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इस मुस्लिम युवक ने रोज़ा तोड़ बचायी एक अंजान हिन्दू की जान, रक्तदान करने के लिए खाया खाना!

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ज जब हर तरफ देश को संप्रदायिकता के नाम पर बांटने की राजनीति चल रही है तो हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम ऐसी सच्ची कहानियां लेकर आए जो लोगों को इंसानियत पर एक बार फिर भरोसा करना सिखा सके; ऐसे लोगों के बारे में बताएं जिन्होंने जाती, धर्म या संप्रदाय की रेस में हमेशा इंसानियत को आगे रखा।

ऐसा ही एक उदहारण हैं देहरादून के आरिफ़ खान का। नेशनल एसोसिएशन फॉर पेरेंट्स एंड स्टूडेंट्स राइट्स के प्रेसिडेंट आरिफ़ खान को व्हाट्सप्प पर एक मैसेज मिला कि 20 साल का एक लड़का अजय बिलवालाम कुष्ठ रोग से पीड़ित है और उसके खून में प्लेटलेट्स की मात्रा बहुत ही कम हो गयी है।

अजय को बचाने के लिए A+ ग्रुप के खून की ज़रूरत थी। अपने बेटे की बिगड़ती हालत को देख अजय के पिता ने सोशल मीडिया पर एक मैसेज पोस्ट किया, जिसमें उन्होंने लोगों से अपने बेटे के लिए रक्तदान करने की गुहार लगाई थी।

अजय के पिता का मैसेज पढ़कर आरिफ़ खान सीधा अस्पताल पहुंचे और रक्तदान करने की इच्छा जताई। पर मसला तब हुआ जब डॉक्टर ने ब्लड लेने से पहले उन्हें पूछा कि उन्होंने कुछ खाया है?

आरिफ़ रमज़ान के पाक मौके पर रोज़ा रखे हुए थे और बिना कुछ खाएँ-पीये ही खून देने चले आये थे!

पर डॉक्टर ने उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ऐसा करने से मना कर दिया। आरिफ़ ने भी इंसानियत को ऊपर रखकर अपना रोज़ा तोडा और डॉक्टर द्वारा दिया गया खाना खाकर अजय को खून देकर उसका जीवन बचा लिया।

आरिफ़ के इस छोटे से कदम ने साबित कर दिया कि कुछ चंद लोगों की नफरत हमारे देश में आपसी प्यार और सद्भावना को खत्म नहीं कर सकती। हम आरिफ़ खान की इस सोच को सराहते हैं और उम्मीद करते हैं कि और भी लोग आरिफ़ से प्रेरणा लेंगे।

(संपादन – मानबी कटोच)


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वेटिंग में है टिकट तो चुने भारतीय रेलवे की विकल्प योजना!

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गर आप भारतीय रेल से सफर करते हैं और खिड़की से बाहर देखते हुए लम्बी यात्राओं में भारत भ्रमण का सुख भोग चुके हैं तो टिकट मिलने की जद्दोजहद से भी आप कभी-न-कभी रु-बी-रु ज़रूर हुए होंगे! टिकट समय पर मिल जाए तो ठीक, पर यदि वेटिंग लिस्ट में आ जाये तो यात्रा के दिन तक मन में धुक-धुक लगी रहती हैं कि सीट कन्फर्म भी होगी या नहीं?

ऐसे में यात्रियों की परेशानी को दूर करने के लिए भारतीय रेलवे ने विकल्प योजना की शुरुआत की है। इस योजना के तहत वेटिंग टिकट वाले यात्रियों को दूसरी ट्रेनों में कन्फर्म बर्थ उपलब्ध कराई जाएगी। हालांकि ये निर्भर करता है कि यात्री दूसरी ट्रेन से जाना चाहते है या नहीं और इस बात पर भी कि दूसरी ट्रेनों में बर्थ उपलब्ध हैं या नहीं।

इस योजना के बारे में आपको आईआरसीटीसी की वेबसाइट पर सभी जानकारियां मिल जाएँगी। यदि आपकी टिकट दूसरी ट्रेन में कन्फर्म हो जाती है तो टिकट रद्द करने पर शुल्क भी दूसरी ट्रेन के नियम के मुताबिक ही कटेगा।

भारतीय रेलवे के मुताबिक आपने जिस ट्रेन में टिकट बुक की है उसके वास्तविक समय से 30 मिनट से 12 घंटे के भीतर चलने वाली दूसरी ट्रेनों में आपको सीट दी जा सकती है।

कुछ अन्य नियम:

  • विकल्प की सुविधा सभी ट्रेनों और क्लास के यात्रियों के लिए मान्य है।
  • यह सुविधा बिना किसी बुकिंग कोटा और रियायत के निरपेक्ष सभी वेटिंग-लिस्ट के यात्रियों के लिए उपलब्ध है
  • इस योजना के तहत, यात्री अपनी स्वेच्छा से कोई भी पांच ट्रेन चुन सकते हैं।
  • कोई भी यात्री जिसने वेटिंग में टिकट बुक कराई हो और आखिरी चार्टिंग के बाद भी वेटिंग में ही है, केवल उसी के लिए विकल्प की सुविधा मान्य है।
  • ट्रेन टिकट के शुल्क में अंतर होने पर भी उससे ना तो कोई अतिरिक्त शुल्क लिया जाएगा और न ही अतिरिक्त प्रतिदाय (रिफंड) किया जाएगा।
  • विकल्प योजना के अंतर्गत दूसरी ट्रेन में यात्रा कर रहे यात्रियों के साथ साधारण यात्रियों जैसा ही व्यवहार किया जाएगा और सभी यात्री अपग्रेड के लिए योग्य होंगे।
  • विकल्प चुनने वाला यात्री जिसे दूसरी ट्रेन में कन्फर्म सीट दी गयी है, यदि अपनी टिकट रद्द करता है तो उसे दूसरी ट्रेन के नियमों के मुताबिक शुल्क भरना होगा।

इस योजना से जुड़े बाकी नियमों की जानकारी के लिए क्लिक करें।

(संपादन – मानबी कटोच )


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इस गाँव की महिलाएं बना रही हैं दो हज़ार वाटर टैंक ताकि आने वाली पीढ़ी को न हो पानी की कमी!

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माँ जो होती है न, रोज़ सुबह सबसे पहले जागती हैं और सबको जगाती है। वैसे ही प्रदेश की महिलाएं जब साथ हो जाये तो वह पूरे प्रदेश को जगाने का काम करती है।

हम सभी ने अपने-अपने तरीके से मदर्स डे मनाया होगा। सोशल मिडीया से लेकर प्रिंट मीडिया 13 मई को मदर्स डे के उत्सव में खोया हुआ था। इसी बीच मुझे एक सज्जन मिले और कहने लगे मदर्स डे मनाने का सार्थक तरीका देखना है तो राजनांदगांव ज़िले की महिलाओं के कार्यों को देखो।

इस बात को समझने के लिए मैं उन सज्जन के साथ राजनांदगांव ज़िले के महरूकला गांव पंहुचा, जो राजनांदगांव से 15 किलोमीटर की दूरी पर है।

उस गांव में देखा कि हज़ारों की संख्या में महिलाएं एकत्रित हुई है।

इस तप्ती धूप में गुलाबी साड़ी में इतनी भारी संख्या में महिलायें यहाँ क्या कर रही हैं? कुछ समझ नहीं आया, अपनी कम समझ के अनुसार सोचा कि कोई राजनितिक सभा होगी लेकिन मेरा यह आंकलन तब टूट गया जब मैंने 75 वर्षीय एक दाई को अपनी लकड़ी के सहारे चलते हुए आते देखा।

मैंने पास जाकर दाई से पूछा – “दाई अतेक धुप में ते काबर आये हस?” (इतनी धुप में आप यहाँ क्या कर रहे हो?)।

इस पर दाई कहने लगी – “मैं तोर बर आए हो, तुमन मन ला आने वाले समय म पानी मिल सके एखर बर आए हो।” (मैं तेरे लिए आई हूँ , मैं तुम सभी के लिए आई हूँ, ताकि भविष्य में तुम बच्चों को पानी की समस्या ना हो )

यह सुनकर मैं हैरान हो गया! इस बूढी माँ की संवेदनशीलता और हिम्मत देखते ही बन रही थी।

फिर मेरी नज़र गयी सोख्ता गड्ढे (वाटर बैंक) की तरफ। जिन सज्जन के साथ मैं यहाँ आया था उन्होंने बताया कि राजनांदगांव ज़िले की महिलाएं 2000 सोख्ता गड्ढे का निर्माण कर रही हैं, जिनमें से एक हज़ार सोख्ता गड्ढे (वाटर बैंक) सफलतापूर्वक बना लिए गए है।

मैंने पूछा यह किस प्रकार का गड्ढा है तो मुझे पता चला कि यह 2 फ़ीट गहरा गड्ढा होता है जिसके माध्यम से जल संरक्षण किया जा सकता है। एक सोख्ता गड्ढा अनुमानित 55,000 लीटर पानी सोख लेता है। यह गड्ढे हैंड-पंप के पास, घर के भीतर बनाये जा रहै हैं और इन गड्ढो की खासियत यह है कि यह चार परतों का बनता है – प्रथम लेयर में पत्थर के टुकड़े, फिर ईट के टुकड़े, और अंतिम में कोयले एवं रेत से भराई की जाती है। सबसे पहले पानी रेत से होते हुए जाता है जिसके कारण दूषित पानी का सारा कचरा साफ़ हो जाता है वही कोयला पानी को पूरी तरह से शुद्ध कर देता है और अंतिम में पानी इंट और पत्थर से होते हुए जमीन में चला जाता है।

इन दो हज़ार गड्ढो का निर्माण कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी या सरकारी एजेंसी नहीं कर रही बल्कि गांव की यह महिलाएं कर रही हैं।

सोख्ता गड्ढा

बातचीत के दौरान उन सज्जन ने बताया कि यह महिलाएं पिछले 15 वर्षो से जल संरक्षण हेतु निरंतर कार्य कर रही हैं। 2 अक्टूबर 2002, गांधी जयंती के अवसर पर पानी बचाओ अभियान की शुरुआत माँ बम्लेश्वरी स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने पदम्श्री फूलबासन यादव के नेतृत्व में की थी।

सबसे पहले ज़िले के 1000 से अधिक नदी नालों की बंधाई की गयी। इस पहल के माध्यम से रेत के बोरों से पानी को रोका और लाखो लीटर पानी बर्बाद होने से बचाया गया। इस पुरे कार्य में महिलाएं पिछले 15 साल से निरंतर श्रमदान कर रही हैं।

 

सच कहा था उस दाई (अम्मा ) ने मुझे कि मैं इतनी दूर से तुम्हारे लिए चल कर आई हूँ!

मुझे लगता है मदर्स डे को उत्सव की तरह मनाने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता। जिस धरती माँ ने हमें अनाज दिया, जल दिया और रहने को स्थान दिया,आज राजनांदगांव जिले की महिलाओं ने उस माँ को सच्चा तोहफ़ा दिया है। यह अभियान अपने आप में अनूठा है तथा देश के सामने एक सकारात्मक मिसाल है।

इसी बीच कार्यक्रम में महिलाओं ने नारे लगाए –

“फूल नहीं चिंगारी है, यह छत्तीसगढ़ महतारी (महतारी अर्थात माँ ) है”,

और इस नारे के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ!

(संपादन – मानबी कटोच)


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प्रस्ताव : बिना शुल्क के बुकिंग के 24 घंटे के भीतर कर पाएंगे हवाई टिकट रद्द!

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हाल ही में भारतीय रेलवे ने वेटिंग टिकट वाले यात्रियों के लिए विकल्प स्कीम शुरू की। भारतीय रेलवे की तरह ही सिविल एविएशन मिनिस्ट्री भी अपने यात्रियों की सुविधा की दिशा में काम कर रही है। दरअसल, सिविल एविएशन मिनिस्ट्री ने यात्री चार्टर का एक प्रारूप अधिसूचित किया है।

डीडी न्यूज़ की रिपोर्ट के मुताबिक, इसे अभी मंजूरी नहीं मिली है, यह प्रारूप सार्वजानिक परामर्श के लिए खुला है। पर आशा है कि एक महीने बाद इस यात्री चार्टर को संचालित किया जाएगा।

इस चार्टर के संचालन में आने के बाद हवाई यात्रियों के लिए सरलता बढ़ जाएगी। द हिन्दू की न्यूज़ रिपोर्ट के मुताबिक, इस चार्टर के मुख्य प्रावधान के तहत हवाई यात्री सारणी अपनी टिकट बुकिंग के 24 घंटे के भीतर और सारणी समय के चार दिन पहले तक बिना किसी शुल्क के रद्द कर सकते हैं।

इस चार्टर के तहत मुआवजा मापदंडो को भी कम किया जाएगा। यदि किसी यात्री को उड़ान से 24 घन्टे से लेकर 2 हफ़्ते पहले तक उड़ान रद्द होने की सुचना दी जाती है तो संबंधित एयरलाइन या तो यात्री के लिए सारणी समय से 2 घंटे अंतराल तक की किसी दूसरी फ्लाइट में व्यवस्था कराएगी या फिर यात्री को इसका पूरा रिफंड देगी।

इस चार्टर का एक नियम यात्रियों के सामान की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। जिसके मुताबिक यदि किसी यात्री का सामान खो जाता है तो संबंधित एयरलाइन 3000 रूपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से यात्री को भुगतान करेगी। और सामान देरी से या फिर क्षतिग्रस्त अवस्था में पहुंचने पर 1000 रूपये प्रति किलोग्राम भुगतान किया जाएगा।

यदि किसी परिस्थिति में यात्री को मुआवजा नहीं मिलता है तो यात्री मंत्रालय की एयरसेवा एप या फिर सिविल एविएशन पोर्टल पर महानिदेशालय को शिकायत कर सकते हैं।

हालाँकि इस प्रारूप को हकीकत बनने में अभी भी समय है, क्योंकि सभी एयरलाइन कंपनियों का चार्टर को स्वीकृति देना अनिवार्य है। द हिन्दू के अनुसार एयरलाइन कंपनियों ने मुआवजा नियमों में छूट की उम्मीद जताई है जैसे कि पुरे रिफंड के स्थान पर ट्रेवल कूपन देना।

सिविल एविएशन मिनिस्टर जयंत सिन्हा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “यह प्रारूप चार्टर यात्रियों की सुविधा और अधिकार, दोनों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।”

हम उम्मीद करते हैं कि मंत्रालय की कोशिशों को अन्य लोगों का भी साथ व सहयोग मिलेगा ताकि आने वाले समय में व्यववस्था को और भी बेहतर बनाया जा सके।

( संपादन – मानबी कटोच )


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निपाह वायरस : कारण, निवारण, बचाव और सावधानी!

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देश एक दुखद घड़ी से गुज़र रहा हैं! केरल में निपाह नाम के वायरस की वजह से अब तक 10 लोगों की मृत्यु हो चुकी हैं। बीते दिनों इन मरीजों की सेवा कर रही पेरंबरा तालुक हॉस्पिटल की नर्स लिनी पुथुसेरी की भी इस वायरस ने जान ले ली।

इस वायरस को लेकर व्हाट्सप्प पर फॉरवर्ड हो रहे अधूरी जानकारी वाले मैसेज भी परेशानी का सबब बन रहें हैं क्योंकि ऐसे मैसेज की वजह से लोग सच और झूठ में फर्क नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में इस वायरस के बारे में जानना और ज़रूरी हो जाता है। इस लेख में हम आपको इस वायरस के बारे में सटीक जानकारी देने की कोशिश कर रहें हैं।

क्या है निपाह 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, निपाह वायरस (NiV) एक नई उभरती हुई बीमारी है, जो जानवरों और मनुष्यों दोनों में गंभीर बीमारी की वजह बनता है। इसे ‘निपाह वायरस एन्सेफलाइटिस’ भी कहा जाता है।

मलेशिया के गावं सुंगई निपाह में साल 1998 में पहली बार यह वायरस फैला, उस गावं के नाम पर ही वायरस को निपाह नाम दिया गया। मलेशिया में यह बीमारी संक्रमित सूअरों की चपेट में आने की वजह से किसानों में फैली थी। भारत में इससे पहले साल 2001 और 2007 में यह वायरस पश्चिम बंगाल में फैला था और इस साल यह केरल में आंतक की वजह बना हुआ है।

कैसे फैलता है यह वायरस
नवभारत टाइम्स  की रिपोर्ट के मुताबिक निपाह वायरस का मुख्य वाहक एक ख़ास तरीके का चमगादड़ है जो कि फल या फल के रस का सेवन करता है और फ्रूट-बैट के नाम से जाना जाता है। केवल टेरोपस जीन्स वाले फ्रूट-बैट ही इस वायरस के वाहक होते हैं।
यह दुर्लभ और खतरनाक वायरस संक्रमित सूअर, चमगादड़ से इंसानों में फैलता है। इसके अलावा निपाह वायरस से इंफेक्टेड व्यक्ति के संपर्क में आने से भी यह वायरस फैलता है।

बीमारी के लक्षण
मुख्य लक्षणों में शामिल हैं, सांस लेने में तकलीफ़, तेज बुखार, सिरदर्द, जलन, चक्कर आना, भटकाव और बेहोशी जैसी हालत। इसके अलावा यदि पीड़ित व्यक्ति को 48 घंटों में उचित उपचार न मिले तो व्यक्ति कोमा में भी जा सकता है।

ख़बरों के मुताबिक केरल में यह बीमारी दो लोगों के संक्रमित आम खाने से फैली क्योंकि इन दोनों ही व्यक्तियों के घरों में निपाह वायरस से संक्रमित आम मिले। हो सकता है कि किसी फ्रूट बैट ने इन फलों को संक्रमित किया हो।

कैसे करें बचाव
तो यदि आप ऐसे क्षेत्र में है जो कि निपाह वायरस के अलर्ट पर है, तो अपने बचाव के लिए इन बातों पर अमल करें।

खजूर के फल व रस का सेवन न करें क्योंकि माना जाता है कि खजूर के खेतों में फ्रूट-बैट बहुत पाए जाते हैं। घरेलु जानवर भी इस वायरस के वाहक बन सकते हैं, यदि वे कहीं बाहर से संक्रमित फल का सेवन कर के आएं। तो कोशिश करें कि अपने पालतू जानवरों को घर के अंदर ही खिलाएं-पिलायें। यदि किसी भी जानवर के संक्रामक होने पर शक हो तो उन्हें स्वयं से दूर रखें और उचित उपचार दिलाएं।

पेड़ों पर न चढ़ें जहां फ्रूट चमगादड़ों के मल,लार व शुक्राणु के होने की सम्भावना हो सकती है।

महामारी विज्ञान सर्वेक्षण के मुताबिक इंसानो से इंसानों में इस बीमारी के फैलने के कम ही संयोग है। फिर भी सावधानी बरतें, क्योंकि पीड़ित व्यक्ति के रक्त, मल, लार या शुक्राणु के सम्पर्क में आने से वायरस फैलने का डर है।

इंसानों में निपाह वायरस के वाहक अधिकतर श्वसन स्राव होते हैं तो संक्रमित व्यक्ति से दूरी बनाकर रखें। संक्रमित व्यक्ति के खांसने, छींकने, लार व यूरिन के सम्पर्क में कतई न आएं। यहां तक कि साथ में खाना भी न खाएं। न ही बीमार व्यक्ति के साथ एक ही बाथरूम साँझा करें।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक निपाह वायरस से लड़ने के लिए वैक्सीन की खोज हो गयी है। यह टीका पुनः संयोजक उप-इकाई फॉर्मूलेशन है जो कि बिल्लियों पर प्रयोग करने पर कामयाब हुआ है।

इसके अलावा माइक्रो बायोलॉजिस्ट डॉक्टर जी. अरुणकुमार, जो कि केरल में इस खतरनाक वायरस के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे हैं, उन्होंने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया कि स्थिति पर काबू है तो आम लोगों को डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस वायरस से रोकथाम के सभी उपाय किये जा रहें हैं।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया  की रिपोर्ट के मुताबिक डॉक्टर अरुणकुमार के ही कारण इस वायरस का पता चल सका और तुरंत ही अलर्ट जारी कर दिया गया। डॉक्टर अरुणकुमार ने बताया, “इस तरह की बीमारी में हॉस्पिटल का स्टाफ सबसे ज्यादा खतरे के साये में जीता है, पर हम सावधानियां बरत रहें हैं और जल्द ही समुदायों में भी इन्फेक्शन को रोकने के लिए एहतियात किये जाएंगें।”

उम्मीद यही है कि बहुत शीघ्र ही इस खतरनाक वायरस पर नियंत्रण पा लिया जाएगा। पर इसके लिए न केवल स्वास्थ्य विभाग बल्कि आम जनता को भी सावधानी से काम लेना होगा।

( संपादन – मानबी कटोच )


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जानिये क्यूँ कर रहे हैं तूतीकोरिन के लोग पिछले 20 सालों से स्टेरलाइट का विरोध!

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कुछ साल पहले तक तूतीकोरिन का नाम गूगल सर्च में एक बंदरगाह शहर के रूप में आता था। पर अगर आज आप गूगल सर्च करेंगे तो स्टेरलाइट के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के बारे में आपको ढेरों पेज मिलेंगें, जो आपको पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हो रही भिड़ंत की जानकरी देंगे।

तमिलनाडु के विख्यात नागरिक जैसे कमल हसन, रजनीकांत और अरविन्द स्वामी का लोगों को समर्थन मिलने के बाद प्रदर्शन ने अलग ही रूख पकड़ लिया है।

क्या है स्टेरलाइट विवाद?

इस सारे फ़साद की जड़ वेदांता कंपनी द्वारा लगाया गया ताम्बा गलाने का कारखाना है, जो कि तूतीकोरिन के पास ही लगाया गया है। सालों से तूतीकोरिन निवासी पर्यावरण और स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव को लेकर इसे बंद करने की मांग कर रहे हैं।
ताम्बे का उत्पादन, खनन, गलन व विनय, खतरनाक उद्योग है, क्योंकि इससे लेड, आर्सेनिक, और सल्फर ऑक्साइड जैसे जहरीले पदार्थ भी उत्पादित होते हैं, जो कहीं की भी ज़मीन, पानी और वायू को प्रदूषित करते हैं।

महाराष्ट्र ने दी थी अस्वीकृति पर तमिलनाडु ने अपनाया

साल 1992 में इस कंपनी को महाराष्ट्र के रत्नागिरी के पास महाराष्ट्र इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन द्वारा लगभग 500 एकड़ जमीन दी गयी थी।
पर पर्यावरण के प्रदूषित होने के डर से वहाँ के नागरिकों ने इसके ख़िलाफ़ एक साल तक प्रदर्शन किया। विरोध के चलते रत्नागिरी के जिला अधिकारी ने साल 1993 में स्टेरलाइट कंपनी की सभी गतिविधियों पर रोक लगा दिए।
इसके एक साल के अंदर ही कंपनी तमिलनाडु में शुरू की गयी और सभी आधिकारिक अनुमतियों के साथ निर्माण शुरू किया गया। तमिलनाडु में भी लोगों ने विरोध किया परन्तु उनको अनदेखा किया गया। साल 1996 में कंपनी को कमीशन किया गया।

स्टेरलाइट प्रोजेक्ट को यहां भी कई विवादों का सामना करना पड़ा। शुरू में विरोध हुआ क्योंकि ये प्लांट मन्नार की खाड़ी के बहुत नजदीक था, जो कि एक संवेदनशील समुद्री पारिस्थितिक तंत्र है।

नेशनल एनवायर्नमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट और तमिलनाडु पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के सबूत पेश करने के वावजूद प्लांट पानी, मिट्टी और हवा को प्रदूषित करता रहा पर कोई भी कार्यवाही नहीं की गयी।

तिरुनेलवेली मेडिकल कॉलेज द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक प्लांट के आसपास के क्षेत्रों में अस्थमा, फरैंटिस, साइनोसाइटिस जैसी सांस से संबंधित बिमारियों की मात्रा बहुत ज़्यादा हैं। इसके अलावा इन क्षेत्रों की औरतों में महावारी संबंधित भी काफी परेशानियां हैं।

हालांकि दूसरी तरफ, वेदांता इन सभी आरोपों को नकारता रहा है। पिछले इतने सालों में कंपनी का कारोबार छह गुना बढ़ा है। लगातार प्रदर्शनों और विवादों के बाद भी इसका कारोबार 60,000 टन प्रति वर्ष से 360,000 टन प्रति वर्ष हुआ है।

विरोध के सौ दिन

लगभग 20 सालों से इस प्लांट के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। पर हाल ही में कंपनी ने प्लांट को पहले से दुगना विस्तारित करने का निर्णय लिया, जो कि तूतीकोरिन के आवासीय आस – पड़ौस से 100 मीटर भी दूर नहीं है। इस वजह से लोगों में इसके प्रति आक्रोश बढ़ गया।

पिछले 20 सालों में इस प्रदर्शन के चलते बहुत लोगों ने अपनी जाने गवायीं। पर 22 मई 2018 को पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हुई मुठभेड़ में लगभग 10 लोग मारे गए और 50 घायल हुए। (सोर्स)


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दिल्ली के 575 स्कूलों को बढ़ाई हुई फ़ीस वापिस करने का आदेश; देना पड़ेगा 9% ब्याज भी!

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ब भी कोई सरकार अपने नागरिकों के अधिकारों के हित में फैसला लेती है तो उसका हर फैसला देश के लोकतंत्र की मजबूती की तरफ होता है। ऐसा ही एक फ़ैसला दिल्ली सरकार ने लिया है, अपने नागरिकों के लिए। दिल्ली में अभिभावक प्राइवेट स्कूलों में फ़ीस की बढ़ोतरी को लेकर काफ़ी परेशान रहे हैं और लम्बे अरसे से इसके ख़िलाफ़ विरोध भी कर रहे थे।

पर हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले ने लोगों को राहत दी, जिसमे 575 स्कूलों को बधाई हुई फ़ीस वापस देने को कहा गया।

अब दिल्ली सरकार ने भी इस ओर एक और बेहतर कदम उठाते हुए, प्राइवेट स्कूलों से अभिभावकों से ली हुई ज़्यादा फ़ीस को 9% ब्याज की दर से लौटने का आदेश दिया है। इस फ़ैसले के चलते दिल्ली के सभी 575 स्कूलों को नोटिस दिया जा चूका है।

एनडीटीवी की न्यूज़ रिपोर्ट के अनुसार कुछ समय पहले फ़ीस बढ़ोतरी के मामले में दो स्कूलों को फ़ीस कम करने का आदेश दिया गया था। इसके अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े हुए एक बच्चे को एक प्राइवेट स्कूल द्वारा किताबें और यूनिफार्म न दिए जाने पर उन पर कार्यवाही भी की गयी थी।

इस मामले में दिल्ली के सीएम श्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया, “पहली बार देश में स्कूलों को अनुशासित किया गया है। किसी भी स्कूल को मनमाने ढंग से फ़ीस बढ़ाने की अनुमति नहीं है। कई स्कूलों से बढ़ाई हुई फ़ीस को अभिभावकों को वापिस करवाई गयी है।”

हम दिल्ली सरकार के इस बेहतरीन कदम की सराहना करते हैं और उम्मीद है कि देश में बाकी जगहों पर भी स्कूल इससे प्रेरणा लेंगे और शिक्षा को एक व्यवसाय न बनाकर सेवा के तौर पर देखेंगे।


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न बैंड बाजा न बारात! पर ये 7 शादियां रहीं हर किसी के लिए ख़ास!

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ज जब भी किसी की शादी होती है तो हम सबसे पहले पूछते हैं कि कपड़े किससे डिज़ाइन करा रहे हो, कैटरिंग कौन देख रहा है या फिर हनीमून के लिए कहाँ जा रहे हो। आजकल डेस्टिनेशन शादियों का भी चलन है जिसमें लाखों रूपये खर्च हो जाते हैं पर फिर भी यह सब करके हमें संतुष्टि मिलती हैं क्योंकि हम सब अपनी ज़िन्दगी के इस ख़ास दिन को बहुत ख़ास तरीके से मनाना चाहते हैं।

पर कई ऐसे जोड़े हैं जिन्होंने अपनी शादी को ख़ास से भी बहुत ख़ास बनाया हैं पर लाखों रूपये खर्च करके नहीं बल्कि अपनी अलग सोच से लोगों की ज़िंदगियां बदलकर!

प्रतिनिधित्व फोटो

अपनी ज़िन्दगी के सबसे ख़ूबसूरत पल को और भी ख़ूबसूरत बनाने ले लिए उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले से ताल्लुक रखने वाले तपन पांडे ने जो किया वह वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है। तपन ने अपनी पत्नी अंजलि मिश्रा के साथ अपने जीवन का नया अध्याय शुरू करने के मौके पर बहुत ही विशिष्ट अतिथियों को बुलाया। यह मेहमान और कोई नहीं बल्कि अनाथ और दिव्यांग बच्चे थे।

अपने विवाह के मौके पर तपन ने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के डॉक्टरों के समक्ष अपने नेत्रदान की शपथ भी ली।

दहेज प्रथा की बंदिशों को तोड़ते हुए उन्होंने अपने ससुराल वालों को दहेज की जगह पाँच पौधे देने के लिए कहा।

अपने विवाह के मौके पर कुछ अलग कर उदाहरण बनाने वाले सिर्फ तपन नहीं हैं बल्कि और भी कई लोग हैं जिन्होंने अपनी शादी को न केवल अपने लिए बल्कि औरों के लिए भी ख़ास बनाया।

एक सिंगल पिता जिसने पहले एक दिव्यांग बच्चे को गोद लेने के लिए संघर्ष किया और फिर अपनी शादी में भी एक बदलाव की मुहीम शुरू की

फोटो: BollywoodShaadis.com

1 जून, 2016 को पुणे के आदित्य तिवारी भारत में बच्चा गोद लेने वाले सबसे कम उम्र के सिंगल पिता बने। उन्होंने बिन्नी नाम की एक बच्चे (जो की डाउन सिंड्रोम से ग्रसित है) को गोद लिया। भारत में बच्चा गोद लेने के कानून और नियमों में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो साल तक कठिन लड़ाई लड़ी। उनकी पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करे।

इसके बाद वो फिर एक बार अपनी शादी के लिए चर्चा में रहे। क्योंकि उनकी शादी के रिसेप्शन में मेहमान थें 10,000 बेघर, बुजुर्ग और अनाथ बच्चे थे। इसके अलावा आस-पास के लगभग 1000 जानवरों को भी खाना खिलाया गया। साथ ही लगभग 1000 पौधे भी उन्होंने लगाए।

एक मलयाली दुल्हन जिसने मेहर में केवल 50 किताबों की मांग की!

फोटो: The Indian Express

पोलिटिकल साइंस में पोस्ट-ग्रेजुएशन कर चुकी केरल की सहला नेचियिल ने अपने निकाह में बहुत ही अलग तरीके से मेहर के रिवाज़ का अनुसरण किया। महंगे कपड़े-गहने या फिर पैसों की बजाय उन्होंने अपने पति से सिर्फ 50 किताबें मेहर के तौर पर मांगी।

एक पिता जिन्होंने अपने बेटे की शादी में 18,000 विधवाओं को न्यौता भेजा!

प्रतिनिधित्व तस्वीर, स्रोत: Pinterest

सदियों से किसी भी ख़ुशी के मौके पर विधवाओं का आना अपशगुन माना जाता है। और शादी जैसे अवसर पर तो कोई इनका चेहरा भी देखना ठीक नहीं समझता। इस अंधविश्वास के चलते न जाने कितनी ही विधवा औरतों को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है। पर एक व्यक्ति ने इस रूढ़िवादी विचारधारा को चुनौती देते हुए वो किया जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था।

गुजरात के व्यवसायी जितेंद्र पटेल ने अपने बेटे की शादी के अवसर पर 18,000 विधवाओं को निमंत्रित किया। इन औरतों ने उनके बेटे और बहु को आशीर्वाद के साथ-साथ बहुत सी शुभकामनायें भी दी। पटेल भाई ने इन औरतों को उपहार स्वरुप कम्बल और पौधे दिए। गरीब परिवारों से आनेवाली 500 से भी अधिक विधवाओं को दुधारू गाय प्रदान की गयी ताकि वे अपनी आजीविका कमा सके।

एक और पिता जिन्होंने अपने बेटे की शादी में पैसे बचाकर 100 लड़कियों के सामूहिक विवाह के लिए दान में दिए!

एक और गुजरती व्यवसायी ने धूम-धड़क वाली शादी छोड़ अपने बेटे का विवाह सामान्य तरीके से किया। गोपाल वस्तापारा ने अपने बेटे की शादी से बचाये सभी पैसों को गरीब परिवारों की 100 लड़कियों के सामूहिक विवाह में लगाया।

सामूहिक विवाह में सम्मिलित सभी जोड़ों ने न केवल कन्या भ्रूण की रक्षा का वचन लिया बल्कि अपने विवाह के अवसर पर पर्यावरण के लिए काम करने की भी शपथ ली।

सूरत के 258 दूल्हे अपनी शादी में साइकिल पर गए ताकि यातायात और प्रदूषण के लिए लोगों में जागरूकता फैलाएं

लोगों में  पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए सूरत शहर के 258 दूल्हे अपने समुदाय और परिवार के लोगों के साथ कार या घोड़े पर बैठकर नहीं बल्कि साइकिल पर बरात लेकर गए। उनका उद्देश्य लोगों में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करना था।

वह आईआरएस जोड़ा जिन्होंने अपनी शादी के पैसे आत्महत्या करने वाले किसानों के बच्चों की पढ़ाई के लिए दान दिए

आईआरएस जोड़ा, अभय देवरे और प्रीति कुम्भारे ने अपनी शादी में खर्च होने वाले पैसों को आत्महत्या करने वाले किसानो के बच्चों की पढ़ाई में लगाया। यह ऐसे 10 किसान परिवार थें, जिनमें किसान पिता ही एकमात्र आजीविका का सहारा था और कर्ज के चलते जिसने आत्महत्या कर ली। प्रत्येक परिवार को इस जोड़े ने  20,000 रूपये दान में दिए। इसके अलावा इन्होनें अमरावती के पुस्तकालयों में भी लगभग 52,000 रूपये की किताबें दान में दी।

यह सभी लोग प्रेरणा हैं हमारे समाज और युवा पीढ़ी के लिए। यह छोटे पर मजबूत और अहम् कदम ही समाज में फैली कुरूतियों को खत्म करने में सहायक होंगे। हम उम्मीद करते हैं कि ये कहानियां और भी लोगों को प्रेरित करें समाज में परिवर्तन लाने के लिए।

( संपादन – मानबी कटोच )


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इस मंदिर में होगी इफ़्तार की दावत और भारत में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है!

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केरल के मल्लपुरम में एक विष्णु मंदिर में इस बार रमज़ान के मौके पर स्थानीय मुसलमानों के लिए इफ़्तार की दावत का आयोजन किया जाएगा।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक मंदिर की कमेटी ने यह निश्चित किया है। इस कदम के पीछे का उद्देशय लोगों में शांति और प्रेम का सन्देश देना है।

पर यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। देश में धार्मिक सोहार्द और भाईचारे की ऐसी कई घटनायें आये दिन सामने आती रहती हैं!

हमारे देश के सिख समुदाय ने कितनी ही बार ज़रूरतमंद लोगों की मदद की है, हिंदुओं ने रमज़ान पर मुसलमानों की सहायता की है और मुसलामानों ने अपनी जान पर खेलकर पीड़ितों को बचाया है!

हाल ही में देहरादून में आरिफ़ खान नामक मुसलमान व्यक्ति ने एक अनजान हिन्दू लड़के की जान बचाने के लिए अपना रोज़ा तोड़ रक्तदान किया। ऐसे ही उदहारण हमारे देश की ‘अनेकता में एकता’ की मिसाल को साबित करते हैं। आज ऐसे ही कुछ घटनाओं के बारे में हम आपको बता रहें हैं, जो भारतीयों के आपसी प्रेम और भाईचारे का प्रतीक हैं।

1. 85 साल की वह हिन्दू औरत जो रमज़ान में रोज़े रखती है!

Times of India

पूरीबेन लेउवा, 85 साल की हैं और पिछले 35 सालों से वे रमज़ान में रोज़े रख रहीं हैं। वे और उनकी मुस्लिम सहेलियां सिर्फ प्रेम नामक विश्वास का अनुकरण करते हैं। केवल यही नहीं मैंने अपने हॉस्टल में एक मुस्लिम दीदी को भी नवरात्री के व्रत करते हुए देखा है।

स्त्रोत

2. वो बहादुर सिख जिन्होंने कश्मीर में मस्जिद को बचाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी!

जब कश्मीर में भीषण बाढ़ आयी तो सभी समुदायों से लोग पीड़ित परिवारों की मदद के लिए सामने आये। इस मुश्किल की घड़ी में सिखों ने मस्जिद और बाढ़ में फंसे लोगों को बचाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की।

3. जब मुसलमान युवकों ने हिन्दू संतो की जान बचायी!

PTI

देश में हिन्दू-मुस्लिम झगड़े की खबरें तुरंत ख़बरों में आ जाती है पर ऐसी भी घटनाएं हैं जब यही दोनों समुदाय बिना कोई भेदभाव किये एक दूसरे की मदद करते हैं। पिछले दिनों मुज्ज़फर नगर में उत्कल एक्सप्रेस ट्रेन पटरी से उतर गयी थी और उस हादसे में लगभग 23 लोगों की मौत हुई और बहुत से लोग घायल हुए।

पर यही हादसा सांप्रदायिक सौहार्द का भी उदहारण बन गया जब लोगों ने एक-दूसरे की मदद की। ट्रेन में यात्रा कर रहे कई संतों को स्थानीय मुसलमान युवकों ने बचाया। 

स्त्रोत

4. जब हिन्दुओं ने मुसलमानों के साथ मिलकर देश में हो रही मुसलमानो की भीड़ द्वारा हत्यायों के खिलाफ किया प्रदर्शन!

PTI

पिछले साल जब देश में गौमांस की शंका के आधार पर पुरे देश में भीड़ द्वारा कई मुसलमान युवकों की हत्या की गयी तो न केवल मुसाल्मान बल्कि हिन्दू समुदाय भी इस तरह की हिंसा के ख़िलाफ़ आगे आये।

चाहे दादरी का अख़लाक़ हो या फिर 16 साल का जुनै, यह प्रदर्शन हर उस हत्या के ख़िलाफ़ था जो इंसानियत पर एक कलंक था। पिछले साल ईद से पहले जुनैद की मौत के ख़िलाफ़ अपना रोष जाहिर करते हुए गांव के सरपंच ने गांव में ईद न मनाने का फ़ैसला लिया था और पुरे गांव ने उनका साथ दिया।

स्त्रोत

5. अमरनाथ यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों को इस मुसलमान बस ड्राइवर ने अपनी जान जोख़िम में डाल कर बचाया!

ANI

उस बस में लगभग 56 तीर्थयात्री थे जब आंतकवादियों ने अमरनाथ के रास्ते में अनंतनाग में उस पर हमला किया। पर बस ड्राइवर शेख सलीम की हिम्मत और बहादुरी के कारण बस यात्री बच गए। अपनी सूझ-बूझ और हौसलें से काम लेते हुए सलीम ने हमले के बावजूद बीच में कहीं भी बस को नहीं रोका, जब तक कि यात्री सुरक्षित स्थान पहुंच नहीं गए।

स्त्रोत 

6. जब गुजरात में मुसलमानों ने मंदिरों को साफ़ किया!

Some Twitter Account

गुजरात में बाढ़ के दौरान लगभग 64 लोगों की मौत हो गयी। ऐसे समय में जैसे-जैसे बाढ़ का पानी कम होने लगा तो लगभग 3,500 मुसलमान युवा धानेरा, डीसा और पालनपुर जैसे आस-पास के गांवों से मदद के लिए आगे आये और पूजा-स्थलों और रहवास क्षेत्रों की साफ़-सफाई शुरू की।

स्त्रोत

6. वह मुस्लिम युवक जिसने अपना रोजा हिन्दुओं के साथ तोड़ा!

(L): Afla Toon, (R):DailySocial

आतिफ़ अनवर, एक मुस्लिम जो अपना रोजा हिन्दुओं के साथ तोडना चाहता था। अपनी आँखों पर पट्टी बाँध और हाथ में एक पोस्टर जिसमें उसने हिन्दुओं से उसका रोज़ा खुलवाने की अपील की थी, लेकर इंडिया गेट पर खड़ा हो गया। और उसका रोज़ा खुलवाने के लिए बहुत से हिन्दू लोग आगे आये।

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7. जब पैसों के लिए कतारों में परेशान लोगों को सिखों ने खिलाया खाना!

ScoopWhoop

जब 500 और 1000 के नोट बंद हो गए तब पुरे देश में लोग बैंक और एटीएम की कतारों में खड़े थे। भूखे-प्यासे लोग घंटों कतारों में खड़े रह कर बस अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। ऐसे में सिखों के एक दल ने इस समस्या से जूझ रहें लोगों को कम से कम भूख-प्यास से राहत देने की सोची और जगह-जगह पर खाना बांटना शुरू किया।

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8. जब हिन्दू और मुसलमान औरतों ने एक-दूसरे के पतियों के लिए किडनी दी!

LiveUttarPradesh

दो औरतें, एक हिन्दू और एक मुस्लमान, जिन्होंने जिला मजिस्ट्रेट का दरवाज़ा खटखटाया ताकि उन्हें एक-दूसरे के पतियों को किडनी देने की अनुमति मिल जाये। दरअसल, दोनों के ही पति किडनी ख़राब होने के चलते डायलिसिस पर थे और एक ब्लड ग्रुप न होने के कारण परेशानी हो रही थी।

पर दोनों औरतों की इच्छाशक्ति और मांग ने कोर्ट और अस्पताल में सभी को हैरान कर दिया।

स्त्रोत

9. जब पेशावर में सिखों ने रमजान के दौरान खिलाया गरीब मुस्लिमों को खाना

The Indian Express

स्त्रोत

सिखों की दरियादिली के पूरी दुनिया में आपको अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे। चाहे फिर ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले सिख हों जो हर जरूरतमंद की मदद करते हैं या फिर एटीएम की लाइनों में लोगों को खाना खिलाने वाले सिख।

ऐसे ही पेशावर में भी सिख समुदाय ने रमजान में गरीब मुसलामानों को इफ़्तार परोसने की पहल की है। रोज़े में सभी को  उन्होंने रूहअफजा दूध पिलाया।

इन सभी लोगों की कहानियां पढ़ने के बाद कौन कह सकता है कि हमारा देश इतने धर्मों और जात-पात में बंटा हुआ है। यह सभी वाकये उदाहरण हैं हमारे देश की एकता के और न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में आपको इस तरह की धर्मनिरपेक्षता के उदाहरण मिल जाएंगे।

( संपादन – मानबी कटोच )


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10 साल तक बच्चन परिवार का इंतज़ार करने के बाद आखिर गांववालों ने खुद पैसे जमा कर खोला कॉलेज!

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ब आम लोग साथ में मिलकर साधन जुटाते हैं तो यक़ीनन कोई न कोई कमाल करते हैं। यह कहानी है उत्तर प्रदेश के रिहायशी इलाके बारांबकी की।

लगभग दस साल पहले बारांबकी में अभिनेता अमिताभ बच्चन जी ने श्रीमती ऐश्वर्या बच्चन कन्या महाविद्यालय की आधारशिला रखी थी। साथ ही दौलतपुर पंचायत को कॉलेज के निर्माण के लिए 10 बीघा जमीन भी दान दी थी। गांव को उन्होंने 5 लाख रूपये भी दिए।

और दस साल बाद, उसी गांव में आज कॉलेज खड़ा है। पर इस कॉलेज के निर्माण का श्रेय बच्चन परिवार को नहीं बल्कि उन गांव वालों को जाता है जिन्होंने कॉलेज के निर्माण के लिए चंदा इकट्ठा कर धनराशि एकत्रित की।

सत्यवान शुक्ला नाम के एक व्यक्ति ने इस ईमारत के निर्माण की पहल की और धीरे-धीरे बाकि गांववालें भी उनके साथ मिल गए। जो जितना भी दे सकता था सब ने दिया। जैसे कि राममिलन शुक्ला जी ने 13 एकड़ जमीन दी और कुछ अन्य गांववालों ने पैसे इकट्ठा करना शुरू किया।

इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार कॉलेज का निर्माण 17 नवंबर 2017 में शुरू किया गया। आर. एम. एल. यूनिवर्सिटी, फैज़ाबाद से मान्यता प्राप्त इस कॉलेज में अभी बी. ए और बीएससी जैसे कोर्स पढ़ाये जाएंगे।

दौलतपुर निवासी रमेश चंद्र ने बताया, “जब बच्चन जी ने यहां आधरशिला रखी तो हमें लगा कि अब हमारे दिन बदलेंगे पर दस साल तक कहीं कुछ नहीं हुआ। तो सभी ने चंदा इकट्ठा कर कॉलेज निर्माण का विचार किया ताकि युवाओं को पढ़ने के लिए दूर न जाना पड़े। यहां से सबसे पास जो कॉलेज है वह भी 30 किलोमीटर दूर है।”

आज जब बहुत से लोग बदलाव के नाम पर केवल सरकार और किस्मत को कोसते रहते हैं, ऐसे में इन गांववालों ने जो किया वह वाकइ में काबिल-ए-तारीफ़ है। हम इन गांववालों के हौसलें और हिम्मत को सलाम करते हैं और उम्मीद करते हैं कि और भी बहुत से लोग इनसे प्रेरणा लेंगे।

featured image source – Youtube

( संपादन – मानबी कटोच )


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वह आईएएस अफसर जो एक दिन के लिए बना दादरा और नगर हवेली का प्रधानमंत्री

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हाराष्ट्र और गुजरात के बीच बसे हुए 500 स्क्वायर किलोमीटर से भी कम क्षेत्रफल वाला दादरा और नगर हवेली,गहरे जंगल, शांत झील और ऐतिहासिक भवनों से घिरा हुआ बेहद ख़ूबसूरत प्रदेश है।

पर बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि यह छोटा सा प्रदेश हमारे इतिहास का एक बहुत ही अनोखा किस्सा अपने में सहेजे हुए है। दरअसल, साल 1961 में पुरे एक दिन के लिए दादरा और नगर हवेली को भारत के नहीं बल्कि इस प्रदेश के अपने प्रधानमंत्री ने चलाया था।

आप सोच रहे होंगे कि भारत का प्रधानमंत्री होते हुए दादरा और नगर हवेली में अलग प्रधानमंत्री की क्या ज़रूरत पड़ी? तो जनाब, अगर भारतीय राजनीती के इस अनोखे किस्से को जानना तो आगे की कहानी पढ़िए।

अब हुआ यूँ कि अठारवीं सदी में मराठा राज का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा दादरा और नगर हवेली पुर्तगाल के अधिकार में आ गया।

सन 1783 में मराठा नौसेना ने पुर्तगाली फ्रिगेट सैंटाना को बर्बाद कर दिया था और उसी के मुआवज़े के रूप में उन्होंने नगर हवेली को पुर्तगालियों को सौंप दिया।

फोटो सोर्स

दो साल बाद पुर्तगालियों ने दादरा पर भी अधिकार कर लिया और इसे अपनी मिल्कीयत में तब्दील कर दिया ताकि पुर्तगालियों का शासन बना रहे। साल 1818 में जब मराठा, एंग्लो-मराठा युद्ध में अंग्रेजों से हार गए तो दोनों प्रदेशों पर पुर्तगालियों का राज हो गया।

इसके बाद के दशकों में पुरे देश में विरोधी औपनिवेशिक (कोलोनियल) भावना और राष्ट्रवादी आंदोलन होने के बावजूद इन दोनों प्रदेशों पर पुर्तगालियों का शासन बना रहा।

15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् भी गोवा, दादरा और नगर हवेली पर विदेशी शासन बना रहा। फ्रांस ने पांडिचेरी पर अपना शासन छोड़ दिया पर पुर्तगाल तब भी लगातार भारत को इन तीन क्षेत्रो पर राज के लिए चुनौती देते रहे।

जब अंतर्राष्ट्रीय सम्मति भी पुर्तगाली सरकार को नहीं डिगा पायी तो गोवा में राष्ट्रवादियों ने पुर्तगाल के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। अपनी आज़ादी के लिए वे मिलकर दलों में काम करने लगे।

विख्यात गायिका लता मंगेशकर ने भी इस आंदोलन को समर्थन देने के लिए पुणे में कॉन्सर्ट कर चंदा इकट्ठा किया ताकि क्रांतिकारी जंग के लिए हथियार खरीद सकें।

क्रांतिकारियों के प्रयासों को पहली सफलता 21 जुलाई 1954 में तब मिली जब दादरा को पुर्तगाली राज से आज़ाद कर लिया गया। इसके दो हफ्ते बाद ही नगर हवेली को भी स्वंत्रता मिल गयी।

फोटो सोर्स

तिरंगा फहराते हुए और राष्ट्रगान गाते हुए दादरा और नगर हवेली की आज़ादी का जश्न मनाया गया। इसके तुरंत बाद ही भारतीय प्रशासन समर्थक आज़ाद दादरा और हवेली की ‘वरिस्ता पंचायत’ बनाई गयी। इस पंचायत ने 1 जून 1961 तक राज किया और बाद में औपचारिक तरीके से भारतीय संघ में प्रवेश के लिए निवेदन किया।

पर इन दोनों क्षेत्रों को भारत में एक संघीय क्षेत्र के रूप में आधिकारिक विलय होना बाकी था। इसी उद्देशय के साथ भारतीय सरकार ने एक दूत वहां के प्रशासन पर नियंत्रण रखने के लिए भेजा। और जिस आदमी को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी, वो थे गुजरात कैडर के आईएएस अफ़सर के. जी. बदलानी।

11 अगस्त 1961 को श्री के. जी. बदलानी को उस समय के स्वतंत्र राज्य दादरा और नगर हवेली का प्रधानमंत्री बनाया गया।

राज्य के प्रधान के रूप में उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ हुए अनुबंध पर हस्ताक्षर किये और आधिकारिक रूप से दादरा और नगर हवेली का विलय भारत में हो गया। भारत के इतिहास में इस तरह का केवल यही एक दृष्टांत है।

कुछ महीनों पश्चात् गोवा को भी पुर्तगाली राज से आजादी मिल गयी। नवम्बर 1961 में पुर्तगाली फौजों ने गोवा के तटीय जहाज़ों और मछली पकड़ने की नावों पर गोलीबारी शुरू कर दी। एक महीने बाद दिसंबर 1961 में भारत ने भारी मात्रा में थल, जल और वायु सेना के साथ पुर्तगालियों पर धावा बोल दिया।

48 घंटों से भी कम समय में गोवा के पुर्तगाली गवर्नर जनरल मैनुएल अंटोनिओ वस्सलो ऐ सिल्वा ने आत्मसमर्पण कर गोवा को भारत को सौंप दिया।

खैर, दिलचस्प बात यह है कि भारत में आने वाले सबसे पहले विदेशी, पुर्तगाली थे और भारत से जाने वाले सबसे आखिरी भी!

( संपादन – मानबी कटोच )


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रूमी से मिले?

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क था रूमी
दो थे रूमी
सब थे रूमी….

पेश है ध्रुव सांगरी का प्रस्तुतीकरण : हज़रत रूमी को थोड़ा सा जानिए 🙂

“तुम जिसे ढूँढ़ते हो वो तुम्हें ढूँढ रहा है”

– मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी

‘इसका मतलब क्या हुआ? हम तो सब कुछ ढूँढ रहे हैं – पैसा, नाम, काम, कर्म, भगवान, दोस्त, प्रेमी, सुख, पहाड़, समुद्र, तैरना, उड़ना, टूटना, जुड़ना.. ये सब हमें ढूँढ रहे हैं?’

जवाब है हाँ!

‘हुँह, तो फिर बैठ जाऊँ, ये सब आयेंगे मेरा दरवाज़ा खटखटायेंगे सब अंदर आ जायेंगे?’

‘कुछ अंदर नहीं आता. अंदर कुछ नहीं है. बाहर और अंदर की बात ही ग़लत है. तुम दीवारें उठा देते हो – अंदर क़ैद में रहते हो उसे अपना घर, अपना परिवार, अपना ये, अपना वो कहते हो.. दीवारें गिरा दो और तुम सबके हो, सब तुम्हारे हैं.’

‘हुँह, हुँह, हुँह. बात बस कहने सुनने में अच्छी लगती है. यह व्यावहारिक नहीं है. तुम कहते हुए हीरो लगते हो, मैं पढ़ते हुए समझदार. यह संभव ही नहीं है. यह व्यवहारिक ही नहीं है’

‘व्यावहारिकता ही तुम्हारी दीवार है’

‘व्यावहारिकता दीवार है? व्यावहारिकता दीवार है? सदियों, हज़ारों सालों की सीख से समाज ने कुछ धारणाएँ, कुछ नियम, कुछ विचार, तौर तरीक़े बनाये हैं इन सबका कुल जोड़ है व्यवहारिकता. तुम कहते हो ये ग़लत है? हज़ारों साल का ज्ञान ग़लत है?’

‘हो सकता है. ‘ज्ञान’ कोई बुरी बात नहीं है. लेकिन यह तुम्हारी दीवार भी बन सकता है. छोटा सा उदाहरण देता हूँ पहले हम ईश्वर को ढ़ूँढने की बातें करते थे. अब मंदिर-मस्जिद में ज़्यादा ध्यान है..’

‘आssssह तुम्हारे तर्क! वैसे तुम कह रहे हो कि ईश्वर है?’

‘पता नहीं’

‘ईश्वर नहीं है?’

‘पता नहीं. हाँ शम्स तबरेज़ी हैं’, रूमी ने कुछ इस तरह कहा कि अमीर ख़ुसरो कहते कि ‘हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया हैं’. इसके आगे बात कुछ हुई नहीं.

इसे पढ़ कर अगर जिज्ञासा और बढ़ी हो तो ये भी है:


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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कभी गांव में पशु चराने जाती थी आज है आईएएस अफसर

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“कोशिश करने वालों की हार नहीं होती,” हरिवंशराय बच्चन की लिखी हुई यह कविता तमिलनाडु से ताल्लुक रखने वाली सी. वनमति पर बिलकुल सटीक बैठती है। बचपन में मवेशी चराने वाली वनमति अक्सर जिला अधिकारी बनने के ख़्वाब देखती थी। आज अपनी मेहनत और लगन के दम पर उन्होंने अपने इस सपने को पूरा कर दिखाया है।

तमिलनाडु के इरोड ज़िले की रहने वाली वनमति ने अपना ज़्यादातर समय गावं में पढ़ाई करने और अपने घर के पशुओं को गावं के आस-पास चराने में बिताया।

निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी वनमति के पास सिर्फ उसके सपने ही थे। अपने सपनों को पूरा करने का उनके पास कोई साधन तो नहीं था पर इन सपनों को हकीकत में बदलने का जज़्बा ज़रूर था।

वनमति के लिए उनकी पहली प्रेरणा थें उनके ज़िले के कलेक्टर, जिन्हें वे युवा और बुजुर्ग सबसे एक-सा सम्मान पाता देखती थी।

फोटो: Sylendra Babu IPS Facebook Page

उनकी दूसरी प्रेरणा उन्हें मिली एक टीवी धारावाहिक ‘गंगा यमुना सरस्वती’ से, जिसकी मुख्य किरदार एक आईएएस अफ़सर  थी।

साल 2015 से पहले भी तीन बार वनमति ने यूपीएससी के लिए प्रयत्न किया पर हर बार कुछ अंक के फ़ासले से वह चूक गयीं। फिर भी बिना हताश हुए उन्होंने अपनी मेहनत जारी रखी और साल 2015 में आखिरी लिस्ट के लिए चुने गए 1,236 प्रतिभागियों में अपनी जगह बना ली। जब मुख्य परिणाम निकला तब वनमति अपने पिता के साथ अस्पताल में थी। दरअसल उनके इंटरव्यू के बाद उनके पिता को रीढ़ की हड्डी में चोट आ गयी थी।

अपनी सफलता का श्रेय वनमति अपने माता-पिता को देती हैं। उनके समुदाय में अक्सर लड़कियों की जल्दी शादी कर उन्हें विदा कर दिया जाता है पर उनके माता-पिता ने उन्हें हमेशा पढ़ने व अपने सपनों को पूरा करने के लिए प्रेरित किया।

साल 2015 में द हिन्दू के दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, “मेरे पिता एक कार ड्राइवर हैं और सिर्फ शिक्षा ही समाज में हमारा ओहदा ऊँचा उठा सकती है, मेरे इसी विश्वास ने मुझे आगे पढ़ने और बढ़ने की प्रेरणा दी।”

लाल बहादुर शास्त्री ट्रेनिंग अकादमी से अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उनकी पहली नियुक्ति महाराष्ट्र में जिला अधिकारी के रूप में हुई। अभी वे नंदुरबार में इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की सहायक कलेक्टर व परियोजना अधिकारी के रूप में सेवारत हैं।

( संपादन – मानबी कटोच  )


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वीडियो : इस पुलिस वाले ने अकेले ही एक युवक को गुस्साई भीड़ से बचाया!

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भारत में पुलिसवालों के नाम से यदि कोई भाव जोड़ा जाता है तो वह है डर और संवेदनहीनता! पर हाल ही में  उत्तराखंड के एक पुलिसवाले ने अपनी संवेदनशीलता से हमारी इस सोच को बदल कर रख दिया है।

उत्तराखंड पुलिस के सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह ने रामनगर में एक मुसलमान युवक को भीड़ के हाथों मरने से बचा लिया। एक न्यूज़ रिपोर्ट के मुताबिक यह घटना 22 मई 2018 को हुई जब रामनगर के प्रसिद्द गिरिजा देवी मंदिर में एक युगल छुपकर मिलने आया। दरअसल जब लोगों को पता चला कि लड़की हिन्दू है और लड़का मुस्लमान है तो बवाल खड़ा हो गया।

देखते ही देखते भीड़ इकट्ठा हो गयी और युवक को पीटने लगी। यदि पुलिस सही समय पर नहीं आती तो शायद लड़का भीड़ के हाथों मारा जाता।

इस युवक की जान बचाने का पूरा श्रेय जाता है सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह को, जिन्होंने अपनी जान जोख़िम में डालकर भीड़ से इस युवक को बचाया।

सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो में देखा जा सकता है कि कैसे गगनदीप उस युवक को थामे हुए भीड़ को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। लोग उस युवक को पीटना चाहते हैं पर गगनदीप ने युवक को सीने से लगाया हुआ है, उनकी कोशिश बस इतनी है की युवक  को सुरक्षित बाहर निकाला जाये। बाद में दूसरे पुलिस अफ़सर भी गगनदीप की मदद को आगे आते है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक पुलिस पर पूरा दबाब बनाया गया कि युवक को भीड़ के हवाले कर दिया जाये। पर गगनदीप ने अपनी ड्यूटी करते हुए युवक को छोड़ने से मना कर दिया। इसके बाद भीड़ पुलिस के ख़िलाफ़ भी नारेबाजी करती नज़र आ रही है वीडियो में। आप देखेंगे कि लड़की भी भीड़ के साथ बहस करती नज़र आ रही है।

ख़बरों के अनुसार उस क्षेत्र के प्रभारी पुलिस अफ़सर विक्रम राठोड़ ने घटना की पुष्टि की है और बताया कि दोनों ही युवक व युवती बालिग हैं। 

राजनीती और धर्म से परे हटकर इस घटना में गगनदीप सिंह ने जो हिम्मत और हौसला दिखाया वह सराहनीय है। किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है और गगनदीप न केवल आम लोगों के लिए बल्कि अन्य पुलिस वालों के लिए भी एक उदाहरण हैं।

नीचे आप सब-इंस्पेक्टर गगनदीप सिंह के सहसनीय कार्य की वीडियो देख सकते हैं।

( संपादन – मानबी कटोच )


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दिल्ली : सरकारी स्कूलों में सीबीएसई टॉपर है प्रिंस; पिता है डीटीसी बस चालक!

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हाल ही में देश में सीबीएसई  ने 12वीं कक्षा का परिणाम घोषित किया। परिणामों के मुताबिक दिल्ली के सरकारी स्कूलों के विज्ञान संकाय में 97% अंक प्राप्त कर, छात्र प्रिंस कुमार प्रथम स्थान पर रहे। प्रिंस को गणित में 100/100, अर्थशास्त्र (इकोनॉमिक्स) में 99/100 और रसायनशास्त्र (केमिस्ट्री) में 98/100 अंक मिले।

प्रिंस दिल्ली ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन (डीटीसी) के बस चालक के बेटे है। उन्हें बधाई देते हुए दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने ट्वीट किया, “बहुत गर्व का पल! दिल्ली के सभी सरकारी स्कूलों में विज्ञानं संकाय के टॉपर प्रिंस को अभी बधाई दी।”

मनीष सिसोदिया के ट्वीट पर भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता अंजलि दामनिआ ने कमेंट कर प्रिंस की आगे की पढ़ाई के लिए मदद की बात कही।

परिणाम घोषित होने के तुरंत बाद मनीष सिसोदिया ने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की परफॉरमेंस को सरहाते हुए बताया कि पिछले साल 112 स्कूलों के मुकाबले में इस साल 168 स्कूलों का परिणाम 100% रहा। और 638 स्कूलों का परिणाम 90% रहा जो कि पिछले साल 554 स्कूलों का था। (एनडीटीवी)

मनीष सिसोदिया ने वाणिज्य संकाय में सरकारी स्कूल से अव्वल स्थान पर आने वाली प्राची प्रकाश को भी बधाई दी। प्राची के पिता एक छोटी निजी कंपनी में काम करते हैं।

इसके अलावा उन्होंने कला संकाय की टॉपर चित्रा कौशिक से भी बात की। वह दिल्ली पुलिस के एक असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर की बेटी है।

ज़ी न्यूज़ की रिपोर्ट के मुताबिक 12 वीं कक्षा के सीबीएसई रिजल्ट में 78.99% लड़कों के मुकाबले 88.31% लड़कियां पास हुई हैं। बाकी उत्तर प्रदेश के नोयडा जिले की मेघना श्रीवास्तव 499/500 अंक प्राप्त कर इस साल 12 वीं में सीबीएससी की टॉपर रहीं।


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मछली पालन, बांस की खेती और आम- लीची : इन सबने बनाया मजबूरी में बने इस किसान को लखपति !

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“किसान की आवाज “के आज के अंक में हम आपको ऐसे युवा किसान से मुलाकात कराने जा रहे हैं, जिसकी कहानी संघर्ष से शुरु होती है पर ख़त्म सफलता से !

दार्जिलिंग के समीप कर्सियांग के गोथेल्स मेमोरियल स्कूल में 90 के दशक में एक बच्चे का दाखिला होता है। उसने दसवीं तक वहीं पढ़ाई की और फिर इंजिनियर बनने का सपना लिए सिलिगुड़ी में आगे की पढ़ाई करने निकल जाता है लेकिन इसी बीच अचानक पिता की तबियत खराब होती है और वह लौट आता है अपने गांव-घर। और फिर यहीं से शुरु होती है उसके संघर्ष की कहानी। वह लड़का अब पिता की सेवा के साथ-साथ किसानी करने लगता है, यह साल 2000 की बात है।

यह कहानी है बिहार के कटिहार जिले के दलन के समीप स्थित भवारा कोठी के किसान अमरेश चौधरी की।

अमरेश ने द बेटर इंडिया को बताया कि जब वे साल 2000 में बिहार के अपने गांव लौटकर आए तब उनके पिताजी बिछावन पकड़ चुके थे। कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही रुक गई और अब उन्हें घर संभालना था।

अमरेश ने कहा- “ पिताजी पारंपरिक खेती करते थे और मछली पालन भी किया करते थे लेकिन इसमें आय नहीं थी। मैंने देखा कि खेती से और मछली पालन से जो पैसा आता है उससे तो घर चलाना मुश्किल है। लगभग लाख रुपये आते थे उस वक्त। मैंने मछली पालन को व्यवसायिक रुप देने का बीड़ा उठाया।“

अमरेश ने हैदाराबाद स्थित राष्ट्रीय मत्सियकी विकास बोर्ड ( National Fisheries Development Board)  से संपर्क किया और वहां से प्रशिक्षण प्राप्त किया।

 

उन्होंने बताया – “ पिताजी के समय दो पोखर थे लेकिन मैंने अब सात पोखर तैयार कर लिए हैं और अब साल में मेरी आमदनी केवल मछली से छह से सात लाख रुपये की बीच हो जाती है। “

मछली पालन

अमरेश को मछली पालन की ट्रेनिंग लेने से कई फायदे मिले हैं। दरअसल मछली के नस्ल की जानकारी सबसे महत्वपूर्ण है। बाजार को हर दिन किस तरह की मछली चाहिए, इसकी भी जानकारी मछली पालक को रखनी चाहिए। अमरेश का कहना है कि यह सारा ज्ञान उन्हें हैदराबाद में ट्रेनिंग लेने के बाद ही मिला।  यहाँ तक कि उन्हें वहां यह भी पता चला कि मछली का चारा कितना महत्वपूर्ण है।

बांग्लादेश की प्रमुख मछली चितल भी वे पालते हैं। चितल मछली 400 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बाजार में बिकती है और बाजार में इस मछली की मांग हर दिन होती है। पश्चिम बंगाल के रायगंज इलाके से वे छोटी मछलियां लाते हैं और फिर उसे अपने तालाब में छोड़ देते हैं।

शुरुआत में हुई कठिनाई

अमरेश जब हैदराबाद से प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने गांव लौटे तो मछली की जिस प्रजाति को वे तालाब में पालना चाहते थे उसे लेकर उन्हें स्थानीय लोगों ने कहा कि बाजार में इस तरह की मछली की मांग नहीं है। जब पहली बार वे मछली को बाजार में पहुंचाने गए तो उन्हें निराशा हाथ लगी लेकिन साल भर के भीतर ही उन्होंने बाजार के अनुसार मछली का पालन आरंभ कर दिया और अब तो बाजार में उनके ही तालाब की मछलियों की सबसे अधिक मांग होती है।

अमरेश के अनुसार मत्स्य पालन के लिए अच्छी नस्ल में रोहू, सिल्वर कार्प, कतला, म्रगल, ग्रास कार्प आदि नस्लें होती है और आपको मत्स्य पालन के लिए यही नस्लें खरीदनी चाहिए। इसके लिए आप अपने जिले के मत्स्य पालक विकास अभिकरण से सम्पर्क कर सकते हैं, जो कि हर जिले में होता है और यहां से आप इसके बारे में और जानकारी ले सकते हैं।

मछली के लिए आहार कैसे तैयार करें

मछलियों के आहार के लिए सबसे बेहतर होता है आप चावल का आटा तैयार करें। उसके बाद चावल के आटे में कुछ मात्रा में पानी मिलाकर आप उसकी गोलियां बना लें: इसे मछलियाँ बड़े चाव से खाती हैं। कई लोग गेहूं के आटे की गोलियां भी मछलियों को देते हैं। इसके साथ ही आपको इन मछलियों को खिलाने के लिए कई चीज़ें अपने आस-पास से ही प्राप्त हो जायेंगी, जैसे कि सरसों की भूसी भी आप घर में ही तैयार कर सकते हैं।

मछली को कब निकाले और कैसे निकाले

मछली एक वर्ष के भीतर ही एक या डेढ़ किलो वजन की हो जाती है। मछली का वजन एक से डेढ़ किलो होते ही समझ जाए कि वो मछली आपके बाजार में जाने के लिए तैयार है।

मछली पालन से प्रतिदिन 9000 रुपये का रोजगार देते है अमरेश!

अमरेश ने कहा कि मछली पालन से अच्छा पैसा मिलता है। वे हर रोज मछली बाजार भेजते हैं, जिसमें लगभग तीस लोगों को रोजगार मिलता है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार वे प्रतिदिन 9000 रुपये के रोजगार का भी सृजन कर रहे हैं (30 आदमी x 300 रुपये)।

बांस की खेती

अमरेश मछली पालन के अलावा बांस की भी खेती करते हैं। वे बांस मिशन से भी जुड़े हैं। अब तो वे कटिहार जिला में बांस का उत्पादन करने वाले सबसे बड़े किसान बन गए हैं।

उन्होंने बताया – “बांस नकदी फसल है। हर किसान को कुछ हिस्से में बांस जरुर लगाना चाहिए। मैं 13 एकड़ में बांस की खेती करता हूं जिससे मुझे साल में 3 लाख रुपये की आमदनी हो जाती है। हर किसान को बांस की खेती करनी चाहिए। यदि आप एक एकड़ में बांस लगाते हैं तो पांच साल में वह कटने के लायक हो जाता है और वह अच्छी राशि आपको देता है।“

उन्होंने बताया कि मछली के तालाब से कुछ ही दूरी पर बांस लगाने से कई फायदे होते हैं। दरअसल बांस छाया नहीं करता है और इससे तालाब की सुरक्षा भी होती है।

आम-लीची की खेती भी करते है अमरेश!

अमरेश आम और लीची की खेती वे इसलिए करते हैं कि इन दोनों फलों का स्थानीय बाजार में दबदबा होता है। साथ ही अच्छी आय हो जाती है। उन्होंने बताया कि यदि आपके पास दस लीची के पेड़ हैं तो वे साल में कम से कम 20 हजार रुपये आपको देंगे ही। साथ ही आम-लीची के बगान में आप मधुमक्खी पालन कर सकते हैं, जो एक और आय का साधन है!

12 लाख रुपये तक सलाना कमा रहे हैं अब!

अमरेश चौधरी अपने बेटे के साथ

सन 2000 में किसानी से अमरेश के परिवार की आय केवल लाख डेढ़ लाख रुपये थी लेकिन आज मछली, बांस, आम-लीची और सब्जी की खेती से वे 12 लाख रुपये तक सलाना कमा लेते हैं। अमरेश को अब इस बात का गर्व है कि वे खेती करते हुए अपने बच्चों को बाहर घूमाने ले जाते हैं। उनकी आमदनी इतनी हो जाती है कि वे बच्चों को छुट्टी मेंं पहाड़ों पर घूमाने ले जाते हैं। अमरेश ने कहा कि अब उन्हें इस बात का दुख नहीं है कि वे मैकेनिकल इंजीनियर नहीं बन सके। एक किसान के तौर पर वे अपने जीवन से संतुष्ट हैं।

उन्होंने कहा- “अब लगता है कि किसानी का पेशा बुरा नहीं है। मैं खेती से हुई आमदनी से अपने दोनों बच्चों को दार्जिलिंग में पढ़ाता हूं। जो पढ़ाई मैं पूरी न कर सका, मेरे दोनों बच्चे वह काम पूरा करेंगे। सच कहूं तो मैं अपने काम से संतुष्ट हूं। मेरा परिवार भी खुश है।“

किसानों के लिए अमरेश के टिप्स : स्मार्ट बनना होगा किसानों को!

अमरेश का कहना है कि किसानी के पेशे से जुड़े लोगों को पारंपरिक खेती के साथ बाजार को ध्यान में रखकर भी खेती करनी चाहिए।

“सब्जी और मछली, दो ऐसी चीजें हैं जो आपको रोज पैसा देगी। बस जरुरत है कि आप अपने फार्म में लगे रहें। छोटा सा भी पोखर जरुर रखें और मछली पालें। मैं हर तरह की मछली बाजार भेजता हूं ताकि पैसा आता रहे। किसान को जागरुक बनना होगा। सरकारी योजनाओं का लाभ लेना होगा। यह सच है कि सरकारी योजनाओं का लाभ हासिल करने में दिक्कतें आती है लेकिन यदि किसान चाहे तो कुछ भी असंभव नहीं है। खुद किसान को यह प्रतिज्ञा लेनी चाहिए कि वह अपने प्लेट के लिए कुछ भी बाजार से नहीं खऱीदेगा। रोज की सब्जी हो या फिर तेल-मसाला, यह सबकुछ किसान को उपजाना चाहिए।”

अमरेश का कहना है कि किसान को स्मार्ट बनना होगा और यदि किसी किसान के पास पर्याप्त जमीन है, उसका यह दायित्व बनता है कि वह अन्य लोगों को रोजगार भी दे!

अमरेश से संपर्क करने के लिए आप hindi@thebetterindia.com पर ईमेल कर सकते हैं!

( संपादन – मानबी कटोच )


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इस 25 वर्षीय युवती ने 10,000 से भी ज्यादा महिलाओं को माहवारी के प्रति सजग कर दिया उन्हें एक नया जीवन!

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मुंबई में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्यरत स्नेहल चौधरी के जीवन का एक ही लक्ष्य है, भारत में मासिक धर्म या माहवारी को लेकर जो शर्म है उसे खत्म करना। क्षितिज फाउंडेशन की संस्थापक स्नेहल अब तक लगभग 50 गांवों में 10,000 से भी ज्यादा औरतों और छात्रों को माहवारी सम्बंधित मिथकों के प्रति जागरूक कर चुकी हैं।

स्नेहल महाराष्ट्र के वाशिम ज़िले के शैलू बाजार गांव से हैं। सौभाग्य से उनके परिवार में महावारी को लेकर किसी भी अन्धविश्वास या मिथक का अनुसरण नहीं किया जाता है।

उनके परिवार की अग्रसर सोच की वजह से स्नेहल पर उनके गांव की बाकी लड़कियों की तरह कभी भी जबरदस्ती के प्रतिबन्ध नहीं लगाए गए।

“मैं हमेशा सोचती थी कि लड़कियों को पीरियड्स में क्यों अलग रहना और खाना पड़ता है। सब इसे एक गुप्त बात रखना चाहते हैं पर इस तरह तो खुद ही सारे जग को पीरियड्स का पता चल जाये।”

पर गांव की इन सभी प्रथाओं ने स्नेहल को कभी भी बहुत विचलित नहीं किया। उन्हें माहवारी से जुड़े इस शर्म और लज़्ज़ा के कोप का एहसास तब हुआ जब वे अपने आगे की पढाई के लिए नागपुर गयीं।

“स्कूल में पढ़ाई के दवाब के चलते अपने दिमाग को कुछ देर शांत रखने के उद्देश्य से मैंने वहां एक अनाथ आश्रम में जाना शुरू कर दिया।” स्नेहल के रोज अनाथ आश्रम जाने से और बच्चों के प्रति लगाव के कारण वहां के बच्चों का भी उनसे गहरा रिश्ता बन गया था।

स्नेहल ने बताया कि एक दिन अचानक उन्हें अनाथ आश्रम से फ़ोन आया और उन्हें तुरंत वहां बुलाया गया।

वहां जाने पर उन्हें पता चला कि 13 साल की एक बच्ची ने अपने आपको कमरे में बंद कर लिया है। बहुत कहने पर भी उसने किसी के लिए दरवाजा नहीं खोला। स्नेहल के पहुंचने पर ही वह बच्ची कमरे से बाहर आयी।

“वह लड़की रोते हुए बाहर आयी और आते ही मुझसे लिपट गयी। पहले मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। फिर बहुत हिचक के साथ उसने कहा की शायद उसे ब्लड कैंसर हो सकता है। दरअसल वह बच्ची मुझे बताने में शर्म महसूस कर रही थी कि उसे माहवारी हो रही है। मुझे एक दम जैसे झटका लगा। उस दिन मुझे समझ आया कि भारत में महावारी कितनी गहरी समस्या है।

इस घटना के चलते सदमे से घिरी स्नेहल ने इस समस्या के बारे में और अधिक जानने और किसी गायनाकोलॉजिस्ट से विचार-विमर्श करने का निश्चय किया।

इसके बाद स्नेहल ने अनाथ आश्रम में जागरूकता अभियान चलाना शुरू किया।

यवतमाल में सॉफ्टवेयर इंजीनीयरिंग पढ़ते हुए भी स्नेहल दूर-दराज के स्कूल और कॉलेज में जाकर इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाती रहीं।

“अनाथ आश्रम की घटना से मुझे लगता था कि इन बच्चों के पास माता-पिता नहीं हैं जो उन्हें पीरियड्स के बारे में समझाए। पर मुझे हैरानी हुई जब मैनें स्कूलों में जाना शुरू किया और मुझे पता चला की शहरों में भी परिवारों में इस विषय पर कोई सजगता नहीं है।”

कॉलेज में स्नेहल ने अपने दोस्तों को भी उनके साथ जुड़ने के लिए कहा और वे लोग विभिन्न स्कूलों, कॉलेज और कार्यस्थलों पर अपने जागरूकता अभियान के लिए गए ताकि माहवारी के साथ जुड़े शर्म के पैबंद को वे हटा सकें।

स्नेहल ने बताया, “शुरू में कोई भी हमसे नहीं जुड़ना चाहता था, सिर्फ मेरी दोस्त श्वेता इस काम में मदद करने के लिए आगे आयी। फिर धीरे-धीरे सोशल मीडिया की मदद से हम आगे बढ़े। आज हमारे पास भारत के हर एक राज्य में प्रतिनिधि है।”

उनकी टीम मेडिकल कैम्प्स भी लगवाती हैं जिनका मुख्य उद्देश्य औरतों की स्वास्थ्य संबंधित समस्यायों और पीरियड्स के दौरान साफ़-सफाई पर ध्यान देना आदि के प्रति लोगों को जागरूक करना है।

स्नेहल का यहां तक का सफर आसान नहीं था। लोग खुलकर माहवारी पर बात नहीं करते थे। गांव के स्कूलों में अध्यापक भी ये जानकर की वे माहवारी पर बात करने आये हैं उन्हें अनदेखा करते थे। गांववाले उनका इस विषय पर बात करने की वजह से विरोध करते थे। कुछ दोस्त और रिश्तेदारों ने तो स्नेहल के परिवार वालों को भी उन्हें रोकने के लिए कहा।

“लोग मेरे माता-पिता से कहते थे कि यदि किसी को पता चला कि मैं माहवारी पर इतना खुलकर बात करती हूँ तो कोई मुझसे विवाह नहीं करेगा। जिज्ञासावश मैंने अपने परिवार से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि मैं अपने परिवार को शर्मिंदा कर रही हूँ। उनका जबाव ‘ना’ था और उसके बाद मेरे अभियान में उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया।”

पिछले साल 27 मई को विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस के मौके पर स्नेहल ने सोशल मीडिया पर एक अभियान चलाया, #BleedTheSilence और लोगों से उनके पहले मासिक से जुडी या फिर इससे जुड़े मिथक को लेकर अपना अनुभव सांझा करने की अपील की।

“पहली माहवारी से संबंधित जो भी कहानियां, लेख, कविता आदि मिला हमने इकट्ठा करना शुरू किया। मुझे बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि न केवल भारत से बल्कि अन्य देश कैसे फ्रांस, जर्मनी, थाईलैंड आदि से भी हमें 100 से भी अधिक लेख मिले। मेलघाट, गतचिरोली जैसे आदिवासी इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों से भी हमे लेख मिले। भाई, पिता और बहुत से फार्मासिस्ट ने भी अपनी कहानी भेजी, सैनिटरी पैड बेचने से जुड़े उनके अनुभव भेजे।  फिर नृतक, बॉक्सर आदि के अनुभव। न केवल औरतें बल्कि आदमी भी हमारी पहल में साथ आये।”

विनीता उगाओंकर, एक बॉक्सर ने लिखा कि कैसे इस अभियान ने उन्हें पीरियड्स से जुडी शर्म से उबरने में मदद की।

विनीता ने लिखा, “अच्छे दिनों के लिए तुम्हें बुरे दिनों से लड़ना पड़ता है। अपने जीवन में सबके महत्वपूर्ण पल होते हैं जो जीवनभर उनके साथ रहते हैं, कुछ बहुत खूबसूरत और कुछ कोयले के जैसे काले। एक बार, बहुत मुश्किल मैच जीतने के बाद भी मेरे कोच और टीम ने मुझे बधाई नहीं दी। बल्कि उनकी नजरें कहीं और थी। और मुझे कुछ फुसफुसाहट का आभास हुआ। तभी मेरी दोस्त भीड़ में से भागते हुए आयी और धीरे से कहा कि मेरे पैंट पर लाल धब्बे हैं। मुझमें देखने की हिम्मत भी नहीं हुई, मेरी आँखों से आंसू बह रहे थे और मैं बाथरूम की तरफ भागी। अपने आप को साफ़ करने के तुरंत बाद मैं स्टेडियम से निकल गयी पर सबकी नजरें मुझे घिनौने तरीके से देख रहीं थीं। मैं ग्लानि से भर गयी। मुझे खुद से घिन आने लगी। वो हंसी और ओछी बातें मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी और टूर्नामेंट के बाद मेरे लिए बुरे सपने के जैसे हो गयीं। यहां तक कि मैंने बॉक्सिंग छोड़ने का फैसला कर लिया।”

पर अपने दोस्तों और परिवार के साथ की वजह से वे अब फिर से बॉक्सिंग कर रही हैं।

लोगों ने भी माहवारी से जुड़े मिथकों के खिलाफ स्नेहल की कोशिशों को पहचानना शुरू किया और क्षितिज फाउंडेशन को बहुत सी जगह जागरूकता अभियान के लिए आमंत्रित किया गया। टीम को महाराष्ट्र पुलिस अकादमी में भी लगभग 700 महिला पुलिस कॉन्स्टेबलों की ट्रेनिंग के दौरान बुलाया गया। इस सत्र में महिला पुलिस कॉन्स्टेबलों ने माहवारी के चलते ट्रेनिंग में होने वाली परेशानियों को सांझा किया और बाकी पुरुष पुलिस कॉन्स्टेबलों व अधिकारीयों के लिए भी तह सत्र चक्षु-उन्मीलक साबित हुआ। उन्हें पता चला कि कैसे उनके कुछ छोटे कदम उनकी महिला साथियों की मदद कर सकते हैं।

स्नेहल ने बताया कि सोशल मीडिया की मदद से अब क्षितिज फाउंडेशन के हर राज्य में उनके प्रतिनिधि हैं जो लगभग 10,000 महिलाओं को जागरूक कर रहे हैं।

स्नेहल ने कहा कि उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी जब उन्हें सोलापुर में महिलाओं को माहवारी के प्रति जागरूकता अभियान के लिए बुलाया गया, क्योंकि इस सत्र का स्थल मंदिर था।

उन्होंने बताया, “माहवारी का सबसे बड़ा मिथक यही है की इस दौरान हम मंदिर में नहीं जा सकते। इस विषय पर मंदिर में खड़े होकर बात करते वक़्त लगा कि धीरे-धीरे मैं एक बदलाव लाने में सफल हो रही हूँ।”

अपने एनजीओ के भविष्य को लेकर सवाल पर उन्होंने चौंकाने वाला उत्तर दिया, “मैं चाहती हूँ कि एनजीओ भविष्य में बंद हो जाये, क्योंकि इसका मतलब होगा कि हमारे देश में सभी माहवारी के प्रति जागरूक हैं। यदि आज की पीढ़ी इसे लेकर जागरूक होगी तो आने वाली पीढ़ी के लिए किसी भी अभियान की जरूरत नहीं होगी। यदि माँ ही अपनी बेटी को बताये कि माहवारी गंदगी या शर्म की बात नहीं बल्कि सिर्फ एक प्राकृतिक क्रिया है तो हर बेटी स्वयं को सशक्त महसूस करेगी।”

क्षितिज फाउंडेशन के बारे में अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें। टीम से सम्पर्क करने के लिए 7774010063 डायल करें।


आकार नवाचार के साथ मिल द बेटर इण्डिया राजस्थान के अजमेर जिले में सैनिटरी पैड की विनिर्माण इकाई लगा रहा है जहां पर बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी पैड का निर्माण होगा और साथ ही आस-पास के समुदाय की औरतों को आजीविका के लिए काम मिलेगा। 

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भारतीय वायुसेना का वो पायलट जिसे कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने बनाया था बंदी

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कारगिल भारतीय सेना द्वारा लड़े गए सबसे महत्वपूर्ण व मुश्किल युद्धों में से एक है। शायद इसीलिए कारगिल युद्ध से जन्मी वीरता और धैर्य की कहानियां सभी के दिलों को छू जाती हैं। इस युद्ध से कई हीरो जन्में, कुछ के बारे में हम जानते हैं और कुछ के नाम इतिहास के पन्नों में कहीं खो गए।

ऐसी ही एक अनसुनी और अनकही कहानी है विस्मृत हीरो, फ्लाइट लेफ्टिनेंट कम्बमपति नचिकेता की।

फोटो सोर्स

फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता उन बहुत कम आईएएफ पायलटो में से एक हैं जिनका लड़ाकू विमान दुश्मन की धरती पर दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद, वे लौट कर भारत आ पाए।

28 मई 1999 को पाकिस्तानी सेना द्वारा गोली लगने के बाद उन्हें एक हफ्ते के लिए बंदी बना लिया गया था पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के दवाब के कारण पाकिस्तान ने उन्हें 4 जून 1999 को रिहा कर दिया। MiG-27 विमान से निकलते समय उनकी रीढ़ की हड्डी में बहुत चोट आयी और बहुत लोगों को लगा कि वे अब सेना में नहीं रह पाएंगे। पर सबको गलत सिद्ध करते हुए नचिकेता आज भी भारतीय वायु सेना में कार्यरत हैं।

साल 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान 26 साल के नचिकेता आईएएफ दल के नंबर 9 में युद्ध-प्रभावित बटालिक क्षेत्र में सेवारत थे। फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता का काम दुश्मन के ठिकानों पर 17,000 फ़ीट की ऊंचाई से 80 mm रॉकेट से हमला करना था।  

27 मई 1999 को नचिकेता अपने लड़ाकू विमान MiG-27 से दुश्मन के इलाकों पर गोलीबारी कर रहे थे। उन्होंने टारगेट सेट कर अपने विमान से 30 mm की तोप फायर की ही थी, कि तभी उनके इंजन में आग लग गयी। इंजन में आग लगना किसी भी पायलट के लिए बुरे सपने के जैसा होता है। दरअसल फायरिंग के दौरान निकलने वाला धुंआ इतनी ऊंचाई पर उस दुर्लभ वातावरण में इंजन में चला गया जो की आग लगने की वजह बना।

फिर भी नचिकेता किसी तरह इंजन को काबू करने के प्रयासों में लगे रहे। पर सारे प्रयास निष्फल रहे और नचिकेता को दुश्मन के इलाके में मुन्थूदालो (जो कि बर्फ से ढकी एक पहाड़ी है) नाम की जगह पर उतरना पड़ा।

उस पहाड़ी से नचिकेता को आसमान में एक बिंदु दिखाई पड़ा जो कि उनके बहादुर दोस्त और स्कवॉड्रन लीडर अजय अहूजा थे, जो अपने MiG-21 में अपने साथी के उतरने के ठिकाने को ढूंढ रहे थे। पर नचिकेता उस बिंदु के अचानक फटने से अचम्भे में आ गए। दरअसल पाकिस्तानी मिसाइल अन्ज़ा ने अजय अहूजा के विमान को अपना निशाना बना लिया था।

अपनी आकस्मक लैंडिंग और अपने दोस्त के विमान के फटने से नचिकेता उबरे भी नहीं थे कि आधे घंटे के भीतर पाकिस्तानी सेना ने उन पर हमला शुरू कर दिया। फिर हिम्मत जूटा कर नचिकेता अपनी पिस्तौल में सारी गोलियां भरकर लड़ते रहे।

पर उनका गोलाबारूद खत्म होते ही दुश्मन ने उन्हें घेर लिया और उन्हें रावलपिंडी की जेल में डाल दिया गया। भारत की महत्वपूर्ण जानकारी उगलवाने के लिए पाकिस्तानी सैनिकों ने उन पर निर्दयतापूर्वक अत्याचार किये। पर पाकिस्तानी सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी के आदेश पर नचिकेता के साथ क्रूर व्यवहार रोक दिया गया। एनडीटीवी को दिए एक साक्षताकार में, नचिकेता ने बताया, 

“गुस्से में वे सभी जवान मेरे साथ क्रूरता कर रहे थे और शायद मुझे मार डालना चाहते थे। क्योंकि उनके लिए मैं सिर्फ उनका दुश्मन पायलट था जिसने उन पर हवाई हमले किये थे। सौभाग्य से वह वरिष्ठ अधिकारी समझदार था। उसे परिस्थिति को समझते देर न लगी। उसे पता था कि अब मैं बंदी हूँ पर मेरे साथ वैसा व्यवहार हो यह जरूरी नहीं।

मुझे लगा था कि शायद अब मैं कभी भारत को नहीं देख पाउँगा पर एक आस हमेशा थी कि शायद मैं वापिस आ पाऊं।”

नचिकेता पाकिस्तानी जेल में 3 जून 1999 तक युद्ध के बंदी के तौर पर रहे। फिर उन्हें यूएन और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के दवाब के चलते पाकिस्तान में रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति को सौंप दिया गया।

भारत सरकार के उन्हें छुड़वाने के लिए किये गए अथक प्रयासों के चलते कुछ समय बाद उन्हें भारत के वागा बॉर्डर से स्वदेश भेज दिया गया। 

फोटो सोर्स

अपनी इस कठिन परीक्षा के बाद जब बॉर्डर पर नचिकेता मीडिया से मिले तो उन्होंने कहा कि वे केवल एक सैनिक हैं, कोई हीरो नहीं और साथ ही घोषणा की, कि वे अपनी अगली उड़ान के लिए बिकुल तैयार हैं। हालाँकि उन्हें रीढ़ की हड्डी में चोट की वजह से बहुत से मेडिकल ट्रीटमेंट से गुजरना पड़ा।

उनके सभी दोस्त उन्हें प्यार से ‘नचि’ बुलाते हैं। अपनी चोट के चलते नचिकेता लड़ाकू विमानों पर तो नहीं लौट पाए पर भारतीय वायु सेना के परिवाहन बेड़े में शामिल होने के लिए फिर से ट्रेनिंग में लग गए।

फोटो सोर्स
बहुत से लोग इस तरह का सदमा अनुभव करने के बाद उम्मीद छोड़ देते हैं परफ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता यकीनन लोहे के बने थे। आज नचिकेता विशाल Ilyushin Il-78 और AN-24 विमानों के दल के कप्तान है। यह विमान आईएएफ विमानों को हवाई उड़ानों के मध्य ईंधन पहुंचाने का काम करते हैं। वैसे तो नचिकेता लड़ाकू विमान उड़ाने के अपने दिनों को बहुत याद करते हैं पर उनका मानना है कि उड़ान किसी भी मायने में चुनौती भरी होती है।

वे कहते हैं, “एक पायलट का दिल हमेशा कॉकपिट में होता है।”

फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता को कारगिल युद्ध के दौरान अपनी अनुकरणीय सेवा के लिए वायु सेना गैलेंट्री पदक से नवाज़ा गया। 


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जन्म से ही नहीं हैं हाथ, फिर भी असाम की इस लड़की ने 12 वीं में प्राप्त की 1st डिवीजन

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साम के होजाइ जिले के छोटे से शहर मुजराहर से ताल्लुक रखने वाली 17 साल की जेबीन कौसर ने जो कर दिखाया है उसका वर्णन करने के लिए प्रेरणा शब्द भी शायद कम पड़े।

न्यूज़18 की रिपोर्ट के मुताबिक, जेबीन के जन्म से ही हाथ नहीं हैं और उनके पिता एक ऑटो-ड्राइवर और माता गृहणी हैं। पर हर मुश्किल को पार करते हुए जेबीन ने ना केवल 12 वीं की परीक्षा को पास किया बल्कि उनका नाम स्कूल से 1st डिवीजन प्राप्त करने वाले 11 विद्यार्थियों में शामिल हैं।

स्कूल की प्रिंसिपल अफसाना बेगम चौधरी ने न्यूज़18 को बताया, “हमें जेबीन और बाकी सभी विद्यार्थियों पर गर्व है। हमारे स्कूल ने 17 साल बाद इतना अच्छा परिणाम देखा है। हमने कभी जेबीन को महसूस नहीं होने दिया कि वो अलग है। उसके सहपाठी और अध्यापकों ने बाल-विहार से लेकर अबतक हमेशा उसकी मदद की और अभी भी ये सिलसिला जारी है। उसके इस सफर में हम सब हर पल उसके साथ हैं।”

स्कूल के सभी बच्चों के आईडी कार्ड पर जेबीन की पैर से पेन पकड़ कर एग्जाम लिखते हुए की फोटो सुशोभित की गयी है ताकि उन्हें हर पल प्रेरणा मिले कि कोई भी मुश्किल हौंसलों से बड़ी नहीं होती।

गुवाहाटी से लगभग 180 किलोमीटर दूर मुजराहर में रहने वाली जेबीन छह बहनों में सबसे बड़ी हैं। उनके माता-पिता  अब्दुल जब्बार और फातेहा बेगम अपनी बेटी की इस कामयाबी पर फुले नहीं समा रहें हैं।

जेबीन की माता ने न्यूज़18 को बताया, “हमने हमारी बेटी को बहुत मुश्किलों से पाला है। पर उसकी कामयाबी पर हम खुश और अचम्भित दोनों हैं क्योंकि उसने जो किया अपनी मेहनत से किया कभी भी किसी विषय का ट्यूशन नहीं लिया।”

जेबीन आगे चलकर स्कूल टीचर बनना चाहती हैं। अभी उन्होंने आगे की पढाई के लिए होजाइ के मरियम अजमल कॉलेज में दाखिला लिया है। हालाँकि जेबीन का परिवार उसके आगे की पढ़ाई को लेकर चिंतित है, क्योंकि उनकी मासिक आय केवल 5000 रूपये है। जेबीन के स्कूल की पढाई का खर्च अब तक मुजारहर गाइडेंस जूनियर ट्रस्ट ने उठाया था।


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उत्तर प्रदेश के खौराही गांव का मुखिया, जो गांव की लड़कियों के लिए बना पैडमैन

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त्तर प्रदेश सरकार के आंकड़ों के अनुसार देश की 28 लाख लड़कियां माहवारी के समय स्कूल जाना छोड़ देती हैं। उत्तर प्रदेश में 60 फीसदी लड़कियां माहवारी के समय स्कूल जाना छोड़ देती हैं और लगभग 19 लाख लड़कियां बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं।

सोर्स

उत्तर प्रदेश के गांव खौराही में भी जब ममता और प्रमिला के जैसे ही और भी लड़कियों ने माहवारी के कारण स्कूल जाना छोड़ दिया तो ये बात गांव के प्रधान हरी प्रसाद की नज़र में आयी। हरि प्रसाद जी को ये बिलकुल भी गंवारा नहीं था कि लड़कियों की शिक्षा माहवारी से जुड़े मिथक और शर्म की वजह से अधूरी रह जाये।

हरी प्रसाद ने इस समस्या के खिलाफ अपने गांव में एक मुहिम शुरू की।

टाइम्स ऑफ़ इण्डिया

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक हरी प्रसाद घर-घर जाकर लड़कियों के माता-पिता से मिले और उन्हें बताया, “अगर लड़कियों और महिलाओं को माहवारी नहीं होगी तो कोई जन्म नहीं लेगा। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसमें कोई शर्माने वाली बात नहीं है।”

इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने लड़कियों की काउंसिलिंग के बाद उन्हें सैनिटरी पैड उपलब्ध करवाये। काउंसिलिंग में लड़कियों को माहवारी से संबंधित साफ सफाई के बारे में बताया गया।

हरी प्रसाद का कहना है, “लड़किया उससे शर्मिंदा होती हैं जिसे जीवन का आधार माना जाता है।”

उनकी इस पहल को सफलता के पंख मिले जब वे यूनिसेफ के प्रोजेक्ट ‘गरिमा’ से जुड़े। इस प्रोजेक्ट के तहत मिर्जापुर, जौनपुर और सोनभद्र में माहवारी के प्रति महिलाओं और लड़कियों को जागरूक किया गया है।

उनके इसी सक्रीय दृष्टिकोण के कारण उन्हें ‘पैडमैन’ के नाम से बुलाया जाने लगा है। जिस पर वे कहते हैं,

“मुझे ‘पैडमैन’ के बारे में कुछ नहीं पता पर गांव के युवा मुझे पैडमैन बुलाते हैं।

हम हरि प्रसाद की इस सोच की सराहना करते हैं और आशा करते हैं कि भारत में और भी गांवों के प्रधान व सरपंच उनसे प्रेरणा लेंगे।


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