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इस स्वदेशी कंपनी ने दिया था दुनिया को पहला वेजीटेरियन साबुन, गुरुदेव ने किया था प्रचार

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रवींद्रनाथ टैगोर एक तस्वीर में शांत मुद्रा में बैठे हैं। वह कुछ सोच रहे हैं। उनकी तस्वीर के बगल में एक पंक्ति लिखी हुई है, “मुझे गोदरेज से बेहतर कोई विदेशी साबुन नहीं पता है और मैं इसे इस्तेमाल करने का महत्व बताऊंगा।”

आपको शायद यकीन न हो लेकिन नोबेल विजेता गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर 1920 के दशक की शुरूआत में इस साबुन का प्रचार करने के लिए तैयार हो गए थे। सिर्फ टैगोर ही नहीं बल्कि एनी बेसेंट और सी राजगोपालाचारी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी ‘गोदरेज नंबर 1’ साबुन का विज्ञापन किया था।

इसका उद्देश्य पहले स्वदेशी और क्रूरता-रहित साबुन का प्रचार करना और भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन को और मजबूत बनाना था। नेताओं ने अपने राजनीतिक बयानों से जनता से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर उपनिवेशवादियों के अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने भारतीयों के लिए भारतीयों द्वारा बने सामानों का इस्तेमाल करने की अपील की।

पेशे से व्यवसायी और देशभक्त अर्देशिर गोदरेज ने 1897 में इस स्वदेशी ब्रांड को शुरू किया। उनके छोटे भाई पिरोजशा भी इस व्यवसाय में शामिल हुए और उन्हें गोदरेज ब्रदर्स के नाम से जाना जाने लगा।

godrej history

उपभोक्ता वस्तुओं की 122 साल पुरानी दिग्गज कंपनी गोदरेज ग्रुप 2020 तक 4.7 अरब डॉलर (रिवेन्यू) का बिजनेस कर रही है। इसमें रियल एस्टेट, एफएमसीजी, कृषि, रसायन और गॉर्मेट रिटेल जैसी पाँच प्रमुख कंपनियाँ शामिल हैं।

गोदरेज न केवल भारत के तेजी से विकास का साक्षी रहा है, बल्कि इसने भारत में पहली बार बनने वाली कई वस्तुओं का रास्ता खोला जिसमें स्प्रिंगलेस लॉक, प्राइमा टाइपराइटर, बैलट बॉक्स और रेफ्रिजरेटर शामिल हैं।

असफलता से हुई शुरूआत

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1868 में मुंबई के एक पारसी परिवार में जन्मे अर्देशिर छह बच्चों में सबसे बड़े थे। उनके जन्म के तीन साल बाद उनके पिता ने परिवार का नाम बदलकर गोदरेज रख दिया।

अर्देशिर कानून में स्नातक थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि इस पेशे में झूठ का बोलबाला है, तो उन्होंने अपने पेशे को बदल दिया और एक केमिस्ट की दुकान में असिस्टेंट की नौकरी कर ली। इस तरह उन्हें सर्जिकल उपकरणों के निर्माण में दिलचस्पी पैदा हुई और उन्होंने बिजनेस शुरू किया।

हालाँकि उनका बिजनेस आगे नहीं बढ़ा। उन्हें देसी सामानों का निर्माण करने में बेहद मजा आता था। फिर उन्होंने ताला बनाने का एक और बिजनेस शुरू किया। उनका व्यवसाय सफल रहा और उनकी कंपनी ने अलमारी, डोरफ्रेम और डबल-प्लेट डोर का भी निर्माण शुरू किया।

उन्होंने सभी उत्पादों को सस्ती दरों पर बेचा और लोगों ने उन्हें तुरंत हाथों-हाथ लिया। यहाँ तक ​​कि द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार इंग्लैंड की महारानी ने 1912 में भारत के दौरे के दौरान गोदरेज कंपनी की तिजोरी का इस्तेमाल किया था।

चार साल बाद, जब मैसूर (मैसूरु) और मद्रास (चेन्नई) की सरकारों ने भारत में साबुन बनाने का काम शुरू किया, तो अर्देशिर ने भी इसका प्रयोग करना शुरू कर दिया और इस तरह साबुन बनाने की यात्रा शुरू की।

इस साबुन के बारे में और जानें 

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गोदरेज कंपनी द्वारा निर्मित पहले स्वदेशी साबुन को ‘नंबर 2’ का दर्जा दिया गया।

सबने पूछा, कोई अपने पहले उत्पाद के लिए दूसरा रैंक क्यों देगा?

अर्देशिर ने बताया कि “अगर लोगों को नंबर 2 इतना अच्छा लगता है, तो वे नंबर 1 को और भी बेहतर मानेंगे।”

उन्होंने 1918 में भारत और दुनिया का वनस्पति तेल से बना पहला स्वदेशी साबुन बाजार में उतारा जिसे ‘चावी’ (गुजराती में कुंजी) कहा जाता है। उस दौरान दुनिया भर में साबुन बनाने में एनिमल फैट का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन अर्देशिर ही वह शख्स थे जिन्होंने साबुन बनाने के लिए एक वेजिटेरियन विकल्प ढूंढा।

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“हमने  चावी लॉन्च किया, जो दुनिया में  जानवरों की चर्बी के बिना निर्मित पहला साबुन था। हम स्वदेशी और अहिंसा के पदचिह्नों पर चलते हैं,“ यह थी नंबर 2 ’साबुन की टैगलाइन। आर्देशिर को देश की नब्ज की पहचान थी, जहाँ अधिकांश लोग शाकाहारी थे और अहिंसा उपभोक्ताओं के केंद्र में थी।

गोदरेज के विशाल साम्राज्य के निर्माण का इतिहास कुछ ऐसा है जो सभी मार्केटिंग मंत्रों के साथ बड़े पैमाने पर लिखा गया है, मार्केटिंग की तिकड़मबाजी के बिना भी आपका ध्यान खींचा जा सकता है।

पारदर्शिता के जरिए अर्देशिर अपने ग्राहकों के बीच विश्वास कायम करना चाहते थे। उन्हें यह बताने में जरा भी संकोच नहीं हुआ कि साबुन बनाने में वेजिटेबल ऑयल को कैसे निकाला जाता है। यह शायद एक बहुत ही साहसिक कदम था। ज्यादातर कंपनियाँ ऐसी प्रक्रियाओं को गुप्त रखती हैं जब तक कि उनके पास पेटेंट न हो।

1920 के दशक में साबुन बेचने के साथ कंपनी ने ‘वाचो ऐने सीखो ’(पढ़ें और सीखें) शीर्षक से गुजराती में पर्चे बाँटे, जिसमें लिखा था “गोदरेज साबुन रिफाइंड ऑयल से बनाया जाता है। तेल की प्राकृतिक बनावट में कुछ पदार्थ होते हैं जो साबुन में मौजूद रहते हैं और शरीर के लिए अच्छे नहीं होते हैं। तेल से ऐसे पदार्थ निकालने के बाद जो बचता है उसके उपयोग से गोदरेज साबुन बनता है।”

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1926 में एक तुर्की बाथ सोप लॉन्च किया गया था। हालाँकि, यह वतनी (वतन या मातृभूमि) वैरिएंट था जो 1930 के दशक की शुरुआत में आया था जब स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था, जिसने भारतीयों को अपने देशभक्ति के उत्साह के साथ मंत्रमुग्ध कर दिया।

यह ‘सुपीरियर और स्वदेशी’ साबुन हरे और सफेद रैपर में था जिस पर अविभाजित भारत का मानचित्र बना था। विभाजन के बाद भी कुछ सालों तक मानचित्र को नहीं हटाया गया।

1950 के दशक में प्रसिद्ध अभिनेत्री मधुबाला, जो कि पहले से ही हर घर का एक जाना माना नाम बन चुकी थीं, अब वतनी का चेहरा बन गईं। यह कुछ ब्रांडों में से पहला था जिसका किसी सेलिब्रिटी से विज्ञापन कराया गया था।

दो साल बाद भारत के स्वतंत्रता दिवस पर कंपनी ने पिरोजशा के बेटे बुर्जोर गोदरेज के आगमन के साथ सिंथोल लॉन्च किया।

“कंपनी ने कम कीमत पर साबुन की गुणवत्ता में सुधार करने पर जोर दिया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में भारत में G-11 या हेक्साक्लोरोफेन (साबुन में एक कीटाणुनाशक के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला पाउडर एजेंट) युक्त प्रसाधनों की शुरूआत थी। उन्होंने साबुन और अन्य टॉयलेट उत्पादों के लिए भारत में जी -11 के इस्तेमाल के लिए लाइसेंस प्राप्त किया। इस तरह 1952 में सिंथोल लांच किया गया, ” – गोदरेज अर्काइव से प्राप्त जानकारी।

’सिंथोल’ साबुन के नाम के पीछे की कहानी के बारे नादिर गोदरेज ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया कि कीटाणुनाशक साबुन एक अच्छे डियोड्रेंट साबुन साबित हुए और सिंथोल उसी का परिणाम था। सिंथेटिक और फिनोल के कॉम्बिनेशन में गोदरेज ने सिंथेटिक के पहले अक्षर एस और अंतिम अक्षर सी से एक जेंटलर ब्रांड नाम बना दिया। ब्रांड ने अन्य उत्पादों जैसे टैल्कम पाउडर, डियोड्रेंट और शॉवर जेल भी बाजार में उतारा।

1936 में अर्देशिर की मृत्यु हो गई जिसके बाद पिरोजशा ने पदभार संभाला और सालों तक विभिन्न क्षेत्रों में कंपनी का विस्तार करते रहे। हालांकि कंपनी के पास इंटीग्रेटेड टेक्नोलॉजी है और इसने साबुन के कई वर्जन विकसित किए हैं, लेकिन इसकी गुणवत्ता और ग्राहकों का विश्वास आज भी कायम है। सिंथोल और गोदरेज नंबर 1 इतनी प्रतिस्पर्धाओं के बावजूद बाजार पर हावी है।

गोदरेज बंधु उन कुछ व्यवसायियों में से एक थे जिन्होंने लगातार समग्र विकास के बारे में सोचा, जिससे न केवल कंपनी को बल्कि उपभोक्ताओं को भी फायदा हुआ। सस्ती कीमतें और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इसका प्रमाण हैं।

(सभी चित्र गोदरेज आर्काइव से लिए गए हैं।)

मूल लेख- GOPI KARELIA

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दिल्ली: टीचर ने घरवालों के लिए शुरू की केमिकल-फ्री खेती, अब बना सफल बिज़नेस मॉडल

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दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहने वाली सुप्रिया एक स्कूल टीचर हैं और उन्होंने लगभग डेढ़ साल पहले जैविक खेती शुरू की थी, ताकि वह अपने परिवार को रसायन मुक्त भोजन उपलब्ध करा सकें। आज सुप्रिया का दायरा इतना व्यापक हो गया है कि वह अपनी कंपनी ‘फार्म टू होम के तहत सौ से अधिक परिवारों को शुद्ध फल-सब्जी और अन्य किराना सामानों की आपूर्ति सुनिश्चित कर रही हैं। उनका अर्बन एग्री मॉडल किसानों और उपभोक्ताओं के लिए एक उदाहरण है।

teacher turned farmer
सुप्रिया दलाल

सुप्रिया ने द बेटर इंडिया को बताया, “आज के दौर में रसायन युक्त उत्पादों के सेवन से हमारे स्वास्थ्य को काफी नुकसान हो रहा है, इसी वजह से मैंने अपने परिवार को शुद्ध सब्जियाँ उपलब्ध कराने के लिए जैविक खेती शुरू की। इसके तहत मैंने साल 2018 में, अपने घर से 12 किमी दूर कराला में लीज पर 1 एकड़ जमीन ली और पहली बार में ही आलू, गोभी, पालक जैसी 17 सब्जियों को लगाया, जिसमें डेढ़ लाख रुपए की लागत आई।“

वह आगे बताती हैं, “मुझे उत्पादों को बेचने में कोई दिक्कत नहीं आई, क्योंकि हमारे पड़ोसियों ने इसे अच्छी कीमत पर खरीद लिया था। लेकिन, खेती के दौरान कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। क्योंकि, यह एक ऐसा कार्य है, जिसमें पूरा समय देना पड़ता है और स्कूल जाने की वजह से खेती करने में काफी दिक्कत होती थी। इसके अलावा, हमने लागत को कम करने के लिए किसी मजदूर को भी नहीं रखा था।“

फिलहाल, सुप्रिया पाँच एकड़ जमीन पर खेती करती हैं और उनके साथ 10-12 जैविक किसान भी जुड़े गए हैं।

उन्होंने बताया, “हम हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश के किसानों से आम, अमरूद, केला जैसे कई फलों को खरीदते हैं। लेकिन, इससे पहले हम उनके खेत जाकर और वहाँ के अन्य किसानों से पूछताछ कर, यह सुनिश्चित करते हैं कि वे जैविक खेती के मानकों को पूरा कर रहे हैं या नहीं।”

teacher turned farmer
कराला स्थित सुप्रिया का खेत

इस तरह, हर हफ्ते 300-350 फलों और सब्जियों की होम डिलीवरी की जाती है और प्रोसेसिंग से लेकर पैकिंग को पूरा करने के लिए नियमित तौर पर सात लोगों को नौकरी पर रखा गया है। साथ ही, उन्होंने आर्डर लेने के लिए एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया है और बिलिंग के लिए एक सॉफ्टवेयर खरीदा है। वहीं, ग्राहकों को ऑनलाइन भुगतान की सुविधा दी गई है। यह कार्य एक आईटी पेशेवर की निगरानी में होता है।

खास बात यह है कि सुप्रिया ने पहले सिर्फ गार्डनिंग की थी और उन्हें खेती का थोड़ा-सा भी अनुभव नहीं था। उन्होंने यह सबकुछ ऑनलाइन सीखा। इसके बारे में सुप्रिया कहती हैं, “आर्ट ऑफ लिविंग का एक कार्यक्रम देखकर, खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए शुरुआती चार महीने तक इसमें कुछ नहीं लगाया और सिर्फ ग्रीन मैन्यूरिंग की। वैसे किसान ऐसा करने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि उनके लिए एक मौसम की फसल काफी मायने रखती है।“

teacher turned farmer
सब्जियों को होम डिलीवरी के लिए तैयार किया जा रहा

सुप्रिया ने बताया, “मैं कीटनाशकों को बनाने के लिए, खेतों के आस-पास मौजूद खर-पतवार को उबालती हूँ और इससे जो रस निकलता है उसे गोमूत्र में मिला देती हूँ। फिर, इसमें निश्चित मात्रा में पानी मिलाया जाता है, ताकि हल्का हो जाए। साथ ही, हम जीवामृत बनाने के लिए गाय के अपशिष्टों का उपयोग करते हैं।“

वहीं, अपनी भविष्य की योजनाओं को लेकर सुप्रिया कहती हैं, “मैं सुल्तानपुर में एक रिश्तेदार के साथ 4 एकड़ जमीन पर खेती की योजना बना रही हूँ। इसके अलावा हरियाणा के सोनीपत में 4 एकड़ जमीन है, जहाँ मैं जल्द ही एक पर्माकल्चर विकसित करूंगी। वहाँ हम कई फलों, सब्जियों और अनाजों की खेती करेंगे साथ ही रूरल टूरिज्म को ध्यान में रखकर उस फार्म को डेवलप किया जाएगा ताकि लोग अपनी छुट्टियां भी बिता सकें और बच्चे ऐसी चीजों से परिचित हो सकें जिसे वे शहरों में नहीं देख पाते हैं।“

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सुप्रिया के खेत में उत्पादित सब्जियाँ

जैविक खेती शुरू करने की चाहत रखने वाले लोगों के लिए सुप्रिया का सुझाव:

  1. हमेशा गाय के अपशिष्टों से खाद बनाएँ।
  2. कीटनाशक के लिए नीम और गो-मूत्र का इस्तेमाल करें।
  3. गर्मी के मौसम में पौधों का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इस मौसम में कीट ज्यादा लगते हैं।
  4. ड्रिप इरिगेशन विधि से सिंचाई करें, इससे पानी की बचत होती है।
  5. अपने उत्पादों को मंडी के बजाय बाजार में बेचने की कोशिश करें, इससे आपका अधिकतम लाभ सुनिश्चित होगा।

अंत में, वह कहती हैं कि यदि कोई पहली ही फसल में लाभ कमाने के उद्देश्य से जैविक खेती शुरू करना चाहता है, तो यह थोड़ा जोखिम भरा हो सकता है। क्योंकि, यूरिया और अन्य रसायनों की वजह से जमीन की उर्वरा शक्ति को काफी नुकसान होता है और यदि आप जीवामृत का उपयोग करते हैं, तो इसका सार्थक परिणाम मिलने में थोड़ा वक्त लगता है।

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप सुप्रिया से 9868910401 पर संपर्क कर सकते हैं।

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सातवीं पास शख्स ने बनाई अनोखी तकनीक, बढ़ा सकते हैं ट्रैक्टर की लम्बाई

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कॉटन, तुअर, और गन्ना जैसी फसलें एक वक़्त के बाद जब काफी बड़ी हो जाती हैं तो खेतों में से खरपतवार निकालना, या फिर उनमें कीट-प्रतिरोधक का छिड़काव करना काफी मुश्किल हो जाता है। रिले क्रॉपिंग के लिए अगर आप दो क्यारियों के बीच खाली पड़ी जगह को इस्तेमाल भी करना चाहें तो जुताई की समस्या खड़ी हो जाती है।

पहले लोग यह सब काम बैलों की मदद से कर लिया करते थे या फिर ज़्यादातर लोग खुद ही अपने खेतों में मजदूरों की सहायता से यह काम कर लेते थे। निराई-गुड़ाई के लिए काफी तरह के यंत्र बाज़ार में उपलब्ध हैं लेकिन जिन फसलों की लंबाई अधिक होती है, उनमें इन यंत्रों से काम करना भी मुश्किल हो जाता है।

लेकिन अगर किसान ट्रैक्टर पर बैठकर ये सभी कार्य करे तो? जी हाँ, ट्रैक्टर पर। लेकिन फिर सवाल आता है कि ट्रैक्टर के नीचे दबकर सारी फसल खराब हो जाएगी। बिल्कुल, यह समस्या तो है कि आप खड़ी फसल के बीच में सामान्य ट्रैक्टर इस्तेमाल नहीं कर सकते। लेकिन उसी ट्रैक्टर में जरा-सा बदलाव कर उसे ऊपर उठा दिया जाए तो?

जी हाँ, यह कारनामा किया है गुजरात के जतिन राठौर ने। बोताड जिला के 49 वर्षीय जतिन ने ऐसा सिस्टम बनाया है जिससे आप अपने छोटे ट्रैक्टर की लंबाई बढ़ा सकते हैं और फिर इसे खड़ी फसल के बीचों-बीच भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

Jatin Rathore, Botad, Gujarat

जतिन ने द बेटर इंडिया को बताया कि उन्होंने जो सिस्टम बनाया है वह छोटे ट्रैक्टरों में काफी कारगर साबित हो रहा है। अगर आपके पास किसी भी कंपनी का छोटा ट्रैक्टर है तो आप उनके यहाँ से इसकी लंबाई बढ़ावा सकते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि जब आपका काम पूरा हो जाए, उसके बाद आप यह सिस्टम निकाल दीजिए और इसे फिर से छोटे ट्रैक्टर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं।

अपने सफ़र के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया, “मेरे पिताजी तिपहिया टैम्पो बनाने का काम करते थे। उनकी वर्कशॉप थी पर जब मैं सातवीं कक्षा में था तो पिता जी की तबियत काफी खराब रहने लगी। इसलिए मैंने पढ़ाई छोड़कर उनकी वर्कशॉप पर काम सीखना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सभी काम मैं संभालने लगा और कुछ समय बाद पिताजी का देहांत भी हो गया तो सभी ज़िम्मेदारियाँ मुझ पर आ गईं।”

जतिन ने अपने पिताजी के शुरू किए काम को और आगे बढ़ाया। उन्होंने टैम्पो से हटकर छोटे ट्रैक्टर बनाने की शुरूआत की। वह कहते हैं कि साल 1995 में उन्होंने पहला ट्रैक्टर बनाया था। लेकिन उसी समय के आसपास राजकोट की एक फर्म फील्ड मार्शल ने भी एक छोटा ट्रैक्टर लॉन्च किया और देखते ही देखते उनका ट्रैक्टर बाज़ार में छा गया। छोटा ट्रैक्टर छोटे किसानों से लेकर बड़े किसनों तक सभी के काम का था। इसलिए महिंद्रा कंपनी ने भी इसमें इन्वेस्ट किया और फील्ड मार्शल के साथ मिलकर ही महिंद्रा युवराज निकाला।

“मेरे पास इतने साधन नहीं थे कि मैं इतनी बड़ी कम्पनियों का मुकाबला कर पाता। इसलिए मैंने ट्रैक्टर बनाने का काम बंद कर दिया और बाकी कृषि यंत्र आदि बनाने पर ही जोर दिया,” उन्होंने आगे कहा।

लेकिन कुछ अलग और नया करने का उनका जोश खत्म नहीं हुआ था। जतिन अपनी वर्कशॉप पर आने वाले किसानों से बात करते, उनकी परेशानियाँ सुनते और समझते। इस सबके दौरान उन्हें समझ में आया कि किसानों के पास ऐसा कुछ यंत्र भी होना चाहिए जो फसल के बड़े होने के बाद भी खेतों में इस्तेमाल हो सके। तब उन्हें आइडिया आया कि क्यों न ट्रैक्टर की लम्बाई बढ़ाने पर काम किया जाए। उन्होंने कई सारे एक्सपेरिमेंट करके ऐसा सिस्टम बनाया जिससे आप अपने छोटे ट्रैक्टर की लम्बाई बढ़ा सकते हैं और काम होने के बाद इसे फिर से छोटे रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

उन्होंने कहा, “किसानों को इस लम्बे ट्रैक्टर की ज़रूरत मौसम में दो-तीन महीनों के लिए हो होती है। उसके बाद उपज की हार्वेस्टिंग होने लगती है। इसलिए कोई मतलब नहीं था कि सिर्फ लम्बा ट्रैक्टर ही रखा जाए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने ऐसा ही सिस्टम बनाया कि इसे छोटे और लम्बे दोनों रूप में इस्तेमाल किया जा सके।”

उन्होंने शुरुआत में सिर्फ अपने इलाके के किसानों के लिए यह काम किया। फिर धीरे-धीरे पूरे गुजरात से उनके पास किसान आने लगे और उनका यह सिस्टम चल गया। जतिन के ट्रैक्टर की एक वीडियो देखकर बेंगलुरु की विटीएस मित्सुबिशी कंपनी ने उन्हें संपर्क किया और उनके लिए काम करने का आग्रह किया। तब से उनका यह सिस्टम कर्नाटक, आंध्र-प्रदेश, तेलांगना और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी जा रहा है।

अगर ट्रैक्टर 15 एचपी से 20 एचपी के बीच का है तो सिस्टम की लागत 45 हज़ार रुपये आती है। लेकिन अगर ट्रैक्टर ज्यादा एचपी का है तो 65 से 75 हज़ार रुपये तक का खर्च आता है।

इससे किसान अपनी खड़ी फसल के बीच भी खेत की जुताई-बुवाई कर सकता है। साथ ही, अगर आपको कोई फ़र्टिलाइज़र स्प्रे आदि करना है तो भी यह ट्रैक्टर बहुत काम आता है। जतिन ने इस ट्रैक्टर के हिसाब से कल्टीवेटर, स्प्रेयर जैसे कृषि यंत्र भी डिज़ाइन किए हैं। बाकी किसान अपने यंत्रों को थोड़ा-सा मोडिफाई करके भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

जतिन कहते हैं कि जब दूसरे राज्यों से उन्हें ऑर्डर मिलने लगे तब उन्हें लगा कि उन्होंने कुछ अलग और बड़ा किया है। पर उन्हें ख़ुशी है कि वह किसानों की समस्यायों के हिसाब से कुछ बना पाएं। अब वह इस मॉडल को हाइड्रोलिक सिस्टम पर करने की योजना पर काम कर रहे हैं।

“हम ऐसा डिज़ाइन बना रहे हैं जिससे ट्रैक्टर को खेत में ही छोटा या फिर लम्बा किया जा सके। किसान को अलग से इसके लिए कारीगर न बुलाना पड़े या फिर उसे खुद मेहनत न करनी पड़े। आने वाले कुछ महीनों में उम्मीद है कि हमारा यह मॉडल भी तैयार हो जाएगा,” उन्होंने अंत में कहा।

अगर आप इस ट्रैक्टर के बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो आप जतिन राठौर से 9574692007,9879041242 पर बात कर सकते हैं!


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One Sun One World One Grid: भारत की सबसे भव्य सोलर ग्रिड के बारे में 10 ज़रूरी बातें

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क्लीन और ग्रीन एनर्जी हमारी आज की ज़रूरत है और आने वाले कल की बेहतर नींव भी। जब हम क्लीन एनर्जी की बात करते हैं तो सबसे पहले दिमाग में सौर ऊर्जा का ख्याल आता है। बेशक, सौर ऊर्जा ग्रीन एनर्जी के साथ-साथ किफायती विकल्प भी है।

अच्छी बात यह है कि पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में भारत की स्थिति काफी मजबूत हुई है। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010 में भारत की कुल सौर क्षमता 10 मेगावॉट थी, जो 2016 में 600 गुना बढ़कर 6000 मेगावॉट तक पहुँच गई। पिछले तीन सालों में यह आंकड़ा और भी ज्यादा बढ़ा है। साल 2019 के मार्च महीने में जारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत की सौर क्षमता 30 गीगावॉट तक पहुंची है और यह सब संभव हुआ है सरकार की लगातार कोशिशों और बेहतर योजनाओं की वजह से।

सौर ऊर्जा के क्षेत्र में प्रशासन पूरा ध्यान केन्द्रित करके काम कर रहा है और इसका उदाहरण है भारत के कई बड़े महत्वाकांक्षी सोलर प्रोजेक्ट्स। दुनिया के पांच सबसे बड़े सोलर प्लांट्स में तीन भारत में हैं, जिनमें हाल ही में 750 मेगावॉट की क्षमता वाले रेवा सोलर पॉवर प्लांट का नाम भी शामिल हुआ है।

हमारे पास आज बहुत से उदाहरण हैं जहाँ सौर ऊर्जा की वजह से बिजली का खर्च बिल्कुल जीरो हो गया है, जैसे कोचीन और कोलकाता के एयरपोर्ट। इन दोनों एयरपोर्ट्स पर सोलर प्लांट लगाए गए हैं और मात्र 3-4 साल में ही इन प्लांट्स को लगाने की लागत वसूल हो गई और अब ये दोनों एयरपोर्ट्स ऊर्जा के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं है।

बिज़नेस इनसाइडर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक घंटे में पूरी पृथ्वी को सूरज से जितनी ऊर्जा मिलती है, वह हमारे पूरे विश्व की साल भर की कुल ऊर्जा खपत से ज्यादा है!

इस एक फैक्ट से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सौर ऊर्जा हमारे लिए कितनी ज्यादा फायदेमंद है। फिर भी, भारत में कोयले से उत्पादित होने वाली बिजली का प्रतिशत ज्यादा है, क्यों?

इसके कुछ आसान से जवाब हैं: पहला, हम सौर ऊर्जा 24×7 नहीं ले सकते। दूसरा, सौर ऊर्जा डाईल्युटेड है, इसे सिर्फ किसी एक प्वाइंट पर इकट्ठा नहीं किया जा सकता और इसके लिए हमें बड़े सोलर पैनल की ज़रूरत होती है। जिनके लिए काफी जगह चाहिए। तीसरा, इसको स्टोर नहीं किया जा सकता, इसे लगातार सप्लाई करना पड़ता है।

इन सब समस्यायों का हल ही है भारत का मेगा सोलर प्लान– One Sun One World One Grid!

आखिर क्या है One Sun One World One Grid प्लान:

Mega Solar Plan

इसका सीधा-सा मतलब है एक सूरज, एक विश्व और एक ग्रिड। इसका मतलब है कि एक ट्रांस-नेशनल इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड से अलग-अलग देशों में सौर ऊर्जा सप्लाई की जाए। अलग-अलग देश अपने यहाँ उत्पन्न होने वाली सौर उर्जा को एक-दूसरे के यहाँ ज़रूरत के हिसाब से भेजें। साल 2018 में दूसरे ‘वैश्विक अक्षय ऊर्जा निवेश सम्मेलन’ के दौरान भरत सरकार द्वारा इस योजना की पहल की गई थी। भारत के प्रधानमंत्री ने सौर ऊर्जा के महत्त्व पर जोर देते हुए वैश्विक स्तर पर 24×7 सौर ऊर्जा की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये ‘OSOWOG’ के माध्यम से विश्व के सभी देशों से मिलकर कार्य करने का आह्वान किया था।

इस कार्यक्रम के तहत क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे से जुड़े हुए ‘ग्रीन ग्रिड’ (Green Grid) की स्थापना के माध्यम से विभिन्न देशों के बीच ऊर्जा साझा करने तथा ऊर्जा आपूर्ति में संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा। इस योजना पर मंत्रालय ने काम शुरू कर दिया है और इसके लिए एनर्जी कंसलटेंट नियुक्त करने की प्रक्रिया चल रही है।

आज द बेटर इंडिया आपको इस मेगा सोलर प्लान से जुडी महत्वपूर्ण बातें बता रहा है क्योंकि यह योजना सभी देशों के लिए बेहतर साबित हो सकती है।

1. सूरज कभी नहीं छिपता:

इस पूरे प्लान की अवधारणा इस एक तथ्य पर निर्भर हैं और सच भी है- The Sun Never Sets

जब भारत में रात होती है तो और बहुत से देशों जैसे ब्राज़ील में सुबह होती है। इस तरह से जब हमारे यहाँ सौर ऊर्जा उत्पादित नहीं हो सकती, तब किसी और देश में यह काम हो सकता है। इस तरह से हम 24*7 सौर ऊर्जा की सप्लाई ले सकते हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी देश इस उर्जा का आदान-प्रदान करते रहें तो ऊर्जा की आपूर्ति करना आसान हो जाएगा।

2. तीन चरणों में पूरी होगी प्रक्रिया:

इस कार्यक्रम को तीन चरणों में लागू किया जाएगा:

  • इसके पहले चरण के तहत भारत सौर उर्जा के लिए मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से जुड़ेगा।
  • दूसरे चरण के तहत अफ़्रीकी देशों को इससे जोड़ा जाएगा।
  • योजना के तीसरे चरण में पूरे विश्व को एक इंटरनेशनल क्लीन एनर्जी ग्रिड से जोड़ा जाएगा।

3. दो जोन में बंटा होगा सोलर ग्रिड

यह सोलर ग्रिड दो जोन में बंटा होगा। ईस्ट जोन में म्यांमार, वियतनाम, थाइलैंड, लाओ, कंबोडिया जैसे देश शामिल होंगे। वेस्ट जोन मिडिल ईस्ट और अफ्रीका क्षेत्र के देशों को कवर करेगा।

4. सतत विद्युत आपूर्ति:

इस एक योजना के माध्यम से से अलग-अलग देशों के ग्रिडों को जोड़कर 24×7 विद्युत् आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकेगी। इस योजना के तहत 140 देशों को आपस में जोड़ने का प्लान है। विश्व के अलग-अलग द्वीपों को भी इससे जोड़ा जा सकता है और वहाँ भी ऊर्जा की आपूर्ति की जा सकती है। इससे यक़ीनन कोयले आदि से बनने वाली बिजली पर सभी देशों की निर्भरता कम हो जाएगी।

5. सामूहिक स्वामित्त्व (Common Ownership):

यह कार्यक्रम सहभागिता और सामूहिक स्वामित्त्व के मूल्यों पर आधारित है, जहाँ इस पर सभी सदस्यों का सामूहिक अधिकार होगा। इससे देशों के बीच संबंध मजबूत होंगे और दूसरे क्षेत्रों में भी सहयोग बढ़ेगा।

6. नेतृत्त्व की भूमिका:

भारत ने वर्तमान वैश्विक ऊर्जा संकट के समाधान हेतु OSOWOG के माध्यम से विश्व के समक्ष अपनी नेतृत्त्व क्षमता का उदाहरण प्रस्तुत किया है। पहली बार भारत विश्व में किसी समस्या के समाधान का नेतृत्व कर रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका मजबूत होगी।

7. लागत में कटौती:

इतने बड़े प्रोजेक्ट के लिए लागत भी काफी लगेगी। लेकिन अगर सभी देश सयुंक्त तौर पर इस लागत को वहन करेंगे तो आर्थिक चुनौती को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।

8. स्थापित हो सकता है World Solar Bank

भारत द्वारा OSOWOG के सफल क्रियान्वयन हेतु वित्तीय चुनौतियों को देखते हुए ‘वर्ल्ड सोलर बैंक’ (World Solar Bank-WSB) की स्थापना पर विचार किया जा रहा है। WSB और विश्व बैंक के सहयोग से OSOWOG के लिये प्रतिवर्ष 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर का प्रबंध कर वित्तीय चुनौतियों को कम किया जा सकेगा।

9. कार्बन एमिशन होगा कम:

सौरा ऊर्जा के सबसे ज़्यादा अच्छा प्रभाव हमारे पर्यावरण पर होगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर एक घर भी सौर ऊर्जा इस्तेमाल करता है तो वह 30 सालों में अपने घर से होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को 100 टन तक कम करता है। अब जरा सोचिये अगर पूरा विश्व सौर ऊर्जा से जुड़ जाये तो यह आंकड़े कितने बढ़ सकते हैं।

10: रोज़गार:

इस योजना के क्रियान्वन से न सिर्फ भारत में बल्कि दूसरे देशों में भी काफी रोज़गार उत्पन्न होंगे। आज की तारीख में सोलर टेक्नोलॉजी के मामले में चीन सबसे आगे है लेकिन अगर इस योजना को भारत के युवा मौके की तरह ले तो स्थिति बदल सकती है। भारत में सोलर सेल बनाने पर कभी ज़्यादा फोकस ही नहीं हुआ। लेकिन इस योजना के तहत, सोलर सेल बनाने से लेकर, इसे लगाने और अलग-अलग जगह पहुँचाने की पूरी प्रक्रिया में बहुत से लोगों को रोज़गार मिल सकता है।

अक्सर हमारे सामने समस्या रही है कि पर्यावरण या फिर अर्थव्यवस्था। लेकिन इस मेगा सोलर प्लान से हम दोनों पर साथ में काम कर सकते हैं।


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छोटे गमलों में बड़े पेड़: YouTube से सीखी इस कला से घर पर रहकर ही कमा लेते हैं हज़ारों

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यह कहानी उत्तरप्रदेश के एक ऐसे युवा की है, जिसने यूट्यूब के जरिए पेड़-पौधों के बारे में ढ़ेर सारी जानकारी इकट्ठा की और वहीं से बोनसाई की कला भी सीख ली। कभी नौकरी की तलाश करने वाला यह युवा आज नर्सरी चला रहा है।

बागपत के रहने वाले विकास उज्जवल अपनी पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी की तैयारी करने लगे। लेकिन शायद उनकी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इसलिए कई बार प्रयास करने पर भी वह आखिरी चरण में पहुंचकर असफल हो जाते। प्राइवेट नौकरी में भी उनका मन नहीं लग रहा था लेकिन उन्हें कोई दूसरी राह भी नहीं मिल रही थी।

उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया, “मैंने खूब मेहनत की पर उस हिसाब से नतीजा नहीं मिला जैसे चाहिए था। फिर धीरे-धीरे उम्र बढ़ रही थी तो घरवालों की तरफ से भी कुछ करने का दवाब था। बहुत मुश्किल थीं चीजें पर मुझे कुछ तो करना था।”

विकास को बचपन से ही पेड़-पौधों से लगाव था और जब भी वह परेशान होते तो पेड़-पौधों के साथ वक़्त बिताते। वह अक्सर यूट्यूब पर पेड़-पौधों के बारे देखते भी रहते। उन्हें बोनसाई के बारे में पता चला। ‘बोनसाई’ यानी कि बौना पेड़। यह पेड़ों की लम्बाई को छोटा रखते हुए उनकी डिजाइनिंग की एक तकनीक है। बोनसाई के बारे में विकास ने जितना देखा और समझा, उससे उन्हें लगने लगा कि उन्हें बोनसाई बनाना सीखना चहिए। बोनसाई की बाज़ार में अच्छी कीमत मिल जाती है।

यह एक अच्छी आय का ज़रिया हो सकता है क्योंकि बोनसाई डिजाइनिंग और ट्रेनिंग, दोनों के ज़रिए आप पैसे कमा सकते हैं। अगर आपको इस कला में महारत हासिल है तो आप अपने एक बोनसाई के 10 से 50-60 हज़ार रुपये तक ले सकते हैं। विकास बताते हैं कि जितना पुराना आपका बोनसाई होगा, उतने ही अच्छे पैसे मिलेंगे। लेकिन यह काफी धैर्य और संयम का काम है।

Vikas Ujjwal with one of his Bonsai

“मैंने यह ठान लिया था कि मैं यही काम करूँगा। इसके लिए मैं ढूंढने लगा कि कहाँ से ट्रेनिंग ले सकता हूँ। मैंने दो-तीन जगह बोनसाई बनाने की ट्रेनिंग के लिए संपर्क किया। लेकिन बात नहीं बन पा रही थी। फिर एक जगह काम सीखने गया लेकिन वहाँ से भी 4 दिनों में ही वापस आना पड़ा क्योंकि ट्रेनर ने कहा कि उन्हें अपने काम के लिए एक मजदूर चाहिए, कोई सीखने वाला नहीं,” विकास ने बताया।

उनके घरवाले पहले ही उनके इस काम के खिलाफ थे। उन्हें लग रहा था कि वह अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं। पर विकास ने हार नहीं मानी। प्रकृति से उनका लगाव हमेशा उन्हें प्रेरणा देता रहा कि एक न एक दिन चीजें बदलेंगी।

विकास ने एक बार फिर यूट्यूब का सहारा लिया। उन्होंने यूट्यूब पर ही वीडियो देख-देख कर बोनसाई बनाना सीखन शुरू किया। साथ ही, उस वक़्त उनके पास उनकी बचत के 23 हज़ार रुपये थे। इन पैसों को उन्होंने 1800 गमले खरीदने और पेड़-पौधे खरीदने में इन्वेस्ट किया। वह कहते हैं कि उन्होंने ऐसे पेड़-पौधों से शुरुआत की, जिनको प्रोपेगेट करके उनमें से और पौधे बनाए जा सकें। उन्हें पता था कि एकदम से उनका बोनसाई बिज़नेस नहीं चलेगा और इसलिए उन्होंने बोनसाई डिजाइनिंग के साथ-साथ पेड़-पौधों की एक नर्सरी शुरू कर दी।

He started his nursery from home

नर्सरी के लिए उन्होंने दूसरी जगहों से पेड़ खरीदने की बजाय, अपने आस-पास भी जिन पेड़ों से वह पौधे बना सकते थे, उन्होंने बनाए। इसके साथ -साथ, उनके बोनसाई का काम चलता रहा। उन्होंने बोनसाई बनाने का काम लकी प्लांट से शुरू किया। एक लकी प्लांट से उन्होंने और कई प्लांट्स बनाए और फिर उनपर बोनसाई डिजाइनिंग शुरू की।

आज उनके पास लगभग 100 से अधिक वैरायटी हैं, जिसमें ऐरिका पाम, साइकस, सेंसोविरिया, पोनीटेल पाम, पीस लिली, फोनिक्स पाम, बम्बू पाम, पेट्रा क्रोटॉन, गुडलक प्लांट, सहित कई पौधे हैं। कुछ महीनों में ही उनका नर्सरी का व्यवसाय चल पड़ा। उनकी नर्सरी में लगभग 4 हज़ार पौधे हैं और यह सब उन्होंने अपने घर से ही शुरू किया। आज उनके पास उनके अपने गाँव के अलावा अन्य जगहों से लोग पौधे खरीदने आते हैं।

उनकी महीने की कमाई लगभग 30 हज़ार रुपये तक हो जाती है। यह सिर्फ उनकी नर्सरी से है। वह फ़िलहाल, बोनसाई की ज्यादा बिक्री नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पहले एक अच्छा बैंक तैयार करना है। विकास के पास 19 साल पुराना फाइकस पांडा का पेड़ और 10 साल पुराना जेड प्लांट का भी बोनसाई है। उनका उद्देश्य है कि वह बोनसाई बनाने में वर्ल्ड रिकॉर्ड कायम करें।

“मेरा पूरा काम अभी घर से हो रहा है। यहाँ जगह और साधन दोनों सीमित हैं। अगर मेरी नर्सरी किसी हाईवे पर या फिर अच्छी लोकेशन पर होगी तो मैं आराम से महीने के 50 से 60 हज़ार कमा सकता हूँ और बोनसाई की बिक्री करके तो और भी ज्यादा। मैं फिलहाल, अपनी नर्सरी अच्छी जगह सेट-अप करने के लिए ज़मीन तलाश कर रहा हूँ, जिसे मैं लीज़ पर ले सकूं,” उन्होंने कहा।

He has almost 4000 plants

यह सब विकास की पिछले एक साल की मेहनत है। लॉकडाउन में भी उनका काम नहीं रुका। थोड़ी मंदी ज़रूर आई लेकिन काम चलता रहा। विकास बताते हैं कि उनकी सफलता का मुख्य कारण है उनका खुद पर और अपने पेड़-पौधों पर भरोसा। वह जानते हैं कि किस तरह से पेड़-पौधों की देखभाल की जाती है और कैसे इन्हें रखा जाता है।

बोनसाई डिज़ाइन करना भी आसान काम नहीं है। किसी पौधे की सिर्फ उम्र बढ़ती रहे और आप अपनी कला से उसकी लम्बाई को बढ़ने से रोक दें। बोनसाई मात्र 1 से 3 फीट तक के होते हैं। इनकी डिज़ाइन भी आपको प्रकृति में ही ढूंढनी पड़ती है। इसके लिए अलग-अलग उपकरण भी आते हैं और जितना ज्यादा आपका हाथ साफ़ होता, उतना ही सुंदर बोनसाई आप डिज़ाइन करेंगे।

विकास कहते हैं कि अब वह बोनसाई डिजाइनिंग की ट्रेनिंग भी देना शुरू करेंगे। उन्हें ट्रेनिंग के लिए काफी भटकना पड़ा और फिर भी कोई मदद नहीं मिली। लेकिन वह नहीं चाहते कि किसी और के साथ ऐसा हो। जैसे ही उन्हें उनकी नर्सरी को बड़ी जगह पर सेट-अप करने के लिए ज़मीन मिल जाएगी, वह बोनसाई बनाने की ट्रेनिंग भी दिया करेंगे और साथ ही, उनका विचार अपना एक यूट्यूब चैनल शुरू करने का भी है।

He is a self-trained bonsai designer

अंत में वह सिर्फ एक सन्देश देते हैं, ” सरकार आज पौधारोपण के नाम पर करोड़ों खर्च कर रही है। लेकिन इसके बाद वह ये नहीं देखते कि कितने पेड़-पौधे बचे या नहीं। लोगों के घर-घर मुफ्त में पेड़ दिए जाते हैं पर मुफ्त की चीज़ की कद्र कहाँ है। ऐसा करके हम सिर्फ अपनी प्रकृति और अपने साधनों को खराब कर रहे हैं। इसलिए मेरा कहना है की सरकार को इन पौधों के ब्यौरे और सही देखभाल पर भी काम करना चाहिए। ज़रूरी नहीं कि आप करोड़ों की संख्या में पेड़ लगाएं। आप 100 ही लगाइए, लेकिन आपके ये पेड़ जीवित रहने चाहिए।”

द बेटर इंडिया विकास के जज्बे की सराहना करता है। उन्होंने निराशा की बजाय आशा को चुना और निरंतर मेहनत से अपनी मंजिल को हासिल किया। अगर आप विकास उज्जवल से इस बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उन्हें 9758584486 पर संपर्क कर सकते हैं!


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9 घंटे की नौकरी के साथ शुरू की मशरूम की खेती, हर महीने हुआ एक लाख रूपए का लाभ

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बड़े-बुज़ुर्ग अक्सर कहा करते हैं कि इंसान को कभी हार नहीं माननी चाहिए। कभी-कभी अनेक असफलताओं के बाद सफलता और संपन्नता हमारे दरवाज़े पर दस्तक देती हैं। बीच में ही हार मान लेने से सफलता अक्सर दबे पाँव लौट जाया करती है और लोग क़िस्मत को कोसते रह जाते हैं।

हमारे किसान भाई संदीप कुमार की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। मुज़फ़्फरनगर के खतौली के रहने वाले संदीप आज भले ही लाखों में कमा रहे हों लेकिन आज से तकरीबन पाँच साल पहले उन्होंने शुरुआत शून्य लाभ से की थी। उचित प्रशिक्षण, महीनों की कड़ी मेहनत और सालों के संयम के बाद आज उनके उगाये मशरूम पूरे देश में ख़रीदे जाते हैं। मज़े की बात तो यह है कि उन्होंने इसे बस एक साइड बिज़नेस के रूप में शुरू किया था लेकिन आज यह कई किसानों और विक्रेताओं की रोज़ी-रोटी का एकमात्र साधन बन चुका है।

संदीप ने द बेटर इंडिया को बताया, “मुझे साइड बिज़नेस का ख़्याल दरअसल दिल्ली में आया था। किसान परिवार से आता हूँ तो मैंने मशरूम खेती के बारे में सोचा। मुझे कुछ अच्छा, कम लागत में आर्गेनिक, हेल्थी और टिकाऊ उत्पाद उगाने की इच्छा थी और मशरूम इसके लिए सर्वोत्तम विकल्प था।”

मशरूम की खेती वाकई कम लागत में शुरू की जा सकती है। मात्र 35,000 की लागत के साथ शुरू करने वाले संदीप कहते हैं कि लोग इसे हज़ार रूपये के साथ भी शुरू कर सकते हैं।

Haryana Guy
इस तरह होती है मशरूम की खेती


खेती शुरू करने से पहले संदीप ने हरियाणा के ‘हरियाणा एग्रो इंडस्ट्रीज़ कॉरपोरेशन’ (HAIC) से एक हफ्ते ट्रेनिंग ली। संदीप आगे बताते हैं, “ट्रेनिंग फीस 4,000 रूपये थे जिसमें हमारा रहना, खाना आदि शामिल था। वहाँ से मैंने मशरूम खेती की ट्रेनिंग ली और नाममात्र के भाव पर कम्पोस्ट और बीज भी ख़रीदे। सात रूपये प्रति किलो के भाव पर मैंने कम्पोस्ट और केसिंग मिट्टी और अस्सी रूपये प्रति किलो के भाव में बीज ख़रीदे।”

संदीप कहते हैं कि मशरूम की खेती शुरू करने से पहले मशरूम के बारे में जानना सबसे ज़रूरी है। वह बताते हैं, “मशरूम दो प्रकार से उगाये जा सकते हैं। प्रक्रिया शुरू करने पर बीज को कम्पोस्ट में मिलाकर एक महीने तक अंधेरे कमरे में रखना पड़ता हैं। नमी कुछ करीब 80°C और कमरे का तापमान तकरीबन 20-24°C तक रखना पड़ता है। इस पूरे प्रक्रिया को मिसलियम (mycelium) कहते हैं। मिट्टी डालने के बाद कमरे का तापमान 16°C से कम होनी चाहिए।”

Haryana Guy
मिसलियम फैलता हुआ

2016 में उन्हें अपना पहला उत्पादन मिला। उन्होंने जितना निवेश किया था, उतने रूपये कमा लिए। यही वजह है कि उन्हें घाटा नहीं हुआ।

फिर 2017 के उत्पादन में उन्हें 5,000 रूपये प्रति माह का मुनाफ़ा हुआ। 2018 में यह मुनाफ़ा बढ़ कर 12,000-13,000 रुपयों का हो गया था।

अब तक उनके उत्पाद केवल मंडी तक ही जाते थे लेकिन इसके बाद उन्होंने सोशल मीडिया के ज़रिये मार्केटिंग और प्रोमोशन शुरू कर दिया और दूसरे किसानों के साथ मिलकर अपने व्यापार को भी बढ़ाना  शुरू कर दिया। पहली बार बीज और कम्पोस्ट HAIC से खरीद कर लाने के बाद संदीप कम्पोस्ट भी ख़ुद से बनाने लगे। हालाँकि, बीज अब भी वह हरियाणा के HAIC से खरीदते हैं।

सफल मार्केटिंग और किसान भाइयों और अपने परिवार वालों की मदद से संदीप ने उत्पादन को लगभग दस गुना बढ़ा लिया। जो मशरूम हर दिन 50-60 किलो उगाये जाते थे, वह अब 500 किलो से एक टन के करीब उगाये जाने लगे। इनकी डिलीवरी फ्लाइट और ट्रेनों द्वारा पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार आदि राज्यों के कई इलाकों तक होने लगी।

Mashroom Farming
मशरूम की कटाई

नतीजतन, 2019 का मुनाफा एक लाख प्रति महीना हुआ! चौंकाने वाली बात यह है कि संदीप आज भी अपनी फुल-टाइम नौकरी कर रहे हैं। उनका साइड बिज़नेस भले ही आज कुछ लोगों का एकमात्र कमाई का ज़रिया है लेकिन वह अब भी अपनी कंपनी को ही अपनी कमाई का मूल ज़रिया बताते हैं।

संदीप कहते हैं, “मैं हर दिन 40 किलोमीटर आना-जाना करता हूँ, 9 घंटे की नौकरी के बाद भी हर दिन कुछ घंटे अपनी मशरूम खेती को देता हूँ। मेरे अलावा मेरे घरवाले भी मेरी मदद करते हैं। हाँ, शुरू में काफ़ी तकलीफें आयी लेकिन मैं इस काम के प्रति दृढ़ था।”

लॉकडाउन के दौरान संदीप के लिए डिलीवरी करना आसान नहीं था लेकिन फिर उन्होंने देहरादून के रास्ते दिल्ली और वहाँ से पश्चिम बंगाल भेजना शुरू कर दिया।

Mashroom Farming
संदीप समय-समय पर अपने मशरूम की जांच भी करवाते रहते हैं

उनके मुताबिक काफ़ी लोग मशरूम की खेती शुरू करते हैं लेकिन पहले ही साल में काम बंद कर देते हैं। वजह? खराब उत्पादन या निवेश में नुकसान! लेकिन अगले साल में वह उन ग़लतियों से सीखने की या उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं करते जिसके कारण उन्हें सकारात्मक नतीजे नहीं मिलते हैं।

संदीप बाकि लोगों को प्रोत्साहित करते हुए कहते हैं, “रुकना नहीं चाहिए और न ही हार माननी चाहिए। जहाँ मशरूम का उत्पादन किया जाता है, वहाँ तापमान बनाए रखना मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं और न ही सफ़ाई रखना मुश्किल है। यदि मैं 18x57x15 फ़ीट की जगह में सफलता हासिल कर सकता हूँ तो आप क्यों नहीं!”

Mashroom Farming
डिलीवरी के लिए तैयार मशरूम

हम अक्सर किसी किसान के सफलता की कहानी पढ़कर सोचते हैं कि वह कितना कमा रहा है या पैसे बना रहा है लेकिन उसके पीछे की सालों की मेहनत, ग़लतियाँ और रिवर्क नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हमें इसी सोच को बदलने की ज़रूरत है।

अगर आप भी किसी ऐसे किसान भाई/ बहन को जानते हैं तो उनकी कहानी हमसे साझा कीजिये और हम बताएँगे पूरे देश को उनकी सक्सेस स्टोरी!

संदीप से आप उनके फ़ेसबुक अकाउंट के ज़रिये जुड़ सकते हैं। इसके अलावा उनके ‘खतौली मशरूम फार्म हाउस’ के बारे में आप उनकी वेबसाइट से जानकारी ले सकते हैं।

यह भी पढ़ें- बहुत आसान है नारियल का पौधा लगाना, बस फॉलो करें ये स्टेप्स

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क्या आपने देखा है ऑटो पर बना एक चलता फिरता घर? लाउंज समेत कई सुविधाएँ हैं इसमें

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यह कहानी 23 साल के एनजी अरुण प्रभु की है। अरुण ने चेन्नई के एक आर्किटेक्चर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान स्लम हाउसिंग पर रिसर्च किया था। वह इन घरों की बनावट में जगहों का सही इस्तेमाल न देखकर काफी हैरान हुए थे। लोगों ने घर बनाने में लगभग 4 से 5 लाख रुपए खर्च किए थे लेकिन इनमें टॉयलेट नहीं थे।

अरुण ने द बेटर इंडिया को बताया, “मैं चेन्नई और मुंबई में झुग्गी बस्तियों पर रिसर्च कर रहा था। तब मुझे लगा कि इन  छोटी जगहों को बेहतर डिजाइन देकर सुधारा जा सकता है। घरों में टॉयलेट और बेडरूम आदि बनाने के साथ ही घर को रहने योग्य बनाया जा सकता है।”

अरुण ने पिछले साल अपना ग्रैजुएशन पूरा किया। वह मानते हैं कि ऑटो रिक्शा पर पोर्टेबल घर बनाकर जगह का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है। सबसे खास बात यह है कि इस तरह के घर को काफी कम लागत में बनाया जा सकता है।

उन्होंने 1 लाख रुपए खर्च करके ऑटो रिक्शा पर 36 वर्गफुट का यह चलता-फिरता घर बनाया। इसे उन्होंने ‘सोलो .01’ नाम दिया है। इस घर में दो लोग आराम से रह सकते हैं।

वह कहते हैं, “मेरा मकसद छोटे पैमाने पर वास्तुकला का इस्तेमाल करना है और लोगों को दिखाना है कि हम ऐसी छोटी जगहों का कैसे बेहतर उपयोग कर सकते हैं। पोर्टेबल घर अस्थायी होते हैं। यह जगह-जगह काम करने वाले मजदूरों के लिए बेहतर हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं के दौरान भी इस तरह के इमर्जेंसी हाउसिंग का निर्माण बहुत आसानी से किया जा सकता है।

छोटा भी और  दिखने में खूबसूरत भी 

House made on an auto
(Source: Arun Prabhu)

अरुण तमिलनाडु के नामक्कल शहर में जन्मे और पले-बढ़े हैं, जो बॉडी बिल्डिंग इंडस्ट्री और पोल्ट्री फार्म के लिए जाना जाता है। अरुण को बचपन से ही आर्ट और डिजाइन से लगाव था। लेकिन उन्होंने पोर्टेबल घर बनाने के लिए अपने प्लेटफॉर्म के रूप में ऑटो-रिक्शा क्यों चुना?

इसके बारे में अरुण बताते हैं, “यह एक ऑटो रिक्शा पर बने 6’x 6′ साइज़ के पोर्टेबल घर का प्रैक्टिकल डिजाइन है जो कि अकेले रहने वाले लोगों जैसे कि आर्टिस्ट, ट्रैवलर या एक छोटे मोटे वेंडर के लिए एकदम उपयुक्त है। इसे घुमंतू जीवनशैली वाले लोगों और गरीबी रेखा के नीचे आने वाले लोगों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है। तीन पहिए पर बने इस घर में रहने और व्यवसाय करने की भी पर्याप्त जगह है।”

आगे वह बताते हैं, “आगे चलकर एक लेवल पर किचन, बाथटब, टॉयलेट, फॉयर और लिविंग एरिया बनाने की योजना बनाई है। वहीं 3.5 फीट ऊंचाई पर सोने की जगह और वर्कस्पेस बनाया जाना है। इसमें सोलर पैनल (600W), पानी की टंकी (250 लीटर) और छत में शेड के साथ एक लाउंज स्पेस है। घर की इन सब खासियत की वजह से किसी को भी यह लग सकता है कि यह काफी भारी होगा। लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि इसका वजन एक समान रूप से बंटा हुआ है।”

House made on an aauto
(Source: Arun Prabhu)

उन्होंने अगस्त 2019 में घर बनाना शुरू किया और स्क्रैप मैटेरियल का इस्तेमाल करके पूरे घर का निर्माण करने में उन्हें पाँच महीने लगे।

पुरानी बसों और टूटी इमारतों के मेटल स्क्रैप से बने सोलो .01 की लाइफ आखिर कितनी होती है। बहरहाल, अरुण कहते हैं कि मरम्मत के बिना ही यह घर लंबे समय तक टिकाऊ होते हैं।

हर जगह को प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किए जाने के बावजूद यह घर काफी हवादार है। पूरे स्ट्रक्चर को सिर्फ छह बोल्ट से ऑटो रिक्शा से जोड़ा जाता है जिसे आसानी से निकाला जा सकता है और यह घर को मजबूती से खड़ा रखता है।

अरुण कहते हैं, “अगर यह ऑटो-रिक्शा के ऊपर फिट हो सकता है, तो इसे किसी भी वाहन के ऊपर लगाया सकता है।” इस स्ट्रक्चर का इस्तेमाल निर्माण कार्य करने वाले मजदूर कर सकते हैं जो किसी विशेष साइट पर केवल कुछ सालों या महीनों के लिए काम करते हैं। घुमंतू किस्म के लोगों के अलावा किसी भी प्राकृतिक आपदा के दौरान यह अस्थायी घर एक बेहतर विकल्प है।

House made on an aauto
एन जी प्रभु (Source: Arun Prabhu)

आज अरुण अपनी आर्किटेक्चर फर्म द बिलबोर्ड्स कलेक्टिव के साथ चार ऐसे ही आइडिया पर काम कर रहे हैं, जो उन्होंने 2018 में शुरू किया था। उन्होंने अपने पोर्टेबल हाउस का डिजाइन पेटेंट कराने के लिए भी आवेदन किया है। अपने पेटेंट और अन्य नई डिजाइनों के साथ वह उन शहरों के लिए कुछ समाधान निकालना चाहते हैं जहाँ जगहों और आवास की कमी है।

आप उन्हें यहाँ बिलबोर्ड्स कलेक्टिव इंस्टाग्राम पेज पर फॉलो कर सकते हैं।

मूल लेख- RINCHEN NORBU WANGCHUK

यह भी पढ़ें- भारत की ऐतिहासिक विरासत को संभाल, बाँस व मिट्टी के मॉडर्न घर बनता है यह आर्किटेक्ट  

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OIL India Recruitment 2020 : 12वीं पास के लिए निकली भर्तियाँ, आज ही करें आवेदन

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ऑयल इंडिया लिमिटेड (OIL) नवरत्न पब्लिक सेक्टर ने ऑपरेटर के पदों पर भर्ती के लिए आवेदन आमंत्रित किए हैं। इच्छुक व योग्य उम्मीदवार आधिकारिक वेबसाइट, https://oil-india.com/ पर ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं।

ऑनलाइन आवेदन करने की अंतिम तिथि : 18 सितंबर, 2020

पद का नाम: ऑपरेटर- I (HMV), ग्रेड- VII

पदों की संख्या: 36 पद

वेतनमान प्रति माह: 16,000 – 34,000 रूपये

Oil India Recruitment 2020
Representative Picture

शैक्षिक योग्यता और अनुभव:

  • सरकारी मान्यता प्राप्त बोर्ड / विश्वविद्यालय से किसी भी स्ट्रीम में 10 + 2 उत्तीर्ण।
  • क्रेन, ट्रेलर, तेल क्षेत्र उपकरण और अन्य भारी वाहनों को चलाने के लिए न्यूनतम 03 वर्ष का कार्य अनुभव होना चाहिए।

आयु सीमा: 18 से 30 वर्ष (आरक्षित वर्ग के लिए छूट है)

चयन प्रक्रिया: उम्मीदवारों का चयन लिखित परीक्षा और भारी वाहन ड्राइविंग टेस्ट के आधार पर होगा।

आवेदन शुल्क: जनरल और ओबीसी : 200 रूपये। एससी / एसटी / ईडब्ल्यूएस / पूर्व सैनिक उम्मीदवारों को कोई शुल्क का भुगतान नहीं करना है।

पूरा विज्ञापन पढ़ें: https://oilindia.onlinereg.in/advt0120/Images/OIL%20Online%20Advertisement_Operator-I%20(HMV).pdf

कैसे कर सकते हैं आवेदन: https://oilindia.onlinereg.in/advt0120/Images/How%20to%20Apply.pdf

आवेदन करने के लिए यहाँ क्लिक करें: https://oilindia.onlinereg.in/advt0120/frmprimaryreg.aspx#no-back-button

उम्मीदवारों से अनुरोध है कि विज्ञापन अच्छे से पढ़ने के बाद ही जॉब के लिए आवेदन करें!


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मिट्टी के बर्तन: जानिए कहाँ से खरीद सकते हैं और कैसे करें इस्तेमाल

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आधुनिक घरों में इस्तेमाल होने वाले नॉन-स्टिक या फिर एल्मुनियम के बर्तन भले ही आपकी किचन की खूबसूरती बढ़ाएं लेकिन इनमें खाना पकाना आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है। सबसे पहले तो नॉन-स्टिक परत के लिए इस्तेमाल हुआ पॉलीटेट्राफ्लूरोएथिलीन बहुत ही हानिकारक है। दूसरी तरफ, एल्मुनियम भी स्वास्थ्य के लिए सही नहीं है। इसलिए यह सुनिश्चित करें कि आप सुरक्षित रूप से खाना पकाएं जिससे आपका खाना सभी तरह के सिंथेटिक से बचा रहे।

इन बर्तनों के विकल्प आपको आज भी बहुत-से घरों में मिल जाएंगे जैसे स्टील, लोहे और मिट्टी के बर्तन। आजकल स्टील और लोहे के बर्तन तो फिर भी बाज़ारों में मिल जाते हैं लेकिन मिट्टी के बर्तन हर जगह नहीं मिलते। इसकी वजह भी हम लोगों से ही जुड़ी हुई है। आधुनिकता के चक्कर में लोगों ने मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल करना बंद कर दिया और इस वजह से इन्हें बनाने वाले कारीगर, जिन्हें कुम्हार कहते हैं, वह भी इस काम से दूर हो गए। क्योंकि अब उन्हें अपना घर तो चलाना ही है, इसलिए वो दूसरे व्यवसायों से जुड़ने लगे।

लेकिन वक़्त के साथ अब लोगों को समझ आ रहा है कि आधुनिकता के चक्कर में हम अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं। जो सही नहीं है। इसलिए एक बार फिर लोग अपने परंपरागत तरीकों की तरफ लौटने लगे हैं और मिट्टी के बर्तन खरीद रहे हैं। छोटे शहरों और गांवों में तो फिर भी आसपास मिट्टी के बर्तन मिलना आसान है लेकिन बड़े शहरों में रहने वाले लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता है।

Earthenware

आज द बेटर इंडिया आपको बता रहा है कि आप ऑनलाइन कहाँ से ये बर्तन खरीद सकते हैं। सबसे अच्छी बात है कि मिट्टी के बर्तन खरीदकर आप खुद तो एक बेहतर कदम बढ़ाते ही हैं, साथ ही आपकी एक खरीद से कारीगरों को भी सपोर्ट मिलता है।

सेहत से भरपूर हैं मिट्टी के बर्तन:

*मिट्टी के बर्तन पर्यावरण के अनुकूल होते हैं और बायोडिग्रेडेबल भी। इनसे प्रकृति को कोई नुकसान नहीं पहुँचता है।
*मिट्टी के बर्तनों की प्रकृति एल्कलाइन है, जिस वजह से ये खाने के पीएच लेवल को बैलेंस करते हैं।
*साथ ही, नॉन-स्टिक बर्तनों की तुलना में ये सस्ते भी होते हैं।

कहाँ से खरीद सकते हैं मिट्टी के बर्तन:

1. मिट्टीकूल:

Mansukh Prajapati (Source)

मिट्टीकूल की शुरुआत गुजरात के मनसुखभाई प्रजापति ने की और वह मिट्टी के बर्तनों से लेकर बिना बिजली चलने वाला मिट्टी का फ्रिज तक भी बना रहे हैं। कुम्हार परिवार में जन्मे मनसुख का परिवार कभी नहीं चाहता था कि वह मिट्टी का काम करें क्योंकि इसमें कुछ नहीं बचता था। पर मनसुख भाई ने नए-नए आइडियाज लगाकर उन्नत किस्म के बर्तन और दूसरी चीजें बनाईं। उनकी राह मुश्किल थी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

आज न सिर्फ भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनका नाम है। मिट्टीकूल के ज़रिये उन्होंने बहुत से कुम्हारों को रोज़गार भी दिया हुआ है।

Mitticool Fridge and Water-Filter

मिट्टीकूल से आप सभी तरह के बर्तन जैसे तवा, गिलास, प्लेट, हांडी, वॉटर जग, बोतल आदि खरीद सकते हैं। साथ ही, उनका फ्रिज भी काफी मशहूर है। मिट्टीकूल के बर्तन खरीदने के लिए यहां क्लिक करें: https://mitticool.com/

2. राजेंद्र क्ले हेंडीक्राफ्ट:

राजेंद्र प्रसाद प्रजापति साल 1990 से मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं। उन्होंने अपना व्यवसाय तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की मदद से शुरू किया था। हरियाणा के भोंडसी में स्थित भारत यात्रा केंद्र में उनकी दुकान है। उनके यहाँ से आप अपनी रसोई के लिए हर तरह के बर्तन ले सकते हैं, कढ़ाई, हांडी से लेकर फ्राई पैन तक।

Rajendra (Source)

राजेंद्र सभी बर्तन खुद बनाते हैं और इसमें उनका परिवार उनका पूरा सहयोग करता है। वक़्त की मांग को समझते हुए राजेंद्र ने बहुत-से नए-नए आइटम बनाना भी शुरू किया है जैसे केतली, जग, बोतल आदि। उनकी वेबसाइट पर आप विस्तार से उनके बर्तनों को देख सकते हैं। राजेंद्र ने अपना एक यूट्यूब चैनल भी बनाया हुआ है, जिस पर वह अपने बर्तनों के बारे में बताते हैं और साथ ही, यह भी बताते हैं कि इन्हें इस्तेमाल कैसे करना है?

राजेंद्र के यहाँ से आप ऑनलाइन बर्तन खरीद सकते हैं और अगर आप गुरुग्राम के पास किसी शहर में रहते हैं तो उनकी दुकान पर भी जा सकते हैं! यहाँ क्लिक करें!

3. ज़िस्ता कुकवेयर:

बेंगलूरू में स्थित ज़िस्ता कुकवेयर की शुरुआत तीन लोगों ने मिलकर की- आर्चिश माधवन, मीरा रामाकृष्णन और वरिश्ता संपत ने। इसके पीछे उनका उद्देश्य दिन-प्रतिदिन खत्म हो रही भारत के पारंपरिक ज्ञान और चीजों को सहेजना है।

ज़िस्ता के ज़रिए उन्होंने देश भर में 80 से ज्यादा कारीगरों को काम दिया है। साथ ही, ये लोगों तक पारंपरिक और पर्यावरण के अनुकूल बर्तन पहुंचा रहे हैं। ज़िस्ता कुकवेयर से आप लोहे और सोपस्टोन से बने बर्तनों के अलावा मिट्टी से बने बर्तन भी खरीद सकते हैं।

यहाँ से आप कढ़ाई, हांडी और जग के साथ-साथ चावल पकाने के लिए खासतौर पर तैयार पॉट भी खरीद सकते हैं। यह पॉट एक ख़ास तरह के ढक्कन के साथ आता है, जिसमें छेद करके इसे स्ट्रेनर का रूप दिया गया है।

आज ही ये बर्तन खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

4. माटीसुंग:

दिल्ली में स्थित मिट्टीसुंग एंटरप्राइज की स्थापना नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित कारीगर दुलीचंद प्रजापति के बेटे राज प्रजापति ने की। दुलीचंद 40 से भी ज्यादा सालों से मिट्टी का काम कर रहे हैं।

Pressure Cooker and Idli Maker

दुलीचंद ने 9 फीट की वाइन बोतल, 4 फीट का वाइन गिलास, 21 म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स के साथ एक पॉट आदि भी बनाया है। उनके काम और उनकी सोच को देखकर राज ने सोचा कि क्यों न उनकी विरासत को देश-दुनिया तक पहुँचाया जाए और उन्होंने माटीसुंग की शुरुआत की।

बोतल, कटोरी, गिलास, हांडी-कढ़ाई आदि बनाने के साथ-साथ माटीसुंग से आप मिट्टी का कुकर भी खरीद सकते हैं। उन्होंने चपाती रखने वाला डिब्बा और इडली मेकर भी बनाया है। उनके यहाँ से आप बल्क में भी ऑर्डर कर सकते हैं।

आज ही मिट्टी के बर्तन खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

5. क्ले हॉट पॉट:

Source: Clay Hot Pot

मिट्टी के बर्तन खरीदने के लिए आप क्ले हॉट पॉट भी देख सकते हैं। यहाँ से आप प्लेट-कटोरी, गिलास आदि के साथ-साथ बिरयानी हांडी, टिफ़िन आदि भी खरीद सकते हैं। अगर आप अपने घर के लिए मिट्टी का चूल्हा खरीदना चाहते हैं तो वह भी खरीद सकते हैं। यहाँ पर क्लिक करें!

कैसे करें इस्तेमाल:

  • मिट्टी के बर्तन खरीदने के बाद सबसे पहले आप उन्हें कम  से कम एक दिन तक पानी में भिगोकर रखें।
  • इसके बाद इन्हें सुखाकर इस्तेमाल करें।
  • हर रोज़ खाना पकाने से पहले लगभग 15-20 मिनट के लिए भी आप बर्तनों को पानी में भिगोकर इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • कभी भी बहुत तेज आंच पर न पकाएं। हमेशा आंच कम या फिर मध्यम स्तर की रखें
  • खाना पकने के बाद बर्तन को सीधा स्लैब पर न रखें बल्कि इसे रखने से ठंडा होने दें या फिर आप किसी कपड़े के ऊपर इसे रख सकते हैं।
  • मिट्टी के बर्तनों को धोने के लिए आप साबुन या फिर डिशवॉश लिक्विड का इस्तेमाल नहीं कर सकते। इसके लिए आपको राख, मिट्टी या फिर बेकिंग पाउडर का इस्तेमाल करना होगा। 
  • स्टील आदि के बर्तनों के लिए इस्तेमाल होने वाले स्क्रब की बजाय आप नारियल के छिलकों से बने स्क्रब इस्तेमाल कर सकते हैं। यह भी आपको ऑनलाइन मिल जाएगा।
  • बर्तन को धोने के बाद अच्छे से सूखने दें, इसके बाद ही स्टोर में रखें।

वीडियो देखें:

मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल करने के लिए आपको अपनी लाइफस्टाइल में थोड़ा बदलाव करना पड़ेगा, लेकिन यकीन मानिए यह बदलाव आपको एक बेहतर कल की तरफ ही ले जाएगा!


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हाउसवाइफ ने टेरेस से शुरू की थी फूलों की खेती, अब हर महीने कमा रहीं हैं 3 लाख रुपये

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बात 1998 की है, जब केरल के पलक्कड़ में रहने वाली सबीरा मोहम्मद एक गृहणी थीं और घर के काम निपटाने के बाद उनके पास काफी खाली समय बच जाता था और कभी-कभी वह काफी बोरियत महसूस करती थीं। इस बोरियत को दूर करने के लिए सबीरा ने अपने घर की टैरेस पर ऑर्किड(फूलों का एक प्रकार) उगाना शुरु किया।

सबीरा(दायें)

1998 में जिस काम को बोरियत दूर करने के लिए सबीरा ने अपने घर के टैरेस से शुरु किया था वह अब एक एकड़ ज़मीन में फैल चुका है। ऑर्किड फूलों की खेती के साथ सबीरा अब नर्सरी के व्यवसाय में भी आ चुकी हैं। अपने इस काम को आगे बढ़ाने में सबीरा को फेसबुक और व्हाट्सएप के माध्यम से बहुत मदद मिली है। अपना फेसबुक पेज लॉन्च करने के केवल तीन वर्षों के भीतर, करीब 5,000 फॉलोअर्स पेज से जुड़ गए हैं।

ऑर्किड फूलों की खेती करने वाली 53 वर्षीय सबीरा वर्तमान में हर महीने 3 लाख रुपये तक कमाती हैं। अब सवाल यह है कि कैसे एक गृहिणी ने फूलों से अपने प्रेम को एक व्यवसाय में बदल दिया है?

जब फूल बन गए साथी

how to grow orchids
कुछ ऐसी होती है ऑर्किड फूलों की फसल

करीब 22 साल पहले सबीरा ने ऑर्किड फूलों की खेती करनी शुरु की थी और तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है।

सबीरा बताती हैं, 1982 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और उसके बाद ही उनकी शादी हो गई। शादी के बाद वह अपने पति के साथ यूएई चली गईं। करीब सात साल वहाँ रहने के बाद, वह 1989 में त्रिशूर अपने घर लौटीं। उनके पति का अपना बिजनेस था। सबीरा बताती हैं कि उनके पति और तीन बच्चे सुबह ही काम और स्कूल के लिए निकल जाते थे। इसके बाद पूरा दिन उनके पास खाली समय रहता था।

अपने खाली समय में सबीरा ने बागवानी में हाथ आज़माने का सोचा।  शुरुआत में, उन्होंने छत पर गमलों में चमेली और एंथुरियम जैसे फूल लगाए। जब बागीचे में फूल खिलने लगे तब उन्होंने ऑर्किड फूलों  की खेती की ओर काम शुरु किया।

सबीरा बताती हैं, “समय के बीतने के साथ, मैं टैरेस की बागवानी को 1 एकड़ जमीन तक ले गई। मैंने कृषि भवन से सैपलिंग इकट्ठा करना शुरू किया और यहाँ तक ​​कि थाईलैंड जैसी जगहों से उन्हें आयात करना शुरू कर दिया। हालाँकि, मैंने खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ाया, फिर भी, मैं इससे संबंधित बिजनेस करने के बारे में निश्चित नहीं थी।”

जब आया महत्वपूर्ण मोड़…

how to grow orchids

सबीरा की ऑर्किड फूलों  की खेती ने 2006 में काफी लोकप्रियता हासिल की जब उन्होंने बागवानी के क्षेत्र में अपने अद्भुत काम के लिए केरल राज्य सरकार द्वारा दिए जाने वाला उद्यान श्रेष्ठ पुरस्कार जीता था। उन्हें अपने क्षेत्र के कृषि भवन द्वारा इसके लिए नामांकित किया गया था। इस पुरस्कार ने उनके बगीचे को काफी ज़्यादा लोकप्रियता दिलाई और राज्य भर से कई लोग उसे देखने आने लगे।

सबीरा बताती हैं, “यह निश्चित रूप से मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। मैंने देखने आने वाले इच्छुक लोगों को पौधे बेचने शुरू किए और साथ ही दूर जिलों में रहने वालों को भी भेजना शुरु किया।”

सबीरा के बगीचे में करीब 500 किस्म में ऑर्किड है जिनमें डेन्ड्रोबियम, कैटेलस, वांदा, ऑन्सिडियम जैसे फूल शामिल हैं। उन्होंने बगीचे के साथ ग्रीनहाउस की भी स्थापना की है।

how to grow orchids

सबीरा कहती हैं कि उनके पति मुहम्मद और सबसे छोटे बेटे, सिबिन ने उनका बहुत समर्थन किया और उन्हें नर्सरी खोलने के लिए प्रेरित किया। आखिरकार 2017 में, त्रिशुर में पर्ल ऑर्किड्स नाम से उन्होंने एक नर्सरी खोली। बगीचे को शुरू करने के लिए शुरुआत में उन्होंने करीब 20 लाख रुपये का निवेश किया।

खेती को आसान बनाने के लिए उन्होंने मिस्ट सिंचाई प्रणाली के साथ एक ग्रीनहाउस की स्थापना की। इसी समय, उन्होंने एक फेसबुक पेज शुरू किया और ग्राहक के ऑर्डर के लिए व्हाट्सएप का उपयोग किया।

सबीरा कहती हैं कि नर्सरी के मार्केटिंग के लिए उन्होंने केवल अपने ऑर्किड फूलों की तस्वीरें ही पोस्ट की। लेकिन केवल तीन साल की अवधि में, यह राज्य का सबसे लोकप्रिय आर्किड नर्सरियों में से एक बन गया।

how to grow orchids
मॉल में लगी सबीरा के ऑर्किड फूलों की प्रदर्शनी

सुजन कुरियाचिरा पिछले एक साल से पर्ल ऑर्किड के ग्राहक हैं। वह कहते हैं, “ऑर्किड की कीमत 250 रुपये से शुरू होती हैं और पैकेजिंग शानदार होती है। बिना किसी उर्वरक के ये पौधे लगभग 6-7 दिनों तक ताजा रहते हैं। ”

हाल ही में, सबीरा ने ऑर्किड के लिए खाद के लिए एक गीर गाय में निवेश किया है। इसके अलावा, वह अपने फूलों को उगाने के लिए किसी भी तरह के केमिकल वाले खाद का इस्तेमाल नहीं करती है। पिछले तीन वर्षों से, हर महीने उनकी कमाई 3 लाख रुपये हो रही है जिसमें से 50,000 रुपये वह वापस इसकी खेती में लगाती हैं।

how to grow orchids

सबीरा कहती हैं कि कई लोगों ने उनसे बिजनेस टिप्स के लिए संपर्क किया है। लेकिन वह कहती हैं कि इसमें जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। वह कहती हैं, “यहाँ तक पहुँचने में मुझे 22 साल लगे हैं। अगर आप अपना व्यवसाय शुरू करना चाहते हैं, तो पहला कदम इसके प्रति रुचि पैदा करना है, बाकी सब अपने आप होगा।”

आप उनके फेसबुक पेज पर्ल ऑर्किड के माध्यम से ऑर्डर दे सकते हैं।

मूल लेख- SERENE SARAH ZACHARIAH

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जैविक दाल, मसालों से लेकर रागी की आइस-क्रीम तक, स्वदेशी को बढ़ावा दे रहा है यह युवक

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स्कूल में ठेले वाले से 1-2 रुपये में कुल्फी खरीदकर खाने से लेकर अमूल और नेचुरल्स के पार्लर में अलग-अलग फ्लेवर ट्राई करने के बीच में बहुत कुछ बदला है। मैं गर्मियों में तो क्या सर्दियों में भी कभी आइसक्रीम के लिए मना न करूँ। कभी-कभी तो सर्दी-जुकाम होने पर भी मैं आइसक्रीम खा लेती हूँ। खैर, अब तक दूध, फलों-सब्जियों और चॉकलेट को प्रोसेस करके बनी आइसक्रीम्स के बारे में तो हमने सुना है लेकिन अगर मैं आपको बताऊँ कि सुपरफ़ूड के नाम से जाने जाने वाले रागी, ज्वार जैसे अनाजों से भी आइसक्रीम बन रही है तो आपको हैरानी ज़रूर होगी।

जी हाँ, यह कमाल किया है कोयम्बटूर के एक ब्रांड, आद्यम ने। जेएसएस नेचर फूड्स स्टार्टअप की ब्रांड आद्यम ग्राहकों को पौष्टिक अनाजों से बनी आइसक्रीम भी खिला रहा है। आइसक्रीम के साथ-साथ आद्यम पारंपरिक तरीकों से बने मसाले और रागी जैसे मिलेट्स से बनी सेवैयाँ और नूडल्स भी बना कर बेच रहा है।

32 वर्षीय भार्गव आर. ने पिछले साल आद्यम की नींव रखी और आज वह कोयम्बटूर से बाहर भी एक अच्छी पहचान बना चुके हैं। एक साधारण से परिवार से आने वाले भार्गव के घर में कभी किसी ने व्यवसाय के बारे में नहीं सोचा। लेकिन भार्गव हमेशा से कुछ अलग करना चाहते थे। उन्होंने स्कूल के बाद ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई डिस्टेंस से की। वह बताते हैं कि उन्होंने बैंक में छोटी-मोटी नौकरी से अपनी शुरुआत की। इसके बाद, वह एक शोरूम में काम करने लगे और फिर मोबाइल की एक्सेसरीज का अपना काम शुरू किया।

R. Bhargav

वह बताते हैं कि फ़ूड बिज़नेस में आने से पहले वह कंस्ट्रक्शन के बिज़नेस से जुड़े हुए थे। उन्होंने कहा, “मुझे अलग-अलग सेक्टर में काम करने का लगभग 17 साल का अनुभव है। फ़ूड बिज़नेस के आने के पीछे की कहानी काफी लंबी है। लगभग 9 साल तक की रिसर्च के बाद मैंने अपने ब्रांड शुरू किया। इसके ज़रिए मेरा उद्देश्य ग्राहकों से सीधा जुड़कर उन्हें पारंपरिक-प्राकृतिक रूप से बने खाद्य उत्पाद उपलब्ध कराना है।”

भार्गव को हमेशा से ही किसी भी उत्पाद के बनने का तरीका और उसके पीछे की कहानी जानने की दिलचस्पी रही है। वह कहते हैं कि अगर वह एक बिस्किट भी खाएं तो उसके इंग्रेडीएंट्स देखना उनके लिए ज़रूरी है। इसी सबके दौरान उन्होंने अपने आस-पास दैनिक रूप से खाने में आने वाले खाद्य पदार्थों पर रिसर्च करना शुरू किया। उन्हें महसूस हुआ कि कैसे हम अपनी लाइफस्टाइल में खाने के प्रोडक्ट्स की गुणवत्ता पर ध्यान देना भूल गए हैं। उन्होंने एक बार फिर पारंपरिक तमिल खाद्य पदार्थों को लोगों तक पहुंचाने का फैसला किया।

“मैंने अपने काम के साथ-साथ इस पर रिसर्च करना भी शुरू कर दिया। सबसे पहला काम था फ़ूड मार्केट को समझना, फिर ग्राहकों को और फिर कहाँ से कैसे पारंपरिक रॉ मटेरियल लिया जा सकता है, इस सब पर काम किया। मार्केट रिसर्च के साथ-साथ मैंने किसानों से भी संपर्क किया। ऐसे किसान जो प्राकृतिक और पारंपरिक तरीकों से खेती कर रहे हैं। इस सबमें मेरे कुछ दोस्तों ने भी मेरी काफी मदद की,” उन्होंने बताया।

उन्होंने अलग-अलग किसानों से अलग-अलग अनाज और मसाले खरीदकर, उनके खेतों के पास ही प्रोसेसिंग यूनिट्स में इन्हें बनवाना शुरू किया। मसालों के बाद, अन्य प्रोडक्ट्स जैसे वेर्मेसिली और नूडल्स पर काम किया गया। प्रोडक्ट्स को बनाने में उन्होंने फ़ूड एक्सपर्ट्स के साथ अपने परिवार और दोस्तों से भी मदद ली। लगभग 35 लोगों ने उनके प्रोडक्ट्स की टेस्टिंग में भाग लिया। भार्गव के मुताबिक, जिन लोगों ने उनके प्रोडक्ट्स की टेस्टिंग में उनकी मदद की वही उनके पहले ग्राहक भी बने।

Some of His Products

“इन 30-35 लोगों ने ही आगे हमारे प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग की। इस तरह से करते-करते आज सैकड़ों परिवार आद्यम ब्रांड के प्रोडक्ट्स इस्तेमाल कर रहे हैं। जिन ग्राहकों की शुरूआत 50 रुपये के ऑर्डर से हुई थी, आज वह महीने में 1500-2000 रुपये तक का ऑर्डर देते हैं,” उन्होंने बताया।

आद्यम ब्रांड के अंतर्गत, आज वह सभी तरह के मसाले, 9 तरह के अनाजों की सेवैयां (बिना किसी मैदे के इस्तेमाल से बनी), नूडल्स, शुद्ध जंगली शहद, और मिलेट्स से बनी आइसक्रीम बेच रहे हैं। भार्गव के मुताबिक, उनके ग्रोसरी प्रोडक्ट्स के लगभग 5000 ऑर्डर्स उन्हें प्रति माह मिलते हैं। इसके अलावा, उनके आइसक्रीम पार्लर में हर दिन 50 से 60 ऑर्डस आते हैं। रागी से बनी उनकी आइसक्रीम बड़ों से लेकर बच्चों तक, सभी के मन भायी हुई है। फ़िलहाल, कोविड-19 के चलते वह सरकार द्वारा निर्देशित सभी सुरक्षा नियमों का पालन भी कर रहे हैं।

उनके सभी उत्पाद स्वाद और सेहत, दोनों ही तौर पर ग्राहकों की नज़रों में खरे उतर रहे हैं। उनके एक ग्राहक, कुमारवेल राजा का कहना है कि उनके नूडल्स में जीरो मैदा का उनका वादा बिल्कुल सच है। उन्होंने उनके सभी नूडल्स ट्राई किए हैं और उन्हें सभी बहुत पसंद आए। आद्यम के सभी प्रोडक्ट्स स्वादिष्ट होने के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी पौष्टिक हैं।

Ice-creams

वहीं नंदिनी जनार्दन उनके प्रयासों को सराहते हुए इनकी आइसक्रीम ट्राई करने की सलाह देती हैं। वह कहतीं हैं कि उनकी आइसक्रीम में कोई आर्टिफीसियल तत्व नहीं होता, सभी कुछ प्राकृतिक चीजों से बनाया जाता है।

फ़िलहाल, भार्गव और उनकी टीम 50 से ज्यादा तरह के प्रोडक्ट्स बेच रही है। हालांकि, आने वाले समय में उनकी यह लिस्ट और लंबी जाएगी। वह कहते हैं, “आने वाले दो-तीन साल में हम अपने बिज़नेस का स्केल बढ़ाएंगे और कोशिश करेंगे कि हमारे सभी प्रोडक्ट्स एक ही जगह बनाकर तैयार हों।”

इन्वेस्टमेंट के बारे में बात करते हुए भार्गव कहते हैं कि उन्होंने एकदम से इस बिज़नेस को शुरू नहीं किया। बल्कि अपने पहले काम को जारी रखते हुए वह कुछ न कुछ नया करते रहे। लगभग 9 सालों तक उन्होंने इसकी तैयारी की और फिर अपना ब्रांड बाज़ार में उतारा। इसलिए उन्होंने एकदम से कुछ बड़ा इन्वेस्ट भी नहीं किया। उन्होंने समय ज्यादा लिया और इन्वेस्टमेंट धीरे-धीरे और कम की। इसके अलावा, उन्होंने खुद अपने प्रोडक्ट्स को ग्राहकों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी ली। वह कहते हैं, “डीलर्स और सुपरमार्केट्स को अपना प्रोडक्ट बेचने के लिए देने की बजाय उन्होंने खुद ग्राहकों से जुड़ने का फैसला किया। बड़े-बड़े डीलर्स की बजाय उन्होंने गृहणियों को आगे आने के लिए कहा। इससे गृहणियों को भी कुछ करने का मौका मिला और उन्हें भी मार्केटिंग में बड़ा इन्वेस्टमेंट नहीं करना पड़ा।”

लोगों से मिल रही प्रतिक्रिया के आधार पर भार्गव और उनकी टीम आने वाले समय में अपने बिज़नेस के लिए प्लानिंग में जुटी है। वह कहते हैं कि टर्नओवर के बारे में बात करना शायद अभी बहुत जल्दी होगा लेकिन वह इतना यकीन से कह सकते हैं कि एक दिन उनके प्रोडक्ट्स ‘मेड इन इंडिया’ की पहचान होंगे।

लॉकडाउन के बारे में बात करते हुए वह कहते हैं कि बेशक, यह समय मुश्किल था। लेकिन अगर यह मेरे स्टार्टअप के लिए मुश्किल समय था तो बड़े से बड़े बिज़नेस के लिए भी मुश्किल था। स्टार्टअप को तो फिर भी कम नुकसान हुआ लेकिन बड़े-बड़े व्यवसायों का क्या? इसलिए उन्होंने खुद को बिल्कुल भी हताश नहीं होने दिया।

Natural Honey

वह बताते हैं, “यही एक व्यवसायी होने की खूबी है कि आप अपने विपरीत परिस्थितयों को कैसे संभालते हो। इसलिए मैं हमेशा लोगों को सलाह देता हूँ कि किसी एक चीज़ पर ही अटक कर मत रहो। अपने बिज़नेस के साथ हर दिन नया सीखो। हर दिन कुछ नया करने की कोशिश करो ताकि समय कैसा भी लेकिन तुम सर्वाइव कर पाओ।”

भार्गव सभी उद्यमियों को हर दिन अपनी स्किल्स और अपने प्रोडक्ट्स पर काम करते रहने की सलाह देते हैं। इसके साथ ही, वह लोगों के लिए एक मैसेज देते हुए कहते हैं कि अब वक़्त है कि हम भारतीय उत्पादों को सपोर्ट करें। मेड इन इंडिया और लोकल-वोकल सिर्फ शब्द नहीं होने चाहिए। बल्कि अब हर परिवार को अपने किसी एक बच्चे को नौकरी की जगह उद्यमी बनने की सलाह देनी चाहिए।

“हमारे यहाँ नौकरी को सुरक्षित समझा जाता है लेकिन इससे आप अपने देश की अर्थव्यवस्था के लिए क्या कर पा रहे हो। इस बात पर फोकस करना ज़रूरी है। हमारी अर्थव्यवस्था तब सही होगी जब भारतीय उद्यम बाज़ार में होंगे। इसलिए मैं सबको यही कहूँगा कि अगर आपका कोई बच्चा अपना कुछ शुरू करना चाहता है तो उसका हौसला बढ़ाएं और उसे ईमानदारी से इस रह पर आगे बढ़ने के लिए कहें। इसके साथ ही, ज़रूरी है कि भारतीय ग्राहक अच्छे और गुणवत्ता वाले भारतीय उत्पादों को सपोर्ट करें,” उन्होंने अंत में कहा।

अगर आप भार्गव आर से संपर्क करना चाहते हैं तो उनके फेसबुक पेज पर क्लिक कर सकते हैं!


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वुडेन स्टोव, लेमन कटर से खेती की मशीनों तक, 10वीं पास ने किए 20 से भी ज्यादा इनोवेशन!

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गुजरात के जूनागढ़ के पिखोर गाँव के रहने वाले भरत भाई अग्रावत को क्रियात्मक और रचनात्मक सोच अपने पिता अमृत भाई से विरासत में मिली। अमृत भाई की किसानी के साथ-साथ मशीनों से भी सांठ-गांठ थी। इसलिए अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों को वे अपने जुगाड़ों से हल कर लेते थे।

भरत भाई को अगर हम एक सीरियल इनोवेटर भी कहें तो गलत नहीं होगा क्योंकि उन्होंने एक के बाद एक नए- नए इनोवेशन किये हैं। आज भी उनका इनोवेशन का सिलसिला बिना रुके जारी है।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए 53 वर्षीय भरत भाई ने बताया, “जब मैंन तीसरी कक्षा में था तब मेरे पिता जी ने अपना वर्कशॉप शुरू किया था। मैं भी स्कूल के बाद उनके पास पहुँच जाता। वे जो भी करते देखता रहता था और खुद मेरे दिमाग में भी तरह-तरह के आईडिया आते थे। पिताजी लोगों के लिए तरह-तरह की मशीन बनाकर देते थे और फिर उन्होंने एक बार खास तरह की बैलगाड़ी बनायी, जिसके लिए नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन से उन्हें सम्मान मिला।”

Bharatbhai Agrawat

भरत भाई हंसते हुए बताते हैं कि जब उनके पिता प्रोफेसर अनिल गुप्ता जी से मिले और उन्होंने उनसे कहा कि आप इनोवेशन कर रहे हैं। तब कहीं उन्हें पता चला चला कि वे इनोवेटर हैं और उनके इनोवेशन किसानों के लिए कितने हितकर हैं। अपने पिता की यह सराहना और सफलता भरत भाई के लिए प्रेरणा बनी।

भरत भाई को पढ़ाई में भले ही कम दिलचस्पी थी पर मशीनों से उनका रिश्ता हर दिन गहरा होता गया। स्कूल जाने से पहले वे वर्कशॉप खोलते, वहां धूप-अगरबत्ती करते और फिर दिन में क्या-क्या काम होगा यह भी एक बार देखते। फिर स्कूल से आकर देर रात तक अपने पिता के साथ काम करते।

यह भी पढ़ें: प्रोफेसर बना कृषि इनोवेटर, सौर ऊर्जा से किया किसानों का काम आसान!

फिर दसवीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और पूरा वक़्त वर्कशॉप में बिताने लगे। पिता की मदद करते-करते खुद उन्होंने कब इनोवेशन करना शुरू कर दिया, उन्हें पता भी नहीं चला। उन्होंने अब तक शायद 20 से भी ज्यादा इनोवेशन किये हैं, जिनमें से कुछ के लिए उन्हें दो बार राष्ट्रीय सम्मान मिला है।

सबसे पहले साल 1999 में उन्होंने विंडमिल पॉवर्ड वाटर पंप बनाया था, जिसके लिए उन्हें ज्ञान संस्था से काफी सराहना भी मिली। हालांकि, वे इस प्रोजेक्ट को बड़े स्तर पर नहीं कर पाए, लेकिन भरत का मनोबल कम नहीं हुआ। क्योंकि उन्हें पता था कि वे सही दिशा में काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने पास आने वाले किसानों की समस्याओं को हल करने पर ध्यान दिया।

Windmill Powered Water Pump

“हम गाँव में रहने वाले लोग हैं और गाँव की मुश्किलों को अच्छे से जानते हैं। इसलिए हमेशा यही कोशिश रही कि उनके लिए कुछ कर पाए। जब हमें यह हुनर मिला है तो गाँव के भले के लिए इस्तेमाल करें,” उन्होंने कहा।

साल 2000 में उन्होंने ‘रोलरमढ़’ नामक एक मशीन बनायीं जो कि भूमि को समतल करने के लिए है। अक्सर खेतों में मिट्टी के टीले होने से ज़मीन ऊँची-नीची रहती है और इस वजह से किसानों को बुवाई और सिंचाई करते समय काफी समस्या आती है। फिर बड़े वाला रोलर बुलाना हर एक किसान के लिए मुमकिन नहीं, इसलिए उन्होंने इसपर काम किया।

लेमन कटर:

इसके बाद उन्होंने निम्बू तोड़ने के लिए एक जुगाड़ बनाया। दरअसल, जब निम्बू के पेड़ पर कांटे होने की वजह से यह बहुत मुश्किल भरा काम हो जाता है। इसलिए भरत भाई ने ‘लेमन कटर’ बनाया- उन्होंने इसके लिए एक पीवीसी पाइप लिया जिसकी लम्बाई को कम-ज्यादा किया जा सकता है। इसके एक सिरे पर उन्होंने कैंची लगाई जाती है जो कि लीवर की मदद से काम करती है। दूसरे सिरे से जब लीवर को खींचते हैं तो कैंची काम करती है और वह निम्बू को टहनी से काट लेती है।

यह हमें भले ही छोटा-सा काम लगे पर निम्बू की खेती करने वाले किसानों के लिए यह बहुत ही कारगर यंत्र है। क्योंकि इससे न तो उनके हाथों को नुकसान पहुँचता है और न ही पेड़ को।

मल्टी-पर्पज वुडेन स्टोव:

“फिर गाँव में महिलाएं मिट्टी के चूल्हे पर काम करती हैं और इससे उनकी बहुत मेहनत लगती है। क्योंकि एक तो चूल्हा एक होने से वे एक साथ कई चीजें नहीं पका सकतीं। और दूसरा लकड़ी आदि भी काफी लग जाती हैं। इसलिए मैंने मल्टी-पर्पज वुडेन स्टोव बनाया,” उन्होंने आगे कहा।

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उनके बनाये स्टोव में दो कुकिंग चैम्बर और पानी गर्म करने के लिए एक गीजर सिस्टम है। दोनों कुकिंग चैम्बर का इस्तेमाल साथ में किया जा सकता है, इससे लकड़ी और समय- दोनों की बचत होती है। सभी कुकिंग और हीटिंग चैम्बर्स को अलग-अलग लेवल पर रखा गया है ताकि हीट एक समान मिले।

स्टोव के अंदर की तरफ मिट्टी का इस्तेमाल किया गया क्योंकि इसमें काफी समय तक हीट को रिटेन करने की क्षमता होती है। साथ ही, एक चैम्बर के दोनों तरफ हवा पास होने के लिए छिद्र किये गये हैं ताकि स्टोव आसानी से ठंडा हो सके।

भरत भाई के मुताबिक उन्होंने अब तक लगभग 3000 वुडेन स्टोव गाँव की महिलाओं में बेचे हैं। इसके बाद उन्होंने छोटे किसानों की ज़रूरतों को समझा और अपने हुनर को उनकी मदद के लिए लगाया। किसानों के लिए उनके आविष्कारों में सबसे ज्यादा मशहूर हाथ से चलने वाली सीड ड्रिल, जिसमें कई बार उन्होंने किसानों की मांग पर संशोधन भी किये और सैकड़ों किसानों की मदद की।

हैंड ऑपरेटड सीड ड्रिल:

भरत भाई कहते हैं कि यह मशीन बीज की बुवाई में काफी काम आती है। इससे आप कई फसलों का बीज- तुअर, चना, मूंगफली आदि बो सकते हैं। यह मशीन कस्टमाइजेबल है और छोटे किसानों के लिए काफी हितकर है। उन्होंने अब तक लगभग 1200 सीड ड्रिल किसानों को बेचीं हैं। उनकी कुछ सीड ड्रिल तो ज्ञान फाउंडेशन के ज़रिये केन्या तक गयी हैं।

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“फिर कुछ किसानों की मांग आई कि सीड ड्रिल को मशीन से चलाया जाये। तो मैंने थोड़ा मॉडिफिकेशन करके बैटरी ऑपरेटड मशीन बनाई। इसकी कीमत 2500 रुपये है और यह किसानों के लिए काफी काम की चीज़ है। एक तो कम ज़मीन वाले किसानों के लिए अच्छा विकल्प है, दूसरा इससे मल्टी-क्रॉपिंग में काफी मदद मिलती है,” भरत भाई ने बताया।

सीड ड्रिल की ही तरह उन्होंने हाथ से काम करने वाला वीडर भी बनाया। किसानों के बीच उनकी सीड ड्रिल और वीडर- दोनों मशीन की काफी मांग है।

इसके अलावा उन्होंने ट्रेक्टर को मॉडिफाई करके भी 7-8 मॉडल बनाये हैं। “ये सभी मॉडल अलग-अलग ज़रूरतों को ध्यान में रखकर बनाये गये हैं। हमारे इलाके में बहुत से किसान हमारे बनाये हुए ट्रेक्टर ही इस्तेमाल सकते हैं। बड़े किसान जहां 35 हॉर्सपॉवर वाले सामान्य ट्रेक्टर इस्तेमाल करते हैं, तो छोटे किसानों को मैं 10 हॉर्स पॉवर तक के ट्रेक्टर बनाकर देता हूँ।”

किसी-किसी ट्रेक्टर में उन्होंने ऑटो-रिक्शा का इंजन इस्तेमाल किया है। इन ट्रेक्टर को इस तरह से मॉडिफाई किया गया है कि किसान इनसे आसानी से जुताई-बुवाई कर सके।

भरत भाई को उनके इनोवेशन के लिए दो बार राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा गया है। उनके आविष्कारों का सिलसिला अभी भी बरकरार है और उनकी कोशिश है कि वे अपनी आखिरी सांस तक यह काम करते रहें। “ज्ञान संस्था की मदद से हमने अपने इलाके में एक कम्युनिटी वर्कशॉप शुरू की। यहाँ पर किसान अपने समस्याएं हमारे पास लेकर आते हैं और हम उनके आईडिया के मुताबिक मशीन बनाकर देते हैं,” उन्होंने कहा।

Different Models of Tractor

इस तरह से भरत भाई शायद अब तक सैकड़ों मशीन बना चुके हैं। उन्होंने जितनी मशीन बनाई हैं उनके सफर में चुनौतियाँ भी उतनी ही रही हैं। सबसे बड़ी चुनौती है सीधा बाज़ार न मिल पाना।

उनका कहना है कि बड़ी कंपनी मशीन बनाकर बाज़ारों में उतार देती हैं और फिर उन्हें कृषि विभागों से इसकी मार्केटिंग करने की अनुमति भी आसानी से मिल जाती है। पर उनके जैसे छोटे इनोवेटर कितने भी कारगर आईडिया दे दें, उनके प्रोडक्ट को उस तरह से मार्किट नहीं किया जाता, जिस तरह से होना चाहिए।

उनकी शिकायत है कृषि मंत्रालय और विभाग से कि जब वे किसानों के हित के लिए कम से कम लागत की मशीनें बना रहे हैं तो उन्हें कोई मदद क्यों नहीं मिलती? “मुझे बस यही लगता है कि एक किसान जब दूसरे किसानों के लिए काम करने को तैयार है तो सरकार और प्रशासन को उनके लिए कदम उठाने चाहिए। उन्हें हमारे बनाये इनोवेशन पर सब्सिडी देकर किसानों की मदद करनी चाहिए,” भरत भाई ने कहा।

हालांकि, प्रो. अनिल गुप्ता के मार्गदर्शन में वह काफी आगे बढ़ें हैं और उन्हें उम्मीद है कि उनके आविष्कार इसी तरह देश के किसानों के काम आते रहेंगे। फ़िलहाल, वह अपनी मशीनों को सोलर उर्जा से चलाने के लिए मॉडिफाई कर रहे हैं।

“आखिर में, मैं बस यही कहूँगा कि जो भी लोग यह कहानी पढ़ेंगे, वे अगर किसान हैं तो किसी भी तरह की मशीन बनाने के लिए हमें सम्पर्क करें। और अगर किसान भी नहीं हैं तो भी अपने आस-पास के किसानों को हमारे बारे में बताकर हमसे जोड़ें। हमें ख़ुशी होगी किसी की भी मदद करके।”

यदि आपको इस कहानी ने प्रभावित किया है और आप भरत भाई अग्रावत के बारे में अधिक जानना चाहते हैं या फिर कोई मशीन उनसे खरीदना चाहते हैं तो 09925932307 या 09624971215 पर कॉल कर सकते हैं!


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12वीं पास युवक ने शुरू किया प्रोसेसिंग का व्यवसाय, 650 आदिवासी महिलाओं को मिला रोज़गार

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यह कहानी राजस्थान के पाली जिला के बेड़ा गाँव के राजेश ओझा की है। 12वीं तक की शिक्षा पूरी होने के बाद से राजेश रोजगार की तलाश में जुट गए थे। रोज़गार के सिलसिले में वह मुंबई चले गए और वहाँ कई अलग-अलग जगहों पर नौकरी की तो कई बार अपना व्यवसाय जमाने की कोशिश भी की। कभी सफलता मिली तो कभी असफलता और लगभग 16-17 साल के अनुभव के बाद उन्होंने कुछ ऐसा करने की ठानी, जो न सिर्फ उनके लिए बल्कि ज़रुरतमंदों के लिए भी फायदेमंद हो।

मुंबई से लौटकर आज वह जोवाकी एग्रोफ़ूड नामक एक सोशल एंटरप्राइज चला रहे हैं, जिसके ज़रिए उदयपुर के गोगुंदा और कोटरा उपखंड क्षेत्र के आदिवासी समुदायों को रोज़गार मिल रहा है।

राजेश ने द बेटर इंडिया को बताया कि कई सालों तक बाहर काम करने के बाद वह अपने गाँव लौट आए क्योंकि उनकी वह अपने इलाके के लिए कुछ अलग करना चाहते थे।

Rajasthan Food Processing Business
Rajesh Ojha

राजेश अपने इलाके के लिए कुछ करना तो चाहते थे लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें किस व्यवसाय में हाथ डालना चाहिए। उन्होंने बताया, “पाली जिला में बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग हैं। इसके अलावा गोगुंदा आदि क्षेत्रों में भी आदिवासी समुदाय बसे हुए हैं। यहाँ पर उनके रोज़गार का मुख्य साधन जंगलों से मिलने वाले सीताफल और जामुन आदि हैं। पुरुष दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं तो महिलाएं जंगलों से ये फल इकट्ठा करके सड़क किनारे बेचती हैं। दिन के 100 रुपये भी वो बड़ी मुश्किल से कमा पातीं हैं।”

राजेश ने जब महिलाओं की यह दशा देखी तो उन्हें लगा कि कुछ करना चाहिए। लेकिन ऐसा क्या किया जाए कि इन महिलाओं के जीवन में सुधार आए। इस सिलसिले में उनकी मुलाक़ात उदयपुर एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. राम अवतार कौशिक से हुई। उन्होंने उनसे विचार-विमर्श किया और उनसे समझा कि कैसे फ़ूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में कुछ करके वह इलाके की महिलाओं के लिए रोज़गार उत्पन्न कर सकते हैं। राजेश ने इस बारे में जानकारी इकट्ठा करना शुरू किया और डॉ. कौशिक से ट्रेनिंग ली।

बनाया महिलाओं का समूह

इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे महिलाओं का समूह बनाया और सभी को आश्वासन दिया कि वह उनसे बाजार भाव में सीताफल हर दिन खरीदेंगे। साल 2017 में राजेश ने जोवाकी एग्रोफ़ूड इंडिया की नींव रखी और इसे कोई कमर्शियल कंपनी बनाने की बजाय सोशल एंटरप्राइज बनाया। इसके अंतर्गत उन्होंने 12 गाँव की महिलाओं का समूह बनाया और उन्हें कई चरणों में ट्रेनिंग दी गई।

“अक्सर महिलाएं सीताफल को पूरा पकने से पहले ही तोड़ लेती थी। हमने उनकी सही ट्रेनिंग कराई कि कब सीताफल को तोड़ना है, ग्रेडिंग कैसे करनी है और इकट्ठा करके प्रोसेसिंग सेंटर तक पहुँचाना है। हर गाँव में संग्रहण केंद्र बनाए हैं, जहां महिलाएं सीताफल और जामुन आदि इकट्ठा करके देती हैं। इन संग्रहण केंद्रों पर महिला इंचार्ज भी नियुक्त की गई हैं,” उन्होंने बताया।

Training Women

ये महिलाएं सीताफल इकट्ठा करके प्रोसेसिंग सेंटर तक पहुंचाती हैं। इसके बाद, लगभग 150 महिलाओं को इसका पल्प बनाने की ट्रेनिंग दी गई। पल्प बनाने के बाद, सीताफल को हार्डनर में हार्ड करके कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है और यहाँ पर कुछ महिलाएं काम करती हैं। कोल्ड स्टोरेज में रखे गए सीताफल के पल्प को मांग के हिसाब से कंपनियों को सप्लाई किया जाता है। हम सब जानते हैं कि सीताफल की आइस-क्रीम इंडस्ट्री में काफी ज्यादा मांग है। जोवाकी एग्रोफ़ूड भी बड़ी आइस-क्रीम कंपनियों को पल्प की बिक्री करती है।

महिलाओं की ट्रेनिंग के लिए उन्हें आईसीआईसीआई फाउंडेशन से काफी ज्यादा मदद मिली है

राजेश आगे बताते हैं कि सीताफल के बाद उन्होंने जामुन पर फोकस किया। इस इलाके में सीताफल के अलावा जामुन भी खूब होता है। जामुन के पल्प का इस्तेमाल जूस बनाने और आइस-क्रीम आदि बनाने में होता है तो वहीं इसकी गुठली पाउडर बनाने में काम आती है। जामुन को डायबिटीज के मरीजों के लिए काफी उत्तम माना जाता है।

Processing of Custard apple and blackberries

राजेश कहते हैं, “पिछले साल हमने लगभग 90 हज़ार टन सीताफल की तो लगभग 10 टन जामुन की प्रोसेसिंग की है और उनका टर्नओवर 60 लाख रुपये था। वर्तमान में, 2 गांवों में उनके प्रोसेसिंग सेंटर, 12 गांवों में संग्रहण केंद्र हैं, जिनमें लगभग 650 महिलाओं को रोज़गार मिला हुआ है। जो महिलाएं पहले मुश्किल से महीने के हज़ार रुपये कमा पाती थी, अब वह ढाई से तीन हज़ार रुपये तक कमा रही हैं।”

राजेश का कहना है कि वह इस आमदनी को बढ़कर 6 गुणा करने की चाह रखते हैं।

सोशल स्टार्टअप प्रोग्राम में मिली जगह

जोवाकी एग्रोफ़ूड को भारत सरकार के सोशल स्टार्टअप प्रोग्राम, रफ़्तार में भी जगह मिली है। इसके अलावा, उन्हें IIM कोलकाता, विल्ग्रो फाउंडेशन, नियम एग्री बिज़नेस आदि से भी सपोर्ट मिल रहा है। कंपनी फ़िलहाल सीताफल और जामुन के अलावा हरे चने और आंवला पर काम कर रही है।

Jovaki Agrofood has won grants

आगे उनका उद्देश्य और भी फल-सब्जियों की प्रोसेसिंग पर काम करने का है। प्रोसेसिंग के साथ-साथ वह इलाके में जैविक खेती पर भी जोर दे रहे हैं। सीताफल के छिलकों को खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

उन्होंने लगभग 500 किसानों को जैविक खेती से जोड़ा है और महिलाओं को औषधीय खेती की ट्रेनिंग भी दिलाई है। राजेश कहते हैं कि उनका उद्देश्य लोगों को उनके पास उपलब्ध फलों और सब्जियों में वैल्यू एडिशन करके रोज़गार कमाने का ज़रिया देना है।

कर रहे हैं वृक्षारोपण

राजेश इन दिनों वृक्षारोपण भी कर रहे हैं। इसके बारे में उन्होंने बताया, “हम प्रकृति से इतना कुछ ले रहे हैं तो हमारा दायित्व है कि हम कुछ वापस भी दें ताकि यह चक्र चलता रहे। इसलिए हमने इस बार 10 हज़ार सीताफल और 2 हजार जामुन के पेड़ अलग-अलग इलाकों में रोपित किए हैं और सभी महिलाओं को इनकी देखभाल की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।”

Rajasthan Food Processing Business
650 Women got Employment

राजेश अंत में सिर्फ इतना कहते हैं, “उद्यम और आत्मनिर्भरता हमारी आज की ज़रूरत है। ज़रूरी है कि ज्यादा से ज्यादा युवा अपना कोई व्यवसाय शुरू करें। लेकिन साथ ही, वह ध्यान रखें कि उनका व्यवसाय सिर्फ उनके लिए नहीं बल्कि सबके लिए हो। समुदाय को साथ में लेकर आगे बढ़ने में जो ख़ुशी है वह अकेले बढ़ने में नहीं। इसलिए ज्यादा से ज्यादा सोशल एंटरप्राइज देश में होनी चाहिए और इसके लिए युवाओं को कदम बढ़ाने होंगे।”

अगर आप जोवाकी एग्रोफ़ूड के बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो राजेश ओझा से 955-260-6860 / 797-787-6367 पर कॉल करके या फिर info@jovaki.com पर ईमेल करके संपर्क कर सकते हैं!

आप वीडियो देखें:

 


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दिल्ली: मिनटों में खुल-बन सकता है बस्ती के बच्चों के लिए, बाँस से बना यह स्कूल

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देश में विकास कार्यों के नाम पर हर साल हजारों घर तोड़ दिए जाते हैं। इससे न सिर्फ आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की जिंदगी तबाह होती है, बल्कि सबसे बुरा असर पड़ता है बच्चों की शिक्षा और परिवेश पर। लेकिन, कहते हैं कि युवाओं की इच्छाशक्ति किसी भी समाज की तकदीर बदल सकती है और दिल्ली के कुछ युवाओं ने इसे चरितार्थ भी किया है।

स्वाति ने यमुना खादर में 50 से अधिक वालंटियर्स और स्थानीय लोगों की मदद से बनाया स्कूल

यह कहानी है दिल्ली के यमुना खादर झुग्गी बस्ती की, जहाँ स्वाति जानू और निधि सोहाने नाम की दो युवा आर्किटेक्ट ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर, सैकड़ों बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए एक पर्यावरण के अनुकूल और आसानी से स्थानांतरित करने योग्य स्कूल बना दिया।

आव्यशकता ही आविष्कार की जननी हैं…

दिल्ली में यमुना खादर गाँव यमुना नदी के किनारे बसा हुआ है और यहाँ दशकों से मूलभूत सुविधाओं की व्यापक कमी रही है। इसी को देखते हुए साल 1993 में, पेशे से एक वकील गुरमीत सिंह लवाणा ने यहाँ के किसानों के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के उद्देश्य से ‘वन फूल’ नामक एक स्कूल की स्थापना की।

इस कड़ी में स्वाति बताती हैं, “यह बच्चों के लिए एक महत्वपूर्ण स्कूल था, लेकिन साल 2011 में एनजीटी के आदेश पर दिल्ली विकास प्राधिकरण ने बस्ती के अधिकांश भवनों के साथ इस स्कूल को भी तोड़ दिया। इसकी वजह यह है कि दशकों से यहाँ रहने के बावजूद भी किसी के पास औपचारिक जमीन नहीं है।”

यमुना खादर बस्ती में पुल के नीचे पढ़ते बच्चे

इसके बाद कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा समुदाय के समर्थन में दिल्ली उच्च न्यायलय में याचिका दायर करने के बाद अस्थायी तौर पर स्कूल बनाने की अनुमति मिली। फिर समाजसेवी नरेश पाल की अगुवाई में यहाँ बाँस और तिरपाल से स्कूल बनाया गया। लेकिन बच्चों को बारिश और धूप से पढ़ने में काफी दिक्कत होती थी।

इस विषय में नरेश बताते हैं, “साल 2011 में स्कूल टूटने के बाद हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। इसलिए हमने बच्चों को नीम के पेड़ के नीचे पढ़ाना शुरू कर दिया। बारिश और धूप से बच्चों को पढ़ाई में काफी परेशानी होती थी। हमने बच्चों को 3 वर्षों तक इसी स्थिति में पढ़ाया। इसके बाद हमने 2014 में बाँस और तिरपाल से स्कूल बनाने का फैसला किया, लेकिन इससे भी कुछ खास राहत नहीं मिली।”

इन्हीं सब चीजों के बीच एक समाजसेवी शकील ने साल 2014 के अंत में, निराश्रित लोगों की बेहतरी के लिए काम करने वाली संस्था सोशल डिजाइन कोलैबोरेटिव की संस्थापक स्वाति से संपर्क किया और नींव रखी ‘प्रोजेक्ट मॉडस्कूल’ की ।

यमुना खादर में मॉडस्कूल प्रोजेक्ट के तहत स्कूल बनाते वालंटियर्स

महज़ तीन हफ़्तों में बना मिनटों में खुलने-बनने वाला यह स्कूल

इस विषय में स्वाति बताती हैं, “प्रोजेक्ट मॉडस्कूल के तहत मैंने और निधि ने स्कूल प्रबंधन के सामने एक पर्यावरण के अनुकूल, स्व-निर्मित और बेहतर स्वच्छता समाधान वाले डिजाइन को रखा। यह एक ऐसा मॉडल था, जिसे बनाने में बेहद कम लागत आ रही थी और इसे चंद मिनटों में ही खोला जा सकता था।”

वह आगे बताती हैं, “जुलाई 2016 में सबकुछ तय होने के बाद हमें लगभग 2.5 लाख रुपए की जरूरत थी। इसलिए हमने सोशल मीडिया के जरिए क्राउड फंडिंग की अपील की और लोगों की मदद से आखिर स्कूल बनाने का काम साल 2017 में शुरू हो गया।

हमने इसके ढांचे को लोहे से बनाया, जिसे कभी भी खोला जा सकता है और दीवारों, दरवाजों और खिड़कियों को बाँस, लकड़ी और सूखी घास जैसे स्थानीय संसाधनों से बनाया गया। छत को टिन से बनाया गया और उस पर सूखे घास डाल दिए गए, ताकि गर्मी का असर कम हो। इसके साथ ही, बच्चों के मनोरंजन के लिए भी काफी कार्य किए गए।”

मॉडस्कूल प्रोजेक्ट के तहत बांस, लकड़ी और घास से बनाया गया स्कूल को

एक और खास बात यह है कि इस स्कूल को बच्चों, शिक्षकों, पत्रकारों, स्थानीय लोगों और 50 से अधिक वॉलंटियर्स ने मिलकर महज 3 हफ्ते में बना दिया। इसमें इंजीनियरिंग से संबंधित महत्वपूर्ण सलाह विनटेक कंसल्टेंट कंपनी के निदेशक विनोद जैन ने दिया, जिन्होंने इस स्कूल के लिए सबसे ज़्यादा राशि भी डोनेट की थी।

एक दुखद मोड़ पर एक नई शुरुआत!

जब यह स्कूल बना था, उस वक्त इसमें एक साथ 250 बच्चे पढ़ सकते थे। लेकिन, महज एक साल चलने के बाद स्कूल को भूमि विवाद की वजह से बंद करना पड़ा।

यमुना खादर स्थित मॉडस्कूल में पढ़ते बच्चे

यमुना खादर में प्रोजेक्ट मॉडस्कूल के बेहद दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बंद होने के बाद, इसे बाल अधिकार संरक्षण के लिए काम करनेवाली गैर सरकारी संस्था ‘द चाइल्ड ट्रस्ट’ की मदद से जून, 2019 में ग्रेटर नोएडा के कुलेसरा गाँव में हिंडन नदी के किनारे स्थानांतरित किया गया।

भूमि विवाद की वजह से मॉडस्कूल को साल 2019 में ग्रेटर नोएडा के कुलेसरा स्थानांरित किया गया

इस विषय में स्वाति बताती हैं, “अब इस स्कूल का नाम ‘समग्र शिक्षा केन्द्र’ है। इस स्कूल को बनाने में पारंपरिक खाट बुनाई तकनीक को अपनाया गया है। यह काफी किफायती है और इसकी वजह से बस्ती के लोगों को न सिर्फ रोजगार का अवसर मिला, बल्कि अपने बच्चों के लिए अपने संसाधनों और संरचना शैलियों का इस्तेमाल करने की वजह उनमें एक स्वामित्व और गर्व की भावना भी पैदा हुई है।”

ग्रेटर नोएडा के कुलेसरा गाँव में खाट बुनाई तकनीक से बनाया गया स्कूल

वहीं, द चाइल्ड ट्रस्ट की निदेशक सुमन कहती हैं, “इस स्कूल को बनाने के पीछे हमारा मकसद मूलभूत शिक्षा से वंचित हर आयु वर्ग के बच्चों को सहज और परिवार जैसे माहौल में शिक्षा देना था। हमारे पास इस समय 52 बच्चे हैं और हम उनके समग्र विकास के लिए काम कर रहे हैं, ताकि वे अपनी भविष्य की चुनौतियों का सहजता से सामना कर सकें। यह स्कूल हफ्ते में 6 दिन चलता है और हमने बच्चों को पढ़ाने के लिए 2 शिक्षकों को नियमित रूप से रखा है।”

बच्चों के सम्पूर्ण विकास पर ध्यान दिया जाता है समग्र शिक्षा केन्द्र में

शिक्षा सुधार के ऐसे प्रयासों के फलस्वरूप सामुदायिक विकास का भी रास्ता खुलता है। बस जरूरत है, सरकार और प्रशासन समाज के ऐसे सच्चे नायकों को प्रोत्साहित करे और उनकी हरसंभव मदद करे।

यदि आप स्वाति से बात करना चाहते हैं तो उनसे फेसबुक पर संपर्क कर सकते हैं।

यह भी पढ़ें – भारत की ऐतिहासिक विरासत को संभाल, बाँस व मिट्टी से मॉडर्न घर बनाता है यह आर्किटेक्ट

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Government Job: RBI, SEBI, HAL और AAI में निकले पद, जानिए कैसे करें आवेदन

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देश के कई बड़े संस्थान जैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (RBI), सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (SEBI), एयरपोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (AAI) और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) में कई पदों पर भर्तियाँ निकली हैं।

इन पदों के लिए अप्लाई करने के इच्छुक उम्मीदवार सभी भर्तियों का नॉटीफिकेशन अच्छे से भरकर आवेदन कर सकते हैं।

1. रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया/Reserve Bank of India

  • पद का नाम: डाटा एनालिस्ट/Data Analyst

पदों की संख्या: 05

शैक्षिक योग्यता: किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से कम से कम 55% अंकों के साथ इकॉनोमिक्स, मैथमेटिक्स और कंप्यूटर साइंस में पोस्ट-ग्रैजुएट या फिर कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग या फिर डाटा साइंस, डाटा एनालिटिक्स या डाटा स्टेटिस्टिक्स साइकोलॉजी में डिप्लोमा।

अनुभव: संबंधित क्षेत्र में कम से कम 5 वर्ष काम करने का अनुभव।

आयु सीमा: 30 वर्ष से ऊपर और 40 वर्ष से कम

Government Jobs 2020
Representative Picture
  • पद का नाम: स्पेशलिस्ट इन फॉरेंसिक ऑडिट/Specialist in Forensic Audit

पदों की संख्या: 01

शैक्षिक योग्यता: चार्टर्ड अकाउंटेंट/CA या फिर फाइनेंस में MBA

अनुभव: फॉरेंसिक ऑडिट के क्षेत्र में 5 सालों का अनुभव।

आयु सीमा: 30 वर्ष से 40 वर्ष के बीच

  • पद का नाम: एकाउंट्स स्पेशलिस्ट/Accounts Specialist

पदों की संख्या: 01

शैक्षिक योग्यता: चार्टर्ड अकाउंटेंट/CA या कंपनी सेक्रेटरी/CS या इंटरनेशनल फाइनेंसिंग स्टैंडर्ड्स/IFS किया हो।

अनुभव: किसी कमर्शियल बैंक में 5 वर्ष का अनुभव या फिर ट्रेज़री ऑपरेशन्स/क्रेडिट रिस्क में 2 वर्ष का अनुभव।

आयु सीमा: 30 वर्ष से 40 वर्ष के बीच

आवेदन करने की आखिरी तारीख: 5 सितंबर 2020

पूरा विज्ञापन यहाँ पढ़ें: https://opportunities.rbi.org.in/Scripts/bs_viewcontent.aspx?Id=3846

आवेदन कैसे करना है यह जानने के लिए यहाँ क्लिक करें!

आवेदन करने के लिए यहाँ क्लिक करें: https://ibpsonline.ibps.in/rbisbmsmar20/

2. एयरपोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया/Airports Authority of India

पद का नाम: जूनियर एग्जीक्यूटिव/Junior Executive (सिविल, इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स)

पदों की संख्या: सिविल- 50 पद, इलेक्ट्रिकल- 50 पद, इलेक्ट्रॉनिक्स- 150 पद

शैक्षिक योग्यता:

  • सिविल/Civil- किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से कम से कम 60% अंकों के साथ सिविल ब्रांच से इंजीनियरिंग की डिग्री।
  • इलेक्ट्रिकल/Electrical- किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से कम से कम 60% अंकों के साथ इलेक्ट्रिकल ब्रांच से इंजीनियरिंग
  • इलेक्ट्रॉनिक्स/Electronics: किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से कम से कम 60% अंकों के साथ इलेक्ट्रॉनिक्स/टेलीकम्युनिकेशन ब्रांच से इंजीनियरिंग की डिग्री

आयु सीमा: 27 वर्ष से कम

आवेदन करने की आखिरी तारीख: 2 सितंबर, 2020

पूरा विज्ञापन यहां पढ़ें: https://cdn.digialm.com//per/g01/pub/852/EForms/image/ImageDocUpload/654/1116937849865866454562.pdf

आवेदन करने के लिए क्लिक करें: https://cdn.digialm.com/EForms/configuredHtml/1258/63705/Instruction.html

3. सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज ऑफ़ इंडिया/Securities and Exchange of India

पद का नाम: ऑफिसर ग्रेड A (असिस्टेंट मेनेजर)

स्ट्रीम: जनरल, लीगल, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, रिसर्च, ऑफिसियल लैंग्वेज स्ट्रीम

पदों की संख्या: 147 पद

शैक्षिक योग्यता: संबंधित स्ट्रीम में ग्रैजुएशन या फिर पोस्ट-ग्रैजुएशन डिग्री

आयु: 30 वर्ष से कम

आवेदन करने की आखिरी तारीख: 31 अक्टूबर 2020

पूरा विज्ञापन यहाँ पढ़ें: https://www.sebi.gov.in/sebiweb/other/careerdetail.jsp?careerId=147

आवेदन करने के लिए क्लिक करें: https://ibpsonline.ibps.in/sebioflmar20/

4. हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड/Hindustan Aeronautics Limited

पद का नाम: डिप्लोमा तकनीशियन/Diploma Technician (इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल)

पदों की संख्या: 15

शैक्षिक योग्यता: मैकेनिकल/इलेक्ट्रिकल या इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा

आयु: 31 वर्ष

आवेदन करने की आखिरी तारीख: 7 सितंबर 2020

पूरा विज्ञापन यहाँ पढ़ें: https://meta-secure.com/hal-overhall20/pdf/NOTIFICATION%20-DIP-TENURE%20BASIS%2014082020.pdf

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उम्मीदवारों से अनुरोध है कि आवेदन करने से पहले सभी विज्ञापन अच्छी तरह से पढ़ें!

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हरियाणा की रेतीली जमीन पर अमरीकी केसर उगाते हैं यह शिक्षक, किसानों को मुफ्त बाँटते हैं बीज

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राजमल तोमर पेशे से शिक्षक हैं, लेकिन खेती उनका पुश्तैनी व्यवसाय है। राजमल की पहचान इन दिनों अपने खेत में उगाए केसर की वजह से है। चरखी-दादरी जिले की तहसील बाढड़ा के गाँव द्वारका में उन्होंने रेतीली भूमि में केसर उगाने का यह शानदार कारनामा कर डाला है।

राजमल को केसर की खेती में अच्छी आमदनी हो रही है और इन दिनों वह राज्य में किसानों को केसर की खेती शुरू करने के लिए मुफ्त में केसर के बीज भी बाँट रहे हैं।

लीवर में दिक्कत हुई तो पता चलीं केसर की खूबियाँ

राजमल तोमर ने बेटर इंडिया को बताया, “1991 में मुझे पीलिया (Jaundice) हुआ था, जिसके बाद लीवर में दिक्कत आनी शुरू हो गई। डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने दूध में थोड़ा केसर मिलाकर पीने को कहा। पर इस क्षेत्र में कहीं केसर नहीं होता था। ऐसे में मैंने केसर के बारे में जानकारी जुटानी शुरू कर दी।”

राजमल बताते हैं कि उन्हें इसी दौरान केसर की खूबियों की जानकारी हुई। इसके बाद जब उनके दिमाग में केसर लगाने का आइडिया आया तो उन्होंने फिर दोबारा नहीं सोचा और न ही पीछे मुड़कर देखा। उन्होंने केसर उगाने का पक्का इरादा कर लिया।

 

घर से लगी जमीन पर लगाए 600 पौधे

haryana teacher kesar
अपने केसर के खेत में राजमल

राजमल बताते हैं, “मेरे खेत में कश्मीरी नहीं, बल्कि अमेरिकन हाइब्रिड प्रजाति का केसर है। 2016 में नकीपुर पहाड़ी गाँव के एक किसान के बारे में जानकारी मिली कि वह केसर की खेती करता है। मैंने उन्हीं से केसर की खेती के बारे में जाना।”

इसके बाद उन्होंने अपने घर के साथ लगी एक एकड़ से भी कम जमीन पर 600 पौधे लगाए। इससे करीब चार किलो केसर और 15 किलो के करीब बीज उत्पादन किया। इसी बीज में से उन्होंने अन्य फसलों की खेती कर रहे किसानों को बीज वितरण का उपक्रम आरंभ कर दिया। उनका मानना है कि इस कदम से क्षेत्र के किसानों की केसर उगाने में बेहतर तरीके से मदद की जा सकती है।

एक एकड़ में 25 से 30 किलो केसर संभव

 एक एकड़ में 25 से 30 किलोग्राम तक केसर का उत्पादन हो सकता है। राजमल बताते हैं कि बाजार भाव के अनुसार इसकी कीमत लाखों रुपये में है। अच्‍छी किस्‍म के केसर दो लाख रुपये प्रति किलो के हिसाब से भी बेचा जा सकता है। उनके मुताबिक केसर की खेती से किसान छोटे स्तर पर खेती कर भी लाखों रुपये कमा सकते हैं।

जैविक खाद इस्तेमाल की, आसान है खेती

राजमल ने बताया कि इस अमेरिकन हाइब्रिड केसर की खेती करना बेहद आसान है। इसके लिए अलग से किसी खास ट्रेनिंग की आवश्यकता भी नहीं होती। वह बताते हैं कि उन्होंने फसल में कोई रासायनिक उर्वरक नहीं डाला, बल्कि केसर के बीज रोपने से पहले गोबर की खाद डाली। बाद में दो बार कीटनाशक का छिड़काव किया। हर 10-12 दिन बाद सिंचाई की। इसी का नतीजा सामने है।

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राजमल के उगाये हुए केसर के पौधे


एक एकड़ के बीज पर खर्च होते है दो लाख 

एक एकड़ में केसर की खेती करने के लिए बीज पर करीब दो लाख रुपये खर्च करने पड़ते है। राजमल बताते हैं कि केसर की खेती पर जो कुल खर्च होता है, उसका करीब 80 फीसदी हिस्सा अकेले बीज पर खर्च हो जाता है। यही वजह है कि पहले छोटे स्तर पर केसर उगाकर वह खुद का बीज तैयार करवा रहे हैं, ताकि बीज पर लगने वाले मोटे खर्चे से बचा जा सके।

राजमल के अनुसार वह गैर परंपरागत फसल से कुछ हटकर उगाना चाहते थे। कुछ ऐसा, जो कि व्यापार की दृष्टि से भी फायदेमंद है। इसके लिए केसर की खूबियों ने अपनी ओर खींचा। वह बताते हैं कि लीवर, दिल से जुड़े रोगों, कैंसर, डैंड्रफ को हटाने, सर्दी-जुकाम, पेटदर्द, घाव, आंतों के रोग,  सिर दर्द, वात और खून से संबंधित विकार, आँखों की बीमारी, मासिक धर्म संबंधी विकार, जोड़ों के दर्द, हैजा आदि के इलाज में केसर को लाभकारी बताया गया है। बस केसर की इन्हीं खूबियों ने केसर उगाने, अधिक लाभ पाने और लोगों को लाभान्वित करने के लिए उन्हें प्रेरित किया।

 शिक्षण के साथ ही किसानी पर फोकस

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राजमल के खेत में उगे केसर

पहले हरियाणा के भिवानी जिले में स्थित चरखी दादरी सीनियर सेकेंड्री गर्ल्स इंटर कॉलेज में शिक्षक राजमल तोमर का सपना अन्य किसानों के लिए भी कृषि को फायदेमंद बनाना है। यही वजह है कि वह न केवल अपने गाँव, बल्कि आस-पास के गाँवों के किसानों को भी केसर के बीज मुफ्त बाँट रहे हैं। वह कहते हैं, केसर की खेती क्षेत्र में जितना ज़्यादा बढ़ेगी, किसानों को उतना ही फायदा होगा।  शिक्षण के साथ ही किसानी पर भी उन्होंने पूरा फोकस किया हुआ है। उनका मानना है कि बतौर शिक्षक वह समाज को दिशा देने के कार्य से जुड़े हैं तो वही केसर की जैविक खेती के माध्यम से लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने और किसानों का जीवन बदलने में लघु योगदान भी कर पा रहे हैं। वह यह भी मानते हैं कि आने वाला समय भी जैविक खेती का ही है।

 

रातों-रात नहीं मिलती सफलता, धैर्य ज़रूरी है

राजमल कहते हैं कि खेती, किसानी के प्रति इन दिनों युवाओं का रुझान भी लगातार बढ़ रहा है। हालाँकि एक बात शीशे की तरह साफ है कि अन्य किसी क्षेत्र में बेशक किसी को अपने प्रयास से रातों-रात कामयाबी मिल जाए, लेकिन कृषि के क्षेत्र में में रातों-रात कामयाबी नहीं मिल सकती। इंसान को मेहनत तो हर हाल में करनी ही होगी। इसके साथ ही धैर्य भी रखना पड़ेगा और उत्तम क्वालिटी का बीज और खाद भी इस्तेमाल करना होगा। इसके बाद पौधे अपना समय आने पर ही फलित होते हैं। वह दृढ़ता के साथ एकाग्र चित्त होकर मेहनत को ही सफलता की कुंजी करार देते हैं।

(राजमल से उनके मोबाइल नंबर  8199902215 पर संपर्क किया जा सकता है)

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लॉकडाउन में फंसे युवक ने शुरू की गार्डनिंग, उगाएं 30 से भी ज्यादा किस्म के फल-सब्जियां

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केरल से संबंध रखने वाले सीजो ज़कारिया दुबई में पले-बढ़े। वह अपने परिवार के साथ दुबई में ही बस गए हैं। उनकी पढ़ाई लंदन से हुई है लेकिन इन सबके बावजूद वह साल में एक बार जरूर कुछ दिनों के लिए केरल आते हैं। इस बार जनवरी में वह आए लेकिन लॉकडाउन की वजह से फिर दुबई लौट नहीं सके। ऐसे में उन्होंने समय का सुंदर उपयोग गार्डनिंग में किया और तरह-तरह के पौधे लगाए।

सीजो ने द बेटर इंडिया को बताया कि वह अपने परिवार के साथ साल में एक बार केरल आते हैं। यहां उनके घर के आस-पास काफी ज़मीन है। जहाँ नारियल, कटहल आदि के पेड़ हैं। उन्हें हमेशा इस बात का दुःख रहता था कि वह इनकी सही देखभाल नहीं कर पा रहे हैं।

इस बार, जनवरी 2020 में वह अपने पिता के साथ एक विवाह समारोह में हिस्सा लेने केरल आए थे। जब वह वापस जाने वाले थे, उससे दो दिन पहले ही लॉकडाउन जारी हो गया, जिस वजह से वह लौट नहीं सके। गौरतलब है कि केरल में देश के बाकी हिस्सा से बहुत पहले ही लॉकडाउन हो गया था।

Sijo Zachariah

लेकिन इस मुश्किल घड़ी को सीजो ने अपने शौक को पूरा करने के लिए एक मौके के तौर पर लिया। लॉकडाउन के एक-दो हफ्ते बीतने के बाद उन्होंने महसूस किया कि उन्हें अपने गार्डनिंग के शौक को पूरा करना चाहिए। इसके बाद उन्होंने अपना होम-गार्डन तैयार किया।

सीजो ने पुराने पेड़-पौधों की देखभाल के साथ-साथ कुछ नए पौधे भी लगाए। उन्होंने सब्जी उगाने में एक्सपेरिमेंट किया। वह कहते हैं, “लॉकडाउन में सब्जी मिल तो रही थी पर ताज़ा कुछ भी नहीं था। इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न खुद अपने लिए ताज़ा सब्जी उगाई जाए। वैसे भी मैं स्वस्थ खान-पान को लेकर काफी सजग रहता हूँ।”

सीजो बचपन से ही शाकाहारी रहे हैं। उनका मानना है कि हरी सब्जी में सभी तरह के पोषक तत्व रहते हैं। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने अपने किचन गार्डन में टमाटर, भिंडी, मिर्च, फलियाँ, भारतीय यम, एलीफैंट यम, अदरक, बैंगन, सहजन, करी पत्ता, पुदीना, लाल पालक, आलू, शकरकंद आदि उगाए। इसके अलावा उन्होंने पैशन फ्रूट, निम्बू, पपीता, सीताफल और चीकू के पेड़ भी लगाए हैं।

शुरुआत में उन्होंने किसी को भी अपने इस एक्सपेरिमेंट के बारे में नहीं बताया लेकिन जब उन्हें सफलता मिलने लगी तो उनकी दिलचस्पी गहरी होती गई। उन्होंने जैविक किसानी और केरल की खान-पान की संस्कृति के बारे में पढ़ना शुरू किया।

Okra and Passion Fruits

उन्होंने स्वस्थ खाने के सिद्धांत के बारे में भी काफी पढ़ा। वह बताते हैं, “तकनीकों से भरे इस जमाने में हम लोग ज़्यादातर फ़ोन और लैपटॉप आदि से घिरे रहते हैं। इन चीजों से निकलने वाली कुछ इलेक्ट्रो-मेगनैटिक किरणें हमारे शरीर में होती है। लेकिन अगर हम नंगे पैर अपने गार्डन में घास पर चलें और पेड़-पौधों के बीच समय बिताएं तो यह सभी हानिकारक किरणें हमारे शरीर से निकल जाती हैं क्योंकि धरती चार्ज फ्री है।”

खुद अपना खाना उगाने के साथ-साथ सीजो ने ‘लर्निंग योर रूट्स’ के नाम से अपना एक यूट्यूब चैनल और एक ब्लॉग भी शुरू किया है। ब्लॉग पर वह केरल के खाने-पीने के बारे में लिखते हैं और तरह-तरह की सब्जियों को किस तरह से पकाकर खाना चाहिए, इस पर भी लिखते हैं। इन सब टॉपिक्स पर वह वीडियो भी बना रहे हैं। वह फेसबुक पर कई गार्डनिंग ग्रुप्स का हिस्सा भी हैं, जहां वह अपने इस खूबसूरत सफर के बारे में बात करते हैं।

अगर आप खुद जैविक तरीकों से अपना खाना उगा रहे हैं तो आपको बार-बार बीमारियों के लिए डॉक्टर के पास जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। ज़रूरी नहीं कि आप हर एक टॉनिक और हर्बल टी आदि बाज़ारों से ही खरीदें। सीजो को कुछ ही दिन पहले पता चला है कि उनके गार्डन में उगने वाले गुलमोहर और निम्बू से हर्बल टी बनाया जा सकता है।

सीजो बताते हैं कि उन्हें अपने गार्डन से नियमित तौर पर कुछ न कुछ मिलता है। इसे वह खुद अपने घर में पकाते हैं और अपने पड़ोसियों में भी बांटते हैं। उनका कहना है कि गार्डनिंग के ज़रिए आप अपने रिश्ते भी मजबूत कर सकते हैं। वह अपने पड़ोसियों के घऱ से तरह-तरह के फूलों के पौधे लेकर लगा रहे हैं।

“उन्हें इन पेड़ों की ज़रूरत नहीं और वह इन्हें अपने गार्डन से निकालना चाहते हैं। इसलिए मैं उनसे ये पेड़ ले लेता हूँ और अपने गार्डन में लगा रहा हूँ। ये सभी मुझसे अक्सर पूछते हैं कि जब हम वापस दुबई चले जाएंगे तो इन फलों को लगाने का क्या फायदा। लेकिन मैं उनसे सिर्फ यही कहता हूँ कि खाने की ज़रूरत सिर्फ हमें नहीं बल्कि जीव-जन्तुओं को भी होती है। पक्षियों से लेकर गिलहरी, चूहे आदि तक सभी को खाना चाहिए। अगर हम खुद भी कुछ नहीं खा रहे हैं तो हमें इन जीवों के लिए गार्डन लगाना चाहिए तभी हम पर्यावरण को बैलेंस करके रख सकते हैं,” उन्होंने आगे कहा।

सीजो के आसपास ऐसे बहुत से दोस्त हैं जो इस काम के लिए उनकी सराहना करने की बजाय उनका मजाक बनाते हैं। पर ये सब बातें उनका हौसला कम नहीं करती बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। सीजो कहते हैं कि इससे पहले जब वह लंदन में थे तो अक्सर उन्हें अपनी पहचान बताने में झिझक महसूस होती थी। वह खुद को भारत से नहीं बल्कि दुबई से बताते थे। लेकिन अब उन्हें अपनी मिट्टी की सही पहचान हो रही है, वह मिट्टी जो चाहे तो पूरे विश्व का पेट भर सकती है। उन्हें अपने भारतीय होने पर गर्व होता है और अब वह अपनी संस्कृति से भागने की बजाय इसे सहेजना चाहते हैं।

सीजो कहते हैं कि इस साल ओणम का ख़ास खाना बनाने के लिए उन्होंने सब कुछ अपने गार्डन से लिया है और अपने पड़ोसियों को भी बाँट रहे हैं। वह कहते हैं, “मुझे फिलहाल यह नहीं पता कि कब तक भारत में रहना है क्योंकि मास्टर्स की पढ़ाई के लिए मुझे कनाडा जाना है। लेकिन जब तक भारत में हूँ, तबतक बहुत कुछ नया सीखना है। कम जगह में गार्डनिंग के लिए हाइड्रोपोनीक्स की विधि को सीखना चाहता हूँ, ताकि जहाँ भी रहूँ वहाँ कम जगह में भी खुद अपना खाना उगा सकूं।”

आप सीजो का ब्लॉग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें और उनका यूट्यूब चैनल देख सकते हैं!

अगर आपको भी है बागवानी का शौक और आपने भी अपने घर की बालकनी, किचन या फिर छत को बना रखा है पेड़-पौधों का ठिकाना, तो हमारे साथ साझा करें अपनी #गार्डनगिरी की कहानी। तस्वीरों और सम्पर्क सूत्र के साथ हमें लिख भेजिए अपनी कहानी hindi@thebetterindia.com पर!


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घर पर बनाएं #DIY सोलर ड्रायर, फल-सब्जियां सुखाकर सालभर के लिए कर सकते हैं स्टोर

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बहुत बार सही तरह से स्टोरेज न हो पाने पर फल और सब्जियां खराब हो जातीं हैं। गृहिणी से लेकर किसान तक, हर कोई इस समस्या से परेशान है। हम सबने देखा कि कैसे लॉकडाउन में किसानों की फसल न बिक पाने के कारण उन्हें परेशानी हुई।

कोलार जिले में टमाटर किसानों ने या तो अपनी उपज को बहुत ही कम दाम पर बिचौलियों को बेचा या फिर उनकी फसल बेकार हो गई। यह स्थिति पूरे देश में थी लेकिन फिर ऐसे भी उदाहरण सामने आए जहां लोगों ने समझदारी दिखाते हुए अपनी फसल को बचा लिया।

कोलार जिले में ही सौर ऊर्जा का सही उपयोग करके ग्राम विकास संगठन ने दो गांवों की मदद की। उन्होंने एक गाँव के टमाटर किसानों से उन्होंने सही दाम में टमाटर खरीदे जिससे उनकी उपज बच गई। दूसरे गाँव में उन्होंने 35 महिलाओं को इन टमाटर और प्याज के स्लाइसेस करके धूप में सुखाने के लिए ट्रेन किया। इन स्लाइसेस को नमक के पानी में धोकर छतों पर एक कपड़े पर सुखाया और फिर इन्हें एक कपड़े से ढ़का गया। तीन-चार दिन में जब ये स्लाइसेस सुखकर फ्लैक्स बन गए तो इन्हें एयर टाइट डिब्बों में स्टोर किया गया।

ग्राम विकास के अध्यक्ष एम वी एन राव कहते हैं कि अब इन गाँव वालों को छह महीने तक बाहर से टमाटर-प्याज खरीदने की ज़रूरत नहीं है। हालांकि, उन्होंने इस प्रक्रिया के लिए किसी सोलर ड्रायर का भी उपयोग नहीं किया। लेकिन अगर आप सोलर ड्रायर का उपयोग करते हैं तो आप कम समय में, उत्पादों का पोषण बरकरार रखते हुए उन्हें प्रोसेस कर सकते हैं।

Neha Upadhyay is helping farmers with solar dryer technique in the processing of apricots

हाल ही में, ‘गुण आर्गेनिक्स’ की फाउंडर नेहा उपाध्याय से बात हुई तो उन्होंने सोलर तकनीक और प्रोसेसिंग पर काफी ज्यादा महत्व दिया और बताया की किस तरह लद्दाख के ग्रामीण इलाकों में उन्होंने खुबानी, अखरोट आदि की प्रोसेसिंग शुरू करवा कर किसानों की समस्यायों को हल किया है। नेहा बताती हैं कि उन्होंने किसानों को सोलर ड्रायर से अवगत करवाया।

पहले किसानों को सोलर ड्रायर का महत्व बताया और फिर उन्हें इसकी तकनीक सिखाई गई। सोलर ड्रायर से उत्पादों को सुखाकर, स्टोर किया जा सकता है।

नेहा कहतीं हैं कि सोलर ड्रायर की कई अलग-अलग तकनीकें लोग विकसित कर रहे हैं। इनमें से कई पेटेंट वाली भी हैं। लेकिन इसके साथ ही, कुछ बेसिक डिज़ाइन भी हैं सोलर ड्रायर की, जिन्हें लोग अपने घरों में बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं।

आज हम आपको बता रहे हैं कि आप कैसे घर पर भी #DIY सोलर ड्रायर बना सकते हैं या फिर किसी बढ़ई आदि से बनवा सकते हैं!

1. घर पर कैसे बनाएं:

क्या चाहिए: टीवी या कंप्यूटर पैक करने वाला कोई कार्टन, ट्रांसपेरेंट प्लास्टिक, सुई-धागा, काला पेंट, कार्डबोर्ड, नेट, पेंटिंग ब्रश, कैंची

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क्या करें:

  • सबसे पहले बॉक्स को एक तरफ से तिरछा काटें, ध्यान रहे कि आप नीचे से 10 सेंटी-मीटर हिस्सा छोड़ दें।
  • अब बॉक्स को अंदर से काले रंग से पेंट कर दें।
  • पेंट को सूखने के बाद, आप इसके अंदर कार्ड बोर्ड और नेट की मदद से अंदर लगाने के लिए ट्रे बनाएं। इस ट्रे को बॉक्स के अंदर लगा दें।
  • अब जो हिस्सा आपने काटा था, उस पर ट्रांसपेरेंट प्लास्टिक की शीट को अच्छे से चिपका दें। कहीं से भी यह खुली न रहे।
  • डिब्बे के पीछे के हिस्से में से एक टुकड़ा काटकर एक दरवाजा बनाएं, जिससे कि आप ट्रे में चीजें रख सकें। लेकिन यह दरवाजा आपको ऐसे बनाना है कि इसे बंद करके के बाद, हवा पास न हो।
  • इसके बाद, डिब्बे की दो साइड्स में आप छोटे-छोटे छेद करदे ताकि नमी पास हो सके।
  • आपका सस्ता और काफी उपयोगी सोलर ड्रायर तैयार है।
  • इसमें आप टमाटर, प्याज आदि के फलैक्स बना सकते हैं।

2. किसी कारीगर से फ्रेम बनवाकर करें इस्तेमाल:

अगर आप एक प्रोफेशनल सोलर ड्रायर बनाना चाहते हैं तो आपको थोड़ा एडवांस लेवल जाना होगा। अगर आप लकड़ी या लोहे का थोड़ा-बहुत काम करना जानते हैं तो आप यह घर पर ही बना सकते हैं। अगर नहीं तो आप किसी कारीगर से बनवा सकते हैं।

DIY Solar Dryer
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लकड़ी या लोहे से सोलर ड्रायर बनाने के कई तरीके हैं, जिन्हें आप अपनी ज़रूरत के हिसाब से माप देकर बनवा सकते हैं। जैसा कि राजस्थान के जोधपुर में एक गाँव के रहने वाले मनोज पुष्करणा ने किया। मनोज पुष्करणा बताते हैं कि उन्हें नयी-नयी चीजें इस्तेमाल करने का शौक है और खासकर ऐसी चीजें को पर्यावरण के अनुकूल हों और ग्रामीणों के लिए फायदेमंद। वह गाँव के लोगों की आय बढ़ाने के लिए सस्ते और आसानी से होने वाले तरीके तलाशते रहते हैं।

उन्होंने पहले गोबर की लकड़ी बनाने का #DIY तरीका ढूंढा था और अब वह, हमें बता रहे हैं कम लागत में बनने वाले सोलर ड्रायर के बारे में।

  • मनोज बताते हैं कि उन्होंने एक कारीगर से 3 फीट चौड़ा और 6 फीट लम्बा एक लोहे का डिब्बा बनवाया।
  • इस डिब्बे को अंदर से काले रंग से पेंट कराया गया है।
  • इस डिब्बे को उन्होंने एक स्टैंड पर ऐसे सेट कराया कि यह एक तरफ से उठा रहे और एक तरफ से नीचे रहे।
  • इससे सूर्य की किरणें अच्छी तरह से इस पर पड़ेंगी।
  • इस डिब्बे के ढक्कन में उन्होंने ट्रांसपेरेंट प्लास्टिक शीट लगवाई है।
  • पीछे की तरफ दो छोटे-छोटे एग्ज़ोस्टर फैन लगवाए गए हैं।
  • डब्बे के अंदर फल-सब्जियों के स्लाइसेस रखने के लिए एक जालीनुमा ट्रे सेट करायी गई है, जिस पर एक कपड़ा बिछाकर आप चीजों को रख सकते हैं।
  • मनोज पुष्करणा बताते हैं कि उन्हें सोलर ड्रायर की कीमत साढ़े चार हजार रुपये पड़ी है। लेकिन अगर कोई छोटा बनवाते हैं तो मुश्किल से 2-ढाई हज़ार रुपये की लागत आएगी।

इस सोलर ड्रायर में आप कुछ भी ड्राई करके स्टोर कर सकते हैं।

“हमें आज घरेलू स्तर के उद्यमों के बारे में सोचना चाहिए और सोलर ड्रायर की तकनीक ऐसी है जिसमें आप कई तरह से कमा सकते हैं। अगर आप मैकेनिक हैं तो सोलर ड्रायर बनाकर बेच सकते हैं। अगर आप किसान हैं तो आप सोलर ड्रायर बनवाकर छोटे स्तर पर प्रोसेसिंग शुरू कर सकते हैं। यह तरह से फायदेमंद है,” मनोज ने बताया।

अधिक जानकारी के लिए आप वीडियो देख सकते हैं:

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जिसका नाम तक नहीं सुना था, आज उसी ‘लेमन ग्रास’की खेती से लाखों कमा रहीं हैं ये महिलाएँ

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झारखंड की राजधानी राँची से करीब 120 किलोमीटर दूर गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखण्ड की ग्रामीण महिलाएँ आज लेमन ग्रास की खेती के जरिए आर्थिक आत्मनिर्भरता की नई कहानी लिख रही है। झारखंड की इन महिला किसानों द्वारा की जा रही लेमन ग्रास की खेती की चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 जुलाई 2020 को मन की बात कार्यक्रम में भी की थी।

ग्रामीण सेवा केंद्र के जरिए सखी मंडल की महिलाओं को औषधीय पौधों की खेती से जोड़ा गया है, जिसमें लेमन ग्रास की खेती प्रमुख है। सिर्फ बिशुनपुर प्रखण्ड में सखी मंडल की करीब 500 बहनों को लेमन ग्रास की खेती के जरिए अच्छी आमदनी हो रही है।

लाखों की कमाई का जरिया बनी लेमन ग्रास की खेती

lemon grass farming
महिला किसान रूपमूर्ति देवी

बिशुनपुर के रहकूबा टोली की सुमाती देवी समूह से ऋण लेकर अपने 26 हज़ार वर्ग फीट जमीन में लेमन ग्रास की खेती शुरू की। सुमाती देवी बताती हैं, “मैंने तो कभी लेमन ग्रास का नाम तक नहीं सुना था मगर अब इससे होने वाले फायदे को जानने के बाद हम दूसरों को भी लेमन ग्रास की खेती करने की सलाह देते है। बंजर भूमि पर सोने की तरह कमाई कराती है लेमन ग्रास। महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना के तहत हम लोगों को प्रशिक्षण मिला और मैंने इसी साल जनवरी में लेमन ग्रास खेती की शुरूआत की थी। लॉकडाउन के बावजूद अब तक करीब 1 लाख 10 हजार की कमाई हो चुकी है, जबकि खेती पर खर्च सिर्फ 22 हजार रुपये हुए हैं।”

वहीं नवागढ़ सीरका गाँव की रुपमूर्ति देवी ने भी अपनी करीब 22 हज़ार वर्ग फीट जमीन में लेमन ग्रास की खेती कर करीब 1 लाख 45 हजार की आमदनी की है। रुपमूर्ति देवी बताती हैं कि पिछले दो साल से लेमनग्रास की खेती से उनके आर्थिक हालात में सुधार आई है। सिरका गाँव की एक और महिला किसान बसंती देवी बताती हैं कि सखी मंडल से जुड़ने के बाद उन्होंने लेमनग्रास की खेती शुरू की। वहीं बेंती गाँव की सुशांती बताती हैं, “हमने लेमनग्रास की खेती 2018 से शुरू की। अब मैं 10 एकड़ में खेती कर रही हूँ। अभी मेरे खेत में करीब 25 लाख के लेमन ग्रास लगे हैं। मुझे खुशी है कि खाली पड़ी बंजर जमीन पर हम लोग अब कमाई कर पा रहे हैं।”

विशुनपुर प्रखण्ड में लेमन ग्रास की खेती में स्थानीय विकास भारती एवं कृषि विज्ञान केंद्र का भी तकनीकी सहयोग लिया जा रहा है।

लेमन ग्रास की खेती- लागत कम, मुनाफा अधिक

lemon grass farming
महिला किसान सुमती देवी

लेमनग्रास की खेती के जरिए सालाना लाखों की कमाई करने वाली झारखंड की इन ग्रामीण महिलाओं में से एक सुमती देवी बताती हैं कि अमूमन एक एकड़ जमीन में लेमन ग्रास की खेती में करीब 20-25 हजार रुपये की लागत आती है। एक बार जब 4 महीने में फसल तैयार हो जाती है तो वह करीब एक लाख की हो जाती है। इस प्रकार एक एकड़ से करीब 77 हजार रुपये की आमदनी एक कटाई में होती है। वहीं इसके डंठल का तेल निकाला जाता है, उसकी कीमत करीब 25 से 30 पैसे प्रति डंठल होती है।

सुमती के मुताबिक तेल की कीमत करीब 3 हजार रुपये लीटर है जो कि थोक व्यापारियों को करीब 2000 रुपये प्रति लीटर में बेचा जाता है। वहीं लेमन ग्रास की पत्तियाँ भी काफी महंगी बिकती है।

लेमन ग्रास अथवा नींबू घास का महत्व उसकी सुगंधित पत्तियों के कारण है। पत्तियों के वाष्प आसवन के द्वारा तेल प्राप्त होता है जिसका उपयोग कॉस्मेटिक, सौंदर्य प्रसाधन, कीटनाशक, दवाओं में होता है। एंटीऑक्सिडेंट के रुप में भी लेमन ग्रास का उपयोग प्रभावी है।

ऐसे करें लेमन ग्रास की खेती – लाखों में होगी आमदनी

lemon grass farming
रोपे गए लेमन ग्रास के पौधे

लेमेन ग्रास की खेती कम उपजाऊ जमीन में भी आसानी से की जा सकती है तथा एक बार पौधा लगाने के बाद 5 वर्षों तक प्रति वर्ष 3 से 4 बार इसकी पत्तियों (स्लिप) की कटाई एवं बिक्री कर मुनाफा कमाया जा सकता है। लेमन ग्रास एरोमेटिक प्लांट की श्रेणी में आता है। इसे लगाने की विधि आसान है। सभी तरह की मिट्टी में इसे लगाया जा सकता है, लेमन ग्रास के एक छोटे से पौधे को विकसित कर कई पौधे तैयार किए जा सकते हैं। करीब 6 महीने में ये पौधे तैयार हो जाते हैं और साल में 3 से 4 बार इसकी कटाई कर अच्छी अमदनी होती है। इसकी खेती में सिंचाई की जरुरत नहीं के बराबर होती है। रोपाई जुलाई से सितंबर माह तक कर सकते है। सितंबर के बाद करने से  सिंचाई की जरुरत पड़ती है।  गर्मी के मौसम में सिंचाई की व्यवस्था है तो एक बार सिंचाई की जा सकती है।

झारखंड में आजीविका मिशन के जरिए सखी मंडल से कर्ज लेकर सुदूर गाँव की महिलाएँ लेमन ग्रास की खेती एवं प्रोसेसिंग के जरिए अच्छी आमदनी कर रही हैं। बाजार में तेल की अच्छी कीमत को देखते हुए आजीविका मिशन के तहत सखी मंडल की महिलाओं को तेल आसवन के लिए ग्रामीण सेवा केंद्र के जरिए आसवन इकाई भी स्थापित करवाई गई है ताकि प्रोसेसिंग के जरिए अच्छी आमदनी हो। इस पहल से ग्रामीण महिलाओं के आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है, लेमन ग्रास से आमदनी कर परिवार का पालन-पोषण कर आमदनी बढ़ाने में सक्षम हुई है। ये महिलाएं अब ‘ग्रामीण सेवा केन्द्र’ के जरिए अपने उपज का मूल्य वर्धन कर बड़े बाजारों में बिक्री कर अच्छा मुनाफा कमा रही हैं। लेमन ग्रास का तेल निकालने, पैकिंग करने के अलावा अन्य औषधीय पौधों जैसे तुलसी, हर्रा, बेहेरा की खेती और मूल्य वर्धन कर बिक्री कर रही है।

lemon grass farming
लेमन ग्रास के पौधे

राज्य भर में बसंती देवी ,सुमाती देवी एवं सुशांती जैसे हजारों महिला किसान हैं जिन्हें महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना के जरिए लेमन ग्रास की खेती से आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है। महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना एवं जोहार परियोजना के तहत राज्य के 16 जिलों के 31 प्रखण्ड में 16,500 से ज्यादा महिला किसानों को लेमन ग्रास की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।

लीक से हटकर औषधीय पौधों की खेती के जरिए आत्मनिर्भरता की मिसाल कायम करने वाली झारखंड की इन महिलाओं को द बेटर इंडिया सलाम करता है।

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बद्रीनाथ में बाँस से बना यह खूबसूरत मकान, बर्फबारी में भी रहता है 10 डिग्री गर्म

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जून 2013 तक, विमलेश पंवार उत्तराखंड के एक शहर गोविंद घाट में होटल चला रहे थे। यह होटल उन्होंने 1990 में खोला था। समय के साथ उन्होंने काम बढ़ाया और होटल में कमरों की संख्या 30 तक पहुँच गई। उनका होटल वैली ऑफ फ्लावर्स बेसकैंप में था, इसलिए अच्छा-खासा मुनाफा भी मिलता था। लेकिन 18 जून 2013 में विमलेश की ज़िंदगी तब बदल गई जब बादल फटने से उनका होटल मलबे में दब गया। उन पर आपदा से जल्द उबरने और आजीविका के अपने स्रोत को वापस पाने का काफी दबाव था। और तब विमलेश के एक दोस्त ने उन्हें तंजुन एसोसिएट्स के बारे में बताया था।

bamboo home badrinath
बद्रीविले

देहरादून-स्थित इस उद्यम की स्थापना 2013 में सुमित कुमार अग्रवाल ने की थी। यह उद्यम स्थानीय समुदायों के कौशल और आजीविका विकास की दिशा में काम करता है। यह निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को बांस और फेरोकंक्रीट का उपयोग करके संरचना निर्माण करना सिखाता है और साथ ही भोजन और खाद्य प्रसंस्करण भी सुनिश्चित करता है।

47 वर्षीय विमलेश द बेटर इंडिया को बताते हैं कि बाँस के इस्तेमाल के आइडिया ने उन्हें काफी आकर्षित किया। वह कहते हैं, “होमस्टे का निर्माण मई 2014 में शुरू हुआ और सितंबर के अंत तक, मुझे अपनी पहली बुकिंग मिली।”

करीब छह साल से बद्रीविले रिज़ॉर्ट चल रहा है और यह रिज़ॉर्ट गोविंद घाट (जहाँ विमलेश पहले रहते थे) से लगभग 23 किमी दूर बद्रीनाथ में स्थित है। हल्के वज़न औऱ जलवायु के अनुसार ढ़लने वाला बाँस का यह घर भारी बारिश और करीब 15 से 20 फीट बर्फ का सामना आराम से कर सकता है।

bamboo home badrinath
विमलेश(बायें), सुमित (दायें)

इसके अलावा, यह इमारत कम से कम 60 प्रतिशत से अधिक भूकंप-प्रतिरोधी है और इसका निर्माण एक महीने में किया जा सकता है। इसकी कई विशेषताएँ इस घर को अलग और अनोखा बनाती हैं। विमलेश बताते हैं कि सर्दियों में घर करीब 10 डिग्री गर्म रहता है।

तंजुन एसोसिएट्स के सुमित और बद्रीविले रिज़ॉर्ट के विमलेश ने द बेटर इंडिया को उन चीज़ों के बारे में बताया जो पहाड़ में बने इस घर को खास बनाती हैं।

बाँस के साथ एक स्थायी घर का निर्माण

निर्माण प्रक्रिया की सबसे दिलचस्प विशेषताओं में से एक यह है कि इस्तेमाल होने वाले बाँस को किसी भी तरह से चीरा नहीं जाता है। पूरे बांस का उपयोग किया जाता है।

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बर्फ से ढका बद्रीविले

निर्माण क्षेत्र में 20 सालों का अनुभव रखने वाले सुमित कहते हैं कि बाँस एक प्राकृतिक इन्सुलेटर है क्योंकि बाँस में एक बड़ा एयर गैप होता है। इसलिए पूरे बाँस का इस्तेमाल किया जाता है और उसे चीरा नहीं जाता है। वह कहते हैं, “अब अगर आप कंक्रीट घर को देखेंगे, तो घर की पश्चिम की दीवार को ठंडा होने के लिए पूरी रात का समय लगता है। यह इंटीरियर को पूरा दिन गर्म रखता है लेकिन बाँस के घरों में ऐसा नहीं होता है।”

सुमित ने यह भी बताया कि बाँस को ऑटोक्लेव में उपचारित किया जाता है जो यह सुनिश्चित करता है कि बाँस से सभी सैप को बाहर निकाल दिया जाए। वहीं वैक्यूम प्रेशर ट्रीटमेंट बाँस को दीमक या अन्य कीट के हमले से सुरक्षित बनाता है।

नींव को मजबूत बनाने के लिए, यहाँ फर्श फेरो-सीमेंट स्लैब (चिकन जाल और सीमेंट का उपयोग करके) के साथ बनाए गए हैं। यह सीमेंट कंक्रीट की तुलना में आठ गुना अधिक मजबूत होता है, जो घर को भूकंप-रोधी गुण प्रदान करता है।

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बालकनी से नज़ारा

बाँस पैनल से कमरे की दीवारें बनाई गई हैं और छत पर गाढ़े पेंट की परत चढ़ाई गई जो ठंड से बचाती है।

12 कमरों वाले बद्रीविले रिसॉर्ट के बारे में बात करते हुए विमलेश बताते हैं कि करीब छह महीने तक क्षेत्र में बर्फबारी होती है, जिस कारण आमतौर पर अन्य घरों की दीवारों में नमी भर जाती है, जिस कारण कपड़े और जूते जैसी चीज़ें नम रहती हैं। उन्होंने कहा कि पिछले छह सालों में बाँस के इस घर में, ऐसा कभी अनुभव नहीं किया है।

इसके अलावा, तंजुन जिन बाँस आवास परियोजना का निर्माण करते हैं, उनमें जैव-सेप्टिक टैंक का इस्तेमाल किया जाता है।

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अन्दर से ऐसा दीखता है बद्रीविले

सुमित बताते हैं, “शौचालय से सैनिटरी कचरे को यहाँ कंकड़, रेत और लकड़ी के कोयला का उपयोग करके उपचारित किया जाता है। पानी उपचारित हो जाने के बाद, इसे आसानी से बागवानी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, शौचालयों में पुन: उपयोग किया जाता है और  साथ ही यह अज़ोला (डकवीड फ़र्न) उगाने के लिए भी अच्छा होता है। अजोला पशुधन, मुर्गी पालन और मछली के लिए एक अच्छा चारा है।

घर बनाने में चुनौती?

विमलेश बताते हैं कि मानक गुणवत्ता वाले बाँस की निरंतर उपलब्धता कठिन होती है और अब भी नीलगिरी या चिनार की तरह इसकी व्यावसायिक रूप से खेती नहीं की जाती है। वह बताते हैं, “लेकिन, हम असम से खरीदते हैं और क्षेत्र के एक आपूर्तिकर्ता से लेते हैं।”

विमलेश खुश हैं कि वह लंबे समय से होमस्टे चला रहे हैं और उन्होंने साबित किया है कि यह बारिश, धूप और बर्फ का सामना कर सकता है। सुमित का बाँस के घरों को अधिक लोकप्रिय बनाने का काम जारी है। साथ ही वह पारंपरिक निर्माण तकनीकों में ईंटों का उपयोग करने के विचार पर सवाल भी उठाते हैं।

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यह घर 6 महीने तक बर्फ से ढाका रहता है

वह कहते हैं, “हम जानते हैं कि बाँस तेजी से बढ़ता है और मजबूत होता है। तो, उपजाऊ मिट्टी को खोदने और उससे ईंटें बनाने की क्या ज़रूरत है।”

बद्रीविले रिज़ॉर्ट पर जाने के लिए, इस पेज को देखें। और तंजुन एसोसिएट के संपर्क करने के लिए यहाँ क्लिक करें।

मूल लेख- ANGARIKA GOGOI

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