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भारत का ‘रोनाल्डो’जरनैल सिंह, जिसने 6 टांके लगने के बाद भी दिलवायी भारत को ऐतिहासिक जीत!

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साल 1962 और जकार्ता में चल रहे एशियाई खेलों में फुटबॉल टूर्नामेंट का फाइनल मैच। इस मैच में आमने-सामने थे, साउथ कोरिया और भारत।

साउथ कोरिया की फुटबॉल टीम, विश्व की सबसे बहतरीन फुटबॉल टीमों में से एक थी। दूसरी तरफ, भारतीय फुटबॉल टीम, जो अनगिनत चुनौतियों को पार करके यहाँ तक पहुँची थी। इसके साथ ही, साउथ कोरिया ने भारत को साल 1958 के एशियाई खेलों में भी हराया था और इस टूर्नामेंट का पहला मैच भी भारतीय टीम साउथ कोरिया से हार चुकी थी।

पहले मैच के बाद पूरे टूर्नामेंट में भारत के शानदार खेल के बावजूद यह कहना मुश्किल था कि फाइनल में वे साउथ कोरिया को हरा सकते हैं। पर भारतीय फुटबॉल टीम और उनके तत्कालीन कोच रहीम को कहीं न कहीं पता था कि आज उन्हें इतिहास रचना है।

बताया जाता है कि फाइनल मैच से एक रात पहले, कोच रहीम ने अपनी टीम से गुरुदक्षिणा में ‘जकार्ता एशियाई खेलों’ का गोल्ड मेडल माँगा था। इस टीम ने भी आर या पार की तैयारी कर रखी थी।

जकार्ता एशियाई खेलों के लिए जाती भारतीय फुटबॉल टीम

और फिर, 4 सितंबर 1962, रेफरी की सीटी के साथ मैच शुरू हुआ। मैच शुरू होने के साथ ही, साउथ कोरिया को समझ में आ गया कि आज भारत को हराना बहुत मुश्किल होने वाला है। और फिर, भारत का गोल हुआ और यह शॉट मारा था जरनैल सिंह ढिल्लों ने!

जरनैल सिंह ढिल्लों, भारतीय फुटबॉल टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक। उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें किसी भी पैटर्न में, किसी भी टीम के साथ और कैसे भी मैदान पर खिलाएं, वे तुरंत अपने खेल पर पकड़ बना लेते हैं। साथ ही, उनके साथ खिलाड़ी हैरान होते थे कि जो जरनैल व्यक्तिगत तौर पर इतना सौम्य और नरम दिल है, वह मैदान पर जाते ही इतना निडर और आक्रामक कैसे बन जाता है! हालांकि, ढिल्लों का स्वभाव शायद उनके जीवन के अनुभवों के कारण बना था।

20 फरवरी 1936 को पंजाब के होशियारपुर में जन्में ढिल्लों भी उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने विभाजन को न सिर्फ़ अपनी आँखों से देखा था, बल्कि उसके दर्द को भी झेला था।

जरनैल सिंह ढिल्लों

ढिल्लों 13 साल के थे, जब उन्हें विभाजन की आग से खुद को बचाने के लिए कभी यहाँ तो कभी वहाँ भागना पड़ा। न जाने कितने दिनों तक भूखे-प्यासे सिर्फ़ सफ़र किया और वह भी उस ट्रेन में, जिसकी बोगियाँ लाशों से भरी पड़ी थीं। ज़िंदगी के इन अनुभवों ने उनके भीतर एक अलग ही तरह का हौंसला भर दिया था, जो उनके खेल के दौरान दिखाई पड़ता।

ढिल्लों ने फुटबॉल में अपने करियर की शुरुआत साल 1956 में खालसा स्पोर्टिंग क्लब से की और फिर बाद में, कोलकाता के राजस्थान क्लब के साथ खेलने लगे। जहाँ उनके साथी खिलाड़ी खेल में तकनीक को ज़्यादा तवज्जो देते थे, वहीं ढिल्लों के लिए उनका मनोबल और दृढ़ता बहुत अहम थी।

इतनी दृढ़ता शायद ही किसी और खिलाड़ी में थी उस वक़्त और इसलिए उनके साथी उन्हें ‘जैगुआर सिंह’ बुलाते थे। राजस्थान क्लब के बाद वे मोहन बगान टीम का हिस्सा बनें। इस टीम में चुनी गोस्वामी के साथ साझेदारी में ढिल्लों ने छह बार टीम को कोलकाता लीग में विजयी बनाया।

और अपने इसी जोश और हौंसले के चलते उन्होंने भारतीय फुटबॉल टीम में प्रवेश किया। देखते ही देखते, ढिल्लों इस टीम के सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन गये। उनके साथी खिलाड़ी, चुनी गोस्वामी ने साल 1962 के एशियाई खेलों को याद करते हुए कहा,

“टूर्नामेंट के दूसरे मैच में जरनैल के सिर पर गहरी चोट लगी, उन्हें छह टांके आये। पर फिर भी उन्हें बाद के मैच खेलने के लिए चुना गया। क्योंकि जरनैल को टीम से बाहर रखना कोई विकल्प ही नहीं था। पर उनकी चोट के चलते उनकी पोजीशन बदली गयी और उन्हें फॉरवर्ड में खेलने के लिए कहा गया।”

फुटबॉल के गोल्डन फोर: बाएं से- तुलसीदास बलराम, पी. के बनर्जी, चुनी गोस्वामी और जरनैल सिंह ढिल्लों

सिर पर गहरी चोट होने के बावजूद, ढिल्लों के खेल में जरा भी ढील नहीं आई। मैच के पहले हाफ से ही उन्होंने पकड़ बना ली और भारत का स्कोर 2-0 हो गया। उनके सिर पर बंधी पट्टी खुल गयी थी और खून बह रहा था। पर उनका ध्यान सिर्फ़ इस बात पर था कि उन्हें यह मैच अपने पिता समान कोच के लिए जीतना है।

भारत के मजबूत डिफेंस ने साउथ कोरिया को एक भी मौका नहीं दिया कि वे गोल कर पायें। हालांकि, दूसरे हाफ के आख़िरी चंद मिनट में साउथ कोरिया अपना पहला गोल करने में कामयाब रहा। अब फिर से, भारत पर दबाव आ गया। पर उस वक़्त मैदान पर जो मंजर था, उसे देख कर पूरे स्टेडियम में ख़ामोशी छा गयी।

आख़िरकार, भारत मैच जीत गया। उस दिन भारतीय फुटबॉल टीम का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया। भारत में टीम की इस ऐतिहासिक जीत ने उन सभी आवाज़ों को खामोश कर दिया, जिनका कहना था कि भारतीय खिलाड़ियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए नहीं जाना जा सकता।

जीत के बाद भारतीय टीम

तत्कालीन भारतीय फेडरेशन के अधिकारी, के. के. गांगुली ने कहा,

“मैं हमारे खिलाड़ियों के प्रदर्शन से बहुत खुश हूँ। हम बिलकुल हताश हो गये थे, जब सरकार ने हमारे फुटबॉल खिलाड़ियों को विदेशी दौरे पर भेजने से मना कर दिया था। पर अब उन्हें अपने फ़ैसले पर कोई पछतावा नहीं होगा।”

सिर्फ़ अपने देश में ही नहीं, बल्कि इस टीम को जकार्ता में भी बहुत-सी परेशानियाँ झेलनी पड़ी। उन्हें इस मेजबान देश में विरोध का सामना करना पड़ा।

दरअसल, जब एशियाई खेलों के लिए इंडोनेशिया ने इज़रायल और ताईवान के खिलाड़ियों को अनुमति नहीं दी, तो बाकी कई देशों के साथ-साथ भारत ने भी उनके इस रवैये की आलोचना की। इस आलोचना ने इंडोनेशिया के नागरिकों के मन में भारतीय फुटबॉल टीम के प्रति रोष भर दिया। उनके खिलाफ़ नारेबाजी हुई, यहाँ तक कि उनकी बस पर पथराव हुआ, जिसके चलते खिलाड़ियों को बस की फर्श पर बैठकर आना पड़ा।

इन सब चुनौतियों के बावजूद, ये जरनैल सिंह और उनके साथी खिलाड़ियों का ही हौंसला था कि भारत का तिरंगा पूरे एशिया में लहराया। इस टीम ने अपने गुरु और कोच रहीम को पूरे सम्मान के साथ गुरुदक्षिणा दी। बताया जाता हैं कि जब इतनी मुश्किलों को हरा कर भारतीय टीम जीती, तो रहीम खुद को संभाल नहीं पाए।

इस जीत की नींव रखने वाले रहीम उस वक़्त ड्रेसिंग रूम में जाकर खुशी के आंसू बहा रहे थे।

कोच रहीम अपनी टीम के साथ

इस मैच में जरनैल ने जो किया, वह कोई शेर-दिल इंसान ही कर सकता था। साल 1964 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से नवाज़ा गया और साथ ही, एशियाई ऑल-स्टार फुटबॉल टीम का कप्तान चुना गया। इस पद को पाने वाले वे इकलौते भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी हैं।

साल 1965 से लेकर 1967 तक उन्होंने भारतीय फुटबॉल टीम की कप्तानी संभाली। उनके मार्गदर्शन में टीम का प्रदर्शन बेहतर रहा। अपनी रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने फुटबॉल कोच के तौर पर अपना काम जारी रखा।

टीम के साथ विचार-विमर्श करते जरनैल सिंह

साल 2000 में 14 अक्टूबर को 64 साल की उम्र में अस्थमा की बीमारी के चलते उनका निधन हो गया।

आज जब पूरे विश्व में फुटबॉल के खेल को इतना सराहा जाता है, तो हमें इस खेल के उन खिलाड़ियों को भी याद रखना, जिन्होंने इस खेल में भारत को वैश्विक स्तर पर पहचान दी।

(संपादन – मानबी कटोच)


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