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पटना में ‘सुपर 30’से 26 विद्यार्थियों ने मारी बाजी, पास की IIT-JEE की परीक्षा

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स रविवार को आईआईटी-जेईई मुख्य परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। पटना के ‘सुपर 30’ के 26 विद्यार्थियों ने इस साल भी परीक्षा में सफलता हासिल की है। आनंद कुमार ने 2002 में इस संस्थान की शुरुआत की थी। इसमें जेईई परीक्षा के लिए गरीब और कमजोर तबके के 30 प्रतिभाशाली छात्रों को शिक्षा दी जाती है।

आनंद ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया, “यह देख कर अच्छा लगा कि दूरदराज के छात्रों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, जहां अब तक विकास की हवा भी नहीं पहुंची है और जीवन अभी भी संघर्षमय है।”

बहुत साधारण परिवार से आने वाले ओनिरजीत गोस्वामी, सूरज कुमार, यश कुमार और सूर्यकांत दास समेत अन्य ने इस साल संस्थान से जेईई परीक्षा पास की है। ओनिरजीत के पिता कानपूर में एक छोटी सी कंपनी में काम करते हैं। ओनिरजीत ने बताया कि वह हमेशा से ज़िन्दगी में कुछ अच्छा करना चाहता था पर जेईई पास करना सपने से कम नहीं।

झारखंड में गिरिडीह के निवासी सूरज कुमार के अभिभावक कभी स्कूल नहीं गए। उनके पिता भूमिहीन किसान और बेटे के परीक्षा में उतीर्ण होने से वह बहुत खुश हैं। ये सभी विद्यार्थी अपनी इस सफलता का श्रेय अपने गुरु आनंद कुमार को देते हैं।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक, पिछले 16 साल में संस्थान के करीब 500 छात्रों ने आईआईटी के लिए परीक्षा में सफलता हासिल की है। प्रशिक्षण प्रक्रिया के दौरान, आनद साल भर, सभी 30 छात्रों को भोजन और आवास प्रदान करते हैं। उनके परिवार के सदस्य भी हर तरह से उनका समर्थन करते हैं।

आनंद कुमार अपने अभियान को देश भर में छात्रों तक ले जाना चाहते हैं। आनंद कुमार ने कहा, ‘मैं ‘सुपर 30’ का विस्तार करना चाहता हूं, लेकिन कुछ समस्याएं हैं। देश में इसी तरह की पहल की मांग बढी है और अधिक से अधिक छात्रों तक पहुंचने के लिए कोई तो रास्ता तलाशना होगा। ‘सुपर 30’ एकेडमी जल्द ही स्क्रीनिंग टेस्ट आयोजित करेगी और संस्थान की वेबसाइट पर सूचनाएं डाली जाएँगी।

‘सुपर 30’ ने न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी अपनी पहचान बनाई है। न्यूज वीक पत्रिका ने इस संस्थान को दुनिया के चार सबसे नवीन स्कूलों की सूची में शामिल किया है।

आनंद कुमार और उनकी इस पहल ‘सुपर 30’ पर फिल्म भी बन रही है। जिसमे ऋतिक रोशन मुख्य भूमिका में हैं और उम्मीद है कि अगले साल तक फिल्म सिनेमाघरों में आ जाएगी।

इस संस्थान के बारे में जानने के लिए क्लिक करें


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कैसे करें यूपीएससी की तैयारी : यूपीएससी 2017 में दूसरे स्थान पर आने वाली अनु कुमारी के सुझाव!

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हाल ही में जब यूपीएससी 2017 का परिणाम घोषित हुआ तो उसमे दूसरी रैंक हासिल की, अनु कुमारी ने। हरियाणा के सोनीपत से ताल्लुक रखने वाली अनु कुमारी, एक बच्चे की माँ भी हैं। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज से अपनी ग्रेजुएशन व नागपुर से एमबीए किया। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत आईसीआईसीआई प्रोविडेंट म्युचअल फण्ड, मुंबई से की।

साल 2012 में वे गुरुग्राम आ गयीं और उनकी शादी हो गयी। जून 2016 में अनु ने अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ दी और यूपीएससी परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। जब अनु ने तैयारी शुरू की तब उनका बेटा वियान सिर्फ ढाई साल का था।

उन्होंने बताया, “शुरुआत मे, मैं मेरी माँ के घर पर थी। पास के पुस्तकालय में जाकर पढ़ाई करती पर मैं जैसे ही घर आती वियान को मेरा वक़्त चाहिए होता, वो सिर्फ ढाई साल का था। पर मुझे पता था कि मेरी किताबों से दूर होने वाले उन कुछ घंटों में भी मेरी प्रगति में बाधा आ सकती है। वह वक़्त बहुत मुश्किल था।”

हालाँकि, अनु ने किसी भी चीज़ को अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया। और आख़िरकार, उनकी मेहनत रंग लायी। उन्होंने परीक्षा परिणाम में राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा स्थान हासिल किया।

अनु की ट्रेनिंग अगस्त, 2018 से शुरू होगी।

पर पिछले महीने में उन्होंने फेसबुक के जरिये बहुत से यूपीएससी के प्रतिभागियों के पूछने पर उनके मार्गदर्शन हेतु पोस्ट शेयर की। जी हाँ, उन्होंने अपने कुछ नोट्स व पढाई करने का तरीका साँझा किया है। अनु ने अपनी पोस्ट में बताया है कि वे एनसीआरटी की किताबों से सिलेबस के छोटे पॉइंट्स बनाने की बजाय कुछ अंतराल पर सरे सिलेबस का रिवीजन किया करती थी।


इसके अलावा उन्होंने प्रीलिमनरी परीक्षा में करंट अफेयर्स के अध्ययन के लिए insightsonindia.com वेबसाइट से पढ़ाई की, क्योंकि इस वेबसाइट पर आपको बहुत ही संक्षिप्त विवरण मिलेगा। लेकिन मुख्य परीक्षा के लिए वे करंट अफेयर्स के रिवीजन पर बहुत वक़्त नहीं जाया करना चाहती थीं इसलिए उन्होंने नोट्स बनाकर पढ़ाई की।

आप उनके नोट्स यहां पढ़ सकते हैं क्लिक करें

पर ध्यान रहे कि ये नोट्स मात्र एक संदर्भ के लिए हैं ताकि आप इनसे प्रेरणा ले अपने अनुरूप अपनी कार्यनीति बनाएं।


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मिहिर सेन: वह भारतीय जिसने सात महासागरों को जीता!

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हते हैं कि अगर ठान लिया जाये तो कुछ भी असंभव नहीं और ऐसे ही अटूट हौसलें और विश्वास का प्रतीक थे, भारतीय तैराक- मिहिर सेन। मिहिर सेन, एक कैलेंडर वर्ष में पांच अलग-अलग महाद्वीपों के पांच अलग-अलग समुद्रों में तैरने वाले पहले भारतीय थे।

मिहिर सेन को प्रसिद्धि मिली जब उन्होंने साल 1958 में द इंग्लिश चैनल को तैरकर पार किया। 27 सितंबर, 1958 को 14 घंटे और 45 मिनट में इंग्लिश चैनल को पार करने वाले वे पहले भारतीय और पहले एशियाई भी बने। साल 1966 में वे तैराकी से हर महाद्वीप में जल निकायों को पार करने वाले पहले व्यक्ति बन गए।

16 नवंबर 1930 को पश्चिम बंगाल, ब्रिटिश भारत के पुरुलिया में एक ब्राह्मण परिवार में मिहिर सेन का जन्म हुआ। इनके पिता का नाम डॉ. रमेश सेनगुप्ता तथा माता का नाम लीलावती था। पिता एक फिजीशियन थे। उन्होंने अपना शुरुआती जीवन गरीबी में बिताया। बहुत मुश्किलों से उन्होंने अपनी स्नातक तक पढ़ाई पूरी की।

फोटो: पंडित नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित के साथ मिहिर सेन/ बी ऍन इंस्पायरर

वे हमेशा से इंग्लैंड में वकालत पढ़ना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने बहुत मेहनत भी की। इंग्लैंड में वकालत के दौरान उन्होंने एक महिला तैराक के बारे में पढ़ा जिसने इंग्लिश चैनल तैरकर पार किया था। उसके बारे में पढ़कर सेन इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने भी ऐसा ही कुछ करने की ठान ली।

वहां से उनकी प्रसिद्ध, सफ़ल और जाहिर तौर पर सर्वश्रेष्ठ तैराक बनने की यात्रा शुरू हुई। मिहिर सेन ने अपने रास्ते में आने वाली हर समस्या पर विजय प्राप्त की और एक कैलेंडर वर्ष में सभी पांच महाद्वीपों में तैरने वाले पहले व्यक्ति बन गए। सात समुद्रों को तैरने के लिए उनका उद्देश्य मुख्य रूप से राजनीतिक था। असाधारण दृढ़ विचारों और अपरंपरागत महत्वाकांक्षा के राष्ट्रवादी युवा होने के नाते, वे युवाओं के लिए साहस का एक उदाहरण स्थापित करना चाहते थे और दुनिया को दिखाना चाहते थे कि भारतीय क्या कुछ कर सकते हैं।

द टेलेग्राफ के लिए एक लेख में, मिहिर सेन की बेटी सुप्रिया सेन लिखती हैं कि चैनल पर विजय प्राप्त करने पर, मेरे पिता ने कहा था, “जब मुझे अपने पैरों के नीचे ठोस चट्टान महसूस हुई, तो वह अहसास बहुत अलग था। मेरा गला रुंध गया था और खुशी के आँसू मेरी थकी हुई आंखों में उमड़ पड़े थे। केवल मुझे पता था कि मैं अपने पैरों के नीचे धरती को महसूस करने के लिए किस पीड़ा से गुजरा था। मां पृथ्वी कभी इतनी सुरक्षित, इतनी मोहक महसूस नहीं हुई। यह एक यात्रा का अंत था- एक लंबी और अकेली तीर्थयात्रा।”

अपनी पत्नी बैला के साथ मिहिर सेन/टेलेग्राफ इंडिया

इस सफलता के बाद साल 1958 में वे भारत लौटे। यहां आकर भी उन्होंने मीडिया की मदद से कई अभियान चलाये, जिससे सभी भारतीयों को तैराकी क्लबों का हिस्सा बनने का मौका मिले। वे पूरी दुनिया को और खासकर यूरोप को दिखा देना चाहते थे कि भारतीय कितने सक्षम हैं। ऐसा करने के लिए वे बस तैरना चाहते थे और जीतना चाहते थे।

मिहिर सेन का अगला साहसिक कारनामा श्रीलंका के तलाईमन्नार से भारत के धनुष्कोटी तक तैराकी का था, जो उन्होंने 6 अप्रैल, 1966 को आरम्भ कर 25 घंटे 44 मिनट में पूरा किया। इसके पश्चात्‌ मिहिर सेन ने 24 अगस्त, 1966 को 8 घंटे 1 मिनट में जिब्राल्टर डार-ई-डेनियल को पार किया, जो स्पेन और मोरक्को के बीच है।

फोटो: विकिमीडिया

जिब्राल्टर को तैर कर पार करने वाले मिहिर सेन प्रथम एशियाई थे। लगता था कि उन्होंने सभी सात समुद्रों को तैर कर पार करने की जिद ठान ली है और वास्तव में उन्होंने अनेक समुद्र पार करके साल 1966 में 5 नए कीर्तिमान स्थापित किए।

12 सितंबर, 1966 को उन्होंने डारडेनेल्स को तैरकर पार किया। डारडेनेल्स को पार करने वाले वे विश्व के प्रथम व्यक्ति थे। उसके केवल नौ दिन पश्चात् यानी 21 सितंबर को वास्फोरस को तैरकर पार किया। 29 अक्टूबर, 1966 को उन्होंने पनामा कैनाल को लम्बाई में तैरकर पार करना शुरू किया। इस पनामा कैनाल को पार करने के लिए उन्होंने 34 घंटे 15 मिनट तक तैराकी की।

मिहिर सेन ने कुल मिलाकर 600 किलोमीटर की समुद्री तैराकी की। उन्होंने एक ही कैलेंडर वर्ष में 6 मील लम्बी दूरी की तैराकी करके नया कीर्तिमान स्थापित किया। पाँच महाद्वीपों के सातों समुद्रों को तैरकर पार करने वाले मिहिर सेन विश्व के प्रथम व्यक्ति थे।

मिहिर सेन की साहसिक और बेजोड़ उपलब्धियों के कारण भारत सरकार की ओर से साल 1959 में उन्हें ‘पद्मश्री’ प्रदान किया गया और साल 1967 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा गया। इसके अलावा वे ‘एक्सप्लोरर्स क्लब ऑफ इंडिया’ के अध्यक्ष भी थे। उनके नाम पर गिनीज़ बुक में कई वर्ल्ड रिकॉर्ड दर्ज हैं।
स्त्रोत

उन्होंने साल 1972 में, एक्सप्लोरर्स क्लब के माध्यम से भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों को फिर से व्यवस्थित करने में मदद की। भारत सरकार से वित्तीय सहायता के बिना, उन्होंने लगभग 300 परिवारों की देखभाल की। मिहिर सेन ने कई व्यवसाय भी शुरू किये पर साल 1972 में राजनैतिक बदलाव के चलते वे असफल रहे।

मिहिर सेन का आखिरी वक़्त बहुत ही कष्टपूर्ण बीता। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अपनी याददश्त खो दी थी। 11 जून, 1997 को मिहिर सेन का कोलकाता में 67 वर्ष की आयु में निधन हो गया। पर दुःख की बात यह है कि इतने महान तैराक के बारे में हमारे देश के किसी भी स्कूल-कॉलेज में नहीं पढ़ाया जाता।

मिहिर सेन, एक महान भारतीय और बंगाल का महान पुत्र! एक आदमी जिसने बड़े सपने देखने की हिम्मत की, चुनौतियों को गले लगा लिया और असंभव काम किया! मिहिर सेन ने जो हासिल किया, वह हासिल करना यक़ीनन नामुमकिन है। इसलिए आज कम से कम हम उन्हें याद कर एक शिक्षक और नायक के तौर पर उन्हें पहचान दे सकते हैं।

( संपादन – मानबी कटोच )


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सलाम! दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी ने युवा सहयोगी को बचाने के लिए सीने पर खायी गोली!

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कुछ दिन पहले ही हमने उत्तराखंड के सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह और मुंबई के ट्रैफिक पुलिस कर्मी इंग्ले के बारे में सुना, जिनके अपने काम के प्रति निष्ठा को सम्पूर्ण देश ने सराहा। हमारे देश के पुलिस विभाग का एक और ऐसा ही कारनामा बीते शनिवार राजधानी में देखने को मिला।

दिल्ली के छतरपुर में दिल्ली पुलिस के एक स्पेशल टीम नामी गैंगस्टर राजेश भारती को पकड़ने के लिए गयी थी। इसी बीच पुलिस और गैंगस्टर के बीच गोलीबारी शुरू हो गयी। जहां एक तरफ दिल्ली पुलिस ने उन चारों गैंगस्टरो को मार गिराया वहीं बहुत से पुलिस कर्मी भी घायल हुए।

राजेश भारती हरियाणा के जींद से ताल्लुक रखता है और ‘क्रांति गिरोह’ के नाम से बहुत से अपराधों को अंजाम देता है। उस पर कई लूटपाट, हत्या और अपहरण के मामले दर्ज है और उसकी गिरफ्तारी पर एक लाख रूपये का इनाम भी है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, सब-इंस्पेक्टर बिजेन्दर सिंह देशवाल ने अपने 25-वर्षीय सहयोगी, हेड कॉन्सटेबल गुरदीप सिंह को बचाने के लिए अपने सीने पर गोली खायी। गुरदीप सिंह का एक तीन महीने का बच्चा है। इसके अलावा दूसरे सब-इंस्पेक्टर राज सिंह ने अपने हाथ पर गोली लगने के बावजूद अपने सभी साथियों को अस्पताल पहुंचाया।

फोटो: ज़ी न्यूज़

देशवाल के बेटे आशीष, जो एक फिज़ियोथेरपिस्ट हैं, उन्होंने बताया कि उनके पिता पिछले 15 साल से इस स्पेशल टीम का हिस्सा हैं और वे अपने काम से बहुत प्यार करते हैं। ये पल उनके लिए गर्व के साथ-साथ चिंता से भी भरा है क्योंकि एक तरफ उनके पिता की बहादुरी है और दूसरी तरफ उनकी जान की फ़िक्र, क्योंकि उन्हें दूसरी बार गोली लगी है।

यह भी पढ़े – Exclusive : मिलिए भीड़ के हाथों युवक को मरने से बचाने वाले सब इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह से!

इसी सब के बीच सफदरजंग अस्पताल में एमबीबीएस अंतिम वर्ष की एक छात्रा कोमल काद्यान के लिए गोली के घावों के साथ एक मरीज़ के इलाज का पहला अनुभव था। और यह मरीज़ और कोई नहीं बल्कि उनके खुद के पिता कृष्ण काद्यान थे। कृष्ण काद्यान भी इस स्पेशल टीम का हिस्सा थे, जो मुठभेड़ में घायल हुए।

कोमल ने बताया कि, “पापा ने घटना की पहली रात घर पर सबको जल्दी सोने के लिए कहा क्योंकि सुबह उन्हें जल्दी ही किसी काम से जाना था। शनिवार की सुबह 4:30 बजे वे घर से निकले थे। उसी शाम कोमल को फ़ोन आया कि वे एक दुर्घटना के चलते अस्पताल आ रहे हैं।

शूटआउट में आठ विशेष पुलिस कर्मी घायल हुए। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने कहा कि एक हेड कांस्टेबल, गिरधर को इलाज के लिए एक निजी अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया है, जबकि चार पुलिस अधिकारी अभी भी आघात केंद्र में हैं। अन्य तीन को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई है।

दिल्ली पुलिस की इस दिलेरी को हम सलाम करते हैं। साथ ही सराहना करते हैं बिजेन्दर जैसे पुलिस कर्मियों की जो अपनी ड्यूटी के साथ-साथ अपने साथियों के लिए भी अपनी जान दांव पर लगा सकते हैं। यक़ीनन देश के अन्य प्रशासनिक अधिकारी भी इसने प्रेरणा लेंगें।

( संपादन – मानबी कटोच )


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उम्र महज एक संख्या है, देखिये वायरल हो रही एक वृद्ध महिला टाइपराइटर की वीडियो!

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ज सोशल मीडिया पर टाइपराइटर का काम कर रही एक वृद्ध महिला का वीडियो वायरल हो रहा है। इस वीडियो को ट्विटर पर साँझा किया है हतिंदर सिंह ने। वीडियो पोस्ट करते हुए सिंह ने कैप्शन में दावा किया है कि मध्य प्रदेश की यह महिला एक कलेक्टर कार्यालय के सामने बैठती है, जो हिंदी टाइपिस्ट के रूप में काम करती है। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक यह वीडियो मध्य प्रदेश के सीहोर से है, जो हतिंदर सिंह को व्हाट्सप्प पर मिला। इस वीडियो में आप इस वृद्ध महिला को प्रभावशाली गति और उत्साह के साथ टाइपराइटर पर टाइपिंग करते देख सकते हैं

आप वीडियो में देख सकते हैं,

यह वृद्ध महिला यक़ीनन आज बहुत से युवाओं के लिए प्रेरणा है। इन्हें देखकर साबित होता है कि अगर ठान लिया जाये तो उम्र महज एक नंबर है।


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वो वाकये जहाँ अटल जी की हाज़िर जवाबी ने कर दी सबकी बोलती बंद!

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पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी अपनी राजनीतिक पहचान के साथ-साथ साहित्य के लिए भी जाने जाते हैं। उनकी लिखी हुई कवितायेँ बहुत से लोगों ने पढ़ी होंगी। उनके कई काव्य-संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा प्रसिद्द ग़ज़लकार जगजीत सिंह ने भी उनकी कई कविताओं को संगीतबद्ध किया है।

पर एक कवि होने के साथ-साथ, वाजपेयी की एक और पहचान है, वह है खुश मिजाज़ व हाज़िर जबाव व्यक्ति के रूप में। कितनी ही बार अपने भाषणों में, कविताओं में, पत्रकारों के सवालों के जबाव में और विपक्ष के नेताओं को चुप कराते समय, उन्होंने अपने इस हास्य-स्पद और कटाक्षपूर्ण ढंग का परिचय दिया।

आप स्वयं ही पढ़ लीजिये कुछ वाकये, जो उनकी हाज़िर-जबावी के उदाहरण हैं,

1. प्रभावशाली संयुक्त राष्ट्र?

 

2. सबका दिल जीतने वाले!

3. सही पकड़े हैं!

4. जीवन का कटु सत्य!

5. लो कर लो बात!

6. प्रेम (कटाक्ष) की राह से!

7. वाह!

8. कोई परेशानी है तो बताइये!

तो ऐसे हैं हमारे भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी। जिन्होंने अपनी सूझ-बुझ से भारत का नेतृत्व किया और आज भी लोगों के लिए प्रेरणा हैं।


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शिकंजी : गलियों की देसी ड्रिंक या फिर संस्कृति की विरासत!

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शिकंजी और भारत का रिश्ता तो बहुत पुराना है; ख़ास कर उत्तर भारत से! मैं हरियाणा से हूँ और आज इतनी नामी-गिरामी कोल्ड-ड्रिंक्स के जमाने में भी मेरे यहां गर्मी में आने वाले रिश्तेदारों को सबसे पहले शिंकजी ही पिलाई जाती है।

एक गिलास पानी में भुना हुआ जीरा, आमचूर और काला नमक जैसे स्वाद-युक्त मसालों के साथ एक नींबू निचोड़ दो, बस बन गयी शिंकजी। चाहे तो आप थोड़ी-सी चीनी भी मिला सकते हैं, आपकी इच्छानुसार।

फोटो: ट्रिप एडवाइजर

शिकंजी के अपने दर्जनों स्थानीय नाम और संस्करण है। आप उत्तर भारत के किसी भी शहर में चले जाइये, गर्मी के मौसम में आपको बहुत से शिकंजी के ठेले मिलेंगें सड़कों पर। मिट्टी के बड़े से घड़े को भीगे हुए कपड़े से ढक कर, बूंदी और पुदीने की पत्तियों की सजावट के साथ बहुत से लोग आपको शिकंजी बेचते दिख जायेंगे।

इसके अलावा कुछ लोग आज भी पुराने तरीके अपनाकर एकदम ठंडी शिकंजी आपको परोसते हैं। जी हाँ, लम्बा बेलनाकार बर्तन, जिसके अंदर स्टील के जार में मसालेदार पानी, जिसके चारों तरफ एकदम छोटे-छोटे टुकड़े की हुई बर्फ रखी जाती है। जार का ढक्क्न हैंडल से हिलाकर शिकंजी को एकदम ठंडा किया जाता है। बाद में निम्बू निचोड़कर और ताजा पुदीने की पत्तियों के साथ शिकंजी ग्राहक को दी जाती है।

Photo: the young big mouth

वैसे तो शिकंजी हर घर में बनती है हमारे यहां, पर दिल्ली की शिकंजी की बात ही अलग है। मुझे अभी भी याद है जब दिल्ली यूनिवर्सिटी से अपने ग्रेजुएशन के दिनों में हर गर्मी में हमारे कॉलेज के बहार एक न एक शिकंजी वाला तो खड़ा रहता ही था। हर दिन दोपहर में कॉलेज से हॉस्टल जाते वक़्त शिकंजी पीना तो जैसे रिवाज था हमारा।

हालाँकि, मुझे सबसे ज्यादा बंटा वाली शिकंजी पसंद है। अरे, वही कांच की छोटी सी बोतल, जिसमें बोतल की गर्दन में कंचे की गोली अटकाई होती है। इसे आम बोल-चाल की भाषा में ‘गोली सोडा’ भी कहते हैं।

अब यह तो नहीं पता कि दिल्ली से इस बंटा का रिश्ता कितना पुराना है, पर जनाब इसकी अपनी विकी एंट्री है गूगल पर।

Photo: http://moviemastiadda.blogspot.com

आज भले ही कितनी भी हाई-फाई ड्रिंक रेस में हों पर बंटा के देसीपन की बात ही अलग है। मुझे अभी भी याद है जब हम चिलचिलाती धुप में सरोजिनी नगर और जनपथ की सड़कें नापते थे, ना जाने कितने गिलास बंटा शिकंजी के पिए होंगें उस वक़्त दोस्तों के साथ।

एक दिलचस्प बात यह है कि इंदौर की शिकंजी के रंग-ढंग पुरे उत्तर भारत से अलग हैं। न तो इसमें निम्बू है और न ही पानी। बल्कि, इंदौर वालों की शिकंजी दूध और मेवों से बनती है, छाछ के हल्के से खट्टेपन के साथ, पर एकदम मीठी।

कभी इंदौर जाना हो और उनकी शिकंजी पीनी हो तो रात में ‘सराफ़ा बाज़ार’ जाइएगा, कहते हैं वहां की शिकंजी का कोई मुक़ाबला नहीं।

फोटो: एनडीटीवी फ़ूड

तो अगली बार जब गला सूखे तो कोका-कोला को साइड कर जरा भारतीय शिकंजी पी लीजियेगा, आखिर इस शिकंजी के साथ बहुत सी यादें और सदियों की संस्कृति जुड़ी है।

( संपादन – मानबी कटोच )


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सुरमा: इस लीजेंड की कहानी से प्रेरित है दिलजीत दोसांझ और तापसी पन्नू की अगली फिल्म!

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शाद अली की नई फिल्म विख्यात हॉकी खिलाड़ी संदीप सिंह की खेल में “वापसी की कहानी” के बारे में बताती है।

यह बायोपिक 13 जुलाई 2018 को रिलीज़ होगी और इसमें प्रतिभाशाली अभिनेता और गायक दिलजीत दोसांझ मुख्य भूमिका में नज़र आएँगे, जबकि तापसी पन्नू “एक बेटी, एक खिलाड़ी, एक बहादुर लड़की” की भूमिका निभा रहीं हैं। इस फिल्म के मुख्य अभिनेता निश्चित रूप से हमें उत्तेजित करते है, लेकिन उससे भी ज्यादा दिलचस्प है संदीप सिंह की कहानी- भारतीय राष्ट्रीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान जो एक बार बहुत करीब से गोली लगने के बाद बच गए थे और उन्होंने इस दुर्घटना के तीन सालों बाद भारत के लिए सुल्तान अजलान शाह कप जीता।

हम आपको संदीप की कहानी संक्षेप में बता रहे हैं, हालाँकि इसे सिल्वर स्क्रीन पर देखने का मजा अलग ही होगा।


संदीप का जन्म हरियाणा के कुरुक्षेत्र में साल 1986 में हुआ था। उनके बड़े भाई, बिक्रमजीत सिंह भी एक फील्ड हॉकी खिलाड़ी हैं। वह मैदान पर अपने प्रसिद्ध ड्रैग-फ़्लिक के लिए लोकप्रिय रूप से “फ़्लिकर सिंह” के रूप में जाने जाते थे। साल 2010 में, उनकी 145 किमी/घंटा की रफ्तार के कारण उन्हें दुनिया में सबसे तेज़ ड्रैग-फ़्लिकर कहा जाता था।

जल्द ही, संदीप का रैंक बढ़ा और उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर खेलना शुरू कर दिया।

साल 2004 में, संदीप ने कुआला लम्पुर में आयोजित सुल्तान अजलान शाह कप से अपनी अंतर्राष्ट्रीय पारी की शुरुआत की। साल 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों में दूसरा स्थान प्राप्त करने वाली भारतीय पुरुषों की हॉकी टीम का भी वे हिस्सा थे। वे हॉकी इंडिया लीग के उद्घाटन में नीलामी में बोली के लिए पांचवे नंबर पर सबसे महंगे खिलाड़ी थे। उसी टूर्नामेंट में, उन्होंने खेले गए 12 खेलों में 11 गोल किए।

हॉकी क्षेत्र में उनकी प्रतिभा कई वर्षों से उनके प्रदर्शन से स्पष्ट है।

हालांकि आकस्मिक रूप से बंदूक की गोली लगने के कारण हो सकता था कि वे भारत का प्रतिनिधित्व न कर पाते या फिर देश इस तरह का एक महान खिलाड़ी खो देता।

दरअसल, साल 2006 में, संदीप एक राष्ट्रीय शिविर में भाग लेने के लिए दिल्ली-कालका शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। एक रेलवे सुरक्षा बल जवान से गलती से चली गोली ने उन्हें घायल कर दिया। उस गोली ने संदीप की पसलियों के साथ-साथ उनके गुर्दे और किडनी को भी क्षतिग्रस्त कर दिया था। सबसे खतरनाक यह था कि गोली की वजह से उनकी रीढ़ की हड्डी में भी चोट आयी।

उस हादसे में फ्लिकर सिंह पक्षाघात के कगार पर थे।

“गोली मेरे तीन अंगों को घायल करते हुए निकली और मैं वहीं पर ढेर हो गया। मैं बस जाना चाहता था और खेलना चाहता था, जब भी मैं मैदान को देखता, या जब भी मैं टीवी पर मैच देखता तब-तब फिर से खिलाड़ी बनने के लिए मैं अंदर से रोता था, ” संदीप ने फ्री प्रेस जर्नल को बताया।

खेल के लिए उनके प्यार का वर्णन नहीं किया जा सकता है।

“जब मैंने गोली लगने के बाद पहली बार हॉकी देखी, तो मैंने अपने भाई से कहा, मेरी हॉकी स्टिक लाओ, मैं अपनी हॉकी स्टिक के साथ सोना चाहता हूं, और मैं फिर से हॉकी खिलाड़ी बनना चाहता हूँ,” संदीप ने बताया

धीरे-धीरे वे ठीक होने लगे। यह फिर से मैदान पर उतरने का उनका दृढ़ संकल्प था, या भाग्य या फिर दोनों, इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है। लेकिन, उस घातक चोट के तीन साल बाद संदीप ने भारतीय हॉकी टीम के कप्तान के रूप में वापसी की। भारतीय राष्ट्रीय टीम के कप्तान के रूप में मैदान पर उनकी प्रतिभा पहले दिन से ही चमकने लगी।

इतने लंबे अंतराल के बाद पहले ही साल में अंतरराष्ट्रीय जीत के लिए एक टीम की अगुवाई करना कोई आसान काम नहीं था। पर संदीप ने अपनी काबिलियत को तब साबित कर दिया जब उनके नेतृत्व में टीम सुल्तान अजलान शाह कप जीत गयी।

सुरमा फिल्म संदीप सिंह के जीवन, संघर्ष और उपलब्धियों को स्क्रीन पर लाने के लिए तैयार है। उनकी प्रतिभा निश्चित रूप से दर्शकों के दिलों और बॉक्स-ऑफिस पर छा जाएगी। 11 जून, 2018 को फिल्म का ट्रेलर भी रिलीज़ हो गया है। आप देख सकते हैं,

( संपादन – मानबी कटोच )


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कभी थे कृषि मजदूर, आज हासिल की है सिंगापूर में 8 लाख रूपये सालाना की नौकरी!

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रभंगा और मधुबनी के हज़ारों प्रवासी मजदूरों में से दिलीप साहनी भी एक थे। दिलीप पूर्णिया, बिहार के खेतों में मखाना की फसल के लिए मजदूरी करते थे। पर 23 साल के दिलीप ने सारी ज़िन्दगी मज़दूरी न कर, अपनी किस्मत को बदलने की ठान ली।

इस प्रवासी मज़दूर ने मैकेनिकल इंजीनियर बनने के अपने सपने को हासिल करने के लिए अपने रास्ते में आई ढेर सारी मुश्किलों को बहुत हिम्मत के साथ पार किया। और आज अपने इसी मेहनत और लगन के दम पर उन्हीने सिंगापुर में नौकरी पायी है। इसके बाद हजारों प्रवासी श्रमिकों के लिए वे एक उदाहरण बन गए हैं।

एक कृषि मज़दूर परिवार से ताल्लुक रखने वाले दिलीप के परिवार की मासिक आय दो-तीन हज़ार रूपये से ज्यादा नहीं थी।  पर आज उनको सिंगापुर की एक कंपनी ने 8 लाख रूपये प्रति साल का पैकेज दिया है। उनका यह सफ़र चुनौतियों से भरा हुआ था पर दिलीप और उनके परिवार के हौंसलों के आगे कोई कुछ न कर सका।

फोटो: फेसबुक

दिलीप अपनी सफ़लता का श्रेय अपने पिता और अपने छोटे भाई को देते हैं।

उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि, “मेरे और मेरे परिवार के लिए अभियंता/इंजीनियर बनने के अपने सपने को पूरा कर पाना कभी आसान नहीं था।”

उन्होंने  बताया कि उनका पूरा परिवार कटाई के मौसम में हर साल जुलाई से जनवरी तक दरभंगा से पूर्णिया, अपने घर से 245 किमी दूर, चला जाता था।

लेकिन दिलीप ने किसी भी मजबूरी को अपनी शिक्षा के बीच नहीं आने दिया। साल 2013 में, उन्हें भोपाल के एक निजी तकनीकी कॉलेज मिलेनियम ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस में एक इंजीनियरिंग कार्यक्रम में दाखिला मिल रहा था, पर पैसे की कमी सबसे बड़ी समस्या थी। उन्होंने शिक्षा ऋण के लिए बैंकों के दरवाजे भी खटखटाये पर सब ने इंकार कर दिया।

लेकिन दिलीप के हौंसले को बनाये रखा उनके भाई और पिता ने। उनके भाई विजय ने उनकी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाने के लिए चेन्नई की एक टाइल्स कंपनी में नौकरी कर ली। दिलीप के पिता, लल्तुनी साहनी ने भोपाल में अपने बेटे की मदद के लिए गैर-कटाई के मौसम के दौरान, नेपाल में आइसक्रीम बेचना शुरू कर दिया।

“अगर मेरे भाई और पिता मेरे साथ नहीं होते तो मैं कभी इंजीनियर नहीं बन पाता ,” उन्होंने बताया।

अन्तोर गांव से 10वीं पास करने वाले वे पहले व्यक्ति हैं। जेएनजेवी हाई स्कूल, नवादा, बेनीपुर से पहले डिवीजन के साथ उन्होंने 10वीं कक्षा पास की। साल 2013 में बहेरा कॉलेज, दरभंगा से कक्षा 12वीं की परीक्षा दी। स्कूल के दौरान भी अक्सर वे काम करने और कुछ पैसे कमाने के लिए मखाना कटाई के मौसम के दौरान पूर्णिया जाते थे।

उनके गांव के लोग उनका मज़ाक बनाते थे, पर दिलीप ने बिना कुछ कहे केवल अपनी मेहनत पर ध्यान दिया।

फोटो: फेसबुक

साल 2016 में इस युवा इंजीनियर को अपने इंजीनियरिंग कार्यक्रम में अकादमिक उत्कृष्टता के लिए, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा टॉपर्स का पुरस्कार मिला।

उनका यह कठिन परिश्रम रंग लाया जब संगम ग्रुप, स्टील कंपनी ने उन्हें 8 लाख रुपये के वार्षिक वेतन के साथ सिंगापुर में नौकरी की पेशकश की। बहुत से लोग सोचते होंगे कि यह संघर्ष का अंत है पर हम समझते हैं की यह उनकी सफलता की शुरुआत है।

अपने गांव के लिए उनके कई सपने हैं, जिसमें से एक है वंचित प्रवासी बाल मजदूरों की शिक्षा में मदद करना। इसके लिए उनकी प्रमुख प्रेरणा पूर्णिया पुलिस अधीक्षक निशांत तिवारी हैं, जिन्होंने वंचित बच्चों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ‘मेरी पाठशाला’ शुरू किया था।

हम दिलीप की इस मेहनत की सराहना करते हैं और कामना करते हैं कि वे इसी तरह सफलता की बुलंदियों को हासिल करते रहें।

( संपादन – मानबी कटोच )


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1992 मुंबई दंगों में इस परिवार ने बचाई थी शेफ विकास खन्ना की जान, आज 26 साल बाद मिले दुबारा!

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न्यूयॉर्क में बसे भारतीय मूल के मशहूर शेफ विकास खन्ना ने हाल ही में खुलासा किया है कि वे रमज़ान के पवित्र महीने में एक दिन का रोज़ा रखते हैं। वे ऐसा साल 1992 से कर रहे हैं, जिस साल मुंबई में भयानक दंगे हुए थे। उन्हीं दंगों में उनके साथ हुई एक घटना ने उन्हें भावनात्मक और व्यक्तिगत रूप में बहुत बदला है।

विकास मुंबई के सी रॉक शेरेटन होटल में अपनी शिफ्ट पूरी कर रहे थे, जब उन्हें शहर में फैले दंगों के बारे में पता चला इसके बाद, कर्मचारियों को होटल से बाहर जाने से भी रोक दिया गया था, क्योंकि उन्हें मेहमानों की देखभाल करनी थी और उस गंभीर परिस्थिति में होटल में बहार से कोई राहत कर्मचारी नहीं आ सकता था।

अनुपम खेर के साथ एक टीवी शो इंटरव्यू में विकास ने बताया था, “हमें सुनने में आया कि घाटकोपर में आग के चलते बहुत लोग मारे गए हैं। उस समय मेरा भाई घाटकोपर में रहता था।”

विकास ने बाहर जाकर अपने भाई को ढूंढने का निर्णय लिया। सड़कों पर हो रहे दंगें-फ़साद की भी उन्हें कोई परवाह नहीं थी। उनका ध्यान बस इस बात पर था कि उनके भाई को कुछ न हो।

“… मैंने घाटकोपर की तरफ बढ़ना शुरू किया। सड़कों पर हर तरफ भीड़ और दंगे हो रहे थे। थोड़ी दूर जाने पर एक मुस्लिम परिवार ने मुझे रोक कर पूछा कि यहां क्या कर रहे हो तो मैंने उन्हें बताया कि मुझे किसी भी तरह घाटकोपर पहुंचना है; मेरे भाई के पास। पर उन्होंने मुझे उनके घर के अंदर आने को कहा क्योंकि बाहर लोग हिंसक हुए जा रहे थे,” विकास ने बताया।

थोड़ी ही देर बाद एक भीड़ उस घर में आयी और पूछा कि विकास कौन है; तो परिवार के मुखिया ने जबाव दिया कि वो उनका बेटा है। जब भीड़ ने जोर दिया कि क्या सच में वह मुसलमान है तो उस परिवार ने विकास को बचाने के लिए उनसे कहा कि हाँ, वह मुसलमान है। इसके बाद वह भीड़ वहां से चली गयी।

उस दयालु परिवार के साथ विकास लगभग डेढ़ दिन तक रहे। इसके बाद उस परिवार ने कुछ व्यवस्था कर विकास के भाई का भी पता लगवाया। सौभाग्य से उनका भाई बिल्कुल ठीक था। दंगों के बाद, विकास का उस परिवार से सम्पर्क टूट गया। लेकिन, उस परिवार की इंसानियत के सम्मान में विकास ने हर रमज़ान में एक दिन का रोज़ा रखना शुरू कर दिया।

11 जून, 2018, सोमवार को विकास खन्ना ने एक ट्वीट में बहुत ख़ुशी से जाहिर किया कि 26 सालों बाद वे फिर से उस परिवार से मिल पाए हैं जिसने उनकी जान बचाई थी।

बेशक, इंसानियत से बड़ा कोई मज़हब नहीं होता।

( संपादन – मानबी कटोच )


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मुंबई की बहुमंजिला ईमारत में आग: 33 माले तक सीढियाँ चढ़कर इन सुरक्षाकर्मियों ने बचाई जानें!

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मुंबई में वर्ली के अप्पासाहेब मराठे मार्ग स्थित ब्यूमोंड ईमारत में बुधवार को आग लग गई। यह आग इमारत की बी-विंग में लगी। इस ईमारत में सिनेमा जगत एवं राजनीति की दिग्गज हस्तियां रहती हैं। सौभाग्यवश अभी तक किसी के भी घायल होने की सुचना नहीं।

दरअसल आग के फैलने से पहले ही सभी लोगों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया था। इसका श्रेय जाता है उन 36 सुरक्षा कर्मियों को, जिन्होंने खुद 33 माले तक सीढ़ियों से चढ़कर, हर एक घर का दरवाज़ा खटखटा कर लोगों को चेतावनी दी। यही सुरक्षा कर्मी लोगों को सुरक्षित मुख्य लॉबी तक भी लेकर आये।

युन्नुस खान सहित अन्य सुरक्षाकर्मियों ने दोपहर लगभग 2 बजे फायर अलार्म सुना। उन्होंने बताया कि, “इस ईमारत के हर फ्लोर पर दो फ्लैट है और लिफ्ट बंद की जा चुकी थीं, साथ ही बिजली भी काट दी गयी थी। इसलिए हमने सीढ़ियों से चढ़कर सुनिश्चित किया कि फ्लैट में कोई न हो और यदि कोई है तो उसे आगाह किया गया।”

एक और सुरक्षा कर्मी मुश्तियार खान ने बताया कि आग की सुचना मिलते ही इमारत की अग्निशमन प्रणाली ने काम करना शुरू कर दिया था। राहत की बात यह है कि इस घटना के दौरान कोई चोटिल नहीं हुआ। खान ने कहा, “लोगों की मदद करना और उनकी सुरक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य है।”

इसी इमारत के 25वें माले पर रहने वाली सीमा मीनावाला ने बताया कि अचानक से बिजली कट गयी थी और लिफ्ट ने भी काम करना बंद कर दिया। उन्होंने कहा, “यह अच्छा है कि इस तरह की परिस्थिति में निवासियों की मदद करने के लिए सुरक्षा कर्मियों को प्रशिक्षित किया जाता है।”

सुरक्षाकर्मियों ने जिस तरह की स्फूर्ति इस घटना में दिखाई वह यक़ीनन काबिल-ए-तारीफ है।

( सम्पादन – मानबी कटोच )


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गोल्ड: स्वतंत्र भारत के पहले ओलंपिक स्वर्ण पदक की अनकही कहानी!

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पिछले कुछ सालों में अक्षय कुमार ने वास्तविक कहानियों से प्रेरित फ़िल्में करके एक नया रिकॉर्ड कायम किया है। उनकी फ़िल्में, चाहे वो ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ हो या फिर ‘पैडमैन’, सभी में उनके अभिनय ने दर्शकों के दिल को छुआ। इसके साथ ही, वे इन फिल्मों के जरिये बहुत से अनसुने नायकों की कहानी बताने में सफल रहे हैं।

इसी क्रम में राष्ट्रीय पुरुस्कार विजेता अभिनेता की एक और फिल्म, ‘गोल्ड’ भी जल्द ही परदे पर उतरने के लिए तैयार है। यह फिल्म, साल 1948 ओलम्पिक में भारत के पहले गोल्ड मैडल की जीत से प्रेरित है।

ऐसी ऐतिहासिक जीत की कहानी, जिसने भारतीय हॉकी टीम को वैश्विक टीमों के एक विशिष्ट लीग में शामिल किया।

दिलचस्प बात यह है कि 1928 से 1956 तक, भारत ने ओलम्पिक में बिना हारे सीधे छह स्वर्ण पदक जीते!

भारतीय हॉकी टीम 1928 ओलम्पिक में/विकिमीडिया कॉमन्स

साल 1908 में, लंदन से हॉकी की ओलंपिक में शुरुआत हुई। यह वह समय था जब यह खेल भारत में अपनी जड़ें धीरे-धीरे फैलाने में लगा था। कलकत्ता और बॉम्बे में केवल कुछ क्लबों ने छोटे-मोटे टूर्नामेंट आयोजित किए थे। इंडियन हॉकी फेडरेशन (आईएचएफ) की पहली बैठक 7 सितंबर, 1925 को ग्वालियर में हुई, इसी के साथ कर्नल ब्रूस टर्नबुल को अध्यक्ष और एनएस अंसारी को सचिव के रूप में नियुक्त किया गया।

यह इस नए गठित संगठन के प्रयासों के कारण था कि भारतीय हॉकी टीम ने एम्स्टर्डम में 1928 ओलंपिक में अपनी पहली उपस्थिति बनाई। एक उत्कृष्ट शुरुआत में, टीम ने फाइनल में मेज़बान नेदरलैंड को हराकर अपना पहला स्वर्ण पदक जीता।

भारतीय टीम से प्रभावित हॉलैंड के एक पत्रकार ने लिखा था, “भारतीय गेंद गुरुत्वाकर्षण के कानून से अनजान प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि एक खिलाड़ी गेंद की तरफ नज़र गढ़ता है, और बॉल उसी तरीके से आगे बढ़ती है जैसे खिलाड़ी ने इसे मंजूरी दी है।”

इसी टूर्नामेंट में ध्यान चंद के रूप में एक किंवदंती का जन्म हुआ, जिन्होंने फाइनल में एक शानदार हैट-ट्रिक सहित 14 गोल किए। एक सैनिक का बेटा, एक मेहनती लड़का जो देर रात तक, चंद्रमा की रौशनी में पढ़ाई करता था। इसलिए उनके साथियों ने उन्हें ‘चंद’ उपनाम दिया था।

हॉकी खिलाड़ी ध्यान चंद

फोटो स्त्रोत

यह हॉकी का ही जादू था कि जब टीम एम्स्टर्डम से लौटी, तो हजारों लोग बॉम्बे डॉक्स में अपने ओलंपिक नायकों की झलक देखने के लिए उमड़ आये। यह दृश्य उनके प्रस्थान के काफी विपरीत था जब टीम को केवल तीन लोग विदा करने आये थे।

यह तो बस शुरुआत थी। ओलंपिक में अपने अगले दो सत्रों में, साल 1932 और 1936 में, टीम ने हॉकी के निर्विवाद चैंपियन के रूप में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए लगातार स्वर्ण पदक जीते।

हालांकि, ग्रेट ब्रिटेन की कोई भी टीम 1928 और 1936 के बीच ओलंपिक में भाग नहीं लेती थी। इसलिए, ध्यान चंद को हमेशा यह अफ़सोस रहा कि भारतीय टीम को अपने औपनिवेशिक शासकों को उन्हीं के खेल में हराने का मौका नहीं मिला।

पर यह भी जल्द ही बदलना था। वर्ष 1948 था और ओलंपिक लंदन में आयोजित किया जा रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध और विभाजन के बाद, आईएचएफ किसी भी तरह से इन खेलों के लिए एक टीम को मैदान में रखने में कामयाब रहा था। ध्यान चंद सेवानिवृत्त हो गए थे, लेकिन भारतीय टीम में प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी। यह टीम ओलंपिक में पहली बार अपने ध्वज तले चल रही थीं।

साल 1948 ओलम्पिक/विकिपीडिया

जब मौजूदा चैंपियन वेम्बली स्टेडियम में उतरे, तो लगभग 20,000 लोगों की भीड़ ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया, जो उनका खेल देखने के लिए उत्सुक थे। टीम भी अपने नए स्वतंत्र देश का सर गर्व से ऊंचा करने के लिए अडिग थी। प्राथमिक मुकाबलों में भारतीय टीम के बलबीर सिंह ने प्रतिभाशाली भूमिका निभाई। टीम ने फाइनल में पहुंचने के लिए सेमीफाइनल में नेदरलैंड को हराया।

बिलकुल किसी फिल्म के क्लाइमेक्स की तरह ही, फाइनल में आखिरकार भारत के प्रतिद्वंदी के रूप में ग्रेट ब्रिटेन था। सेमीफइनल में ग्रेट ब्रिटेन ने पाकिस्तान को हराया था, जिनका खेलने का तरीका बिलकुल भारत जैसा था। अंग्रेज़ों को लगा कि फाइनल में भी वे ही जीतेंगें। हालाँकि, उनके लिए फाइनल का मुकाबला किसी सदमे से कम नहीं था।

खेल वाले दिन हल्की बारिश के कारण मैदान भारी और मिट्टीनुमा हो गया था।  यह सभी परिस्थितियां घरेलू टीम (ब्रिटेन) के पक्ष में थी। पर फ़िर भी शानदार खिलाड़ी लेस्ली क्लॉडियस के नेतृत्व में खेल रहे ग्रेट ब्रिटेन को भारतीय टीम ने 4-0 से हरा दिया और आखिर ध्यानचंद का वर्षों का सपना पूरा हुआ!

फोटो स्त्रोत

अंग्रेज़ों से आज़ादी के एक साल बाद ही, उन्हीं की मिट्टी पर भारतीय तिरंगा लहराया और राष्ट्र गान गाया गया। उन खिलाड़ियों के लिए वह एक कभी न भूलने वाला पल था।

ब्रिटिश कप्तान नॉर्मन बोरेट ने प्रेस को बताया, “मुझे नहीं लगता था कि वे ऐसी ज़मीन पर जीत हासिल करेंगे जो उनके खेल के लिए अनुपयुक्त थी। लेकिन आज की रात उन्होंने दिखा दिया कि वे किसी भी परिस्थिति में शानदार हैं।”

साल 1948 ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की जीत कई कारणों से महत्वपूर्ण थी। सबसे पहले, दुनिया की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता 12 साल के अंतराल के बाद (द्वितीय विश्व युद्ध के कारण) वापस आई थी। दूसरा, भारत सिर्फ एक साल पहले स्वतंत्र हो गया था और अभी भी वैश्विक क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहा था। तीसरा, पौराणिक ध्यान चंद की अनुपस्थिति में, ज्यादातर लोगों ने उम्मीद की कि मौजूदा चैंपियन टूर्नामेंट में हार जाएंगे।

न सिर्फ़ भारतीय हॉकी टीम ने अपने विरोधियों को गलत साबित किया, बल्कि इस अंदाज में किया कि उन्होंने दुनिया भर के लाखों खेल प्रशंसकों के दिल जीत लिए।

साल 1952 और 1956 में भारत हॉकी का ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने का सिलसिला जारी रहा। पर 1960 में यह रिकॉर्ड रोम ओलम्पिक में पाकिस्तान ने तोड़ा। हालांकि, भारत ने 1964 में टोक्यो ओलंपिक में पाकिस्तान से ओलंपिक का ताज फिर जीत लिया। कुल मिलाकर, भारत के पास 1928 और 1980 के बीच 12 ओलंपिक में 11 हॉकी स्वर्ण पदक का अविश्वसनीय रिकॉर्ड है!

मॉस्को में भारतीय हॉकी के आखिरी ओलंपिक स्वर्ण के बाद आज 37 साल हो गए है, लेकिन आज भी हॉकी की दुनिया में भारत का नाम गर्व से गूंजता है। साल 1948 और 1952 के खेलों में जीतने वाली टीम के सदस्य केशव दत्त ने एक बार कहा था, “यह हॉकी ही थी, जिसने भारत की जगह विश्व खेलों के मानचित्र पर बनाई थी।”

हाल ही में, अक्षय कुमार की फिल्म ‘गोल्ड’ जो कि इन्हीं सब घटनाओं से प्रेरित है, का एक टीज़र रिलीज़ किया गया। यह फिल्म स्वतंत्रता दिवस के आस-पास ही रिलीज़ होगी।


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‘चाय पी लो आंटी’की वीडियो के ज़रिये मुंबई पुलिस दे रही है रोड सेफ्टी का सन्देश!

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हाल ही में, सोशल मीडिया पर हर जगह एक महिला बहुत चर्चित हो रही है, जो बहुत प्यार से सभी दोस्तों को चाय पीने के लिए आमंत्रित करती हैं। इनका नाम सोमवती महावर है। बहुत से लोग उनकी पोस्ट का मज़ाक बना रहे हैं पर मुंबई पुलिस ने हर बार की तरह इस बार भी इस वीडियो का बिलकुल सटीक उपयोग किया है।

किसी को अगर कोई समझ की बात बतानी हो तो कठोरता की जगह प्यार से हंसी-मजाक में भी समझा सकते हैं। इसका बहुत ही सही उदाहरण है मुंबई पुलिस का ट्विटर अकाउंट। मीम्स और जोक के जरिये नियम और कानूनों से लोगों को अवगत कराने का मुंबई पुलिस का तरीका नया नहीं है।

इसी परंपरा को निभाते हुए, उन्होंने इस बार सोमवती महावर की ‘चाय पी लो’ वीडियो का सहारा लिया है। उन्होंने यह वीडियो ट्वीट करते हुए लोगों से गुज़ारिश की है, “फ्रेंड्स, हेलमेट पहन लो।’

मान गए मुंबई पुलिस आपको!

( संपादन – मानबी कटोच )


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मुझसे पहली सी मोहब्बत

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क अमीर मोहब्बत होती है,
एक ग़रीब मोहब्बत.
इसके पहले कि आपत्ति की चिंगारियों को हवा दें, जान लें कि मेरे कहने का दौलत, रूपये-पैसे से कोई लेना-देना नहीं है. अमीर मोहब्बत आपकी ज़िन्दगी आसान कर जाती है.. और ग़रीब मोहब्बत खोखला.

मैं कतई नहीं मानता कि ये एक आग का दरिया है और डूब के जाना है.
मोहब्बत तो दूध-शहद की नदी है.. रमणीय यात्रा है.
हाँ लहरें तेज़ हो जाती होगीं,
रास्ते में चलती होंगी शोरीली आँधियाँ, ओले
कभी खाने से भरे होंगे कभी ख़ाली झोले
कभी उछल कर सर पर बैठ जाओगे, कभी तुनक कर चार दिन नहीं बोले

जिसने आँख बंद करके, संगीत की लय पर झूमते यात्रा की – वो अमीर हो गया.
जिस बेचारे ने जोड़-घटाना किया
गणित लगाया, हवा को पढ़ा, पानी को परखा
बारिश-ठण्ड-गरमी से जूझने का इंतेज़ाम किया
उसे सुनाई देता रहा सुब्हो-शाम का चरखा
उसे संगीत सुनाई देना बंद हो गया
उसे मौसम पूरी तरह दिखाई देना बंद हो गया
उसे डर लग गया
उसकी मोहब्बत ग़रीब हो गयी

जब इधर से नाव में चढ़े हैं सरकार
तो ये नहीं है कि उधर जाना है
इस पार – और उस पार, सब एक है
‘उधर’ कुछ नहीं होता (वैसे ये तुम्हें भी पता है)
नाव – सफ़र – चलना ही गंतव्य है
गणित लगा लो; या नहीं लगाओ और सफ़र के मज़े लो
होना वही है – धूप होगी, रात होगी, हिचकोले होंगे
कुछ भी कर लो – नाव में हो तो होना वही है
फिर से- जोड़-तोड़ लगाने की जद्दोजहद में हम संगीत नहीं सुन पाते हैं
आकाश के रंगों को बदलता नहीं देख पाते हैं
वो पक्षी जो नाव के साथ-साथ चल रहा है दोस्त दिखने के बजाय – परेशानी लगने लगता है. आँख बंद करके जीवन का आनंद लेते हुए चलना अकर्मण्यता या बेवकूफ़ी नहीं है. ऐसा बनियों को दिखता है.

मोहब्बत और ज़िन्दगी के साथ बनियापन (अपने जलाल पर भी) आपको सुरक्षा का महज़ एक वहम ही देता है. सच में, वह सुरक्षा एक वहम के सिवा कुछ नहीं होती. सिर्फ़ सफ़र ही अपना है. अकेले ही चलना है.. और तुम्हारा साथ अगर मेरे सफ़र को आसान करता है तो ज़िन्दगी अमीर है, वह मोहब्बत अमीर है..

मुन्नू, तुम्हें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये कविता फिर से याद दिला दूँ. जो ‘तुम्हारे साथ रह कर’ शीर्षक से कही थी उन्होंने:-

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

गुलज़ार साहब ब्राण्ड का इश्क़ रोने-धोने-तकलीफ़-और-आग का दरिया तैर कर पार करने जैसी बचकानी बातों का इश्क़ इसलिए है कि वहाँ एक दूसरे में कुछ ढूँढने की कोशिश है – वहाँ (एक-दूसरे में) कुछ नहीं रखा साल-दो साल के बाद. पता है न कि 80% शादियाँ asexual होती हैं. मोहब्बत एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अपने आपको ढूँढ़ने का नाम है. तुम आ जाओ तो मैं उपन्यास लिख लूँ, अपनी फ़िल्म बना लूँ, नाचना सीख लूँ, जिम जाने लगूँ, दोपहर भर खिड़की के बाहर बादलों को देखता रहूँ और शाम को कपड़ों को ले कर तुमसे लड़ाई करूँ.. फिर दो घण्टे बाद तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर दरवाज़ा खटखटाऊँ, सुबह चार बजे उठ कर मक्खी के भिनभिनाने के संगीत पर कविता लिखूँ.. दूसरी लड़कियों के साथ फ़्लर्ट करूँ.. फिर एक दिन उठूँ और पूरी दुनिया बदल दूँ.

यह है मोहब्बत का काम.. देखिये कितना मैं-मैं-मैं है. और यही सही है. यही अमीर मोहब्बत है. फिर से – तुमसे मिलने के बाद (तुम्हारे कमीनेपन के बावजूद) अगर ‘मेरी’ सुबह का आकाश ज़्यादा रंगीन होता है. मैं घास की आवाज़ सुन पाता हूँ क्योंकि कल रात एक क्षण के लिए तुम्हारी आँखों ने कुछ कहा था. यह अमीरी है. यह इश्क़ की बात है, ज़िन्दगी की बात है. मोहब्बत (अपने जीवन) के साथ मेहनत-मशक्कत मत करो भाई.. ‘आग के दरिया में तैरने की जलन’ को ग़रीब (और मिडिल क्लास) मानसिकता के कुओं में रहने वालों के छोड़ दो. वही लोग संगीता की चिट्टियाँ कलाइयाँ देख कर कूद कर शादी कर लेंगे और कुछ सालों बाद उसकी बढ़ती कमर पर तंज़ कसेंगे।

मिले तो मिले नहीं मिले तो न सही.
आगे बात हुई तो हुई – न तो न सही.
मुझसे पहली सी ही मोहब्बत की उम्मीद रखना मेरे दोस्त – मुझे पहली सी ही मोहब्बत देना.
ताकि मेरे तुम्हारे ग़मे-दहर के झगड़े, झगड़े न रहें.

ये कविता पहले देखी भी हो तो फिर से देख लो – फिर दस मिनट अपना फ़ोन-वोन अलग रख कर कल्ले बैठ जाओ और अपने आप से बात करो कि ग़रीबी चाहिए या अमीरी. और हाँ उस बुरीसीरत ईगो की आवाज़ें शान्त करो जो कह रहा है कि ‘अमीरी तुम्हें मुबारक हो राकेश बाबू, हम ग़रीबी में जी लेंगे..’

इसे पढ़ सुन कर भी अगर कोई अंतर नहीं पड़ा तो बता देना, मैं बालकनी से छलाँग लगा लूँगा – लेकिन अगर कुछ अंतर पड़ा हो तो बताना ज़रूर.


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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पाँच सितारा होटल की नौकरी छोड़ बिहार में माहवारी के प्रति महिलाओं को सजग कर रहे है ‘मंगरु पैडमैन’

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बिहार के मधुबनी अंचल में स्थित खटौना गांव से ताल्लुक रखने वाले मंगेश झा को आज बहुत से लोग ‘मंगरु पैडमैन’ के नाम से भी जानते हैं। मंगेश वो शख्स हैं जो झारखंड के आदिवासी गांवों और कस्बों में जाकर औरतों व अन्य लोगों को माहवारी के प्रति जागरूक कर रहे हैं।

एक संपन्न परिवार से संबंध रखने वाले मंगेश ने इंस्टिट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट, भुवनेश्वर से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर, अपने करियर की शुरुआत ओबरॉय होटल, कोलकाता से की।

पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इसीलिए तो मंगेश कोलकाता के बाद पुणे में भी एक अच्छे होटल की नौकरी छोड़ आये। पुणे के बाद मंगेश अपने माता-पिता के पास रांची, झारखंड आ गए। वैसे तो वे सरकारी नौकरी की तैयारी करना चाह रहे थे; पर अपने पिताजी के कहने पर उन्होंने रांची के रेडिसन ब्लू होटल में नौकरी कर ली।

“हम जब रांची आये तो हमारे मन में अपने शहर को ले कर बहुत उत्साह था। इसलिए पहले से ही गूगल और विकिपीडिया पर छानना शुरू कर दिया था कि कहाँ-कहाँ घुमा जा सकता है। आप इंटरनेट पर देखेंगें तो आपको पता चलेगा कि रांची को झरनों का शहर भी कहा जाता है,” मंगेश ने बताया।

मंगेश को जब भी काम से दो दिन की छुट्टी मिलती तो वे अपने शहर और प्रदेश को थोड़ा और अधिक जानने की चाह में निकल पड़ते। पर जैसे-जैसे वे गांवों और आदिवासी इलाकों में जाने लगे तो वहां की सच्चाई से उनका सामना हुआ। लोग कैसे अपना जीवन यापन कर रहें हैं, न कोई शिक्षा का आधार और न ही को रोजगार।

मंगेश के सामने जो झारखंड था और इंटरनेट पर जो झारखंड है, उन दोनों में जमीन-आसमान का अंतर था। इसलिए उन्होंने इन लोगों की स्थिति में बदलाव लाने की ठानी। पर किसी भी समुदाय में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है उस समुदाय के लोगों का हिस्सा बनना। मंगेश इन गांवों में लोगों के साथ वक़्त बिताने लगे।

“सबसे पहले मैंने बच्चों की शिक्षा से शुरुआत की। रात्रि कालीन पाठशालाएँ शुरू की गयीं,” मंगेश ने बताया।

वे खुद सोलर-लाइट में बच्चों को पढ़ाने लगे। चार बच्चों से शिक्षा की अलख जगाने की मुहिम आज 13 गाँव को मिलाकर 500 तक पहुंच गयी है।

बाद में उन्होंने रोज़गार की समस्या पर काम किया। रोज़गार न होने के कारण यहां सेक्स-रैकेट की समस्या पैदा हो गयी थी। जिसे खत्म करने के लिए इन लोगों को रोज़गार क्षेत्रों से जोड़ने की मुहिम चलाई गयी। उन्होंने अपने एक मित्र, जो ‘सक्षम रेडी टू वर्क’ के ऑपरेशन हेड है, से बात की। ‘सक्षम रेडी टू वर्क’ एक कंपनी है जो एनएसडीसी (नेशनल स्किल्स डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन) से संबंधित है। इसके सहयोग से उन्होंने गांवों के लोगों को मेडिका रांची व मेडिका सिलीगुड़ी में हाउसकीपिंग विभाग में सम्मानजनक रोज़गार दिलाया।

अपने सामाजिक सुधार के कार्यों के चलते मंगेश ने अपनी नौकरी भी छोड़ दी। धीरे-धीरे उनके साथ और भी लोग जुड़ गए।

अपने इस समाज-सुधार कार्य को वे ‘सोच: इंपावरिंग पीपल’ नामक एक संस्था (फिलहाल रजिस्टर्ड नहीं) के तहत कर रहे हैं जिसमें कुछ स्थानीय ग्रामीण भी उनकी मदद करते हैं।

इसी काम के सिलसिले में एक बार मंगेश रासाबेड़ा नामक गांव में गए जहां लोग मूसली का काम करते हैं। वहां उन्हें पता चला कि जब भी औरत माहवारी में होती है तो उसे मूसली का काम नहीं करने दिया जाता। दरअसल माहवारी से जुड़े अनेक मिथकों में से यह भी एक मिथक था उस गांव में।

ऐसे ही धीरे-धीरे इस विषय पर कुछ लोगों से चर्चा करने पर उन्हें पता चला कि गांव की औरतें माहवारी के दिनों में पेड़ के पत्ते, राख, कपड़ा आदि इस्तेमाल करती हैं। जिस कपड़े का इस्तेमाल वे करती है, उसे बिना अच्छे से धोये और सुखाये वो लगातार प्रयोग करती हैं।

मंगेश के सामने जब यह सब आया तो उन्हें समझ नहीं आया कि वो कैसे इस समस्या का समाधान ढूंढें। ऐसे में मंगेश की माँ उनकी मार्गदर्शक बनीं।

“मैंने घर आकर माँ से जब इस बारे में बात की तो पहली बार उन्होंने मुझे सैनिटरी पैड दिखाया और माहवारी से जुड़े मेरे सवालों को हल किया। उस दिन मुझे पता चला कि माहवारी किसी भी लड़की के जीवन में क्या महत्व रखती है,” मंगेश ने बताया।

अपनी माँ से बात करने के बाद मंगेश ने नेशनल फॅमिली हेल्थ मिशन की रिपोर्ट्स को भी खंगाला। उन्होंने अपने बहुत से दोस्तों से इस बारे में बात की, तो उनके कुछ दोस्तों ने भी उनका मज़ाक बनाया। पर कहते हैं न जहां चाह वहां राह।

इस मुद्दे पर बहुत से लोग उनसे सोशल मीडिया के जरिये जुड़ने लगे।

मंगेश की माँ ने उन्हें सुझाव दिया कि केवल सैनिटरी पैड बांटने से इस समस्या का हल नहीं होगा क्योंकि हमारे देश में माहवारी से जुड़े मिथकों को कोई भी समस्या समझता ही नहीं है। इसलिए सबसे पहले जागरूकता जरूरी है कि आखिर क्यों औरतों व लड़कियों को माहवारी के दौरान सैनिटरी पैड ही इस्तेमाल करने चाहियें।

मंगेश के अभियान से आज उनकी माँ और बहन भी जुड़ गयी हैं। उनकी माँ और बहन उन्हें घर पर पैड बनाकर देती हैं और वे उन्हें जगह-जगह वितरित करते हैं। अब उनके साथ विभिन्न गांवों से स्वयं-सेविकाएं भी जुड़ गयीं हैं और वे भी इसमें मदद करती हैं।  जल्द ही विभिन्न गांवों में पैड बनाने की यूनिट खोलने की योजना पर मंगेश काम कर रहे हैं ताकि बीहड़ ग्रामीण इलाके की महिलाओं और लड़कियों को कम कीमत पर आसानी से पैड उपलब्ध हो सके।

“हमने अपने अभियान को तीन चरणों में करने का निर्णय लिया। सबसे पहला चरण लोगों में माहवारी के प्रति जागरूकता लाना, दूसरा उन्हें पैड वितरित कर माहवारी के दौरान उन्हें पैड इस्तेमाल करने के लिए सजग करना और तीसरा पर्यावरण के प्रति सचेत हो कर, इस्तेमाल किये हुए पैड का उचित तरीके से अपघटन करना,” मंगेश ने बताया।

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, रांची में उन्नत भारत प्रोजेक्ट से वे जुड़े हुए हैं और अपनी संस्था के तहत और भी बहुत से मुद्दों पर काम कर रहें हैं जैसे,

आत्मरक्षा

उन्होंने अपने साथी के साथ युवा लड़कियों में आत्मरक्षा की भावना जगाई। इसके तहत उन्होंने कराटे का प्रशिक्षण लड़कियों को निःशुल्क देना शुरू किया। धीरे-धीरे लड़कियों की संख्या इस प्रशिक्षण शिविर में बढ्ने लगी। पांच से दस ग्रामीण लड़कियों के साथ शुरू हुए इस शिविर में फिलहाल 50-60 लड़कियां हैं।

प्लास्टिक पर पाबंदी

उन्होंने प्लास्टिक पर पाबंदी के लिए लोगों को जागरूक किया। इलाके में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर स्थानीय लोगों में रोक लगाने की अपील की। इसके बाद प्लास्टिक की जगह दोना पत्ते ने ले ली। और जल्द ही इस पत्ते का उपयोग तेज़ी से बढ़ा। मांग में तेज़ी आने के बाद महिलाओं को दोना बनाने का काम मिलने लगा।

इसके अलावा लोगों के बीच नशे के प्रति भी जागरूकता अभियान चलाया गया। आज लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हुए हैं। भारत में आदर्श गांवों को स्थापित करने के लिए मंगेश का संघर्ष जारी है। जिसके लिए उन्हें सरकार के साथ-साथ आम लोगों के सहयोग की भी जरूरत है।

मंगेश ‘द बेटर इंडिया’ के माध्यम से अपने कुछ सुझाव सार्वजनिक करना चाहते हैं जिन्हें यदि सरकार अपनी योजनाओं में शामिल करे तो हम एक बेहतर कल की उम्मीद कर सकते हैं।

माहवारी के प्रति जागरूकता फ़ैलाने के लिए मंगेश एक मॉडल का सुझाव देते हैं। उनका कहना है कि ग्रामीण इलाकों में छोटी-छोटी प्रशासनिक इकाइयों को इस पर काम करना होगा जैसे कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता।

“हर गांव में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के पास गांव की जनसंख्या का लेख-जोखा होता है। तो हमें लगता है कि उसी के साथ आंगनबाड़ी में गांव की हर एक 10-12 साल की उम्र की लड़कियों की सूची होनी चाहिए ताकि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हर महीने इन सभी लड़कियों के घर जाकर उन्हें माहवारी के विषय पर सजग कर सकें क्योंकि इसी उम्र में लड़कियों को पहली बार पीरियड्स होते हैं,” यह कहना है मंगेश का।

ऐसा करने से गांवों में लड़कियां जागरूक होंगी। साथ ही उनमें आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा क्योंकि माहवारी से जुड़े शर्म के पैबंद को हटाना अत्यंत आवश्यक है।

इसके अलावा सभी बस स्टैंड और रेलवे स्टेशनों पर पैड वेंडिंग मशीन होने चाहिए। साथ ही इस बात पर भी बल दिया जाये कि ट्रेनों में सफ़र के दौरान भी कुछ महिला टिकट चेकर होने चाहिए, जो कि आज की तारीख में ना के बराबर है। इसके साथ ही ट्रेनों और बसों में फर्स्ट ऐड किट के साथ-साथ मेंस्ट्रुअल किट भी उपलब्ध होनी चाहिए।

आज वह समय है जब माहवारी के बारे में स्कूलों में भी चर्चा आवश्यक है ताकि लड़के और लड़कियां दोनों ही इस विषय के प्रति सजग और जिम्मेदार बन सकें।

मंगेश कहते हैं,

“हमने जो पहल शुरू की है उसका रास्ता यक़ीनन लम्बा है। बहुत लड़ाई लड़नी अभी बाकी है।”

‘मंगरु पैडमैन’ असल ज़िन्दगी के वो हीरो हैं जो बिना किसी ख्याति के, पर शान से अपना काम कर रहें हैं। गर्व की बात है कि हमारे देश में मंगेश जैसे युवा भी हैं जो अपने ज्ञान और अनुभव को देश के सशक्तिकरण के लिए इस्तेमाल कर रहें हैं।

मंगेश झा से संपर्क करने के लिए डायल करें 9570663667 और 8757580449

( संपादन – मानबी कटोच )

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वीडियो : घर-घर काम करने वाली दीपिका म्हात्रे है मुंबई की पसंदीदा स्टैंड-अप कॉमेडियन!

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दिपिका म्हात्रे एक स्टैंड-अप कॉमेडियन, जिनका हाल ही में प्रसिद्द कॉमेडियन अदिति मित्तल की यूट्यूब सीरीज़ ‘बैड गर्ल्स’ में एपिसोड आया है। दिपिका म्हात्रे इस एपिसोड में कहती हैं कि लोग जो समझते हैं वही उनकी पहचान होती है। पर ऐसा नहीं है क्योंकि दीपिका की पहचान सिर्फ एक स्टैंड-अप कॉमेडियन की नहीं बल्कि उनकी पहचान के कई रूप हैं, घर-घर खाना बनाने वाली घरेलु सहायक या फिर मुंबई की लोकल में ज्वेलरी बेचने वाली।

मुंबई की एक मिडिल-क्लास परिवार से आनेवाली 43 वर्षीय दिपिका अपने पति और तीन बेटियों के साथ नाला सपोरा में रहती हैं। उनका दिन सुबह चार बजे से शुरू हो, आधी रात तक खत्म होता है। सुबह चार बजे से ट्रेन में ज्वेलरी बेचना और फिर 7:30 से मलाड के पांच घरों में खाना बनाना। अगर कोई स्टैंड-अप कॉमेडी शो न हो तो वे 4 बजे अपने घर के लिए निकलती हैं वर्ना फिर से काम, जो अक्सर आधी रात तक चलता है।

दीपिका हमेशा अपनी ज़िन्दगी और काम में ही लोगों को हंसाने के वाक़ये ढूंढ लेती हैं। इसीलिए पिछले साल ‘महिला दिवस’ पर पिटारा स्टूडियो की एक प्रतियोगिता में उन्होंने न केवल आम लोगों का बल्कि वहां आयी मशहूर कॉमेडियन अदिति मित्तल का भी दिल जीत लिया। अदिति के साथ एक साल की ट्रेनिंग के पश्चात् उन्हें ‘बैड गर्ल्स’ सीरीज में फीचर किया गया है।

इस एपिसोड में दिपिका कहती हैं कि अक्सर कॉमेडियन अपनी बाई के किस्से सुनाते हैं पर आज एक बाई अपने साहिब-मैडम के किस्से सुनाएगी। आप उनका एपिसोड देख सकते हैं,  जिसके लिए अदिति मित्तल कहती हैं, “….हम इतिहास बनाने जा रहे हैं।”

इसके अलावा आप दिपिका की कहानी उन्हीं की जुबानी भी सुन सकते हैं। जी हाँ, रेडियो सिटी इंडिया के कार्यक्रम ‘आम आदमी की खास कहानी’ में,

दिपिका म्हात्रे यक़ीनन बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा हैं। हम उम्मीद करते हैं कि लोग भी उनकी तरह ज़िन्दगी और समाज के प्रति सकारत्मक नजरिया रखें, क्योंकि आपकी सकारत्मक सोच बहुत कुछ बदल सकती है।


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अब लोगों की मुश्किलें आसान करेगा रोबोकॉप ‘कॉन्सटेबले सिंघम’!

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बीच सड़क, पुदुच्चेरी पुलिस स्टेशन पर एक रोबोकॉप याने की एक पुलिसवाला रोबोट लगाया गया है।

द हिन्दू की रिपोर्ट के मुताबिक, यह रोबोकॉप- ‘कॉन्सटेबले सिंघम’ मुख्यतः एक कियोस्क के रूप में काम करेगा, जिससे पर्यटकों को पुलिस, उनके इतिहास, निकटतम पुलिस स्टेशनों, अस्पतालों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराया जायेगा।

पुलिस महानिदेशक एस.के गौतम ने कहा कि रोबोकॉप में एक कियोस्क है जो तमिल, अंग्रेजी, फ्रेंच और हिंदी में पर्यटकों के प्रश्नों का उत्तर देगा। वर्तमान में, यह केवल अंग्रेजी में उपलब्ध होगा। उन्होंने कहा कि पर्यटक पुलिस स्टेशन पर तैनात पुलिसकर्मियों के साथ बातचीत करने के लिए बूथ में माइक्रोफोन के साथ एक बंद सर्किट टेलीविजन कैमरा लगाया गया था।

इसकी मूर्ति पुदुच्चेरी स्थित मूर्तिकार वी. के मुनिसामी द्वारा बनाई गई है। रोबो पुलिस, टच स्क्रीन मॉनीटर और कंप्यूटर एक निजी कंपनी द्वारा दिया गया है। पांडिचेरी विश्वविद्यालय के एमसीए के छात्रों ने सॉफ्टवेयर बनाया है।

लेफ्टिनेंट गवर्नर किरण बेदी ने कहा कि वह कानून और व्यवस्था के मुद्दे पर मुख्यमंत्री वी नारायणसामी के साथ पूरी तरह से सहमत हैं। किरण बेदी ने इस रोबोकॉप का उद्घाटन किया। उनके अलावा मुख्यमंत्री वी नारायणसामी, पुलिस महानिरीक्षक सुरेंद्र सिंह यादव और पुलिस महानिरीक्षक वी. जे चन्द्रन भी मौजूद थे।

पुदुच्चेरी की यह पहल जनमानस की मदद और भलाई की दिशा में है। हम उम्मीद करते हैं कि जिस लक्ष्य से पुदुच्चेरी पुलिस ने इसे शुरू किया है, वह पूरा हो।

( संपादन – मानबी कटोच )


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आखिर क्यों 1950 में क्वालीफाई करने के बावजूद टीम इंडिया खेल नहीं पायी फीफा वर्ल्ड कप!

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फुटबॉल के लिए यह, वह समय है जब बर्लिन से लेकर भोपाल तक प्रशंसकों को आप अपनी-अपनी पसंदीदा टीम की जर्सी में देख सकते हैं। फुटबॉल प्रेमियों की भी अपनी ही एक तादाद है जो बेशक अलग-अलग क्लब से हों पर फीफा वर्ल्ड कप में अपनी मनपसंद टीम के लिए साथ आ जाते हैं।

रोनाल्डो, रिवाल्डो और रोनाल्डिन्हो के जादुई प्रदर्शन के चलते बहुत से लोग ब्राजील के दीवाने हैं और जो इस खेल के नए चाहने वाले हैं उनके लिए लियो मेस्सी या क्रिस्टियानो रोनाल्डो से बढ़कर कोई नहीं।

सभी प्रशंसकों के बीच एक बात आम है-भारत को विश्व स्तर पर खेलते हुए देखने की इच्छा।

खैर, यह सपना साल 1950 में लगभग सफ़ल हो गया था। उस वर्ष भारत ने फीफा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था, जो ब्राजील में होने वाला था। तो, फिर क्या हुआ?

साल 1957 फीफा वर्ल्ड रैंकिंग में इंडियन फुटबॉल टीम की रैंकिंग 9वीं थी। (खूबखेलबो फेसबुक पोस्ट)

टीम मैदान पर खेलने क्यों नहीं उतरी इसकी कई वजहें हैं पर एक वाहियात अफ़वाह के मुताबिक माना जाता है कि टीम नंगे पैर खेलना चाहती थी और इसीलिए उन्हें खेल से बाहर कर दिया गया था।

हालाँकि, यह सच नहीं है!

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह पहला विश्व कप था। सभी देश विश्व युद्ध में हुए नुकसान से उबर रहे थे और कई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण कई टीमों को खेल से वापसी लेनी पड़ी। स्कॉटलैंड, फ्रांस और चेकोस्लोवाकिया ने भी अपनी टीमों को बाहर कर लिया, जिससे भाग लेने वाली टीमों की कुल संख्या केवल 13 रह गई थी।

एशिया से टूर्नामेंट में भाग लेने वाली एक भी टीम नहीं थी, यह देखते हुए ब्राजील के फुटबॉल संघ ने अखिल भारतीय फुटबॉल संघ से संपर्क किया और उन्हें विश्व कप में भाग लेने के लिए अपनी टीम भेजने को कहा। ब्राजील के अधिकारियों ने विश्व कप के दौरान भारतीय टीम का खर्चा उठाने की भी पेशकश की थी।

भारत ने न तो कभी खेल में भाग लेने की पुष्टि की और न ही टीम को निकालने की। पर जब विश्व कप शुरू हुआ तो भारतीय टीम नहीं थी।

तो क्या हुआ? वे क्यों नहीं गए?

साल 1948 के ओलंपिक में भारत ने अपने अच्छे खेल के साथ दुनिया को प्रभावित किया था। और आश्चर्य की बात थी, कि ज्यादातर खिलाड़ियों ने नंगे पैर खेला, जबकि कुछ ने सिर्फ मोज़े पहने थे। आज़ादी के बाद यह पहला अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट देश के लिए बड़ी बात थी।

इंडिया टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, फीफा ने भारतीय टीम को कहा था कि उन्हें विश्व कप के लिए जूते पहनने होंगें, और यह बात टीम को जमी नहीं।

हालाँकि, सेलिन मन्ना के अनुसार, जो भारत के बेहतरीन खिलाड़ियों में से रहे हैं, यह झूठ था। उन्होंने कहा कि एआईएफएफ ने विश्व कप को ओलिंपिक की तरह गंभीरता से कभी लिया ही नहीं।

फ्री प्रेस जर्नल के मुताबिक, मन्ना, जो टूर्नामेंट में भारतीय टीम का नेतृत्व कर सकते थे, ने कहा कि एआईएफएफ द्वारा नंगे पांव खेलने के बहाने का इस्तेमाल वास्तविक कारणों को छुपाने के लिए किया गया था।ताकि उन्हें यह न बताना पड़े कि उन्होंने ब्राजील की यात्रा न करने का फ़ैसला क्यों किया।

एआईएफएफ ने अन्य कारणों, जैसे कि यात्रा का खर्च, अभ्यास समय की कमी, अपर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार, और ब्राजील के लिए एक लंबी, चुनौतीपूर्ण जहाज यात्रा का हवाला दिया, जिसे टीम के लिए तैयार नहीं किया गया था।

कारण चाहे जो भी रहा हो पर आज 68 साल हो गए हैं। हम अभी भी एक बार फिर विश्व कप क्वालीफाई करने के लिए भारतीय टीम की राह देख हैं। जो भी हुआ उसके लिए एआईएफएफ जिम्मेदार है या नहीं, ये हम कभी नहीं जान पायेंगें।पर आज भारत, फुटबॉल के खेल में लगातार आगे बढ़ रहा है। आईएसएल ने जनता के बीच भी खेल की लोकप्रियता देखी है।

निश्चित रूप से, प्रशंसकों और देश के समर्थन से, भारतीय टीम भी एक दिन विश्व कप खेल सकती है। बस तब तक, भारतीयों को अपनी फुटबॉल खेल के प्रति अपने उत्साह को संतुष्ट करने के लिए जर्मन, ब्राजीलियाई और अर्जेंटीना की जर्सी से ही काम चलाना होगा।

( संपादन – मानबी कटोच )


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121 अंक प्राप्त कर JEE 2018 पास करने वाला तेलंगाना का पहला आदिवासी छात्र है साईं कृष्णा!

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दिलाबाद के 17 वर्षीय आदिवासी छात्र, गदम साईं कृष्णा ने जेईई (एडवांस) 2018 परीक्षा में एसटी श्रेणी के तहत 105वीं अखिल भारतीय रैंक प्राप्त कर अपने माता-पिता और परधान समुदाय का सिर गर्व से ऊँचा कर दिया है। वह तेलंगाना के पहले आदिवासी छात्र हैं, जिन्होंने 121 अंक प्राप्त कर टेस्ट पास किया है। उनके सामान्य कट ऑफ से केवल 5 अंक कम है।

बेला मंडल के कॉब्बाई गांव से ताल्लुक रखने वाले साईं कृष्णा के पिता का नाम गदम तुलसीराम है। लम्बादा समुदाय के विरोध में आदिवासी छात्रों द्वारा विद्यालयों और कॉलेजों के बहिष्कार करने के बाद भी साईं कृष्णा ने यह उपलब्धि हासिल की है। लम्बादा शिक्षकों द्वारा भेदभाव किये जाने पर छात्रों ने कक्षाओं का बहिष्कार शुरू कर दिया था और यहां तक ​​कि माता-पिता ने भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने से इनकार कर दिया था।

साईं कृष्णा ने द न्यूज़ मिनट को बताया कि वे मुंबई से कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करना चाहते हैं। उसके बाद वे आईएएस बनना चाहते हैं। सिविल सर्विस में जाना उनका और उनके पिता का सपना है।

साईं कृष्णा के पिता एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षक हैं। उन्होंने कहा, “मुझे पता था कि मेरा बेटा अच्छा स्कोर करेगा, लेकिन उम्मीद नहीं थी कि वह जेईई टॉप करेगा।”

तुलसीराम ने कहा कि उन्हें आशा है कि उनका बेटा आईएएस में शामिल होगा और आदिवासियों के उत्थान के लिए काम करेगा।

“मैं व्यक्तिगत रूप से उन समस्याओं को जानता हूं जिनका आदिवासियों को सामना करना पड़ता है। अधिकांश मुद्दों को हल नहीं किया जाता है, क्योंकि अधिकारी व्यक्तिगत रूप से आदिवासी गांवों में नहीं जाते हैं और उनके कल्याण की परवाह नहीं करते हैं। मुझे उम्मीद है कि मेरा बेटा एक दिन कलेक्टर बनेगा और हमारी समस्याओं को हल करने का प्रयास करेगा।”

( संपादन – मानबी कटोच )

 


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स्वाद और सुगंध के साथ संस्कृति से भी जुड़े हैं ये सात तरह के चावल!

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चपन में अगर कभी माँ चावल लेने दुकान पर भेजती थी, तो समझ नहीं आता था कि कौन-सा वाला लूँ। अरे, तो वो दुकान वाले भैया भी कम-से-कम 6 तरह के दाम बताते थे चावलों के। अब हर चावल के दाम में फर्क क्यों था, यह तो नहीं समझ आया। समझ आता था तो बस इतना कि भैया बासमती चावल लेने है। बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि बासमती चावल की खुशबु ही अलग होती है।

चावल ऐसा खाना है, जो आपको गरीब से गरीब और अमीर से अमीर के घर में मिल जाएगा। आप कहीं भी किसी भी क्षेत्र में चले जाएँ आपको चावल के दीवाने मिल ही जाएंगें। थोड़ा-सा ज्यादा टटोलेंगे चावल के मामले को तो पता चलेगा कि बासमती के अलावा भी चावल की भी कई पारंपरिक प्रजातियां हैं जो भारत में उगाई जाती हैं।

फोटो: जैस्मिन चावल/विकिपीडिया

बासमती और जैस्मिन चावल के गुणगान तो सबने सुने हैं पर इन दोनों से भी अलग चावल की सात पारम्परिक किस्में होती हैं, जिन्हें बनाने बैठे तो उनकी खुशबु ही मुंह में पानी ला दे। इन अलग-अलग तरह के चावलों को खोजना जरा मुश्किल है, क्योंकि एक केरल में होता है तो दूसरा मणिपुर की पहाड़ियों में मिलेगा।

लेकिन आज हमारे साथ कम-से-कम जान तो लीजिये इन सात तरह के चावलों के बारे में।

अम्बेमोहर चावल

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महाराष्ट्र में उगाया जाने वाला यह चावल आकर में जरा छोटा होता है। इसकी खासियत यह है कि यह बहुत ही जल्दी पक जाता है और इसकी सुगंध मानो ऐसे, जैसे कि आम के फूलों की खुशबू। जीआई टैग से पुरुस्कृत मुलशी अम्बेमोहर चावल को पेशवा शासन के दौरान बहुत पसंद किया जाता था।

मुल्लन कज़हामा

अनूठे स्वाद और सुगंध से भरपूर यह चावल वायनाड में होता है। इसकी पाल पायसम और मालाबार बिरियानी बेहद स्वादिष्ट बनती है। इस चावल का खेत भी एक हल्की सुगंध से महकता है। केरल के वायनाड में बहुत ही कम किसानों द्वारा इसे उगाया जाता है।

गोबिन्दो भोग

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पश्चिम बंगाल में होने वाला छोटा-सा सुगंधित चावल, जिसे पिछले ही साल जन्माष्टमी पर भगवन श्री कृष्ण को चढ़ाने के लिए  ‘ख़ास धान’ के रूप में चुना गया। इसीलिए इसे बहुत अलग नाम दिया गया है। इसका व्यापक रूप से शुभ प्रसाद, पूजा और त्यौहारों के लिए उपयोग किया जाता है। इसकी बनी पायेश (बंगाली खीर) बहुत ही स्वादिष्ट बनती है।

सीरगा साम्बा

तमिलनाडु का बहुत ही प्यारा चावल। आकार में थोड़ा लम्बा और भीनी-सी खुशबू वाला। विशेष अवसरों के दौरान पुलाव बनाने के लिए बड़े पैमाने पर इसका उपयोग किया जाता है। वास्तव में, यह मूल्यवान चावल राज्य की दो सबसे प्रतिष्ठित बिरयानियों – डिंडीगुल बिरयानी और अंबूर बिरयानी में भी प्रयोग होता है। दिलचस्प बात यह है कि तमिलनाडु में उगाए जाने वाले धान की अन्य सभी किस्मों की तुलना में यह चावल थोड़ा महंगा बिकता है!

मुश्क बुदजी

फोटो: www.kashmirbox.com

बहुत ही तेज सुगंध वाला छोटा-सा चावल। कश्मीर की घाटी में उगाया जाने वाला यह चावल आपको वहां की हर शादी में खाने को मिलेगा। हालाँकि मुनाफा न होने के कारण यह विलुप्त होने लगा था। पर अच्छी खबर यह है कि राज्य के कृषि विभाग ने अद्वितीय चावल की स्थानीय खेती को प्रोत्साहित करने और व्यावसायिक स्थान में फिर से प्रवेश करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए हैं।

रांधुनी पागोल

इस चावल का शब्दिक अर्थ है, “पकाने वाले को पागल कर देने वाला।” पश्चिम बंगाल का यह चावल दूर राज्यों में ज्यादा प्रसिद्द नहीं है। इस चावल से आप चिंगरी मलाई करी और कोशा मांगशो जैसे पकवान पका सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि रांधुनी जंगली अजवाइन का बंगाली नाम भी है, जो कि राज्य के हस्ताक्षर व्यंजन के लिए अद्वितीय मसाला है।

चक हाओ अमूबी

फोटो: http://indosungod.blogspot.com

मणिपुर की पहाड़ियों में उगाए जाने वाले चिपचिपे काले चावल की एक सुगंधित किस्म। स्वास्थ्य के लिए बहुत ही बढ़िया, मीठा और भीनी सी खुशबु वाले इस चावल की खीर बहुत ही कमाल की बनती है। जैसे-जैसे दूध उबलता है, यह जामुनी रंग ले लेता है और आपके घर में एक मोहक सी खुशबु फ़ैल जाती है। स्थानीय उत्सव और त्योहारों पर इसे बनाया जाता है।

तो आज आप कौनसे चावल को चखना चाहेंगे?

( संपादन – मानबी कटोच )


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