पूरी दुनिया आज जहां कोविड-19 महामारी से जूझ रही है, वहीं इसके साथ कई और परेशानियाँ भी सामने आ रही हैं, जिनमें से सबसे बड़ी परेशानी है कोरोना वेस्ट। जी हाँ, मास्क, पीपीई किट, और ग्लव्स आदि इस्तेमाल करना हमारी आज की ज़रूरत है। लेकिन डिस्पोज होने के बाद यह सारा वेस्ट लैंडफिल में पहुँचता है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रहा है।
महामारी को लेकर तो कोई निश्चित तौर से नहीं कह सकता कि यह कब थमेगी। लेकिन इस कचरे के प्रबंधन पर हम ज़रूर काम कर सकते हैं जैसे गुजरात के बिनीश देसाई कर रहे हैं।
बिनीश को भारत का रीसायकल मैन कहा जाता है और कहें भी क्यों न, आखिर यह आदमी वेस्ट को फिर से इस्तेमाल करके बिल्डिंग मटेरियल बनाने में माहिर जो है।
बिनीश, बीड्रीम (BDream) नाम की कंपनी के संस्थापक हैं। वह इंडस्ट्रियल वेस्ट को सस्टेनेबल बिल्डिंग मटीरियल बनाने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं। उनका पहला इनोवेशन पेपर मिल से निकलने वाले कचरे को रीसायकल करके पी-ब्लॉक ईंट बनाना था। अब उन्होंने उसी कड़ी में कोरोना वेस्ट जैसे कि इस्तेमाल किए हुए मास्क, ग्लव्स और पीपीई किट से भी पी-ब्लाक 2.0 ईजाद किया है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) में सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (Central Pollution Control Board) द्वारा सबमिट एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत एक दिन में 101 मीट्रिक टन बायोमेडिकल वेस्ट प्रोड्यूस कर रहा है और ये सिर्फ़ कोरोना से जुड़ा वेस्ट है, इसके अलावा हमारे देश में एक दिन में 609 मीट्रिक टन बायोमेडिकल कूड़ा इकट्ठा होता है।
बिनीश ने द बेटर इंडिया को बताया, “लोग ज़्यादा से ज़्यादा सिंगल यूज़ मास्क का उपयोग कर रहे हैं। एक बार इस्तेमाल होने के बाद ये मास्क कूड़े के ढ़ेर में शामिल हो जाते हैं। तो मैंने सोचा क्यों न मैं इस वेस्ट से भी ईंटें बनाने का काम शुरू करूं?”
पी-ब्लॉक 2.0:
इस ईंट को बनाने में 52 % तक PPE मटेरियल, 45% गीले कागज़ के स्लज और 3% गोंद का इस्तेमाल हुआ है। बिनीश के मुताबिक, बायोमेडिकल वेस्ट से ईंट बनाने की प्रक्रिया वैसी ही है जैसे वह पेपर मिल के वेस्ट से बना रहे थे। उन्होंने ऐसे पीपीई किट, मास्क, ग्लव्स और हेड कवर्स को इस्तेमाल किया गया है, जिन्हें बुनकर नहीं बनाया गया है। उन्होंने इन पर सबसे पहले काम अपनी होम लैब में किया और फिर अपनी फैक्ट्री में कुछ ईंटें बनाईं।
P-Block 2.0
जब वह सफल रहे तो उन्होंने इन ईंटों को एक स्थानीय लैब में टेस्टिंग के लिए भेजा। वह कहते हैं, “हम महामारी की वजह से इन्हें नेशनल लैब में नहीं भेज पाए। लेकिन अभी भी एक सरकारी लैब से ही हमने टेस्टिंग कराई है। प्रोटोटाइप टेस्टिंग में सभी क्वालिटी टेस्ट को पास किया है।”
ईंट का साइज़ 12 x 8 x 4 इंच है और एक स्क्वायर फुट ईंट बनाने के लिए 7 किलोग्राम बायोमेडिकल वेस्ट का इस्तेमाल हुआ है। बिनीश का दावा है कि ये वॉटर-प्रूफ़ भी हैं, ज़्यादा भारी भी नहीं और आग से भी बचाव करती हैं। एक ईंट की कीमत 2.8 रुपये है।
कैसे होगा वेस्ट कलेक्शन:
बिनीश सितंबर से यह ईंटे बनाना शुरू करेंगे और इसके लिए वह अस्पताल, स्कूल, सैलून, बस स्टॉप और अन्य सार्वजानिक स्थानों से बायोमेडिकल वेस्ट इकट्ठा करेंगे, जिसके लिए हर जगह इको-बिन रखी जाएगी। इन बिन्स में एक मार्क होगा जो इसके पूरे भरने पर आपको सूचित करेगा।
इसके बाद, लगभग 3 दिनों तक इसे बिना छुए रखा जाएगा। तीन दिन बाद इसे पूरे वेस्ट को अच्छे से डिसइंफेक्ट किया जाएगा। इसके बाद इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर इसे कागज की स्लेज और गोंद के साथ मिलाकर ईंट बनाई जाएगी।
इस पूरी प्रक्रिया को शुरू करने के लिए बिनीश और उनकी टीम काम कर रही है और अलग-अलग सरकारी प्रशासनों से बात की जा रही है। उम्मीद है जल्द ही उनका काम शुरू होगा। अगर आप इस बारे में जानना चाहते हैं तो बिनीश को b.ecoeclectic@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं!
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आंध्र प्रदेश के विशाखापट्नम में रहने वाली 23 वर्षीया रचना रोनांकी ने बॉयोटेक्नोलॉजी में मास्टर्स की। पढ़ाई के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक नौकरी भी की लेकिन कुछ निजी कारणों के चलते उन्हें अपनी जॉब छोड़नी पड़ी। लगभग 2 साल पहले उन्होंने अपनी छत पर किचन गार्डनिंग की शुरुआत की, जहाँ वह लगातार नए प्रयोग कर रही हैं।
पेड़-पौधों और प्रकृति के प्रति यह लगाव उन्हें अपने पिता से मिला। वह बताती हैं कि उन्होंने अपने पिता से गार्डनिंग के गुर सीखे। हालांकि, पहले यह सिर्फ़ घर में दो-चार पौधों तक सीमित था लेकिन फिर उन्होंने बड़े स्तर पर सब्जी और फूल उगाना शुरू किया।
रचना ने गार्डनिंग की शुरुआत कुछ फूल और कुछ आसानी से उगने वाले सब्ज़ियों जैसे धनिया, टमाटर और मिर्च आदि से की। धीरे-धीरे उनकी छत पर पौधों की संख्या बढ़ने लगी। अब उनकी छत पर 100 से ज्यादा पेड़-पौधे हैं।
“मुझे शुरुआत में थोड़ा समझने में वक़्त लगा लेकिन मात्र 6 महीनों में ही मुझे अच्छी उपज मिलने लगी। कुछ बेसिक पौधे लगाने के बाद मैंने कुछ एक्सपेरिमेंट भी किए। पापा हमेशा मुझे गाइड करते रहते हैं। सोशल मीडिया के ज़रिए भी दूसरे लोगों से सीखती रहती हूँ,” उन्होंने बताया।
Rachana Ronanki
आगे रचना कहती हैं कि अगर आप गार्डनिंग की शुरुआत कर रहे हैं तो किसी विश्वसनीय जगह से बीज खरीदें या फिर पहले किसी से कंसल्ट कर लें। उन्होंने बताया, “बहुत बार बीज की क्वालिटी ठीक न होने के कारण पौधे नहीं पनपते हैं और हमें लगने लगता है कि हमसे गार्डनिंग नहीं होगी। इसलिए हार न मानें, बस कोशिश करते रहें।”
रचना ने अपनी छत पर छोट-छोटे गमलों से शुरुआत की और फ़िलहाल, उनके पास कुछ ग्रो बैग्स भी हैं। इन दिनों वह भिन्डी, कद्दू, लौकी, तोरई, मक्का, प्याज, बीन्स, खीरा, अमरुद और सूरजमुखी आदि उगा रही हैं। वह बताती हैं कि हार्वेस्टिंग के समय उन्हें जो उपज मिलती है, उससे आराम से उनके घर की आपूर्ति हो जाती है। कई बार वह दूसरों को भी बाँटती हैं।
“लेकिन अब मुझे लगने लगा है कि मुझे इस तरह से पेड़-पौधे लगाने चाहिए, जिससे पूरे सालभर हमें सब्जी मिलती रहे। अब मैं अपने गार्डन को इसी तरह से तैयार कर रही हूँ। साथ ही, हमारे शहर का मौसम बहुत गर्म रहता है और इसलिए अब मैंने कुछ ऐसे ग्रेन्स उगाने पर भी फोकस किया है। जैसे पिछली बार मैंने रागी का एक्सपेरिमेंट किया था,” उन्होंने आगे बताया।
रचना ने अपने टेरेस पर रागी उगाई है और उन्हें सफलता भी मिली। उन्होंने बहुत ही सीमित मात्रा में रागी उगाई लेकिन अब वह आश्वस्त हैं कि आगे भी वह यह फसल उगा सकती हैं। हम सब जानते हैं कि रागी को सुपरग्रेन कहा जाता है और यह हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही अच्छी होती है।
She planted finger millets in old buckets and containers
रचना कहती हैं कि उन्हें गर्मियों के हिसाब से कुछ उगाना था और उन्हें रागी के बारे में पता चला। वह एक जगह से रागी के कुछ बीज ले आईं और कुछ गमलों में उन्हें बो दिया।
उनके मुताबिक, रागी को बहुत ज्यादा देखभाल की ज़रूरत नहीं होती है क्योंकि यह हीट-टोलेरेंट होती है। उन्होंने बाकी सब पौधों की तरह ही इसके लिए भी पॉटिंग मिक्स तैयार किया जिसमें मिट्टी, वर्मीकंपोस्ट/गोबर की खाद और नीमखली शामिल थी। साथ ही, वह मिट्टी में थोड़ा कोकोपीट भी मिलाती हैं ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे। इसका एक और फायदा है कि पानी अगर गमले में ही रिटेन रहता है तो छत को खराब नहीं करता। टेरेस पर गार्डनिंग करने वालों को खासतौर पर इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनके गमले बहुत ज्यादा भारी न हो और न ही, पानी बहुत ज्यादा छत पर बहे।
रचना कहती हैं, “रागी को उगने के लिए सही पानी और काफी जगह की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, उन्हें किसी खास ट्रीटमेंट की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती। मैंने जब रागी लगाई तो उसमें कोई पेस्ट भी नहीं लगे थे और गर्मियों में उनका काफी अच्छा उत्पादन हुआ।”
With Her Finger Millets
लेकिन साथ ही, वह यह भी कहती हैं कि अगर किसी को बहुत ज्यादा मात्रा में रागी उगानी है तो इसके लिए काफी ज्यादा जगह चाहिए। तभी आप ज्यादा उपज ले पाएंगे। वह यही सलाह देती हैं कि जिनके पास काफी ज्यादा जगह और आसपास कोई प्रोसेसिंग मशीन का इंतजाम हो, उनके लिए रागी उगाना और उसका आटा बनवाना काफी आसान रहेगा।
“मुझे जितनी उपज मिली, उसमें में मैंने थोड़ा-सा आटा बनवाया। बाकी कुछ पंछियों के लिए दाने रख लिए और बाकी बचे हुए भूसे को मैंने जानवरों के लिए चारे के रूप में दे दिया। अगर कोई एक्सपेरिमेंट करना चाहता है तो उसे ज़रूर करना चहिए क्योंकि अनुभव से आप बहुत कुछ सीख सकते हैं,” उन्होंने कहा।
Other Veggies from her garden
अपनी गार्डनिंग के बारे में रचना आगे बताती हैं कि अच्छे उत्पादन के लिए ज़रूरी है अच्छा पॉलीनेशन होना। इसके लिए ही वह अपने गार्डन में फूलों की कई किस्म उगाती हैं। अक्सर लोगों को लगता है कि किचन गार्डनिंग में फूलों का क्या काम? लेकिन फूल आपके गार्डन में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं।
इनके कई फायदे हैं:
*सबसे पहले तो ये अपने रंग और खुशबू की वजह से कई तरह के कीट और तितली आदि को आकर्षित करते हैं।
*सभी कीट अगर फूलों की तरफ चले जाएंगे तो आपकी सब्जियों में बीमारी नहीं लगेगी।
*इसके साथ ही, तितली जैसे जीव आने से पेड़-पौधों में पॉलीनेशन होगा।
Her Flowers
रचना कहती हैं कि आप जो खुद उगाकर खाते हैं, उसकी बात ही अलग होती है। हर किसी को कुछ न कुछ ज़रूर उगाना चाहिए चाहे फिर वह सिर्फ हर्ब्स ही क्यों न हो। अगर आपके पास ज्यादा जगह न भी हो तब भी आप इन्हें आसानी से उगा सकते हैं। गमले खरीदने की भी ज़रूरत नहीं है आप डिब्बों का इस्तेमाल कर सकते हैं। पुराने प्लास्टिक के डिब्बों को आप इस काम के लिए इस्तेमाल में ले सकते हैं।
“मैं सबसे यही कहूँगी कि गार्डनिंग ज़रूर करनी चाहिए। बच्चों को स्कूलों में कम से कम हफ्ते में एक बार गार्डनिंग अवश्य सिखानी चाहिए। अपना खुद का खाना उगाना उतना ही ज़रूरी है, जितनी कि हमारे सिर पर छत। इस महामारी ने यह बात हम लोगों को वैसे भी बहुत अच्छे से समझाई है। आने वाला भविष्य तभी अच्छा हो सकता है अगर आज की पीढ़ी को प्राकृतिक और स्वस्थ खाना उगाने और खाने के बारे में जागरूक किया जाए,” उन्होंने अंत में कहा।
अगर आपको भी है बागवानी का शौक और आपने भी अपने घर की बालकनी, किचन या फिर छत को बना रखा है पेड़-पौधों का ठिकाना, तो हमारे साथ साझा करें अपनी #गार्डनगिरी की कहानी। तस्वीरों और सम्पर्क सूत्र के साथ हमें लिख भेजिए अपनी कहानी hindi@thebetterindia.com पर!
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किसी ने खूब कहा है, जहाँ चाह होती है वहीं राह होती है। अगर किसी काम को करने का संकल्प ले लिया जाए तो यकीन मानिए वह खुद बा खुद पूरा हो जाता है। ऐसा ही एक संकल्प लिया था दिल्ली की रहने वाली अंजलि मलिक ने।
वह हमेशा से चाहती थीं कि उनका खाना केमिकल मुक्त हो। अब चूँकि बाज़ार की सब्जियों पर तो भरोसा किया नहीं जा सकता इसलिए वह घर पर ही केमिकल मुक्त सब्जियाँ उगाने के लिए खाली जगह की तलाश में थीं। उनकी यह तलाश ख़त्म हुई उनके घर की छत पर। ढाई साल पहले अंजलि ने अपना टैरेस गार्डन बनाया और नैचुरल तरीके से सब्जियाँ उगानी शुरु कीं। आज वह न केवल लोगों को टैरेस गार्डनिंग के लिए प्रेरित कर रही हैं, बल्कि कई लोगों के घरों की छत और बालकनियों में टैरेस गार्डन स्थापित करने में मदद भी कर रही हैं।
अंजलि मालिक
अंजलि मलिक करीब 45 सालों से दिल्ली में रह रही हैं। स्कूल की प्रिंसिपल रह चुकी अंजलि ने महसूस किया कि हमारे जीवन में धीरे-धीरे केमिकल गहरी पैठ बनाता जा रहा है। रोज़मर्रा की ज़रूरत के सामान से लेकर खाने-पीने की चीज़ों तक, हर चीज़ में केमिकल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है।
वह कहती हैं, “कैंसर, डॉयबटीज़, शुगर, थायरॉयड जैसी बीमारियाँ तेज़ी से फैल रही हैं। इन बीमारियों का सबसे बड़ा कारण केमिकल है। खाना, पानी और हवा, इंसान की तीन बुनियादी ज़रुरतें हैं और ये तीनों ही तेजी से प्रदूषित हो रही हैं। जब तक हमारा खाना शुद्ध नहीं होगा, हम इस दिशा में सुधार नहीं कर पाएँगे।”
कैसे शुरू हुआ था यह सफर
अंजलि का टेरेस गार्डन
प्रकृति और हरियाली की तरफ अंजलि का झुकाव हमेशा से ही रहा। वह एक संस्था से जुड़ीं और एग्रीकल्चर कोर्स किया। यहाँ उन्होंने टैरेस गार्डनिंग पर फोकस किया। धीरे-धीरे उन्होंने जगह-जगह यह कोर्स ऑर्गेनाइज़ करना शुरु किया और फिर वह ट्रेनर बन गईं।
अंजलि कहती हैं, “केमिकल मुक्त खाना खाने के लिए इसे नैचुरल तरीके से उगाना ज़रूरी है। शहरों में रहने वालों के पास घर की छत और बालकनी है जो खाली है। यहाँ पर सही तरीकों का इस्तेमाल करके एक परिवार के लिए पर्याप्त सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं।”
अंजलि के टैरेस गार्डन को देख कर कई लोग टेरेस गार्डनिंग की ओर आकर्षित हुए हैं। अंजलि ने उन्हें ट्रेनिंग देने का मन भी बनाया है। अब वह न केवल लोगों को टैरेस गार्डनिंग सिखा रही हैं बल्कि लोगों के टैरेस गार्डन भी सेट अप करवा रही हैं। अब तक वह करीब 60 टैरेस गार्डन तैयार करवा चुकी हैं और सैकड़ों लोगों को ट्रेनिंग दे चुकी हैं।
10X6 फीट बड़े ग्रो बैग के इस्तेमाल से हुआ फायदा
इन्हीं ग्रो बैग्स में गार्डनिंग करती हैं अंजलि
पौधे उगाने के लिए अंजलि ग्रो बैग का इस्तेमाल करती हैं जिनका आकार करीब 10X6 फीट होता है। वह कहती हैं कि इसका सबसे बड़ा फायदा है कि इसमें एक साथ ही कई तरह ही सब्जियाँ उगाई जा सकती हैं। क्लाइंबर, पत्तेदार सब्जियाँ और छोटे पौधों को ग्रो बैग में इस तरह से लगाया जाता है कि इसमें 15-16 किस्म के पौधे आसानी से उगाए जाते हैं। टैरेस गार्डन को लेकर आमतौर पर एक डर छत पर सीलन लगने का होता है। लेकिन अंजलि मलिक कहती हैं कि सीलन की कोई समस्या नहीं होती है क्योंकि ग्रो बैग लगाते समय कई तरह की सावधानियाँ बरती जाती हैं। वह बताती हैं, “हमने छत पर एक ड्रेनेज सिस्टम लगाया है। फोम बांध कर एक पाइप अंदर डाला जाता है और उसे एक नाले से कनेक्ट कर दिया जाता है।” इसके अलावा, नैचुरल फार्मिंग में पौधों में पानी उतना ही डाला जाता है जितनी मिट्टी को ज़रुरत होती है। इससे 80% पानी की बचत भी होती है और ज्यादा पानी नहीं डाले जाने के कारण उसके बाहर निकलने का कोई डर नहीं रहता है। ज़्यादा सावधानी के लिए कुछ लोग थर्मोकोल लगा लेते हैं या कई लोग लोहे के बेड भी बना कर लगाते हैं।
अंजलि ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों तरीके से टैरेस गार्डनिंग की ट्रेनिंग देती हैं। ट्रेनिंग में कई बातों पर फोकस किया जाता है, जैसे-
लोगों को ट्रेनिंग देतीं अंजलि
मिट्टी – अंजलि कहती हैं, “मिट्टी हमारी माँ है। अगर माँ बीमार है तो बच्चा भी बीमार ही होगा।” इसलिए मिट्टी को समझना और उसे स्वस्थ बनाना बेहद ज़रुरी है।
बीज – कोर्स में बीज के बारे में भी विस्तार से बताया जाता है और देसी बीज के इस्तेमाल पर ही जोर दिया जाता है।
पानी – अंजलि कहती हैं कि अक्सर पौधे पानी की कमी से नहीं बल्कि ज़्यादा पानी देने से खराब हो जाते हैं। टैरेस गार्डनिंग में दिलचस्पी रखने वालों को विस्तार से बताया जाता है कि किस तरह के पौधे के लिए कितने पानी की ज़रुरत होती है।
कुछ ऐसा दिखता है अंजलि का टेरेस
कीट प्रबंधन (पेस्ट मैनेजमेंट) – अंजलि के मुताबिक किसी भी तरह की फार्मिंग में पेस्ट मैनेजमेंट बहुत ज़रुरी है। आमतौर पर लोग कीट को खत्म करने के लिए केमिकल वाले कीटनाशक दवाएँ डालना शुरु कर देते हैं। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कुछ कीट दोस्त भी होते हैं जो प्रकृति ने हमें फार्मिंग के लिए दिए हैं। अगर केमिकल वाले कीटनाशक से उन्हें हम खत्म कर देते हैं तो मिट्टी स्वस्थ नहीं रहती। कोर्स में कीट मैनेजमेंट के बारे में भी बताया जाता है।
अंजलि कहती हैं कि हमारे रसोईघर का वेस्ट यानी फेंकने वाली चीज़ें हमारे किचन गार्डन के लिए बढ़िया होती है। सब्जियों के छिलकों से लेकर चावल का पानी तक, हर चीज़ का इस्तेमाल किचन गार्डनिंग या टैरेस गार्डनिंग के लिए किया जाता है।
और बन गई बिजनेस चेन
अंजलि करीब 2000 परिवारों का संपर्क किसानों से करा चुकी हैं।
इसके अलावा अंजलि लोगों को प्राकृतिक तरीके से खाद और कीटनाशक बनाना भी सिखाती हैं। यह जानना काफी दिलचस्प है कि अंजलि से ट्रेनिंग लेने वाले केवल सब्जियाँ उगाना ही नहीं सीखते हैं बल्कि कई लोग एक बिजनेस चेन का हिस्सा बन जाते हैं। कई लोग ट्रेनिंग के बाद देसी बीज, कंपोस्ट, ग्रीन मैनयोर, एंज़ाइम बनाने के काम में लग जाते हैं और उसे बेचते हैं। अंजलि इन चीज़ों को बनाने वाले लोगों का संपर्क गार्डनिंग में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के साथ साझा करती हैं, जिससे एक बिजनेस चेन भी चलता है।
फैमली फार्मर है तो फैमली डॉक्टर की ज़रुरत नहीं
थोड़ी से मेहनत से सही तरीके से घर पर अच्छा सब्जी उत्पादन हो सकता है।
टैरेस गार्डनिंग के साथ अंजलि किसानों को भी ट्रेनिंग देती हैं। अंजलि अब तक 500 से ज्यादा किसानों को नैचुरल फार्मिंग की ट्रेंनिंग दे चुकी हैं। साथ ही वह किसानों को डायरेक्ट मार्केट दिलाने में भी मदद कर रही हैं। दरअसल अंजलि ‘फैमली फार्मर’ कॉन्सेप्ट पर काम रही हैं। वह कहती हैं कि अगर हमारे पास फैमली फार्मर है तो हमें फैमली डॉक्टर की ज़रूरत नहीं है। हम अच्छा खाएंगे तो बीमार नहीं होंगे और डॉक्टर की ज़रुरत नहीं होगी। इस कॉन्सेप्ट के तहत अंजलि किसानों और ग्राहकों के बीच सीधा संपर्क कराती हैं। इनके बीच कोई बिचौलिया नहीं होता है। किसान अपने खेतों में केमिकल मुक्त सब्जियाँ उगाते हैं और ग्राहकों को सीधा बेच सकते हैं। इससे लोगों को शुद्ध सब्जियाँ मिलती हैं और किसानों को भी अच्छी कीमत मिल जाती है। अब तक अंजलि करीब 2000 परिवारों का संपर्क किसानों से करा चुकी हैं। प्रति किसान कुछ परिवार निर्धारित किए जाते हैं जो उनकी ज़रूरत के अनुसार खेतों की उपज बेचते हैं। वह कहती हैं, “इससे किसानों और ग्राहकों के बीच एक रिश्ता बनता है। लोग किसानों की समस्याओं और उनकी ज़रूरतों के बारे में समझना शुरू करते हैं। इतना ही नहीं, बीज और मशीनों के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ने पर किसान अपने लिए निर्धारित परिवारों से एडवांस भी ले सकते हैं। इससे उन्हें बैंक या कहीं और से लोन लेने की ज़रुरत नहीं पड़ती।“
अंत में अंजलि कहती हैं कि केमिकल मुक्त सोसाइटी बनाना ही उनके जीवन का मिशन है। जब तक केमिकल का इस्तेमाल कम नहीं होता तब तक पर्यावरण और जीवन शुद्ध और स्वच्छ नहीं बना सकते हैं।
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।
शहरों में अक्सर लोग यही कहते हैं कि अरे, जगह कहाँ है इतनी कि पेड़-पौधे लगा लें! इन लोगों के लिए लखनऊ के गार्डनिंग एक्सपर्ट अंकित बाजपेई एक ही सलाह देते हैं और वह है ‘वर्टीकल गार्डनिंग।’ खुद कई सालों तक मेट्रो शहरों में रहने वाले अंकित का कहना है कि हर समस्या का हल है लेकिन सिर्फ तब जब हम खुद वह हल चाहें।
लोग फ्लैट्स की छोटी-छोटी बालकनी और यहाँ तक कि सिर्फ दीवारों पर भी गार्डनिंग कर रहे हैं। अंकित खुद वर्टिकल प्लांटर में टमाटर उगाते हैं। पंजाब के एक IRS ऑफिसर रोहित मेहरा, जो माइक्रो जंगल बनाने में एक्सपर्ट हैं, वह भी वर्टीकल गार्डन में हाथ आजमाने की सलाह देते हैं।
आज द बेटर इंडिया आपको बता रहा है कुछ ऐसे ही #DIY, जिनसे आप घर पर ही वर्टीकल गार्डन बना सकते हैं!
इसके लिए कुछ चीजें आपको ध्यान में रखने की ज़रूरत है जैसे अगर आप फूल, सब्जी आदि लगाने की सोच रहे हैं तो घर का वह कोना इस्तेमाल करें, जहाँ कम से कम 7-8 घंटे अच्छी धूप आती हो। अगर आपके यहाँ धूप कम आती है तो आप ऐसे पेड़-पौधों का चुनाव करें जिन्हें कम धूप की ज़रूरत होती है। अगर आप फल-सब्जी भी नहीं उगा सकते तो कम से कम हरियाली के लिए कुछ पेड़-पौधे तो लगा ही सकते हैं।
1. प्लास्टिक की बोतलों से:
सबसे सस्ता और किफायती तरीका है प्लास्टिक की बोतलों से वर्टीकल गार्डन बनाने का। आपके घर में जो भी पुरानी, खाली प्लास्टिक की बोतलें पड़ी हों, आप उन्हें इस्तेमाल कर सकते हैं। प्लास्टिक की बोतलों को आप कई तरह के इस्तेमाल कर सकते हैं। आप इन्हें किसी दीवार पर कील ठोककर वर्टीकल और हॉरिजॉन्टल तरीकों से लगा सकते हैं और फिर इनमें पॉटिंग मिक्स डालकर, पौधे लगा सकते हैं।
आप यदि चाहें तो एक टायर को बीच में काटकर, दो प्लांटर्स भी तैयार कर सकते हैं। बस इन्हें दीवार पर टांगने के लिए आपको इनमें कील के हिसाब से छेद करने होंगे।
टायर्स से हैंगिंग प्लांटर्स बनाना भी बहुत ही आसान है। आपको बस इसे साफ़ करके इसे खड़ा करना है और फिर इसमें आप मिट्टी भरकर पौधे लगा सकते हैं या फिर सीधा गमले भी रख सकते हैं।
इसे आप अपनी बालकनी में या फिर आँगन में किसी भी बड़े पेड़ आदि या फिर गैलरी में रस्सी की मदद से लटका सकते हैं। ये हैंगिंग प्लांटर्स आपके गार्डन को और भी खूबसूरत बना सकते हैं।
3. पीवीसी पाइप से:
बिहार में रहने वाली सुनीता प्रसाद अपनी छत पर वर्टीकल गार्डनिंग करके अच्छी उपज लेती हैं। सुनीता बतातीं हैं, “मुझे शुरू से ही सब्जी उपजाने का शौक रहा है। कोई भी बर्तन टूट जाता था तो उसमें मिट्टी डालकर कुछ ना कुछ उसमें लगा देती थी। एक दिन मैं कबाड़ी वाले को सामान बेच रही थी। इस दौरान मुझे उसकी साइकिल पर एक पाइप नजर आया, जिसे मैंने खरीद लिया। पाइप को छत पर रख दिया। देखते ही देखते उसमें मिट्टी जम गई। उसके बाद उसमें घास भी निकल आई। यह देख मुझे लगा कि इसको उपयोग में लाया जा सकता है।”
सुनीता पीवीसी पाइप में बैंगन, टमाटर और मिर्च जैसी सब्जियां उगा रही हैं। वह कहती हैं कि कम जगह में सब्जी उगाने के लिए वर्टीकल गार्डनिंग सबसे अच्छा तरीका है।
जानिए, पीवीसी पाइप में कैसे वर्टीकल गार्डन लगा सकते हैं:
* 10 फीट लंबा और 6 इंच चौड़ा पाइप लीजिये और इसे काटकर पांच-पांच फीट के दो पाइप बना लीजिये।
* अब इन पाइप में एक समान दूरी पर 4 इंच के कट लगाएं और फिर आग की मदद से कट के एक तरफ से पाइप को हल्का-सा पिघला दें। फिर जब पाइप हल्का सा फ्लेक्सिबल हो जाए तो उसे लकड़ी की मदद से अंदर की तरफ करके इसे छेद का रूप दे दें।
* छेद के बीच की दूरी कितनी रखनी है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप क्या लगा रहे हैं, अगर आप मिर्च, बैंगन से पौधे लगा रहे हैं तो दूर-दूर छेद करें क्योंकि इनके पेड़ फैलते हैं। और अगर आप प्याज या पत्तेदार सब्जी लगा रहे हैं तो पास-पास छेद कर सकते हैं।
* ऊपर से लगभग 1 फीट तक पाइप में कोई छेद न करें।
* पाइप में छेद करने बाद तय करना है कि आप इसे कहाँ रखेंगे और जब जगह तय हो जाए तो आप इसे वहाँ पर सीमेंट की मदद से परमानेंट तौर पर लगा सकते हैं या फिर नीचे ईंट आदि का सहारा देकर खड़ा कर सकते हैं।
*इसके बाद आप इसके छेदों में से पॉटिंग मिक्स भरें और बीज लगाएं।
* आप वर्टीकल गार्डन में स्प्रिंकलर से पानी दे सकते हैं।
* आप वर्टीकल गार्डन तैयार है।
वीडियो यहाँ देखें:
4. दीवार पर पीवीसी पाइप से गार्डन:
इसके लिए सबसे पहले आपको चाहिए- पीवीसी पाइप, पीवीसी ढक्कन, ड्रिल मशीन और रस्सी।
सबसे पहले 3-4 समान लम्बाई और चौड़ाई के पाइप लीजिये।
अब इन पाइप में से छोटा-सा टुकड़ा काट कर निकाल लीजिये।
अब इन पाइप में ड्रिल मशीन से बीच में समान दूरी पर छेद करें।
अब हर एक पाइप को दोनों तरफ से ढक्कनों से बंद कर दें।
अब इन ढक्कनों में दोनों तरफ समान दूरी पर दो-दो छेद करें।
हर एक पाइप के छेद समान जगह, समान दूरी पर होने चाहिए।
अब ढक्कनों के छेद में से रस्सी डालकर तीनों पाइप को आपस में समान दूरी पर जोड़ लें।
अब सबसे ऊपर वाले पाइप के ढक्कनों के ऊपर वाले छेद में से रस्सी निकालकर इसे दीवार पर लगी कीलों पर टांक दें।
अब इन पाइप में पॉटिंग मिक्स डालें और पौधे लगा दें।
आपका वर्टीकल गार्डन तैयार है।
वीडियो यहाँ देखें:
5. पुराने डेनिम से वर्टीकल प्लांटर्स:
आप अपनी पुरानी जींस या ट्राउजर या फिर डेनिम शर्ट आदि से भी वर्टीकल गार्डन बना सकते हैं। इनसे आप काटकर शू आर्गेनाइजर जैसा कुछ बना सकते हैं। हर एक पॉकेट को इतना बड़ा रखें कि आप इसमें कोई छोटा-सा गमला रख पाएं या फिर कोई पौधा लगा पाएं।
सबसे पहले कोई सही जगह तय करके आप दीवार पर पर्दों को टांगने वाले हुक लगा सकते हैं।
इसके बाद जैसे आपने हुक और रॉड लगाई है, उसी हिसाब से आपको शू आर्गेनाइजर भी बनाना होगा।
पुराने डेनिम के कपड़ों को आप शू आर्गेनाइजर बनाने के लिए इस्तेमाल कर सकती हैं।
जब यह बन जाए तो आप इसे तारों की मदद से रॉड से लटका सकते हैं।
अब आप इसकी पॉकेट्स में या तो सीधा मिट्टी भरके पौधे लगा सकते हैं या फिर आप छोड़े-छोटे गमलों को भी इनमें रख सकते हैं।
कम जगह में ज्यादा पेड़-पौधे लगाने का यह अच्छा तरीका है।
अक्सर लोग इस काम के लिए पुराने शू आर्गेनाइजर या फिर किसी हैंगिंग आर्गेनाइजर का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अगर आपके पास ये नहीं हैं तो आप पुराने कपड़ों से बनाकर इस्तेमाल कर सकते हैं।
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“पैसा तो सिर्फ कागज का एक टुकड़ा है लेकिन इस पैसे के बदले हमें जो वस्तुएं मिलती हैं वही इसकी कीमत निर्धारित करता है,” यह कहना है 66 साल के मणि कृष्णन का, जो सिर्फ एक सूटकेस और आँखों में सपने लिए अमेरिका चले गए थे।
अन्य लोगों की तरह कृष्णन भी एक बेहतर अवसर की तलाश में अमेरिका गए। हालाँकि उनका परिवार पहले से ही वहाँ रहता था। लेकिन विदेश की धरती पर रोजी-रोटी का जुगाड़ करना अपने आप में चुनौतियों और बाधाओं से भरा था। बात चाहे एकदम नए सिरे से बिजनेस शुरू करने की हो या एकदम असफल हो जाने की, उन्होंने कभी भी खुद को टूटने नहीं दिया, बल्कि हर असफलता के बाद वह पहले से अधिक मजबूत होते गए।
आज वह शास्ता फूड्स नाम के एक सफल फूड इंटरप्राइज के मालिक हैं। उन्होंने पिछले 17 सालों में पूरे अमेरिका के साथ-साथ कनाडा में भी ग्राहकों को 170 मिलियन( 17 करोड़) से अधिक डोसे बेचे हैं।
1963 में कृष्णन का परिवार सैन जोस, कैलिफोर्निया चला गया। वह अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए रुक गए। अगस्त 1977 में वह अपने परिवार के पास चले गए।
उन्होंने कॉमर्स में ग्रैजुएशन करने के बाद मुंबई में नौकरी की और एकाउंटिंग का अनुभव हासिल किया। वहाँ वह एक टेक कंपनी में काम करते थे। अगले कुछ सालों तक उन्होंने कई टेक कंपनियों में काम किया। इसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
वह हमेशा से कुछ अपना करना चाहते थे और अपना बॉस खुद बनना चाहते थे। इसलिए 1981 में उन्होंने एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का बिजनेस शुरू किया। उन्होंने 20 सालों से अधिक समय तक बिजनेस किया जिसमें काफी उतार-चढ़ाव आया और अंत में उनका बिजनेस बंद हो गया।
कृष्णन बताते हैं, “मेरे पास अपने परिवार की मदद करने का कोई जरिया नहीं बचा। मैंने अपना घर गिरवी रख दिया और 2003 में डोसा बैटर बेचने का नया बिजनेस शुरू किया। दरअसल, मैंने यह महसूस किया कि अमेरिका में इंडियन फूड की काफी मांग है क्योंकि ये बनाने में भी आसान है और साथ ही सस्ते भी हैं।”
शुरू में निवेश करने के बाद उनके पास बहुत कम पैसे बचे। कृष्णन ने अपनी पत्नी आनंदी की मदद से अपने घर में फूड इंटरप्राइज खोला। डोसा बैटर बनाने से लेकर डिस्ट्रीब्यूशन के लिए लेबलिंग करने तक हर चीज का ध्यान रखा गया।
सुबह 7 बजे उनके दिन की शुरूआत होती थी। वह 2 लीटर के ग्राइंडर में ताजा फर्मेंटेड बैटर बनाते थे। फिर इसे 1 किलो के कंटेनरों में पैक ( जिससे कि 16 होम-साइज़ डोसा बन सकता था) करके लेबल लगाया जाता था और आसपास की दुकानों में डिस्ट्रिब्यूशन के लिए ले जाया जाता था।
वह आगे बताते हैं, “घर के खाने के स्वाद के लिए तरस रहे प्रवासी भारतीयों की संख्या ज्यादा थी। शुरूआत में यही मेरे टारगेट ऑडियंस रहे। मैं सैन जोस के चारों ओर एक किराने की दुकान से दूसरे में जाकर उनके स्टोर में अपने बैटर बेचने का अनुरोध करता था। शुरुआत में लगभग 10 दुकानदार इस शर्त पर तैयार हुए कि अगर उनके दुकान में बैटर की बिक्री होगी तभी वे मुझे पैसे देंगे। वहाँ बैटर बेचने वाले कुछ और छोटे बिजनेस थे लेकिन हम अपना सामान बनाने में मशीनों का उपयोग करके, लेबल के साथ और एफडीए के उचित दिशानिर्देशों का पालन करते थे। इसलिए हमारे प्रोडक्ट पर उनका विश्वास बना। मैं फॉलो अप लेने के लिए हर दिन उन्हें फोन करता था और यहाँ तक कि जो पैकेट नहीं बिकते उन्हें वापस लेने के लिए भी जाता था। शुरुआत में तो ये सब मुश्किलें आती ही हैं।”
शुरूआती दिक्कतों के बावजूद वह पहले साल लगभग 1,000 कंटेनर डोसा बैटर बेचने में कामयाब रहे। 2005 तक शास्ता फूड से कृष्णन को काफी मुनाफा हुआ और उन्होंने अपने गिरवी रखे घर को वापस ले लिया। 2006 तक देश भर में उनके प्रोडक्ट की भारी मांग होने लगी।
10 दुकानों से अब वह 10 राज्यों में 350 स्टोर में बैटर डिस्ट्रिब्यूट करते हैं। उन्होंने एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म भी लॉन्च किया है जो डोसा बैटर और कई अन्य उत्पादों को अमेरिका में 48 राज्यों के साथ-साथ कनाडा के कई हिस्सों में पहुँचाता है।अपनी सफलता के बारे में पूछने पर वह बताते हैं, “मैं कुछ भी हल्के में नहीं लेता। हमारे लिए सर्विस और क्वालिटी सबसे ऊपर है। कभी-कभी तापमान या स्टोरेज की समस्या के कारण चीजें खराब हो जाती हैं तो मैं खुद इसकी जिम्मेदारी लेता हूँ। मैं दुकानदार के पैसे वापस कर देता हूँ या फिर प्रोडक्ट वापस ले लेता हूँ। शिकायत मिलने पर मैं खुद ग्राहकों के घर जाता हूँ और आधे खाली पैकेट को वापस लेता हूँ या ताजे पैकेट देता हूँ। मैं हमेशा ग्राहकों को अच्छी क्वालिटी के प्रोडक्ट खरीदने की सलाह देता हूँ ताकि उनका पैसा बर्बाद न हो।”
सैन जोस में शुरू हुआ छोटा सा बिजनेस एक आइकॉनिक प्रोडक्ट के रुप में आगे बढ़ा और अब वह भारतीय समुदाय की पहचान बन चुका है। यहाँ तक कि मिंडी कलिंग और अमेरिकी सीनेटर कमला हैरिस जैसी प्रमुख हस्तियों ने अपने एक वीडियो में इसका जिक्र किया है।
कृष्णन कहते हैं, “अमेरिकी सीनेटर कमला हैरिस के साथ मिंडी कलिंग ने जो वीडियो बनाया था, वह देखकर मुझे काफी आश्चर्य हुआ और मैं उनका बहुत आभारी हूँ।”
इस तरह से पैकेजिंग की जाती है
डबलिन सिटी, कैलिफ़ोर्निया के रहने वाले प्रभु वेंकटेश सुब्रमण्यन कृष्णन के सबसे पुराने ग्राहकों में से एक है।
वह कहते हैं, “उनकी खासियत यह है कि वह ग्राहकों के फीडबैक को प्राथमिकता देते हैं। किसी भी समय खराब वस्तुओं के बारे में शिकायत करने या निगेटिव फीडबैक देने पर वह इसे पॉजिटिव लेते हैं। मैंने कंपनी को 35,000 वर्ग फुट की मैनुफैक्चरिंग यूनिट और गोदाम में सिर्फ दो ग्राइंडर के साथ एक छोटी सी जगह से बढ़ते देखा है और अभी तक उनके तरीकों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। उनके बिजनेस में एक पारदर्शिता है और उनकी फैक्ट्री में कोई भी ग्राहक प्रोडक्ट की क्वालिटी का स्तर देखने के लिए जा सकता है। हमारे घर में खासतौर से उनके जौ-बाजरे और ऑर्गेनिक किस्मों का डोसा बैटर का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा हम चावल, दाल, फिल्टर कॉफी और जिंजेली ऑयल भी खरीदते हैं।”
डोसा बैटर की लगभग 16 किस्मों से लेकर चावल, दाल, अनाज, अचार, मिठाई और बाजरे से बनी वस्तुओं और अन्य जैविक किस्मों की रोजमर्रा की वस्तुएं शास्ता फूड्स में ऑनलाइन और रिटेल दुकानों दोनों में काफी उत्पाद हैं। अगले कुछ सालों में कृष्णन डोसे को एक हेल्दी ऑप्शन बनाना चाहते हैं।
पैसे से कहीं बढ़कर है मेरा बिजनेस
एक दशक से अधिक समय से शास्ता फूड्स को चलाने के बाद कृष्णन का मानना है कि यह कमर्शियल इंटरप्राइज से कहीं बढ़कर है।
वह कहते हैं, “बड़ा घर या विलासितापूर्ण लाइफस्टाइल कभी भी मेरा लक्ष्य नहीं था। मैं अनुभव से जानता हूँ कि पैसा आता और जाता रहता है। मैं कुछ ऐसा बनाना चाहता था जो एक सार्थक बदलाव ला सके। इसलिए शास्ता फूड्स में हमारे कुछ कच्चे माल जैसे हेरिटेज राइस की किस्में जिन्हें हम जल्द ही लॉन्च करने की योजना बना रहे हैं, सीधे दक्षिण भारत के हिस्सों से किसानों से खरीदे जाते हैं। अपने ब्रांड के जरिए हम इसके चारों ओर जागरूकता फैलाने और इन विलुप्त किस्मों को बचाने की कोशिश कर सकते हैं।”
तमिलनाडु के तिरुवरूर के 65 वर्षीय किसान आर चंद्रमोहन उन कुछ लोगों में से एक हैं, जो राज्य में हेरिटेज राइस वेरिएंट की खेती करते आ रहे हैं। उनका कहना है, “हालांकि, हेरिटेज राइस की मांग है, लेकिन इसकी उपज कम है। इसके अलावा, इन क्षेत्रों में अच्छी चक्की मिल पाना काफी मुश्किल है।”
मंज़ाकुडी में स्वामी दयानंद फ़ार्म्स की मदद और मार्गदर्शन से चंद्रमोहन जैसे किसान इन किस्मों की अधिक खेती कर पा रहे हैं। 2011 के बाद से संगठन पूरे भारत में 247 किस्मों के चावल को बचाने में सफल रहा है, जैसे कि रंधोनी पागल (पश्चिम बंगाल), काला नमक (उत्तर प्रदेश), कोन जोहा (पश्चिम बंगाल), बोरा (असम), कल उरुंदई चम्पा ( तमिलनाडु) आदि।
ऐसे वेरिएंट्स को बचाने के महत्व के बारे में बात करते हुए स्वामी दयानंद एजुकेशनल ट्रस्ट की चेयरपर्सन और मैनेजिंग ट्रस्टी शीला बालाजी कहती हैं, “एक ऐसा समय था, जब हर गाँव में चावल की किस्में पैदा होती थीं। रिपोर्ट के अनुसार हमारे पास हेरिटेज चावल की 100,000 से अधिक किस्में हैं। कुछ साल पहले, हम अपने हेरिटेज राइस वेरिएंट को खोने के कगार पर थे। कुछ किसानों के समूहों के प्रयासों से हम उनका संरक्षण और संवर्धन करने में कामयाब हुए हैं। हमें यह याद रखना होगा कि अगर हम अपनी लैंड रेसेज (हेरिटेज राइस की किस्में) खो देते हैं, तो हमें जैव विविधता को खोना पड़ सकता है जो खाद्य सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक है।”
शास्ता फूड्स में कृष्णन द्वारा हेरिटेज राइस वेरिएंट की नई लांचिग के बारे में बात करते हुए चंद्रमोहन कहते हैं, “जब हमें पता चला कि चावल, संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले कई परिवारों तक पहुँचने वाला है, तो हम बेहद खुश हुए। इस तरह की पहल हमें प्रोत्साहित करती है और यह किसानों को हेरिटेज राइस की पैदावार को बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। इस तरह की पहल करने के लिए किसानों को कमिटेड टीमों की आवश्यकता होती है, जो हर कदम पर उनके साथ रह सकें। मुझे बस इतना करना था कि चावल की खेती ऑर्गेनिक रुप से करनी थी। इसके अलावा बाकी चीजों का भी ध्यान रखा गया था और मैं अगले सीजन का इंतजार कर रहा हूँ।”
कृष्णन एक ऐसे व्यक्ति हैं जो इस विश्वास से जीते हैं कि उनका काम ही सच्ची पूजा है और भारत में अधिक लोगों की मदद करने के लिए इसे एवेन्यू के रूप में बढ़ाने की उम्मीद है।
वह कहते हैं, “बड़े होने के बाद मैं पढ़ाई में कमजोर निकला, जबकि मेरी बहन गोल्ड मेडलिस्ट स्टूडेंट थी। मेरा भाई आईआईएम से ग्रैजुएट था। उस समय मुझे काफी बुरा लगता था, लेकिन अब जब मैं पीछे मुड़कर अपने काम को देखता हूँ तो मुझे बेहद खुशी मिलती है। फिर वह अफसोस पीछे छूट जाता है। दिन खत्म होते अगर आप पूरे जोश और मेहनत के साथ कुछ करते हैं, और कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या रह गया, आखिरकार सब कुछ ठीक हो जाता है।”
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महाराष्ट्र के सांगली में पेड गाँव के नितिन खाड़े ने पढ़ाई भले ही इंजीनियरिंग की है लेकिन उनका मन खेती से जुड़े काम में लगता है। कंप्यूटर हार्डवेयर इंजीनियर के तौर पर काम करते हुए, उन्होंने जैविक खेती और फ़ूड प्रोसेसिंग से जुड़े कई सर्टिफिकेट कोर्स भी किए हैं। इन दिनों वह फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग कर रहे हैं।
नितिन ने 2012 में अपनी फ़ूड प्रोसेसिंग कंपनी, ‘महाराष्ट्र फ़ूड प्रोसेसिंग टेक्नोलॉजीज’ की नींव रखी। इसके ज़रिए वह अंगूर, हल्दी, मोरिंगा, मिर्च जैसी फसलों की प्रोसेसिंग करके किशमिश, हल्दी पाउडर, मोरिंगा पाउडर, तरह-तरह के फलैक्स आदि बना रहे हैं।
नितिन खड़े के काम की खास बात यह है कि जिस तकनीक से वह फ़ूड प्रोसेसिंग करते हैं, उसे उन्होंने खुद तैयार किया है और इसका पेटेंट भी हासिल कर लिया है। उन्होंने द बेटर इंडिया को अपने सफ़र के बारे में विस्तार से बताया।
“मैं शुरू से ही फूड प्रोसेसिंग में तरह-तरह के एक्सपेरिमेंट करता था। हम जहाँ रहते हैं वह इलाका अंगूर की खेती के लिए मशहूर है लेकिन यहाँ शायद ही कोई किसान हो जो खुद अंगूर की प्रोसेसिंग करता हो। मुझे लगा कि क्यों न हम अंगूर की प्रोसेसिंग करके देखें। लेकिन मेरे सामने एक समस्या थी। दरअसल अंगूर की खेती में पेस्टीसाइड स्प्रे का सबसे अधिक उपयोग होता है और फिर उनकी प्रोसेसिंग में लगभग 15-20 दिन लगते हैं। इसके बाद ही किशमिश बनती है। यह किशमिश भी पेस्टीसाइड्स की वजह से उत्तम गुणवत्ता की नहीं होती,” नितिन ने कहा।
इसके बाद नितिन ने एक ऐसी तकनीक इजाद करने पर ध्यान दिया, जिससे कि अंगूर से माइक्रोओर्गानिस्म और केमिकल्स को अच्छे से हटाकर, उसकी जल्दी से जल्दी प्रोसेसिंग की जाए। इसके लिए उन्होंने पहले से उपलब्ध तकनीक और मशीन में थोड़े बदलाव किए। कई कोशिशों के बाद , आखिरकार उन्होंने एक प्रक्रिया इजाद कर ही ली, जिससे वह पूर्ण रूप से प्राकृतिक तरीकों से किसी भी फसल को प्रोसेस करके उत्पाद बनाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में उन्हें सिर्फ 12 घंटे लगते हैं।
नितिन बताते हैं कि उन्होंने फसल के हिसाब से यह तकनीक बनाई है। सबसे पहले ज़रूरी है कि अंगूर को अच्छी तरह से साफ़ किया जाए यानी कि उन पर छिड़के गए केमिकल्स आदि को हटाया जाए। इसके लिए उन्होंने ओज़ोनाइजर प्रक्रिया को अपनाया हुआ है। इस इलेक्ट्रिक डिवाइस की मदद से हवा में मौजूद ऑक्सीजन और ओज़ोन को पानी में घोलकर अंगूरों को साफ किया जाता है।
“ओज़ोन की खासियत यह है कि वह हानिकारक माइक्रोओर्गानिस्म को खत्म कर देती है। बाज़ार में उपलब्ध ओज़ोनाइजर अलग-अलग कामों में इस्तेमाल होते हैं लेकिन हमने इसे फ़ूड प्रोसेसिंग में इस्तेमाल किया। अंगूर को धोने के बाद हम ड्रायर में रखते हैं। इस ड्रायर मशीन को भी पहले ओज़ोनाइजर से साफ़ किया जाता है और फिर इसमें अंगूर को रखा जाता है,” उन्होंने आगे कहा।
ड्रायर मशीन का तापमान 25 डिग्री से 34 डिग्री तक रखा जाता है और इसके साथ ही, इसमें नमी बनाए रखने के लिए एक दूसरी मशीन से हवा दी जाती है। इसके बारे में नितिन कहते हैं, “हमारा उद्देश्य सिर्फ किशमिश बनाना नहीं है बल्कि हम चाहते हैं कि अंगूर पोषण भी बरक़रार रहे। अगर बहुत ज्यादा तापमान पर अंगूर को सुखाया जाए तो इसका पोषण खत्म हो सकता है। इसलिए हमने नमी बनाए रखने की प्रक्रिया को शामिल किया है।”
Dehydration of Grapes
ड्रायर में अंगूर को 12 घंटे तक रखा जाता है और इन 12 घंटों में डीहाइड्रेशन के बाद ये अंगूर किशमिश में परिवर्तित हो जाते हैं। ये किशमिश रंग में एक जैसे और खाने में काफी स्वादिष्ट होते हैं। इनमें कोई भी रसायन नहीं होता।
वहीं अगर अंगूरों को सामान्य तौर पर डीहाइड्रेट किया जाए तो किशमिश बनने में लगभग 15 से 20 दिन का समय लगता है।
नितिन कहते हैं कि जब एक बार उन्हें अपनी इस प्रक्रिया में सफलता मिल गई तो उन्होंने अपनी ज़रूरत के हिसाब से एक मशीन डिज़ाइन कराई। उनकी यह मशीन एक चैम्बर की तरह है, जहां पर वह लगभग 250 किलोग्राम अंगूर की प्रोसेसिंग एक साथ कर सकते हैं। 250 किलोग्राम अंगूर से उन्हें लगभग 70 किलो किशमिश मिलती हैं।
“आप अपनी क्षमता के हिसाब से अंगूर से किशमिश बना सकते हैं और वह भी बहुत ही कम समय में। इससे आपकी मेहनत भी बचती है और बिजली जैसे साधन भी,” नितिन ने कहा।
मशीन भी बना रहे हैं नितिन
फ़ूड प्रोसेसिंग के साथ-साथ उन्होंने मशीनरी पर भी काम करना शुरू किया। वह 24 किलोग्राम की क्षमता से लेकर 250 किलोग्राम की क्षमता तक की मशीन बना रहे हैं। वह कहते हैं कि उनका सपना है कि हमारे देश के किसान खुद अपनी फसल को प्रोसेस करें और ग्राहकों तक पहुंचाए।
“किसानों की तरक्की तभी हो सकती है जब उन्हें उनकी फसल के सही दाम मिलेंगे। जिस शतावर को हम किसानों से 10 रूपये किलों में खरीद रहे हैं, उसे प्रोसेस करके उसका पाउडर 100 रूपये किलो से ऊपर जाता है। लेकिन अगर यही प्रोसेसिंग किसान खुद करे तो उसे बहुत ज़्यादा फायदा होगा,” उन्होंने आगे बताया।
Machine Set-up
नितिन के मुताबिक उनकी इस एक मशीन और तकनीक से ही आप लगभग 500 तरह के प्रोडक्ट्स बना सकते हैं। फ्लेक्स से लेकर ड्रिंक पाउडर तक, आप जो बनाना चाहें बना सकते हैं। अच्छी बात यह है कि यह उत्पादों का रंग, टेक्सचर, स्वाद, और पोषण जैसे गुणों को बरकरार रखती है।
नितिन खुद किशमिश के अलावा हल्दी पाउडर, मोरिंगा पाउडर, प्याज-टमाटर के फ्लैक्स, मेथी पाउडर, धनिया पाउडर, शतावर पाउडर जैसे सैकड़ों प्रोडक्ट्स बना रहे हैं। उनके यह प्रोडक्ट्स दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में सप्लाई होते हैं। बहुत सी आयुर्वेदिक कंपनियां और हर्बल फर्म्स उनसे प्रोडक्ट्स खरीदती हैं।
उनकी इस प्रोसेसिंग यूनिट से बहुत से किसानों की भी मदद हो रही है। वह बताते हैं कि मौसम के हिसाब से वह अलग-अलग फसलों की प्रोसेसिंग करते हैं। जिसके लिए वह लगातार अलग-अलग फसल उत्पादन करने वाले 10-15 किसानों के संपर्क में रहते हैं।
फ़ूड प्रोसेसिंग बना सकता है देश को आत्मनिर्भर
“किसानी की सच्चाई यही है कि मेहनत किसान करता है लेकिन पैसा एजेंट्स को मिलता है, क्योंकि हमारे यहां लोकल लेवल पर फ़ूड प्रोसेसिंग नहीं होती है। अगर लोकल लेवल पर फ़ूड प्रोसेसिंग हो तो किसानों को उनकी फसल का सही दाम मिलेगा और ट्रांसपोर्टेशन या स्टोरेज के अभाव में फसल खराब भी नहीं होगी क्योंकि फिर किसान इसे सीधा प्रोसेस कर पाएंगे,” उन्होंने कहा।
नितिन कहते हैं कि लॉकडाउन में बहुत से लोगों ने संपर्क किया जो इस उद्यम में आना चाहते हैं। मशीन बनाने के ऑर्डर्स भी मिले हैं, जिन पर वह काम कर रहे हैं। उनके मुताबिक, अगर कोई अपना उद्यम शुरू करना चाहता है तो फ़ूड प्रोसेसिंग में करे क्योंकि यह ऐसा उद्यम है जिसमें आप अपनी इन्वेस्टमेंट को मात्र 2-3 साल में वापस कमा लेते हैं, वह भी लाभ के साथ।
वह किसानों को सलाह देते हैं कि अगर समूह बनाकर प्रोसेसिंग यूनिट सेट-अप किया जाए तो किसानों को अधिक लाभ मिलेगा। सरकार भी फ़ूड प्रोसेसिंग के उद्यम को बढ़ावा दे रही है। इसलिए किसानों को आगे बढ़कर इस मौके का फायदा उठाना चाहिए।
अपनी फ़ूड प्रोसेसिंग और मशीन मैनुफक्चरिंग के काम से नितिन खाड़े का टर्नओवर करोड़ों में है। वह कहते हैं, “रिस्क हर जगह है लेकिन अपने अनुभव से मैं फ़ूड प्रोसेसिंग के सेक्टर के बारे में दावे से कह सकता हूँ कि इसमें आप सफल हो सकते हैं। प्रोसेस करके बनाये उत्पादों को अगर अच्छी पैकेजिंग में रखा जाये तो एक साल तक यह चल जाते हैं। लेकिन आप अंगूर को रॉ फॉर्म में कितने दिन रख सकते हैं? इसलिए आज की ज़रूरत फ़ूड प्रोसेसिंग है और किसान को यह समझना ही होगा।”
अगर आप फूड प्रोसेसिंग के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं तो नितिन से 7738102261 पर संपर्क कर सकते हैं!
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भारतीय सेना ने सोल्जर जनरल ड्यूटी (महिला सैन्य पुलिस) की भर्ती के लिए विज्ञापन जारी किया है। योग्य और इच्छुक उम्मीदवार ऑफिशियल वेबसाइट, joinindianarmy.nic.in पर ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं। कुल 99 पदों पर भर्ती होगी।
भारतीय सेना द्वारा अंबाला, लखनऊ, जबलपुर, बेंगलुरू, पुणे और शिलांग में भर्ती रैली आयोजित की जाएगी। विज्ञापन के अनुसार, महिला मिलिट्री पुलिस के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवार के पास वैध ई-मेल आईडी होना जरूरी है। रैली के लिए प्रवेश पत्र रजिस्टर्ड ई-मेल के माध्यम से भेजे जाएंगे।
पद का नाम: सोल्जर जनरल ड्यूटी (Women Military Police)
पदों की संख्या: 99 पद
शैक्षिक योग्यता: न्यूनतम 45% अंक के साथ मैट्रिक/10वीं/ SSLC या समकक्ष और सभी विषय में न्यूनतम 33% अंक होना अनिवार्य है।
आयु सीमा: जारी पदों पर आवेदन करने के लिए उम्मीदवारों की न्यूनतम आयु साढ़े 17 साल होनी चाहिए, जबकि अधिकतम आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई है। उम्मीदवारों का जन्म 01 अक्टूबर 1999 से 01 अप्रैल 2003 के बीच होना चाहिए।
आवेदन शुल्क: इन पदों के लिए आवेदन नि:शुल्क जारी किया गया है।
ऑनलाइन आवेदन जमा करने की अंतिम तिथि: 31 अगस्त 2020
आवेदन प्रक्रिया: जारी पदों पर आवेदन ऑनलाइन करना है। आवेदन करने के लिए उम्मीदवार इंडियन आर्मी की वेबसाइट पर जाएं और दिए गए निर्देशों के अनुसार ऑनलाइन आवेदन की प्रक्रिया पूरी करें। ऑनलाइन आवेदन सबमिट करने के बाद आगामी प्रक्रिया के लिए आवेदन पत्र का एक प्रिंटआउट अपने पास रख ले।
चयन प्रक्रिया: आवेदित योग्य उम्मीदवारों का चयन फिजिकल फिटनेस, मेडिकल टेस्ट और लिखित परीक्षा के आधार पर किया जाएगा।
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आज हम आपको एक ऐसे शख्स से मिलवाते हैं, जिन्होंने महज चौथी कक्षा तक पढ़ाई की लेकिन जैविक खेती में उनका ज्ञान किसी भी विशेषज्ञ को मात देता है। यह शख्स हैं सिक्किम के धनपति सपकोटा।
धनपति ने जैविक सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में अलग पहचान बनाई है। 66 वर्षीय धनपति सपकोटा का दावा है कि वह सिक्किम के पहले ऐसे किसान हैं, जिन्होंने जुकुनी फारसी नामक खीरे के आकार की कद्दू की प्रजाति उगाई। कद्दू का बीज काठमांडू से लाया गया था। सिक्किम में यह कद्दू बहुत ही लोकप्रिय है और यही वजह है कि कद्दू की इस प्रजाति का नाम सपकोटा के ही नाम पर ‘सपकोटा फरासी’ रखा गया है।
धनपति सपकोटा
प्रगतिशील किसान धनपति सपकोटा ने द बेटर इंडिया को बताया, “मुझे बचपन से ही खेती में रुचि थी। पिता से खेती के बारे में ढेर सारी जानकारी मिली। उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया।”
शुरूआत में उन्होंने घरेलू उपभोग के लिए धान और मक्का की जैविक तरीके से खेती की। जैविक खेती की ट्रेनिंग लेने के बाद वह पूरी तरह से जैविक किसान बन गए। अब वह क्षेत्र में जैविक खेती को बढ़ावा दे रहे हैं। प्रदेश के उद्यान विभाग से वह लगातार संपर्क में रहते हैं। इन दिनों वह चेरी पेपर, शिमला मिर्च, टमाटर, कद्दू और ब्रोकली की खेती कर रहे हैं।
यहीं जैविक खेती करते हैं धनपति
धनपति सपकोटा ने 2003 में जैविक खेती शुरू की। उन्हें 2011 में कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने की वजह से स्टेट अवार्ड भी मिला, जिसके बाद राज्य में उनकी पहचान जैविक खेती के संवाहक के रूप में होने लगी। इसके अलावा भी उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। वह कहते हैं, “मैंने अब तक जो कुछ हासिल किया है, वह मुझे प्रकृति से मिला है। जैविक खेती, खेत और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिए आवश्यक है, यह हम सभी को समझना होगा।”
धनपति सपकोटा ने पशुपालन और पशुधन प्रबंधन में भी जोरथांग स्थित सेंटर से ट्रेनिंग ली है, जिसके बाद उन्होंने वर्मी कंपोस्ट यूनिट भी तैयार किया।
खीरे की तरह दिखने वाले कद्दू
मिला 2.5 लाख रुपये का नगद इनाम
2008 गंगटोक में हुए इंटरनेशनल फ्लावर फेस्टिवल में बेस्ट वेजीटेबल ग्रोअर कैटेगरी में उन्हें 2.5 लाख रुपये का इनाम मिला था। उन्होंने उत्तराखंड के उद्यान विभाग से भी तीन सप्ताह का बागवानी प्रशिक्षण लिया है।
सिक्किम के इस चर्चित जैविक किसान ने महज 1900 बीजों से 19 क्विंटल चेरी पेपर उगाने का भी रिकार्ड बनाया है, जिसकी कीमत डेढ़ लाख रुपए से अधिक थी।
उनके फार्म को देखने और उनसे सीखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते रहते हैं। वह इन सभी किसानों को बेहतर जैविक खेती करने का सुझाव देते हैं।
आगंतुक विशेषज्ञों को जानकारी देते धनपति
खेती में है मुनाफा
सपकोटा कहते हैं कि दो एकड़ जमीन में खेती से उन्हें करीब तीन लाख रुपये की कमाई हो जाती है। टेक्नोलॉजी मिशन के तहत उन्होंने मिश्रित सब्जियाँ भी उगाई हैं। उद्यान विभाग की ओर से उन्हें बीज, कीटनाशक और अन्य सहयोग भी प्राप्त हो रहा है। वह बताते हैं, “यदि अच्छा बीज धैर्य के साथ बोया जाए तो उसके अच्छे परिणाम सामने आते हैं। अधिकतम लाभ के साथ ही बेहतर फसल उगाने पर फोकस जरूरी है। मिट्टी को सबसे पहले जैविक खेती के लिए तैयार करना सबसे बड़ी चुनौती है।”
आने वाला समय जैविक खेती का
धनपति पूर्ण रूप से एक जैविक किसान हैं
धनपति सपकोटा कहते हैं कि आने वाला समय जैविक खेती का ही है। वह कहते हैं, “इस समय लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान अपने स्वास्थ्य को लेकर है। कोविड-19 ने लोगों के लिए जीवन को मुश्किल बनाया है, लेकिन कुछ जरूरी सबक भी दिए हैं और उनमें सबसे बड़ा सबक यह है कि अपने खान-पान को बदलना जरूरी है। यदि ऐसा न किया गया तो शरीर पहले ही रासायनिक तत्वों की वजह से जहरीले खाद्य पदार्थों का शिकार हो चुका है।”
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप धनपति सपकोटा से उनके मोबाइल नंबर 9593261473 पर संपर्क कर सकते हैं।
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मिनिएचर आर्ट आजकल खूब ट्रेंड में है। क्ले से खूबसूरत मिनिएचर बनाने वाले आर्टिस्ट्स की देश में कोई कमी नहीं है। आज हम आपको बता रहे हैं चेन्नई की एक माँ-बेटी की जोड़ी के बारे में, जो क्ले से फ़ूड मिनिएचर आर्ट बनाती हैं।
सुधा और नेहा चंद्रनारायण ने अब तक 100 से भी ज्यादा फ़ूड मिनिएचर आर्ट बनाए हैं। उनके द्वारा तैयार किए गए नारियल की चटनी, सांबर, डोसा और इडली जैसे डिजाइन को देखकर एक पल के लिए यकीन ही नहीं होता कि ये क्ले से बनाए गए हैं।
नेहा ने द बेटर इंडिया को बताया कि उनकी माँ ने उन्हें उनके जन्मदिन पर डोसा मिनिएचर बनाकर गिफ्ट किया था। नेहा ने जब इसे अपने दोस्तों को दिखाया तो सब हैरान रह गए। तब से ही, नेहा और उनकी माँ अलग-अलग मिनिएचर जैसे पानीपूरी, मैगी, वडा पाव, और पाव भाजी जैसे मिनिएचर बना रही हैं।
20 वर्षीय नेहा कंप्यूटर साइंस की छात्र हैं। उन्होंने बताया कि माँ ने कहीं से इस आर्ट की पढ़ाई नहीं की है। वह पिछले 15 सालों से क्ले से आर्ट बना रही हैं। अब माँ-बेटी की इस जोड़ी ने इस कला को और भी ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के CN Arts Miniatures की शुरुआत की है।
Neha and Sudha working in their workshop
ये दोनों क्ले आर्ट से बने अद्भुत फूड मिनिएचर बेच रही हैं। अलग-अलग खाने के आधार पर इनका साइज़ 3 से 11 सेंटीमीटर के बीच होता है। नेहा और सुधा को मलेशिया, सिंगापूर और अमेरिका जैसे देशों से भी ऑर्डर मिलते हैं। हर महीने उन्हें लगभग 150 ऑर्डर मिल जाते हैं।
50 वर्षीय सुधा बताती हैं कि उन्हें बचपन से ही आर्ट से प्यार है और यही प्यार नेहा को उनसे विरासत में मिला है। 15 साल पहले जब वह मुंबई में थी, तब उन्होंने क्ले आर्ट में एक कोर्स किया था। “मैं क्ले से ज्वेलरी, फूल, बोन्साई और दूसरे पेड़-पौधे बनाती थी और इन्हें दूसरों को गिफ्ट करती,” उन्होंने आगे कहा।
Dosa, one of the first clay food miniatures crafted by Sudha
साल 2013 में सुधा का परिवार चेन्नई शिफ्ट हो गया और यहीं पर उन्होंने घर में एक छोटी-सी वर्कशॉप खोल ली। उन्होंने जो सीखा, उसे दूसरों से शेयर करने की बारी थी। 2015 में उन्होंने 18 से 80 साल की उम्र तक सभी लोगों को यह आर्टिस्टिक स्किल सिखाना शुरू किया। इस साल उन्होंने अपनी बेटी के कहने पर इसके जरिए अपने उद्यम की भी शुरुआत की।
इस कला को बहुत बारीकी से किया जाता है। सुधा कहती हैं कि वह ड्राई-एयर नेचुरल क्ले इस्तेमाल करती हैं जो इको-फ्रेंडली है। मिनिएचर की सभी चीजें अलग-अलग बनाई जातीं हैं और फिर इन्हें साथ में गोंद से चिपकाया जाता है। इसके बाद आर्टवर्क में रंग भरे जाते हैं।
Sudha Chandranarayan, artist and entrepreneur and A delicious clay food spread
हर एक आर्टवर्क को बनाने में अलग-अलग समय लगता है। अगर डोसा प्लेटर बनाते हैं तो इसमें एक दिन का समय लगता है। वहीं अगर उत्तर-भारत या दक्षिण भारत की थाली बनाएं तो तीन दिन लगते हैं। ये दोनों हर दिन लगभग 6 घंटे इन पर काम करती हैं। उनके फाइनल प्रोडक्ट्स 400 रुपये से लेकर 1500 रुपये तक होते हैं।
इस काम में बहुत मेहनत और धैर्य की ज़रूरत होती है इसलिए वे महीने में सीमित ऑर्डर्स ही लेते हैं। उन्हें एक बार अमेरिका से 100 डोसा मिनिएचर बनाने का ऑर्डर मिला था।
A vada pav key chain
सुधा की आर्ट के साथ-साथ उनकी वर्कशॉप भी काफी मशहूर है। उनसे सीखने वाली कमला वेंकटसन बताती हैं कि सुधा बहुत धैर्य से सिखाती हैं।
बेशक, सुधा की यह कला कमाल की है और जो भी उनके आर्टवर्क को देखता है, उसे भी ख़ुशी होती है।
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पांच साल पहले जब देवयानी त्रिवेदी बेंगलुरू शिफ्ट हुईं तो उन्होंने देखा कि शहर की गगनचुम्बी इमारतों के पीछे कहीं कोई गाँव है तो कहीं कोई बस्ती। ये दोनों जगह भले ही एक ही शहर में हैं पर दोनों की दुनिया साफ अलग है। एक दुनिया में ऐसे लोग रहते हैं, जिनके पास सबकुछ है तो दूसरी दुनिया ऐसे लोगों की है, जो जीने के लिए हर दिन संघर्ष कर रहे हैं।
देवयानी बताती हैं, “मैं यहाँ वाइटफील्ड में रहती हूँ और इसके पीछे एक छोटा-सा गाँव है विजय नगर। विजय नगर के लोग वाइटफील्ड और शहर के अन्य जगहों पर काम करते हैं। मुझे हमेशा से सोशल वर्क में रूचि रही है। जब मैं बाहर रहती थी तो वहां भी किसी न किसी सोशल प्रोजेक्ट से जुड़ी रहती थी और यहाँ आकर भी मैंने यही काम किया।”
वाइटफील्ड राइजिंग एक सोशल ग्रुप है जिसे अलग-अलग पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों ने मिलकर बनाया है। यह ग्रुप एक प्लेटफार्म है जिसके ज़रिए ये लोग समृद्ध और गरीब तबकों के बीच सेतु का काम करते हैं। देवयानी कुछ करना चाहती थीं और इसलिए उन्होंने इस ग्रुप से बात की और एक क्लॉथ डोनेशन ड्राइव आयोजित किया।
Devyani Trivedi
वाइटफील्ड राइजिंग ग्रुप ने देवयानी को ऐसे लोगों से जोड़ा जिन्होंने उन्हें कपड़े डोनेट किए। इसके बारे में देवयानी बताती हैं, “कपड़े तो मेरे पास इकट्ठे हो गए लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि लोग उन्हें लेने के लिए कतार में खड़े हों। उन्हें भी पूरे सम्मान के साथ अपने लिए चीजें चुनकर लेने का हक है। इसलिए मैंने ‘री-स्टोर’ खोलने का फैसला किया।”
आखिर क्या है री-स्टोर
देवयानी ने एक छोटी-सी दुकान किराए पर लेकर यह स्टोर शुरू किया। इसमें डोनेशन के सभी सामान को अलग-अलग केटेगरी में रखकर उनका मूल्य तय किया गया। यहां से कोई भी 5 रुपये से लेकर 500 रुपये तक की चीज़ें खरीद सकता है। यहां पर मिलने वाले सामान में बच्चे-बड़े, महिला-पुरुष के कपड़ों से लेकर स्टेशनरी, बच्चों के लिए गेम्स, किताबें, बर्तन और फर्नीचर आदि शामिल हैं।
देवयानी कहती हैं कि कोई भी उनके स्टोर में आकर चीजें खरीद सकता है। महिलाएं 30-40 रुपये में अपने लिए कुर्ती ले सकती हैं। जींस 80-100 रुपये में मिल जाती है और कई बार उनको अपने घरों के लिए बेडशीट, पर्दे आदि भी काफी कम दाम में मिल जाते हैं। उन्होंने कहा, “हमारा स्टोर बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय है। उनके लिए तरह-तरह के गेम, पजल, किताबें यहाँ पर होती हैं और वह भी बहुत ही सस्ती। कई बार तो बच्चे स्टोर में मदद करते हैं और बदले में अपनी पसंद का खिलौना ले जाते हैं।”
हालांकि, ऐसा नहीं है कि री-स्टोर में सिर्फ ज़रूरतमंद और गरीब तबके के लोगों के लिए ही सामान है। देवयानी ने बताया, “जब भी रीसायकल या फिर रियूज की बात आती है तो हम उसे गरीबी से जोड़ देते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। इस स्टोर से कोई भी आकर शॉपिंग कर सकता है। हमारा उद्देश्य लोगों को यह संदेश देना है कि हम सब अपने घर को सिर्फ भरते जा रहे हैं। मॉल से हम ढ़ेरों सामान ले आते हैं और फिर कुछ दिनों बाद इसे डोनेट करते हैं। यह बिल्कुल ही गलत तरीका है। इससे हमारे पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचता है। हमें रीसायकल, रीयूज और रीस्टोर के कांसेप्ट को समझना होगा। बहुत बार लोग डोनेशन में अपने घर की इलेक्ट्रिक चीजें भी देते हैं। ये चीजें बस पुरानी होती हैं खराब नहीं तो कोई भी इनका इस्तेमाल कर सकता है।”
डोनेशन लेते और देते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए
देवयानी कहती हैं कि यह ‘री-स्टोर’ है न कि कोई ‘डंपिंग स्टोर’! लोगों को लगता है कि गरीब लोग हैं तो कैसे भी फटे-पुराने कपड़े डोनेट कर सकते हैं। यह सोच बिल्कुल गलत है। ‘री-स्टोर में सिर्फ वही चीजें ली जाती हैं जो बिल्कुल सही और इस्तेमाल करने योग्य होती हैं। बहुत बार देवयानी डोनेशन का सामान वापस भेज देती हैं क्योंकि लोग उन्हें एकदम ही टूटी-फूटी क्राकरी या फिर फटे कपड़े भेज देते हैं।
There is a barter system as well, Tehsin gets clothes from Re-store in exchange for stitching these napkins.
“आपके घर में ज़रूर ऐसी चीजें होंगी जो एकदम सही होती है बस आपका उन्हें और इस्तेमाल करने का मन नहीं होता। हम उन चीजों को स्वीकार करते हैं क्योंकि जो आपके उपयोग में नहीं आ रही वह किसी और के काम आ सकती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप अपने घर का कचरा यहाँ पर भेज दें। दान का उद्देश्य सिर्फ कुछ दे देना नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि आपकी दी हुई चीज़ किसी के काम आ रही है। इसलिए बहुत ही सोच-समझ कर डोनेट करें,” उन्होंने कहा।
लोगों की भलाई के लिए जाती है स्टोर की कमाई
वह आगे बतातीं हैं कि री-स्टोर बिल्कुल सेल्फ-सस्टेनेबल है। शुरुआत में उन्हें स्टोर के किराए आदि के लिए फंडिंग करनी पड़ी लेकिन अब धीरे-धीरे यह स्टोर सेल्फ-सस्टेनेबल होता जा रहा है। इसका मुख्य कारण है लोगों में जागरूकता। अब बहुत से लोग बिना किसी ऊँच-नीच का भेदभाव किए उनके यहाँ खरीददारी करने आते हैं।
इस कमाई से स्टोर का किराया आ जाता है और साथ ही स्टोर में पर काम करने वाले कर्मचारी की सैलरी भी। इसके अलावा, पिछले 4 सालों में देवयानी का परिचय गाँव और बस्ती के बहुत से लोगों से हो गया है। वह उनसे उनकी समस्याएं-परेशानी पूछती रहती हैं और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करती हैं।
“हमने महिलाओं को घरेलू स्तर पर अपना काम करने की प्रेरणा भी दी है। कई महिलाएं सिलाई-कढ़ाई का काम कर देती हैं। जिसके बदले हम उन्हें पैसे देते हैं और स्टोर से सामान भी। इससे उनकी एक अतिरिक्त कमाई भी हो रही है। अब लोग खुद ही मेरे पास अपनी परेशानियाँ लेकर आते हैं और हम पूरी कोशिश करते हैं उनकी मदद करने की,” उन्होंने कहा।
She is helping kids with books, stationery and also, get three girls admitted in a private school
इसके अलावा, उन्होंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई करने वाली तीन लड़कियों का दाखिला एक प्राइवेट स्कूल में कराया है। ये बच्चियां पढने में काफी होशियार हैं। इनकी फीस का खर्च देवयानी इसी स्टोर की कमाई और कुछ अपनी जेब से देती हैं। समय-समय पर लोगों को जोड़कर वह सरकारी स्कूलों की मदद भी करतीं हैं।
देवयानी कहतीं हैं कि इस एक री-स्टोर ने समृद्ध और ज़रूरतमंद तबके के बीच की दीवार को तोड़ने का काम किया है। यह एक सेतु की तरह है जो इन दो दुनिया के बीच का रिश्ता बना रहा है। उनकी कोशिश है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस तरह के कांसेप्ट से जुड़ें।
लॉकडाउन में उनका स्टोर बंद रहा लेकिन इस दौरान उन्होंने वाइटफील्ड राइजिंग टीम के साथ मिलकर ज़रुरतमंदों की मदद की। आगे भी उनका उद्देश्य समाज के लिए कुछ न कुछ करते रहना है। वह कहतीं हैं कि उन्हें किसी तरह की कोई आर्थिक मदद नहीं चाहिये। लेकिन अगर कोई कुछ कर सकता है तो अपने आस-पास के ज़रूरतमंद लोगों की मदद ज़रूर करें!
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यह कहानी मिजोरम के दो ऐसे लोगों की है, जो हुनर की वजह से एक दूसरे से मिले। आगे चलकर इन दोनों ने कुछ ऐसी मशीनें बनाई हैं, जिससे कई लोगों को लाभ मिल रहा है।
मिज़ोरम के अइज़ोल छोटे-से गाँव में पले-बढ़े एल. राल्ते को बचपन से ही कला से बहुत प्रेम था। उनका मन पढ़ाई से ज्यादा कुछ न कुछ बनाने-करने में लगता था। ग्रैजुएशन के बाद वह साइनबोर्ड, मोटर नंबर प्लेट्स और कार्विंग जैसे काम करने लगे। वहीं दूसरी तरफ, एल. साइलो मिजोरम के ही चम्पई कस्बे में बड़े हुए। उनकी पढ़ाई ज्यादा नहीं हुई लेकिन मशीन बनाने के हुनर मानों उन्हें जन्म से ही मिला हुआ था।
राल्ते बताते हैं कि एक एनजीओ के माध्यम से उन्होंने बच्चों को वोकेशनल ट्रेनिंग देना शुरू किया। यहीं पर उन्हें पता चला कि उनके राज्य में बांस का उत्पादन और इसका व्यवसाय काफी ज्यादा है लेकिन बांस को काटने, इसकी स्टिक आदि बनाने के लिए बड़ी संख्या में श्रमिक की आवश्यकता होती है और यह काफी महंगा और मेहनत का काम होता है।
L. Ralte and L. Sailo made Bamboo Splint making machine
गौरतलब है कि बांस से अगरबत्ती, आइसक्रीम स्टिक, टूथपिक आदि बनाए जाते हैं। इसके अलावा भी यह काफी सारी चीजों में काम आता है।
राल्ते ने सोचा कि क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जिससे कि बांस की ये पतली लकडियाँ हाथ से बनाने की ज़रूरत न पड़े बल्कि मशीन से यह काम हो जाए। इससे मेहनत कम होगी, समय कम लगेगा और साथ ही, मजदूरों को इस काम में लगने वाली चोटों को भी नज़रअन्दाज़ किया जा सकेगा।
इस मशीन को बनाने के सफ़र में ही राल्ते की मुलाक़ात साइलो से हुई। शुरूआत में उन्होंने दो अलग-अलग मशीन बनाई। एक मशीन से बांस को काटा जाता था तो दूसरी मशीन से इसकी सींक बनाई जाती थी।
बाद में, उन्होंने इस पर थोड़ा और काम किया और इसे एक ही मशीन का रूप दे दिया। इस मशीन से बांस को आसानी से काटा जा सकता है और उसकी पतली-पतली सींक बन जाती है।
राल्ते और साइलो की इस मशीन में आपको बस बांस डालना है और फिर कटर को आगे-पीछे करना है। आपको एक बार में ही 50 बांस की 1.2 मिमी चौड़ी और मोटी स्टिक मिल जाएंगी। राल्ते का कहना है कि इस मशीन से एक व्यक्ति एक घंटे में लगभग 5000 स्टिक बना सकता है। उनकी इस सफलता के बाद, उन्हें NEDFI (North Eastern Development Finance Corporation Ltd) के चेयरमैन से आर्थिक मदद मिली और उन्होंने उनके लिए वर्कशॉप खुलवाई। उनकी मदद की वजह से उनका यह इनोवेशन नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन तक पहुंचा।
NIF की मदद से राल्ते और साइलो ने इस मशीन को एडवांस्ड लेवल का बनाया और उन्हें इसकी मार्केटिंग करने में भी मदद मिली। जो कंपनी अगरबत्ती बनाती हैं, वहाँ इस तरह की मशीन की काफी मांग है क्योंकि उन्हें बिजली से काम करने वाली मशीन या फिर लेबर, दोनों ही काफी महंगे पड़ते हैं। लेकिन राल्ते और साइलो की मशीन से यह काम कम समय और कम लागत में हो जाता है।
राल्ते और साइलो को उनकी इस मशीन का पेटेंट भी मिला हुआ है और इसकी कीमत 5 हज़ार रुपये है!
They won the National Innovation Award
राल्ते और साइलो, सीरियल आविष्कारक हैं। उन्होंने सिर्फ यही एक मशीन नहीं बनाई है। बल्कि उन्होंने लोगों की रोज़मर्रा की परेशानियों को दूर करने के लिए और भी कई इनोवेशन किए हैं। उनका एक और बड़ा इनोवेशन है सुपारी साफ़ करने की मशीन।
राल्ते कहते हैं कि सुपारी की क्लीनिंग मशीन को बनाने के लिए उन्हें 5 साल लगे हैं और कई ट्रायल्स के बाद उन्हें सफलता मिली है। इस मशीन से जरा-सी देर में छोटी और बड़ी, दोनों आकार की सुपारियों को साफ़ किया जा सकता है। इसकी कीमत 7 हज़ार रुपये है!
Areca Nut Cleaning Machine
इसके अलावा, उन्होंने हाल ही में, पैर से ऑपरेट होने वाली सैनीटाइज़र मशीन भी बनाई है।
राल्ते और साइलो अब तक 3500 से ज्यादा मशीनें बेच चुके हैं। उन्हें इन मशीनों के लिए कई और जगहों से भी सम्मान मिल चुका है। राल्ते कहते हैं कि जिन राज्यों में बांस का उत्पादन ज्यादा होता है वहां पर बांस का काम करने वाले भी बहुत लोग मिल जाएंगे। अगर ये लोग किसी और के लिए मजदूरी करने की बजाय उनकी मशीन से अपने घर पर ही छोटा-सा व्यवसाय करें तो अच्छा कमा सकते हैं।
साथ ही, अगर बांस के किसान साथ में प्रोसेसिंग का व्यवसाय करना चाहें तो उनके लिए भी यह मशीन कारगर है!
“अगर हम जैसे कम पढ़े-लिखे लोग अपने आइडिया की वजह से अपनी पहचान बना सकते हैं तो पढ़े-लिखे लोग तो बिल्कुल आगे बढ़ सकते हैं। इसलिए कभी भी हार नहीं मानें बस खुद पर भरोसा करके आगे बढ़ते रहें,” उन्होंने अंत में कहा।
अगर आप राल्ते से संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें 9436197191 पर मैसेज कर सकते हैं!
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हमारे यहाँ नारियल हर रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कच्चे नारियल से हम पानी निकालते हैं तो वहीं पके नारियल से खाने के ढेर सारे आइटम बनाए जाते हैं। नारियल के खोल से भी बहुत सारी चीजें बनाई जाती हैं, इससे अलग-अलग डिजाइन के क्राफ्ट्स बनाए जाते हैं।
इसलिए यह कहा जाता है कि नारियल एक है, लेकिन इसके फायदे अनेक हैं।
आइए, आज हम आपको नारियल के खोल के कुछ ऐसे ही #DIY क्राफ्ट्स के बारे में बताते हैं।
सबसे पहले आपको नारियल के खोल (Coconut Shell) को बिना तोड़े अच्छे से खाली करना होगा। इसके लिए आप सबसे पहले नारियल से पानी निकाल लीजिये। फिर इस पर से निशान लगा लीजिये। फिर इसे किसी आरी या तेज धार चाक़ू से काटिए।
काटने के बाद आप चम्मच की मदद से धीरे-धीरे से अंदर से कच्चे नारियल को निकाल लीजिए। इस खोल को साफ़ करके आप तरह-तरह की चीजें बना सकते हैं।
1. गमले बनाइए (Coconut Shell Planters):
Hanging Planters (Source)
नारियल के हर एक रूप को पौधों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। आप कच्चे खोल को पौधे उगाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं तो वहीं यह सख्त खोल अच्छे प्लांटर का काम करता है। इसमें आप छोटे-छोटे पौधे लगा सकते हैं और यह आपके घर की रौनक बढ़ाएगा।
आप चाहें तो इससे हैंगिंग प्लांटर बना सकते हैं या फिर इसे किसी मेज या खिड़की पर रख सकते हैं।
सबसे पहले आप खोल को अच्छे से साफ़ करके, बाहर से पेंट कर लीजिये।
अगर आपको हैंगिंग प्लांटर बनाना है तो तीन रस्सी के टुकड़े लीजिये और एक सिरे से तीनों में गाँठ लगा दीजिए।
अब आप खोल को इन तीनों रस्सियों के बीच रखकर इस तरह से लटका दीजिए कि ये गिरे नहीं।
आप नारियल के खोल को डेकोरेशन के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
इसके लिए आपको बस खोल को अच्छे से सजाना है और इनमें छेद करके आप इन्हें हैंगिंग लुक दे सकते हैं।
आप खोल में छोटे-छोटे कई छेद करके इसे लैंप के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आपको बस इसके नीचे को मोमबत्ती जलानी है और जिस भी आकृति में आप इस खोल में छेद करेंगे, वह अँधेरे में उभर कर आएगी।
वीडियो यहाँ देखें:
अगर आप एक क्राफ्ट करेंगे तो और भी बहुत से आइडियाज आपको मिल जाएंगे। आप बस एक शुरुआत करें और इस लेख को अपने जानने वालों के साथ साझा करें।
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मध्यप्रदेश के छिंदवाडा में रहने वाली ऋतू सोनी पिछले कई सालों से टेरेस गार्डनिंग कर रही हैं। अपने 1200 स्क्वायर फीट के गार्डन में वह तरह-तरह के फल, फूल और सब्जी उगाती हैं। पहले वह स्कूल में टीचर थी, लेकिन अब वह अपना पूरा वक्त गार्डनिंग को देती हैं। उन्होंने अपना एक यूट्यूब चैनल भी शुरू किया है, जिसके माध्यम से वह लोगों को गार्डनिंग से जुड़ी जानकारियाँ देती हैं।
गार्डनिंग करते वक्त बारिश के मौसम में विशेष सावधानी बरतने की जरूरत होती है। ऋतू सोनी ने इस संबंध में द बेटर इंडिया को विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि बारिश के मौसम में पेड़-पौधे लगाना बहुत ही अच्छा रहता है, लेकिन यह भी सच है कि इसी मौसम में सबसे अधिक कीड़े-मकौड़े पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं।
Ritu Soni’s Garden
बारिश में होने वाली परेशानी:
सबसे पहले तो इस मौसम में कीड़े-मकौड़े बहुत ज्यादा आते हैं।
दूसरी समस्या है कि लगातार बारिश होने से मिट्टी से पोषक तत्व बह जाते हैं।
तीसरी परेशानी है कि पेड़-पौधों में फंगस लग जाते हैं।
चौथी समस्या है पानी का ठहराव होने कि जो पेड़ों के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं।
ज़रूरत से ज्यादा पानी भरने से 2-3 दिन में ही पेड़ मर जाते हैं।
इस मौसम में मच्छरों की संख्या भी काफी बढ़ जाती है।
ऋतू सोनी कहती हैं कि बारिश के मौसम में खासतौर पर आपको कुछ चीजों का ध्यान रखना चाहिए। बारिश में वह अपने गार्डन में इन चीजों का विशेष ध्यान रखती हैं:
पेड़-पौधों पर बारिश रुकने के बाद गौमूत्र का छिड़काव करें।
फंगस से बचाने के लिए ट्राईकोडर्मा के घोल का छिड़काव करें।
गमले में पानी जमा न होने दें।
कुछ पौधे जो पानी के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं उन्हें बारिश में खुला न रखें।
ऋतू सोनी कुछ तरीके बता रही हैं, जिनसे आप घर पर ही बरसात के मौसम के लिए जैविक स्प्रे बना सकते हैं।
1. लिक्विड फ़र्टिलाइज़र:
क्या-क्या चाहिए: प्याज, लहसुन, फलों और सब्जियों के छिलके, चायपत्ती, बेसन और गुड़
कैसे बनाएं:
सबसे पहले छिलकों और चायपत्ती को साथ में ब्लेंडर में डालकर पीस लें।
पीसते समय इसमें आप एक गिलास पानी डाल लें।
इससे छिलकों में जो भी पोषक तत्व होते हैं वह पानी में आ जाते हैं।
अब 25 ग्राम गुड़ लीजिए और इसे पानी में घोल लीजिए।
Add Fruits, vegetables peels, tea and water and blend it.
इस पानी को आप छिलकों के पल्प में डालें और किसी डिब्बे में भर दें।
अब इसमें बेसन मिलाकर छाँव में ढ़ककर रख दें।
72 घंटे तक इसे ऐसे ही रखें।
तीन दिन बाद आप इसे खोलें और इसमें पानी मिलाइए।
किसी डंडे की सहायता से मिलाइए।
अच्छे से डाईल्युट करने के बाद इसे छलनी से छान लें।
अब जो छिलके आपके पास बच गए हैं उनमें आप फिर से पानी डालकर रख सकते हैं।
बाकी पानी को आप किसी मग की मदद से सीधा पेड़ों में दे सकते हैं या फिर किसी स्प्रेयर में भरकर स्प्रे भी कर सकते हैं।
ऋतू सोनी कहती हैं कि इसके इस्तेमाल से कीड़े आपके पेड़ों से दूर रहेंगे और साथ ही, आपके पेड़ों का विकास अच्छे से होगा।
2. अमृतजल:
क्या-क्या चाहिए: 1 किलो गाय का गोबर, 1 लीटर गौमूत्र, पुराना गुड़
Amrutjal
कैसे बनाएं:
इन तीनों चीजों को साथ में एक 15 लीटर की पुरानी बाल्टी में मिला दीजिए।
मिश्रण को लकड़ी की सहायता से अच्छे से घोल लें।
अब इसमें पानी मिलाएं, पूरी बाल्टी भर लें।
अब इस बाल्टी को ढककर 3 दिनों के लिए छाँव में रख दें।
हर रोज़ सुबह-शाम आपको लकड़ी की मदद से इस मिश्रण को 12 बार घड़ी की दिशा में और 12 बार इसके विपरीत दिशा में घुमाएँ।
इसे आप चौथे दिन आप 100 लीटर पानी में मिला सकते हैं।
आपका अमृतजल तैयार है। आप इसे स्प्रे बोतल में डालकर पेड़ों की जड़ों में स्प्रे करें।
साथ ही, पॉटिंग मिक्स तैयार करते समय भी आप इसे मिट्टी में मिला सकते हैं।
वीडियो यहाँ देखें:
3. सरसों और नीमखली का खाद:
क्या-क्या चाहिए:
सरसों और नीम की खली, एप्सोम साल्ट, पालक, मेथी और धनिया की जड़ों का उबला हुआ पानी
कैसे बनाएं:
सबसे पहले आप पालक, मेथी और धनिया की जड़ों का उबला हुआ पानी लें। ऋतू कहतीं हैं कि इनसे आपके पौधों को माइक्रोन्यूट्रीएंट्स मिलते हैं।
इसमें सरसों और नीमखली मिलाएँ।
कुछ देर में यह फूल जातीं हैं और तब इसमें 4 चम्मच एप्सोम साल्ट लें। इन्हें कुछ देर तक मिलाएं।
आप इसे जड़ों में डाल सकते हैं और स्प्रे भी कर सकते हैं।
पौधों में फ़र्टिलाइज़र हमेशा शाम को डालें ताकि यह गर्मी से भाप न बनें। इससे बारिश के मौसम में भी आपके पेड़-पौधों में पोषण बना रहेगा।
4. इको/बायो एंजाइम
Bio-enzyme
आप सूखे फूलों की पंखुड़ियों, फलों के छिलकों, सब्जियों के छिलकों और नीम के पत्तों से इको एंजाइम बना सकते हैं।
इसके अलावा आपको पानी और पुराना गुड़ चाहिए।
क्या करें:
आधा लीटर पानी, 50 ग्राम पंखुड़ियां और 25 ग्राम गुड़ चाहिए।
एक हिस्सा गुड़ लें, 2-3 हिस्से पंखुड़ियों या पत्तों का और बाकी पानी मिलाएं।
इन तीनों चीजों को एक बोतल में मिलाकर घर के किसी अँधेरे कोने में रखें।
इस पूरी प्रक्रिया को होने में 90 दिन लगते हैं।
ऋतू कहतीं हैं कि तीन महीने बाद जब आप इस बोतल को खोलें तो सबसे पहले ढ़क्कन को हल्का-सा खोलें ताकि इसमें बनी गैस निकल जाए। जब यह गैस पूरी निकल जाए तब ही ढ़क्कन को पूरा खोलें।
90 दिनों में आपका इको-एंजाइम तैयार हो जाएगा और इसे आप स्प्रे बोतल में डालकर पेड़-पौधों पर स्प्रे कर सकते हैं। खासतौर पर बारिश के बाद जब मौसम खुलता है तो बहुत से कीड़े पौधों पर आते हैं। इस स्प्रे से आपको इन कीड़ों से निजात मिलेगी।
5. ह्यूमिक एसिड फ़र्टिलाइज़र:
इससे पौधों की पोषक तत्व लेने की क्षमता बढ़ती है। यह मिट्टी के टेक्सचर को भी अच्छा करता है और पौधों में जमने वाली नमक की परत को हटाता है। यह मिट्टी के पीएच लेवल को मैनेज करता है।
Gobar ke Upale
इससे बारिश के दौरान मिट्टी से बहने वाले पोषक तत्वों को जल्दी वापस लेने में मदद मिलती है। इसे आप महीने में दो बार इस्तेमाल कर सकते हैं।
गोबर के उपलों (8-9 महीने पुराने होने चाहिए) को पानी में भिगोकर रख दें।
8-10 दिनों के लिए छाँव में रहने दें।
इससे गोबर का ह्यूमिक एसिड पानी में मिल जाता है।
इस लिक्विड को आप पानी में मिलाकर इस्तेमाल करें।
एक लीटर पानी में 20 मिली ह्यूमिक फ़र्टिलाइज़र मिलाएं।
आप इस लिक्विड को छानकर बोतल में भर लें और पेड़-पौधों पर स्प्रे करते रहें।
वीडियो यहाँ देखें:
ऋतू सोनी कहती हैं कि उन्होंने जो भी तरीके बताएं हैं, वह खुद इन्हें अपने गार्डन में इस्तेमाल करती हैं और उन्हें काफी अच्छे नतीजे मिले हैं। वह लगातार अलग-अलग विषयों पर वीडियो बनाती रहतीं हैं। इन #DIY तरीकों को अपनाएँ और अपने पेड़-पौधों को अच्छा पोषण दें।
अगर आप पेड़-पौधों से संबंधित और किसी समस्या के बारे में जानना चाहते हैं तो हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं। हम किसी गार्डनिंग एक्सपर्ट से बात कर आपतक जानकारी पहुंचाने की कोशिश करेंगे।
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किसी भी कंप्यूटर सांइस इंजीनियर के लिए नामी कंपनियों में नौकरी पाना एक सपना होता है। इसके बाद अगर सैलरी और ग्रोथ अच्छी हो तो लोग अपनी पूरी जिंदगी इसी फील्ड में अपना समय निकाल देते हैं।
लेकिन कहते हैं न कि ‘कोई चलता पद चिह्नों पर कोई पद चिह्न बनाता है।’ कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने रास्ते अलग ही बनाते हैं। ऐसी ही एक कहानी हम आपको बताने जा रहे हैं।
यह कहानी है हिमाचल के आशीष गुप्ता की। आशीष बिट्स पिलानी जैसे नामी इंस्टीट्यूट से पढ़ाई करने के बाद 8 सालों तक भारत, जर्मनी और अमेरिका की नामी कंपनियों में काम करते रहे। लेकिन घटते कृषि क्षेत्र और किसानों की आत्महत्या के समाचारों से व्यथित होकर उन्होंने लाखों के सैलरी पैकेज को ठोकर मारकर किसानों के हितों के लिए एक ऐसा काम शुरू किया जो पिछले 13 सालों से चला आ रहा है।
इन 13 सालों में आशीष अभी तक 10 हजार से अधिक किसानों को बेहतर मार्केट उपलब्ध करवाने के साथ पीजीएस (पार्टिस्पेटरी गारंटी सिस्टम) में उनका निःशुल्क सर्टिफिकेशन करवाकर उनकी जिंदगियाँ बदल चुके हैं।
आशीष गुप्ता
कैसे हुई शुरूआत
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के छोटे से गाँव पांगणा के रहने वाले आशीष गुप्ता ने द बेटर इंडिया को बताया, “जब मैं 2004-05 में गुड़गाँव में एक आईटी कंपनी में काम कर रहा था, तब वहाँ बहुत सारे खेत होते थे, जो कुछ ही समय में कंक्रीट के जंगल के रूप में बदल गए। साथ ही इसी दौरान किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएँ बढ़ने के समाचार भी मुझे तकलीफ़ पहुँचा रहे थे। ऐसे में मुझे लगा कि किसानों के लिए कुछ तो करना चाहिए, लेकिन क्या करना है, यह सोचते-सोचते दो साल लग गए।”
किसानों को जैविक खेती के गुर सिखाते आशीष
इन दो सालों के दौरान आशीष देश के सभी राज्यों में विभिन्न किसान संगठनों, मार्केट सेक्रेटरी, आढ़तियों, किसानों और विशेषज्ञों से मिले। तब जाकर समझ आया कि किसानों की असल समस्या फसल को पैदा करने की नहीं बल्कि उसे मार्केट मुहैया करवाने की है। साथ ही, समाज में जागरूकता फैलाने की जरूरत है।
वह कहते हैं, “इसलिए मैनें जैविक खेती के प्रति लोगों को जागरूक करने के साथ किसानों को सही मार्केट मुहैया करवाने के लिए दिल्ली में जैविक हाट की शुरूआत की।”
किसानों और बाजार के बीच में कड़ी बना जैविक हाट
रोहिणी स्थित जैविक हाट
आशीष ने दिल्ली के रोहणी में किसानों के जैविक उत्पादों को सही मार्केट मुहैया करवाने के लिए 2008 में जैविक हाट की शुरुआत की थी। इस जैविक हाट में देशभर के विभिन्न कोनों से 100 से अधिक किसान अपने जैविक उत्पादों को बेचने के लिए भेजते हैं। आशीष के जैविक हाट का सालाना कारोबार 60 लाख रूपये के करीब है। इसके साथ ही किसानों के जैविक खेती के उत्पादों को बाजार मुहैया करवाने के लिए आशीष विभिन्न राज्यों में जैविक हाट की तर्ज पर खुली दुकानों और संगठनों से किसानों का संपर्क करवाते हैं ताकि उन्हें अपने उत्पाद का सही दाम मिल सके।
आशीष बताते हैं, “जैविक हाट और इसकी तर्ज पर खुली अन्य दुकानें किसानों के लिए बेहतर दाम के साथ पारदर्शिता के साथ काम करती हैं ताकि किसानों को लूट से बचाया जा सके। मेरा मानना है कि न ही किसान को घाटा होना चाहिए और न ही उपभोक्ता के साथ लूट होनी चाहिए। हम जैविक हाट और इसकी तरह अन्य दुकानों में यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी के साथ कोई धोखा न हो और पूरे काम में पारदर्शिता हो।”
हजारों किसानों का सर्टिफिकेशन निशुल्क
किसानों के उत्पादों को बाजार में सही भाव मिले, इसके लिए आशीष किसानों का पीजीएस (पार्टिस्पेटरी गारंटी सिस्टम) में सर्टिफिकेशन भी निःशुल्क करवाते हैं। उन्होंने बताया कि पीजीएस में पंजीकरण के लिए कई ऐजेंसियाँ लगभग 15 हजार रूपये सालाना लेती हैं। अभी तक वह 3 हजार से अधिक किसानों को पीजीएस में पंजीकृत करवाकर उन्हें बाजार में सही भाव दिलवाने में सफल रहे हैं।
ग्राम दिशा ट्रस्ट से क्षमता विकास
ग्राम दिशा जैविक समूह
किसानों तक जहरमुक्त खेती की तकनीकि पहुँचाने और उनकी क्षमता के विकास के लिए विभिन्न उदेश्यों के साथ उन्होंने 2018 में ‘ग्राम दिशा ट्रस्ट’ की शुरूआत की।
ट्रस्ट के फांउडिंग मेंबर और ट्रस्टी आशीष ने बताया, “यह ट्रस्ट किसानों को प्राकृतिक और जैविक खेती की तकनीकि के बारे में प्रशिक्षण प्रदान करता है। अभी तक इसमें 300 से अधिक किसानों को प्रशिक्षण दिया गया है। इसके अलावा भारतीय प्राचीन अनाज जो विलुप्त होने की कगार पर हैं उन्हें भी संरक्षित रखने में यह ट्रस्ट अपना योगदान दे रहा है। भारतीय सांस्कृतिक और बिना रसायन के भारतीय परंपरागत खेती की पद्धति को विदेशों तक पहुँचाने के लिए अभी तक अमेरिका, जर्मनी, स्पेन, अफग़ानिस्तान और नेपाल समेत कई देशों के 300 से अधिक लोगों को प्रशिक्षण दिया गया है।”
एफएओ के सलाहकार हैं आशीष
एक कार्यशाला के दौरान ग्रामीण किसानों को परिचित कराते आशीष
आशीष, एफएओ (फूड एडं एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन) के सलाहकार के साथ-साथ दो बार भारतीय अंबैसडर भी रह चुके हैं। इसके अलावा वह आर्गेनिक फार्मिंग एसोसिएशन इंडिया, पीजीएस आर्गेनिक काउंसिल के सदस्य और एक्सपर्ट कमेटी मेंबर ऑन ऑर्गेनिक फूड के सदस्य भी रह चुके हैं।
आशीष गुप्ता का कहना है कि जिन किसानों को कहीं से भी कोई भी सहायता नहीं मिल पा रही है और उन्हें मार्केटिंग से सबंधिंत या अपने उत्पाद को बाजार मुहैया करवाना है तो वे जैविक हाट से संपर्क कर सकते हैं। इसके लिए किसान जैविक हाट के फोन नंबर 011-2794436 पर फोन कर सकते हैं।
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली शांति चाहता था। देश में हुई तबाही को पीछे छोड़कर वह सब कुछ नये सिरे से शुरू करने की कोशिश कर रहा था। इसी दौरान रेजियो एमिलिया शहर के आसपास बसे ग्रामीण इलाके में लोरिस मालागुजी नाम का एक शिक्षक आया, जिसने स्कूली शिक्षा के कठिन पाठ्यक्रम को काफी आसान बना दिया।
उनकी यह पहल रिसर्च पर आधारित थी, जिसमें हर बच्चा अपनी समझ के आधार पर अपने तरीके से चीजों को खुद सीख सकता था।
इस पद्धति को आज ‘रेजियो एमिलिया अप्रोच’ के नाम से जाना जाता है। भारत में भी इस पद्धति को कई स्कूलों ने अपनाया है, जिसमें बेंगलुरू स्थित प्री स्कूल ‘द एटलियर‘ भी शामिल है। मुरलीधर रेड्डी, आर्किटेक्ट अनुराग ताम्हणकर और बायोम एनवायरमेंटल सॉल्यूशंस की टीम ने इस स्कूल का निर्माण महज छह महीने में किया था।
स्कूल का डिज़ाइन बेहद अनोखा है और साथ ही टिकाऊ भी है। खास बात यह है कि बिना किसी तोड़ फोड़ के इसके कंस्ट्रकशन में कभी भी बदलाव किया जा सकता है।
ऐसा स्कूल जो लर्निंग एक्सपीरियंस को बढ़ाता है
द एटलियर के सह-संस्थापक, एजुकेटर और डायरेक्टर रिद्धम अग्रवाल ने 2016 में इस प्रोजेक्ट के लिए बायोम एनवायरमेंटल सॉल्यूशंस से संपर्क किया था।
आर्किटेक्ट अनुराग ताम्हणकर कहते हैं, “साइट की लोकेशन एक ऐसे क्षेत्र में थी, जहाँ चारों ओर कंक्रीट का जंगल बस रहा था और हमें बच्चों के लिए एक लर्निंग स्पेस तैयार करना था। सस्टेनबिलिटी को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ एक ऐसा डिजाइन बनाना चाहते थे जो एजुकेशनल मॉडल की तरह ही हो।”
बायोम एनवायरमेंटल सॉल्यूशंस ने डिज़ाइन से लेकर निर्माण तक के काम में केवल उन चीजों का इस्तेमाल किया जिन्हें जरूरत पड़ने पर आसानी से अलग, डीकम्पोज़ या अपसाइकिल किया जा सके।
अनुराग ने कहा कि इस क्षेत्र में अधिकांश कंक्रीट की इमारतें ऐसी थी, जिसे तोड़कर फिर से बनाया जा रहा था। इससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा था। उन्होंने कहा, “हम कुछ अलग करना चाहते थे और पाठ्यक्रम की ही तरह परिवर्तनशील जगह बनाना चाहते थे। इसलिए हमने एक ऐसा स्कूल बनाया, जिसकी बिल्डिंग को बिना तोड़ फोड़ किए ही उसमें कभी भी बदलाव किया जा सकता है।”
क्या हैं डिजाइन की खास बातें
स्कूल की इमारत की नींव को स्थानीय चप्पड़ी ग्रेनाइड स्टोन से तैयार किया गया है जबकि पेवर ब्लॉक फ्लोरिंग, पेपर ट्यूब से दीवारें और बोल्टेड स्टील से छत को सहारा दिया गया। बाँस के मैट से सीलिंग का निर्माण किया गया। द एटलियर के पूरे स्ट्रक्चर को कभी भी तोड़ा जा सकता है और सामग्रियों को दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। कंस्ट्रक्शन का फीचर कुछ इस तरह है कि जरूरत पड़ने पर स्कूल को आसानी से किसी अन्य जगह पर भी शिफ्ट किया जा सकता है।
डिजाइन की खासियत के बारे में अनुराग बताते हैं, “प्रत्येक मेटल स्ट्रक्चर को एक साथ बोल्ट से बांधा गया है ताकि इन्हें आसानी से निकाला जा सके और दोबारा से पहले की तरह इस्तेमाल किया जा सके। ढलान वाली छत को स्टील के सहारे बनाया गया है। यह गैल्वनाइज्ड आयरन (जीआई) की चादर होती है। बाँस के मैट प्लाईवुड से फॉल्स सीलिंग बनाई जाती है जो थर्मल और साउंड इंसुलेशन प्रदान करती है। इस स्ट्रक्चर को गर्मी, सुरक्षित लर्निंग स्पेस और शहरी क्षेत्रों के ध्वनि प्रदूषण को ध्यान में रखकर बनाया गया है।”
स्काई-लाइट डॉटेड छत के नीचे बना यह स्कूल रेजिगो एमिलिया के सिद्धांत पर आधारित है जहाँ छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों के बीच कोई अंतर नहीं होता है, इस पद्धति में सब एक समान हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए स्कूल को ग्राउंड लेवल पर ही बनाया गया है, इसमें कोई फ्लोर नहीं है। स्कूल कैंपस 15,000 वर्ग फीट फैला है, जबकि स्कूल की बिल्डिंग 10,000 वर्ग फुट को कवर करती है, जिसमें सेंट्रल लर्निंग स्पेस के अलावा दो प्ले स्पेस, एक इनडोर और आउटडोर और एक कैफे शामिल है।
चूंकि सामुदायिक जुड़ाव लर्निंग मॉडल के लिए एक जरूरी चीज है इसलिए कैफे सब लोगों के लिए मिलने जुलने की एक ख़ास जगह के रूप में भी कार्य करता है।
अनुराग कहते हैं, “यह एक गाँव या शहर के चौक के जैसा है, जहाँ लोग एक-दूसरे से बात करते हैं और एक दूसरे के अनुभव से सीखते हैं।”
प्रकृति से सीखना
यह लर्निंग मॉडल हर बच्चे को अपने तरीके से सीखने के लिए प्रेरित करता है, जिसके लिए एक पारदर्शी इंटीरियर डिजाइन की जरूरत होती है।
द एटलियर के सह-संस्थापक रिद्धम बताते हैं, “रेजियो एमिलिया अप्रोच के अनुसार बच्चों का विकास इस तरह से होना चाहिए कि वे पर्यावरण से लगातार सीखते रहें। पर्यावरण की तरह ही लर्निंग स्पेस में भी बदलाव होता रहे।”
इस आइडिया ने आर्किटेक्ट टीम को एक ऐसा स्ट्रक्चर बनाने के लिए प्रेरित किया, जहाँ बच्चे एक पेड़ के नीचे पढ़ाई करते हैं। इस स्कूल में पेपर ट्यूब पार्टिशन दीवारों की ऊंचाई अलग-अलग है और यह क्लासरूम और कॉमन स्पेस से जुड़ी हुई है। इसके अलावा आठ मेटल कॉलम पेड़ की शाखाओं की तरह दिखते हैं जो छत को सपोर्ट करते हैं।
रिद्धम कहते हैं, “द एटलियर का अंदरूनी और बाहरी डिजाइन पेड़ की तरह है। छत में मिलने वाला मेटल कॉलम पेड़ की शाखा की तरह है जो इमारत को अनोखा बनाता है। यहाँ बच्चों को पढ़ते वक्त ऐसा अहसास होता है कि मानो वे पेड़ के नीचे बैठे हैं।”
इस स्ट्रकचर में कहीं भी बंद का अहसास नहीं होगा। इसमें खुलापन है। इसके चारों ओर छेद वाले मेटल शीट,पारदर्शी ग्लास, पाइनवुड, ऑपरेबल ब्लाइंड और स्लाइडिंग खिड़कियाँ लगी हैं, जिससे पर्याप्त हवा और रोशनी अंदर आती है। इसके अलावा ईंट मिट्टी से बने कंप्रेस्ड स्टेब्लाइज्ड अर्थ ब्लॉक (CSEBs) का इस्तेमाल किया गया है, जो मूल डिजाइन की फिलॉसफी पर आधारित है।
इसमें कुल चार क्लारूम है जिसमें एक एटलियर स्टूडियो और सेंट्रल पियाजा के पास एक चाइल्डहुड सिमुलेशन सेंटर है। इस इमारत की दीवारें उनके पाठ्यक्रम से मिलती जुलती बनाई गई हैं। यहाँ कुछ भी कंक्रीट नहीं है।
अनुराग बताते हैं, “यह एक ऐसी जगह है जो खासतौर से पर्यावरण के महत्व को बढ़ावा देती है और हमें सिखाती है। पर्यावरण के अनुकूल निर्माण सामग्री के इस्तेमाल के अलावा हमने 50,000 लीटर पानी की क्षमता वाला रेनवाटर हॉर्वेस्टिंग सिस्टम और वाटर ट्रीटमेंट सिस्टम लगाया है। इसके अलावा स्कूल से निकलने वाले पानी को गड्ढों में इकठ्ठा किया जाता है, जो मिट्टी को उपजाऊ बनाने का एक प्रभावी तरीका है।”
इस कैंपस में लगभग 60 बच्चे और परिवार हैं, द एटलियर भारत में शिक्षा के स्तर को रिडिफाइन करने की दिशा में काम कर रहा है।
रिद्धम कहते हैं, “चार साल बाद भी यह जगह हमें हर दिन प्रेरित करता है। सबसे अच्छी बात यह है कि यह बेहद खूबसूरती से बच्चों की जरूरतों को समेटे हुए है। इस जगह में बच्चे खुद को आजाद पाते हैं, मानो यह उनका अपना स्पेस हो।”
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इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (Electronics Corporation of India Limited, ECIL) ने टेक्निकल ऑफिसर और अप्रेंटिस के पदों पर भर्तियां निकाली हैं। टेक्निकल ऑफिसर के पद कॉन्ट्रैक्ट आधार पर हैं, जिनमें 9 महीने के लिए नियुक्ति होगी।
1. पद का नाम: टेक्निकल ऑफिसर
पदों की संख्या: 350
कॉन्ट्रैक्ट पीरियड: 9 महीने
इन जोन में होगी नियुक्ति: हैदराबाद, नई दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई, कोलकाता
शैक्षिक योग्यता: किसी मान्यता प्राप्त संस्थान या यूनिवर्सिटी से Electronics & Communication Engineering / Electrical Electronics Engineering / Electronics & Instrumentation Engineering / Mechanical Engineering / Computer Science Engineering/ Information Technology में बी. टेक की डिग्री, न्यूनतम 60% अंकों के साथ
आयु सीमा: 30 वर्ष या इससे कम (आरक्षित वर्गों को छूट मिलेगी)
अनुभव: पढ़ाई के बाद कम से कम एक साल का इंडस्ट्रियल एक्सपीरियंस
इन ट्रेड के लिए हैं ज़रूरत: इलेक्ट्रीशियन, इलेक्ट्रानिक मैकेनिक, टर्नर, फिटर (रेफ्रीजिरेटर एंड ए.सी) कारपेंटर, प्लमबर, इलेक्ट्रानिक मैकेनिक, डीजल मैकेनिक, वेल्डर, पेंटर आदि।
कहाँ होगी नियुक्ति: हैदराबाद
शैक्षिक योग्यता: संबंधित ट्रेड में ITI डिप्लोमा सर्टिफिकेट और ड्राइविंग लाइसेंस
आयु सीमा: 18 वर्ष से अधिक
वेतनमान: 7700 रुपये से 8050 रुपये प्रति माह
ऐसे करें अप्लाई: आवेदन करने के लिए सबसे पहले उम्मीदवारों को https://apprenticeshipindia.org/
पर रजिस्ट्रेशन करना होगा। रजिस्ट्रेशन करने के बाद इसी पोर्टल पर ELECTRONICS CORPORATION OF INDIA LIMITED -HYDERABAD के अंतर्गत अप्लाई करना होगा।
यहाँ से रजिस्ट्रेशन करने के बाद उम्मीदवार “www.ecil.co.in” के कैरियर्स पोर्टल पर जाकर ‘eRecruitment’ पैनल में आवेदन कर सकते हैं।
इन पदों पर आवेदन करने वाले उम्मीदवार ध्यान दें कि आवेदन पत्र को ठीक ढंग से पढ़ लें और फिर आवेदन करें।
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क्या आपने ऐसे किसी शख्स के बारे में पढ़ा है, जिसने एयरफोर्स में नौकरी की हो, राइफल शूटिंग में महारत हासिल की हो लेकिन अब सबकुछ छोड़कर जंगल में आदिवासियों के बीच रहकर जीवन व्यतीत कर रहा हो? आज हम आपको एक ऐसे ही शख्स से मिला रहे हैं, जिनका नाम है विलास मनोहर।
विलास मनोहर का संबंध पुणे से है। 1944 में इनका जन्म हुआ। ग्यारहवीं तक पढ़ाई की, जो उस समय काफी मानी जाती थी। इसके बाद वायरलेस ऑपरेटर के रूप में वायुसेना से जुड़े और भारत-चीन युद्ध (1962) में सेवाएँ भी दीं। वायुसेना से दिल ऊब गया तो अपने घर पुणे लौट आए और एयर कंडीशनर बनाने वाली एक कम्पनी में काम करने लगे। कुछ साल बाद इन्होंने खुद का रेफ्रीजरेशन का व्यवसाय शुरु किया। इस दौरान दोस्तों के साथ शिकार पर जाना और ग्लाइडिंग करना इनके शौक थे। बाद में वह रायफल शूटिंग क्लब से जुड़े और 1973 में नेशनल शूटिंग कम्पटीशन में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व भी किया था।
विलास मनोहर
बात तब की है विलास मनोहर लगभग 25 साल के थे। सब कुछ ठीक चल रहा था। एक दिन अकस्मात कुछ ऐसा घटा कि उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया। पुणे के नज़दीक एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है आलंदी। वहाँ वह अपने दोस्तों के साथ जाया करते थे। लेकिन यह उपक्रम सिर्फ भगवत दर्शन के लिए नहीं था। वह अपने दोस्तों के साथ घर से 13 किमी दूर आलंदी तक पैदल जाते, वहाँ कुछ वक्त बिताते, दर्शन करते और फिर बस से वापस आते।
एक दिन की बात है। मन्दिर के पास कुछ कुष्ठरोगी भीख माँग रहे थे। जब विलास अपने दोस्तों के साथ एक दुकान से प्रसाद खरीद रहे थे तो साथ गए एक दोस्त ने कहा, “दुकानदार से छुट्टे पैसे (सिक्के) मत लो, उसके बदले हम सबके हिस्से का भी प्रसाद ले लो।”
विलास बताते हैं, “यह सुनकर मुझे कुछ समझ नहीं आया, पर उस वक्त दोस्त की बात मानकर सिक्के नहीं लिए। बाद में दोस्त ने इसका कारण बताते हुए मुझसे कहा कि कुष्ठरोगियों को जो पैसे लोग भीख में देते हैं, उन छुट्टे पैसों को वो दुकानदारों को देकर नोट ले लेते हैं। और फिर वही पैसे दुकानदार रेज़गारी के रूप में हमें देते हैं। उन सिक्कों को छूने से हमें भी कुष्ठरोग हो सकता है।”
यह जानकर विलास को धक्का लगा और उन्होंने इस पर सोचना शुरु किया। कुष्ठरोगियों के प्रति इस तरह की धारणाएँ लोगों में आम थीं, परंतु विलास मनोहर का मन इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था।
उन्होंने कहा, “वह मेरे जीवन का निर्णायक समय था। मैंने कुष्ठरोगियों के बारे में, इस बीमारी के बारे में और उसके विषय में फैली धारणाओं के बारे में और ज़्यादा जानने का फैसला किया।”
काफी जद्दोजहद के बाद उन्हें बाबा आमटे के बारे में जानकारी मिली, जो वह महाराष्ट्र के चन्द्रपुर ज़िले में कुष्ठरोगियों के साथ काम कर रहे हैं। इसके बाद वह बाबा आमटे की संस्था आनन्दवन पहुँच गए। पर बाबा वहाँ नहीं थे। वह आनन्दवन के दूसरी परियोजना स्थल, सोमनाथ गए हुए थे। विलास वहाँ पहुँच गए और बाबा आमटे से मिले। वहाँ से बाबा हेमलकसा जाने वाले थे, जहाँ उनके छोटे बेटे डॉ. प्रकाश और उनकी बहु, डॉ. मन्दाकिनी आमटे ने बेहद पिछड़े हुए इलाके (भामरागढ़ तालुका, ज़िला गढ़चिरोली) में माडिया-गोंड आदिवासियों के बीच जाकर काम करना शुरु किया था।
आदिवासियों को खेती के गुर सिखाते विलास मनोहर
प्रकाश ने अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी की ही थी कि बाबा आमटे उन्हें एक दिन घुमाने के लिए भामरागढ़ के जंगलों में ले गए। यह स्थान पूर्वी महाराष्ट्र के गढचिरोली ज़िले के दक्षिणी छोर पर मुख्यधारा से कटा हुआ एक पिछड़ा इलाका था। वहाँ बाबा ने माडिया-गोंड आदिवासियों के लिए कुछ करने की इच्छा जाहिर की। बाबा के इस सपने को साकार करने का संकल्प डॉ. प्रकाश आमटे ने किया। पत्नी डॉ. मन्दाकिनी के साथ डॉ. प्रकाश ने 1973 में भामरागढ के नज़दीक लोक बिरादरी प्रकल्प की स्थापना की। इसकी शुरुआत अस्पताल के जरिए हुई, बाद में यहाँ आदिवासी बच्चों के लिए आवास का कार्य भी शुरु हुआ।
विलास मनोहर कहते हैं, “बाबा के साथ ट्रक में हेमलकसा पहुँचा। रास्ते की हालत बेहद खराब थी। वहाँ तब कुछ नहीं था। मिट्टी और पत्तों की बनी दो-तीन झोंपड़ियाँ थी।”
दो दिन हेमलकसा में रहकर विलास घर लौट गए। लेकिन बाबा आमटे के व्यक्तित्व और काम ने उन्हें ऐसा सम्मोहित किया कि फिर घर लौटकर भी मन नहीं लगा। कुछ ही महीनों बाद (1975) में वह लोक बिरादरी प्रकल्प में डॉ. प्रकाश आमटे के साथ काम करने के लिए हेमलकसा आ गए। वहाँ चुनौतियाँ कम नहीं थी। वहाँ के माडिया-गोंड आदिवासी अंधविश्वास और अज्ञानता के दुष्चक्र में फँसे हुए थे। बीमार होने पर अस्पताल आने के बदले झाड़-फूँक कराते थे।
वह बताते हैं, “प्रकाश और मंदा माडिया भाषा सीख रहे थे, मैंने भी उनके साथ माडिया सीखनी शुरु की। धीरे-धीरे अस्पताल में लोग आने लगे। अस्पताल में मरीजों की सेवा करने के साथ-साथ प्रशासकीय काम भी किया। अस्पताल में मैंने 8-10 साल काम किया।”
डॉ. प्रकाश आमटे को जानवरों से बहुत प्यार था। भालू के एक अनाथ मादा बच्चे को उन्होंने शिकार होने से बचाया और अपने पास ले आए, उसका नाम रानी रखा था। इस तरह लोक बिरादरी प्रकल्प में वन्य प्राणी अनाथालय (आमटेज़ एनिमल आर्क) शुरु हुआ।
अनाथ पशु के पास विलास जी
विलास मनोहर ने बताया कि जब वह हेमलकसा पहुँचे तो यहाँ काफी जानवर थे। डॉ. प्रकाश के साथ विलास भी वन्य प्राणी अनाथालय में तेन्दुआ, शेर, भालू, हिरन, साँप जैसे जानवरों की देखभाल करने लगे। वन्य प्राणियों को साथ रिश्तों को लेकर विलास मनोहर ने “नेगल” शीर्षक से किताब लिखी जो मराठी से हिन्दी, मणिपुरी, अँग्रेज़ी और फ्रेंच में अनुदित हो चुकी है। नेगल यहाँ रहे एक तेन्दुए का नाम था, जो बचपन से लोक बिरादरी प्रकल्प में सबके साथ घुलमिलकर रहा, लेकिन साँप काटने से उसकी मौत हो गई। नेगल का प्रथम संस्करण 1990 में छपा था। अब तक इसके कई संस्करण छप चुके हैं। नेगल का दूसरा भाग भी प्रकाशित हुआ है।
विलास मनोहर ने अगली किताब आदिवासी जीवन और नक्सलवाद को लेकर लिखी है, जिसका शीर्षक है – “एका नक्षलवाद्याचा जन्म” (एक नक्सलवादी का जन्म)। इस उपन्यास के बारे में वह कहते हैं, “आदिवासी समाज और नक्सलियों के बारे में हम सब वही जानते हैं जो टेलीविज़न में दिखाया जाता है और अखबार में छापा जाता है। जबकि सच कुछ और होता है। आदिवासी जीवन की कठिनाइयों और चुनौतियों को शहरी लोग नहीं जान पाते। इसलिए मैंने यह किताब लिखी ताकि लोग हकीकत जान सकें।”
1983 में पहली बार छपी इस किताब के अब तक नौ संस्करण छप चुके हैं। इन दिनों वह इस किताब का दूसरा भाग लिख रहे हैं। विलास मनोहर बाबा आमटे के भारत जोड़ो साइकिल यात्रा में भी शामिल थे। जो देश के उत्तर से दक्षिण तक और फिर पूरब से पश्चिम तक हुई थी। इसके अलावा वह नर्मदा बचाओ आन्दोलन के दौर में भी बाबा के साथ रहे। बाबा आमटे की जीवन पर विलास ने एक किताब “मला (न) कळलेले बाबा” (मुझे (न) समझ आए बाबा) भी लिखी है।
पुणे की आरामदायक ज़िन्दगी छोड़कर विलास मनोहर ने जंगल में आदिवासियों और वन्य प्राणियों के बीच अपनी सारी ज़िन्दगी बिताई। इस बीच उनका विवाह बाबा आमटे की बेटी रेणुका से हुआ। दोनों की उम्र में 11 साल का फासला है। रेणुका शुरु से ही लोक बिरादरी प्रकल्प में रही हैं। आजकल वह वहाँ के आवासीय स्कूल में आदिवासी बच्चों को पढ़ाती हैं। डॉ. प्रकाश के साथ विलास का रिश्ता दोस्ती से बढ़कर है। आज 76 साल की उम्र में विलास मनोहर की ज़िन्दादिली और तन्दुरुस्ती कायम हैं। लोक बिरादरी प्रकल्प, हेमलकसा में सब लोग प्यार से रेणुका को “आत्या”, यानी बुआ और विलास को “आतोबा”, यानी फूफा कहते हैं।
रेणुका आत्याः सामूहिक किचन में सहयोग करते हुए
लोक बिरादरी प्रकल्प को काम करते हुए लगभग 45 साल हो चुके हैं। माडिया-गोंड आदिवासी पहले अन्धविश्वासों से घिरे हुए थे, आज वे बीमारी का ठीक से इलाज कराने के लिए अस्पताल आते हैं और अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजते हैं। पहले उनका जीवन सिर्फ जंगल और शिकार पर आश्रित था, आज वे खेती कर रहे हैं और पढ़-लिखकर शहरों में काम कर रहे हैं। इस संस्था के कार्यकर्ताओं के मेहनत से ही यह सामाजिक-आर्थिक विकास संभव हुआ है। इसमें अन्य लोगों के साथ विलास मनोहर का भी महत्वपूर्ण योगदान है।
यदि आप लोक बिरादरी प्रकल्प के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो उसकी वेबसाइट www.lokbiradariprakalp.org पर जा सकते हैं।
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हरियाणा के लगभग सभी परिवारों की जड़ें आपको कृषि से जुडी हुई मिलेंगी। बहुत से परिवार आज भी खेती ही कर रहे हैं तो कई परिवार ऐसे भी हैं जिन्होंने खेती से मुँह मोड़ लिया है। लेकिन इन सबके बावजूद कुछ लोग ऐसे भी हैं जो एक बार फिर से खेती- किसानी की दुनिया में लौट रहे हैं।
ऐसे ही एक किसान हैं, जींद के अहिरका गाँव के रहने वाले सतबीर पूनिया। 60 की उम्र पार कर चुके सतबीर 2017 से बागवानी कर रहे हैं और वह भी उन्नत किस्म की। अपनी 16 एकड़ ज़मीन पर उन्होंने थाई एप्पल बेर, अमरुद, और निम्बू आदि के पौधे लगाए हैं। वहीं साथ में, वह मौसमी सब्जी की भी खेती कर रहे हैं। उन्हें लोग आज ‘बेर वाले अंकल’ के नाम से जानते हैं।
पहले छोड़ दी थी खेती
सतबीर पूनिया के परिवार वाले पहले खेती ही किया करते थे। उन्होंने खुद 14-15 साल खेती की और फिर साल 1996 में अपना एडवरटाइजिंग का काम शुरू किया। सतबीर ने द बेटर इंडिया को बताया, “उस वक़्त खेती में ज्यादा कुछ बच नहीं रहा था। खर्च बढ़ रहे थे तो लगा कि किसी और कारोबार में जुड़ा जाए ताकि घर चल सके। बस यही सब सोचकर खेती छोड़ दी।”
Satbir Poonia, Farmer
लगभग 20 साल तक अपना व्यवसाय करने के बाद उन्हें लगने लगा कि उन्हें कुछ और करना चाहिए, जिससे दूसरों का भी भला हो। कारोबार के सिलसिले में वह अक्सर देश के अलग-अलग हिस्सों की यात्रा करते थे। इन सभी जगहों से उन्होंने खेती के उन्नत तरीकों के बारे में भी जानकारी हासिल हुई।
उन्होंने एक बार फिर अपनी खेती से ही जुड़ने की ठानी। लेकिन इस बार उन्होंने पारंपरिक खेती की जगह बागवानी करने का फैसला किया। बागवानी भी एकदम अलग तरीके से।
“रायपुर से थाई एप्पल के पौधे लेकर आया और पांच एकड़ में लगाए। इसके अलावा आठ एकड़ में अमरुद के पेड़ लगाए और 2 एकड़ में निम्बू। इस तरह से मैंने बागवानी शुरू की। इसके अलावा, मैं मौसमी सब्जी भी उगाता हूँ, ” उन्होंने कहा।
वह 70 रुपये प्रति पौधे के हिसाब से लगभग 200 थाई एप्पल के पौधे लेकर आए। वह बताते हैं कि इन्हें लगाने के साथ उनका कुल खर्च एक एकड़ में लगभग 25 हज़ार रुपये आया था। लेकिन अच्छी बात यह है कि उन्हें पहले साल से ही उत्पादन मिलने लगा।
जैविक तरीके से करते हैं बागवानी
सतबीर जैविक तरीकों से बागवानी करते हैं। उन्होंने सबसे पहले अपनी ज़मीन को इसके लिए तैयार किया। उन्होंने बताया कि आपकी मिट्टी सबसे पहले स्वस्थ होनी चाहिए, जिसके लिए वह वेस्ट डीकंपोजर, नीमखली, जैविक खाद आदि का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके इलाके का पानी भी बहुत ज्यादा अच्छा नहीं है। इसलिए उन्होंने इस पर भी काम किया।
उन्होंने अपने खेतों में एक टैंक बनवाया है ताकि वह पानी स्टोर कर सकें। जब भी उन्हें नहर से पानी मिलता है या फिर बारिश होती है तो वह इसे इकट्ठा कर लेते हैं। इसके साथ उन्होंने ड्रिप इरीगेशन सिस्टम भी लगाया हुआ है ताकि कम पानी में अच्छा उत्पादन हो सके। उनके पूरे बाग़ में लगभग 10 हज़ार पेड़-पौधे हैं, जिनकी वह बहुत अच्छे से देखभाल करते हैं।
खेत की मिट्टी को पोषित रखने के लिए वह गोबर की खाद और वर्मीकंपोस्ट देते हैं। साथ ही, कई तरह के जैविक स्प्रे भी पेड़ों पर करते हैं। उन्होंने बताया कि अपने फलों को कीड़ों से बचाने के लिए वह सहफसली भी करते हैं। बाग़ की बाउंड्री पर कभी किसी फूल की तो कभी तोरई आदि की फसल बो देते हैं ताकि कीड़े मुख्य फसल को छोड़कर इनके फूलों पर चले जाएं।
Thai Apple Ber
उन्होंने कहा, “थाई एप्पल की खेती करना बहुत ही फायदेमंद है। पहले साल से ही आपको फसल मिलेगी। मुझे एक एकड़ में लगभग 300 क्विंटल की उपज मिलती है जो बाजार में 40 से 50 रुपये प्रति किलो बिकता है। निम्बू और अमरूद में भी फायदा है।”
थाई एप्पल का पेड़ एक बार लगाने के बाद 20 सालों तक फल देता है। शुरूआत में एक पेड़ से 30 से 40 किलो तक उत्पादन मिलता है जो आगे चलकर 100 किलो तक पहुँच जाता है। सतबीर का कहना है कि अगर आप सही जैविक तरीकों से फसल की देखभाल करें तो आप एक एकड़ से भी अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
सतबीर स्थानीय लोगों को रोजगार भी मुहैया करा रहे हैं। उनके बाग में लगभग 20 लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। पिछले तीन साल से ये लोग उनके यहाँ लगातार काम कर रहे हैं और अपने गाँव रहते हुए ही अच्छी आय कमा रहे हैं। वह खुद भी खेत में काम करते हैं।
सतबीर का मार्केटिंग मॉडल
His stall on his farm
अपने मार्केटिंग मॉडल पर बात करते हुए सतबीर पूनिया ने कहा कि जैविक तरीकों के साथ-साथ उन्होंने इस पर भी ध्यान दिया। अगर वह अपनी उपज को किसी बिचौलिए की मदद से बाज़ार में पहुँचाते तो उन्हें लागत भी नहीं बचती। इसलिए उन्होंने पाँच स्टॉल बनवाए हैं, जहाँ फसल की बिक्री होती है। इन स्टॉल को उनके लोग संभालते हैं और वह खुद इन सभी का मुआयना करते हैं।
सतबीर पूनिया ने एक स्टॉल अपने खेत में भी बनवाया है। उनकी इसी स्टॉल से सब्ज़ी और फलों की बिक्री होती है। वह बताते हैं कि लॉकडाउन में भी उनकी बिक्री नहीं रुकी बल्कि उन्होंने ऑर्डर पर लोगों के यहाँ फल और सब्जी पहुंचाई।
साल भर में उन्हें अपने बाग़ से लगभग 45 लाख रुपये की कमाई होती है, जिसमें से 15-20 लाख रुपये उनकी बचत होती है। सतबीर कहते हैं कि दूर-दूर से लोग उनका बाग़ देखने आते हैं और उनसे पूछते हैं कि थाई एप्पल ही उन्होंने क्यों लगाया?
He has got an award as well
जिस पर उनका जवाब होता है कि सामान्य बेर साल में एक बार आते हैं मार्च और अप्रैल में लेकिन थाई एप्पल की उपज उन्हें जनवरी में मिलने लग जाती है। उस समय बाज़ार में दूसरे बेर नहीं होते तो कोई कम्पटीशन भी नहीं होता। साथ ही, इन्हें कम पानी में भी अच्छा उगाया जा सकता है।
वह सबके लिए बस यही संदेश देते हैं, “खेती को भी व्यवसाय समझ कर आगे बढ़ो तो फायदा ही होगा। यदि आप अपने गाँव में खेती करेंगे तो कई लोगों को रोज़गार भी देंगे। यह ऐसा सेक्टर है जिसमें असफलता का सवाल ही नहीं क्योंकि इंसान को अन्न चाहिए और किसी न किसी को यह उगाना ही है तो यह काम हम और आप ही क्यों नहीं करें?”
द बेटर इंडिया, सतबीर पूनिया के प्रयासों की सराहना करता है और यदि आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें 9254175999 पर कॉल कर सकते हैं!
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रोटी इंसान की सबसे बड़ी जरुरत है। दो वक़्त की रोटी के लिए इंसान सुबह से उठकर सोचता है। किसी के पास इतना भोजन है कि वह खाने के बाद बचे अन्न को बाहर फेंक देता है तो कोई उस फेंके हुए खाने का इंतजार करता है, जिससे वह अपनी भूख शांत कर सके। ऐसे में यदि कोई भूखे जरूरतमंद को सम्मान के साथ भोजन करा दे तो वह व्यक्ति उस जरूरतमंद के लिए किसी फरिश्ते या देवदूत से कम नहीं है। आज हम आपको एक ऐसे ही व्यक्ति कहानी सुना रहे हैं जो जरूरतमंदों को भोजन करवाते हैं। यह कहानी गुरुग्राम के पंकज गुप्ता की है।
पंकज गुप्ता
गुरुग्राम के सदर बाज़ार में अब कोई कूड़ेदान में फेंके गए अन्न को इकट्ठा कर खाना खाते आपको नहीं मिलेगा। सदर बाजार में कॉस्मेटिक की दुकान चलाने वाले पंकज गुप्ता की वजह से यह सब संभव हो पाया है।
यदि कोई 5 रुपये में दाल, चावल, रोटी-सब्जी, मिठाई, फल आदि सभी भोजन सम्मान के साथ कराये तो शायद कोई भूखा नहीं रहेगा और न कचरे से खाना खायेगा।
यह है वह 5 रूपए वाली थाली
पंकज गुप्ता ने देवदूत फ़ूड बैंक संस्था की नींव रखी और अब उसी संस्था के जरिए केवल 5 रुपये की भोजन थाली मुहैया करा रहे हैं। एक वक़्त का भरपेट भोजन मात्र 5 रुपये में और यदि 5 रुपये भी नहीं तब भी आप भोजन कर सकते हैं। दिल करे तो 5 रुपये दीजिये और नहीं है तो भी भोजन करिए। देवदूत फ़ूड बैंक के माध्यम से प्रतिदिन 700-800 लोगों को भोजन करवाया जाता है।
पंकज बताते हैं, “मैं हर दिन दुकान जाते समय कचरे के ढ़ेर से बचा खाना खाते लोगों को देखता था। यह सब देखकर मेरा मन दुखी हो जाता था इसलिए मैंने ऐसे भूखे लोगों के लिए कुछ अलग करने की ठानी। परिवार ने भी मेरा साथ दिया और निश्चय किया कि हम अपनी बचत से कुछ भाग इन लोगों की मदद पर खर्च करेंगे और प्रतिदिन 100 लोगों को भोजन कराने के संकल्प के साथ 14 अप्रैल 2018 को देवदूत फ़ूड बैंक संस्था की शुरूआत की।”
फूड बैंक चलाती टीम
पंकज बताते हैं, “जब मैंने अन्य लोगों को इस काम के बारे में बताया तो सभी ने मेरा मज़ाक बनाया। सभी ने यही कहा कि फंड की दिक्कत आएगी। लेकिन मैंने ठान लिया था कि अब हमेशा यह काम करना है।” शुरूआत में उन्होंने कैटरिंग से आर्डर देकर खाना बनवाकर बाँटना प्रारम्भ किया। खाना लेने में किसी को शर्म या किसी को भीख जैसा न लगे इसके लिए उन्होंने 5 रुपये में भोजन लेने का निश्चय किया और बच्चों के लिए इसे मुफ्त कर दिया।
लाइन लगाकर खाना लगाते लोग
भोजन की क्वालिटी और सफाई की कमी महसूस होने पर पंकज गुप्ता ने कम्युनिटी किचन की शुरूआत की, जहाँ उनकी निगरानी में भोजन बनता था। धीरे-धीरे इस मुहिम में अन्य लोग भी साथ आने लगे। पंकज गुप्ता का 100 लोगों के लिए लिया गया भोजन का संकल्प आज प्रतिदिन 500 से ज्यादा लोगों तक पहुँच गया है। हर दिन 12 से 1 बजे के बीच देवदूत फ़ूड बैंक टीम निश्चित स्थान पर पहुँचकर लोगों को भोजन कराती है।
लॉकडाउन के दौरान प्रशासन की अनुमति से पंकज गुप्ता ने 800 जरूरमंद परिवारों को गोद लिया और उनके भोजन की व्यवस्था की।
खाना मिलने के बाद कुछ ऐसे खिल उठते हैं चेहरे
अपने घर के लिए भोजन की व्यवस्था के लिए सभी चिंतित होते हैं लेकिन दूसरे की भूख का दर्द बहुत कम लोगों को समझ में आता है। एक महीने में 2 से 3 लाख रुपये खर्च पर चलने वाली देवदूत फ़ूड बैंक की किचन की सभी व्यवस्था के बारे में पंकज गुप्ता कहते हैं, “सभी व्यवस्था भगवान ही करेंगे, मैं सिर्फ काम कर रहा हूँ। कोई भूखा न रहे , कम से कम भोजन की लिए इतना मजबूर न हो की गंदगी में पड़ा खाना खाना पड़े। मेरी इच्छा है कि देश के हर हिस्से में ऐसा फ़ूड बैंक हो जहाँ लोग सम्मान से भोजन कर सकें।”
देवदूत फूड बैंक चलाने वाले पंकज गुप्ता सही अर्थ में खुद एक देवदूत हैं जो जरूरतमंद लोगों के दर्द को समझकर उनकी मदद करने के लिए लगातार काम कर रहे हैं। बेटर इंडिया उनके जज्बे को सलाम करता है।
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हम सबके ग्रुप में कोई न कोई ऐसा दोस्त जरूर होता है जो हमेशा मच्छरों के काटने की शिकायत करता है। क्या आपके किसी दोस्त की भी यही शिकायत है? दरअसल, कुछ रिसर्च में यह बात स्पष्ट हुई है कि कुछ लोगों को मच्छर अधिक काटते हैं और इसके पीछे कुछ वजह भी हैं। आइए हम आपको इस बारे में विस्तार से बताते हैं।
जर्नल ऑफ़ मेडिकल एंटोमोलोजी की एक रिसर्च के मुताबिक, मच्छर सेलेक्टिव जीव होते हैं और A ब्लड ग्रुप वाले लोगों की बजाय O ब्लड ग्रुप वाले लोगों को ज्यादा काटते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मच्छर O ब्लड ग्रुप में बनने वाली कुछ सेक्रेशंस के प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ्लोरिडा में एंटोमोलोजी के प्रोफेसर, जोंथान एफ डे इस बारे में सहमति जताते हुए और भी कई चीजों के बारे में बताते हैं, जिस वजह से मच्छर खासतौर पर कुछ लोगों को ही ज्यादा काटते हैं। वह कहते हैं, “शायद CO2 सबसे महत्वपूर्ण है। जितनी ज्यादा मात्रा में आप CO2 उत्पादित करते हैं, जैसे जिनकी पाचन क्रिया बहुत अच्छी होती है – आनुवंशिक और कुछ अन्य कारक, जो आपके शरीर से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को बढ़ाते हैं। जितना अधिक आप CO2 छोड़ते हैं उतना ही ये मच्छर आपकी ओर आकर्षित होते हैं।”
दुनिया को मच्छरों की 3,500 प्रजातियों का दंश झेलना पड़ा है और ये जीव कई बीमारियों को फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं, जिनमें कुछ घातक बीमारी भी शामिल हैं। सभी प्रजातियों में, एडीज एजिप्टी मच्छर जीका, डेंगू, चिकनगुनिया और पीले बुखार के लिए अकेले जिम्मेदार है। अधिक खतरनाक बात यह है कि दुनिया की आधी आबादी उन क्षेत्रों में रहती है जहां यह प्रजाति मौजूद है। वहीं एनोफेलीज मच्छरों की वजह से मलेरिया फैलता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, “मनुष्यों में बीमारी को ले जाने और फैलाने की उनकी क्षमता हर साल लाखों लोगों की मृत्यु का कारण बनती है। डेंगू के मामले पिछले 30 वर्षों में 30 गुना बढ़ गए हैं, और बहुत से देश अपने यहाँ इस बीमारी के पहले प्रकोप के बारे रिपोर्ट कर रहे हैं।”
मच्छर काटने से होने वाली बीमारी से दुनिया भर में हर साल 7,00,000 लोगों की मौत होती है।
भारत में मच्छर की 400 प्रजातियाँ हैं और ये सभी बीमारियों को फैलाती हैं। चूंकि जनसंख्या और स्वच्छता, मच्छरों द्वारा फैलने वाले रोगों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले साल 67,000 लोगों को देश भर में इन रोगों से ग्रस्त पाया गया।
ये आंकड़े बिल्कुल चिंतनीय हैं लेकिन हमें यह भी जानना चाहिए कि मच्छरों की ज़्यादातर प्रजातियाँ अपने जीवन के लिए फूल और फलों के रस पर निर्भर करती हैं। सिर्फ 6% मादा प्रजातियाँ ही अपने अंडों के लिए इंसान का खून पीती है।
ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि यदि मच्छरों का केवल एक छोटा समूह ही हानिकारक है, तो हम उनसे छुटकारा क्यों नहीं पा सकते हैं? या शायद पूरी प्रजाति को मिटा दें?
हमारी नैतिकता के साथ-साथ कुछ वैध तर्क हैं जो मच्छरों के संरक्षण का समर्थन करते हैं।
मच्छर, लाखों अन्य जीवों जैसे मेढक, ड्रैगनफली, चमगादड़ और पक्षियों के लिए मुख्य भोजन हैं। इसलिए इनके उन्मूलन से खाद्य श्रृंखला बाधित हो सकती है। साथ ही, नर मच्छर रसपान करते हुए सभी पौधों में पॉलीनेशन करते हैं।
ऐस में हम यह भी कह सकते हैं कि मच्छरों को मारना बिल्कुल भी प्रभावी उपाय नहीं है। भले ही इनका काटना कुछ लोगों के लिए बीमारी और मौत का कारण बन जाता है लेकिन इन्हें संरक्षित करना भी ज़रूरी है!
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