उत्तर प्रदेश के नोयडा में ‘दादी की रसोई’ से लोगों को एक शख्स देसी घी में बना भोजन मात्र 5 रूपये में करा रहा है। यह शहर का वो ठिकाना है जहां खाना, कपड़े और दवाइयां बहुत सस्ती दरों पर उपलब्ध हैं।
पूरी दुनिया में लगभग 8150 लाख लोगों को एक स्वस्थ्य जीवन जीने के लिए भरपूर खाना नहीं मिलता, द वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम के मुताबिक, “लगभग 66 मिलियन प्राथमिक स्कूल के बच्चे विकाशसील देशों में भूखे स्कूल जाते हैं।”
60 वर्षीय समाज सेवक अनूप खन्ना ने साल 2015 में दादी की रसोई की पहल की। इसका उद्देश्य जरूरतमंदों को बहुत ही सस्ती दर पर अच्छा घर का खाना उपलब्ध कराना है।
इनके नोयडा में दो स्टॉल लगते हैं, सुबह 10 से 11:30 बजे सेक्टर-17 में और दोपहर 12 से 2 बजे तक सेक्टर 29 में। समाज के हर तबके के लोग, विद्यार्थी, कामकाजी व्यक्ति, रिक्शेवाले, दूकानदार और राहगीर भी खाने के लिए स्टॉल के आगे लाइन लगाते हैं। इस पहल को ‘दादी की रसोई’ का नाम दिया अनूप की बेटी स्वाति ने और उनके सपने को हक़ीक़त बनाने में उनके बाकी परिवार ने भी हमेशा उनका साथ दिया।
इस रसोई को अनूप ने लगभग 30,000 रूपये की लागत के साथ शुरू किया था और आज बहुत से लोगों से दादी की रसोई को दान मिल रहा है। अनूप हर रोज स्टॉल पर खाना बनाने के लिए सामग्री व अन्य जरूरी चीजों के लिए 2500 रूपये खर्च करते हैं।
द लॉजिकल इंडियन को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया, “दुकानदार रियायती मूल्यों पर मुझे सामन देते हैं। इसके अलावा लोग जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि के उत्सव पर ख़ास व्यंजन भी उपलब्ध कराते हैं। लोगों की तरफ से भी भरपूर साथ है।”
अनूप चाहे तो खाना मुफ्त में भी दे सकते हैं पर फिर भी वे न्यूतम 5 रूपये लेते हैं, उसके पीछे की वजह है।
वे कहते है “मैं चाहता तो ये खाना और कपड़े मुफ्त में भी दे सकता था, पर कम पैसे लेने की वजह सिर्फ यह है कि यहां भोजन करने वाले लोगों का स्वाभिमान बना रहे। हर तबके के व्यक्ति पांच रुपए देकर सम्मान से भोजन करते हैं। बाकि भोजन की गुणवत्ता का ध्यान में स्वयं रखता हूँ।”
अनूप इस भूखमरी की समस्या को पुरे नोयडा में खत्म करना चाहते हैं। उनसे प्रेरित होकर और भी लोग अपने मोहल्लों व बस्तियों में इस तरह के काम की पहल कर रहें हैं।
“कुछ भी अच्छा करना बहुत मुश्किल नहीं होता। ऐसा कुछ करने के लिए सिर्फ एक इंसान ही काफी है। मुझे बहुत लोगों ने सम्पर्क किया है कि वे अपने यहां भी ऐसा कुछ शुरू करना चाहते हैं तो मैं उनकी मदद करूं। मैंने उन्हें पहले दादी की रसोई पर कुछ समय व्यतीत करने के लिए कहा है ताकि उन्हें पता चले कि हर रोज कैसे काम होता है और हम क्या-क्या मुश्किलें झेलते हैं,” अनूप ने बताया।
अनूप का मानना हैं कि रोटी, कपडा और दवाइयां लोगों की मुलभूत जरूरतें हैं। वह केवल लोगों को यही सब काम पैसों में उपलब्ध कराने की कोशिशों में लगे हैं।
अनूप ने सद्भावना स्टोर की भी शुरुआत की है जिसके अंतर्गत वे लोगों को कपड़े, जूते, और किताबें उपलब्ध कराते हैं। ‘प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना केंद्र’ के अंतर्गत उन्होंने नोयडा में ‘प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र’ भी खोला है जहां जनमानस को सस्ती दरों पर अच्छी दवा मिलती है।
अनूप शहर में दो मेडिकल स्टोर भी चलाते हैं। किसी भी एमरजेंसी में अनूप तुरंत मदद के लिए तैयार रहते हैं। लोगों की सेवा की भावना बचपन से ही अनूप के मन में थी, जब उन्होंने अपने पिता को स्वतंत्र संग्राम में हिस्सा लेते हुए देखा।
हम अनूप की पहल को सलाम करते हैं, जो अपने स्तर पर भारत में भुखमरी की समस्या को सुलझाने की कोशिश कर रहें हैं।
( संपादन – मानबी कटोच )
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“लेट्स एजुकेट चिल्ड्रन इन नीड (लेसिन),” एनजीओ का उद्देश्य दिल्ली के स्लम इलाकों के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर, न केवल उनकी औपचारिक शिक्षा बल्कि उनके समग्र विकास पर ध्यान दे, समाज के उत्थान में योगदान करना है। लेसिन की स्थापना अब से तीन साल पहले, साल 2015 में नूपुर भारद्वाज और उनके दोस्त रोहित कुमार ने की थी। दिल्ली से ही ताल्लुक रखने वाली 22 साल की नूपुर ने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कॉलेज से कंप्यूटर साइंस में बी.टेक किया है।
नूपुर बताती हैं कि अपनी ग्रेजुएशन के दौरान ही एक इनोवेशन प्रोजेक्ट पर काम के चलते वे और उनके कुछ साथी दिल्ली के संजय विहार स्लम इलाके में गए। वहां जाने के बाद एक भयावह हक़ीकत नुपुर के सामने आई। उन्हें पता चला कि कैसे पलायन के चलते लोग अपना मूल स्थान छोड़ आजीविका के लिए दिल्ली की तंग और गन्दगी भरे झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं।
इन लोगों को और करीब से जानने के बाद जिस बात ने नुपुर पर सबसे गहरा प्रभाव छोड़ा वह था इन झुग्गियों में रहने वाले बच्चों का बचपन। वहां के बच्चे स्कूल तक नहीं जाते थे और यदि कोई जाता भी था तो वह भी बस नाम के लिए। ऐसे में अपनी नुपुर ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ इन बच्चों को पढ़ाने की ठानी!
उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही, साल 2014 में ‘यंग एसोसिएशन’ नामक एक एनजीओ के साथ स्लम-टीचिंग विभाग में काम किया। जिसमें वे हर शनिवार और रविवार इन झुग्गियों में बच्चों को पढ़ाने जाती थी।
द बेटर इंडिया से बातचीत के दौरान नुपुर ने बताया, “इस संस्था के साथ काम करके मुझे समझ आया कि इन बच्चों के लिए हमें पारम्परिक पढ़ाई के तरीकों को छोड़ नए तरीके अपनाने होंगे। पर यंग एसोसिएशन के साथ रहते हुए ऐसा करना मुश्किल लग रहा था तो हमने अपने स्तर पर पहल करने की सोची।”
साल 2015 में नूपुर और उनके दोस्त रोहित कुमार ने लेसिन/LECIN की शुरुआत की। शुरू में उन्होंने अपने कुछ दोस्तों के साथ मिल कर दिल्ली के इंद्रप्रस्थ में स्लम के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। जो सिलसिला इंद्रप्रस्थ से शुरू हुआ वह आज भी बरक़रार है।
धीरे-धीरे नूपुर के साथ दिल्ली यूनिवर्सिटी के और भी छात्र जुड़ गए। जैसे-जैसे लोग बढ़े, लेसिन भी दिल्ली के और भी स्लम क्षेत्रों में फ़ैल गया। आज लेसिन के तहत इंद्रप्रस्थ, ओखला, और कालकाजी क्षेत्रों में गरीब व पिछड़े परिवारों के बच्चों को पढ़ाया जा रहा है।
नूपुर ने बताया, “आज हम 990 बच्चों के साथ काम कर रहे हैं। लगभग 63 स्वयं-सेवी संगठनों के साथ हमने काम किया है। हमारे साथ 20 टीचर और लगभग 250 स्वयंसेवक व इंटर्न काम कर रहे हैं।”
नूपुर ने बताया कि उनकी पहल को उड़ान तब मिली जब उन्हें और रोहित को लेसिन के तहत काम के लिए दिल्ली के प्रवाह संस्था से चेंजलूमर्स प्रोग्राम की फ़ेलोशिप मिली। इस फ़ेलोशिप में उन्होंने अपने टेक्निकल पृष्ठभूमि से अलग भी बहुत कुछ सीखा। जिसकी वजह से उन्होंने कालकाजी स्लम में प्रोजेक्ट सक्षम के अंतर्गत बच्चों के लिए कंप्यूटर क्लासेज शुरू करवाई।
लेसिन का उद्देश्य इन बच्चों के भीतर छुपे कौशल और प्रतिभा को पहचान उन्हें एक नयी दिशा व आयाम देना है। नूपुर ने बताया,
“हमने इन बच्चों की औपचारिक शिक्षा को वैसे ही चलते रहने दिया और उसमे कोई दखल अंदाजी नहीं की। हम केवल इन बच्चों को औपचारिक शिक्षा के साथ-साथ इनकी अन्य योग्यता व प्रतिभा से इनकी पहचान करना चाहते है। ताकि ये बच्चे भी समाज में अपनी प्रतिभा के दम पर अपना स्थान बना पायें।”
इसी सोच पर काम करते हुए लेसिन में बच्चों की कम्युनिकेशन स्किल, क्रिटिकल थिंकिंग, कला प्रतिभा इत्यादि पर ध्यान दिया जा रहा है।
समय-समय पर लेसिन बहुत से संगठन और संस्थाओं के साथ मिलकर इन स्लम क्षेत्रों में बदलाव मुहिम भी आयोजित करता है।
हाल ही में ओखला स्लम में लेसिन द्वारा स्वच्छता ड्राइव का आयोजन किया गया, जिसमे अन्य एनजीओ सहयोगियों के साथ मिल उन्होंने स्लम की तस्वीर बदल दी। InTuition AcadeMe के साथ मिल कर उन्होंने बच्चों को अपनी प्रतिभाओं से रू-ब-रू कराने के लिए “खुद से मुलाकात” इवेंट का आयोजन किया। इसके अलावा प्रोजेक्ट स्वच्छता के ही तहत “पेंटिंग द ओखला स्लम” का आयोजन किया गया, जिसमे कई संगठनों ने लेसिन का सहयोग किया।
“हम बच्चों को स्लम के खुले क्षेत्र में ही पढ़ाते हैं और उनकी सभी एक्टिविटी वहीं होती हैं। पर गंदगी के चलते बहुत दिक्क्त होती थी। साथ ही हम बच्चों को उनका अपना स्पेस देना चाहते थे जिसे वे अपना कह सकें। इसलिए हमने ओखला स्लम में सभी दीवारों को नई तस्वीर दी ताकि बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पडे, ” यह कहना है नूपुर का।
लेसिन के सहयोगकर्ताओं की लिस्ट में प्रवाह, साईं संस्कार फाउंडेशन, ऑल राइट सोल्यूशन, रामानुजन कॉलेज, सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, अदाकार थिएटर सोसाइटी आदि शामिल हैं।
पिछले तीन सालों से अपने अन्य पहलों के साथ-साथ लेसिन का एनुअल फेस्टिवल “उन्नति” मनाया जाता है। जिसमे स्लम के बच्चे अपना अनुभव साँझा करते हैं साथ ही बहुत सी परफॉरमेंस भी इन बच्चों द्वारा की जाती हैं। इस साल भी उन्नति 2018 की तैयारियां जोरों पर हैं।
नूपुर ने बताया, “इस साल ‘उन्नति’ की थीम ड्रीम्स यानी कि सपने है। और इस बार ख़ास बात यह है कि पुरे कार्यक्रम का जिम्मा इन्हीं बच्चों ने उठाया है। वे खुद लोगों को इसके लिए फ़ोन करके आमंत्रित कर रहे हैं। एंकरिंग, डांस, बैकस्टेज, रेफ्रेशमेंट्स आदि सभी विभागों को बच्चे ही संभाल रहे हैं।”
इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि एसिड अटैक सरवाइवर मिस लक्ष्मी अग्रवाल हैं।
बच्चों के विकास पर बात करते हुए नूपुर ने बताया कि बच्चों में पिछले तीन सालों में बहुत बदलाव आया है। फीडबैक सत्रों में बच्चों ने साँझा किया है कि उनमें व्यक्तिगत रूप से सुधार आया है। किसी की कम्युनिकेशन स्किल बेहतर हुई तो किसी में आत्म-विश्वास बढ़ा है।
“जैसे-जैसे बच्चे लेसिन के साथ जुड़ रहें हैं तो अब हमें महसूस होने लगा है कि हमें एक निजी स्थान की जरूरत है जहां पर हम बच्चों को अनुकूल वातावरण दे पाए। स्लम क्षेत्रों में बढ़ते शोर और प्रदूषण के चलते वहां बच्चों को पढ़ने व एक्टिविटी करवाने में समस्याएं आ रही हैं। तो अभी हमारी जरूरत एक ऐसा स्पेस है जो केवल इन्हीं बच्चों का हो,” नूपुर ने बताया।
लेसिन के बारे में और अधिक जानने के लिए फेसबुक पेज पर जाएँ।
नूपुर भरद्वाज से सम्पर्क करने के लिए आप उन्हें nupur.lecin@gmail.com पर ईमेल या फिर 8826578917 पर कॉल कर सकते हैं।
लेसिन के इस सफर में इन बच्चों का भविष्य सवांरने के लिए आप नूपुर के अकाउंट में अपना योगदान दे सकते हैं या फिर उन्हें paytm द्वारा मदद कर सकते हैं।
Paytm no. – 8826578917
Account name – LETS EDUCATE CHILDREN IN NEED
Name of the Bank: Central Bank of India
Account No.- 3570533196
IFSC code:- CBIN0282276
उम्मीद है आप इस नेक पहल में अपना महत्वपूर्ण योगदान अवश्य देंगे!
( संपादन – मानबी कटोच )
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अहमदनगर के जामखेड में चोंडी गांव में जन्मी महारानी अहिल्याबाई मालवा राज्य की होलकर रानी थीं, जिन्हें लोग प्यार से राजमाता अहिल्याबाई होलकर भी कहते हैं।
उनके पिता मनकोजी राव शिंदे, गांव के पाटिल यानी कि मुखिया थे। जब गांव में कोई स्त्री-शिक्षा का ख्याल भी मन में नहीं लाता था तब मनकोजी ने अपनी बेटी को घर पर ही पढ़ना-लिखना सिखाया। हालाँकि अहिल्या किसी शाही वंश से नहीं थीं पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
दरअसल, पुणे जाते वक़्त उस समय मालवा राज्य के राजा या फिर पेशवा कहें, मल्हार राव होलकर चोंडी गांव में विश्राम के लिए रुके। तभी उनकी नज़र आठ साल की अहिल्या पर पड़ी, जो भूखों और गरीबों को खाना खिला रही थी। इतनी कम उम्र में उस लड़की की दया और निष्ठा को देख मल्हार राव होलकर ने अहिल्या का रिश्ता अपने बेटे खांडेराव होलकर के लिए माँगा।
साल 1733 को खांडेराव के साथ विवाह कर 8 साल की कच्ची उम्र में अहिल्याबाई मालवा आयी। पर संकट के बादल अहिल्याबाई पर तब घिर आये जब साल 1754 में कुम्भार के युद्ध के दौरान उनके पति खांडेराव होलकर वीरगति को प्राप्त हुए। इस समय अहिल्याबाई केवल 21 साल की थीं!
अपने पति की मृत्यु के पश्चात जब अहिल्याबाई ने सती हो जाने का निर्णय किया तो उनके ससुर मल्हार राव होलकर ने उन्हें रोक दिया। हर एक परिस्थिति में अहिल्या के ससुर उनके साथ खड़े रहे। पर साल 1766 में जब उनके ससुर भी दुनिया को अलविदा कह गए तो उनको अपना राज्य ताश के पत्तों के जैसा बिखरता नज़र आ रहा था।
उस वृद्ध शासक की मृत्यु के बाद राज्य की ज़िम्मेदारी अहिल्याबाई के नेतृत्व में उनके बेटे मालेराव होलकर ने संभाली। पर विधाता का आखिरी कोप उन पर तब पड़ा जब 5 अप्रैल, 1767 को शासन के कुछ ही दिनों में उनके जवान बेटे की मृत्यु हो गयी।
कोई भी एक औरत, वह चाहे राजवंशी हो या फिर कोई आम औरत, जिसने अपने पति, पिता समान ससुर और इकलौते बेटे को खो दिया, उसकी स्थिति की कल्पना कर सकता है। पर अपने इस दुःख के साये को उन्होंने शासन-व्यवस्था और अपने लोगों के जीवन पर नहीं पड़ने दिया।
अहिल्याबाई होलकर /Wikimedia
उन्होंने शासन-व्यवस्था को अपने हाथ में लेने के लिए पेशवा के समक्ष याचिका दायर की। 11 दिसंबर, 1767 को वे स्वयं इंदौर की शासक बन गयीं। हालाँकि राज्य में एक तबका था, जो उनके इस फैसले के विरोध में था पर होलकर सेना उनके समर्थन में खड़ी रही और अपनी रानी के हर फैसले में उनकी ताकत बनी।
उनके शासन के एक साल में ही लोगों ने देखा कि कैसे एक बहादुर होलकर रानी अपने राज्य और प्रजा की रक्षा मालवा को लूटने वालों से कर रही है। अस्त्र-शस्त्र से सज्जित हो इस रानी ने कई बार युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व किया। उन्हें अपने पसंदीदा हाथी पर बैठकर दुश्मनों पर तीर-कमान से वार करते हुए देखा जा सकता था।
उन्होंने अपने विश्वसनीय सेनानी सूबेदार तुकोजीराव होलकर (मल्हार राव के दत्तक पुत्र) को सेना-प्रमुख बनाया। मालवा की यह रानी एक बहादुर योद्धा और प्रभावशाली शासक होने के साथ-साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। जब मराठा-पेशवा अंग्रेजों के इरादे न भांप पाए तब उन्होंने दूरदृष्टि रखते हुए पेशवा को आगाह करने के लिए साल 1772 में पत्र लिखा।
इस पत्र में उन्होंने अंग्रेजों के प्रेम को भालू के जैसे दिखावा बताते हुए लिखा, “चीते जैसे शक्तिशाली जानवर को भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर मारा जा सकता है पर भालू को मारना उससे भी मुश्किल है। इसे केवल सीधे उसके चेहरे पर ही मारा जा सकता है। क्योंकि अगर कोई एक बार इसकी पकड़ में आ जाये तो यह उसे गुदगुदी कर ही मार डाले। अंग्रेजों की भी कहानी ऐसी ही है इन पर विजय पाना आसान नहीं।”
इंदौर उनके 30 साल के शासन में एक छोटे से गांव से फलते-फूलते शहर में तब्दील हो गया। मालवा में किले, सड़कें बनवाने का श्रेय अहिल्याबाई को ही जाता है।
इसके अलावा वे त्योहारों और मंदिरों के लिए भी दान देती थी। उनके राज्य के बाहर भी उन्होंने उत्तर में हिमालय तक घाट, कुएं और विश्राम-गृह बनाए और दक्षिण में भी तीर्थ स्थानों का निर्माण करवाया। भारतीय संस्कृतिेकोश के मुताबिक अहिल्याबाई ने अयोध्या, हरद्वार, कांची, द्वारका, बद्रीनाथ आदि शहरों को भी सँवारने में भूमिका निभाई। उनकी राजधानी माहेश्वर साहित्य, संगीत, कला और उद्योग का केंद्रबिंदु थी। उन्होंने अपने राज्य के द्वार मेरठ कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंदी और संस्कृत विद्यवान खुसाली राम जैसे दिग्गजों के लिए खोले।
अहिल्याबाई हर दिन लोगों की समस्याएं दूर करने के लिए सार्वजनिक सभाएं रखतीं थीं। इतिहासकार लिखते हैं कि उन्होंने हमेशा अपने राज्य और अपने लोगों को आगे बढ़ने का हौंसला दिया।
उनके शासन के दौरान सभी उद्योग फले-फुले और किसान भी आत्म-निर्भर थे।
ऐनी बेसंट लिखती हैं, “उनके राज में सड़कें दोनों तरफ से वृक्षों से घिरें रहते थें। राहगीरों के लिए कुएं और विश्रामघर बनवाये गए। गरीब, बेघर लोगों की जरूरतें हमेशा पूरी की गयीं। आदिवासी कबीलों को उन्होंने जंगलों का जीवन छोड़ गांवों में किसानों के रूप में बस जाने के लिए मनाया। हिन्दू और मुस्लमान दोनों धर्मों के लोग सामान भाव से उस महान रानी के श्रद्धेय थे और उनकी लम्बी उम्र की कामना करते थे।”
अपने समय से आगे की सोच रखने वाली रानी को केवल एक ही गम था कि उनकी बेटी अपने पति यशवंतराव फांसे की मृत्यु के बाद सती हो गयी थी।
रानी अहिल्याबाई ने 70 वर्ष की उम्र में अपनी अंतिम सांस ली और उनके बाद उनके विश्वसनीय तुकोजीराव होलकर ने शासन संभाला।
बेसंट लिखती हैं, “इंदौर अपनी उस महान और दयालु रानी के लिए जितना शोक मनाये कम था। आज भी उनको सभी अपार सम्मान के साथ याद करते हैं।”
(संपादन – मानबी कटोच )
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“क्या आप प्रकाश राव जी बोल रहे हैं कटक से, जो बच्चों के लिए स्कूल चलाते हैं? मोदी जी आपसे मिलना चाहते हैं तो 26 मई को आप अपने स्कूल के बच्चों के साथ बाजी जात्रा मैदान पहुंच जाएँ।” 25 अप्रैल, 2018 को पीएमओ ऑफिस से आयी इस एक कॉल ने प्रकाश राव की ज़िन्दगी बदल दी।
उड़ीसा के कटक से ताल्लुक रखने वाले प्रकाश राव पिछले 5 दशकों से बक्सी बाजार में एक चाय की दूकान चला रहें हैं।
प्रकाश राव
पर इसके साथ ही समाज सेवी प्रकाश गरीब बच्चों के लिए “आशा आश्वासन” नाम से स्कूल चलाते हैं। साल 2000 से चल रहे प्रकाश राव के इस स्कूल में लगभग 70 बच्चों को शिक्षा और खाना मिल रहा है।
“मेरे पिता द्वितीय विश्वयुद्ध में एक सैनिक के रूप में सेवारत थे। जब सेवानिवृत्त हो वे कटक आये तो उन्हें कमाई का कोई खास साधन नहीं मिला। मैं पढ़ना चाहता था पर साधन नहीं था तो पिताजी ने चाय की दूकान खुलवा दी।”
पर प्रकाश में सीखने का जज्बा कभी भी कम नहीं हुआ। “जब भी मैं अपनी दुकान के आस-पास की बस्ती में इन बच्चों के जीवन को साधनों और इनके माता- पिता की लापरवाही के चलते बर्बाद होते देखता तो मुझे लगता कि जैसे मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने हो। इसलिए मैने इनके लिए कुछ करने का प्रण किया,” प्रकाश राव ने बताया।
साल 2000 में प्रकाश राव ने अपने दो कमरे के घर में ही, एक कमरे में 10-15 बच्चों को इकट्ठा कर पढ़ाना शुरू किया। धीरे-धीरे और भी बच्चे बढ़ने लगे।
picture source – India Today
उनके काम को देखते हुए आशा और आश्वासन महिला क्लब ने उनकी मदद करने की इच्छा जताई। उसी क्लब ने इन बच्चों के लिए दो कमरों का एक स्कूल बनवाया। जिसे क्लब के नाम पर ही “आशा आश्वासन” नाम दिया गया। आज इस स्कूल में 4 साल से 9 साल तक की उम्र के 70 बच्चे पढ़ रहें हैं। बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ उनके भोजन और स्वास्थ्य का ध्यान भी प्रकाश राव रखते हैं।
उन्होंने बताया,
“बच्चों का स्वास्थ्य होना बहुत आवश्यक है तभी तो वे पढ़ाई या फिर और कोई गतिविधि कर पाएंगे। इसलिए मेरा पूरा ध्यान रहता है कि बच्चों को पौष्टिक भोजन मिले। और दूसरा मुख्य कारण है कि भोजन के लालच में ये गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल भी आ जाते हैं। वरना इनके माता-पिता को तो मजदूरी में ध्यान भी नहीं होता कि बच्चे ने खाना खाया की नहीं।”
इसके साथ ही बच्चों को नियमित रूप से स्वास्थ्य संबंधित जाँच के लिए भी वे सरकारी अस्पताल ले जाते हैं। प्रकाश राव के स्कूल में अभी 5 अध्यापिकाएं और 1 रसोइया हैं। इन सभी को वे बड़े ही प्यार से ‘गुरु माँ’ कहकर पुकारते हैं। इस स्कूल में बच्चों को तीसरी कक्षा तक का कोर्स करवाया जाता है। उसके बाद बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा में करवा दिया जाता है।
“पिछले कुछ दिनों में मेरी ज़िन्दगी में अलग-सा बदलाव आ गया है। लोग मिलने आ रहे हैं हर रोज। जगह-जगह से लोग फ़ोन करके बधाई दे रहे हैं। देश के प्रधानमंत्री ने जब मेरी इस कोशिश की सराहना की तो बेहद ख़ुशी मिली। बाकी मेरा उद्देश्य तो केवल इन बच्चों के भविष्य को संवारना है,” ये बताते हुए प्रकाश राव की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
हाल ही में, 26 मई को कटक में अपनी एक रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रकाश राव और उनके स्कूल के बच्चों से मुलाकात की। साथ ही, ‘मन की बात’ रेडियो प्रोग्राम में भी प्रकाश राव और उनकी पहल के बारे में बताया।
द फाइनेंसियल एक्सप्रेस
अपनी चाय की दूकान से प्रकाश राव की जो भी कमाई होती है उसका आधा हिस्सा वे इस स्कूल के बच्चों की पढ़ाई- लिखाई पर खर्च करते हैं। उनके अपने परिवार में उनकी पत्नी और दो बेटियां हैं। उन्होंने अपनी बेटियों की भी अच्छी शिक्षा दिलवाई है। बड़ी बेटी की शादी भी कुछ साल पहले हुई और छोटी बेटी अभी पढ़ रही है।
प्रकाश राव जी साल 2017 में TedX जैसे मंच पर भी अपने सफर और इस स्कूल के बारे में साँझा किया। आप वीडियो देख सकते हैं
प्रकाश राव ने बताया, “साल 1976 में मुझे लकवा मार गया था, जिसके चलते सरकारी अस्पताल में मेरा ऑपरेशन होना था। ऑपरेशन के लिए मुझे खून की जरूरत थी, पर कोई साधन नहीं था मेरे पास कि कैसे खून मिले। फिर भी ऑपरेशन तो हुआ और उसके बाद मुझे पता चला कि किसी भले इंसान ने मेरे ऑपरेशन के लिए अपना खून दिया था।”
उसके बाद से ही उन्होंने ठान लिया कि वे नियमित रूप से रक्तदान करेंगें। आज की तारीख़ में शिक्षा की अलख जगा रहे प्रकाश राव 214 बार से भी ज्यादा रक्तदान और 17 बार प्लेटलेट्स दान कर चुके हैं। इसके साथ ही उन्होंने लगभग 30 साल पहले ही अपने शरीर को कटक के श्रीराम चंद्र भंज मेडिकल कॉलेज और अस्पताल को दान कर दिया है ताकि मृत्यु के पश्चात् उनके शरीर का क्रियाक्रम करने की बजाय मेडिकल स्टूडेंट्स की पढ़ाई के लिए सौंप दिया जाये।
“मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए। मैं केवल इन बस्ती के बच्चों को बेहतर जीवन देना चाहता हूँ। हमारे पास स्कूल तो जगह है पर ये जगह उन बच्चों के लिए पर्याप्त नहीं है जिन्हें खेल-कूद में दिलचस्पी है। तो अभी हमारी जरूरत केवल एक छोटा सा खेल का मैदान है जहां ये बच्चे स्कूल के बाद अपना कुछ वक़्त खेल-कूद की गतिविधियों में बिता सकें,” प्रकाश राव ने बताया।
उनकी इस पहल पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनी है जिसका नाम है ‘Brewing Minds’! आईये देखते हैं उनके इस सफ़र को –
प्रकाश राव जी से जुड़ने के लिए 9861235550 डायल करें।
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कुछ लोग किस्मत को दोष दे उसके सामने घुटने टेक देते हैं और कुछ अपने लगातार प्रयासों और अटूट विश्वास से अपनी किस्मत लिखते हैं। प्रांजल लेहनसिंह पाटिल जो कि नेत्रहीन हैं उन्हीं में से एक हैं जो किस्मत से लड़ स्वयं अपनी किस्मत बनाते हैं।
हाल ही में, आईएएस प्रांजल लेहनसिंह पाटिल ने केरल के एरनाकुलम के कलेक्ट्रट कार्यालय में उप-कलेक्टर के रूप में अपना पदभार संभाला। प्रांजल पाटिल, केरल कैडर की अब तक की पहली नेत्रहीन महिला आईएएस अधिकारी हैं। सोमवार को इरंकुलुम कलेक्ट्रट में सभी अधिकारी प्रांजल से मिलने के लिए उत्साहित थे क्योंकि अपनी किसी भी कमी को प्रांजल ने अपनी मंजिल के बीच नहीं आने दिया।
द वीक
28 साल की प्रांजल महाराष्ट्र के उल्हासनगर से ताल्लुक रखती हैं। साल 2016 में उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास की, जिसमें उनकी 773 वीं रैंक थी।
प्रांजल सिर्फ छह साल की थी जब उनके एक सहपाठी ने उनकी एक आँख में पेंसिल मारकर उन्हें घायल कर दिया था। इसके बाद प्रांजल की उस आँख की दृष्टि खराब हो गयी। उस समय डॉक्टर ने उनके माता-पिता को सूचित किया था कि हो सकता है भविष्य में वे अपनी दूसरी आँख की दृष्टि भी खो दें। और बदकिस्मती से डॉक्टर की कही बात सच हुई; कुछ समय बाद प्रांजल की दोनों आँखों की दृष्टि चली गयी।
पर उनके माता-पिता ने कभी भी उनकी नेत्रहीनता को उनकी शिक्षा के बीच नहीं आने दिया। उन्होंने प्रांजल को मुंबई के दादर में नेत्रहीनों के लिए श्रीमती कमला मेहता स्कूल में भेजा। प्रांजल ने 10वीं और 12वीं की परीक्षा भी बहुत अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और 12वीं में चाँदीबाई कॉलेज में कला संकाय में प्रथम स्थान प्राप्त किया।
डीएनए
इसके बाद उन्होंने मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में बीए में दाखिला लिया। प्रांजल ने एबीपी माझा के साथ एक साक्षात्कार में बताया था,
“मैं हर रोज उल्हासनगर से सीएसटी जाया करती थी। सभी लोग मेरी मदद करते थे, कभी सड़क पार करने में, कभी ट्रेन मे चढ़ने में। बाकी कुछ लोग कहते थे कि मुझे उल्हासनगर के ही किसी कॉलेज में पढ़ना चाहिए पर मैं उनको सिर्फ इतना कहती कि मुझे इसी कॉलेज में पढ़ना है और मुझे हर रोज आने-जाने में कोई परेशानी नहीं है।”
अपनी ग्रेजुएशन के दौरान प्रांजल और उनकी एक दोस्त ने आईएएस प्रशासन के बारे में एक आर्टिकल पढ़ा तब उन्हें पहली बार आईएएस के बारे में पता चला। उन्होंने धीरे-धीरे इसमें दिलचस्पी लेना शुरू किया और यूपीएससी परीक्षा के लिए जानकारी हासिल करने लगी। अब आईएएस बनने का सपना उनके भीतर जन्म ले चूका था। पर फिर भी वो अपनी पढ़ाई पर ध्यान देते हुए यूपीएससी को टालती रहीं।
ग्रेजुएशन के बाद प्रांजल ने अपनी एमए की डिग्री दिल्ली जेएनयू से हासिल की। इसके बाद वे अपने सपने पर मेहनत करने के लिए तैयार थीं। साल 2015 में एमफिल करते हुए प्रांजल ने यूपीएससी के लिए पढ़ना शुरू किया। तकनीकी ने उनके इस सफर में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने जॉब एक्सेस विद स्पीच (JAWS) नाम के एक सॉफ्टवेयर को डाउनलोड किया। यह सॉफ्टवेयर खास तौर से नेत्रहीन व बहरे लोगों के लिए बनाया गया है।
“यह बहुत लम्बी प्रक्रिया थी। मैं पहले किताब लेकर उसे स्कैन करती क्योंकि JAWS पर मैं सिर्फ प्रिंटेड किताबें ही पढ़ सकती थी। इसी के चलते अपने हाथ से लिखे गए नोट्स को पढ़ना भी मुश्किल था,” प्रांजल ने बताया।
प्रांजल की अगली चुनौती थी कोई ऐसा लिखने वाला व्यक्ति ढूँढना जो उनकी गति के हिसाब से लिख पाए। विदुषी इसके लिए सबसे बेहतर साबित हुईं। दरअसल यूपीएससी के मेन्स पेपर में लिखने के लिए 3 घंटे मिलते हैं और दिव्यांग लोग, जिनके लिए कोई और लिख रहा है उन्हें 4 घंटे मिलते हैं।
प्रांजल ने बताया,
“विदुषी के साथ मेरी ट्यूनिंग अच्छी थी। अगर मैं एग्जाम के दौरान कभी धीरे हो जाती तो विदुषी मुझे डांटती। ये ऐसा था कि मैं शब्द बोलती और वो पेपर पर होता।”
ओज़हरखेड़ा के एक केबल ऑपरेटर कोमल सिंह पाटिल से विवाहित प्रांजल अपनी सफलता का श्रेय अपने माता-पिता, दोस्तों व अपने पति को देती हैं।
प्रांजल कहती हैं कि उन्हें बहुत ख़ुशी है कि इस मुश्किल परीक्षा में भी उन्होंने सभी प्रश्नों के उत्तर लिखे, वह भी प्रत्येक उत्तर की गुणवत्ता बनाये रखते हुए। उन्होंने बिना किसी कोचिंग के परीक्षा उत्तीर्ण की थी।
प्रांजल ने बताया था, “पढ़ाई कभी भी मेरे लिए मुश्किल नहीं रही बल्कि मुझे नया पढ़ना और सीखना पसंद है। पर नियमित रूप से अनुशासन में पढ़ना थोड़ा मुश्किल था। मैंने कोचिंग नहीं ली पर टेस्ट सीरीज की थी जिसकी वजह से पढ़ाई अनुशासित हो गयी।”
मनोरमा
सोमवार को केरल में अपना कार्यभार संभालने के बाद सभी विभागों के अधिकारियों से मुलाकात की। कार्यालय के स्थापना विभाग के पी.एच रोशिता ने उनका हाथ पकड़ उन्हें प्रशासन हॉल का रास्ता दिखाया। सभी अफसरों ने बहुत ख़ुशी के साथ उनका स्वागत किया।
जब प्रांजल ने अपने सभी कार्यों में अपने अधिकारियों का साथ माँगा तो सभी ने प्रोटोकॉल तोड़, उनका हाथ अपने हाथों में लेकर उनका साथ देने का आश्वासन दिया।
हम आईएएस अफसर प्रांजल को उनकी इस उपलब्धि के लिए बधाई देते हुए उनके हौंसलों को सलाम करते हैं। यक़ीनन वे बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा हैं।
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हाल ही में उत्तराखंड में रामनगर के सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह ने अपनी जान जोख़िम में डाल कर एक मुसलमान युवक को भीड़ के हाथों मरने से बचाया। उनके इस साहसी कारनामे का किसी ने वीडियो बनाया, जो देखते ही देखते सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। इसके बाद गगनदीप सिंह देश में लोगों के लिए और ख़ास कर युवाओं के लिए हीरो बन गए।
“हीरो जैसा कोई काम नहीं किया, मैं बस मेरी ड्यूटी कर रहा था; तो मैंने वही किया जो उस स्थिति में कोई भी पुलिस वाला करता,” यह कहना है उन्हीं सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह का।
मूल रूप से उत्तराखंड के जिले उधम सिंह नगर के जसपुर से ताल्लुक रखने वाले गगनदीप अपनी माँ के साथ रहते हैं।
सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह
गगनदीप ने बहुत छोटी उम्र में ही अपने पिता को खो दिया था। उनकी माँ ने ही उन्हें और उनकी बहन को पाल-पोसकर इस मुकाम तक पहुंचाया।
गगनदीप ने अपनी पढ़ाई, राधे हरी गवर्नमेंट पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, काशीपुर से की है। साल 2015 में उनका पुलिस फाॅर्स में चयन हुआ।
“मुझे हमेशा से फ़ौज या फिर पुलिस में जाना था क्योंकि मुझे लगता है कि अपने देश और नागरिकों की सेवा करने का सबसे अच्छा मौका आपको पुलिस फाॅर्स और फ़ौज ही देती है,” द बेटर इंडिया से बातचीत के दौरान गगनदीप सिंह ने बताया।
गगनदीप सिंह की ट्रेनिंग उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले में हुई। जिसके बाद वे अगस्त, 2017 में उत्तराखंड के रामनगर में सब-इंस्पेक्टर के रूप में नियुक्त हुए।
घटना वाले दिन, गगनदीप की ड्यूटी रामनगर के मंदिर में ही थी। उन्होंने बताया, “मैं उस दिन मंदिर में ही तैनात था। थोड़ी दूर पर ही कुछ शोर-शराबा सुनाई दिया तो हम वहां गए। वहां जाकर देखा कि एक लड़के को भीड़ ने घेर रखा था। मैंने बीच-बचाव की कोशिश की। मेरा ध्यान सिर्फ इस पर था कि कोई मार-पीट न हो और हम उस लड़के को सही-सलामत वहां से ले जाए।”
गगनदीप जब भीड़ को शांत करने की कोशिश कर रहे थे तभी किसी ने उनका वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया। इसके बाद देश में काफी लोगों ने वह वीडियो देखा और गगनदीप की सराहना की।
YouTube
लोगों द्वारा मिल रही तारीफ़ पर उन्होंने कहा, “यह अच्छी बात है कि मेरे किसी काम की वजह से आम जनता के बीच पुलिस के लिए एक सकारात्मक सन्देश गया। बाकी मुझे नहीं लगता मैने कुछ बहुत बड़ा काम किया है। पुलिस का काम लोगों की सुरक्षा और सेवा करना है और मैं भी सिर्फ अपना काम कर रहा था।”
जब गगनदीप उस लड़के को बचाने की कोशिश कर रहे थे तो भीड़ में लोगों ने पुलिस के खिलाफ भी नारेबाजी शुरू कर दी। ऐसे में भी विचलित होने की बजाय बिना किसी हाथापाई के गगनदीप सिर्फ अपनी ड्यूटी करते दिखे।
इस पर उन्होंने कहा, “डर जैसा तो कुछ नहीं था क्योंकि इसी काम के लिए हम हैं कि हमारे रहते हुए कोई भी हुड़दंग न हो। अगर पुलिस के वहां मौजूद होते हुए भी लड़ाई होती तो यह हमारे लिए भी शर्मिंदगी की बात होती। इसलिए मेरा मकसद सिर्फ उस लड़के को वहां से निकालना था।”
इस वीडियो के वायरल होने के बाद जब गगनदीप सुर्ख़ियों में आ गए तो कुछ दिनों में खबरें आने लगी कि उन्हें साम्प्रयदायिक दलों से धमकियां मिल रहीं हैं कि उन्होंने उस लड़के को क्यों बचाया। इस बारे में पूछने पर गगनदीप ने इन सभी खबरों को नकारते हुए कहा कि ऐसा कुछ नहीं है। यह सब बस अफवाहें हैं।
पुलिस हमारी सुरक्षा के लिए होती है पर आम लोग पुलिस के पास जाने से भी कतराते हैं। जनमानस का पुलिस व्यवस्था पर से विश्वास उठ सा गया है। अब वजहें कोई भी हों पर लोग पुलिस को हमेशा भय और संदेह भरी निगाह से देखते हैं। ऐसे में सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह ने जो किया वह वाकई पुलिस विभाग की सकारात्मक छवि को दर्शाता है।
“हम पुलिस वाले सिर्फ अपनी ड्यूटी ईमानदारी से करते हैं। आम लोगों को पुलिस को लेकर अपनी सोच को बदलना चाहिए और अगर लोग भी हमारा साथ दें तो यक़ीनन पुलिस और अच्छे से काम करेगी,” गगनदीप सिंह ने बताया।
हम सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह की इस सोच को सलाम करते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके इस कदम से लोगों की सोच में बदलाव आएगा। साथ ही आशा है कि और भी सरकारी अधिकारी व कर्मचारी, जो लोगों की सेवा के लिए हैं इनसे प्रेरणा ले, ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाएंगे।
( संपादन – मानबी कटोच )
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बाल की खाल के जूते
बाल की खाल के बैग
बाल की खाल के लोटे
(और आजकल) बाल की खाल का स्वैग
शर्मा जी आहत हैं – कि इस लेख का आरम्भ ब्राह्मण से ही क्यों किया.
वर्मा जी आहत हैं कि उनका ज़िक्र क्यों नहीं किया.
श्रीमान फ़ेसबुक सिंह कहते हैं कि मुस्लिमों को तो नहीं कहते.
इंटरनेट कुमारी चीखतीं हैं कि इस देश में औरतों को सिर्फ़ नज़रअंदाज़ किया जाता है. जेएनयू में गरमागरम विमर्श चलता है कि इससे किस तरह समाज का नुकसान हुआ है और अब क्या करना है. भक्त ये लेख पढ़ते ही नहीं वो $टीवी देखने में और व्हाट्सऐप से दुनिया सुधारने में व्यस्त हैं. करणी सेना.. वो कहाँ है आजकल दिख नहीं रही. कहीं पद्मावत के लिए मचाये बवाल पर शर्मिंदा तो नहीं है. शर्मिंदा तो भंसाली को होना चाहिए इतिहास का एक बार फिर मज़ाक बनाने के लिए. लेकिन छोड़ो और तुम लेख लिखते हुए कहाँ भटक गए कुछ मुसलामानों के बारे में डालो यार तभी लेख ‘बैलेंस्ड’ दिखेगा.. सोचो सोचो.. सोचो..
बाल की खाल आजकल का सबसे बड़ा धंधा है
और मियाँ, फँस गए तो सबसे ज़हरीला फंदा है
अच्छा बताता हूँ कि ये विषय क्यों चुना इस बार. हाल ही में हिन्दी कविता (यूट्यूब चैनल) पर एक बघेली लोकगीत पर एक वीडियो डाला था ‘बालम सउतनिया काहे लाए’. आप सबसे पहले तो यह वीडियो देखिए फिर आगे की बात करते हैं. शोख़ शुभांगी के इश्क़ में गिरफ़्तार हो सकते हैं, इस चेतावनी के साथ देखें
अगर इस वीडियो को देख कर कोई आहत हुआ हैं तो ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके हाथ पर गरम चाय गिर जाय और संस्कृति के सौंधेपन की ओर ध्यान न दे सकने की सज़ा मिल जाए. साहब लोग, आग्रह है कि संस्कृति बचाने के नारे लगाने की बजाय उसका आनंद लें. हमारी लोक-संस्कृति की इतनी मीठी, मसालेदार बानगी – हमारा सदियों पुराना गीत. लाखों लोग अभिभूत हुए, उन्हें अपनी अपनी आँचलिक भाषाओं पर प्यार आया, उनका प्रयोग करने की झिझक टूटी (हम आंचलिकता को बचाने के चक्कर में नहीं हैं उन्हें फ़ैशनेबल बनाना चाहते हैं) लेकिन चंद लोग जो आजकल के ‘बाल के खाल के स्वैग’ के मारे हैं उन्हें इस लोकगीत की भाषा नागवार गुज़री.. वे मानेंगे नहीं लेकिन यह संस्कृति भी अमेरिका से आयातित है जिसका प्रयोग बेतरतीबी से कभी हीरो दिखने के लिए कभी सियासत चलाने के लिए और कभी फ़िल्में बेचने के लिए किया जा रहा है. हम सबको जागरूक होना पड़ेगा.. माहौल बिगड़ता जा रहा है.. जब भी आप ‘आहत’ होते हैं तो सोचें कि कौन अपना उल्लू सीधा कर रहा है और आपका उपयोग अपने फ़ायदे के लिए कर रहा है.
और इसका मतलब यह नहीं है हम बेशर्मी से पुरानी रूढ़ियों को ढोते ही रहें. जागरूक न हों.. जातीय, धार्मिक, सामाजिक बन्धनों और प्रचलनों पर सवाल न उठायें बस इतनी गुज़ारिश है कि आँख बंद करके आसानी से काला या सफ़ेद न देखें.. अपने विवेक का इस्तेमाल करें. विवेक. विवेक ज़रूरी है. अब जैसे हमारे यहाँ जो गोरा बेहतर-काला बुरा सोचने की जाहिल मानसिकता है, उसका विरोध ज़रूरी है. लेकिन यह भी हो सकता है कि ‘राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला?’ में बाल-कृष्ण को यह समझाया जा रहा हो कि बच्चे, काले में कोई बुराई नहीं है. हो सकता है मनोवैज्ञानिक स्तर पर सबको यह बताया जा रहा हो कि भगवान भी काले हैं. अब वो काले हो सकते हैं तो..
अरे, अपने विवेक का इस्तेमाल करो सुनीता अपने विवेक का!
लेखक – मनीष गुप्ता
फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!
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पूरी दुनिया में अंग्रेजी सामान्य भाषा है पर जरूरी नहीं कि सबको यह भाषा अच्छे से आये और किसी की काबिलियत को सिर्फ भाषा के ऊपर जांचना यक़ीनन सही नहीं है, ऐसा मानना है मध्य प्रदेश मेडिकल साइंस यूनिवर्सिटी का! इसी समस्या को समझते हुए, मध्य प्रदेश मेडिकल साइंस यूनिवर्सिटी ने अपने विद्यार्थियों को सभी लिखित और मौखिक परीक्षाओं में “हिंगलिश” (हिंदी और अंग्रेजी भाषा का मिश्रण) भाषा का प्रयोग करने की अनुमति दी है।
डेक्कन क्रॉनिकल की रिपोर्ट के मुताबिक 26 मई को विश्वविद्यालय ने एक परिपत्र जारी किया है, “पुरे विचार-विमर्श के बाद बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ ने फैसला किया है कि सभी कॉलेज के विद्यार्थियों को हिंदी, अंग्रेजी और हिंगलिश भाषा में परीक्षा लिखने का विकल्प है।”
परिपत्र के मुताबिक छात्रों को मौखिक और प्रैक्टिकल परीक्षाओं में भी यह सुविधा होगी और यदि उत्तर वैज्ञानिक और तकनीक रूप से सही है तो अंक नहीं काटे जाएंगे।
यूनिवर्सिटी के वाईस-चांसलर डॉक्टर आर. एस शर्मा ने पीटीआई को बताया, “छात्र और बाकी सभी लोग इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं क्योंकि यक़ीनन यह फैसला मेडिकल छात्रों के मददगार साबित होगा और ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले बच्चों के लिए।”
डॉ शर्मा ने इस फ़ैसले के पीछे की वजह बताते हुए कहा, “इंदौर में एनाटोमी विषय के प्रोफेसर डॉ मनोहर भंडारी ने एक विस्तृत अध्ययन किया है। इस अध्ययन के मुताबिक़ हिंदी माध्यम से आने वाले अव्वल छात्र भी मेडिकल कॉलेज की परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “ऐसा नहीं है कि छात्रों को विषय की जानकरी नहीं है; वे बस अंग्रेजी में नहीं लिख पाते और इसलिए हमने यह फ़ैसला किया।”
यह फ़ैसला यक़ीनन ग्रामीण क्षेत्र और समाज के कमजोर वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों के लिए वरदान है। यद्यपि विद्यार्थियों को अंग्रेजी सीखने की दिशा में भी कदम उठाने होंगे ताकि उन्हें भविष्य में समस्याएं न हों।
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आज के समय में सोशल मीडिया घने जंगल की तरह है और कुछ भी जो लोगों का ध्यान आकर्षित कर ले, आग की तरह इस पर फ़ैल जाता है।
कितनी बार सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो और पोस्ट की वजह से इंटरनेट की गति धीमी हो जाती है। जैसे मलयालम अभिनेत्री प्रिया प्रकाश की म्यूजिक वीडियो या फिर ढिंचैक पूजा की वीडियो जो अपनी अलग आवाज के चलते पुरे देश में मशहूर हो गयी।
पर कभी-कभी ऐसे ही वायरल वीडियो के कारण किसी व्यक्ति की छुपी हुई प्रतिभा भी बाहर आ सकती है। इसी का उदाहरण है आज इंटरनेट पर वायरल हो रहे डांसिंग अंकल।
सभी जानते हैं कि भारत में शादियां बड़ी ही धूमधाम से रस्मों रिवाज़ों के साथ होती हैं। हालाँकि वैसे तो सबका ध्यान दूल्हा-दुल्हन पर होता है शादियों में; पर इस एक शादी में सबका ध्यान एक मेहमान पर था। मेहमान थे, प्रोफेसर संजीव श्रीवास्तव, जिन्होंने ऐसी डांस परफॉरमेंस दी की सब बस देखते रह गए।
46 वर्षीय संजीव मूल रूप से मध्य प्रदेश के विदिषा ज़िले से हैं और भोपाल के भाभा इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट में इलेक्ट्रॉनिक्स के प्रोफेसर हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक संजीव की माँ, मोहिनी श्रीवास्तव एक क्लासिकल डांसर थीं। उन्ही से प्रेरित हो कर संजीव साल 1982 से डांस कर रहे। 80 के दशक में ही उन्होंने बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के मध्य प्रदेश में तीन बार ‘बेस्ट डांसर’ का ख़िताब प्राप्त किया।
12 मई को अपनी पत्नी के भाई की शादी में भी संजीव अपने बेहतर डांस का प्रदर्शन कर रहे थे; जब किसी ने उनका वीडियो बना लिया। और अब संजीव उस वीडियो बनाने वाले के आभारी हैं।
संजीव बहुत से आयोजनों, प्रतियोगिताओं का हिस्सा रहे, कई जगह मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र में भी उन्हें खास मेहमान के तौर पर बुलाया गया और उन्होंने परफॉर्म भी किया। वे डांस ग्रुप्स व थिएटर का भी हिस्सा रहे पर कभी भी अपनी किसी परफॉरमेंस की वीडियो इंटरनेट पर नहीं डाली।
आप खुद वीडियो में देख सकते हैं कि बेहद खुबसुरती से संजीव ने गोविंदा की फिल्म खुदगर्ज़ (1987) के ,मशहूर गाने ‘आपके आ जाने से’ पर डांस किया। लगभग 40 सेकंड के इस वीडियो में आप उनके डांस के मुरीद हो जाएंगे।
Has everyone in India by now seen this video of the amazing #DancingUncle (at a wedding presumably)? Insta, FB, WhatsApp, Twitter – no matter what platform I’m on, he’s everywhere! And I can’t get enough, he’s just too good! pic.twitter.com/h4TTHtSKlK
दूसरे वीडियो में उन्होंने एक रीमिक्स ‘चढ़ती जवानी’ पर डांस किया। आप वीडियो में सुन सकते हैं कैसे देखने वाले लोग उनके लिए तालियां बजा रहे हैं और संजीव अपने डांस में पूरी तरह से मग्न हैं।
संजीव को देश पर में लोगों से सराहना मिल रही है, जिसमे मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान, बॉलीवुड अभिनेत्री रवीना टंडन भी शामिल हैं। रातों- रात सोशल मीडिया पर मिली इस प्रसिद्धि से संजीव बेहद खुश हैं और शादी के बाद भी उनकी एक और डांस वीडियो सोशल मीडिया पर आयी है। जिसे आप खुद देख सकते हैं।
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साल 2012 से ऐसा कोई दिन नहीं गया जब हैदराबाद के दबीरपुरा फ्लाईओवर के नीचे गरीब व भूखे लोगों की कतारें न लगीं हों या फिर एक आदमी उन्हें खाना खिलाने न आया हो। जी हाँ, मिलिए हैदराबाद के सईद ओसमान अज़हर मक़सूसी से, जो पिछले छह सालों से लगातार इस फ्लाईओवर के नीचे भूखे लोगों को खाना बांटते हैं।
बेघर, गरीब लोग जो दो वक़्त खाना भी नहीं जूटा सकते, हर रोज बिना किसी शोरगुल के यहां दबीरपुरा पुल के नीचे कतारें बनाते हैं। फिर सभी बारी-बारी से अपनी प्लेट उठाकर धोते हैं और कतारों में बैठकर खाने के लिए अपनी बारी का इन्तजार करते हैं।
अज़हर कहते हैं, “भूख का कोई मज़हब नहीं होता।”
हर रोज 150 से भी ज़्यादा लोगों को खाना खिलाने वाले अज़हर हैदराबाद के ओल्ड सिटी यानी कि पुराने इलाके में रहते हैं। उनका प्लास्टर ऑफ़ पेरिस इंटीरियर डिज़ाइन का कारोबार है।
“एक दिन रेलवे स्टेशन जाते वक़्त मैंने एक दिव्यांग औरत को भीख मांगते हुए देखा। उसे पैसे नहीं चाहिए थे। वह खाना मांग रही थी, शायद दो-तीन दिन से भूखी थी। इसलिए मैंने अपने खाने का डिब्बा उसे दे दिया,” अज़हर ने बताया।
अगले दिन इस घटना को सुनने के बाद अज़हर की पत्नी ने 10-12 लोगों के लिए खाना बनाया। जगह-जगह पर अज़हर ने जरूरतमंदों को वो खाने पैकेट दे दिए। इसके बाद यह सिलसिला शुरू हो गया।
अज़हर ने बताया कि बहुत छोटी उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया था और उसके बाद उनकी अम्मी ने बहुत मुश्किलों से उन्हें व उनके भाई-बहनों को पाल-पोसकर बड़ा किया। तो वे जानते हैं कि भूखे पेट सोना क्या होता है। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि जितने भी भूखे लोगों को वे खाना खिला पाएंगें, वे जरूर खिलाएंगे।
द न्यूज़ मिनट की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ दिन तक खाने के पैकेट बांटने के बाद अज़हर ने पुल के नीचे ही खाना पकाना और बांटना शुरू कर दिया। इसके दो महीने में ही 50 से अधिक लोग पुल के नीचे अज़हर का इंतज़ार करने लगे। जैसे-जैसे लोग बढ़े, अज़हर समझ गए कि उनके लिए थोड़ी परेशानी हो सकती है। इसलिए उन्होंने एक रसोइये को इस काम के लिए रख लिया ताकि वह बिना किसी छुट्टी के हर रोज अधिक मात्रा में इन लोगों के लिए खाना बनाएं।
अज़हर ने कभी भी किसी से पैसे की मदद न लेते हुए अपनी जेब से ही सारा खर्च उठाया। पर इश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था। एक दिन कोई अजनबी अपना रास्ता भटक गया और इस पूल के नीचे आ पहुंचा, जहां अज़हर लोगों को खाना बाँट रहे थे। जब उसे अज़हर के नेक काम का पता चला तो उसने भी मदद करने की इच्छा जताई।
इसके बाद और भी लोग अज़हर से जुड़ गए। तीन साल पहले अज़हर द्वारा स्थापित उनकी सनी वेलफेयर फाउंडेशन भुखमरी को खत्म करने के उद्देश्य से जगह-जगह पर काम कर रही है।
आज की तारीख़ में उनका काम हैदराबाद के सिकंदराबाद में गाँधी अस्पताल तक फ़ैल गया है। एक वैन हर रोज वहां लगभग 100 लोगों के लिए खाना पहुंचाती है।
उनकी फाउंडेशन एक एनजीओ के साथ मिल बंगलुरु, रायचुर, गुवाहाटी जैसी जगहों पर भी काम कर रही है। उनके इस नेक काम से प्रभावित होकर हाल ही में अभिनेता सलमान खान की फाउंडेशन ‘बीइंग ह्यूमन’ ने उन्हें एक समारोह आमंत्रित किया। अज़हर पहले भी अभिनेता अमिताभ बच्चन के टीवी कार्यक्रम “आज की रात है ज़िन्दगी” में भी एक एपिसोड का हिस्सा बन चुके हैं। अज़हर के लिए उनकी सबसे बड़ी ख़ुशी यही है कि जो काम उन्होंने अकेले शुरू किया था, आज बहुत से दोस्त, अनजान साथी, नाते-रिश्तेदार जुड़ चुके हैं।
“मैं लोगों से पैसे की मदद नहीं लेता, अगर कोई दाल-चावल भिजवाता है तो मैं मना नहीं करता। बाकी मैं फ़ेसबुक पर तस्वीरें शेयर करता हूँ, ताकि लोगों में जागरूकता आये कि कितने लोग हर रोज भूखे सोते हैं।”
अपनी माँ को अपनी प्रेरणा मानने वाले अज़हर आज भी बिलकुल सादा जीवन जीते हैं। उनका एक-मात्र उद्देश्य जरूरतमंदों की सेवा करना है। उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि खाने के लिए कौन उनके पास आता है। वे तो केवल मानते है कि दाने-दाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम।
अज़हर से सम्पर्क करने के लिए उन के फेसबुक पेज पर क्लिक करें।
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सीमा पर हमारी रक्षा करता हर जवान हमारे आदर का पात्र है, पर इनमें से भी कुछ की कहानी इतनी प्रेरणा भरी होती है कि हम जीवन भर उसे भुला नहीं पाते।
ऐसी ही एक कहानी है सीआरपीएफ जवान बी. रामदास के जीवन की, जो इनके शौर्य और अदम्य साहस से भरी हुई है।
फोटो: ज़ी न्यूज़
नवम्बर, 2017 में छत्तीसगढ़ के सुकुमा जिले में नक्सलियों द्वारा लगाए गए आईईडी ब्लास्ट में वह बुरी तरह से घायल हो गए थे। इस हादसे में उन्होंने अपने दोनों पैर खो दिए।
ज़ी न्यूज़ की रिपोर्ट के मुताबिक, 208 बटालियन कोबरा जवान और जिला पुलिस की एक संयुक्त टीम उप-कमांडेंट अम्बुज कुमार श्रीवास्तव के नेतृत्व में किस्ताराम ज़िले में एक ऑपरेशन पर थी। जब टीम पुलिस स्टेशन से 2 किलोमीटर दूर एक जंगल में निरीक्षण कर रही थी तब रामदास का पैर दबाव संचालित विस्फोटक उपकरण पर पड़ गया और जिसके चलते हुए विस्फोट में वो घायल हो गए।
रामदास को डॉ अनिल द्वारा शुरुआती उपचार दिया गया था, उस वक्त वह अपनी टीम के साथ किस्ताराम में मौजूद थे। रामदास के दोनों पैर गंभीर रूप से चोटिल हुए थे। इसके बाद उन्हें बेहतर इलाज के लिए हेलिकॉप्टर से रायपुर भेज दिया गया।
ऑपरेशन के दौरान उनका जीवन बचाने के लिए उनके दोनों पैरों को घुटने के नीचे से काटना पड़ा।
Wounded but NEVER defeated !
B Ram Das, #CRPF Commando who lost both his legs in IED blast by Naxals with his brave Commando wife.
For them country is ABOVE all
Salute to this inspiring patriot couple #NationFirstpic.twitter.com/ImBRnzO1qJ
पर रामदास ने हार स्वीकार नहीं की और हाल ही में ठीक होने के बाद उन्होंने 208 कोबरा टीम में वापसी की है। रामदास और उनकी पत्नी की फोटो साँझा करते हुए मेजर सुरेंद्र पुनिया ने लिखा कि सैनिक घायल होते हैं पर हारते कभी नहीं। इनके लिए देश सबसे बढ़कर है।
( संपादन – मानबी कटोच )
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अगर आप भारत में दोपहिया या फिर चार-पहिया वाहन चालक हैं तो जीवन में कभी तो आपको ट्रैफिक पुलिस ने रोका होगा ही।
लेकिन अगर आपको ट्रैफिक पुलिस रोकती है तो आपको घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि चालक के रूप में आपके भी कुछ अधिकार हैं; बस बिडंबना यह है कि बहुत से लोग इनके बारे में जानते नहीं हैं।
आज हम आपको इन अधिकारों के बारे में बताएंगें।
आपका चालान काटने के लिए ट्रैफिक पुलिस के पास उनकी चालान बुक या फिर ई-चालान मशीन होना जरूरी है। यदि इन दोनों में से कुछ भी उनके पास नहीं है तो आपका चालान नहीं काटा जा सकता है।
यदि आपको कभी भी ट्रैफिक पुलिस रोकते है तो आपका फ़र्ज़ है कि बिना किसी बहस के आप रुक जाएँ और अफ़सर द्वारा मांगे गए कागज़ात उन्हें दिखाएँ। हालाँकि ड्राइविंग लाइसेंस के अलावा ज़रूरी नहीं कि आप उन्हें कोई और कागज़ात दिखाएँ।
यह भी आप पर निर्भर करता है कि आप कागज़ात अफ़सर को सौपें या फिर नहीं। मोटर वाहन अधिनियम के सेक्शन 130 के मुताबिक किसी भी सार्वजानिक जगह पर वर्दी पहने हुए ट्रैफिक अधिकारी के मांगने पर मोटर चालक को कागज़ात दिखाने होंगें। पर ‘दिखाने’ होंगें न कि ‘सौंपने’ होंगे।
आपको पुलिस के साथ किसी भी तर्क-वितर्क में न पड़कर, उनका सहयोग करना चाहिए। यदि आपसे कोई गलती हुई है तो आप पुलिस को पहले स्थिति समझाइये क्योंकि ऐसा करने पर शायद वे आपको जाने दें।
मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत लाल बत्ती पार करने पर, अनुचित या अवरोधक पार्किंग करने के लिए, हेलमेट के बिना ड्राइव करने के लिए, अत्याधिक गति, गाड़ी में धूम्रपान करने के लिए, नंबर प्लेट न दिखाने पर, लाइसेंस के बिना ड्राइविंग करने पर, कोई भी वाहन बिना पंजीकरण के, वैध बीमा या फिर नियंत्रण प्रमाण पत्र के तहत वैध प्रदूषण के लिए दंडित किया जा सकता है। मोटर वाहन अधिनियम के तहत ये सभी अपराध हैं।
कभी भी पुलिस की अवैध मांगों को पूरा नहीं करना चाहिए। यातायात पुलिस को रिश्वत देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। आप ट्रैफिक पुलिस का बेल्ट नंबर और उसका नाम नोट करें। अगर उन्होंने बेल्ट न पहनी हो, तो उन्हें अपना पहचान पत्र दिखाने को कहे। अगर वह आपको अपना पहचान पत्र देने से इंकार कर देता है तो आप उसे दस्तावेज देने से इंकार कर सकते हैं।
यदि पुलिस अधिकारी की रैंक सब-इंस्पेक्टर या उससे ऊपर है तो आप जुर्माना अदा करके केस खत्म कर सकते हैं।
यदि आप लाइसेंस या परमिट के बिना गाड़ी चला रहे हैं, तो पुलिस आपके वाहन को रोक सकती है। अगर वाहन पंजीकृत नहीं है तब भी पुलिस आपके वाहन को रोक सकती है।
किसी भी वैध रसीद के बिना पुलिस आपका ड्राइविंग लाइसेंस जब्त नहीं कर सकती। बाकी लाल बत्ती पार करने पर, शराब पीकर गाड़ी चलाने और ड्राइविंग के वक़्त फ़ोन पर बात करने के लिए पुलिस आपका लाइसेंस जब्त कर सकती है।
जब तक आप गाड़ी में बैठे हैं यातायात पुलिस आपके वाहन को नहीं खींच सकती। पुलिस के आपके वाहन को खींचने से पहले आपको वाहन खाली करना होगा।
यदि आपको अपराध के लिए यातायात पुलिस द्वारा हिरासत में लिया गया है तो परीक्षण के लिए 24 घंटे के भीतर आपको मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए।
यदि यातायात पुलिस आपको परेशान करती है तो आप पूरी घटना का विवरण बताते हुए पुलिस के साथ शिकायत दर्ज कर सकते हैं।
यदि कोई अभियोजन पर्ची या चालान आपको जारी किया गया है, तो सुनिश्चित करें कि इसमें निम्नलिखित विवरण शामिल हैं,
अदालत का नाम और पता जहां अपराध का परीक्षण किया जाएगा
किए गए अपराध का विवरण
परीक्षण की तारीख
वाहन की सूचना
अपराधी का नाम और पता
चालान अधिकारी का नाम और हस्ताक्षर
बनाए गए दस्तावेजों का विवरण
( संपादन – मानबी कटोच )
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राजस्थान के बीकानेर जिले में राजकीय डूंगर कॉलेज में समाजशास्त्र के एक प्रोफेसर आखिर क्यों और कैसे एक ग्रीन लीडर बन गए? यह कहानी है प्रोफेसर श्याम सुन्दर ज्याणी की, जो अब तक 2,620 गांवों में 2,60,000 परिवारों से जुड़कर लगभग 7,40,000 पेड़ लगवा चुके हैं। उनके द्वारा की गयी पहल, “पारिवारिक वानिकी” के चर्चे देशभर में हैं और बहुत से परिवार इसे अपना रहें हैं।
पारिवारिक वानिकी एक संकल्पना है जिसके तहत प्रत्येक परिवार को अपने घर में कम से कम एक पेड़ लगाना चाहिए और उसे अपने परिवार के सदस्य की तरह ही बरतना चाहिए।
जैसे समाज की मूलभूत इकाई परिवार होता है, उसी तरह परिवार में पेड़ भी महत्वपूर्ण सदस्य होना चाहिए। ऐसा करने से हमारे समाज के बच्चे-बूढ़े सभी में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता बढ़ेगी।
मूल रूप से राजस्थान के गंगानगर जिले के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले श्याम सुन्दर ने समाजशास्त्र विषय में अपनी पढ़ाई की। किसान परिवार से होने के कारण हमेशा से ही श्याम सुन्दर को पेड़ों व प्रकृति से लगाव था। बचपन में स्कूल के बाद वह अक्सर अपने दोस्तों के साथ खेतों और खलिहानों में खेलने के लिए निकल जाते थे।
“जब भी बारिश के मौसम में नीम के पेड़ के नीचे गिरी निबोली से नए पौधे फुट आते तो हम उन्हें भी मिट्टी सहित उठाकर अलग जगह लगा देते थे ताकि किसी के पैरों के नीचे दबकर वे कुचल न जाएँ।”
एक बार जब वे आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अपने घर के पास ही पड़ी एक खाली जगह में नीम का पौधा लगाया और वे उस पौधे को अपना दोस्त कहने लगे। जब वह पौधा थोड़ा बड़ा हुआ तो उसमें दीमक लग गए। अपने दोस्त को बचाने के लिए श्याम सुन्दर ने उसकी जड़ों में कीटनाशक डाल दिया। पर उल्टा इसकी वजह से पौधा मुरझा गया।
अपनी नादानी के चलते श्याम सुन्दर ने अपना दोस्त खो दिया। इस घटना से उन्हें बहुत आघात पहुंचा और इसके बाद उनका पेड़ों के साथ रिश्ता और भी गहरा हो गया।
साल 2002 में गंगानगर ज़िले में ही कॉलेज के शिक्षक के रूप में उनका चयन हुआ। पर एक साल के भीतर उन्हें, जुलाई 2003 में बीकानेर स्थानांतरित कर दिया गया। अपने तबादले के बाद वे बीकानेर आये तो उन्होंने देखा कि उनके कॉलेज में बहुत ज्यादा पेड़ नहीं हैं और जो कुछ नीम आदि के पेड़ हैं वे भी धीरे-धीरे मरते जा रहें थे।
उन्होंने बताया,
“मैंने इस बारे में कॉलेज प्रध्यापक से बात की तो उन्होंने कोई रूचि नहीं ली, उन्होंने कहा कि क्या करें यहां का तो मौसम ही ऐसा है।”
बीकानेर को मरुनगर भी कहा जाता है क्योंकि वह थार मरुस्थल का हिस्सा है। साल में बारिश होने की दर भी एकदम ना के बराबर है। सिंचाईं के लिए भी इंदिरानगर नहर का केवल एक हिस्सा बीकानेर को छूते हुए निकलता है।
कॉलेज प्रिंसिपल के रूख को देखकर श्याम सुन्दर ने अपने ही स्तर पर काम करने की ठानी। उन्होंने अपने कुछ विद्यार्थियों के सहयोग से उन पेड़ों की देख-रेख का कार्य शुरू करवाया। सबसे पहले अपने विद्यार्थियों के साथ मिलकर उन्होंने सभी पेड़ो के चारों और थोड़ी खुदाई करके थाम्बड़े बना दिये ताकि पानी संग्रहित होकर पेड़ों की जड़ों तक जाये। इतना ही नहीं उन्होंने अपने जेब-खर्च से एक पानी के टैंकर वाले को भी पेड़ों के लिए रोज पानी लाने के लिए नियुक्त किया।
लगभग एक महीने में ही सभी पेड़ हरे-भरे व स्वस्थ हो गए। तब उन्हें लगा कि कॉलेज की 108 एकड़ भूमि में और भी बहुत पेड़ लग सकते हैं।
उन्होंने धीरे-धीरे बाकी प्रांगण में भी पेड़ लगाये और अपने विद्यार्थियों के साथ रोज उन में पानी देने और देख-रेख का कार्य शुरू किया। इससे प्रभावित हो कर उन्हें एनएसएस का काम भी संभालने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी!
साल 2006 में राजस्थान सरकार के एक प्रोग्राम के तहत वे बीकानेर के पास हिम्मतासर गांव में बच्चों के साथ कैंप के लिए गये। श्याम सुन्दर ने बताया,
“मुझे बहुत हैरानी हुई जब मैनें उस गांव के किसी भी घर में कोई पेड़ नहीं देखा और गांव की चौपाल पर भी 4-5 ही पेड़ थे। मुझे और मेरी टीम को गांव के लोगों की अकाल राहत कार्य के तहत जौहड़ की खुदाई में मदद करते देख गांव वाले साथ आ गए। धीरे-धीरे गांव वालों से जान-पहचान बढ़ी तो मैंने उन्हें प्रस्ताव दिया कि हम आपके हर घर में एक पेड़ लगाएंगे और उन्हें पेड़ों का महत्व समझाया।”
गांववालों के साथ से श्याम सुन्दर ने उस गांव के हर घर में और आस-पास पेड़ लगाए और आज की तारीख में उस गांव में लगभग 3,000 से भी अधिक पेड़ हैं। इन पेड़ों की लागत का सारा खर्चा श्याम सुन्दर ने अपने वेतन से दिया।
उसी गांव से श्याम सुन्दर की “पारिवारिक वानिकी” की शुरुआत हुई। जो सिलसिला हिम्मतासर में साल 2006 में शुरू हुआ वह आज भी बरकरार है।
इस गांव ने और भी बहुत से लोगों व आस-पास के गांवों को प्रेरित किया और वे सभी श्याम सुन्दर के पास जाने लगे। जो भी व्यक्ति श्याम सुन्दर के पास इस सिलसिले में जाता वे उसे अपने पैसों से खरीदकर पौधा देते।
जब श्याम सुन्दर ने देखा कि सरकार से मिलने वाले एनएसएस के फंड के लिए सिस्टम में भ्रष्टाचार हो रहा है, तो उन्होंने उस फंड को लेने से इंकार कर दिया । उन्होंने पारिवारिक वानिकी के कार्य को अपने व्यक्तिगत वेतन से चलाने का फैसला किया। उनके इस कदम पर उनके माता-पिता व उनकी पत्नी ने उन्हें पूर्ण सहयोग दिया।
“जब मैंने अपने घरवालों को बताया कि मेरा सपना है कि इस देश में हर घर और गांव-शहर में अधिक से अधिक पेड़ हों और लोग उन्हें अपने परिवार के सदस्य के रूप में बरतें; तो उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। यहां तक कि लगभग पिछले 10 सालों से मेरे बच्चों की स्कूल की फ़ीस भी मेरे पिताजी ने दी है।”
औरों के लिए भी बने प्रेरणा
साल 2016 में गंगानगर के पास एक गांव में श्याम सुन्दर पारिवारिक वानिकी के तहत कार्य कर रहे थे, जिसे देख कर दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने शिक्षक दिवस पर उनके काम पर एक लेख प्रकाशित किया। जिसके बाद लाखों लोग उनसे जुड़े। बिहार के नालंदा जिले से एक युवाओं के समूह ने श्याम सुन्दर को सम्पर्क किया। ये युवा भी अपने स्तर पर अपनी कमाई से ही नालन्दा के गांवों में मिशन हरियाली के तहत पेड़-पौधे लगा रहे थे। मिशन हरियाली के साथ मिल नालंदा जिले में अब तक पारिवारिक वानिकी के दो पर्यावरण मेले लगाये जा चुके हैं।
भगत सिंह को अपनी प्रेरणा मानने वाले श्याम सुन्दर ने बताया कि यदि कोई भी आदर्श प्राप्त करना है तो उसके लिए दूसरों को कहने की बजाय शुरुआत खुद से करनी होगी। इतने सालों से पूरी निष्ठां और लगन से अपने सपने को साकार करने में लगे श्याम सुन्दर ने पिछले साल जब भगत सिंह की जयंती, 27 सितंबर, 2017 को अपने जानकार व अन्य लोगों से गुजारिश की कि वे इस दिन पर जहां भी हो सके पौधे लगाएं, तो देशभर में लोगों ने अपने स्तर पर लगभग 35,000 पौधे लगाए।
“जब देशभर से मुझे लोगों ने तस्वीरें भेजी कि उन्होंने वृक्षारोपण किया है तो मुझे लगा कि अब पारिवारिक वानिकी साकार हो रहा है,” उन्होंने बताया।
पारिवारिक वानिकी के जरिये और भी समस्यायों को सुलझाने की कोशिश
बेटी के जन्म पर पौधरोपण करते हुआ परिवार
श्याम सुन्दर का मानना है कि यदि घरों में फल के वृक्ष लगाए जाएँ तो एक वक़्त के बाद घर के सदस्यों के आहार में एक फल शामिल हो जाएगा। अगर हर गरीब के घर में कोई भी फल का वृक्ष हो तो बच्चों में कुपोषण की समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
इसके अलावा बढ़ते जलवायु परिवर्तन और घटते वनों के कारण बहुत से जीव जैसे तितलियाँ, चिड़ियाँ आदि की प्रजातियां लुप्त हो रही हैं तो घरों में पेड़ होने से उन्हें भी आश्रय और कुछ भोजन मिले तो हम अपनी बायोडायवर्सिटी को भी सहेज सकते हैं। बहुत से पेड़ों के पत्ते घरेलु जानवरों के चारे के रूप में भी इस्तेमाल हो सकते हैं।
श्याम सुन्दर का उद्देश्य पेड़ों को न केवल लोगों के घरों में बल्कि दिलों और विचारों में जगह दिलाना है। हर कोई पेड़ों को अपने जीवन का अहम् हिस्सा बनाये इसके लिए लोगों की मानसिकता में भी इनकी जगह होनी चाहिए। जैसे बच्चे के जन्म की ख़ुशी में भी उसके नामकरण पर पेड़ लगवाये जाएँ। उन्होंने कहा,
“शादी में जिस तरह सात वचन दूल्हा-दुल्हन लेते हैं और उन्हें जीवनभर निभाने का वादा करते हैं वैसे ही हमने लोगों से अपील की कि वे सात वचनों के अलावा एक आंठवा महावचन भी ले, जिसे हम हरित वचन कहेंगें कि वह दम्पति अपनी शादी पर एक पौधा जरूर लगाएगा और अन्य किसी दम्पति को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करेगा।”
ऐसे ही श्याम सुन्दर ने किसी की मृत्यु के पश्चात् महाभोज पर पैसे लगाने की बजाय उस व्यक्ति की याद में पुरे समुदाय द्वारा पेड़ लगवाने का सन्देश दिया। लगभग दो साल पहले ही जब श्याम सुन्दर की नानी की मृत्यु हुई तो उन्होंने गांव में बहुत से पेड़ व फलों की बेल लगवाईं।
“अभी कुछ समय पहले जब मैं गांव गया तो एक घर में मुझे अंगूर परोसे गए और उन्होंने बताया कि ये उसी बेल के अंगूर हैं जो नानी की याद में लगाई थी। तभी मैंने अपनी माँ से कहा कि नानी आज भी हमारे बीच हैं।”
मरुस्थली पेड़ों पर बडिंग तकनीक की पहल
श्याम सुन्दर ने इंडियन काउन्सिल ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च के वैज्ञानिकों के सामने प्रस्ताव रखा कि वे मरुस्थली पेड़ जैसे कि झारबेरी, जिसे पनपने के लिए ना के बराबर पानी की जरूरत होती है, उस पर बड़ा बेर (थाई एप्पल) की बडिंग कर दी जाये तो वह बिना किसी पानी की जरूरत के प्राकृतिक रूप में यह फल उग जाएगा।
पर श्याम सुन्दर के इस प्रस्ताव को उन्होंने असंभव बताते हुए मना कर दिया। लेकिन इसे चुनौती के रूप में लेने वाले श्याम सुन्दर ने अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ मिल कर सम्भव कर दिखाया। उनका यह प्रयोग अन्य मरुस्थली पेड़ लसूदा और खेजड़ी पर भी कारगर साबित हुआ।
श्याम सुन्दर के आत्म-विश्वास और हौसले ने दिखा दिया कि यदि कुछ करने की ठान ली जाये तो यक़ीनन जीत हासिल होती है।
पारिवारिक वानिकी के तहत उनके काम के लिए श्याम सुन्दर को दो बार राष्ट्रपति द्वारा, साल 2012 में इंदिरा गाँधी एनएसएस नेशनल अवार्ड और साल 2016 में भी वर्तमान सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण के लिए सम्मानित किया गया।लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में भी दो बार पारिवारिक वानिकी का नाम दर्ज हुआ है।
श्याम सुन्दर का उद्देश्य पारिवारिक वानिकी को समाज के साथ-साथ शिक्षा से भी सही मायनों में जोड़ना है। अपनी इसी सोच पर काम करते हुए उन्होंने अपने कॉलेज, बीकानेर में ही तरह-तरह के पेड़ लगा एक छोटा-सा जंगल बनाया है; जो धीरे-धीरे अन्य छोटे-मोटे जीव जैसे तीतली, चिड़िया के आने से एक बायोडायवर्सिटी का रूप ले रहा है।
श्याम सुन्दर के इस जंगल में एक ‘पीपल्स नरसरी’ भी हैं जहां से लोग मुफ्त में पौधे ले जा सकते हैं।
श्याम सुन्दर का बीकानेर और आस-पास के जगहों के स्कूलों को यह प्रस्ताव है कि बच्चों को यहां ‘फारेस्ट वॉक’ के लिए लाया जाये, ताकि आने वाली पीढ़ी को जंगल क्या होता है और इसके क्या मायने हैं यह सिर्फ किताबों में ही न दिखाया जाये।
श्याम सुन्दर ने कहा,
“मैं एक मॉडल दे सकता हूँ जिसके तहत हम विद्यार्थियों को सही मायनों में उनका पर्यावरण दें सके और उसकी देख-रेख के गुर सिखा सके।”
उनका कहना है कि अगर सरकार उनका उचित सहयोग करे तो पुरे देश में पारिवारिक वानिकी को पहचान मिल सकती है। इसके अलावा बडिंग तकनीक को और आगे ले जाने के लिए भी सरकार और अधिकारीयों के साथ व सहयोग की आवश्यकता है।
हाल ही में, श्याम सुन्दर ने किसान इंटरनेशनल के नाम से एक यूट्यूब चैनल भी शुरू किया है, जिसे आप सब्सक्राइब कर श्याम सुन्दर से जुड़ सकते हैं।
इसके आलावा उनकी वेबसाइट familialforestry.org के माध्यम से उनकी पहल और अन्य प्रोजेक्ट्स के बारे में जान सकते हैं। उनकी दो मोबाइल एप, माय फॉरेस्ट और ग्रीन लीडर भी गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध हैं।
( संपादन – मानबी कटोच )
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यह बहुत दुःख की बात है कि राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के कप्तान को खुद एक वीडियो के जरिये मैच देखने आने के लिए देश के नागरिकों से अपील करनी पड़े।
पर कहते हैं न कि ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है और सुनील छेत्री की इस वीडियो ने वही कर दिखाया। देश के लोगों ने इस सच को जाना भी और प्रतिक्रिया भी दी। भारत बनाम केन्या मैच को देखने के लिए एक यूट्यूबर ने सम्पूर्ण स्टैंड और सभी मैचों के टिकट खरीद लिए।
दरअसल, मुंबई में चल रहे इंटरकॉन्टिनेंटल कप में लोगों की बहुत ही कम उपस्थिति देखी गयी। खेल की ओर लोगों की इस उदासीनता को देखकर, कप्तान ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया, और प्रशंसकों से बड़ी संख्या में मैच में भाग लेने का आग्रह किया।
This is nothing but a small plea from me to you. Take out a little time and give me a listen. pic.twitter.com/fcOA3qPH8i
इस वीडियो में छेत्री बहुत ही विनम्रता से लोगों से अपील करते हैं। उनका कहना है कि इंटरनेट पर आलोचना करने से बेहतर है कि आप स्टेडियम में आकर हम पर चिल्लाएं, हमें बुरा-भला कहें पर कम से कम इस खेल में भाग लें। क्या पता एक दिन आप सबकी आलोचना तारीफ़ में बदल जाये।
इस दो-मिनट की वीडियो पोस्ट में छेत्री सभी यूरोपियन क्लबों के प्रशंसकों से भी आने का आग्रह करते हैं। भारत में बड़ी संख्या में फुटबॉल समर्थक हैं, जो बड़े क्लबों और उनके खेल को देखते हैं, फिर भी देश में फुटबॉल नहीं देखते।
बहुत दुःख की बात है कि शनिवार को मुंबई में मैच के दौरान स्टेडियम का सिर्फ एक चौथाई भाग ही भरा हुआ था। हालाँकि भारत ने चीन की ताइपे को 5-0 से हरा 4-टीम टेबल में अपनी जगह बना ली और इसके लिए छेत्री ने हैट्रिक भी मारी थी।
खैर, छेत्री के वीडियो पर प्रतिक्रिया देखने को मिली। विराट कोहली और सचिन तेंदुलकर जैसे बल्लेबाज भी छेत्री के समर्थन में आगे आये, जिसके चलते वीडियो वायरल हो गयी।
यूट्यूबर निकुंज लोटिया ने ट्विटर पर घोषणा की कि उन्होंने मुंबई मैच के लिए एक संपूर्ण स्टैंड खरीदा है। उन्होंने साथी फुटबॉल प्रशंसकों से टिकट के लिए उनसे संपर्क करने के लिए कहा।
फोटो: निकुंज लोटिया/इंस्टाग्राम
शायद, एक सुनहरा पल तब था जब ला लीगा के आधिकारिक हैंडल ने टीम के कप्तान के इस दिल छू जाने वाले संदेश का समर्थन किया।
संयोग से, छेत्री भारत की वरिष्ठ राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के लिए अपना 100 वां मैच खेलेंगे, और बाइचूंग भूटिया के बाद वे दूसरा व्यक्ति हैं इस उपलब्धि को हासिल करने वाले।
क्रिकेट-प्रेमी भारत में बाकी खेलों के लिए प्राथमिकता पाना मुश्किल है। पर इस घटना के बाद यक़ीनन भारतीयों को खेलों का समर्थन करने का अपना तरीका बदलना होगा।
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जूनियर कुमारस्वामी जब से इस दुनिया में आया है जीने के लिए संघर्ष कर रहा है। जिसे अपने ही माता-पिता ने छोड़ दिया, बंगलुरु पुलिस ने बचाया, एक महिला कॉन्स्टेबल ने अपना दूध पिलाया, और आखिर में कर्नाटक के मुख्यमंत्री के नाम पर उसका नाम रखा गया। यह नवजात शिशु बिना कुछ जाने ही जिंदगी की जद्दोज़हद से गुजर रहा है।
द हिन्दू की रिपोर्ट के मुताबिक, शुक्रवार की सुबह कुमारस्वामी एक कचरा बीनने वाले को सेलिब्रिटी लेआउट, डोडादाथोगुरु में एक निर्माण स्थल पर एक झाड़ी के नीचे एक प्लास्टिक बैग में बंद मिला। उस ने पास में एक दुकानदार को इस बारे में सुचित किया।
दूकानदार ने पुलिस को जानकारी दी तो उप सब-इंस्पेक्टर नागेश तुरंत घटनास्थल पर पहुंचे।
उप सब-इंस्पेक्टर नागेश ने द हिन्दू को बताया, “बच्चा बहुत ही बुरी अवस्था में था। वह खून से लथपथ था और गर्भनाल को उसकी गर्दन के चरों और लपेटा हुआ था।” बच्चे को पास के ही अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया।
उपचार के बाद, बच्चे को स्थानीय पुलिस स्टेशन ले जाया गया और उसे एक महिला कॉन्स्टेबल अर्चना की देखभाल में रखा गया। उस कमजोर और गतिहीन बच्चे को देख अर्चना को बहुत दुःख हो रहा था।
दरअसल, अर्चना का भी 3-महीने का एक बच्चा है और हाल ही में वे अपने मातृत्व अवकाश के बाद ड्यूटी पर आयी हैं। अर्चना ने बच्चे को अपना दूध पिलाने का निर्णय लिया। द हिन्दू के मुताबिक, इसके कुछ समय बाद ही बच्चे के रोने की आवाज पुलिस स्टेशन में गूंजने लगी।
इसके बाद ही एएसआई नागेश पास की दुकान से बच्चे के लिए नए कपडे लाये और उसका नामकरण किया। “अब यह सरकार का बच्चा है। इसलिए हमने उसका नाम कुमारस्वामी रखा है और अब इसकी देखभाल सरकार ही करेगी,” एएसआई ने बताया।
बच्चा अब होसूर रोड पर शिशु मंदिर अनाथालय की देखभाल में है।
इलेक्ट्रॉनिक सिटी पुलिस ने इस बच्चे को बचाया, पर महिला कॉन्स्टेबल अर्चना ने उसे अपना दूध पीला नया जीवनदान दिया। बेंगलुरू पुलिस के प्रयासों के वजह से आज यह बच्चा जीवित है।
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हाल ही में, बंगलुरु रेलवे डिवीजन ने पर्यावरण और स्वच्छता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। रेलवे विभाग ने अपनी इस पर्यावरण अनुकूल पहल के चलते अपने मुख्य रेलवे स्टेशनों पर बोतल क्रशर लगवाए हैं। यह बोतल क्रशर केएसआर सिटी, यशवंतपुर, कंटोनमेंट और कृष्णराजपुरम स्टेशनों पर लगाए गये हैं।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इन सभी बोतल क्रशरों को लगवाने का खर्च पारले एग्रो नमक निजी कंपनी ने अपने सीएसआर प्रोजेक्ट के तहत उठाया है। यह मशीनें बिजली द्वारा चलेंगीं, जिसका खर्च रेलवे उठाएगा।
पर इससे भी अनोखी एक बात है, जो इस पहल को और भी दिलचस्प बनाती है। दरअसल, रेलवे ने घोषणा की है कि जो भी व्यक्ति इन मशीनों में बेकार बोतल डालेगा, उसे 5 रूपये प्रति बोतल दिए जाएंगे। जी हाँ, आपको बस बोतल मशीन में डालने के बाद मशीन में अपना मोबाइल नंबर डालना होगा और आपको आपके पेटीएम पर 5 रूपये क्रेडिट कर दिए जाएंगे।
डिविजनल रेलवे मैनेजर, आर. एस सक्सेना ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया कि इस पहल पर यात्रियों की प्रतिक्रिया के आधार पर बाकी स्टेशनों पर भी मशीनें लगायीं जाएँगी। उन्होंने कहा,
“इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि प्लास्टिक की बोतलों को रेलवे ट्रैक या स्टेशन परिसर में नहीं डाला जाये। यह प्लास्टिक की बोतलों का निपटान करने के लिए एक पर्यावरण अनुकूल विकल्प भी है।”
स्टेशनों पर लगाई गयी प्रत्येक मशीन की लागत 4.5 लाख रुपये है। एक बार मशीन में बोतल गिरा दी जाती है, तो मशीन इन बोतलों को प्लास्टिक के टुकड़ों के रूप में बदल देती है, जिसे फिर से उपयोग में लाया जा सकता है।
इससे पहले बोतल क्रशर मैसूर, पुने, अहमदाबाद और मुंबई स्टेशनों पर भी लगाए गए हैं।
( संपादन – मानबी कटोच )
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कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
परवीन शाकिर ऐसा क्यों लिखती हैं भला?
क्योंकि ऐसा सोचती हैं?
ऐसा क्यों सोचती हैं भला?
क्योंकि उन्हें अच्छा लगता है, शायद.
उन्हें दर्द पसंद हो, शायद.
या विक्टिम मानसिकता जो कई लोगों की आरामगाह होती है.
(वैसे परवीन शाकिर के केस में ऐसा कुछ नहीं है! मैंने अपनी बात रखने के लिए अतिशयता पूर्ण विश्लेषण का प्रयोग किया है)
एक शरीफ़, ज़िम्मेदार, आपकी बात मानने वाला पुरुष. धोखा न देने वाला, पड़ोसियों से अच्छे से बात करने वाला, वक़्त पर घर आनेवाला पुरुष. जिसके साथ लम्बा जीवन बिताया जा सके, जो आपके पापा को (आसानी से) पापा कहे, बच्चों को बाग़ीचे में ले कर जाने वाला पुरुष – हर लड़की के ख़याल में होता है. ड्रामाफ़्री इंसान सबको चाहिए घर बसाने के लिए.
और पसंद कौन आता है? घुटनों की हड्डियों को पानी कौन बना देता है? धड़कन बढ़ा देता है.. सबके सामने नज़रों से कुछ कुरेद जाता है (भरे भौन में करत है नयनन ही सौं बात – बिहारी). शाम में रंगीनी भर देता है, नींद उड़ा देता है. जिसे फ़्लर्ट करने में महारत हासिल होती है. साहस होता है कुछ कह देने का, छू देने का. गाड़ी तेज़ चलाता है, बालों कपड़ों में बहुत ध्यान लगाता है.. सबसे बड़ी बात – जो दूसरी लड़कियों को भी पसंद आता है.
तानाशाहों, धोखेबाज़ों, अहंकार पालने वालों के लिए समर्पण जाग जाना नारियों की नियति है? आदत है? कमज़ोरी है? सीनाज़ोरी है? और जिनके साथ घर बसाने की सलाह समाज, वालिदैन, और बैंक में तनख़ाह जमा करा कर लौटा हुआ दिल देता है वो बोरिंग लगते हैं..
..तो लड़कियाँ क्या करती हैं?
जवाब आसान है. लड़कियाँ घर बसा लेती हैं..
और फिर कोशिश करती हैं कि रघुवीर सहाय की इस तरह की कविता उनके जीवन में न आये जो कहती है:
“पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबको लगा पलीता
किसी मूर्ख की बन परिणीता
निज घरबार बसाइये.
होंय कटीली
आँखें गीली
लकड़ी सीली
तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भर कर भात पसाइये”
या फिर वही ठीक था परवीन शाकिर का कहना:
‘सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी’
मैं अंधेरों में जी लूँगी.
मैं ज़रा सा उड़ लूँगी फिर लौट कर पापा की सहमती से चलूँगी.
मैं उड़ूँगी.. उसके कमीनेपन को सुधारने की कोशिश करुँगी.. रोती-पटकती-गाती-चिल्लाती जी लूँगी.
मैं उड़ूँगी, गिरूँगी, उड़ूँगी, गिरूँगी, उड़ूँगी, गिरूँगी..
गिरना कठिन है. छाती फट जाती है. कुछ मर जाता है. आपकी सरलता कम होती जाती है गिरते उठते रहने से.
उड़ना कठिन है.. क्योंकि लोगों के अपने सपने ही नहीं होते. डर लगता है सपने देखने में. या आलस है या अकर्मण्यता है. सपने देखने में पुरुषार्थ लगता है. मेहनत लगती है. अधिकतर लोग नाकारे होते हैं.. ‘जैसी उपरवाले की मर्ज़ी, वही ठीक है’, सोच कर बसर कर लेते हैं..
सपने देखना ठीक है या नहीं देखना – क्या पता..
बैड-बॉय, बेहतर है या सेफ़-बॉय – क्या पता..
आसान सा लेख है पर अगर मन भारी हो गया हो तो माफ़ी. इलाज के तौर पर ये वीडियो हाज़िर है.. देखें परवीन कैफ़ की नशा ला देने वाली मासूमियत को.. कहती हैं..
दिल के हैं बुरे लेकिन अच्छे भी तो लगते हैं
हर बात सही झूठी – सच्चे भी तो लगते हैं.
आगे का उनसे ही सुन लीजिये:
लेखक – मनीष गुप्ता
फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!
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मिलिए ऐसी एक कलाकार से, जो सूखे फूल और पत्तियों को कला का रूप दे रहीं हैं। जी हाँ, बंगलुरु की सुभाषिनी चंद्रमणी, न केवल चित्रकार और कवियत्री ही नहीं बल्कि एक फोटोग्राफर भी हैं। इसके अलावा उन्हें बागवानी का भी शौक है। तो बस फोटोग्राफी और बागवानी के लिए अपने प्यार को कला के जरिये जोड़कर उन्होंने इसे एक अनोखा रूप दे दिया है।
इसी मिश्रण को उन्होंने ‘गार्डन आर्ट’ नाम दिया है। दरअसल, एक दिन सुभाषिनी एक औरत का स्केच बना रही थीं और अचानक, उन्हें ख्याल आया कि उस औरत को बहुत ही अलग-सी नथ पहनाई जाये। अगले ही पल, वे अपने घर के गार्डन में थीं, जहाँ से वे बोगेनविलिआ का फूल ले आयीं और उसे नथ की तरह सजा दिया। बस उसी दिन से शुरुआत हुई उनके गार्डन आर्ट की।
तो चलिए आज हम आपको सुभाषिनी के ‘गार्डन आर्ट’ की सैर पर ले चलते हैं;
आप उनका बाकी काम उनके ट्विटर और इंस्टाग्राम अकाउंट ‘नीलावनम’ मतलब नीला आसमान पर देख सकते हैं।
( संपादन – मानबी कटोच )
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स्नेहा मारवाड़ी परिवार से हैं और अनुभव ने एक कायस्थ परिवार में जन्म लिया था! स्नेहा के पिता एक डॉक्टर हैं और अनुभव के पिता रिटायर्ड आर्मी अफ़सर। जहां एक तरफ स्नेहा का परिवार सिलीगुड़ी, पश्चिम बंगाल में रहता है तो अनुभव के परिवार वाले मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में रहते हैं। यह तो सिर्फ प्यार था, जिसने उन दोनों को मिलाया और बाद में, उनके परिवार की थोड़ी-बहुत नाराज़गी के बाद, आखिरकार 10 दिसंबर, 2017 को उन दोनों की शादी हंसी-ख़ुशी हो गयी।
हम भारतीयों के लिए शादी बहुत महत्वपूर्ण है। हर माँ-बाप अपने बच्चों के लिए एक शानदार शादी का सपना संजोते हैं। और बेशक, हमारे यहां शादियां बहुत ही खूबसूरत और सांस्कृतिक ढंग से होती हैं। स्नेहा भी अपने लिए ऐसी ही शादी चाहती थीं लेकिन पैसे, समय और प्रयास की अनावश्यक बर्बादी उन्हें हमेशा से नगवांर थी। इसलिए दोनों परिवारों ने पारंपरिक ‘बैंड, बाजा, बारात’ की जगह हरिद्वार में गंगा माँ की गोद में एक ‘आदर्श विवाह’ करने का फ़ैसला किया।
हरिद्वार ऑल वर्ल्ड गायत्री परिवार के हब, शांति कुञ्ज में स्नेहा और अनुभव ने अपनी शादी के सात फेरे लिए।
उनकी शादी करीबी परिवार के सदस्यों और दोस्तों के साथ एक निजी समारोह में सम्पन्न हुई। दुल्हन और दूल्हे की तरफ से 80 से भी कम अतिथि थे और तीन घंटे से भी कम समय में उनकी शादी हो गयी।
शांति कुञ्ज में शादी करने की वजह थी वहां के कुछ नियम,
दुल्हन और दुल्हन एक आवेदन जमा करते हैं कि वे अपने परिवारों की सहमति से शादी कर रहे हैं, भागकर नहीं।
दुल्हन और दुल्हन के माता-पिता सहमति का पत्र जमा करते हैं कि वे शांति कुंज में अपने बच्चों के शादी करने के लिए सहमत हैं।
माता-पिता शांति कुंज में व्यक्तिगत रूप से इन आवेदनों को जमा करते हैं। ऐसा करके, वे शांति कुंज के सिद्धांतों का पालन करने के लिए सहमत हैं जो कहते हैं कि विवाह में दहेज का कोई आदान-प्रदान नहीं होगा, और यह कि शादी किसी भी “बैंड, बाजा और बारात” के बिना होगी।
स्नेहा और अनुभव की शादी बहुत ही ख़ुशी के साथ सम्पन्न हुई। शांति कुञ्ज में शादी करने के अलावा भी एक और बात है जो इस शादी को बहुत खास बनाती है।
अपनी बेटी की शादी के अवसर पर, स्नेहा के पिता ने सिलीगुड़ी में ग्रेटर लायंस आई अस्पताल में 151 वंचित पुरुषों और महिलाओं की मोतियाबिंद सर्जरी अपने खर्चे पर करवाई।
इस बात ने सबके मन को छु लिया। बिना वजह की धूम और जबरदस्ती के खर्च की बजाय उन्होंने समाज के लिए कुछ अच्छा करने का फ़ैसला किया। स्नेहा के पिता की इस एक कोशिश ने इस शादी को सबसे अलग और ख़ास बना दिया।
स्नेहा और अनुभव के परिवारों ने जिस तरह से उनकी शादी की, वह यक़ीनन काबिल-ए-तारीफ़ है। हम उनकी सोच की सराहना करते हुए उम्मीद करते हैं कि बहुत से जोड़े इससे प्रेरित हो, इस तरह की शादियों का अनुकरण करेंगे।
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पिछले रविवार, 3 जून, 2018 को जब उड़ीसा के तेंतुलीखुँटी के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र से डॉ. किशोर चंद्र दास ने विदा लिया तो आस-पास के इलाकों से 500 से भी ज्यादा लोग, चाहे युवा हों या बूढ़े, उन्हें विदाई देने के लिए पहुंचें। सबकी आँखें नम थीं।
आठ साल पहले डॉ. दास को इस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर जब नियुक्त किया गया तो सभी लोगों को लगा था कि वे भी बाकी आये-गए डॉक्टरों की भांति ही होंगें। किसी ने नहीं सोचा था कि यही डॉ. दास पुरे समुदाय के लिए इतने ख़ास बन जायेंगें।
दरअसल, डॉ. दास भुवनेश्वर में एक निजी मेडिकल कॉलेज-सह-अस्पताल में ऑर्थोपेडिक्स में स्नातकोत्तर डिग्री करने के लिए गए हैं।
उड़ीसा के नबरंगपुर जिले के शहर के बाहरी इलाके में स्वास्थ्य केंद्र से बाहर विदाई मार्च में भाग लेने वाले स्थानीय निवासी तुलु सतपथी ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया,
“मानो पूरा शहर रो रहा हो। उन्होंने डॉ. दास को गले लगा लिया, और अपना उच्च अध्ययन पूरा करने के बाद उन्हें वापस लौटने के लिए कहा। इतने सारे लोग उन्हें देखने के लिए आए कि शहर की मुख्य सड़क पर लगभग एक घंटे तक जाम लग गया था।
पर डॉ दास के लिए इतना स्नेह और उत्साह क्यों?
पूछने पर गांव वालों ने बताया कि कैसे इस 32 साल के चिकित्सक ने अकेले अपने दम पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का नक्शा ही बदल दिया है। डॉ. दास की मेहनत के चलते ही आज इस स्वास्थ्य केंद्र में सभी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं और एक ऑपरेशन थिएटर भी है।
इस सब सुविधाओं के साथ-साथ डॉ. दास स्वयं भी अपने ड्यूटी समय से ज्यादा काम करते थे। कई बार आस-पास के गांवों में पेचिश या खसरा जैसी बीमारियां फ़ैलती तो डॉ. दास तुरंत उन पर प्रतिक्रिया करते हुए एक मेडिकल टीम गठित कर काम पर लग जाते। इसके साथ वे अन्य प्रशासनिक अधिकारीयों को भी उनका काम ठीक से करने के लिए प्रेरित करते थे।
तेंतुलीखुँटी ब्लॉक विकास अधिकारी अनाकर ठाकुर ने कहा, “डॉ दास हमेशा हमारे ब्लॉक पर 70,000 से अधिक लोगों के लिए एक फ़ोन कॉल पर उपलब्ध रहते थे।”
“डॉ. दास ने यहां बहुत ही उम्दा काम किया। अस्पताल छोड़ने के एक दिन पहले भी, उन्होंने अस्पताल परिसर में 500 से अधिक पौधे लगाए थे। नबरंगपुर के मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी सरोज नायक ने कहा, “वह हमारे क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय व्यक्ति है।”
डॉ. दास ने कहा कि यह उनके लिए बहुत भावनात्मक पल है और अगर उन्हें फिर कभी मौका मिला तो वे बिलकुल यहां वापिस आयेंगे।
डॉ. दास की अपने काम के प्रति ईमानदारी और निष्ठां के कारण ही वे आम जनमानस के हीरो बन गए हैं। हम उम्मीद करते हैं कि और भी बहुत से युवा डॉक्टर उनसे प्रेरणा लेंगें। जहां एक तरफ स्वास्थ्य को कुछ निजी अस्पतालों ने व्यवसाय बना रखा है वहीं डॉ. दास जैसे लोग भी हैं जो सेवा को अपना धर्म समझते हैं।
( संपादन – मानबी कटोच )
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