ष की आयु में दुनिया से विदा ली। 25 नवंबर 2014 को उन्होने अपनी आखिरी सांस ली।
अपनी ज़िन्दगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली सितारा देवी नृत्य मंच पर अपनी ऐसी अमित छाप छोड़ गयीं हैं जो सदियों तक शास्त्रीय संगीत सिखने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेगी।
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