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भुला दिए गए नायक : भारतीय वायुसेना के सबसे पहले चीफ एयर मार्शल सुब्रोतो मुखर्जी!

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भारतीय वायुसेना के सबसे पहले चीफ एयर मार्शल सुब्रोतो मुखर्जी की कहानी न केवल अफसरों बल्कि आम लोगों के लिए भी प्रेरणादायक है। वह व्यक्ति जिसकी दृढ़ता और मानवता के लिए पूरा देश उनका सम्मान करता है। वह व्यक्ति जिन्होंने भारतीय वायु सेना की नींव रखी।

कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें आज भी ‘भारतीय वायु सेना के पिता’ के रूप में याद किया जाता है।

Image source: Facebook
एक आदर्श बचपन 
सुब्रोतो मुख़र्जी का जन्म 5 मार्च 1911 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था। उनके नानाजी डॉ. पीके रॉय कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज के पहले प्रिंसिपल थे और उनके दादाजी, निबरण चन्द्र मुख़र्जी एक शिक्षक व समाज सुधारक थे। उनके पिता, एच. सी मुख़र्जी ने साल 1892 में भारतीय सिविल सर्विस में शामिल हुए।
अपने परिवार के चार बच्चों में सबसे छोटे सुब्रोतो थे और उनके बाकी भाई-बहनों ने भी अपनी एक पहचान बनाई थी। उनकी बहन रेणुका राय एक स्वतंत्रता सेनानी थीं और बाद में पार्लियामेंट की सदस्य बनीं। उनके बड़े भाई प्रसंतो मुख़र्जी रेलवे बोर्ड के चेयरमैन बने।
घर में सबसे छोटे होने के कारण उन्हें सबका कहना मानना पड़ता और सभी भाई-बहनों के काम करने पड़ते थे।
उनकी बहन नीता सेन ने एक बार बताया था, “वो घर में सबसे छोटा था। इसलिए उसे घर के सभी काम करने पड़ते थे। हमने कभी उसे गंभीरता से लिया ही नहीं। हमें कभी कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह एयर मार्शल है। हमारे लिए वह सबसे छोटा था।”
सुब्रोतो की पढ़ाई भारत व इंग्लैंड, दोनो ही जगह हुई और उनका बचपन बेहद सुखद रहा!

वायु सेना में चयन 

मुख़र्जी परिवार में सबको यही लगता था कि सुब्रोतो बड़े होकर डॉक्टर ही बनेंगे। इसके लिए वे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी भी गये। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। उस समय सेना में भारतीय प्रतिनिधित्व को लेकर अंग्रेजी सेना पर काफी दबाब था और इसलिए उन्होंने भारतीय वायुसेना की शुरुआत करने का फैसला किया, जिसमें सिर्फ भारतियों को ही शामिल किया जाना था।
सुब्रोतो के पिता ने उन्हें इस विज्ञापन की एक प्रतिलिपि भेजी और उन्होंने तुरंत इसमें दिलचस्पी दिखाई। अपनी माँ के मना करने के बावजूद सुब्रोतो ने 1929 में परीक्षा दी और भारतीय वायु सेना के लिए चयनित होने वाले 6 प्रतिभागियों में से एक बने। इन सभी को इंग्लैंड में रॉयल एयरफाॅर्स में ट्रेनिंग दी गयी। ट्रेनिंग के दौरान सुब्रोतो ने भारतीय एयरमैन के लिए भारतीय लाइब्रेरी स्थापित करने की पहल की। इतना ही नहीं उन्होंने अपने घर से पुरानी सभी किताबें भेजने के लिए अपनी माँ को पत्र भी लिखा।

इसके आखिर में  पांच प्रतिभागीयों को भारत के सबसे पहले एयर फाॅर्स स्क्वाड्रन का पायलट बनना था।

राह की बाधाएं
साल 1939 में सुब्रोतो को इस स्क्वाड्रन का लीडर बना दिया गया और इस पद को हासिल करने वाले वे पहले भारतीय थे। साल 1942 में एक आरएएफ स्टेशन का नेतृत्व करने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। साल 1945 में उन्हें ऑर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर का अधिकारी बनाया गया।
हालांकि, ये सभी अधिकारी परीक्षा के बाद चयनित हुए थे पर फिर भी भारतीय अफसरों के साथ भेदभाव होता था। रॉयल एयरफोर्स के अफसरों को ज्यादा तवज्जो दी जाती थी। इस भेदभाव को झेलते हुए भी सुब्रोतो और उनके जैसे अन्य अफसर लगातार आगे बढ़ते हुए अपना बेहतर प्रदर्शन करते रहे।
साल 1947 में जब भारत को स्वतंत्रता मिली तब सुब्रोतो भारतीय वायुसेना के सबसे ऊँची रैंकिंग के अफसर थे।
Photo source: Twitter
और फिर मिली आज़ादी!
एक लंबी लड़ाई के बाद मिली आज़ादी के बाद, सुब्रोतो जैसे अफसरों पर उन सभी संस्थानों को चलाने का जिम्मा आया जिन्हें अंग्रेजों ने खाली किया था। भारतीय वायुसेना में कार्यरत सभी अफसर बंट गये थे, क्योंकि उन्हें निर्णय लेना था कि वे पाकिस्तान में जायेंगे या फिर भारत में ही रहेंगे।
बताया जाता है कि जब भारत के आखिरी वाइसराय लार्ड माउंटबैटन ने सुब्रोतो से पूछा कि वे कितने समय के लिए सीनियर ब्रिटिश अफसर को भारत में रखना चाहते हैं, तो सुब्रोतो ने कहा कि 5 से 7 साल। सुब्रोतो ने यह फैसला बहुत सोच-समझ कर लिया था जबकि वे जानते थे उन्होंने अपनी तरक्की को और 7 साल पीछे हटा दिया है। लेकिन उन्होंने खुद से पहले देश को रखा ताकि वे सीनियर अफसरों की मदद से भारत में फिर से आईएएफ को बिना किसी के सहारे खड़ा कर पाए।
साल 1952 में एक बार फिर ट्रेनिंग के लिए इंग्लैंड के इम्पीरियल डिफेन्स कॉलेज गये। साल 1954 में भारत लौटने पर वे आईएएफ के आधिकारिक तौर पर कमांडर-इन-चीफ नियुक्त हुए। साल 1955 में इस पद को बदलकर चीफ ऑफ़ द एयर स्टाफ कर दिया गया। और इस तरह से इन दोनों पदों को संभालने वाले वे पहले भारतीय थे।
सुब्रोतो एक दृढ व्यक्तित्व के साथ विनम्र स्वाभाव के भी थे। उन्होंने कभी भी किसी को नहीं जताया कि उन्हें हर दिन कितनी समस्यायों से जूझना पड़ता है।
Image source
उन्होंने हमेशा ही भारतीय वायुसेना में काम करने वाले अधिकारियों के हितों का ध्यान रखा। सुब्रोतो और उनकी पत्नी शारदा मुखर्जी ने (जिन्होंने 1978 से 1983 तक गुजरात के गवर्नर के रूप में कार्य किया), सुनिश्चित किया कि आईएएफ में सेवा करने वाले सभी लोगों के परिवारों की देखभाल सही ढंग से हो।
एक दुखद अंत 
कई साल पहले सुब्रोतो ने एक बार अपनी चिंतित माँ से कहा था कि उनकी मौत कभी भी विमान उड़ाने की वजह से नहीं होगी। उनकी यह बात एक भविष्यवाणी साबित हुई। जब भारत की पहली फ्लाइट टोक्यो गयी तो वे भी उस फ्लाइट के यात्री थे। 8 नवम्बर को टोक्यो में एक दोस्त के साथ खाना खाते वक़्त उन्हें अचानक खांसी आ गयी जिससे उनकी श्वासनली में खाना फंस गया। हर संभव प्रयास के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका।
उनकी विरासत!
उनकी मृत्यु पर भारतीय वायुसेना में उनकी 28 साल की सेवा के लिए उन्हें न केवल भारत ने बल्कि पूरे विश्व ने श्रद्धांजलि दी। डिफेन्स मिनिस्टर वीवी कृष्णा ने उनके लिए कहा, “वायुसेना ने आज एक अनुभवी और महान अफसर को खोया है तो देश ने एक देशभक्त को और देशवासियों व उनके साथियों ने एक सच्चे लीडर को खोया है। एयर मार्शल मुख़र्जी ने अपनी सर्विस पर जो छाप छोड़ी है वह मुझसे या फिर किसी के भी कहे हुए शब्दों से कहीं बड़ी श्रद्धांजलि है।”
उनके जाने के बाद आज भी उनकी विरासत चली आ रही है। साल 1958 में उन्होंने ही फुटबॉल को आगे बढ़ाने के लिए देशभर में बच्चों के बीच टूर्नामेंट करवाने की योजना दी थी। उनकी मृत्यु के पश्चात् सबसे पहले सुब्रोतो कप फुटबॉल टूर्नामेंट आयोजित किया गया था। आज भी यह भारत में होने वाला सबसे बड़ा इनटर स्कूल फुटबॉल टूर्नामेंट में से एक है।
संपादन – मानबी कटोच

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