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पढ़िए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित विष्णु प्रभाकर की रचित लघु कथा –फ़र्क!

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विष्णु प्रभाकर हिन्दी गद्य साहित्य में एक ऐसा नाम है, जो अपनी कालजयी रचनाओं से सुधि पाठकों, समालोचकों व साहित्य-साधकों के मानस-पटल पर अपनी छाप निरन्तर अंकित करते रहे।

1931ई. में अपनी पहली कहानी ‘हिन्दी मिलाप’ में प्रकाशित करवाने से शुरूआत करके कलम के इस अथक साधक ने अपनी साहित्यिक यात्रा में ‘आवारा मसीहा’ के साथ , ‘अर्धनारेश्वर’, ‘धरती अब भी घूम रही है’ जैसे कई उपन्यास, ‘हत्या के बाद’, ‘प्रकाश और परछाइयाँ’, ‘युगे-युगे क्रांति’ जैसे कई नाटक व एकांकी, कई यात्रा वृत्तांत, ‘पंखहीन’ नाम से आत्म कथा जैसी उत्कृष्ट गद्य रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया।

‘पद्म विभूषण’, ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी सम्मान’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘ सोवियत लैण्ड पुरस्कार’ से सम्मानित विष्णु जी का जन्म उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव मीरापुर में हुआ था। अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही।

1931 में हिन्दी मिलाप में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का सिलसिला शुरू हुआ और फिर वह आठ दशकों तक निरंतर सक्रिय रहें।  नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। बाद में अ‌र्द्धनारीश्वर पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, किन्तु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनका मुकाम अलग ही रखा।

हिंदी साहित्य जगत को एक विशाल और समृद्ध खज़ाना सौंपकर यह महान लेखक 11 अप्रैल 2009 को हम सभी को अलविदा कह गया! उन्होंने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया।

प्रस्तुत है उनकी एक बहुप्रचलित लघु कथा –

फ़र्क!

उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, “उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।”

उसने उत्तर दिया,”जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?” और मन ही मन कहा- “मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में है।”

वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।

उस दिन ईद थी। उसने उन्हें ‘मुबारकबाद’ कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल– “इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।”

इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा– “बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक़्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।”

इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा– “ये आपकी हैं?”

उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया– “जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।”

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सुनिए डॉ. इयन वूल्फोर्ड की आवाज़ में अमर कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी “पंचलाईट”

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हिन्दी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िला के ‘औराही हिंगना’ गांव में हुआ था। पिता के कांग्रेस में होने के कारण भारत की आज़ादी की लड़ाई को बचपन से ही उन्होंने जिया और किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते इसका हिस्सा भी बन गए। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए और उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास ‘मैला आंचल’ प्रकाशित हुआ, जिसे इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात रेणु को शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।

इसके बाद 1966 में आई उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर आधारित फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलवाई। इसके पुरे 51 साल बाद याने कि 2017 में उनके कहानी संग्रह ठुमरी की सबसे मज़ेदार कहानी ‘पंचलैट’ (पंचलाईट) पर भी फ़िल्म बनायीं गयी!

आज इसी कहानी को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे है अमरीकी मूल के डॉ. इयन वूल्फोर्ड!

डॉ. इयन वूल्फोर्ड का शोध प्रबंध फणीश्वरनाथ रेणु और उनके लोकगीतों के बारे में है। डॉ. वूल्फोर्ड ने कोर्नेल विश्वविद्यालय, टेक्सस से हिंदी भाषा और साहित्य में एम.ए. और पी.एचडी (सन 2012 में ) की है। साथ ही वे वहाँ हिंदी भी पढ़ाते रहे। वे सायराक्यूज विश्वविद्यालय, अमेरिका में भी हिंदी के प्राध्यापक रहे। 2014 में वे ऑस्ट्रेलिया चले आये और ऑस्ट्रेलिया के लट्रोब विश्वविद्यालय ( La Trobe University ), मेल्बर्न में हिंदी भाषा और साहित्य के प्राध्यापक नियुक्त हुए।

शोध प्रबंध के सिलसिले में स्वयं वे फणीश्वरनाथ रेणु के गांव पूर्निया (बिहार) में रेणु जी के परिवारवालों के साथ रहे तथा ग्रामीण अंचल की देशज भाषा को सीखा। 

हिंदी में रूचि रखने वाले वूल्फोर्ड का हिंदी की ताकत पर अगाथ विश्वास है। वे इस कथन को झुठलाना चाहते हैं, जो ये समझते हैं कि अकेली अंग्रेजी से भारतवर्ष का काम चल सकता है।

इन दिनों इयन वूल्फोर्ड फणीश्वरनाथ रेणु के गांव से सम्बंधित एक पुस्तक लिख रहे हैं जो हिंदी साहित्य और उत्तर भारतीय लोकभाषा की परम्परा पर है।

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#JusticeForAsifa : पापियों का नाश करने भगवान् आये न आये; आपको ही कुछ करना होगा!

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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

(हे भरतवंशी अर्जुन जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने आपको साकार रूप से प्रकट करता हूँ।)

मैं भगवान् में विश्वास रखती हूँ, अतः गीता में भगवान् श्री कृष्ण के कहे इस श्लोक पर भी मेरा विश्वास था! मेरे मुसलमान और इसाई दोस्त भी मुझे अल्लाह और ईसा मसीह के दुबारा आने की बातें बताते हैं।

पर यदि एक आठ साल की बच्ची का मंदिर जैसी पाक जगह पर कई दिनों तक बलात्कार और फिर निर्ममता से हत्या अधर्म की पराकाष्ठा नहीं है तो अभी और क्या बाकी है?

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

(साधू पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ)

पर यदि आसिफ़ा को निर्दयता से मारने वालों का विनाश करने भगवान् प्रकट नहीं होंगे तो कब होंगे?

10 जनवरी 2018 की दोपहर को आसिफ़ा जंगल से अपने घोड़ो को वापस लाने गयी थी। शाम तक घोड़े तो लौट आये पर असीफ़ा नहीं आई।

17 जनवरी की सुबह असीफ़ा के पिता, कठुआ में बसाए अपने छोटे से घर के बाहर बैठे अपनी बिटिया के बारे में सोच ही रहे थे कि उनका एक पड़ोसी हांफता हुआ उनके पास आया।

असीफ़ा मिल चुकी थी…. गाँव से कुछ दूर ही जंगल में उसकी लाश पड़ी थी!

खोजकर्ताओ का मानना हैं कि इस निष्पाप, निर्दोष बच्ची को कई दिनों तक एक मंदिर में बेहोशी की दवा देकर रखा गया! चार्जशीट के मुताबिक़ इस फूल सी बच्ची के साथ कई लोगों ने कई दिनों तक बलात्कार किया और अंत में उसकी बर्बरता से हत्या कर दी!

खबर सुनते ही असीफ़ा की माँ नसीमा अपने पति के साथ जंगल की ओर बदहवास सी भागी…. “उसके पैर तोड़ दिए गए थे… उसके नाखून काले पड़ चुके थे… उसके हाथों और उँगलियों पर नीले और लाल निशान थे…”

मुझे नहीं पता एक माँ ने यह सब कैसे देखा होगा…

कहते हैं विवाद ज़मीन का था। इलाके के हिन्दू इन मुसलमान चरवाहा गुज्जरों को डरा कर अपनी ज़मीन से निकालना चाहते थे। मुझे हैरत हैं कि इन मुसटंडो को एक आठ साल की बच्ची ही मिली डराने के लिए???

बहरहाल ! गुज्जरों का तो पता नहीं पर वे मासूम असीफ़ा को तो कठुआ की ज़मीन से बेदखल करने में कामयाब रहें!

असीफ़ा को कठुआ में दफ़नाने नहीं दिया गया। उसके पिता को उसकी लाश को उठाकर 7 मील तक चलना पड़ा! तब कहीं जाकर असीफ़ा को दो गज़ ज़मीन नसीब हुई!

जाति, मज़हब, धर्म, तेरी ज़मीन- मेरी ज़मीन …. न जाने ये लड़ाई हमें अधर्म की किस सीमा तक ले जाए। न जाने मानव के बनायें इस जंजाल से बचाने प्रभु आये न आये… पर यदि इन पापियों को सज़ा देनी हैं तो हमें एकजुट होना होगा, हमें मिलकर इनके खिलाफ़ लड़ना होगा।।।

असीफ़ा को इंसाफ़ दिलाने में हमारी मदद करें…. निचे दिए पेटीशन पर हस्ताक्षर कर असीफ़ा को न्याय दिलाएं!

Justice for Asifa

नोट – मैं असीफ़ा की तस्वीर इस लेख के साथ जोड़ रही हूँ क्यूंकि मैं ये मानती हूँ कि ये देश रेप पीड़ितों के लिए इतना सुरक्षित और रेप करने वालो के खिलाफ़ इतना सख्त होना चाहिए कि रेप पीड़ितों को अपनी तस्वीर साझा करने में नहीं बल्कि रेप करने वालो को अपनी तस्वीर साझा होने पर डरना चाहिए! और ये बदलाव आप ही ला सकते हैं!

मेरे लिए असीफ़ा वो शहीद हैं, जो धर्म की लड़ाई की बलि चढ़ गयी, और उनकी तस्वीर से हमारे दिलों में एक बार फिर ‘धर्म की गुलामी से आज़ादी’ की लौ जलनी चाहिए !

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हम वही काट रहे हैं जो बोया है!

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(अ)सभ्यता का आरम्भ/ का अंत’ !

2016 के आँकड़ों के अनुसार औरतों के ख़िलाफ़ जुर्मों को देखें तो 3.27 लाख केस रिपोर्ट हुए थे. अपने देश में प्रतिदिन 106 बलात्कार की घटनायें होती है. ये तो वो हैं जो केस सामने आते हैं. हमारी संस्कृति में जिसके साथ ग़लत हुआ है उसे गन्दा समझा जाता है तो बहुत से माँ-बाप रिपोर्ट करना ही ठीक नहीं समझते कि ऐसा करने से पूरे ख़ानदान की छीछालेदर हो जायेगी. ये मोटी-मोटी बात हुई यौन उत्पीड़न की.

अनाचार तो आपके हमारे साथ प्रतिदिन, प्रतिपल हो रहा है. आवाज़ उस दिन उठाई जाती है जब पानी सर से गुज़र जाता है. हम वही काट रहे हैं जो बोया है. बहुत सा लिखा/कहा जा रहा है तो लम्बी बात न कह कर महज़ पॉइंटर्स दे रहा हूँ:

* न्याय व्यवस्था का रेप
* न्याय व्यवस्था द्वारा रेप

* न्यूज़ मीडिया का पतन. सारे लिहाज ताक पर. शक्तिशाली के झूठ का प्रचार.

* शिक्षण प्रणाली का पतन. शिक्षा व्यवस्था पर हमारे बन्दर सरदारों ने इतने उस्तरे चलाये हैं कि ये कॉर्पोरेट दुनिया के लिए काम आने वाले संवेदनहीन, डरे हुए, किसी भी तरह ज़िंदा रहने वाले, लचीली रीढ़ की हड्डी रखने वाले जाहिल (लेकिन जो अपने आपको समझदार समझते हैं) पैदा कर रही है. ऐसे समाज को दो चार चतुर बन्दर आसानी से हाँक सकते हैं. हम काट रहे हैं जो बोया गया है.

* पुलिस. लोग बेचारे हैं उनके सामने. पुलिस बेचारी है ‘उनके’ सामने.
लॉ एंड आर्डर.. हैं? वो क्या होता है?

* डॉक्टर्स, हस्पताल तो मज़े से लूट रहे हैं. आम आदमी से क़िस्से सुन लीजिये कि किस तरह यह खेल खेला जाता है. रस ले लेकर बताएँगे कि उन्हें कितना कुछ मालूम है. लेकिन क्या किया जा सकता है साहब.. उसे यह भी तो मालूम है कि वह आम आदमी है.

* बिजली, पेट्रोल, तेल, प्याज़, फ़ोन, इंटरनेट, दवाइयाँ बेचने वाले एक अट्टहास लगाते राक्षस की तरह लूट-खसोट मचाये हुए हैं. कोई क्या कर सकता है.. शायद क़िस्मत ख़राब है सोच कर पहली ऊंगली में पुखराज पहन लेते हैं लोग. बड़े सादा हैं हम हिंदुस्तानी, भोले हैं इसीलिए कोई भी उल्लू बना ले, बस इतना करते हैं कि कहीं भी कचरा फेंक देते हैं, एम्बुलेंस को रास्ते पर जगह नहीं देते हैं और कोई देख नहीं रहा हो तो अपनी बेटी की सहेली के सर पर प्यार से हाथ फेर देते हैं..

* सियासतदार / धर्म / धर्मगुरु – इस मामले में समझदारी दिखा कर कुछ नहीं कहूँगा. किसी को बुरा लग गया तो आजकल मार ही डालते हैं ये लोग.

* सरकारी बाबूगिरी की बात करते हैं. उसी परम्परा को ग़ैरसरकारी संस्थान बढ़ा रहे हैं. कभी फ़ोन के बिल के लिए कंपनी को फ़ोन किया है??

* सोशल मीडिया का ज्ञानियों द्वारा रेप
सोशल मीडिया का अज्ञानियों द्वारा रेप
सोशल मीडिया द्वारा ज्ञानियों अज्ञानियों का रेप
इस बीच सोशल मीडिया अपना प्रोडक्ट बेचने, फ़िल्में, NGO, प्रमोट करने का सबसे कारगर साधन बना.

इन सबके बावजूद भी कुछ बात तो है कि ‘हस्ती मिटती नहीं हमारी’ – ऐसा वो लोग कह रहे हैं जिनकी आँखें बंद हैं. क्योंकि आज के हालातों से तनावग्रस्त है तो जनाब आप ध्यान लगाना शुरू करें. ऊपरवाले से जुड़ें, दीन-दुनिया में क्या रखा है भला? ख़ुश रहो यार – पॉज़िटिव ऐटीट्यूड रखो यार – च्यवनप्राश खाया करो – बैडमिंटन खेला करो – तुम हो हो ही ऐसे कुछ अच्छा देखना ही नहीं चाहते.तो ये अपना हाल है उधर जितने NRI हैं उनसे भारत में आ गए राम-राज्य पर निबंध लिखवा लो (हाँ अब उन्होंने अपना पैसा भारतीय बैंकों में रखना या यहाँ व्यापार में पैसा लगाना अब बंद कर दिया है). घर घर चर्चाएँ हैं लेकिन वो किसी मज़हब-वजहब, नागिन-डाँस, मेथीदाने से स्वाथ्यलाभ, सब्ज़ीवाले के कमीनेपन जैसे विषयों पर हैं.
दबी आवाज़ में पड़ोसी की बेटी का भी ज़िक्र आ जाता है कि नामुराद शॉर्ट्स में ही मुहल्ला घूम लेती है.. बाक़ी देश में बेटियाँ बचाई जा रही हैं, इतिहास संजोया जा रहा है, और सब मिलजुल कर भविष्यनिर्माण में लगे ही हुए हैं.. .

वाssssह, लोग कितने ख़ुश हैं!
चिरंतन उत्साहसिक्त
विजयगाथाओं की प्रतिध्वनियाँ
निरंतर प्रयासधर्मी
राजे, महाराजे, उनके मंत्री और नगरसेठ
उनके चिंतक और फ़लसफ़ाकार
छेड़ते (समझदारी भरे) सवाल राग
देते उनके जवाब भी.
उनके निर्माणाधीन सिद्धांतों के दिलक़श तखय्युल
उनके कवि लिखते गौरव-काव्य
राजगायकों के सधे गले के लिए
प्रजातंत्र की थिरकन
सभ्यता की पराकाष्ठा के गीत
नौकर-मालिक की प्रीत
सबकी चादर साफ़ – स्फ़ीत
मनुष्यता की, सभ्यता की, जीत भाई जीत!
‘ये देखो मेरा अाइफ़ोन’ पुकारता कोई
‘ये मेरा ब्रांड, ये मेरा कांड’ की प्रतिध्वनियाँ – प्रचंड
प्रचंड उत्साह, कर्मठ ठेकेदार
समाज के सुनार
हुनरमंद. तल्लीन. गढ़ते देश, समाज
परहित, परमार्थ सेनापतियों के काम-काज
वाssह, लोग कितने ख़ुश हैं!
संवेदनशील समाज से
बेसाख्ता हाथ अाये सुराज से….

ये एक कविता के अंश हैं जिसका शीर्षक है ‘(अ)सभ्यता (का आरम्भ) का अंत’
इसके वीडियो के लिए क्लिक करें: https://youtu.be/ozklAl2rZs0


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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वीडियो : गली क्रिकेट में धूम मचाते क्रिकेट के भगवान् ‘सचिन तेंदुलकर’!

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क्रिकेट का जादू तो आज भी हम भारतीयों के सर चढ़ कर बोलता है, पर एक चीज़ की कमी है जो हम सबको आज के क्रिकेट में खलती है! वो है सचिन की बल्लेबाज़ी!

वो धुआंदार छक्के की बारिश, वो ‘सचिन….. सचिन’ से गूंजता स्टेडियम! सचिन की तो हर बात निराली थी। इसीलिए तो उन्हें ‘गॉड ऑफ़ क्रिकेट’ याने क्रिकेट का भगवान् कहा जाता है।

पर सचिन की भी शुरुआत वही से हुई थी जहा से हमारे देश का हर बच्चा क्रिकेट खेलने की शुरुआत करता है।  जी हाँ! हम बात कर रहे है गली- क्रिकेट की!

हाल ही में एक बार फिर सचिन को गली क्रिकेट खेलते देखा गया और क्यूंकि सचिन जो भी करते है वो ख़ास होता है इसलिए ये वीडियो भी ख़ास बन गया और सोशल मिडिया पर इसने धूम मचा दी!

आईये आप भी मज़ा लीजिये सचिन की गली क्रिकेट का –

FEATURED IMAGE COURTESY: FLICKR

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क्या आपका विश्वास सरकारी अधिकारीयों से उठ चूका है? तो आपको हरदोई के डी.एम और इस 6 साल के बच्चे की कहानी ज़रूर पढ़नी चाहिए!

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देश में पिछले कुछ दिनों से निराशा और नाउम्मीदी का माहौल है। कठुआ, उन्नाव और अब एटाह में घटी बच्चियों के बलात्कार की घटनाओं ने इंसानियत पर से विश्वास उठा दिया है।  साथ में कठुआ में हुए दुराचार में पुलिस अधिकारियों की मिली-भगत की ख़बर की वजह से आम भारतीय नागरिको का सरकारी अधिकारीयों पर से भी भरोसा उठ गया है।  पर ‘द बेटर इंडिया’ में हम हमेशा आपको भारत की वो तस्वीर दिखाते है जिसे मिडिया अक्सर नज़रंदाज़ कर देता है।  आज भी हम आपको एक ऐसे सरकारी अधिकारी के बारे में बताएँगे जिनके बारे में सुनकर आप एक बार फिर भारत के बेहतर भविष्य की उम्मीद कर पाएंगे!

यह अधिकारी है उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के डी.एम (जिलाधिकारी ) पुलकित खरे।  डी.एम साहब के कार्यालय में इसी महीने की 12 तारीख़ को एक नन्हा अजूबा आया, जिसने उन्हें इतना प्रभावित किया कि खरे साहब ने उस बच्चे की आगे की पढ़ाई का पूरा ज़िम्मा अपने सर ले लिया।

यह बच्चा था भानु, जो कि एक रिक्शा-चालक का 6 साल का बेटा है। भानु अपने गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ता है और आज तक कभी गाँव से बाहर नहीं गया।  उसके पिता केवल दूसरी तक पढ़े हैं पर अपने बेटे को बहुत आगे तक पढ़ाना चाहते हैं।

इस बच्चे के ज्ञान के कायल डीएम साहब तब हुए जब उसने 13,17,23,27,33,37 के पहाड़े एक ही सांस में बोल और लिख डाले।

इसके बाद डी.एम साहब ने उसकी पढ़ाई का पूरा खर्च उठाने की ठान ली।

इस प्रेरणात्मक घटना को डी.एम पुलकित खरे ने अपने फेसबुक के पेज पर साझा किया और लिखा –

“कुछ दिन मेरे खाते में भी ऐसे होते हैं,जब सर्विस की कुछ मजबूरियाँ परेशान करती हैं,हैरान करती हैं और घुटन की कगार पर ले जाती हैं।

कल कुछ ऐसे ही पल थे……पर…..

आज फिर कुछ ऐसा हुआ…….

माननीय गवर्नर महोदय के कार्यक्रम से थका जब मैं लौटा,तो एक प्रधान जी ने 2 मिनट के समय की मांग की,किसी से मिलवाना चाहते थे वो,व्यस्तता के कारण उन्हें शाम को आने को कहा। जिद्दी प्रधान जी आ भी पहुँचे शाम को,कुछ झुंझलाहट से उसे दिन भर की थकान के बाद भी बुलाया।क्या पता था कि वो मेरे कार्यकाल की अब तक की सबसे मीठी मुलाक़ात करायेंगे….

6 साल का वो बच्चा,कुछ डरा,कुछ सहमा,अपने पिता की उंगली थामे,प्रधान जी के साथ ऑफिस में मेरे पहुंचा।

जब उसके पिताजी रिक्शा चलाने जाते हैं तो वो सरकारी प्राथमिक पाठशाला में शिक्षा के पहिये बढ़ाता है।

6 साल की जादू की पुड़िया ने फिर दिखाया ऐसा धमाल,दंग था मैं देखकर पहाड़ों(Tables) का अद्भुत कमाल।
मैं पूछता गया,वो सुनाता गया। देखते-देखते उसने सुनाकर लिख डाले 13,17,23,27,33,37 के पहाड़े,बिना रुके,बिना सोचे।

फिर गिनतियाँ और ABCD.

एक बच्चा जो कभी अपने गाँव से बाहर नहीं गया।
ललक दिखी शिक्षा की उसकी आँखों में
एक आस दिखी,तोड़ नहीं सकता जिसे।

सलाम है उन प्रधान जी को,जो जरिया बने।
सलाम है उस पिता को,जो स्वयं दूसरी तक पढ़ा है,पर बच्चे को रोज पढ़ाता है,उस लौ को रोज़ जलाता है।

आज गवर्नर, दो MLA,दो बड़े अधिकारीयों से मुलाकात हुयी, कुछ बात हुयी,क्या बात हुयी,शायद भूल जाऊं कुछ महीनों में।
पर भानू से ये मुलाकात,है ईश्वर की सौगात।

अब भानू की शिक्षा की ज़िम्मेदारी लेने का ठाना है, ईश्वर भानू और मुझे शक्ति दे।

हाँ, खराब दिन जरूर आते हैं,पर इस सर्विस के कारण उम्मीदों को सहारा दे पाने का जरिया बनना,उसकी इनायत नहीं तो और क्या है…..

इतनी शक्ति हमें देना दाता…..”

 

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इक इश्क़ की कहानी !

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जैसे कि होता है वैसे हो गया.
जैसे लगता है वैसे लग गया कि ‘इश्क़ है’.

मेरा मतलब, ‘शायद’ इश्क़ है.
मतलब, इश्क़ ‘सा’ है,
अरे नहीं, मेरा कहना है कि इश्क़ ही है.

ये इश्क़ होता है?
या लगता है इश्क़ हुआ है?

इश्क़ की पहली मुलाक़ातें..
लव-मैरिज के तीन साल बाद का इश्क़..
सत्तर साल के उनका और अढ़सठ की उनका का इश्क़
मीठी, सत्रह की झुनका का इश्क़
छब्बीस के चन्दर का इश्क़

क्या प्रेम हर जगह एक सा होता है?
क्या सभी एक सी गहराई (और ऊँचाई) से प्यार कर पाते हैं?
उसके बिना रह न पाना प्यार है?
उसका दुःख अपनाना प्यार है?
क्या दोनों एक दूसरे को दुःख का इमोशनल डोज़ नहीं देते?

इस बात पर प्यार के मनोविज्ञान को दर्शाता जॉन एलिया का एक शे’र समाअत फ़रमायें  –

“तुम मेरा दुःख बाँट रही हो, मैं दिल में शर्मिंदा हूँ
अपने झूठे दुःख से तुमको, कब तक दुःख पहुँचाऊँ मैं”

कई उस्ताद लोग दिल खोल के वाहवाही देंगे इस शे’र को!

चचा ग़ालिब भी बड़बड़ा के गए हैं कि ठीक है भई ‘इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही’.

शायद यही कुछ लगा होगा उसे भी जब एक दिन वो पधारीं और यूँ ही बेख़याली से तलब कर लिया कि क्या कर रहे थे.

‘कुछ नहीं, यूँ ही बैठा था तुम्हारी और अपनी चाय बना कर और तुमसे बातें कर रहा था’
उसने हँस के कहा, ‘सच कहो न क्या कर रहे थे?’

‘तुमसे बातें!’

‘कौन सी?’

‘वही जो अभी हो रही हैं’

‘हा हा.. आर्टिस्टिक बन रहे हो’

‘नहीं रोमैंटिक’

‘अच्छा ठीक है रोमैंटिक सही’, वो शोखी से हँसी, ‘इसलिए बातें बना रहे हो’

‘बातें बना नहीं कर रहा था. तुमसे. तुम थीं.’

‘फिर मेरी चाय का क्या हुआ?’ चेहरा सपाट हुआ.

‘ओह वो.. वो तो मैंने पी ली. अपनी भी, और तुम्हारी भी.’

ऐसी बहुत सारी बातें हमारे बीच आये दिनों होती रहीं….

अपने गाँव का एक चक्कर मार कर आया, वो मिली तो उसे बताया कि उसके साथ ही गया था.
वो ऑफ़िस में थी तो उसे फ़ोन पर बताया कि वो मेरे साथ सब्ज़ियाँ ख़रीद रही है.
कैसे उसके न होते हुए उसने माथे पर बाम लगाया था. कैसे हम दोनों ने एक गाना लिखा था.
वक़्त गुज़रा…जुनून गुज़रा…

जाते हुए उसने कहा कि…

‘जाना तो नहीं चाहती लेकिन जा रही हूँ क्योंकि तुम्हें मेरी ज़रुरत ही नहीं है’

मेरा समझाना नाकाम रहा… कि उसी की वजह से हर मौसम, हर गाने, हर काम में रस आ रहा है, हर ख़याल भा रहा है, वक़्त अब रक्स करता जा रहा है.

‘तुम अपनी फैंटेसी में रहते हो, मैं हक़ीक़त में.’ उसकी आँखें गीली थीं और हाथ ठण्डे..

उस ज़माने में सरदार जाफ़री की यह नज़्म मेरे जीवन में होती तो उसे ज़रूर सुनाता –

तुम नहीं आये थे जब, तब भी तो मौजूद थे तुम
आँख में नूर की और दिल में लहू की सूरत
दर्द की लौ की तरह, प्यार की ख़ुशबू की तरह
बेवफ़ा वादों की दिलदारी का अन्दाज़ लिये..

NDTV की नग़मा सहर ने बड़े दिल से इसका पाठ किया है, उन्हीं की ज़ुबानी सुनिए 🙂  


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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इतवार के इतवार ज़िन्दगी!

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“इतवार कब फिसल गया?
पता ही नहीं चला
थक कर लौटती हो तुम
टूट कर गिरा रहता हूँ मैं”

तुम्हारा 26वाँ जन्मदिन था, मैंने छुट्टी ली थी. सुबह से शाम तक का वक़्त सिर्फ़ तैयार होने में खर्च किया था. और शाम को बाहर जाते समय आख़िरी मिनट में फिर से ड्रेस बदल ली थी. उस रात रेस्टॉरेंट के बाहर सड़क पर ही तुमने जो किस किया था.. उफ़्फ़! मेरा शरीर किस कदर थरथराया था देर तक. और मैं पानी बन कर बह गयी थी. उसके तीन महीने बाद ही तो अपनी शादी हो गयी थी.. लगता है जैसे कल की ही बात है.

आज तुम्हारा 29वाँ जन्मदिन है, सुबह से ऑफ़िस में भागादौड़ी, तनाव है. कल रात सब देर तक काम कर रहे थे. मेरा सर ज़ोर से फट रहा है. ऊपर से चिन्ता है कि तुम्हारे लिए तोहफ़ा लेना है. अपराधबोध भी है थोड़ा कि.. निःश्वास….

* * *

“माँ आ रही है, डॉक्टर को दिखाना है, हफ़्ते भर रहेंगी”

“अरे वाह! हफ़्ते भर अच्छा खाना बनेगा”

“डॉक्टर को दिखाने आ रही हैं.. तुम्हारी चाकरी के लिए नहीं”

“अच्छा अच्छा. मैं दो दिन छुट्टी ले सकता हूँ, बताना जैसे भी हो, बाय!”

“बाय, लव यू”

[कविता ज़ारी]

“किसी दिन जब हम ऑफ़िस जाने की जल्दी में थे
खिड़की से गौरैया ने खटखटा कर दी थी आवाज़
हड़बड़ी में हम छोड़ आए चलता पंखा
शाम उसके पंख बिखरे मिले घर में खून से लथपथ
अब हमारी खिड़की बंद रहती है”

जीवन जीने का एक तरीक़ा यह भी है कि छोटे-मोटे हादसों में कोई गौरैया जैसा सपना दम तोड़ता रहता है और हम घबरा कर खिड़की बंद कर देते हैं. कई बार तो हमें पता ही नहीं चलता कि कौन सी खिड़की बंद कर दी गयी है. खिड़कियाँ बंद करते हुए हम आगे बढ़ जाते हैं जीवन की शाहराहों पर. बेख़बर, कि क्यों चल रहे हैं. आख़िर कहाँ जाना है?

हम चल रहे हैं क्योंकि वे सब चल रहे हैं
वे चल रहे हैं क्योंकि हम सब चल रहे हैं
पढ़े-लिखे हैं, इसीलिए भेड़ कहाना पसंद नहीं करते.

नहीं चलें तो?
अब इतने बड़े प्रश्न से जूझने का समय नहीं है हमारे पास.

[‘पाश’ की एक कविता का अंश]

“घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आँख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है”

कल इतवार है.. इसे फिर से फिसलने देंगे?

अगला हफ़्ता? वो तो दोहराव के क्रम में ही डूबेगा न?

जीना तो सिर्फ़ इतवार के इतवार होता है न?

आपकी ज़िन्दगी है.. इसे बेख़याली में फिसलने दें. जाग गए तो दिक्कत है.

और इस वीडियो को तो न ही देखें, कहीं आपका आईना न निकले :


लेखक –  मनीष गुप्ता

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देखिए सत्यजीत रे की लिखी लघु-कथा पर आधारित फ़िल्म –‘अनुकूल’!

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सत्यजीत रे की फिल्मों से मेरा प्रथम परिचय ‘गुपी गाइन, बाघा बाइन’से हुआ था। उस वक़्त एक किशोरी होने के नाते इस फ़िल्म की जादुई दुनिया में मैं इस कदर खो गयी थी कि भूतों के राजा पर मेरा विश्वास भगवान से भी बढ़कर हो गया था।
इसके बाद शोनार केला और फेलूदा ने सत्यजीत रे की अजब गजब कहानियों से जोड़े रखा।
उनकी कहानियां बेशक कल्पनाओं की चरम सीमा पर पहुंचा देती हो पर उनका आधार हमेशा मानवीयता से ही जुड़ा होता था।
ऐसी ही एक काल्पनिक कहानी है अनुकूल की, जो उनकी साइंस-फिक्शन जॉनर की एक लघु कहानी है।
1976 में लिखी गयी इस कहानी पर सुजॉय घोष ने एक शार्ट फ़िल्म बनाई है।

सत्यजीत रे की इस अद्भुत लघुकथा पर आधारित इस फिल्म का नाम भी ‘अनुकूल’ है।
फिल्म की कहानी एक शिक्षक की है जो अपनी जिंदगी को आसान बनाने के लिए ‘अनुकूल’ नाम के रोबोट को घर ले आते है।
फिल्म में जिस रोबोट को खरीद कर वो किसी की नौकरी छीन लेते हैं, वैसे ही एक दिन किसी रोबोट की वजह से उनकी नौकरी छीन ली जाती है।

हैरानी की बात यह है कि टेक्नोलॉजी की चरम सीमा पर पहुंचकर जिन बातों का डर हमें आज सता रहा है, उस डर को, उस खतरे को सत्यजीत रे आज से 42 साल पहले ही भांप चुके थे।
फिल्म में बताया गया है कि टेक्नोलॉजी हमारी चेतना को किस तरह कृत्रिम चेतना में बदलती जा रही है। तो आइए हमारी इस जटिल मनोविज्ञान को समझने के लिए देखते है ‘अनुकूल’ –

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बाबा बुल्ले शाह दा टूथपेस्ट!

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“ओये बुल्लया तू किस बात का बाबा है?”
“ये कौण सा सवाल हुआ प्रा?”
“ना तेरे ब्राण्ड दा आटा-नमक, ना कच्ची घाणी का सरसों दा तेल, ना कोई शैम्पू.. ये जो कमली कमली गा के तूने इन्ना वड्डा ब्राण्ड खड़ा किया है वो किस काम दा”
“ब्राण्ड..?”
“होर की? तैन्नू पता है लंदन से ले के कनैडा तक, दिल्ली से कोलकाता तक लोग तेरे गाने, रीमिक्स ते मैशअप बना के आज तक बजा रहे हैं. पाँच सितारा सूफ़ी मंदिरों में तू सबसे वड्डा सूफ़ी बना कर पूजा जांदा है. क्या तू सोया रहेगा? क्या तेरा कर्तव्य नहीं है कि तू देश के लिए खड़ा हो.. कुछ करे समाज दे वास्ते.. सोच जब बुल्ले शा दा घी खाके नयी पीढ़ी बुल्ले शा दी आयुर्वेदिक जींस पहन के बाहर निकलेगी तो क्या ही शान होगी..

फ़ाज़िल दोस्तो,

आप ही कहें ये बुल्ला पड़ा पड़ा ‘कमली हाँ’ ‘कमली हाँ’ (मैं पागल हूँ) करता रहता है. उधर बाबा लोग देश समाज के भले के लिए पता नहीं क्या क्या कर रहे हैं. गए ज़माने जब रब का नाम, आत्मा-परमात्मा की बातें करना बाबा लोगों का काम था. एकनाथ जैसे का क्या हुआ.. पुरंदरदास? घूम घूम के गाते गाते क्या उखाड़ लिया? एक यूनिवर्सिटी छोड़ के गए? एक फाउंडेशन जो सॉलिड PR के साथ दुनिया का भला करे?

बुल्ले नू समझाओ लोगों. ऐन्नु समझाओ. ऐसे कोई काम चलता है भला?

आज का बाबा ज़्यादा ज़िम्मेदार है. उसे चिंता है कि देश के बाल मुलायम हों, देश के पास इम्युनिटी बूस्टर्स हों, वेट-लॉस करने का साज़ो-सामान हो. शिशु-केयर डायपर के बिना कैसे पीढ़ी पनपेगी.. और नूडल्स?? हाँ नूडल्स.. क्या बाबा के रहते कोई माई का लाल विदेशी नूडल्स खायेगा? बताइये भला सच्चा बाबा तो ये हुआ न जो ज़मीनी हक़ीक़त को मद्देनज़र रखता हुआ ..आपकी ऑयली त्वचा के लिए क्रीम-श्रीम बनाये न कि बुल्ले की तरह पड़ा पड़ा रोटियाँ तोड़े और बड़बड़ाता रहे ‘बुल्ला की जाणा, मैं कौण?’ (बुल्ला क्या जाने कि वह कौन है).

भैणों, परजाईयों!
इक्क वारि फिर बुल्ले नू समझावण जाओ तुस्सी. पता है पता है तुम्हारी नहीं सुनता पर इक्क कोशिश होर कर लो. की जांदा है? बुल्ला कहीं मान गया तो सिर्फ़ म्यूज़िक राइट्स से पूरे पिंड के वारे-न्यारे हो जायेंगे.

समझाओ इसे अब आत्मा परमात्मा, इल्म-उल्म की बातें तज दे.. अब अलग ज़माना है. आज की जनता अपने बाबा लोगों के किये बलात्कार सह लेती है.. उनकी सियासी महत्वाकांक्षाओं पर सवाल नहीं उठाती.. उनके बेलौस व्यापारीपने के बावजूद मौक़ा पाते ही मत्था टेक आती है उनकी चौखट पर.. इतनी उर्वरा भूमि कभी और मिलेगी बुल्ले को? आप ही दस्सो परजाईयों इतनी मूर्ख जनता मिलेगी कभी?? वैसे उम्मीद तो नहीं है लेकिन कभी बहुत ही निचले स्तर की समझदारी भी आ गयी इन लोगों में और बाबा लोगों से सूफ़ी-संत वाली अपेक्षाएँ रखने लगे तो? तो??

अभी वक़्त है.. जगाओ बुल्ले नू!

* * *

“सर! सर!”, डिपार्टमेंटल स्टोर में एक सेल्स वाला बंदा पीछे से दौड़ कर आया. कमीज़ पर बड़ा सा श्री-श्री का लोगो था.

“भई मेरे पास शराब और यूट्यूब है, मुझे आर्ट ऑफ़ लिविंग की ज़रुरत नहीं.”, मैंने उससे छुट्टी चाही.

“हे हे”, उसने खीसें निपोरीं, “सर, वो तो मैं भी नहीं करता. आपने पातञ्जलि का टूथपेस्ट लिया है आप ये आज़मा के देखिये”
उसने श्री-श्री आयुर्वेद का टूथपेस्ट आगे किया.

‘हैं? इनसे रहा नहीं गया..कितनी परेशानी होती होगी न इन्हें बाबा रामदेव की फलती दूकानदारी देख कर. क्या बातें होती होंगी इनके आध्यात्मिक हेड-क्वार्टर्स में? ‘सर’ कहते होंगे इन्हें? किस तरह की योजनायें बनायी जाती होगीं?
क्या वे कहते होंगे कि कोलगेट के 52% मार्केट शेयर को 2017 में 2.2% से 6.2% तक पहुँचा कर रामदेव जी (जी लगाते होंगे, या ‘उनके’ कह कर काम चलता होगा?) के टूथपेस्ट ने तगड़ा झटका दिया है.. अपन इसी प्रॉडक्ट पर ज़ोर रखते हैं ..

“ये क्यों आज़माऊँ? क्या अंतर है दोनों में?”

“ये देखिये, इस पर लिखा है यह शत-प्रतिशत वेजिटेरिअन है”

“अच्छा, तो क्या ये वाला नहीं है?”

“नहीं सर वो भी होगा.. अब सर मेरी नयी नौकरी है.. आप ले लीजिये न, इस पर अभी सोलह रुपये की छूट भी है”

अब उस बेचारे की नयी नौकरी थी (छूट थी) इसलिए मैंने टूथपेस्ट ले लिया और ये सोचता हुआ निकल गया कि बाबा बुल्लेशाह के टूथपेस्ट का क्या नाम होता.

* * *

बाबा बुल्लेशाह से परिचित हो जाइये विनोद दुआ के ज़रिये.. ये गायक नहीं हैं, लेकिन दिल से गाया है तो दिल में उतरता है. लिंक : https://youtu.be/j_itDaPEAlc


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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शहर की अच्छी-ख़ासी नौकरी छोड़ गाँव में स्मार्ट किसान बन गया यह युवक!

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देश के अलग-अलग हिस्सों के किसानों की कहानी सुनाना चुनौती भरा काम है और खासकर तब जब देश भर में किसान लगातार संघर्ष कर रहे हैं लेकिन इन सबके बावजूद किसानी के पेशे में हर जगह कुछ न कुछ सकारात्मक भी हो रहा है। कोई शहर की चकमक जिंदगी को छोड़कर गांव में खेती करते हुए नई दुनिया रच रहा है तो कोई हर रोज शहर से गांव किसानी करने जा रहा है। ये सारी कहानियां हमें बताती हैं कि अब पेशेवर किसान बनने का वक्त आ गया है।

खेती-किसानी की इन्हीं सब बातों के तार जोड़ते हुए मेरा परिचय राजस्थान के युवा अखिल शर्मा से होता है। अखिल की एक बात जो मेरे मन में बैठ गई, वो है-  “किसानी करना इस संसार का पोषण करना है।“

तीस साल का युवा, जिसने मुंबई की चकमक दुनिया किसानी के लिए छोड़ी, जिसके पास आर्थिक रुप से सबल होने के लिए ढेर सारे रास्ते खुले थे, लेकिन उसने मन की सुनी और अपने किसान पिता के बताए रास्ते को अपनाया।

अखिल शर्मा

‘द बेटर इंडिया’ के ‘किसान की आवाज’ श्रृंखला में आज हम आपको राजस्थान के झुन्झुनू जिले के चूड़ी अजीतगढ़ गांव की सैर करा रहे हैं। दरअसल हमारे आज के स्मार्ट किसान अखिल शर्मा का ताल्लुक इसी गांव से है। अखिल से सोशल मीडिया के जरिए जुड़ाव होता है और फिर हम आभासी दुनिया से निकलकर बाहर आते हैं और बातचीत होती है।

अखिल बताते हैं- “ गांव से पढ़ाई पूरी करने के बाद जब मैं शहर गया तो मुझे पूरे दिन में अगर किसी चीज की सबसे अधिक याद आती थी तो वह था मेरा खेत। जानते हैं इसकी वजह क्या थी? इसकी वजह थी कि शहर में भोजन के टेबल पर मुझे जो कुछ मिलता था, वह सब मिलावटी और रासायनिक खाद से जुड़ा था जबकि गांव में सबकुछ कूदरती है, सबकुछ जैविक। “

अखिल बताते हैं कि वाणिज्य से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे नौकरी के लिए मुंबई पहुंचे। वहां दो साल काम किया लेकिन मन गांव में ही लगा था।

उन्होंने कहा- “ मां –बाऊजी ने मुझे खेत से इसलिए दूर रखा था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि जो कष्ट उन्होंने खेती बाड़ी में सहा है वह मैं भी झेलूं। वे नहीं चाहते थे कि मैं किसानी में जो परेशानी होती है, उसका सामना करुं। इसके लिए उन्होंने मुझे स्नातक के बाद फैशन टेक्नोलॉजी में चंडीगढ़ से डिप्लोमा कोर्स भी करवाया। फिर मैंने भी कंप्यूटर की भी पढ़ाई की। वे चाहते थे कि मैं नौकरी करुं और खेती बाड़ी की झंझट से दूर रहूं लेकिन सच कहूं तो मेर मन खेत से जुड़ा था और मन में विश्वास था कि किसानी करते हुए एक दिन मैं बाऊजी का सहारा बनूंगा।”

मुंबई, चंडीगढ़, जयपुर करते हुए एक दिन अखिल फैसला करते हैं कि वे भी अब खेत को समय देंगे लेकिन पेशेवर के तौर पर। पिता शंकर लाल शर्मा आखिर अपने बेटे की बात मान लेते हैं। और यहीं से अखिल की असली चुनौती भी आरंभ होती है। अखिल ने बताया कि 2014 में उन्होंने एक कार्ययोजना बनाकर खेती-किसानी की दुनिया में कदम रखा। खेती के लिए उपयुक्त जमीन, पानी और तकनीक का ज्ञान हासिल कर अखिल खेत में जुट गए। वे लगातार किसानों से संपर्क में हैं। उनसे बात कर जानकारी हासिल करते हैं।

वे बताते हैं- “कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने से अच्छा है कि किसानों से बात की जाए। खेत में क्या अच्छा हो सकता है, यह बात मुझे किसान और बाऊजी से बढियां कोई नहीं बता सकता है।”

खेती के पेशेवर तरीके की बात जब युवा अखिल करते हैं तो एक किसान के तौर पर मेरा मन खुश हो जाता है। वे बताते हैं कि यदि पांच एकड़ खेत को पांच हिस्से में बांट दिया जाए और एक एकड़ में फूल, फल, टिम्बर लगाए जाएं, वहीं एक एकड़ में सब्जी औऱ मसाला उगाया जाए। इसके बाद बचे तीन एकड़ में क्रमश: अनाज और दलहन, मवेशी के लिए चारा और मधुमक्खी पालन और बचे एक एकड़ में जैविक खेती और ग्रीन हाउस का निर्माण यदि किसान करे तो 12 महीने लागातार एक किसान पैसा कमा सकता है। अखिल का यह व्याकरण काफी ही रोचक है और यदि कोई किसान के जिसके पास कम से कम पांच एकड़ जमीन हो, वह इस विधि  से खेती करे तो एक खुशहाल जीवन बिता सकता है।

अखिल खेत में क्या कर रहे हैं…

अखिल बताते हैं कि वे इन दिनों 12 बीघे में करीब 900 नीम्बू, 250 माल्टा ( संतरा प्रजाति का फल), 250 किन्नू, और 75 चिकू के पौधे लगा चुके हैं। उन्होंने बताया कि उनका पूरा जोर फलदार पौधे लगाने पर है और वे आगे जाकर औषधीय पौधे की भी खेती करेंगे।

और चलते-चलते अखिल शर्मा से जब हमने पूछा कि आपके लिए किसान क्या है? तो उन्होंने कहा-

“किसान संतोषी और परहितकारी होता है, यह मैंने अपने बाऊजी को देखकर समझा है। ये दोनों सदाचारी प्रवृति इस दुनिया के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है। मेरे लिए किसानी की दुनिया इन्हीं दो शब्दों में सिमटी है।“

संपादन – मानबी कटोच

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एक दर्जन से ज़्यादा कर्मचारी, लाखों का टर्नओवर –कहानी राजनांदगांव के टीकम पोहा वाले की!

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प सभी ने कुछ दिनों पहले पुणे के येवले टी हाउस के बारे में पढ़ा होगा, सुना होगा कि एक चाय वाला महीने के 12 लाख रुपये कमाता है और बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार भी प्रदान कर रहा है, कुछ ऐसी ही कहानी है छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के टीकम साहू की! वो कहते है न हुनर और मेहनत शहर और गांव की मोहताज नहीं होती I टीकम पोहे वाला, जिसे गठुला पोहे, राजनांदगांव के नाम से भी जाना जाता है, इसी कहावत को साकार करते हैं।

संघर्ष में बिता टीकम साहू का बचपन

टीकम साहू का बचपना बेहद ग़रीबी में बीता, अपने पिता के साथ बचपन में खेती-किसानी करते और साथ में स्कूल की पढ़ाई भी करते। आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। घर ख़र्च और अपने भाइयों की स्कूल की फ़ीस के लिए टीकम ने महज़ ₹200 प्रति माह में एक मेडिकल शॉप में नौकरी कर ली! ये दिन तो किसी तरह बीत गए पर टीकम अब कुछ अपना काम करना चाहते थे।

राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ से 5 किलोमीटर की दुरी पर एक छोटा सा गांव है – गठुला, 15 साल पहले टीकम ने वहां एक छोटे से पान ठेले की शुरुआत की, उन दिनों पान ठेले से ज़्यादा आमदनी तो नहीं होती थी लेकिन घर खर्चे का बंदोबस्त हो जाता था I जब भी कोई राहगीर, मजदूर या फिर कोई धन्ना सेठ पान ठेले में रुकता तो जरूर पूछता था कि भाई साहब आस – पास अच्छा गरम नाश्ता कहा मिलेगा लेकिन अच्छी नाश्ते की दुकान न होने के कारण टीकम कुछ नहीं कहताI

इस बात को अवसर मानकर टीकम ने गरम पोहा बनाना शुरू किया और लोगों को गर्म पोहे का स्वाद पसंद आने लगा I पोहे की बिक्री से आमदनी तो बढ़ी और टीकम को संतुष्टि भी मिलने लगी I

कई बार तो विशेष रूप से शहर से लोग चलकर आते गठुला का पोहा खाने लेकिन सन 2000 में उभरते हुए इस व्यवसाय को एक बड़ा धक्का लगा, निगम के अतिक्रमण के तहत उस छोटे से टपरी को क़ानूनी तरीके से तोड़ दिया गयाI

दुकान का टूटना टीकम के लिए बहुत बड़ी क्षति थी लेकिन फिर भी टीकम ने चुनौतियों के आगे घुटने नहीं टेके, अपनी थोड़ी सी जमा -पूंजी से टीकम ने पास ही में एक दुकान खरीदी और फिर से पोहे का व्यवसाय शुरू किया।

धीरे – धीरे इस छोटे से गांव का पोहा आस पास के इलाको में प्रसिद्ध हो गया और लोग रायपुर, दुर्ग, खैरागढ़, कवर्धा से आने लगे। इसके बाद टीकम ने कभी पलट कर नहीं देखा ! वर्तमान में टीकम अपने भतीजे हेमलाल के साथ इस होटल का संचालन करते है एवं 15 से ज़्यादा लोगों को रोजगार प्रदान करते है I समय की मांग के अनुसार अब टीकम पोहे के साथ साथ समोसा, आलू भजिया, मुंग बड़ा आदि नाश्ता भी बनाते है I पोहे सेंटर का बखूबी संचालन कर टीकम ने पैसा और इज़्ज़त के साथ-साथ लोगों का प्यार भी कमाया I

एक-एक करके टीकम साहू ने 15 साल के भीतर में टीकम मेडिकल, टीकम स्वीट्स, टीकम ट्रेवल्स एवं टीकम रेस्टोरेंट की शुरुआत की और व्यापार जगत में निरंतर प्रगति करते चले गए I

टीकम साहू अपनी दूकान पर !

अपने संघर्ष के बारे में बात करते हुए टीकम, ‘द बेटर इंडिया’ को बताते  है, “इन 17 सालों के संघर्ष यात्रा में मैंने बहुत उतार- चढ़ाव देखे है लेकिन अपना मनोबल कभी कमजोर नहीं होने दिया I सुबह 5 बजे दुकान खोलना तथा रात 11 बजे बंद करना, प्रतिदिन 18 घंटे की इस मेहनत ने मेरे सपनो को पूरा किया हैI”

हाई टेक है टीकम पोहा

टेक्नोलॉजी के इस युग में टीकम ने कदम ताल करते हुए अपने होटल में ग्राहकों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए 9 सीसीटीवी कैमरा लगवाया है तथा पेमेंट हेतु पेटीएम , भीम एवं अन्य डिजिटल ट्रांज़ाक्षण की सुविधा भी उपलब्ध है I

राजनांदगांव के सांसद अभिषेक सिंह ने 8 फरवरी को लोकसभा में केंद्र सरकार के बजट पर बोलते हुए राजनांदगांव के ग्राम गठुला में स्थित टीकम होटल का उल्लेख भी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि गठुला के टीकम साहू ने कम राशि में पान ठेला और होटल का व्यवसाय शुरू किया था और आज एक दर्जन से ज़्यादा लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया है।

टीकम कहते है,” यह सफलता मेरे अकेले की नहीं है, इस चुनौती भरी यात्रा में मेरे भतीजे हेमलाल ने हर वक़्त साथ दिया, मेरा परिवार जिसने बुरे समय में भी संयम रखा और मुझ पर विश्वास जताया।”

 टीकम साहू के अनुभव

1. अपने ऊपर विश्वास रखिए और निरंतर आगे बढ़ते रहिए ।

2. मन में यह विश्वास ज़रूर होना चाहिए कि मैंने जो सपना देखा है उसे मैं पूरा कर सकता हूँ ।

3. काम यदि आपकी रूचि के अनुसार होता है तो आप उसमें अपना 100 प्रतिशत देते हैं। इस दुनिया में कोई काम छोटा नहीं होता, छोटी होती है तो इंसान की मानसिकता । मैंने पोहा बेचकर एक सकारात्मक बदलाव लाने की कोशिश की है।

यह टीकम साहू एवं उनके भतीजे हेमलाल साहू की मेहनत का ही अंजाम है कि आज सफलतापूर्वक वे अपने व्यवसाय का संचालन कर रहे है। टीकम साहू का जीवन उन लोगों के लिए प्रेरणा है, जो किसी काम को छोटा कहकर छोड़ देते है, काम कोई छोटा नहीं होता बस सोच बड़ी होनी चाहिए। लाखों का टर्नओवर, एक दर्जन से ज़्यादा कर्मचारी और निरंतर सफलता इस बात का उदहारण है कि सारा खेल सोच और जूनून का है।

संपादन – मानबी कटोच

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भारतीय बैंकों की जीत : विजय माल्या लंदन में 10 हजार करोड़ का मुकदमा हारे!

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बैंकों से करोड़ों रुपये का कर्ज लेकर भागे विजय माल्या को ब्रिटेन की अदालत में तगड़ा झटका लगा है। लंदन की कोर्ट ने भारतीय बैंकों की तरफ से 1.15 अरब डॉलर (10 हजार करोड़ रुपए) से ज्यादा  वापस करने के लिए दायर यूके लॉसूट में माल्या के खिलाफ फैसला सुनाया है!

माल्या पर आरोप है कि उसने किंगफिशर एयरलाइंस के लिए गए लगभग 9,400 करोड़ रुपये के कर्ज को जानबूझकर नहीं चुकाया।
जज एंड्रयू हेनशॉ ने दुनिया भर में माल्या की संपत्तियों को जब्त करने के आदेश को पलटने से इनकार कर दिया। कोर्ट ने भारतीय अदालत के उस फैसले को भी बरकरार रखा है जिसमें 13 बैंकों के कंसोर्टियम को माल्या से करीब 10,000 करोड़ रुपये की वसूली करने का हकदार बताया गया है।

जज हेनशॉ ने माल्या को अपने फैसले के खिलाफ अपील करने की मंजूरी देने से भी इनकार कर दिया। इसका मतलब है कि माल्या के वकीलों को अब सीधे कोर्ट ऑफ अपील में ही याचिका दाखिल करनी होगी।
कर्जदाताओं की ओर से पेश लॉ फर्म टीएलटी के अनुसार, कोर्ट के फैसले ने उनके मुवक्किलों को भारतीय ऋण वसूली ट्रिब्यूनल के निर्णय को तुरंत लागू करने की मंजूरी दे दी है।

भारतीय बैंकों के पक्ष में आए निर्णय से इंग्लैंड और वेल्स में माल्या की संपत्तियों पर भी भारतीय अदालत का फैसला लागू हो सकेगा। वैश्विक जब्ती का आदेश बहाल रहने के बाद माल्या इंग्लैंड और वेल्स में अपनी किसी संपत्ति को बेच या ट्रांसफर नहीं कर सकेगा। न ही संपत्ति का मूल्य घटा  सकेगा।

ब्रिटेन के हाईकोर्ट की कॉमर्शियल कोर्ट की क्वींस बेंच के समक्ष एसबीआई, बैंक ऑफ बड़ौदा, कॉर्पोरेशन बैंक, फेडरल बैंक लिमिटेड, आईडीबीआई बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, जम्मू-कश्मीर बैंक, पंजाब एवं सिंद्ध बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, स्टेट बैंक ऑफ मैसूल, यूको बैंक, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया और जेएम फाइनेंशियल एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी प्रा. लि. ने याचिका दी थी।


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मेरी बेटी होती तो उसका नाम लाल टमाटर रखता!

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मेरी बेटी होती तो उसका नाम ‘माहोपारा’ रखता
उसका नाम ‘मधुमालती’ रखता
नहीं ‘सुबह’ ठीक रहता
या फिर ‘कचरा’? कि कोई न देखे

हॉस्टल के ज़माने से पक्का था कि चार बेटियाँ गोद लेनी हैं. एक काली, मोटे चश्मे वाली तमिल लड़की, एक आसाम से, एक पंजाबन, एक महाराष्ट्रियन. क्लास में यह भी कहते थे कि बेटा हुआ तो कहीं चौराहे पर छोड़ आयेंगे.. क्योंकि करेंगे क्या बेटे का.. ना फ़्रॉक रिबिन में सजा धजा कर कंधे पर बिठा कर उसे बाज़ार ले जा सकते हैं.. तरुणाई फूटी नहीं कि आवाज़ कर्कश हो जायेगी उसकी.. माँ भले ही उसे देख देख कर फूली न समाती रहे बाप के किस काम का.. क्लास में हम सभी देश के कोने कोने से थे.. मिडिल क्लास, पढ़े-लिखे परिवारों के बच्चे जहाँ लड़के माँ से तो खूब चिपकते-विपकते थे, बाप से दूरी बनी रहती. बाप हमें देख कर गुर्राता था, हम बाप को देख कर. एकाध साल में पचास के हो जायेंगे लेकिन आज भी खुले नहीं हैं. साथ बैठ कर शराब भी पी ली पर खुले नहीं. किसी अजनबी लड़की को ‘बोरिंग पार्टी है कहीं बाहर चलें?’ बोलने की हिम्मत हो जायेगी पर बाप पर कितना भी प्यार आये उन्हें ‘आई लव यू’ बोलने में आज भी पसीना निकल आएगा।

हाँ, मरने के बाद बोलेंगे. कबर पर. लोगों को फ़ोटो दिखा दिखा कर. किस काम के होते हैं लड़के??

ख़ैर, हॉस्टल में खायी कसम बरक़रार रही. ‘जनसँख्या इतनी है ख़ुद का बच्चा पैदा करे वो देश का दुश्मन है.. और एक ग़रीब को गोद ले ले तो एक तीर से तीन शिकार हो जायेंगे’ जैसी भावना के साथ ख़ुद का बच्चा न हो ये कसम ली थी. जो शायद बाद में बदल जाती लेकिन चार लड़कियाँ गोद लेने के ख़याल का रोमान्स अपने बच्चे से ज़्यादा शीरीं, ज़्यादा दिलचस्प रहा. हमेशा.

और गोद लेने की कोई सूरत नहीं बनी.
अब लीगली ले भी नहीं सकते, उम्र का तकाज़ा है.
तो क्या हुआ.. वैसेही किसी को, कभी भी ‘तू मेरी बेटी है’ मान कर उठा लेंगे. समाज में ऐसा नहीं होता. लेकिन सच्ची बात तो ये है कि क्या नहीं होता??
अभी नहीं तो क्या हुआ बुढ़ापे में बेटी/याँ होंगी इस बात में कोई शक़ नहीं है.

जब होगी (अगर हुई) तो उसके पति से लड़ना भी पड़ा तो उसका नाम माहोपारा रखूँगा.

जिनकी बेटियाँ हैं वो क़िस्मत वाले हैं.
जो बेटे वाले हैं उनके घर की रौनक शायद उनकी बहू बने पर आजकल ऐसी उम्मीद करना अपने बच्चों को यंत्रणा देना है.
हाँ बुढ़ापे में बीवी बड़ी मज़ेदार हो जाती है. मतलब ऐसा होना बहुत मुमकिन है कि पति-पत्नी की जुगलबंदी अच्छी हो जाए.

हमारे MCA की पूरी क्लास में बात हुई थी. 1991-92 था ज़माना बदल रहा था.
हम सब उम्मीद से भरे हुए थे.
अब 2018 है ‘बेटी बचाने’ की बात हो रही है..
ये कहाँ आ गए हैं हम?
क्या कीजियेगा इन बेटों का??

(निःश्वास) पेश है ‘हिन्दी कविता’ यूट्यूब चैनल का सबसे ‘CUTE’ वीडियो जो आपका दिन बना देगा.
इसे उन उल्लू के पट्ठों सासों-ससुरों माँओं-बापों को भी दिखाएँ जो आपका ‘बेटा’ होने का इंतज़ार कर रहे हैं..


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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किसान की आवाज़ : केवल स्मार्ट सिटी ही नहीं, स्मार्ट किसान बनाना भी ज़रूरी!

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गाँव के लीची बगान में सरफ़राज खान से मुलाकात होती है। इस युवा ने कम्पयूटर साइंस की पढ़ाई की है और अब वह किसानी करेगा। लेकिन सरफ़राज के इस फ़ैसले पर गाँव घर में तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं, मसलन पढ़-लिखकर भला कोई किसानी क्यों करे? लेकिन सरफ़राज अपने फ़ैसले पर अडिग है।

सरफ़राज का एक सवाल भी है। उसने पूछा कि, “क्या स्मार्ट सिटी की तरह स्मार्ट किसान बनाने की भी कोई सरकारी योजना है?”

दरअसल हम सब स्मार्ट शब्द की माया के फेर में फंस चुके हैं। कुछ लोग तो अब यह भी कह रहे हैं कि यह देश का स्मार्ट काल है। लेकिन इन सबके बावजूद हमें सरफ़राज़ के सवाल पर बात करनी चाहिए।

दरअसल किसानी को लेकर हम ढेर सारी बातें करते हैं, बहस करते हैं लेकिन खेत और खलिहान के बीच जूझते किसान को एक अलग रूप में पेश करने के लिए हम अब तक तैयार नहीं हुए हैं। किसानों का कोई ब्रांड एम्बेसडर है या नहीं ये मुझे पता नहीं लेकिन इतना तो पता है कि देश में ऐसे कई किसान होंगे जो अपने बल पर बहुत कुछ अलग कर रहे हैं।

स्मार्ट किसान की जब भी बात होती है तब मुझे मक्का की खेती में जुटे किसान की याद आने लगती है। खास कर बिहार के सीमांचल इलाके में जिस तरह से खेतों में मक्का दिख रहा है और इस फसल से किसानों की तकदीर जिस रफ्तार में बदल रही है, इस पर खूब बातें होनी चाहिए।

वैसे तो विकास के कई पैमानों पर बिहार का पूर्णिया, किशनगंज और सीमांचल का अन्य इलाका देश के दूसरे कई हिस्सों से पीछे हैं लेकिन मक्के के उत्पादन में इन इलाकों के किसानों का प्रदर्शन ज़बरदस्त है। अक्टूबर में बोई जाने वाली मक्के की रबी फ़सल का औसतन उत्पादन बिहार में तीन टन प्रति हेक्टेयर है, हालांकि यह तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन से कम है।

मक्के की खेती से जमीन को होने वाले नुकसान पर भी बातें हो रही है लेकिन इस फसल ने जिस तरह से किसानों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाया है, वह काबिले तारीफ है।

कहा जाता है कि मक्का से किसानों ने पक्का मकान का सफर तय किया है।

source

वहीं अब कई किसान सफ़ेद मक्के की खेती करने लगे हैं जो स्वादिष्ट होता है लेकिन पीले मक्के की तरह पोषक तत्वों से भरपूर नहीं होता, क्योंकि इसमें बीटा कैरोटीन और विटामिन ए नहीं होता है। लेकिन इन सबके बावजूद सफेद मक्के की पैदावार दोगुना होती है। स्मार्ट किसान बनने की ट्रेनिंग शायद हम किसानों को मक्का दे रहा है। गौरतलब है कि मक्का से पहले बिहार के इन इलाकों में जूट की खूब खेती होती थी। मक्का की तरह जूट भी नकदी फसल होती है।

मक्का की खेती ने किसानों को वैज्ञानिक खेती के तौर-तरीके के करीब ला दिया है। दरअसल मक्का की खेती में बीज बोने के सही तरीकों और दूरी का ख़्याल रखना होता है। वहीं दूसरी ओर बिहार के किसान मक्के को बेचने के लिए सरकार पर निर्भर नहीं हैं, स्टार्च और पोल्ट्री उद्योग की ओर से पहले से ही मक्के की मांग होती रही है। मक्के की रबी फसल बाज़ार में उस वक्त पहुंचती है जब बाज़ार में आपूर्ति कम होती है।जीडीपी की बढ़ोत्तरी में
मक्के जैसी फ़सल का काफी योगदान है क्योंकि बदलते हुए हालात में आय बढ़ने के साथ बदलते खान-पान के साथ मक्का फिट बैठता है। सरकार फूड प्रोसेसिंग कंपनियों को सीधे किसानों से मक्का खरीदने की इजाज़त देकर मक्के की खेती को बढ़ावा दे सकती है, लेकिन कई राज्य सरकारें ऐसा नहीं करती हैं।

अब वक्त आ गया है कि हम किसानी को एक पेशे की तरह पेश करें। दरअसल किसान को हमें केवल मजबूत ही नहीं बल्कि स्मार्ट भी बनाना होगा। वैसे यह भी सच है कि स्मार्ट सिटी की बहसों के बीच स्मार्ट किसान हमें खुद ही बनना होगा।


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70 दिनों में इस किसान ने खरबूज़े की खेती से कमाये 21 लाख रुपए; जानिये कैसे!

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खेताजी सोलंकी आजकल अपने गाँव के किसानों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं! इस 41 साल के किसान ने खरबूजे की खेती से अपने चार एकड़ में से 70 दिनों में 21 लाख रुपए कमाए हैं।

गुजरात के बनासकांठा जिल्ले के छोटे से गाव चंदाजी गोलिया में खेताजी का जन्म हुआ। खेताजी के पिता पारम्परिक खेती करते थे। वे आलू, बाजरा और मूंगफली उगाते थे। उन दिनों आलू के अच्छे-खासे दाम मिलते थे और खेताजी के पिता के परिवार की ज़रूरत उनसे पूरी हो जाती थी।

पर जैसे-जैसे समय बीतता चला गया हालात बदलने लगे। खेताजी पढ़ने-लिखने में होशियार होने के बावजूद अपनी आर्थिक स्थिति के कारण सातवी से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाए।

खेताजी कहते है, “मुझे कुछ भी नया सीखने में बहुत मजा आता था । मैं टीवी पे कराटे देखता था और कराटे करने की कोशिश करता था। एक दिन मेरे टीचर ने मेरे पिताजी से कहा कि – एक दिन मैं कुछ तो अनोखा करूँगा। लेकिन हमारे गाँव का स्कूल सिर्फ सातवीं कक्षा तक ही था, और न ही हमारे पास उतने पैसे थे कि बाहरर जाकर रह सके और पढ़ सके।”
पढ़ाई छुट जाने के बाद खेताजी अपने पिता को खेती में हाथ बटाने लगे, और साथ ही किसानो की फसलों का भी मार्किट में लेन-देन करने लगे। हालाँकि, व्यापारियों और दलालों की मोनोपोली के चलते बाजार में टिक पाना मुश्किल रहा।
लेकिन, खेताजी हमेशा कुछ नया सीखने को उत्सुक रहते थे तो उन दिनों खेताजी ने निर्यात की तकनीको एवं मार्केटिंग के गुणों को जाना, समझा और सीखा। साथ ही एक निर्यात का लायसेंस बनवाया।

1995 में खेताजी के बड़े भाई ने अपने गाँव से दूर कुछ जमीन खरीदी और खेताजी के जिम्मे अपनी पैतृक जमीन की जिम्मेवारी आ गयी। कुछ सालों तक यानी 2014 तक खेताजी अपनी चार एकड़ पैतृक जमीन पर पारंपरिक खेती करते रहे पर फिर आलू उगाने वाले किसान मुसीबतों से घिर गए।

“ये वो समय था जब हम अपने आलू रस्ते पर फेंक रहे थे।”

उस समय खेताजी ने अपनी मार्केटिंग की सुझबुझ से अपने आलू एक निर्यात डीलर को बेच दिए। उस डीलर ने खेताजी को सुझाव दिया कि‘आलू हर बार काम नहीं करते’ यानि वास्तव में कोई भी फसल हर समय काम नहीं करती (डिमांड में नहीं रहती)।

उस बात से उन्हें अलग-अलग फसलों की खेती का विचार मिला। वह नियमित रूप से किसानों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों का दौरा करने लगे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में, भारतीय किसान उर्वरक सहकारी लिमिटेड (आईआईएफसीओ) के के. सी. पटेल ने उन्हें खरबूजे के बारे में बताया।

खेताजी तकनिकी रूप से समझदार थे। उन्होंने फसल और फसल को तैयार करने की प्रोसेस की जानकारी के लिए मोबाइल एप्प का उपयोग किया। सोलर पंप, ड्रिप इरीगेशन( टपक पद्धति) और मल्चिंग (एक ऐसी प्रक्रिया हैं जिसके तहत प्लास्टिक या घास की मदद से मिट्टी को ढक कर मिट्टी की नमी को बचाया जाता हैं) जैसी टेक्नोलॉजी का उपयोग किया। वह इन्टरनेट से जानकारियां प्राप्त करके आर्गेनिक खाद एवं जैविक कीटनाशक का भी प्रयोग करते रहे।
इस तरह 2017 तक उनकी जमीन किसी भी तरह की आर्गेनिक खेती के लिए तैयार हो गयी। 12 फ़रवरी 2018 को उन्होंने अपने चार एकड़ के खेत में खरबूजे के बीज लगाये।

खेताजी ने बताया, “किसी ने भी हमारे गांव में यह कोशिश नहीं की थी, और इसलिए लोगों ने मुझे सुझाव दिया कि मैं पहले जमीन के एक छोटे से टुकड़े में खरबूजे की फसल लगाऊ। लेकिन मैं जानता था कि अगर मैं इन्हें निर्यात करना चाहता हूं, तो मुझे खरबूजे को थोक में उगाना होगा।”

पर इसके बाद जो हुआ उससे सभी गांववालों ने दांतों टेल उँगलियाँ दबा ली!

बीज बोने के 70 दिनों में 140 टन खरबूजे की पैदावार हुयी। एक डीलर के माध्यम से खरबूजे को कश्मीर भेजा गया जिसने 21 लाख रुपए दिए।


इस सब में लागत लगभग 1.6 लाख रुपए थी यानि की 4 एकर में से 70 दिनों में 19.4 लाख रुपए का मुनाफा!

खेताजी ने हमारे साथ खरबूजे की खेती की अपनी 70 दिनों की यात्रा कुछ इस तरह साझा की

Step-1 – जानें, सीखें और ज्यादा जानें

खेताजी बताते हैं कि हर किसान को सरकारी-गैर सरकारी, और स्वयंसेवी संस्थाओं या बीज कंपनियो के द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का फायदा उठाकर मुफ्त तालीम लेनी चाहिए। साथ ही नजदीकी कृषि विश्वविध्यालय से कृषि सम्बन्धित नयी खोजे और तकनीको के बारे में जानकारियां हासिल करनी चाहिए। इसके अलावा इन्टरनेट का उपयोग कर अपने सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करनी चाहिए।

Step 2 सब्सिडी का फायदा लें

खेताजी के अनुसार, उन्होंने अपने खेत पर किए गए सबसे अच्छे निवेशों में से एक था, सोलर पंप लगवाना। सोलर पंप की लागत 8 से 10 लाख रुपए है, जबकि किसानों को सिर्फ 37,500 रुपये का निवेश करना है, बाकि शेष राशि का सरकार द्वारा भुगतान किया जाता है। इसी प्रकार, टपक सिंचाई पद्धति लगाने और मल्चिंग का उपयोग करने के लिए सब्सिडी उपलब्ध है, जो किसानों के लिए खेती आसान बनाती है।

खेताजी कहते हैं कि “सोलर पंप पानी की असीमित आपूर्ति का आश्वासन देता है, नॉन-स्टॉप बिजली की वजह से किसान रात में तनाव मुक्त होकर आराम कर सकता है, बिजली बिल के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। इसके अलावा, टपक सिंचाई पद्धति से आपका समय भी बचता हैं, और आप किसी अन्य काम के लिए अपने समय का उपयोग कर सकते हैं। यह आपके मोबाइल फोन पर एक बटन दबाने जैसा है। बस आप समय निर्धारित करें, और आपका काम ख़त्म।”

Step 3 – तापमान के अनुसार बुवाई की तारीख निर्धारित करें


खेताजी के अनुसार, सही मौसम के मुताबिक बीज बोने का समय निर्धारित करना चाहिए। जब तापमान 32-34 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न हो तब खरबूजे को बोया जाना चाहिए, और तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के बाद कटाई होनी चाहिए।
खेताजी कहते हैं कि “सीधा सादा तर्क यह है कि जब तापमान चोटी पर होता है तो लोग इन फलों को खरीदते हैं। इस प्रकार मार्केट में मांग बढ़ती है, और आपको अपनी फ़सल का सबसे अच्छा दाम मिलता है। ”
आप इंटरनेट, डीडी-किसान या विशेष रूप से किसानों के लिए डिज़ाइन किए गए विभिन्न ऐप्स से मौसम की जानकारी हासिल कर सकते हैं। खेताजी, जो कठिनाई से अंग्रेजी पढ़ पाते हैं, गुजराती ऐप का उपयोग करते हैं, और किसानों को अपनी स्थानीय भाषाओं में ऐप्स का उपयोग करने की सलाह देते है।

Step 4 – बीज का चुनाव

बीज चुनते समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि उपज की गुणवत्ता इस पर निर्धारित रहती हैं। उच्च गुणवत्ता वाले बीज प्रमाणित सर्टिफिकेट के साथ मौजूद रहते हैं । सही गुणवत्ता वाले बीज के बारे में अधिक जानने के लिए खेताजी ने नजदीकी कृषि विश्वविद्यालय का दौरा किया। वे व्हाट्सएप पर भारत भर के किसानों के कई समूहों में भी शामिल हैं।
खेताजी कहते हैं, “मैंने अपना पासपोर्ट भी बनवाया है। मैं खेती की तकनीकों का अध्ययन करने के लिए एक बार इज़राइल जाना चाहता हूं। ज्ञान हासिल करने के रास्ते हमेंशा खुले रहने चाहिए।”

Step 5 – DIY आर्गेनिक खाद तथा कीटनाशक

खेताजी, एक खेल की तरह प्रयोगों और परीक्षणों से खाद(उर्वरक) और कीटनाशक तैयार करते है। वे बाजार से आर्गेनिक खाद खरीदते हैं और घर पर अलग-अलग प्रयोगो से उनमे शामिल तत्वों तथा गुणवता की जांच करते है। वे संजीवनी समाधान में भरोसा रखते है, जिन्हें 20 लीटर गाय का मूत्र, 20 लीटर खट्टी छास (मट्ठा) (4-5 दिन पुराना होना चाहिए), एक तांबा का टुकड़ा और 2-3 किलोग्राम नीम के पत्तों को मिलाकर बनाया जाता है। मिश्रण को 4-5 दिनों के लिए बंद रखा जाता हैं, फिर ड्रिप सिंचाई पद्धति द्वारा पौधों तक पहुचाया जाता हैं।

Step 6 – बुवाई के दौरान सावधानी बरतें

जमीन खेती के लिए तैयार हो जाने के बाद, बीज एक दुसरे से 4-5 फुट की दूरी पर बोए जाने चाहिए। खरबूजे के बीज बहुत नाजुक होते हैं इसलिए इन्हें मिट्टी में 0.5 इंच से ज्यादा गहरे नहीं बोया जाना चाहिए।

Step 7 – फ़सल पर नजर रखे !

शुरुआत से ही, किसी भी प्रकार के कीट या बीमारियों से सावधान रहना चाहिए, जो पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं। जैसे ही एक भी पौधा कीट या बीमारी से प्रभावित दिखे, उसकी तस्वीरों को व्हाट्सएप ग्रुप में शेयर करना चाहिए, जहां विशेषज्ञ आपको सही समाधान दे सके। एक पौधे पर घर का बना कीटनाशक को हिट-एंड-ट्रायल तरीके से प्रयोग करना भी आसान है। समय-समय पर खरबूजे के पौधों के बीच उगे खतपतवार की सफाई भी करनी चाहिए।

Step 8 – फल का ख्याल रखना

एक बार पौधे पर फल आने लगे तो उन्हें पानी से दूर रखना बहुत महत्वपूर्ण है। याद रखें कि खरबूजे के पौधों को पानी की जरूरत है लेकिन फल(खरबूजे) को नहीं। फल न तो मिट्टी को छूना चाहिए, न ही खेत के माध्यम से बहने वाले पानी को। कटाई के बाद फल को कवर करने के लिए जाल का प्रयोग करें

Step 9 – मार्केटिंग

अलग-अलग नेटवर्क के माध्यम से एक उपयुक्त डीलर की तलाश करें, और कटाई से पहले एक सौदा तैयार कर ले। अगर आर्डर एक दूर-दराज की जगह के लिए है, तो फ़सल को एक चरण में काट लें, जिससे इसे दो से तीन दिनों तक पकाया जा सके, जिससे फल अपनी जगह तक पहुँचने तक ख़राब न हो और नुकसान कम हो।
“और हाँ, आपके पास आपका निर्यात लाइसेंस जरुर होना चाहिए,” खेताजी कहते है

Step 10 – एक नई फसल की तलाश में रहें जो आपको और भी मुनाफा दिला सकती है!


खेताजी का मानना है कि नई फसलों के साथ हमेशा प्रयोग करते रहना चाहिए। बाजार में कौनसी फसल की डिमांड है ये आपको पता होना चाहिए।

“न्यूनतम निवेश, अधिकतम उत्पादन, और बाज़ार की रणनीति ऐसी कुंजी हैं जो निश्चित रूप से आपकी सफलता का ताला खोलेंगे।” – खेताजी

खेताजी इन दिनों पीले खरबूजे और काले टमाटर की खेती पर रणनीति बना रहे हैं, क्योंकि अभी वे डिमांड में हैं। खेताजी किसानों से तकनिकी में समझदार होने और डिजिटल दुनिया का पूरी तरह से फायदा उठाने का आग्रह करते हैं।

“मैं सिर्फ सातवीं पास हूँ, लेकिन मैं फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर मौजूद हूं, और विशेष रूप से किसानों के लिए डिज़ाइन किए गए अधिकांश ऐप्स भी डाउनलोड किए हैं। मैं सरकार द्वारा आयोजित हर प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेता हूं। मैं उन कृषि अधिकारियों द्वारा दिए गए निर्देशों का भी पालन करता हूं, जो समय-समय पर हमसे मिलने आते हैं और किसानों के लिए दी जाने वाली कई सरकारी योजनाओं का भी लाभ उठाता हूँ। यदि आप इन साधारण चीजों का पालन करते हैं तो आप 70 दिनों में 20 लाख कमा सकते हैं। यह बिलकुल असंभव नहीं है, ” – खेताजी सोलंकी !

आप खेताजी से  FacebookTwitter या  WhatsApp 9714931674 पर संपर्क कर सकते हैं!

मूल लेख व संपादन – मानबी कटोच
हिन्दी अनुवाद – आशीष पिथिया

अनुवादक के बारे में –

आशीष पिथिया का जन्म एक किसान परिवार में हुआ और इन्हें किसानो से लगाव हैं। अभी आशीष मुंबई में  बतौर स्वतन्त्र फिल्म डायरेक्टर/ एडिटर काम कर रहे है। इन्हें कहानी और कवितायेँ  लिखने- पढ़ने का शौक हैं।


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मृत्यु : आख़िरकार है क्या?

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Death must be so beautiful. To lie in the soft brown earth, with the grasses waving above one’s head, and listen to silence. To have no yesterday, and no to-morrow. To forget time, to forget life, to be at peace.”

—Oscar Wilde, The Canterville Ghost

बुझा
एक चमकता तारा
अनंत आकाश में
कई आकाश गंगाएँ
पैदा हुईं हैं अभी.

मैं तुम्हारे दुःख से
सिहर सिहर जाता हूँ
अल्लाह मुझे पहले उठाये
तुम्हारा जाना मुझसे देखा न जाएगा

इंसान जब पहली मृत्यु देखता है तो बहुत कुछ हमेशा के लिए बदल जाता है उसके जीवन में. पहली मृत्यु से मेरा मतलब है आपके परिवार में किसी की मृत्यु. जाना आसान है. पीछे छूटे हुओं का जीवन मुश्किल हो जाता है. प्रायः लोग अपने माता-पिता को जाता देखते हैं अपनी उम्र के तीसरे या चौथे दशक में. जो ज़्यादा बदक़िस्मत हैं उनके बच्चे, अथवा भाई-बहन का प्रयाण एक कभी न भरने वाली खला बन जाता है मन के अंदरूनी कोनों में.

पीछे छूटे हुए परिवार के लोग एक खालीपन से सहम जाते हैं, कितनी ही ग्लानियाँ उबर आती हैं सतह पर, वैराग्य घेर लेता है.. अपने होने के कोई कारण समझ आने बंद हो जाते हैं कुछ नहीं अच्छा लगता. किसी के समझाए कुछ नहीं होता है. ऐसे वक़्त में किसी ग़मज़दा के साथ खड़े होने की असहायता भी होती है आप कुछ भी करें उनका ग़म ग़लत नहीं होने का.

लेकिन यही देश है जहाँ मृत्यु के अवसर पर शादी में गाये जाने वाले विदाई के गीत गाये जाते हैं क्योंकि यह तो आत्मा का परमात्मा से मिलन हुआ है. भारतीय दर्शन के हिसाब से अब दो ही सूरतें हैं कि या तो पुनर्जन्म होगा, या फिर मुक्ति. इन दोनों सूरतों में ही क्या दुःख मनाना. हाँ अपनी हानि पर शोक ठीक है लेकिन जो गया उसके लिए तो एक नया अध्याय आरम्भ हुआ है. हम उसे जाने दें.. अच्छे से विदा करें ताकि नए अध्याय में वह आसानी से रम सके.

नंदकिशोर आचार्य हिंदी के एक प्रबुद्ध लेखक हैं. उनका यह वीडियो हमारे प्रोजेक्ट का एक हीरा है. शान्ति से देखें इसे. मृत्यु को अपनाएँ – आपका जीवन आसान हो जाएगा. हबड़-तबड़, घबराहट कम हो जायेगी. आपके पास, आपके साथ आनंद के प्रचुर साधन उपलब्ध हैं आप उनका पान करने लगेंगे. समझे बात को?


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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इस कलेक्टर ने बिना किसी संकोच के अपने हाथों से किया शौचालय-गड्ढे को साफ़!

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ज तक आपने खुले में शौच को लेकर या फिर मल की दस्ती सफाई को लेकर दलितों के साथ हो रहे अन्याय के बारे में पढ़ा और सुना होगा। कहने को तो भारत में शौच या मल की दस्ती सफाई प्रतिबंधित है। पर आज भी भारत के बहुत से राज्यों में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रचलित है और यही दस्ती सफाई प्रथा भारत में दलितों के प्रति हीन भावना और भेदभाव के मुख्य कारणों में से एक है।

लेकिन आज हम द बेटर इंडिया पर आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसा वाकया जो आपको इस बारे में सोचने पर मजबूर कर देगा कि क्या हमारे समाज को साफ़ रखने वाले यह लोग वाकई में हीन हैं या यह केवल हमारी सोच की हीएंता को दर्शाता है।

हाल ही में तेलंगाना राज्य के मेदक ज़िले में नए जिला कलेक्टर धरम रेड्डी को नियुक्त किया गया।

कलेक्टर साहब ने पुणे में आयोजित एक कार्यशाला में बिना किसी संकोच के एक शौचालय के गढ्ढे में स्वयं घुसकर जैविक खाद को अपने हाथों से निकाला।

फोटो: तेलंगाना टुडे

दरअसल स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत पुणे में हुई एक कार्यशाला जिसका उद्देशय खुला शौच मुक्त भारत की स्थिरता पर काम करना था, में अधिकारी और कर्मचारियों को अलग-अलग गुर सिखाये गए। उन्हीं में एक था मल को जैविक खाद में तब्दील करना।

तेलंगाना टुडे अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक कर्मचारियों के प्रदर्शन के बाद जिला कलेक्टर ने बिना किसी संकोच के प्रक्रिया को दोहराया। धरम रेड्डी साल 2012 जत्था के आईपीएस अधिकारी हैं और मार्च, 2018 में उन्हें मेदक में नियुक्त किया गया। मेदक में अपनी नियुक्ति के कुछ समय में ही उन्होंने आम लोगों से सीधा संपर्क बनाया ताकि वे लोगों की  समस्याएं समझकर, उन्हें हल कर सकें।

यदि हमारे अधिकारी इसी सोच के साथ आगे बढे तो यक़ीनन परिस्थितियों में बदलाव आएगा। मेदक तेलंगाना का आठवां खुला शौच मुक्त जिला है। और जल्द ही, तेलंगाना भी खुला शौच मुक्त राज्यों की सूची में शामिल हो जाएगा।

(संपादन – मानबी कटोच)


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किसान की आवाज़ : घर की छत को बनाया खेत, थर्मोकॉल के डिब्बों में उगाये 500 से अधिक पेड़-पौधे!

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किसान की आवाज के आज के अंक में आपको हम एक अनोखे शहरी किसान से मुलाकात कराने जा रहे हैं, जिन्होंने अपने छत को ही खेत में तब्दील कर दिया है। पेड़-पौधों के शौकीन इस किसान ने अपने छत के 5500 स्क्वायर फुट एरिया को एक सुंदर खेत का रुप दे दिया है।

घर की छत पर पेड़-पौधों का एक संसार किसी को भी अपनी ओर खींच लेता है। हम भी इस अनोखे संसार की ओर खींचे चले गए और हमारी मुलाकात हुई इस संसार को बसाने वाले अद्भुत रचयिता से!

बिहार के पूर्णिया जिला मुख्यालय स्थित लाइन बाजार के निवासी गुलाम सरवर वैसे तो पेशे से बीमा अभिकर्ता (एजेंट) हैं लेकिन उनके भीतर एक किसान भी छुपा है।

गुलाम सरवर का पीपल का बोंसाई पौधा

गुलाम सरवर मूल रूप से पूर्णिया जिला के डगरुआ प्रखंड के कन्हरिया गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया-

“ मेरे दादा डॉ.अब्दुल जब्बार खान डॉक्टर थे, लेकिन उनकों पेड़-पौधों से बहुत ज्यादा लगाव था। 70 के दशक में यह पूरा इलाका आम का बागान था। धीरे-धीरे आम बागान खत्म हो गया। घर के पीछे जो जमीन थी, उसी पर पापा मोहम्मद वाली खान पेड़ और कलम लगा कर रखते थे। बचपन में उनको देखते-देखते मुझे भी पेड़ों से प्यार होने लगा और उसके बाद मैंने भी पेड़-पौधों के बीच समय बिताना शुरु कर दिया। “

गुलाम सरवर बताते हैं- “खेती –किसानी से लगाव रहा है। पारिवारिक पृष्ठभूमि हमें गांव से जोड़ती है लेकिन गांव में अब हम रहते नहीं हैं इसलिए शहर में जहां हैं, वहीं हमने अपने अंदाज से खेती शुरु कर दी।”

गुलाम सरवर ने छत पर जो खेत तैयार किया है, उसमें दुर्लभ प्रजाति के मेडिसिनल प्लांट के साथ-साथ सपाटू, शहतूत, 32 मसालों की खुशबू वाला ऑल स्पाइस, नींबू, शो प्लांट, गुलाब के साथ-साथ चायनीज अमरुद समेत हर मौसम की सब्जी आपको मिल जाएगी।

बड़ा नींबू

गुलाम सरवर बताते हैं कि बाजार में जो सब्जी मिलती है, उसमें अधिकांश में रासायनिक खाद का इस्तेमाल होता है लेकिन उनकी बागवानी में सबकुछ जैविक तरीके से उपजाया जाता है। उन्होंने बोनसाई तकनीक के सहारे कई पुराने पौधों को छत पर संजोकर रखे हैं।

पेड़ों के अलग-अलग प्रजाति पर बात करते हुए गुलाम सरवर बताते हैं कि मैं जहां भी जाता हूं, वहां से कोई न कोई पेड़ जरूर लाता हूं। फिर उसे कलम कर नया पेड़ बनाता हूं। गुलाम सरवर बताते हैं कि उन्हें विरासत में कलम बनाने और पेड़ को बोनसाई बनाने का गुण मिला है। वे खुद ही सभी पेड़ों का कलम बनाकर नए पेड़ तैयार करते हैं।

उनकी छत पर आज भी 20 साल पुरानी तुलसी, पीपल, पाखर समेत अन्य पौधे हैं, जिन्हें उन्होंने संरक्षित कर अपने छत पर सजा कर रखा है।

गमले में किसानी करिए

गुलाम सरवर कहते हैं कि यदि आप चाहें तो अपने कम से कम चार सदस्यीय परिवार के लिए गमले में ही सब्जी उगा सकते हैं। वे बताते हैं कि घर के पुराने डिब्बे में मिट्टी भरकर हम धनिया का पत्ता उतना तो उगा ही सकते हैं, जितना हमारे प्लेट के लिए चाहिए। इसके अलावा हरी मिर्च और नींबू तो आराम से गमले में उगाया जा सकता है। गुलाम सरवर कहते हैं कि गमले में किसानी करने का एक अलग ही आनंद है। उनका मानना है कि इससे हम प्रकृति के और नजदीक पहुंचे हैं।

गुलाम सरवर के छत पर फूल-पौधों की दुनिया

‘किचन गार्डेन टिप्स’

गुलाम सरवर कहते हैं कि थर्मोकॉल के डिब्बों में कोई भी सब्जी आराम से उगाई जा सकती है। करेला हो या फिर पपीता या फिर भिंडी या गोभी, हर कुछ हम अपने छत या बालकनी में उगा सकते हैं। उन्होंने कहा कि बस ध्यान यही रखना है कि उस जगह तक धूप पहुंचती हो। उनका कहना है कि इस तरह की खेती में लागत कुछ भी नहीं है। उन्होंने बताया कि 20 रुपये तक में एक थर्मोकॉल का बड़ा डिब्बा किसी दवाई दुकान में मिल जाता है और फिर में उसमें मिट्टी डालकर कोई भी सब्जी का पौधा लगा सकते हैं या फिर कोई फल का पौधा भी लगा सकते हैं। उनका कहना है कि बस यह ध्यान रखना चाहिए कि साल में एक बार उस गमले की मिट्टी बदल दी जाए।

तोहफे में एक पौधा दें

गुलाम सरवर का कहना है कि जन्मदिन आदि अवसरों पर शहर के लोगों को उपहार में पौधा देना चाहिए ताकि हर घर में हरियाली दिखे। उनका कहना है कि गमले में ही सही लेकिन घर में पौधा तो होना ही चाहिए। वे बताते हैं कि आजकल के भाग दौड़ की जिन्दगी में लोगों का बागवानी से ध्यान हट गया है। लोग खाली पड़ी जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल करने की सोचते हैं। लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए वे हर साल 500 से ज्यादा कलम किया हुआ पेड़ मुफ्त में देते हैं ताकि वे पर्यावरण के प्रति जागरूक हों।

गुलाम भाई के 5500 स्क्वायर फ़ुट के छत पर गमलों की दुनिया है। कुल जमा 600 गमला, जिसमें फूल-पत्ती, फल-सब्ज़ी सबकुछ है। गुलाम भाई से जब बातचीत हुई तो पता चला कि वे  हर साल २०० नींबू  के पौधे बाँटते हैं। छत पर अपनी बसाई बाग़वानी के फल-फूल-सब्ज़ी भी  वे बाँटते ही हैं। उनका छत मुझे बता रहा था कि किसान हर एक के भीतर बसा रहता है, बस उसे स्पेस देने की ज़रूरत है।


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भारतीय नौसेना का वह बहादुर कप्तान जिसने अपनी जान देकर अपने सिपाहियों की जान बचाई!

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किसी ने बिलकुल सच ही कहा, “हमारे देश का तिरंगा हवा से नहीं बल्कि हर एक उस सैनिक की आखिरी साँस से लहराता है जो इसकी आन-बाण-शान की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान देते हैं।”

देश के लिए शहीद होने वाले सैनिकों की बहादुरी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की हमारे देश का। युद्ध चाहे जो भी हो, जिस भी देश से हो, भारतीय सैनिकों ने पीछे हटना नहीं सीखा। बल्कि वे तो अपने आप को अपने देश के लिए हँसते हुए अर्पित कर देते हैं।

कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला

बिडंबना यह है कि ऐसे नगीनों के बारे में आम जनता कम ही जान पाती है। साल 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए भारतीय नौसेना के कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला के बलिदान से भी ज्यादा लोग परिचित नहीं हैं। कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला, जो भारतीय नौसेना के हर एक सैनिक के लिए प्रेरणा है।

साल 1971, तारीख 3 दिसम्बर, शाम के 5:45 बज रहे थे जब पाकिस्तानी एयरफोर्स ने भारत के छह हवाई अड्डों पर आक्रमण कर दिया। उसी रात आईएफ कैनबेरा विमान ने पाकिस्तानी विमान-अड्डों को ध्वस्त कर दिया। 1971 का युद्ध शुरू हो चूका था और शीघ्र ही भारतीय नौसेना भी युद्ध में शामिल हो गयी।

तारीख – 5 दिसम्बर 1971 :

भारतीय नौसेना को सुचना मिली कि अरब सागर की उत्तरी दिशा से डाफ्ने-क्लास की पाकिस्तानी पनडुब्बी आक्रमण के लिए आगे बढ़ रही है। भारतीय नौसेना ने भी तेजी दिखाते हुए अपने पनडुब्बी रोधी लड़ाकू जहाज दल को इसका पता लगाने व खत्म करने का आदेश दिया।

आईएनएस खुकरी

8 दिसम्बर 1971 :

आईएनएस खुकरी (कप्तान मुल्ला की कमान में) व आईएनएस किरपान बॉम्बे से रवाना हुए। परन्तु अनुसन्धान के लिए तैनात प्रयोगात्मक सोनार उपकरण के कारण दुश्मन को भारतीय नौसेना की इस गतिविधि को भांपते देर न लगी।

9 दिसम्बर :

पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस हंगोर ने भारतीय आईएनएस खुकरी पर तारपीडो से हमला बोल दिया। तकनीकी कमियों के चलते आईएनएस खुकरी किसी भी मायने में पाकिस्तानी हंगोर का सामना नहीं कर सकता था। हमले के कुछ समय के भीतर ही जहाज डूबने लगा।

समय को हाथ से निकलते देख कप्तान मुल्ला ने जहाज को बचाने में ताकत न बर्बाद करते हुए अपने साथियों को बचाना उचित समझा। यह जानते हुए भी कि उनके ज्यादातर साथी जहाज की छत के नीचे दबे हैं उन्होंने खुद सबको निकालना शुरू कर दिया। अपनी चोट की परवाह किये बिना कप्तान ने हर उस सैनिक को बचाया जिसे वे बचा सकते थे।

उन कुछ कमजोर लम्हों में, यदि कप्तान मुल्ला चाहते तो स्वयं को बचा सकते थे पर इस असाधारण लीडर ने अपनी जान की बजाय अपने सिपाहियों की जान बचायी। यह था उस महान आदमी का व्यक्तित्व जिसने अपनी आखिरी साँस तक अपने साथियों को बचाने में लगा दी।

बहुत से सैनिक जिन्हें कप्तान ने बचाया था, उन्होंने बताया कि अपने आखिरी समय में भी कप्तान ने पुल पर खड़े होकर गार्ड रेल को पकड़े रखा जब तक की जहाज पूरी तरह डूब नहीं गया। और आईएनएस खुकरी ने 176 नाविक, 18 अधिकारी और एक बहादुर कप्तान के साथ अरब सागर के पानी में अपनी समाधी ले ली।

जीवित बचे 67 लोगों को अगली सुबह आईएनएस कटचल की मदद से निकाला गया। आईएनएस खुकरी अब तक इकलौता भारतीय लड़ाकू जहाज है जिसे भारत ने युद्ध के दौरान खोया है और कप्तान मुल्ला एकमात्र ऐसे कप्तान हैं जो अपने पोत के साथ खुद भी डूब गए।

फोटो: Amazon.in

कप्तान मुल्ला ने जो उन आखिरी क्षणों में किया वह न केवल उस हमले में बचे हुए सैनिकों का अपितु हर एक भारतीय सैनिक का हौसला बढ़ाता रहेगा। रिटायर मेजर जनरल ईआन कार्डोज़ो ने अपनी किताब, “द सिंकिंग ऑफ़ आईएनएस खुकरी: सरवाइवर्स स्टोरीज” में भी कप्तान मुल्ला की बहादुरी का जिक्र किया है।

उन्होंने किताब के प्रकाशन के दौरान कहा, “इस कभी न भुलाने वाली कार्यवाही में कप्तान मुल्ला ने हमें न केवल जीना बल्कि कैसे मरा जाता है यह भी सिखाया है। हम सभी को देश का बेहतर नागरिक बनने के लिए उनके सिद्धांत और मूल्यों को अपने जीवन में उतारना चाहिए।”

खुकरी के सभी शहीदों की याद में दिउ में भारतीय नौसेना ने एक मेमोरियल बनवाया। जिसमें आईएनएस खुकरी का स्केल मॉडल रखा गया है। कप्तान मुल्ला आज़ाद भारत के पहले कप्तान थे जो अपने जहाज को बचाने के लिए स्वयं भी उसके साथ डूब गए! उन्हें मरोणोपरांत महावीर चक्र से नवाज़ा गया।

कप्तान मुल्ला अपनी पत्नी के साथ

कप्तान मुल्ला की पत्नी सुधा मुल्ला ने भी अपने पति के नक़्शे-कदम पर चलते हुए, अपना जीवन खुकरी में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों के जीवन को सुधारने में लगा दिया। कप्तान मुल्ला जैसे रत्न हर रोज जन्म नहीं लेते और अब यह हम देशवासियों का कर्तव्य है कि इस बलिदान को सर-आँखो पर रखते हुए अपने देश के विकास की दिशा में कदम बढ़ाएं।

(संपादन – मानबी कटोच)


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