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मनोज बाजपेयी के गर्दिश के दिनों की साथी : रश्मिरथी!

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र्दिश के दिनों में ताकत कहाँ से आती है भला?
जवाब में अमूमन लोग कहते हैं भगवान से, इश्क़ से, नशे से……लेकिन मनोज बाजपेयी कहते हैं ‘रश्मिरथी’ से! 

“यह मेरे संघर्ष के दिनों का सबसे बड़ा सहारा थी, और आज भी कभी जब मैं अवसादग्रस्त होता हूँ तो ज़ोर ज़ोर से तृतीय सर्ग का पाठ करता हूँ!”

– मनोज बाजपेयी 

चप्पल घिसने वाले संघर्ष के दिन!

मनोज बाजपेयी

अभिनेता बनने की जद्दोजहद में जुटे सभी लोगों की ज़िन्दगी का ये एक ज़रूरी पड़ाव होता है। ये काले, अनिश्चितता के अस्त-व्यस्त दिन !

जब चारों तरफ़ से इंकार और रिजेक्शन की आवाज़ें आती हैं! कितनी ही बार अपने आप से विश्वास उठ जाता है! अपनी साल-दर-साल गढ़ी प्रतिभा बेमानी और बेगुण प्रतीत होती है। हर तरफ़ से सलाहें बरसती हैं कि ‘भाई, देखो कुछ नहीं होने वाला तुम्हारा यहाँ पर, लौट जाओ!’

विरले ही इससे आगे निकल पाते हैं, अधिकतर अपने सपनों-वपनों को तिलांजलि दे, पप्पा के व्यवसाय में मदद करने वापस चले जाते हैं।

ऐसे दौर में इस बिहारी लड़के की साथी थी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कृत खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी‘ !

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पाण्डव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
 देखें, आगे क्या होता है..

द्रौपदी समेत पाँचों पाण्डव अज्ञातवास से लौट कर आ चुके हैं। अब दुर्योधन से अपेक्षा है कि कौरव आधा राज्य इनके नाम कर दें। लेकिन दुर्योधन ने कटु शब्दों में इंकार कर दिया; कहा कि आधा राज्य तो दूर की बात है, पाँच पाण्डवों को पाँच ग्राम (गाँव) भी नहीं दिए जायेंगे। तब पाण्डवों के दूत बन कर कृष्ण दुर्योधन के दरबार में उन्हें समझाने जाते हैं लेकिन वहाँ दुर्योधन के दुर्व्यवहार से क्रोधित हो उठते हैं और अपना विराट स्वरुप दिखलाते हैं। दुर्योधन तब भी टस से मस नहीं होता है और कृष्ण भी क्रुद्ध हो युद्ध की विभीषिका पर चिंतन करते यह कह कर निकल जाते हैं :

हित वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ
अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं, अब रण होगा
जीवन-जय या कि मरण होगा..

हो सके तो इन पंक्तियों को सस्वर पढ़ें। सबसे पहली बात जो आप देखेंगे कि इनमें एक संगीत है, जो आसानी से आपकी ज़ुबान पर चढ़ जाएगा। और फिर आप इसमें एक तीरती ऊर्जा पायेंगे जो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की रचनाओं को विलक्षण बनाती हैं। आप उनकी कोई भी किताब उठा लें… तरल, संगीतमय, सकारात्मक ऊर्जा विद्युतीय कणों की तरह आपकी रगों में संचारित हो उठती है। मानसिक ही नहीं शारीरिक रूप से भी आप प्रभावित होंगे इनकी लेखनी से।

रश्मिरथी (1952), हिन्दी साहित्य के महानतम ग्रंथों में गिना जाता है। इसमें कर्ण एक गौरवशाली नायक के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं।

रामधारी सिंह दिनकर

कई विद्वानों का मानना है कि यह रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की सर्वश्रेष्ठ कृति है।

प्रस्तुत वीडियो में मनोज बाजपेयी इस पुस्तक के तृतीय सर्ग (chapter 3) का एक अंश पढ़ रहे हैं। यह पाठ आपकी अभिप्रेरणाओं को ऊर्जान्वित कर देगा इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। इस बात पर भी ग़ौर करें कि वे दर्शकों के लिए पढ़ते नहीं वरन् अपने आप के संसर्ग में ज़्यादा नज़र आते हैं।

तो आईये सुनते हैं मनोज बाजपेयी के स्वर में ‘रश्मिरथी’!



लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!

Read this story in English here.


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12 मार्च,1930 –दांडी यात्रा की शुरुआत!

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नमक सत्याग्रह के नाम से इतिहास में चर्चित दांडी यात्रा की शुरुआत 12 मार्च,1930 में गांधी जी के नेतृत्व में हुई थी।
24 दिनों तक चली यह पद-यात्रा अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से शुरू होकर नवसारी स्थित छोटे से गांव दांडी तक गई थी। नमक सत्याग्रह महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये प्रमुख आंदोलनों में से एक था।
 
यह आंदोलन नमक पर ब्रिटिश राज के एकाधिकार के खिलाफ किया गया था। उस दौर में ब्रिटिश हुकूमत ने चाय, कपड़ा और यहां तक कि नमक जैसी चीजों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर रखा था। उस समय भारतीयों को नमक बनाने का अधिकार नहीं था। भारतियों को इंगलैंड से आनेवाले नमक के लिए कई गुना ज्यादा पैसे देने होते थे।
अंग्रेजों के इसी निर्दयी कानून के खिलाफ गांधीजी के नेतृत्व में हुए दांडी यात्रा में शामिल लोगों ने समुद्र के पानी से नमक बनाने की शपथ ली। गांधीजी के साथ, उनके 79 अनुयायियों ने भी यात्रा की और 240 मील लंबी यात्रा कर दांडी स्थित समुद्र किनारे पहुंचे, जहां उन्होंने सार्वजनिक रूप से नमक बना कर नमक कानून तोड़ा।
इस दौरान उन्होंने समुद्र किनारे से खिली धूप के बीच प्राकृतिक नमक उठा कर उसका क्रिस्टलीकरण कर नमक बनाया।

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नासिक से मुंबई की पदयात्रा कर रहे किसानो के पाँव के छालें देख मदद को पहुंची मुंबई की जनता!

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भारत में किसानो की समस्या किसी से भी छुपी नहीं है। पर सिर्फ सूखा, बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक समस्याएं ही किसान की मुश्किलों का कारण नहीं हैं। ऐसी कई दिक्कतें हैं जो सिस्टम द्वारा किसानो के लिये खड़ी की गयी हैं। उनके लिए कागज़ पर सहुलियते और वादे तो बहुत हैं पर ज़मीनी हकीकत कुछ और हैं। इसी सिस्टम से लड़ता हुआ किसान जब थक जाता हैं तो एक जन सैलाब की तरह उमड़ता है।

ऐसा ही जन-सैलाब आज मुंबई में आया हुआ है। महाराष्ट्र में ‘भारतीय किसान संघ’ ने नासिक से मुंबई तक किसानों की पदयात्रा का आयोजन किया। करीब 34,000 से भी ज़्यादा किसानो ने इस आंदोलन में भाग लिया और 7 मार्च को नासिक से पैदल निकल पड़े मुंबई की तरफ। पांच दिनों में180 किमी से भी लम्बी यात्रा के बाद ये किसान कल मुंबई पहुंचे। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते इन बहादुर किसानो की हिम्मत में तो कोई कमी नहीं आई पर इनके पैरों के घाँव देख मुंबई वालो का दिल पसीज गया!

हाथ में लाल झंडा लिए ये किसान चाहते तो रात भर सोमैया मैदान में आराम कर, सुबह विधान सभा की तरफ कूच कर सकते थे। पर ये किसान रात दो बजे ही अपने मुकाम पर पहुँचने के लिए चल दिए ताकि आज सुबह बोर्ड परीक्षा देने जा रहे छात्रों को इनके आंदोलन से दिक्कत न हो।

फोटो साभार – फेसबुक

तपती हुई धुप में इनकी इस 6 दिन की यात्रा में कई किसानो के जूते-चप्पल टूट गए पर पैरो में छाले लिए ये किसान चलते रहे।

तस्वीर साभार – फेसबुक

इस बात का पता जब मुंबई वालों को चला तब वे किसानो की मदद के लिए चप्पलें और अन्य ज़रूरतों का सामान उन्हें देने चले आये।

ठाणे मतदाता जागरण मंच नामक एक स्वयं सेवी संस्था ने 500 किलो अनाज देकर इन किसानों की सहायता की।

इस संस्था के एक सदस्य उन्मेष बगावे ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया,”हम शुरू से ही आंदोलन कर रहे इन किसानों के संपर्क में थे। हालाँकि उन्होंने कोई भी मदद लेने से इंकार कर दिया था पर हम जानते हैं कि हम सबका पेट भरने के लिए ये किसान कितनी मुश्किलों से गुज़रते है और इसलिए हम उनकी थोड़ी ही सही पर कुछ तो मदद करना चाहते थे।”

इसी तरह दो और स्वयं सेवी संस्थाएं इन किसानो के लिए जूते और चप्पलों का इंतजाम करने में जुट गयी।

तस्वीर साभार – फेसबुक

मुंबई के फ्लावर वैली की रहने वाली नीता कार्निक, जिन्होंने करीब 100 जूतों का इंतजाम किया, बताती है, “हम लोग तब सदमे में आ गए जब हमने इन किसानों को हाईवे पर नंगे पाँव चलते देखा। हम में से कुछ लोगो ने तो तुरंत अपनी चप्पलें उतार कर औरतों को दे दी और कुछ अगले दिन उन्हें देने के लिए और जूते और चप्पलें ले आये।”

सिर्फ ठाणे ही नहीं बल्कि जोगेश्वरी की एक युवा संस्था जागृति मंच भी इन किसानों की मदद के लिए आगे आई।

मुंबई मिरर की रिपोर्ट के अनुसार जागृति मंच के एक सदस्य, 33 वर्षीय आई टी कर्मचारी, कमलेश शामंथुला ने रविवार को अकेले 4000 से ऊपर व्हाट्सअप मेसेज भेज कर लोगों को किसानो के लिए जूते-चप्पलें दान करने की अपील की। उनकी ये कोशिश रंग लायी और कुछ घंटो में ही सोमैया ग्राउंड पर किसानो की मदद करने वालो का तांता लग गया।

कुछ संस्थाओं ने इन किसानो के लिए रात के खाने का भी इंतजाम किया हुआ था। साथ ही बिस्कुट, चोकलेट, तैयार नाश्ता और पानी का भी इंतजाम किया गया।

तस्वीर साभार – फेसबुक

कमलेश कहते है, “इन किसानों की वजह से ही तो हमें खाना मिलता है। अगर ये लोग ही नहीं होंगे तो क्या बाकी रह जायेगा? आज उन्हें हमारी ज़रूरत है।”

किसानों की मांग है कि बीते साल सरकार ने कर्ज़ माफ़ी का जो वादा किसानों से किया था उसे पूरी तरह से लागू किया जाए। किसानों का कहना है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए और गरीब और मझौले किसानों के कर्ज़ माफ़ किए जाएं।

इसके साथ ही किसान आदिवासी वनभूमि के आवंटन से जुड़ी समस्याओं के निपटारे की भी मांग कर रहे हैं ताकि आदिवासी किसानों को उनकी ज़मीनों का मालिकाना हक मिल सके।

भारतीय किसान संघ के राज्य सचीव अजीत नवले ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के ज़रिये मुंबई वासियों का धन्यवाद करते हुए कहा, “मुंबई वासियों ने हम जो प्यार बरसाया है, हम उसके बहुत आभारी है। हमे ये देखकर बहुत ख़ुशी हुई कि शहर में रहने वाले लोगों ने हम गाँव में रहने वाले गरीब किसानों की समस्याओं को समझा। अब बस यही उम्मीद है कि सरकार भी हमारी मुसीबतों को समझेगी और हमारी मांगो को पूरी करेगी।”

हमें भी आशा है कि किसानों की सभी समस्याओं का जल्द ही निवारण होगा और केवल मुंबई वासियों का प्यार ही नहीं बल्कि अपनी मुसीबतों का हल लेकर अपने अपने घर लौट पाएंगे।

#जय_किसान

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वरिष्ठ कवि के. डी शर्मा और प्रमोद तिवारी को विनम्र श्रधांजलि!

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जो आया है उसे जाना तो है ही! पर जिस तरह वरिष्ठ पत्रकार और कवि प्रमोद शर्मा और हाहाकारी के नाम से मशहूर हास्य कवि के. डी शर्मा हमे अलविदा कह गए, ऐसे भी तो कोई नहीं जाता…

12 मार्च 2018 की भोर को एक सड़क दुर्घटना में लोकप्रिय कवि प्रमोद तिवारी और के डी शर्मा हाहाकारी की मौत हो गई। हादसा उस वक्त हुआ जब दोनों कवि रायबरेली के लालगंज से कवि सम्मेलन में शरीक होकर कानपुर लौट रहे थे।

कानपुर के ठेठ कनपुरिया वरिष्ठ कवि, पत्रकार, कविसम्मेलनों की जान, मंच पर स्तरीय कविता और मनोरंजक कविता की दूरी घटाने वाले प्रमोद तिवारी!

मैं आवारा बादल प्रमोद जी का पहला गीत संग्रह है। इस गीत संग्रह में उन्होंने गीत से जुड़े अपने कुछ ‘आग्रहों’ को पाठको के साथ साझा किया है।

इसी का एक गीत ” मैं आवारा बादल” प्रस्तुत है –

मैं आवारा बादल
कोई रोके
तो मैं बरसूँ
वरना दुनिया
मुझको तरसे
मैं दुनिया को तरसूँ

मुझसे हवा मिली
तो बोली
देखो! हम-तुम
हैं हमजोली
आओ! झूमें, नाचंे, गायें
पर्वत की
चोटी तक जायें
मैं उसकी बातों में आया
पर्वत से जाकर टकराया
बूंद-बूंद बन
बिखर रहा हूँ
फिर धरती पर
उतर रहा हूँ
छोड़ो अब तो
बंजरपन अपना
मैं हरियाली परसूँ …

पर्वत से क्यों
टकराया था
उस पर अहंकार
छाया था
बोला, रुको!
कहीं मत जाओ
केवल मुझको
ही नहलाओ
मैंने उसकी
एक न मानी
काया कर ली
पानी-पानी
पानी, नदियों में
तालों में
पानी, आँखों में
प्यालों में
फिर भी प्यास
नहीं बुझ पाई
तुम तरसो
मैं तरसूँ…

धरती ने
आरोप लगाया
मेरे घर तू
कभी न आया
केवल सर पर ही
मंडराया
ऊपर से गरजा-गुर्राया
सच है
रूप-रंग जब-तक है
सारा मौसम
नत् मस्तक है
पर जो प्यार
किया करते हैं
तानें नहीं दिया करते हैं
इसीलिए मैं-
गरजूँ तुझ पर
तुझ-पर ही
मैं बरसूँ…

– प्रमोद तिवारी

अवध के सबसे लोकप्रिय हास्य सम्राट कवि श्री. के. डी शर्मा हाहाकारी

साहित्य जगत में इन दोनों महारथियों के चले जाने से एक गहरा खालीपन छा गया हैं, जिसे भरना मुश्किल हैं. पर साहित्य में इनके योगदान को कोई नहीं भुला सकेगा!

 

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झारखंड के आदिवासी किसान के बेटे ‘गोरा हो’ने एशिया कप आर्चरी में जीता गोल्ड!

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गोरा की कहानी आधुनिक युग के एकलव्य जैसी हैं! पर हमे गर्व है कि आज के एकलव्य को आगे बढ़ने का पूरा मौक़ा मिल रहा है!

झारखंड के एक आदिवासी किसान परिवार से आने वाले गोरा ने बैंकॉक में आयोजित एशिया कप स्टेज आई आर्चरी मीट में गोल्ड मेडल जीत लिया है।

इस मेडल को पाने में गोरा तीन सदस्यीय टीम का हिस्सा थे। गोरा ने अपने पार्टनर आकाश और गौरव के साथ मिलकर यह उपल
ब्धि हासिल की। इन तीनों खिलाड़ियों ने मंगोलिया को हराकर प्रतियोगिता में पहला स्थान हासिल किया।

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किसान लंबी यात्रा के दौरान किसानों ने कुछ ऐसे जुगाड़ से किया मोबाइल चार्ज

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अक्सर हम मेहनत करने वालों को समझदारी में कम आंकते हैं। पर यदि गौर से देखा जाएँ तो भारत में दिमाग लगा कर सबसे अधिक जुगाड़ ये मेहनत करने वाले लोग ही करते है। ऐसे ही है हमारे किसान भी! जो सिमित संसाधनों में बड़े से बड़े कमाल कर दिखाते है।

हाल ही में हुए किसान आंदोलन की नासिक से मुंबई तक की लम्बी यात्रा में भी कुछ ऐसे ही जुगाड़ का नज़ारा दिखाई दिया। 6 दिन चली इस लम्बी पद यात्रा में किसानो के लिए संपर्क का एकमात्र माध्यम मोबाइल फ़ोन इस्तमाल करना चार्जिंग की कमी के कारण मुश्किल हो सकता था। पर यहाँ भी अपनी जुगाड़ टेक्नोलॉजी का इस्तमाल करते हुए कुछ किसान सोलर मोबाइल चार्जर साथ लिए हुए चले थे। इन्ही में से एक थे त्र्यंबकेश्वर के एक किसान नथू निवृति उदार ।

नथू ने अपनी इस तकनीक से इन 6 दिनों में न केवल अपना मोबाइल चार्ज किया बल्कि अपने साथी किसानो की भी मदद की।

6 दिन के किसान लॉन्ग मार्च में दिन भर नथू अपने सिर पर ये सोलर पैनल बांध कर पैदल चलते रहे। मोर्चे के दौरान किसानों को उनके मोबाइल की बैटरी चार्ज करने का एकमात्र जरिया सिर्फ नथू ही थे। नथू ने अपने मोबाइल के अलावा करीब 250 किसानों के मोबाइल चार्ज किए। दिन भर में वह अपना मोबाइल चार्ज करने के अलावा 30-35 अन्य किसानों के मोबाइल भी चार्ज करते थे।

नथू ने न्यूज़18 को बताया,”हमारे गाँव में बहुत लोड शेडिंग होती है इसलिए ये सोलर पैनल मैं अपने घर के लिए लाया था। पर जब हमने पदयात्रा पर निकलने की ठानी तो मैंने इसे अपने सर पर लगा लिया ताकि ये चार्ज होता रहे और सभी किसानों के मोबाइल इससे चार्ज हो सके। मेरे घर पर मेरी पत्नी, दो बच्चे और तीन भैंसें है। मुझे अपनी चार एकड़ ज़मीन पर अधिकार चाहिए जो वनविभाग के कब्ज़े में हैं।”

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भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट्ट और पाई (π)!

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चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्।

अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्य आसन्नौ वृत्तपरिणाहः॥

-आर्यभट्ट

उक्त पंक्तियों में आर्यभट्ट ने पाई (π) के सिद्धान्त को समझाया है।

image source – wikipedia
100 में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर 62000 जोड़ें। इस नियम से 20000 परिधि (circumference) के एक वृत्त (circle) का व्यास (diameter) जाना जा सकता जा सकता है।
( (100+4)*8+62000/20000=3.1416 )
जो दशमलव के पाँच अंकों तक बिलकुल सही है।
ज्यामिती (Geometry) में किसी वृत्त की परिधि की लंबाई और व्यास की लंबाई के अनुपात को पाई कहा जाता है।

दुनिया को शून्य से अवगत कराने वाले महान गणितज्ञ आर्यभट्ट ने ही पाई के सिद्धान्त का प्रतिपादन भी किया था।

आर्यभट्ट

image source – wikipedia
आर्यभट्‍ट प्राचीन समय के सबसे महान खगोलशास्त्रीयों और गणितज्ञों में से एक थे। वें उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का इस्तेमाल किया था। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभटिया’, जो की एक गणित की किताब है, को काव्य छन्दों में लिखा है।  इस पुस्तक में दी गयी ज्यादातर जानकारी खगोलशास्त्र और गोलीय त्रिकोणमिति (trignometry) से संबंध रखती है।
‘आर्यभटिया’ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं। पाई के सिद्धान्त के प्रतिपादक भी आर्यभट्ट ही थे।
हालाँकि इस अनुपात की आवश्यकता और इससे संबंधित शोध तो बहुत पहले से होते आ रहे थे पर पाई के चिह्न (π) का प्रयोग सबसे पहले 1706 में विलियम जोंस द्वारा किया गयापर  1737 में स्विस गणितज्ञ लियोनार्ड यूलर द्वारा इसके प्रयोग में लाये जाने के बाद से इसे प्रसिद्धि मिली।

3.14 संख्या होने के कारण ‘पाई दिवस’ हर साल 14 मार्च को मनाया जाता है।

image source – wikipedia
गणित के रोचक तत्वों की शृंखला में ‘पाई मिनट’ को भी शामिल कर लिया जाता है जब 14 मार्च को ठीक 1:59:26 बजे पाई के सात दशमलवीय मान प्राप्त हो जाते हैं यानि 3.1415926 हो जाता है तब पूरी दुनियां में पाई के प्रयोग, महत्त्व आदि पर चर्चा – परिचर्चा शुरू की जाती है।
featured image source – quora

 

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तेजस एक्सप्रेस से एलसीडी स्क्रीन्स हटाने का फैसला; क्या आप ज़िम्मेदारी लेंगे?

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चपन में हम अपनी स्कूल की मेज़ पर खुरच-खुरच कर अपना नाम लिख आते हैं, और बरसो बाद उसी स्कूल की ज़र्ज़र हालत पर अफ़सोस जताते हैं!

जवान होने पर हम अपने प्रेमी या प्रेयसी का नाम उसी तरह खुरच खुरच कर, ऐतिहासिक दीवारों पे लिख आते हैं, और चालीस तक पहुँचते-पहुँचते देश की धरोहर को न संभाल पाने का ताना सरकार को देते हैं!

यहीं हम, एक बार फिर अभिभावक बन जाने पर बच्चों को जहाँ-तहाँ शौच करने बिठा देते हैं और नगर पालिका पर गन्दगी साफ़ न कर पाने का दोष मढ़ देते हैं!

आपने किसी ऐसे बच्चे को देखा है जिसे महंगे से महंगा, मज़बूत से मज़बूत खिलौना दिए जाने पर भी वो उसे तोड़ कर ही दम लेता हैं… और उसके माता-पिता उससे तंग आकर खिलौना दिलाना ही बंद कर देते है? कुछ ऐसा ही हुआ है हमारे साथ!

हाल ही में रेलवे ने तेजस एक्सप्रेस की कोचों से एलसीडी स्क्रीन्स को हटाने का फैसला लिया है।

photo – PTI

अहमदाबाद-मुंबई शताब्दी एक्सप्रेस में लगे अनुभूति कोचों में भी ऐसी एलसीडी स्क्रीन्स थीं, जिन्हें अब हटाने का फैसला लिया गया है। इसकी वजह रेलवे की कोई आंतरिक नीति नहीं है बल्कि यात्रियों की बदसलूकी है। यात्रियों की ओर से इन ट्रेनों में लगी एलसीडी स्क्रीनों को नुकसान पहुंचाए जाने के मामले लगातार सामने आ रहे थे। इसके बाद रेलवे ने तेजस और शताब्दी जैसी प्रीमियम ट्रेनों से इन्हें हटाने का फैसला लिया।

तेजस एक्सप्रेस 20 डिब्बों वाली देश की पहली ट्रेन हैं, जिसके सभी डिब्बों में स्वचालित दरवाजे हैं। साथ ही हर डिब्बे में चाय व कॉफ़ी की वेंडिंग मशीन लगी है, हर सीट पर एलसीडी स्क्रीन और वाई-फाई की सुविधा है। तेजस में जाने-माने शेफ द्वारा तैयार मनपसंद खाना परोसा जाता हैं। ट्रेन में पानी की कम खपत वाले बायो-वैक्यूम शौचालय हैं। शौचालय में टचलेस पानी का नल, साबुन डिस्पेंसर और हाथ सुखाने की मशीन भी लगाईं गई है।

इससे पहले बीते वर्ष मई में तेजस के उद्घाटन से एक दिन पहले ही इसके शीशे तोड़ दिए जाने की खबर सामने आई थी। ऐसे में हम दोष किसे दे? जब आप घर का बजट बनाते हैं तो वर्षों तक पाई-पाई जोड़ कर कोई लक्ज़री वाला सामान बनवाते हैं मसलन कोई बहुत महंगा सोफा या कारपेट। ये चीज़ें ज़रूरत की तो नहीं होती पर आप अपने परिवार को खुश करने के लिए शौकिया ये सामान लेते हैं। फ़र्ज़ कीजिये कि ज़रूरत के सामानों में कटौती कर जोड़े पैसो से लिए आपके सोफे को कोई एक दिन में तोड़ दे! तो क्या आपका मन करेगा इस तरह के सामानों को फिर एक बार खरीदने का?

हमे समझना होगा कि कई सालों की मेहनत के बाद हमारा देश इस स्तर तक पहुंचा है कि हम तेजस जैसी लक्ज़री ट्रेनों का अब आनंद ले सकते हैं। और ये मेहनत किसी और की नहीं बल्कि हमारी ही हैं। हमारे ही टैक्स के पैसो से सरकार हमें ये सुविधाएँ मुहैया करवाती हैं। पर अगर हम ही इसकी कदर न करें तो बताएं कि सरकार की इसमें क्या गलती? हमारे घर के छोटे से बजट में अगर अचानक कोई मरम्मत या बिमारी का खर्च आ जाता है तो कैसे सब गड़बड़ हो जाता हैं! तो सोचिये इतने बड़े देश के बजट में इस तरह की गड़बड़ होने लगे तो आगे की नीतियाँ बनाने में कितनी मुश्किलें आएँगी!

आप कहेंगे “हम तो नहीं करते ये सब… वो कोई और गंवार होते होंगे”! पर मेरे भले मानस! आप उन गंवारों को रोकते भी तो नहीं! याद रखिये देश की हालत चंद मुठ्ठी भर लोगों के कुछ बिगाड़ने से नहीं बल्कि लाखों अच्छे लोगों के चुपचाप तमाशा देखने से बिगड़ती हैं!

तो अब जुट जाईये अपने देश को बचाने में! कसम खाईये कि इन असामाजिक तत्वों के खिलाफ वहीँ तुरंत आवाज़ उठाएंगे और देश की प्रगति में मौन का नहीं हिम्मत का योगदान देंगे।

आईये एक बेहतर भारत की ओर कदम उठायें, देश को सुन्दर एवं सफल बनायें!

Featured Image – IANS

 

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उफ़, उफ़्फ़ –‘द’टॉम ऑल्टर!

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वो खुद सर से क़दम तक डूब जाते हैं पसीने में
मेरी महफ़िल में जो उनको, पशेमाँ देख लेते हैं
– सफ़ी लखनवी

टॉम ऑल्टर के घर से निकल कर हम तीनों बिल्कुल चुपचाप एक ओर चलने लगे. उनके घर से उर्दू स्टूडियो / हिन्दी कविता के लिए शूट कर के निकले थे. किस दिशा में और क्यों चलने लगे इसका भान नहीं था. हम तकरीबन दस मिनट तो निशब्द चलते रहे, एक दूसरे की ओर देखा भी नहीं। न ही इस बात का अहसास था कि इर्द गिर्द क्या हो रहा है, हम कहाँ हैं – महज़ शरीर चल रहे थे, ज़हन तो हम वहीं उन्हीं के घर छोड़ आये थे.

“मैं टॉम साहब से शादी करना चाहता हूँ”, उनके भव्य व्यक्तित्व की चकाचौंध में गुम मेरे मुँह से निकला. मुग्ध. बे-होशोहवास. सब शांत. सब साथ चलते रहे.

“मैं भी!” …..कोई तीन-चार मिनट बाद मालविका, मेरी पत्नि, ने एक ठण्डी साँस भरते हुए कहा.

“मैं भी!” …..गुरलीन ने सुर मिलाया.

ये मोहतरमा 23 साल की प्रोडक्शन असिस्टेंट थीं हमारे साथ!

‘मुम्बई आयी हूँ VJ बनने, देखना एक साल में छा जाऊँगी’ इस ख़याल की लड़की को हिन्दी कविता जैसे प्रोजेक्ट में क्या मज़ा आना था. जब छम्मकछल्लो बन कर इंटरव्यू के लिए आयी थी तब पता था कि ये लड़की दो दिन से ज़्यादा नहीं चलेगी यहाँ. हिंदी कविता जैसे प्रोजेक्ट से कहीं दूर की दुनियां में रहने वाली ये लड़की कैसे धीरे-धीरे हमारी तरह हिन्दी-उर्दू अदब के रूमान में फँस गयी थी और आज टॉम ऑल्टर साहब की दिलरुबा शख़्सियत के पाश में.

ये किस कि हुस्न की जल्वागरी है
जहाँ तक देखता हूँ रौशनी है

-सईद अख़्तर

प्रस्तुत वीडियो में देखिये किस मख़मली, स्निग्ध लहजे में टॉम साहब कैमरे के साथ फ़्लर्ट कर रहे हैं. उनकी आँखें किस क़दर ख़ुश हैं. उनका चेहरा अपने पीछे न जाने किन दिलचस्प ख़ज़ानों को छुपाए रखने की बेमानी कोशिश कर रहा है. उर्दू ज़बान की आलातरीन रवानी और बयानी, भारत की एक दिलफरेब भाषा का इससे बेहतर प्रवक्ता कोई और न था.

मज़े की बात यह थी कि टॉम साहब जानते थे कि उनसे मिलने वालों पर उनकी शख़्सियत का कैसा जादू चलता है. बात-बात पर टपकते मौज़ूँ शे’र सुनने वाले को अपने तिलस्म में बाँध ही लेते थे. टॉम ऑल्टर की तरबियत (शिक्षा) उर्दू ज़ुबान में मसूरी में हुई. वे ख़ालिस भारतीय थे और अपने को अंग्रेज़ कहे जाने पर उन्हें अच्छा नहीं लगता था. कितना कुछ तो उन्हें ज़ुबानी याद था. प्रस्तुत वीडियो में वे यूसुफ़ साहब (दिलीप कुमार) के साथ अपनी पहली मुलाक़ात की बातें कर रहे हैं. ‘अच्छी एक्टिंग का राज़ है अदब’, दिलीप साहब ने फ़रमाया था. ‘बिना शेर-ओ-शायरी में दख़ल रखे आप कैसे ज़िन्दगी समझ सकेंगे और कैसे अच्छी अदाकारी कर सकेंगे’. टॉम साहब में अदा तो भरपूर थी, हुस्ने-अदब की बारिशों में भी जी भर के भीगे थे वे.

हुस्न-ए-अदा भी खूबी-ए-सीरत में चाहिए,
यह बढ़ती दौलत, ऐसी ही दौलत में चाहिए

-दाग़ देहलवी

अदब या साहित्य अच्छे अभिनय का राज़ ही नहीं जीवन की हर विधा, हर पहलू, हर यात्रा, हर सपने, हर मंज़िल, हर धारा, हर साहिल, हर तन्हाई, हर महफ़िल में ख़ुशबू और रंग साहित्य से आता है. जीवन की गति वही होगी, जीवन की गाड़ी उसी पटरी पर चलेगी लेकिन साहित्य का प्रभाव आपके प्रत्येक जीवनानुभव, तमाम अहसासात, को अधिक समृद्ध कर देता है. प्रेम अधिक मदिर, अधिक प्रखर हो जाता है; उत्साह अधिक ऊर्जावान. सभी कलाएँ साहित्य के ओज से महकती हैं. टॉम साहब के रुपहले व्यक्तित्व और उनके अभिनय का श्रेय यक़ीनन उर्दू अदब में उनके दख़ल से आता है.

टॉम साहब से यूँ तो और भी मुलाक़ातें हुईं लेकिन वह पहली मुलाक़ात भुलाये नहीं भूलती. आज वे हमारे बीच नहीं हैं – लेकिन हैं तो सही. चलते चलते फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शे’र समाअत फरमाएँ…

कुछ हुआ, कुछ भी नहीं और यूँ तो सब कुछ हो गया.
मानी-ए-बेलफ्ज़ है ऐ दोस्त दिल की वारदात.

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हुस्न-ए-समधन [उर्फ़: शौक़-ए-समधी]

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समधनजी झलक दिखला के गयीं
जी भर के नज़ारा हो न सका
समधीजी तरसते रह ही गए
दीदार दोबारा हो न सका..

हमारे हिंदुस्तान में शादी भी क्या दिलचस्प वाकया होती है. इधर बन्ने का दिल बल्लियों उछल रहा है उधर बन्नी के पेट में तितलियाँ उड़ रही हैं. इधर दूल्हे का भाई एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है कि बालों को किस तरह कटवाया जाए कि उसके बाँकपन से लड़कियों के दिल चाक हो उठें, इधर दुल्हन की बहनों में बहसें हो रही हैं कि चोली का गला कैसा हो और पीठ कितनी दिखानी है. दोनों तरफ़ के मुटियाते फ़ूफ़ाजी कसे कुर्ते में घुसने की कोशिशों में लगे हैं, ख़ालायें चाँदी होती ज़ुल्फ़ों में मेंहदी लगवा रही है. गरज यह कि सभी कौवे तोते बनने की फ़िक्र में हैं, भाभियों के मज़ाक देवरों-देवरानियों को शर्म से लाल कर रहे हैं, सालियाँ जीजाजी को फ़ैशन टिप्स दे रही हैं तो उनकी गरदन और अकड़ती जाती है. चहल-पहल, दौड़-भाग, दर्ज़ियों की ख़ुशामदें, फूलवालों को डाँट, किशोरों के दूर से सधते निशाने, ज़नानखाने की खनखनाती चहचहाहट, पान की पीकें, इत्र की बूँदें, मिठाइयों की महक, बच्चों की चीखें.. ऐसे शोरीले रंगीन आलम में आप सोचेंगे कि बेचारी दुल्हन की माँ हज़ार कामों में फँसी होगी और समधी जी अपना पैसे का बटुआ लटकाए जमाइयों के नखरे उठा रहे होंगे और घर की लड़कियों को सलीक़े से उठना-बैठना सिखला रहे होंगे तो हुज़ूर आप ग़लत हैं. हमारे समाज में समधी-समधन को ले कर इतने गीत हैं.. उनकी आपसी बातचीत की अदायें और शोख़ी को कतई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.

ढोलक की थाप पर अचानक ही मंडली गा उठती है:
तेरी सासू बड़ी छबीली,
इतउत नैन लड़ाये
उई माँ इतउत नैन लड़ाये
तेरा ससुरा बड़ा रंगीला, पान चाब इतराए,
उई माँ पान चाब इठलाये..

इस तरह के शादी के गीत आपको देश के हर प्रान्त में मिल जायेंगे. ये शरारती छेड़छाड़ एक अच्छे माहौल में ही होती है. इसका मतलब बस इतना है कि दोनों परिवार औपचारिकता को किनारे कर एक दूसरे के निकट आ जाएँ. समधीजी के जुमलों पर समधनजी शरमाती भी हैं और फिर पलट कर एक तेज़ तर्रार शोख़ी के साथ चुभता जवाब देती हैं तो समधीजी ही नहीं सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखर जाती है.

नखराली, मतवाली समधन लागै एक पहेली
बोल्या समधीजी, जीवन भर जाणै किस विधि झेली

ये लोकगीत न जाने कब से चले आ रहे हैं और न जाने किसने उन्हें लिखा है. लेकिन ‘समधन का सरापा’ यानी समधन के हुस्न का नखशिख वर्णन नज़ीर अकबराबादी ने अलग ही अंदाज़ में किया है. उसकी एक बानगी देखिये:

भरे जोबन पे इतराती, झमक अंगिया की दिखलाती
कमर लहँगे से बल खाती, लटक घूँघट की भारी है.

लटकती चाल मदमाती, चले बिच्छू को झनकाती
अदा में दिल लिए जाती अजब समधन हमारी है


नज़ीर अकबराबादी को उर्दू में नज़्म लिखने वाला पहला शायर गिना जाता है. इनके पहले फ़ारसी का ज़ोर था, शायरी दरबारी हुनर था. आम हिंदुस्तानी के लिए आम हिंदुस्तानी ज़बान में शायरी करना किसी को बर्दाश्त नहीं हुआ सभी बड़े शायरों ने उन्हें एकसुर में ख़ारिज कर दिया. लेकिन नज़ीर साहब ने साहित्य का एक बड़ा खज़ाना छोड़ा है जिसे सराहने वाले आज बढ़ रहे हैं. वे अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, ब्रजभाषा, मारवाड़ी और पूरबी के भी जानकार थे. उनकी मृत्यु के दो सौ सालों बाद आज उनकी लोकप्रियता में दिन दूना रात चौगुना इज़ाफ़ा हो रहा है.

इनकी शोख़ क़लम का एक नमूना समाअत फरमायें जिसे विनय पाठक निहायत ही दिलरुबा अंदाज़ में पेश कर रहे हैं 🙂

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सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला –खाप पंचायत का किसी भी शादी पर रोक लगाना अवैध!

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सुप्रीम कोर्ट ने ऑनर किलिंग मामले की सुनवाई करते हुए खाप पंचायत पर बड़ा फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि खाप पंचायत का किसी भी शादी पर रोक लगाना अवैध है। अदालत ने कहा कि अगर कोई भी संगठन शादी को रोकने की कोशिश करता है, तो वह पूरी तरह से गैर कानूनी होगा। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों की रोकथाम और सजा के लिए गाइडलाइन जारी की हैं। यह गाइडलाइन तब तक जारी रहेंगी जब तक कानून नहीं आ जाता।

तीन जजों की बेंच ने सुनाया फैसला

– खाप पंचायत की याचिका पर तीन जजों की बेंच सुनवाई कर रही थी। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच में जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूर्ण भी शामिल थे।

– बेंच ने कहा कि दो अलग समुदायों से आने वाले 2 वयस्क अपनी मर्जी से शादी करते हैं तो उनके किसी रिश्तेदार या तीसरे शख्स न तो उन्हें धमकाने या फिर उन पर हिंसा करने का अधिकार होगा।

– बेंच ने खाप पंचायतों के फैसलों को अवैध करार देते हुए कहा कि ऑनर किलिंग पर लॉ कमीशन की सिफारिशों पर विचार हो रहा है और जब तक नया कानून नहीं बन जाता तब तक मौजूदा गाइडलाइन के आधार पर ही कार्रवाई होगी।

अभी तक ऑनर किलिंग के मामलों में आईपीसी की धारा के तहत ही कार्रवाई होती है।

अभी छह राज्यों के विचार आने बाकी हैं। केंद्र ने कहा कि कोर्ट सभी राज्यों को हर जिले में ऑनर किलिंग को रोकने के लिए स्पेशल सेल बनाने के निर्देश जारी करे। अगर कोई युगल शादी करना चाहता है और उनकी जान को खतरा है, तो राज्य उनके बयान दर्ज कर कार्रवाई कर सकती है। केंद्र ने कहा कि वो खाप पंचायत शब्द का इस्तेमाल नहीं करेगा।

सुप्रीम कोर्ट में शक्ति वाहिनी नाम की एक स्वयंसेवी-संस्था  ने खाप पंचायतों के खिलाफ याचिका दायर की थी। शक्ति-वाहिनी ने याचिका में मांग की थी कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र और राज्य सरकारों को ऑनर किलिंग रोकने के मामलों पर रोक लगाने के लिए दिशानिर्देश दे।

सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों वाली बेंच की अध्यक्षता खुद चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा कर रहे थे। इस बेंच में जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ भी थे।

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हर भारतीय के लिए गर्व का क्षण –जब सत्यजित रे के पास खुद चलकर आया ऑस्कर!

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फिल्मे मनोरंजन का ज़रिया है और इसलिए हम सभी उन फिल्मों के दीवाने है जो हमें भरपूर मनोरंजन देती है! पर कुछ फिल्मे ऐसी होती है जो हमे मनोरंजन के साथ साथ हमारे समाज और वास्तविक जीवन का आईना भी दिखाती है. ये फ़िल्में हमारे चरित्र पर, हमारी सोच पर और हमारे जीवन पर एक गहरी छाप छोड़ जाती है!

ऐसी ही 39 फिल्मों का नायब तोहफा हमारे लिए महान फिल्मकार सत्यजीत रे छोड़ गए है!

पर कहा जाता है कि विश्व भर में प्रशंसित होने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी किसी भी फिल्म को ऑस्कर की दौड़ में शामिल होने के लिए नहीं भेजा।

उनकी फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ (1955) और अपू त्रयी को दुनियां भर के फिल्म फेस्टिवल्स में सैकड़ों अवॉर्ड मिले फिर भी उन्होंने ऑस्कर के लिए कोई कोशिश नहीं की।

पर विश्व के दस बेहतरीन फिल्मकारों में से एक माने जाने वाले सत्यजीत रे के पास ऑस्कर अवॉर्ड खुद चल कर कोलकाता आया।

30 मार्च 1992 को विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजीत रे को मानद ऑस्कर अवॉर्ड से अलंकृत किया गया था!

सत्यजित रे

बंगाली फिल्मों में अपने अद्भुत कार्य के लिए जाने जाने वाले सत्यजीत रे ने अपने जीवन काल में कुल 39 फिल्मों का निर्देशन किया! जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী – पथ का गीत) को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले।

यह फ़िल्म अपराजितो (অপরাজিত) और अपुर संसार (অপুর সংসার – अपु का संसार) के साथ इनकी प्रसिद्ध अपु त्रयी में शामिल है। सत्यजित दा फ़िल्म निर्माण से सम्बन्धित कई काम ख़ुद ही करते थे — पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना, पार्श्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की रचना करना। फ़िल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी थे।

उन्हें अपनी लीक से हटकर फिल्मों के लिए कई पुरस्कार मिले जिनमें अकादमी मानद पुरस्कार और भारत रत्न शामिल हैं।

जब ऑस्कर पुरस्कार की घोषणा हुई उस वक़्त सत्यीजत दा बीमार थे। इसलिए उनके घर आकर ऑस्कर अवॉर्ड के पदाधिकारियों ने उनका सम्मान किया। इस आयोजन की फिल्म बनाई गई और उसे ऑस्कर सेरेमनी में प्रदर्शित कर पूरी दुनियां को दिखाया गया।

निचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके आप इस ऐतिहासिक क्षण को देख सकते हैं!

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नागेश कुकुनूर की वो फ़िल्में जिन्हें आपको एक बार तो ज़रूर देखनी चाहिए!

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आज कल सोशल मीडिया के ज़रियें हमें अपने से कोसों दूर हो रही घटनाओं का झट से पता चल जाता है। पर फिर भी समाज के ऐसे कई पहलु है जिनका ज़िक्र कहीं भी नहीं हो पाता। हमारे कुएं नुमा दुनियां में हम जो देखते है उसी को सच मानते हैं। पर इसके परे भी कई ऐसे मुद्दे है जिन पर तब तक बदलाव नहीं लाया जा सकता जब तक हमें उनकी जानकारी न हो, जब तक हम उन विषयों पर चर्चा करना ज़रूरी न समझे।

नागेश कुकुनूर की फिल्मे हमे ऐसे ही कुछ मुद्दों से रु-ब-रु कराती है! आईये जानते हैं उनकी बनायी ऐसी ही पांच फिल्मों के बारे में –

डोर

2006 में आई डोर में जहाँ एक तरफ एक विधवा है जो अपने पति की प्यार भरी यादों के साथ जीना सीख रही है तो दूसरी तरफ उसे विधवा बनाने वाले शख्स की पत्नी है जो अपने पति को बचाने के लिए कुछ भी कर सकती हैं!

नागेश कुकुनूर ने इस फिल्म में बतौर निर्देशक हर संभव कोशिश की है कि हम इन दोनों किरदारों से जुड़ी हुई भावनाओं को समझे। नागेश ने दोनों महिलाओं को मजबूर दिखाते हुए भी कहीं से कमज़ोर नहीं बताया हैं। ये दोनों ही अपनी अपनी मुश्किलों को झेलते हुए कही न कही उम्मीद की परिभाषा सी लगती है, एक नए समाज की छबी सी लगती है!

इकबाल

2005 आई नागेश कुकुनूर द्वारा निर्देशित इस फिल्म का सबसे तगड़ी बात इसकी कहानी और इसके सभी कलाकारों की सशक्त अभिनय क्षमता है। फिर चाहे वो इकबाल के माता-पिता का छोटा सा किरदार ही क्यूँ न हो। नागेश ने हर एक कलाकार को उनके छोटे से छोटे रोल में भी दमदार अभिनय करवाया है।

इसके अलावा एक गूंगे बहरे नौजवान किसान के बेटे की एक खिलाड़ी बनने की तड़प हमे समाज का वो आईना दिखाती है जिसे अक्सर देख कर भी हम अनदेखा कर देते है।

तीन दीवारें

2003 में आई इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह, जैकी श्राफ, जूही चावला और खुद नागेश कुकुनूर ने मुख्य भूमिकाएं निभाई है। फिल्म तीन कैदियों के बारे में है जिन पर जूही चावला का किरदार एक डाक्यूमेंट्री बना रहा है। पर ये सीधी सादी सी कहानी से शुरू हुई फिल्म आगे क्या क्या मोड़ लेती है इसे जानने के लिए आपको फिल्म एक बार तो ज़रूर देखनी चाहिए!

फिल्म एक बहुत बड़ी सीख दे जाती है कि हर किसी के पीछे कोई न कोई कहानी ज़रूर छिपी होती है। ज़रूरी नहीं कि जो दिखाई देता हो वाही सच हो!

लक्ष्मी

नागेश की इस फिल्म को देखने के लिए सचमुच कलेजा चाहिए। या कह लीजिये कि ये हमारे समाज की वो तस्वीर है जिसे देख कर हमे अपने आप पे शर्म आने लगेगी। हमारे देश में मानव तस्करी और वेश्यावृत्ति का कितना बड़ा बाज़ार है ये हम सभी जानते है पर इस जंजाल में फंसी लड़कियों के साथ कैसे कैसे अमानवीय अत्याचार होते है इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। लक्ष्मी एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म है। आप अंदाज़ा लगा सकते है कि ये सत्य कितना कड़वा होगा! पर इस सत्य से लड़ने के लिए ही आपका इस फिल्म को देखना बेहद ज़रूरी है!

धनक

 

 

2016 नागेश कुकुनूर द्वारा निर्देशित इस भाई बहन की जोड़ी की कहानी से यक़ीनन आपको प्यार हो जायेगा!

धनक कहानी है एक बहन की जो अपने अंधे भाई को आँखे दिलाने के लिए शाहरुख़ खान से मिलने चल देती है। फिल्म अपनी कई छोटे-छोटे  और खट्टे-मीठे लम्हों के ज़रिये आपको जीवन के कई पाठ पढ़ा जाता हैं! दोनों बच्चो की अदाकारी भी कमाल की है जो दर्शको को शुरू से लेकर अंत तक बांधे रखती है!

आशा है आप इन फिल्मों को एक बार ज़रूर देखेंगे और हमे बताएँगे कि ये आपको क्या सौगात दे गयी!

तस्वीरें साभार – विकिपिडिया
featured image Source: Pandolin

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फिर छिड़ी रात बात फूलों की….

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“आप कल राजकुमारी इंदिरादेवी धनराजगीर से मिल रहे हैं!”

“ये कौन हैं? अगर सचमुच की राजकुमारी हों तो कोई बात बने”

“ये राजकुमारी ही हैं, मिल कर आपका दिल ख़ुश हो जाएगा”
सलीम भाई के चेहरे पर बड़ी आसानी से मुस्कान आती है. सलीम फ़ाज़िल साहब हैदराबाद में पत्रकार हैं, एक दो दिन पहले ही मिले हैं.
“एयरपोर्ट से होटल तक साथ चलता हूँ, आपसे लम्बी बात करनी है.”

“लम्बी बात के लिए शाम को न मिलें?”

“भाईसाहब, एयरपोर्ट से आपका होटल 55 किलोमीटर दूर है, पहुँचने में ही शाम हो जायेगी”  

पचपन किलोमीटर? मेरा मुँह खुला का खुला रह गया. इतना बड़ा है हैदराबाद?  

तो जनाब ऐसे सलीम साहब से पहली मुलाक़ात हुई थी कार में. हिन्दी कविता और उर्दू स्टूडियो के लिए इंटरव्यू लेना चाहते थे लेकिन अच्छा हुआ कि बातचीत किसी और दिशा में गयी.

“आप हैदराबाद से क्या चाहते हैं?”, उन्होंने पूछा.

बड़ा मुश्किल प्रश्न था. क्या चाह सकते हैं आप किसी शहर से? क्या जवाब दूँ..

हिन्दी कविता प्रोजेक्ट के लिए कुछ वीडियोज़ शूट करने हैं, क्या ऐसा कहूँ? लेकिन असल में हिन्दी कविता प्रोजेक्ट है क्या? कोई फ़ॉर्मेट तो है नहीं.. साहित्य भी है इसमें, संस्कृति भी है, इतिहास भी, दर्शन भी कविता कभी प्रमुख है, कभी कविता के बहाने इधर उधर की बातें हैं. फिर कवि में दिलचस्पी जागे ऐसा भी प्रयास है और पढ़ने वाला भी लोगों को नज़र आये उसकी शख्सियत दिखे.. ये सब कुछ हो, कुछ भी नहीं हो.. क्या जवाब दूँ इन्हें?

तब तक उन्होंने सवाल फिर से दाग दिया, “क्या चाहते हैं हमारे शहर से?”

फिर मैंने जवाब दे ही दिया. जब तक होटल नहीं आया कुछ न कुछ बोलता ही रहा.

बताया कि हिन्दी कविता प्रोजेक्ट तो मैं नहीं जानता हूँ.. जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है, जैसे जैसे दर्शकों के लिए इसकी तहें खुल रही हैं, वैसे ही मेरे लिए भी यह यात्रा है अगले मोड़ के आगे क्या है यह तो आने वाला मोड़ ही बताएगा.

ये कोई नयी बात नहीं थी.. कितने ही लेखकों ने पहले यह बात कही है. आख़िरी बार मैंने हारुकी मुराकामी के शब्दों में सुना था कि मुझे नहीं मालूम कि मेरा उपन्यास कहाँ जाएगा।

कमोबेश दो साल लगते हैं एक उपन्यास लिखने में. यह एक यात्रा है, मैं तो बोर हो जाऊँगा अगर मुझे मालूम हो कि कहाँ जाना है, और रास्ता क्या है? उन्होंने कहा था कि जैसे पाठकों के लिए पढ़ते पढ़ते सफ़ा दर सफ़ा कहानी खुलती जाती है ठीक वैसा ही मेरे साथ भी होता है. और यही मुझे हिन्दी-कविता (और उर्दू-स्टूडियो) प्रोजेक्ट के साथ लगता है. शहर दर शहर भटकता हूँ.. हर तरह के हर विधा के कलाकारों से, साहित्यकारों से, पत्रकारों, साधुओं, फ़कीरों, मलंगों, बच्चों, बूढ़ों से मिलता हूँ.. कभी कुछ निकलता है कभी सिर्फ़ मज़ा आता है वीडियो नहीं बन पाता है. अस्ल बात पूछें तो जहाँ भी मज़ेदार बात हो, अच्छा खाना हो, अच्छा पीना हो, अच्छा देखना सुनना हो, हँसी-मज़ाक हो, कुछ सीखने मिले चला जाता हूँ वीडियो बना तो उसे बोनस समझ लेते हैं. “तो सरकार आप ही कहें कि आप के शहर से क्या चाहा जाए?”

“समझ गया”, सलीम भाई ने अपनी अब तक चिर परिचित लगने लगी मुस्कान के साथ कहा और वो टैक्सी से उतर गए.

बाद में एक के बाद एक इंसानी ख़ज़ाने जुटाने शुरू कर दिए. कितने ही विलक्षण लोग मिले और अब मिलने की बारी थी धनराजगीर पैलेस जिसे ज्ञानबाग़ पैलेस भी कहते हैं में रहनेवाली इंदिरा देवी जी से.

चूँकि नामपल्ली हैदराबाद में स्थित यह महल रिहायशी है यहाँ आम पर्यटक का प्रवेश संभव नहीं है, यह बात बाद में हम पर खुली जब यहीं रहने वाली नेहा जो हमारे क्रू में थी ने अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनी और गजरा भी लगाया था. अब क्रू के सदस्य तो स्नीकर्स और रफ़टफ़ कपड़े ही पहनते हैं, हम उस पर रास्ते में तो हँसते रहे लेकिन जब राजकुमारी इंदिरादेवी जी के सामने पहुँचे तो नेहा के चहचहाने की बारी थी और हमारे इधर-उधर बगले झाँकने की.
राजसी रौब बेआवाज़ काम करता रहा हालाँकि इंदिरादेवी जी हद से ज़्यादा सौम्यता और ख़ुलूस से बात करती हैं.
From left to right – Manish Gupta, Neha and Indira Devi Dhanrajgir.
अपने कपड़ों की शर्म कम हुई तो उनकी सुन्दरता के तिलिस्म में फ़ँस गए. इतनी सुन्दर ख़ातून इतने प्यार से बिना किसी बड़े-छोटे का लिहाज़ किये हमसे मुख़ातिब तो थीं. नामचीन फ़िल्मी सितारों, लेखकों, शास्त्रीय, लोक गायकों, टीवी की हर तरह की शख़्सियतों से मिल रहे हों या किसी छात्र से हम लोग सबसे लगभग एक ही तरह की सहजता से मिलते हैं लेकिन इनकी शख़्सियत अज़ीम है और इनके सानिध्य में यह अहसास बना रहता है.

इंसान बड़े और छोटे होते हैं. कभी संतों के पास, कभी मंजे हुए हुनरमंदों के साथ, किसी बालक के साथ, साहित्य और संस्कृति के स्तम्भों, कुछ पत्रकारों, सम्पादकों के साथ, समाज-सेवकों अथवा राजनीतिज्ञों, डॉक्टरों के साथ आपको-हमें सभी को कभी-कभी यह अनुभूति होती है कि कितना बड़ा है यह इंसान.. इसका धन या ख़्याति से कोई लेना देना नहीं है. हीरा हर मौसम हर जगह अपनी चमक बरक़रार रखता है ऐसा ही इंदिरादेवी जी से मिल कर लगा. बहरहाल, बहुत सारे क़िस्से निकले उस दिन और एक पुराना रहस्य भी खुला जिसे इस वीडियो में आपके साथ साझा किया गया है.

बात यूँ थी कि हमें ‘रात भर आपकी याद आती रही’, ‘इक चमेली के मंडुए तले’, ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’.. जैसे अमर गीत देने वाले शायर मख़दूम मोहियुद्दीन की कब्र पर कोई लाल गुलाब रोज़ चढ़ा जाता था. यह बात देखते देखते हैदराबाद शहर में और हिंदुस्तानी पाकिस्तानी अदबी दुनिया में फैल गयी थी. शक और शुबहा तो चाहे जो भी रहे हों, यह राज़ आज खुलने वाला है इस वीडियो में:)

अब इसे मख़दूम की चाहत में देखें या राजकुमारी इंदिरादेवी जी से मिलने के लिए या फिर उस राज़ के लिए.. आपको सादगी का भी और शहंशाही का भी और एक मज़ेदार ग़ज़ल सुनने का भी लुत्फ़ आएगा।


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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आखिर कैसे, कब और क्यों बना था गेटवे ऑफ इंडिया!

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भारत के सबसे लोकप्रिय धरोहरों में से एक गेटवे ऑफ इंडिया की आधारशिला बम्‍बई (मुम्‍बई) के राज्‍य पाल द्वारा 31 मार्च1913 को रखी गई थी।

All pictures by – Mohitt Agrawal

गेटवे ऑफ़़ इंडिया का प्रवेशद्वार असिताश्म का बना हुआ स्थापत्य है, जिसकी ऊंचाई 26 मीटर है।

गेटवे ऑफ़़ इंडिया की रूपरेखा जार्ज विटेट ने तैयार की थी।

इसका निर्माण किंग जार्ज और क्वीन मैरी ने 1911 में करवाया था।

इस प्रवेशद्वार के पास ही पर्यटकों के समुद्र भ्रमण हेतु नौका-सेवा भी उपल्ब्ध है।

मुंबई के कोलाबा में स्थित गेटवे ऑफ़ इंडिया वास्तुशिल्प का चमत्कार है और इसकी ऊँचाई लगभग आठ मंजिल के बराबर है।

वास्तुकला के हिंदू और मुस्लिम दोनों प्रकारों को ध्यान में रखते हुए इसका निर्माण सन 1911 में राजा की यात्रा के स्मरण निमित्त किया गया।

 गेटवे ऑफ़ इंडिया ख़रीददारों के स्वर्ग कॉज़वे और दक्षिण मुंबई के कुछ प्रसिद्द रेस्टारेंट जैसे बड़े मियाँ, कैफ़े मोंदेगर और प्रसिद्द कैफ़े लियोपोल्ड के निकट है।

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कभी दो मुट्ठी चावल से शुरुआत की, आज बन गया 40 करोड़ का समूह

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“डर मुझे भी लगता था – ग़रीबी से, बेरोज़गारी से, कुपोषण से, नशे से लेकिन फिर मैंने अपनी बहनों को आवाज़ लगाया, एक संकल्प समाज की सीरत बदलने के लिए, संकल्प कुंठित मानसिकता और रूढ़िवादी परम्पराओं को उखाड़ फेकने का। आज सब कुछ सफल होता दिखता है।”

– पद्मश्री फूलबासन बाई यादव

फूलबासन बाई बचपन में अपने माँ-बाप के साथ चाय के ठेले में कप धोने का काम करती!

फूलबासन बाई यादव
ग़रीबी इतनी कि जब घर में भोजन करने का समय आता तो माता-पिता कहते कि आज एक ही समय का भोजन मिलेगा। कई बार तो हफ़्तों खाना नहीं मिलता था। ग़रीबी के चलते कभी-कभी तो महीनों नमक नसीब नहीं होता और एक ही कपड़े में ही महीने निकल जाते।
12 वर्ष की उम्र में फ़ूलबासन बाई की शादी एक चरवाहे से करवा दी गयी मानो कम उम्र में एक बड़ी ज़िम्मेदारी के कुए में इस मासूम बच्ची को धकेल दिया हो। कुछ साल में चार बच्चे हो गए लेकिन घर की आर्थिक स्थिति जस की तस थी। अपने बच्चों को दो वक़्त का भोजन देने के लिए फूलबासन  बाई दर-दर अनाज माँगती पर उनकी गुहार कोई नहीं सुनता। हर शाम अपने बच्चों को भूखे पेट देख फूलबासन ख़ून के आँसू रोती लेकिन इन चुनौतियों के सामने कभी समर्पण नहीं किया।
विपरीत परिस्थिति को अवसर मानकर फूलबासन बाई ने प्रण लिया कि अब वे ग़रीबी, कुपोषण, बाल-विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों से लड़ेंगी।

उन्होंने घर-घर जाकर दस बहनों का एक समूह बनाया जिसके तहत दो मुट्ठी चावल और हर हफ़्ते दो रुपए जमा करने की योजना बनाई।

लेकिन वक़्त अभी भी फूलबासन बाई से ख़फ़ा था। संगठन बनाने की यह मुहिम फूलबासन बाई के पति को पसंद नहीं आई और फिर समाजिक विरोध भी शुरू हो गया। समाज में सब कहने लगे फूलबासन पागल हो गयी है, महिलाओं का समूह बना परम्परा के ख़िलाफ़ काम कर रही है। लेकिन समाज को एक दिशा देने के उद्देश्य से निकली फूलबासन के संकल्प के आगे समाज के सारे ताने- बाने शून्य पड़ गए।
महिलाओं की मदद से जल्द ही समिति ने बम्लेश्वरी ब्रांड नाम से आम और नींबू के अचार तैयार किए और छत्तीसगढ़ के तीन सौ से अधिक स्कूलों में उन्हें बेचा जाने लगा जहां बच्चों को गर्मागर्म मध्यान्ह भोजन के साथ घर जैसा स्वादिष्ट अचार मिलने लगा। इसके अलावा उनकी संस्था अगरबत्ती, वाशिंग पावडर, मोमबत्ती, बड़ी-पापड़ आदि बना रही है जिससे दो लाख महिलाओं को स्वावलम्बन की राह मिली है।
फूलबासन बाई के मुताबिक अचार बनाने के इस घरेलू उद्योग में लगभग सौ महिला सदस्यों को अतिरिक्त आमदनी का एक बेहतर जरिया मिला और वें दो से तीन हजार रूपये प्रतिमाह तक कमा रही हैं। इन सबका नतीजा यह हुआ कि महिलाओं ने एक दूसरे की मदद का संकल्प लेने के साथ ही थोड़ी-थोड़ी बचत शुरू की। देखते ही देखते बचत की स्व-सहायता समूह की बचत राशि करोड़ों में पहुंच गई। इस बचत राशि से आपस में ही कर्जा लेने की वजह से सूदखोरों के चंगुल से छुटकारा मिला। बचत राशि से स्व-सहायता समूह ने सामाजिक सरोकार के भी कई अनुकरणीय कार्य शुरू कर दिए, जिसमें अनाथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, बेसहारा बच्चियों की शादी, गरीब परिवार के बच्चों का इलाज आदि शामिल है।

श्रीमती यादव ने सूदखोरों के चंगुल में फंसी कई गरीब परिवारों की भूमि को भी समूह की मदद से वापस कराने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की।

फूलबासन बाई ने अपने 12 साल के सामाजिक जीवन में कई उल्लेखनीय कार्यों को महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से अंजाम दिया है। महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से गांव की नियमित रूप से साफ-सफाई, वृक्षारोपण, जलसंरक्षण के लिए सोख्ता गढ्ढा का निर्माण, सिलाई-कढ़ाई सेन्टर का संचालन, बाल भोज, रक्तदान, सूदखोरों के खिलाफ जन-जागरूकता का अभियान, शराबखोरी एवं शराब के अवैध विक्रय का विरोध, बाल विवाह एवं दहेज प्रथा के खिलाफ वातावरण का निर्माण, गरीब एवं अनाथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के साथ ही महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में भी

फूलबासन बाई ने प्रमुख भूमिका अदा की है। आज लाखों महिलाओं का यह समूह राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए नए कीर्तिमान रच रहा है। फूलबासन  बाई के इस सकारत्मक कार्यों की सराहना करते हुए नाबार्ड ने महिला सशक्तिकरण एवं महिला स्वयं सहायता समूह को मजबूती प्रदान करने हेतु 900 करोड़ रूपए का अनुदान दिया हैI इस धनराशि से राजनांदगांव ज़िले एवं दूरस्थ अंचलो में महिलाओ को स्वावलम्बी बनाने पर काम किया जाएगाI
श्रीमती फूलबासन यादव को 2004-05 में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मिनीमाता अलंकरण से विभूषित किया गया। 2004-05 में ही महिला स्व-सहायता समूह के माध्यम से बचत बैंक में खाते खोलने और बड़ी धनराशि बचत खाते में जमा कराने के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए उन्हें नाबार्ड की ओर से राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। वर्ष 2006-07 में यूनियन बैंक ऑफ इंडिया द्वारा भी उन्हें सम्मानित किया गया। 2008 में जमनालाल बजाज अवार्ड के साथ ही जी-अस्तित्व अवार्ड तथा 2010 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नई दिल्ली में राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटील के हाथों स्त्री शक्ति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
फूलबासन बाई की इच्छाशक्ति के आगे मानो हर समस्या ने घुटने टेक दिया होI महिलाओं को अबला से सबला बनाने की यह यात्रा अपने आप में अनूठी एवं प्रशंसनीय हैI कभी दो वक़्त के खाने की भी मोहताज थी और आज लाखों महिलाओं का समूह बनाकर सफलता की इबादत लिख रही फूलबासन बाई के जज़्बे एवं हिम्मत को सलाम।

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जोनो-गोनो-मोनो अधिनायको जोयो हे..

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जीवन में ‘मछली जल की रानी है’ के बाद सबसे पहली अन्य पंक्तियाँ सीखी होंगी तो वे रही हैं ‘जन-मन-गण अधिनायक जय है’. जीवन के प्रत्येक मोड़ पर एक नयी ऊर्जा से भर देने वाला हमारा राष्ट्रगीत हर भारतवासी की रगों में संचरित है. हममें से कौन है जिसकी आँखों में कभी आँसू नहीं आ गए होंगे इसे सुन/गाकर. हममें से कौन है जिसके लहू में उबाल न आया हो, मुट्ठियाँ न तनी हों.

राष्ट्रगीत किसने लिखा?
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने बांग्ला भाषा में.

हूँ, तो इसका अनुवाद किसने किया है?
जवाब मिला कि भई कोई अनुवाद नहीं हुआ है. बस उच्चारण बदल दिया गया है.. ‘जोनो-गोनो-मोनो अधिनायको जोयो हे’ को गाया गया ‘जन-गण-मन अधिनायक जय हे’.

आज के युग में जब इतिहास के हर पन्ने पर प्रश्न-चिन्ह लगाए जा रहे हैं तो भला राष्ट्रगीत कैसे अछूता रह जाता. और ये प्रश्न-चिन्ह लोग अपने को समझदार साबित करने के लिए लगाते हैं या उन्हें सचमुच में ऐसा लगता है इसके बारे में क्या कहा जा सकता है. जब 1950 में इसे राष्ट्रगीत घोषित किया जाना था तब भी बहुत से लोग इस बात के पक्षधर थे कि बंकिमचंद्र चटर्जी कृत ‘वन्दे-मातरम्’ को राष्ट्रगीत घोषित किया जाए.

बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों में हमेशा से चले आ रहे एक तर्क ने बहुत ज़ोर पकड़ा है कि टैगोर ने इस गीत को जॉर्ज पंचम के सम्मान में लिखा था. उस वक़्त के ब्रिटेन के अखबारों में इस गीत को ब्रिटिश बादशाह की शान में प्रस्तुत गीत क़रार दिया था तो वहीं आनंद-बाज़ार पत्रिका और The Bengali ने उसे शाश्वत सारथी की अर्चना कहा. गीतांजली में शामिल इस कृति में पाँच स्टैंज़ा हैं जिसमें पहले को तो राष्ट्रगीत चुना गया आगे के स्टैंज़ा की पंक्तियाँ हैं :

हे चिरो सारोथी, तबो रथा चक्रे मुखोरितो पोथो दिनों रात्रि
ओ चिर सारथी, तुम्हारे रथ के चलने से हमारा पथ दिन-रात्रि मुखरित है..

अब ‘चिर सारथी’ कहकर क्या जॉर्ज पंचम को सम्बोधित किया होगा? मैं बताने वाला कौन होता हूँ, आप ही तय कीजिये. कॉन्ट्रोवर्सी थ्योरीज़ का रोमांच सबको भाता है. अब चाहे यह बात हो कि ‘क्राइस्ट’ असल में ‘कृष्ण’ थे. या इल्युमिनाती ने अमेरिका बनाया है और एक डॉलर के नोट पर पायी जाने वाली आँख (Eye of the God) सबको लगातार देख रही है. या मायन सभ्यता के कैलैंडर के अनुसार ब्रह्माण्ड का संतुलन बनाये रखने के लिए दुनिया 2012 में ख़त्म हो जाने वाली थी. अथवा चाँद पर मनुष्य पहुँचा ही नहीं है.. वह नासा की उड़ाई झूठी अफ़वाह है. या सीआईए के अनुसार इराक़ में WMD थे. और
अपने देश की विवादधर्मिता का आलम यह है कि अमर्त्य सेन ने ‘द आर्ग्युमेन्टेटिव इंडियन’ लिख दी है. तो हर तर्क के पीछे कई तर्क होते हैं / हो सकते हैं. सवाल उठाना किसी भी तौर पर ग़लत भी नहीं है. हमारे राष्ट्रगीत को ले कर यह भी तर्क उठा कि इसमें से ‘सिंध’ शब्द निकाल दिया जाए और ‘कश्मीर’ जोड़ लिया जाए. और यह भी कि इसमें राजस्थान, पूर्व की सात बहनें (प्रान्त) क्यों नहीं हैं?

कहते हैं कि टैगोर इस आक्षेप से अवसादग्रस्त थे कि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की चाटुकारिता की है. 1937 में पुलिनबिहारी सेन को लिखे पत्र में (मूलतः बांग्ला में है. प्रभातकुमार मुखर्जी द्वारा लिखी गयी ‘रविंद्रजीवनी’ के दूसरे भाग में पृष्ठ क्रमांक 339 पर यह पत्र छपा है) रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है:

“मुझसे जॉर्ज पंचम के सम्मान में लिखने का आग्रह जब एक वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी ने किया तो मुझे अत्यधिक मानसिक अशांति हुई. इसके विरुद्ध मैंने भारत के भाग्य-विधाता, चिर-सारथी जो युगों युगों से भारत का देव है, चिरकाल से मार्गदर्शक रहा है की स्तुति लिखी. वह कभी भी जॉर्ज पंचम, षष्ठम या कोई और जॉर्ज नहीं हो सकता.”

बहस फिर भी शायद ख़त्म नहीं हुई होगी तब उन्होंने 19 मार्च, 1939 को पुनः एक ख़त में लिखा:
“यह मेरा अपमान होगा कि मैं इस असीम मूर्खता का जवाब भी दूँ कि मैंने जॉर्ज चौथे या पाँचवे को अनंतकाल से इंसानियत के सैलाब को राह दिखाने वाले चिर-सारथी की तरह प्रस्तुत किया है..” 

प्रस्तुत वीडियो में हमारे राष्ट्रगीत  दे दो स्टैंज़ा प्रस्तुत हैं. बहस कौन सी करवट बैठती है यह तो वक़्त बताएगा. आप एक चिर-उत्साही धुन का आनंद लें जो हमारे आपके अणु-अणु में हमारे बचपन से ही विद्यमान है.

 


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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बिश्नोई, जिन्होंने सलमान ख़ान के ख़िलाफ़ 20 साल लंबी लड़ाई लड़ी!

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बहुचर्चित काला हिरण शिकार मामले में फिल्म अभिनेता सलमान ख़ान को जोधपुर कोर्ट ने दोषी करार दिया हैं.  इसके साथ तब्बू, सैफ, नीलम कोठारी और सोनाली बेंद्रेको बरी कर दिया गया है. यह मामला 1998 का है जिसमें सलमान ख़ान समेत इन बॉलीवुड कलाकारों पर शिकार का आरोप लगा था. इस मामले को इतना आगे बढ़ाने के पीछे वजह है ‘बिश्नोई समाज’, जो सलमान ख़ान को सजा दिलवाने के लिए 20 साल से लड़ रहा था. आइए जानते हैं कौन है बिश्नोई समाज के लोग और एक रसूकदार फिल्म अभिनेता के ख़िलाफ़ इतनी लम्बी लड़ाई इन्होने क्यूँ लड़ी?

बिश्नोई समाज जोधपुर के पास पश्चिमी थार रेगिस्तान से आता है और इसे प्रकृति के प्रति प्रेम के लिए जाना जाता है. बिश्नोई समाज में जानवर को भगवान तुल्य मान जाता है और इसके लिए वह अपनी जान देने के लिए भी तैयार रहते हैं.

यह समाज प्रकृति के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले लोगों को शहीद का दर्जा भी देता है. इस समाज के कई ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने जानवरों को बचाने के लिए अपनी जान भी गंवाई है.

1485 में गुरु जम्भेश्वर भगवान ने इस समाज की स्थापना की थी.

जम्भेश्वर भगवान्

इन्हें भगवान् विष्णु का अवतार माना जाता था. कहा जाता है कि जम्भेश्वर एक क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे. पर अपने साथियों की तरह शिकार करने के बजाये उन्हें प्रकृति की रक्षा करने में आनद आता था. वे घंटो जंगल के जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों से बाते करते.

जब वे 34 साल के थे, तब एक बार सम्रथाल की मरुभूमि पर बैठे-बैठे ध्यान करते हुए उन्हें अपने भीतर हरियाली दिखाई दी. उन्होंने तुरंत अपने अनुयायियों को बुला भेजा और उन्हें जीवन जीने के 29 नियम दिए, जिनमे से सबसे महत्वपूर्ण नियम है ‘प्राण दया’ याने की सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव. क्यूंकि उनके अनुयायियों का जीवन इन 29 नियमों पर आधारित था, इसलिए उन्हें बिश्नोई (बीस – 20 + नोई – 9) बुलाया जाने लगा.

आज इस समाज के 10 लाख से भी ज्यादा अनुयायी हैं और 525 से भी ज्यादा समय से ये बिश्नोई इन नियमो का पालन करते हुए पर्यावरण की रक्षा कर रहे है.

इस संप्रदाय के लोग जात-पात में विश्वास नहीं करते हैं. इसलिए हिन्दू-मुसलमान दोनों ही जाति के लोग इनको स्वीकार करते हैं.

काले हिरण को ये समुदाय अपने परिवार का हिस्सा ही मानता है.

rतस्वीर साभार – गंगाधरन मेनन

यहां तक कि इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरण का बच्चा या हिरण दिखता है तो वे उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसकी देखभाल करते हैं. इस समुदाय की महिलाएं जैसे अपने बच्चे को दूध पिलाती हैं वैसे ही हिरण के बच्चे को अपना दूध पिलाती हैं.

चिपको आंदोलन में भी विश्नोई समाज का अहम योगदान है रहा है.

चिपको आन्दोलन तस्वीर साभार – विकिपीडिया

ये बिश्नोई समाज ही था जिसने पेड़ों को बचाने के लिए अपने जान की आहुती दी थी. जोधपुर के राजा द्वारा पेड़ों के काटने के फैसले के बाद एक बड़े पैमाने पर बिश्नोई समाज की महिलाएं पेड़ो से चिपक गई थी और उन्हें काटने नहीं दिया. इसी के तहत पेड़ों को बचाने के लिए बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने अपनी जान भी दे दी, जिनमे 111 महिलाएं थीं.

उस वक्त बिश्नोयियों ने ये नारा दिया था, “सर साठे रूंख रहे तो भी सस्तो जान.”

इसका मतलब था, “अगर सिर कटाकर भी पेड़ बच जाएं तो भी सस्ता है.”

जब रियासत के लोग पेड़ काटने के लिए आए तो जोधपुर के खेजड़ली और आस-पास के लोगों ने विरोध किया. उस वक्त बिश्नोई समाज की अमृता देवी ने पहल की और पेड़ के बदले खुद को पेश कर दिया.

इन्हीं बलिदानियों की याद में हर साल खेजड़ली में मेला आयोजित किया जाता है और लोग अपने पुरखों की क़ुर्बानी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. ये आयोजन न केवल अपने संकल्प को दोहराने के लिए है बल्कि नई पीढ़ी को वन्य जीवों की रक्षा और वृक्षों की हिफाजत की प्रेरणा देने का काम करता है.

हालाँकि बिश्नोई समाज की सोच में एक बड़ा बदलाव तब आया जब उन्होंने शिकारियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए शांति की जगह लाठियों का सहारा लेने की ठानी. बिश्नोई युवाओं ने टाइगर फाॅर्स नामक एक संगठन की शुरुआत की जो केवल लाठी और ढेर सारी हिम्मत के सहारे इन जानवरों के ऊपर अत्याचार करने वालो से भिड़ जाते है, फिर चाहे वो सलमान ख़ान ही क्यूँ न हो.

करीब 1000 बिश्नोई युवाओं का ये दल 20 साल पहले उस वक्त भी सक्रीय हो गया था, जब सलमान और उनके साथियों ने एक काले हिरन को मार गिराया. इन युवाओं ने उनका पीछा किया तथा वन्य विभाग को उन्हें सौंप दिया. इसके ख़िलाफ़ मुकदमा भी बिश्नोई समाज ने ही दर्ज कराया था. और आखिर 20 साल लम्बी लडाई लड़ने के बाद उन्हें इन्साफ मिल ही गया!

सोचिये! अगर हम में से हर कोई पर्यावरण के प्रति इतना सजग हो जाये तो ये धरती एक बार फिर स्वर्ग बन सकती हैं !

 

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WWE के हॉल ऑफ फेम 2018 में अब भारत के “दारा सिंह”भी शामिल!

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रुस्तम-ए-हिन्द दारा सिंह ने रैसलिंग के इतिहास में ऐसी मिसालें दी हैं, जो कभी भूली नहीं जा सकती।
आज उन्होंने फिर एक बार भारत का नाम पूरे विश्व मे ऊंचा किया है।
WWE ने दारा सिंह को एक बेहद खास सम्मान से नवाजा है। WWE ने दारा सिंह को हॉल ऑफ फेम 2018 की लैगेसी विंग में शामिल किया है।

दारा सिंह अपने जमाने के विश्व प्रसिद्ध फ्रीस्टाइल पहलवान रहे हैं। उन्होंने 1959 में पूर्व विश्व चैम्पियन जार्ज गारडियान्का को पराजित करके कामनवेल्थ की विश्व चैम्पियनशिप जीती थी। 1968 में वे अमरीका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गये। उन्होंने पचपन वर्ष की आयु तक पहलवानी की और पाँच सौ मुकाबलों में किसी एक में भी पराजय का मुँह नहीं देखा। 1983 में उन्होंने अपने जीवन का अन्तिम मुकाबला जीतने के पश्चात कुश्ती से सम्मानपूर्वक संन्यास ले लिया।

उन्नीस सौ साठ के दशक में पूरे भारत में उनकी फ्री स्टाइल कुश्तियों का बोलबाला रहा। बाद में उन्होंने अपने समय की मशहूर अदाकारा मुमताज के साथ हिन्दी की स्टंट फ़िल्मों में प्रवेश किया। दारा सिंह ने कई फ़िल्मों में अभिनय के अतिरिक्त निर्देशन व लेखन भी किया।

उन्हें टी.वी धारावाहिक रामायण में हनुमान के अभिनय से अपार लोकप्रियता मिली।

उन्होंने अपनी आत्मकथा मूलत: पंजाबी में लिखी थी जो 1993 में हिन्दी में भी प्रकाशित हुई। उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राज्य सभा का सदस्य मनोनीत किया। वे अगस्त 2003 से अगस्त 2009 तक पूरे छ: वर्ष राज्य सभा के सांसद रहे।

7 जुलाई 2012 को दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्हें कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी अस्पताल मुम्बई में भर्ती कराया गया किन्तु पाँच दिनों तक कोई लाभ न होता देख उन्हें उनके मुम्बई स्थित निवास पर वापस ले आया गया जहाँ उन्होंने 12 जुलाई 2012 को सुबह साढ़े सात बजे दम तोड़ दिया।

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तत्काल के नियमों में हुआ बदलाव ; अब एक आइडी से लॉगिन करने पर सिर्फ एक ही टिकट किया जा सकेगा बुक!

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बात यदि गर्मियों कि छुट्टियों में नानी के घर जाने की हो तो आमतौर पर हम ट्रेन की टिकटें महीनों पहले से बुक करवा लेते हैं, क्यूंकि हर कोई जानता हैं कि हमारे देश में वक़्त पे ट्रेन की टिकट मिल पाना कितना कठिन है। पर अगर आपको कहीं अचानक जाना पड़ जाये तो? तब आप तत्काल का सहारा लेते हैं! तत्काल कि सीटें बनी ही इस तरह की इमरजेंसी के लिए हैं। पर ऐसा कितनी बार हुआ है कि आपने तत्काल टिकट बुक करने का समय होते ही ठीक रात में 12 बजे भारतीय रेल की वेबसाइट पर लॉग इन किया हो और यह क्या …. टिकट नदारद!!

आप सोचते होंगे ऐसी इमरजेंसी कितनों को हो जाती होगी कि इतनी जल्दी ये टिकटें बुक हो जाती है। पर सच्चाई यह है कि इस शरारत के पीछे दलालों का हाथ होता है, जो सारी टिकटे एक साथ खरीद लेते हैं। इसी पर नकेल कसने के लिए भारतीय रेलवे ने कुछ नियमों में बदलाव किये हैं जो इस प्रकार है –

रेलवे द्वारा टिकट बुकिंग को लेकर नियमों किए गए बदलाव –

  1.  तत्काल श्रेणी में एक आइडी से लॉगिन करने पर सिर्फ एक ही टिकट की बुकिंग होगी।
  2.  दूसरे टिकट के लिए से फिर से लॉगिन करना होगा।
  3.  एक लॉगिन से एक दिन में दो से अधिक  टिकट नहीं होंगी बुक।
  4.  एक महीने में छह टिकट से अधिक की बुकिंग नहीं होगी।
  5.  ऑनलाइन आरक्षण पर्ची भरने के लिए प्रति यात्री 25 सेकंड का समय तय।
  6.  भुगतान के लिए अधिकतम 10 सेकंड का समय निर्धारित किया गया है।
  7. आधार लिंक आइडी से महीने में 12 टिकट तक बुक करने की छूट होगी। लेकिन इसमें कम से कम एक यात्री का आधार वेरीफाइड होना आवश्यक होगा।
  8. सुबह 8 बजे से 12 बजे तक कोई भी यात्री अथवा एजेंट द्वारा कंप्यूटर में क्विक बुक फंक्शन सिस्टम का उपयोग नहीं कर सकते।

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