फीफा वर्ल्ड कप जोरो पर है और फुटबॉल का जादू भारतीयों के भी सर चढ़ कर बोल रहा है। लेकिन यह बात उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग पर लागू नहीं होती। क्योंकि यहां क्रिकेट सबके दिलों पर राज करती है।
पर साम्प्रयदायिक रूप से संवेदनशील मुजफ्फरनगर के भोपा जिले की बात ही कुछ और है! यहाँ के एक निवासी निशु कुमार एक ऐसे प्रतिभावान फुटबॉल खिलाड़ी है जिनका खेल देखकर यहाँ के लोग क्रिकेट को भूल चुके हैं। जी हाँ, आप निशु कुमार की गिनती भारत के बेहतरीन फुटबॉल खिलाड़ियों में कर सकते हैं। आज निशु बहुत से युवाओं को फुटबॉल खेलने की प्रेरणा दे रहे हैं।
भोपा के बच्चों द्वारा, ‘रोनाल्डो भाई’ के नाम से मशहूर 21 वर्षीय निशु को हाल ही में बैंगलुरु फुटबॉल क्लब ने अपनी टीम में खेलने के लिए दो साल का कॉन्ट्रैक्ट दिया है। इस कॉन्ट्रैक्ट की राशि एक करोड़ रूपये है।
पहले साल में उन्हें 40 लाख रूपये दिए जायेंगे। दूसरे साल 45 लाख और बाकी 15 लाख मैच बोनस के तौर पर दिया जायेगा।
निशु के पिता उत्तर प्रदेश में जनता इंटर कॉलेज में चपरासी की नौकरी करते हैं। उत्तर प्रदेश में फुटबॉल खेलने के लिए बहुत कम मौके मिलते हैं। लेकिन फिर भी अपनी मेहनत और लगन के बल पर निशु यहां तक पहुंचें हैं।
फोटो: फेसबुक/निशु कुमार
निशु के पहले कोच और जनता इंटर कॉलेज के स्पोर्ट्स टीचर कुलदीप राठी ने बताया, “निशु सबसे अलग है। मैंने तो केवल अपनी सिमित क्षमताओं से निशु का मार्गदर्शन किया है। पर यह निशु का खेल के प्रति प्रेम और जूनून था, जो वह यहां तक पहुंच पाया। हमारे इलाके में फुटबॉल के लिए आर्थिक सहायता तो दूर एक स्टेडियम भी नहीं है। हमारे यहां टैलेंट की कमी नही है। पर सरकार खेल पर कोई ध्यान ही नहीं देती है।”
तीन साल पहले बैंगलुरु फुटबॉल कप ज्वाइन करने के बाद निशु ने स्वयं अपना स्थान बनाया। बैंगलुरु एफसी के एक अधिकारी ने कहा, “निशु क्लब के लिए बहुत ही बढ़िया खिलाड़ी साबित हुए हैं। इसलिए उन्हें यह कॉन्ट्रैक्ट मिलना चाहिए था। वे अपने जीवन में बहुत आगे तक जायेंगे।”
इसी सब के बीच, सुविधा की कमियों के चलते भी निशु की कहानी भोपा के हर बच्चे को प्रेरित करती है। भोपा के एक किशोर गौरव सिंह ने बताया, “वह हमारे लिए हमेशा प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। वह हमेशा कहता था कि अगर हम सुविधाओं को लेकर शिकायतें ही करते रहेंगें तो यह हमारा ही नुकसान है । अगर वह कर सकता है तो कोई भी कर सकता है।”
हालाँकि, अपने बढ़ते स्टारडम पर निशु का कुछ और ही कहना है। निशु ने बताया कि उसने यह खेल इसलिए खेलना शुरू किया क्योंकि यह सबसे सस्ता खेल है। इसमें सिर्फ बॉल की जरूरत होती है।
निशु ने बताया, “हम अपने स्पोर्ट टीचर के मार्गदर्शन में फुटबॉल खेलते थे। धीरे-धीरे मुझे इसमें मजा आने लगा। फिर एक दिन चंडीगढ़ फुटबॉल क्लब के ट्रायल हुए और मैंने वह पास कर लिया।”
दो साल बाद, उन्हें ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) एलिट अकादमी के लिए चुना गया और साल 2015 में उन्होंने बैंगलुरु एफसी में शामिल होने से पहले अंडर-19 स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया।
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प्रेमपूर्वक ‘कोबीगुरु’ के नाम से जाने जाने वाले पुरस्कृत कवि और बहुमुखी प्रतिभा के धनी रबीन्द्रनाथ टैगोर आज भी उनके साहित्य में जीवित हैं। बहुत से लोगों के लिए उनकी विरासत, उनके द्वारा रचे गए संगीत में बसती है, उनके गाने जिनकी संख्या शायद 5000 से भी ज्यादा है।
अक्सर परिवार में, उत्सवों, त्योहारों के दौरान गाये जाने वाले रबीन्द्र संगीत में प्रेम का अद्भुत मिश्रण है। जैसे कि ये गाना, ‘भालोबेशे शोखी, निभृते जोतोने,’ मतलब, ‘मेरे प्रिये, मेरा नाम लिखो, प्रेम और स्नेह से अपनी आत्मा के मंदिर पर।”
उनके संगीत को देखते हुए, ये कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इस बंगाली आइकॉन को ‘रोमांस का कवि’ कहा जाता है। हालाँकि, बहुत कम लोगों को शायद रबीन्द्र और बॉम्बे की अन्नपूर्णा तुरखुद की प्रेम कहानी के बारे में पता हो। 17 साल के रबीन्द्र एक मराठी लड़की से प्यार कर बैठे थे और आज भी वह उनकी कविताओं में जीवित है।
दिलचस्प बात यह है कि इस प्रेम-कहानी पर आधारित एक बंगाली-मराठी फिल्म बन रही है। प्रियंका चोपड़ा के प्रोडक्शन हाउस पर्पल पेबल्स पिक्चर्स द्वारा निर्मित यह फिल्म लिखित दस्तावेजों पर आधारित है और आधुनिक शांतिनिकेतन में एक युवा छात्र के दृष्टिकोण से सुनाई जाएगी, जो ‘नलिनी’ नाम के साथ अन्नपूर्णा की एक तस्वीर को देखता है।
तो आज हम आपको बता रहें हैं, अन्नपूर्णा तुरखुद की कहानी, जिन्हें रबीन्द्र ने प्यार से ‘नलिनी’ नाम दिया था और इसी नाम से यह फिल्म भी आ रही है।
अन्ना या अन्नबाई के नाम से भी जाने जाने वाली अन्नपूर्णा, मुंबई स्थित (तत्कालीन बॉम्बे) डॉक्टर आत्माराम पांडुरंग तुरखुद की बेटी थीं। एक उच्च शिक्षित परिवार होने के साथ-साथ आत्माराम एक समर्पित सामाजिक सुधारक भी थे, जिन्होंने प्रार्थना समाज की स्थापना की थी।
इस तरह से उनके दोस्तों में देश भर से सुधारवादी और प्रतिष्ठित नागरिक शामिल थे। इन परिचितों में से एक रवींद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर भी थे। वो भारतीय नागरिक सेवा में शामिल होने वाले पहले भारतीय थे।
सत्येन्द्रनाथ ने ही रबीन्द्र को तुरखुद परिवार के साथ रहने के लिए मुंबई भेजा था। क्योंकि साल 1878 में रबीन्द्र पहली बार इंग्लैंड जाने वाले थे। इसलिए वे चाहते थे कि वहां जाने से पहले रबीन्द्र की अंग्रेज़ी अच्छी हो जाये। और इसके लिए फ्रांसीसी तुरखुद परिवार से अच्छा और कोई विकल्प नहीं था।
साल 1878 के मध्य में लगभग दो महीनों के लिए किशोर रबीन्द्र आत्माराम के घर पर रहे। अन्ना उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाती थी। रबीन्द्र से उम्र में तीन साल बड़ी अन्ना, कुछ वक़्त पहले ही इंग्लैंड से लौटीं थी। इसलिए उनकी अंग्रेज़ी काफी अच्छी थी।
ऐसा माना जाता है कि इन्हीं दिनों में उन दोनों के बीच प्यार हुआ। कृष्णा कृपलानी ने अपनी किताब ‘टैगोर-ए लाइफ’ में उनके रिश्ते के बारे में लिखा है। इस किताब के मुताबिक, दोनों के बीच यह स्नेह भरा रिश्ता पनपने के बाद टैगोर ने अन्ना को ‘नलिनी’ नाम दिया था।
इतना ही नहीं रबीन्द्र की बहुत सी कवितायेँ भी नलिनी से प्रेरित हैं। हालाँकि, किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। शायद इसीलिए किशोरावस्था का यह प्रेम, भविष्य का साथ नहीं बन पाया।
बॉम्बे में दो महीने रहने के बाद टैगोर ने अन्ना से विदा ली और इंग्लैंड चले गए। दो साल बाद, अन्नपूर्णा ने बड़ौदा हाई स्कूल और कॉलेज के स्कॉटिश उपाध्यक्ष हेरोल्ड लिटलडेल से विवाह किया। इसके बाद, वे अपने पति के साथ इंग्लैंड चली गयी और एडिनबर्ग में बस गयी। लेकिन साल 1891 में, मात्र 33 वर्ष की आयु में ही अन्ना की मृत्यु हो गयी थी।
वैसे कुछ दस्तावेज़ों की माने तो, अन्ना और रबीन्द्र के रिश्ते को आत्माराम तुरखुद ने अपना लिया था। लेकिन इनके रिश्ते के लिए रबीन्द्र के पिता देबेंद्रनाथ ने इंकार कर दिया, क्योंकि अन्नपूर्णा उम्र में रबीन्द्र से बड़ी थीं।
फोटो: अमेज़न.कॉम
‘रबीन्द्रनाथ टैगोर: द मायरियड माइंडेड मैन’ (कृष्णा दत्ता और डब्ल्यू एंड्रयू रॉबिन्सन द्वारा लिखी गई पुस्तक) के मुताबिक, आत्माराम और अन्नपूर्णा साल 1879 की शुरुआत में कलकत्ता गए थे, जहां उन्होंने टैगोर के पारिवारिक निवास स्थान जोरासांको ठाकुर बारी में देबेन्द्रनाथ से मुलाकात की थी।
उनकी मुलाकात में क्या हुआ, यह तो रहस्य ही रहा। मगर लेखकों का मानना है कि उसी वक़्त उन दोनों के रिश्ते को ठुकरा दिया गया था।
अन्नपूर्णा ने अपना साहित्यिक उपनाम ‘नलिनी’ ही प्रयोग किया और इसके अलावा उन्होंने अपने एक भतीजे का नाम भी रबीन्द्रनाथ रखा। ये सब बातें दर्शाती हैं कि उनका रिश्ता महज़ कुछ वक़्त का आकर्षण नहीं था। टैगोर ने भी अपने लेखन में ‘नलिनी’ नाम को बहुत ही प्यार से इस्तेमाल किया है।
वास्तव में, टैगोर अन्नपूर्णा को कभी नहीं भूल पाए थे और अक्सर वृद्धावस्था में भी उनके बारे में बात किया करते थे। अपनी 80 साल की उम्र में भी उन्होंने नलिनी को याद करते हुए बताया कि कैसे नलिनी ने उन्हें कभी भी दाढ़ी न रखने के लिए कहा था।
“सब जानते हैं कि मैंने उस सलाह को नहीं माना। लेकिन वह स्वयं मेरे चेहरे पर उस अवज्ञा को देखने के लिए जीवित नहीं रहीं।”
उम्मीद तो यही जताई जा रही है कि यह कहानी कभी न भूलने वाली फिल्म बनेगी। साहेब भट्टाचार्य को युवा कवि और मराठी अभिनेत्री वैदेही पराशुरमी को अन्नपूर्णा की भूमिका के लिए कास्ट किया गया है। इस फिल्म का निर्देशन राष्ट्रीय पुरस्कार द्वारा पुरस्कृत फिल्म निर्माता उज्ज्वल चैटर्जी करेंगें।
चैटर्जी का दावा है कि ‘नलिनी’ लिखित दस्तावेजों और ‘व्यापक शोध’ पर आधारित है। हालाँकि, वे जानते हैं कि इस फिल्म से जुड़ा हर पहलु उतना ही भव्य होगा, जितना कि स्वयं टैगोर हैं। इसीलिए उन्होंने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित कवि संख्या घोष सहित आठ सदस्यी पैनल, किसी भी परिवर्तन से पहले स्क्रिप्ट की समीक्षा करेगा।
फिल्म कब रिलीज़ होगी, इसके बारे में तो अभी नहीं बताया गया है। लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि यह फिल्म रबीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलु को पूरी ईमानदारी के साथ दर्शाने में खरी उतरेगी।
( संपादन – मानबी कटोच )
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आप क्या करेंगें अगर आप किसी ट्रेन में यात्रा करते समय कुछ लड़कियों को डरा हुआ व रोता हुआ देखेंगे? क्या आप उनसे मुँह फेर लेंगें या फिर बात की तह तक जाने की कोशिश करेंगें?
5 जुलाई को आदर्श श्रीवास्तव मुजफ्फरपुर-बांद्रा अवध एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे थे। अपने कोच में उन्होंने 26 लड़कियों के एक ग्रुप को सहमा हुआ और रोता हुआ देखा। और उन्होंने उन लड़कियों की मदद करने का फैसला किया।
यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आदर्श का ट्विटर अकाउंट 5 जुलाई, 2018 को ही बना है। अपनी पहली पोस्ट में उन्होंने प्रशासन को उन लड़कियों के बारे में आगाह किया।
उन्होंने तुरंत ट्रेन और कोच की सभी जानकारी के साथ ट्वीट किया।
— Adarsh Shrivastava (@AdarshS74227065) July 5, 2018
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक वाराणसी और लखनऊ के अधिकारीयों ने जैसे ही पोस्ट को देखा तो उन्होंने उस पर गौर किया। लगभग आधे घंटे के भीतर ही उन्होंने इस मामले की छानबीन शुरू कर दी।
आगे की रिपोर्ट के अनुसार, “ये 26 लड़कियां दो आदमियों के साथ थीं। उनमें से एक 22 साल तथा एक 55 साल का था। वे सभी बिहार में पश्चिम चंपारण से हैं। लड़कियों को नारकातियागंज से इदगाह ले जाया जा रहा था। जब पूछताछ की गई, तो लड़कियां कोई भी जवाब देने में असमर्थ थीं, इसलिए उन्हें बाल कल्याण समिति को सौंप दिया गया है।”
सरकारी रेलवे पुलिस (जीआरपी) और रेलवे पुलिस बल (आरपीएफ) द्वारा की गई तीव्र कार्रवाई के चलते 10 से 14 साल की उम्र की उन लड़कियों को समय रहते बचा लिया गया।
जून 2018 में रेलवे द्वारा उनके सम्पर्क में आने वाले ऐसे बच्चे, जो घर से भागे हुए हैं, या फिर तस्करी किये जाने वाले बच्चों की संख्या के बारे में एक अभियान चलाया गया है।
यह अभियान रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्विनी लोहानी ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की अध्यक्ष स्तुति कक्केर के साथ शुरू किया है।
फोटो: रेलवे बोर्ड चेयरमैन अश्विनी लोहानी/फेसबुक पेज
इस अभियान के लॉन्च के वक़्त अश्विनी ने बताया, “यह अभियान पूरे रेलवे सिस्टम में बच्चों की सुरक्षा के मुद्दे को हल करने और सभी स्टेकहोल्डर, यात्रियों, विक्रेताओं, बंदरगाहों को संवेदनशील बनाने के लिए शुरू किया गया है। वर्तमान में, रेलवे में बच्चों की देखभाल और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए रेलवे के लिए मानक ऑपरेटिंग प्रक्रिया (एसओपी) 88 स्टेशनों पर सफलतापूर्वक लागू की गई है। अब हम इसे 174 स्टेशनों पर लागू करना चाहते हैं। ”
इस तरह के अभियान वास्तव में संदेश फैलाने और इन बच्चों की मदद करने में कारगर साबित हो रहे हैं।
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साल 1999 में जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में रहने वाली 6 वर्षीय रुकसाना की आँखों ने सामने आतंकवादियों ने उसके पिता की हत्या कर दी। इस घटना के बाद रुकसाना सदमे में चली गई थी। उसने अपने बोलने की शक्ति खो दी थी।
जिस वर्ष रुकसाना के पिता की हत्या हुई, उसी वर्ष भारतीय सेना अधिकारी कप्तान विजयंत थापर को जम्मू-कश्मीर राइफल्स की बटालियन के साथ जिले में तैनात किया गया था।
जब कप्तान थापर को रुकसाना की कहानी के बारे में पता चला तो वे हर दिन उससे मिलने उसके स्कूल जाने लगे। अपने सहायक जगमाल सिंह के साथ वे मिठाई और चॉकलेट लाते और इस बच्ची से बात करते। धीरे-धीरे दोनों के बीच एक प्यारा-सा रिश्ता बन गया था। कप्तान थापर रुकसाना को डॉक्टर के पास भी लेकर गए।
कप्तान थापर के प्रयासों से रुकसाना अपने पिता की मौत के सदमे से उबरने लगी और उसने बोलना भी शुरू कर दिया था।
लेकिन दुर्भाग्यवश, उसी साल जून में कारगिल के युद्ध के दौरान टोलोलिंग नोल की लड़ाई में बहादुर कप्तान थापर शहीद हो गए। हालाँकि, मिशन पर जाने से पहले उन्होंने अपने परिवार को खत लिखा कि वे हमेशा रुकसाना का ध्यान रखें। उन्होंने खत में अपने और रुकसाना के प्यारभरे रिश्ते का जिक्र किया और अपने परिवार से गुजारिश की कि वे हर महीने रुकसाना के लिए पैसे भेजें।
कप्तान थापर के पिता कर्नल थापर (73 वर्षीय) ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया कि उनका परिवार नोयडा में रहता है। लेकिन अपने बेटे की इच्छा का मान रखते हुए वे हमेशा रुकसाना के सम्पर्क में रहे। वे हर साल रुकसाना के लिए पैसे भेजते हैं।
साल 2015 में कर्नल थापर रुकसाना और उसकी माँ से भी मिले और उन्हें ख़ुशी हुई कि रुकसाना की पढ़ाई जारी है।
टोलोलिंग हमले से पहले अपने परिवार के लिए लिखे खत में उन्होंने लिखा कि यदि फिर से उनका जन्म इंसान के रूप में हो तो वे फिर एक बार सेना में भर्ती होकर देश के लिए लड़ेंगें। उन्होंने अपने परिवार को उनके सभी अंग दान करने की भी गुजारिश की और आग्रह किया कि वे हमेशा रुकसाना का ख्याल रखें।
जहां कप्तान थापर ने अपना बलिदान दिया, उस स्थान पर उनके पिता कर्नल थापर ने कई दौरे किये हैं। वे उन्हें बहुत याद करते हैं और साथ ही उन्हें गर्व है अपने बेटे पर।
कप्तान थापर को मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया था। हम भारतीय सेना के इस नायक को सलाम करते हैं जिन्होंने निःस्वार्थ रूप से देश के लिए अपना जीवन दे दिया और साथ ही, एक बच्ची को उसकी आवाज भी लौटाई।
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उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खेरी जिले के कौशल निषाद पिछले छह महीनों में यूट्यूब सेंसेशन बन चुके हैं। अपनी गायिकी से पहचान बना रहे कौशल निषाद अंडे बेचते हैं। उन्होंने आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। कौशल को गाने का शौक है और वे अक्सर पुराने गायक जैसे मोहम्मद रफ़ी, कुमार सानू के गाने गुनगुनाते थे।
एक दिन उनके छोटे भाई ने उनकी वीडियो को, यूट्यूब अकाउंट बनाकर अपलोड कर दिया। उसके बाद से कौशल के चाहने वाले बढ़ने लगे। कुछ लोग तो उन्हें ‘गरीबों का मोहम्मद रफ़ी’ भी बुलाने लगे हैं। उनका यूट्यूब अकाउंट ‘निषाद म्यूज़िक भोजपुरी’ के नाम से है।
अब वे सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि समारोह आदि में भी गाते हैं।
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आपको याद है कि कैसे बचपन में हम मोगली के दीवाने हुआ करते थे। सेओनी के पेंच जंगल में पला-बढ़ा वह मस्तीखोर बच्चा, जिसे रुडयार्ड किपलिंग की जंगल बुक सीरीज ने मशहूर कर दिया।
हम ऐसे जीवन जीने का सिर्फ ख़्वाब ही देख सकते हैं लेकिन इसी ख़्वाब को सच में जीने वाला एक बच्चा है, जो मध्य प्रदेश के पेंच जंगलों से सिर्फ 50 मीटर की दुरी पर रह रहा है।
पेड़ की टहनियों पर झूलता, जंगल में नंगें पैर घूमता, तितलियों को पकड़ता, बंदर की नकल उतारता और रात को अपनी खिड़की से बाघ को बुलाता, साढ़े तीन साल का कैज़ेन मोगली के जैसा ही जीवन जी रहा है। इसका श्रेय जाता है उसके माँ हर्षिता और पिता आदित्य शाकल्य को।
उन्होंने अपने बेटे को यह प्राकृतिक जीवन देने के लिए अपनी कॉर्पोरेट की अच्छी-खासी नौकरी को छोड़ दी।
आदित्य, हर्षिता अपने बेटे कैजेन व कुत्ते कार्लोस के साथ
कैज़ेन केवल छह महीने का था, जब हर्षिता और आदित्य ने इंदौर में अपना शहरी जीवन और नौकरी छोड़ कर, पेंच टाइगर रिजर्व के ‘टाइगर एन वुड्स’ रिज़ॉर्ट की देखभाल करना शुरू किया।
आदित्य का जन्म दिल्ली में हुआ और हर्षिता का पालन-पोषण इंदौर में। उन्होंने अपनी पढ़ाई विदेश में की और अपनी काबिलियत के चलते कई बड़ी इंडस्ट्रीज में काम भी किया।
हर्षिता, एक पेशेवर चॉकलेटियर है। उन्होंने 17 साल की उम्र में ही अपना खुद का व्यवसाय शुरू कर दिया था। आदित्य एक उपन्यासकार हैं। उन्होंने कई ब्रांड और प्रकाशनों के साथ काम किया है।
आदित्य और हर्षिता की मुलाकात तब हुई जब ये दोनो एक ही फर्म के लिए काम कर रहे थे। वहीं से उन्होंने साथ में बिजनेस खोलने का निश्चय किया। एक जैसे विचार रखने वाले इस जोड़े ने खुद का सोशल मीडिया और डिजाइनिंग स्टार्टअप शुरू किया। जो रिश्ता बिजनेस पार्टनर के रूप में शुरू हुआ था, वह आगे चलकर ज़िन्दगी में भी पार्टनरशिप में बदल गया।
इस जोड़े को वर्कहोलिक कहना गलत नहीं होंगा। साल 2013 में अपने हनीमून के दौरान भी दोनों पति-पत्नी काम कर रहे थे। हर्षिता ने अपनी थाईलैंड की ट्रिप को याद करते हुए बताया कि कैसे उस एक ट्रिप ने उनकी ज़िन्दगी में सब कुछ बदल दिया।
“हम एक सुंदर छोटी सी वैन में क्राबी जा रहे थे। लेकिन खिड़की के बाहर की खूबसूरती निहारने की बजाय हमारा ध्यान इस पर था कि कब हमें नेटवर्क मिलेगा और कब हम फिर से काम कर पायेंगें।”
वह उन दोनों के लिए अपनी कड़वी सच्चाई से रू-ब-रू होने वाला पल था। उन्हें यह समझ आया कि वे आने वाले कल में और खासकर अपने बच्चों के लिए ऐसी ज़िन्दगी नहीं चाहते हैं।
बहरहाल, कॉर्पोरेट छोड़ना तो उनके लिए आसान था लेकिन उनके पास कोई बैकअप प्लान नहीं था।
उस समय जब हर कोई नए साल का स्वागत कर रहा था तो उन्हें भी अपने जीवन में बदलाव का एक मौका मिला। साल 2014 में नए साल से पहले दिन शाम की पार्टी में उन के कुछ दोस्तों ने आदित्य की नई किताब के बारे में चर्चा शुरू की।
तभी उनके एक दोस्त ने बताया कि वो ऐसी जगह जानता है जहां शांति से आदित्य अपनी किताब लिख सकता है और साथ ही उस रिसोर्ट का प्रबंधन भी संभाल सकता है।
हर्षिता ने बताया, “उस समय कैज़ेन छह महीने का था। तो हमने सोचा कि क्यों न इसे ट्राई किया जाये। वैसे भी हम अपने बच्चे को शहर की अफरा-तफरी से दूर बड़ा करना चाहते थे।”
इस के साथ ही हर्षिता ने आजकल के दौर में शिक्षा में बढ़ते व्यवसायिक मॉडल के बारे में अपने विचार व्यक्त किये।
उन्होंने बताया, “मैं जानती थी कि हम अपने बेटे को कभी न खत्म होने वाले रेस का हिस्सा नहीं बनाना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि वह किसी भी चीज़ में सफल होने के बारे में चिंतित हों क्योंकि दुनिया यही सोचती है कि आपके मार्क्स या ग्रेड जीवन में सफलता को परिभाषित करते हैं।”
यह उनके लिए एक मौका था इस कंक्रीट जंगल से परे जाकर भी जीवन को तलाशने और जीने का। 4 जनवरी को वे पहली बार उस रिज़र्व में गए और 17 मार्च, 2015 को वे अपने सारे सामान के साथ वहां हमेशा के लिए आ गए।
कैज़ेन नदी में खेलते हुए
पर क्या यह बदलाव उनके लिए आसान था?
“हम शहरों में पले-बढे थे और अभी तक कॉर्पोरेट जीवन जिया था। हम तो सुबह तक पार्टी करने वाले लोग थे। यह बदलाव बहुत मुश्किल था। एक पार्क में जाकर घूमना, टाइगर रिज़र्व के बीच में रहने से बहुत अलग होता है।”
हर्षिता ने बताया कि जंगल के इतने करीब रहने में यक़ीनन आप प्रकृति जैसा महसूस करते हैं। लेकिन इसके साथ एक डर भी होता है।
“यह हमेशा से डरावना था और आज भी है। मैंने झाड़ियों से कोबरा को निकलते देखा है और एक बार एक जंगली बंदर को कैज़ेन पर गुर्राते देखा है। सच यही है कि हम एक ऐसी जगह रह रहे हैं, जहां जानवरों का राज है। ये उनका घर है और हम हमेशा बाहरी ही रहेंगें। इसलिए हमें सद्भावना से रहना है और इस जगह को हर तरीके से प्रकृति के करीब रखना है,” हर्षिता ने कहा।
कैज़ेन अपने जंगली दोस्त के साथ
“पहला साल बहुत मुश्किल था। जब हम रिसोर्ट की मरम्मत कर रहे थे, तो बिजली की बहुत समस्या थी।”
हर्षिता उन दिनों को याद करती है जब कैज़ेन गर्मी में करवटें बदलता था। लेकिन आज वो दर्द भरे पल केवल ख़ूबसूरत यादें हैं। अपनी 10 फ़ीट ऊँची मचान से जीव-जंतुओं को देखना और हर दिन मौसम को बदलते हुए देखना, एक अलग ही तरह का अनुभव है। अब उनके पास केवल मीठी यादें हैं।
रिज़र्व के गेट से बाहर निकलते ही 30-40 घरों वाला एक गांव है। इन गांववालों के बीच कैज़ेन खूब मशहूर है। हर्षिता बताती हैं कि कैसे एक दिन वह मच्छर के काटने पर रोते हुए उनके पास आया और गांव के देहाती भाषा में कहा, “मम्मा, मच्छर चाप गया।”
“वह शहरी बच्चे और बड़ों की तुलना में बहुत जल्दी लोगों के साथ घुल-मिल जाता है। वह नए लोगों के साथ आसानी से बातचीत करता है। जब मेहमान दूसरे देशों से आते हैं, तो वह अंग्रेजी में उनसे बात करता है। दूसरी तरफ गाँव वालों से उनकी स्थानीय भाषा में भी बड़े आराम से बात कर लेता है। और यहां काम करने वाले विकलांग कर्मचारियों से वह सांकेतिक भाषा में बात करता है,” हर्षिता ने बताया।
किचन के साथ-साथ वह फल, सब्जियों और औषधियों के बारे में भी भली-भांति जानता है। कर्मचारियों की उनके कामों में मदद करना और साथ ही साथ विनम्रता रखना, यह सब उसे आता है।
दूसरे माँ-बाप जहाँ अपने बच्चों को बाहरी जीवन से रू-ब-रू कराने की जद्दोजहद में लगे हैं, वहीं कैज़ेन की दुनिया खुद उसके पास आ रही है।
कैज़ेन गांववालों के साथ
भले ही यह बच्चा अपनी उम्र के अधिकांश बच्चों की तरह नहीं लिख सकता, फिर भी वह आत्मनिर्भर बनने के लिए आवश्यक सभी बुनियादी कौशल सीख रहा है। वह इस महीने से एक ओपन स्कूल में जाने लगा है, जो उनके घर से 60 किलोमीटर की दूरी पर कैटरपिलर लैब्स के नाम से है। इस स्कूल में उम्र मायने नहीं रखती। इसमें अलग-अलग भाषा और गतिविधि प्रयोगशालाएं होती हैं। सभी विद्यार्थियों को विभिन्न कौशलों में पारंगत किया जाता है।
उसे स्कूल भेजने का दूसरा कारण था, उसका अपनी उम्र के बच्चों के साथ की कमी का खलना। जब भी मेहमान आते तो वह बहुत उत्साहित होता लेकिन उनके जाने पर वह उदास हो जाता।
“लगातार उसके दोस्त बने और वह खुश रहे, इसलिए हमने उसे स्कूल में दाखिला दिलवाया,” हर्षिता ने कहा।
रिसोर्ट के साथ-साथ वे अब खुद को समय दे पा रहे हैं। आदित्य एक योगा टीचर भी है। इसलिए वह बच्चों और आने वाले मेहमानों के लिए योग वर्कशॉप भी रखते हैं। हाल ही में उन्होंने बोधिसत्वा योग फाउंडेशन शुरू की है। जिसका उद्देश्य युवा बच्चों के भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखना है। यहां पर उन्हें योग को कर चिंता और अवसाद से लड़ना सिखाया जाता है।
चॉकलेट का व्यवसाय चलाना यहाँ मुश्किल था। इसलिए हर्षिता ने गांव में घूमकर स्थानीय वस्तुओं, चावल और सब्जी आदि के बारे में गांववालों से जानने और समझने की कोशिश की।
उन्होंने अपनी पेंच पिकल कंपनी खोली। जहां पर अचार, जैम और शरबत आदि जैसी चीजें बनती हैं।
हर्षिता गांव की औरतों के साथ
जब हर्षिता से यह पूछा गया कि क्या हो अगर कैज़ेन बड़ा होकर शहर जाने के लिए कहे तो?
उन्होंने हंसते हुए कहा, “सच कहूं तो मुझे पता है कि एक दिन शहरी जीवन उसे अपनी तरफ आकर्षित करेगा। यह हमें भी आकर्षित करता है। लेकिन यह उसका फैसला होगा। हमने यहां आने के फैसले में अपने माता-पिता की नही सुनी थी। लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि हम अपने बच्चे की बेहतर परवरिश कर पाएं।”
और यदि आपको लगता है कि कैज़ेन केवल गांव और जंगल तक ही सीमित है, तो आप गलत हैं।
“सच में, हम कौन है उसे रोकने वाले? हम तो सुनिश्चित करते हैं कि वह सब कुछ अनुभव करे। हम चाहते हैं कि वो वही बनें जो वह बनना चाहता है। हम उसे भारत में और भारत के बाहर ट्रिप्स पर लेकर गए हैं,” हर्षिता ने बताया।
कैज़ेन अभी तक गोवा, दिल्ली, इंदौर, वाराणसी, श्रीलंका, अंडमान और अन्य स्थानों की यात्रा कर चूका है।
( संपादन – मानबी कटोच )
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16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए निर्भया केस को शायद ही कोई भूल पाए। इस मांमले में पीड़िता के साथ हुई बर्बरता की कोई सीमा नहीं थी। यह पहली बार था जब पुरे देश में लोगों ने इस अन्याय के ख़िलाफ़ एक-जुट होकर प्रदर्शन किये।
इस केस में बहुत सी बातें हैं, जो शायद किसी भी मामले में पहली बार हुई थीं। लेकिन इन सबके साथ इस केस में सराहनीय थी दिल्ली पुलिस की भूमिका। दिल्ली पुलिस ने 72 घंटों के अंदर ही सभी आरोपियों को गिरफ्तार किया था। साथ ही केस के 10 दिनों के अंदर ही उन्होंने चार्ज शीट फाइल कर दी थी।
इस मामले की छानबीन करने वाली पुलिस टीम के अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि आज वे निर्भया के माता-पिता से आँखें मिला सकते हैं। उन्हें गर्व है कि उन्होंने मौत से लड़ रही निर्भया से किया अपना वादा पूरा किया।
तत्कालीन डीसीपी छाया शर्मा, जिनके निर्देशन में इस मामले की तहकीकात हुई, उन्होंने कहा, “इस केस में पूरी टीम ने कड़ी मेहनत की जाँच-पड़ताल करने में। सुप्रीम कोर्ट ने भी हमारे प्रयासों को सराहा था। बाकी यह निर्भया का विश्वास और हौंसला था, जो हमारे लिए प्रेरणा बना।”
इसके अलावा उन्होंने बताया कि निर्भया के मामले पर 100 से अधिक पुलिसकर्मियों ने काम किया, 72 घंटे के भीतर मामले को सफलतापूर्वक हल किया गया और घटना के दस दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल की गयी थी। दिल्ली में कुल 381 बसों में से, हमारी टीम ने सफेद बस की पहचान की, जिसमें यह घटना हुई थी।
दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के डीसीपी पी. एस कुशवाह ने द क्विंट को बताया, “शुरुआत में कोई सबूत या संकेत न मिलने से मामला बहुत मुश्किल था। लेकिन फिर हमें एयरपोर्ट के पास एक होटल से एक वीडियो मिला। इस वीडियो क्लिप में यह बस दो बार उसी जगह से गुजरी थी। हमारे संदेह का मुख्य कारण यही था कि आखिर क्यों एक बस एक ही स्थान से दो बार जा रही है- एक बार 9:34 बजे और फिर 9:54 पर।”
इस वीडियो के मिलने के बाद, बस को ढूंढने में पुलिस को ज्यादा वक़्त नहीं लगा और इसके बाद बस ड्राइवर राम सिंह को गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद बाकी सभी आरोपियों को भी तीन दिनों में पकड़ लिया गया था।
इस केस में नाबालिग राजू को छोड़कर बाकी सभी को मौत की सजा सुनाई गयी थी। इसके बाद राम सिंह ने जेल में आत्महत्या कर ली थी। जबकि राजू को सुधार-गृह भेजा गया था।
अब सुप्रीम कोर्ट ने भी बाकी तीन अपराधियों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील करने की अपील को ठुकरा दिया है।
इस केस में पुलिस की भूमिका बहुत अहम् रही और उनकी जाँच के चलते ही कोर्ट भी बिना समय गवाएं फैसला सुना पाया।
( संपादन – मानबी कटोच )
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कर्नाटक का तुलसीगरी में भारत की एकमात्र तिरंगा बनाने वाली कंपनी हैं। कर्नाटक कॉटन विलेज एंटरप्राइज में अधिकांश स्थानीय औरतें काम करती हैं।
इन औरतों ने भले ही अपने गांव से बाहर की दुनिया नहीं देखी, लेकिन इनके द्वारा बनाये गए तिरंगे का पूरी दुनिया में सम्मान होता है। राजधानी से 2,000 किलोमीटर (1,200 मील) दूर इस कंपनी में लगभग 400 कर्मचारी काम करते हैं। जिनमें से औरतों की संख्या पुरुषों की तुलना में बहुत ज्यादा है।
कम्पनी की सुपरवाइज़र अन्नपूर्णा कोटी ने कहा, “औरतों के मुकाबले आदमियों में कम धैर्य होता है। बहुत बार जल्दी में वे माप गलत ले लेते हैं।”
“ऐसा होने पर फिर से सिलाई उधेड़ कर दोबारा सारी प्रक्रिया करनी पड़ती है। 4 दिन के बाद वे काम छोड़कर चले जाते हैं और वापिस नहीं आते।”
यहां औरतें ही सबकुछ करती हैं। कपास की कताई से लकेर सिलाई तक। पिछले साल, उन्होंने लगभग 60,000 तिरंगा बनाये थे।
दुनिया भर में भारतीय दूतावासों के साथ-साथ स्कूलों, गांवों के हॉलों और आधिकारिक कारों पर, आधिकारिक कार्यक्रमों और सरकारी भवनों पर उनके द्वारा बनाये तिरंगें लगाए जाते हैं।
तिरंगें के रंगों से लेकर सिलाई के माप तक सबकुछ भारतीय ध्वज संहिता और भारतीय मानक ब्यूरो से दिशानिर्देश के अनुसार किया जाता है। 15 साल से प्रिंटिंग विभाग में काम कर रहीं निर्मला एस इलाकाल ने बताया कि यदि जरा सी भी गलती हो तो भी पीस वापिस आ जाता है।
ये सभी महिला कर्मचारी काम के साथ-साथ अपना घर भी देखती हैं। शायद ही ये कभी अपने ज़िले से बाहर गयी हों। इस पर सुपरवाइज़र कोटी ने कहा, “हम अलग-अलग जगह नहीं जा पाते। लेकिन जो तिरंगा हम बनाते हैं वह पूरी दुनिया में जाते हैं और गर्व महसूस होता है जब लोग उन्हें सलाम करते हैं।”
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उत्तर प्रदेश के विभूतिखंड के आईएएस अफ़सर जितेंद्र कुमार की पत्नी सीमा गुप्ता ने लगभग 25 बच्चों को गोद ले रखा है। ये सभी बच्चे झुग्गी-झोपड़ी या फिर फुटपाथ पर गुजर-बसर करने वाले परिवारों से हैं।
सीमा ने बच्चों को न सिर्फ अपने घर में रखा है बल्कि वह उन्हें अच्छे कपड़े पहनने को देती हैं। अच्छा खाना खिलाती हैं और उन्हें घर के लॉन में बने क्लासरूम में पढ़ाती भी हैं। सीमा ने कहा कि वह कुछ लोगों को एकत्र करके एनजीओ बनाकर मुंह बोली समाज सेवा करने पर वह विश्वास नहीं करती हैं।
उन्हें लगा कि सड़क पर रहने वाले ये बच्चे किसी आईएएस के बच्चों की तरह क्यों नहीं जी सकते हैं?
फोटो: नवभारत टाइम्स
सीमा के इस काम में उनके पति भी मदद करते हैं। उन्होंने अपनी प्राइवेट कार और ड्राइवर बच्चों के लिए ही रखा है. जो बच्चों को कार से उनके घर तक लाता है और वापस छोड़ने जाता है।
उनके घर में पढ़ने वाला एक बच्चा आदित्य, लखनऊ में गोमती नगर के फुटपाथ पर रात गुजारता था। दिन में वह इधर-उधर घूमता था और कभी-कभी उसे चाय की दुकान पर तो कभी ढाबे पर काम मिल जाता था जिससे वह कुछ रुपये कमा लेता है। उसके माता-पिता मजदूरी करते हैं।
फोटो: नवभारत टाइम्स
लेकिन सीमा के यहां अब वह पढ़ाई करता है। इस बच्चे ने बताया कि अब उसके लिए सीमा ही उसकी टीचर व माँ हैं।
सीमा चाहती हैं कि इन सभी बच्चों का दाखिला उनके घर के पास ही एक स्कूल में हो जाये। ताकि बच्चों की शिक्षा जारी रहे। इसके लिए उन्होंने अपने पति से मदद मांगी है।
सीमा ने बताया कि उन्हें कुछ समय पहले आयी फिल्म ‘हिचकी’ ने काफी प्रभावित किया। इस फिल्म में अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने मुख्य किरदार निभाया है। फिल्म की कहानी शिक्षा का अधिकार के सेक्शन 12 के अंतर्गत प्राइवेट स्कूल में मुफ्त शिक्षा प्राप्त करने वाले कुछ बच्चों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है।
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उत्तर थाईलैंड की एक गुफा में फंसे ‘वाइल्ड बोअर्स’ टीम के 12 खिलाड़ी और उनके कोच को कल सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। यह टीम अपने कोच के साथ 23 जून को इस गुफा में फंस गयी थी। जिसके बाद उन्हें 18 दिन के लम्बे रेस्क्यू मिशन के बाद निकाला गया।
दो भारतीय इंजीनियर, महाराष्ट्र के सांगली जिले के प्रसाद कुलकर्णी और पुणे के श्याम शुक्ला, थाईलैंड में इस रेस्क्यू टीम का हिस्सा थे। पूरी टीम में केवल वही दो भारतीय थे। यह मिशन किर्लोस्कर ब्रदर्स लिमिटेड कंपनी ने पूरा किया।
इस टीम को 5 जुलाई को बहुत ही खराब मौसम में उस 4 किलोमीटर की उबड़-खाबड़ गुफा से पानी बाहर निकालने का काम मिला। हालाँकि, इस गुफा से लोगों को निकालना बिल्कुल भी आसान नहीं था। लेकिन अपने हौंसले और हिम्मत के चलते इस टीम ने यह कर दिखाया।
किर्लोस्कर में प्रोडक्शन डिज़ाइनर हैड, कुलकर्णी ने बताया, “यह गुफा 20 वर्ग किलोमीटर की पहाड़ी में है। सब तरफ बस अँधेरा था। इसकी टोपोग्राफी के चलते स्कूबा डाइवर्स भी हमारी मदद नहीं कर सकते थे।”
कुलकर्णी पिछले 25 सालों से सांगली में किर्लोस्कर वाडी में काम कर रहे हैं।
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प्रतीक शर्मा का जन्म मध्य प्रदेश में भोपाल के नजदीक एक गांव में किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने 10 साल की उम्र में अपने परिवार के साथ खेती करना शुरू किया। लेकिन उच्च शिक्षा के लिए कक्षा 8 के बाद भोपाल चले गए। कुछ साल बाद, प्रतीक को कोटक महिंद्रा बैंक के मैनेजर की नौकरी मिली।
बैंकिंग के 10 वर्ष काम करने के चलते उनका जीवन बहुत आरामदायक था। उन्होंने कोटक बैंक में ही काम करने वाली प्रतीक्षा से शादी की।
प्रतीक शर्मा अपनी पत्नी प्रतीक्षा के साथ
लेकिन, प्रतीक को कॉर्पोरेट जीवन नहीं भाया क्योंकि उसका दिल हमेशा खेती में ही था।
“जब मैं 20 साल बाद अपने गांव गया तो मुझे एहसास हुआ कि हर कोई गांव से बाहर जा रहा है लेकिन कोई भी वापस नहीं आ रहा। शहर तीव्र गति से विकास कर रहे हैं, लेकिन गांव वहीं है जहां यह 20 साल पहले था,” प्रतीक ने बताया।
सप्ताह के बाकी दिन एक बैंकर के तौर पर काम करने वाले प्रतीक ने वीकेंड पर अपने गांव धाबा खुर्द में अपनी 5 एकड़ जमीन में काम शुरू किया।
2015 के अंत तक, प्रतीक ने विदेशी और ऑफ सीजन सब्जियां उगाने के लिए अपने खेत पर एक पॉली हाउस बना लिया था। प्रतीक ने सोचा कि जब खेती से पर्याप्त कमाई होने लगेगी तो वह बैंक की नौकरी छोड़ देगा। लेकिन खेती से एक स्थायी कमाई करना बहुत मुश्किल है।
उन्हें अहसास हुआ कि खेती में लगने वाली लागत कमाई से अधिक है। जिसका एक मुख्य कारण है किसानों का सीधा वैल्यू चैन में शामिल न होना, जिससे वे स्वयं अपनी फसल का दाम तय नहीं कर सकते।
प्रतीक ने बताया,
“यदि कुछ 10 रूपये में बेचा जा रहा है तो उसकी लागत 6 रूपये है, जो कि बहुत ज्यादा है। इसके अलावा कीटनाशकों पर भी खर्चा होता है। मैंने टमाटर की खेती के लिए 26000 हज़ार रूपये सिर्फ पेस्टीसाइड पर खर्च किये।”
प्रतीक के अनुसार, किसानों को भी मंडी में अपनी सब्जियों और अनाज के परिवहन के लिए भुगतान करना पड़ता है। और जब वह व्यापारी के पास किसानों को कीमत तय करने की अनुमति नहीं है। उन्हें बाजार मूल्य के आधार पर फसल बेचनी पड़ती है ना कि उसकी लागत के अनुसार, जो कि अधिकतर समय बहुत ज्यादा है। दूसरी ओर व्यापारी अपनी तय कीमत पर फसल बेचता है और उसे लाभ होता है।
“जब मैं पहली बार अपने टमाटरों को मंडी लेकर गया तो मुझे ट्रांसपोर्ट के 900 रूपये अपनी जेब से देने पड़े। इसके अलावा मेरे अत्यधिक गुणवत्ता वाले टमाटरों को 1.25 रूपये/किलोग्राम के हिसाब से बेचा गया। तब मुझे लगा कि यह मॉडल किसानो के लिए लाभकारी नहीं है। किसानों के लिए अपनी एक वैल्यू चैन होना बहुत आवश्यक है,” प्रतीक ने द बेटर इंडिया को बताया।
किस्मत से प्रतीक की मुलाकात एक और शिक्षित किसान विनय यादव से हुई। उनके भी विचार बिलकुल यही थे। दोनों ने बिचौलियों को छोड़कर अपनी खुद की वैल्यू चैन शुरू करने और अपनी सब्जियां और अनाज को बेचने का फैसला किया। उनके द्वारा उगाई गयी सब्ज़ियां काफी नहीं थी, इसलिए दोनों ने किसानों का एक समूह बनाने का फैसला किया।
“किसी भी ग्राहक को सम्पर्क करने के लिए उचित मात्रा में अलग-अलग प्रकार की सब्जियां आपके पास होने चाहियें। जो सिर्फ दो लोगों के लिए उगाना मुमकिन नहीं था। इसलिए हमें 10-12 जैविक किसानों को इकट्ठा करने में 5-6 महीने लग गए।”
अगले कुछ महीनों में उन्होंने पूरे देश में सभी सफल कृषि मॉडल का अध्ययन किया और यहां तक कि अभिनव किसान क्लब, पुणे से भी प्रशिक्षण लिया। एक बार योजना तैयार हो जाने के बाद, समूह को कल्पवल्ली ग्रीन्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के नाम से एक किसान निर्माता संगठन (एफपीओ) के रूप में पंजीकृत कराया गया।
सभी सदस्यों ने एफपीओ को एक एकड़ जमीन व एक गाय दी। इसके अलावा बैंक से फण्ड लिया गया। हालाँकि, पहले साल वे असफल रहे, क्योंकि कई किसान सिर्फ अनाज की खेती करते थे। सब्जियां उगाने का वह उनका पहला मौका था। इसके अलावा मुख्य कारण था उनका फ़र्टिलाइज़र से हटकर आर्गेनिक खेती करना।
प्रतीक ने कहा, “जब आप केमिकल से आर्गेनिक पर जाते हो तो इसका मतलब है किसी को आईसीयू से बाहर लाना। इसके लिए आपको इंतज़ार करना पड़ता है। पहले आप उसे पोषण दीजिये फिर वह कोई काम कर पायेगा।”
प्रतीक सरे नुकसान की जिम्मेदारी ली। बाकी किसानों को फसल का उचित दाम दिया गया। दूसरी बार जब जमीन पर आर्गेनिक खेती की गयी तो वह सफल रही। एफपीओ को दूसरे साल फायदा हुआ।
अपनी दूसरी फसल के साथ टीम का विश्वास बना रहा।
साल 2016 के अंत में आखिरकार प्रतीक ने अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह से खेती पर ध्यान देना शुरू किया।
प्रतीक की पत्नी ने कोटक के साथ काम जारी रखा और प्रतीक के फैसले में उनका साथ दिया। प्रतीक को मार्केटिंग का अच्छा-खासा अनुभव था। जिसे उन्होंने अपने उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया।
उनका मॉडल बहुत काम लागत का है- प्रतीक अपनी कार से हर एक फार्म में जाकर सब्जियां इकट्ठी कर भोपाल लेकर आते हैं। उन्हें धोकर, उनकी पैकिंग कर ग्राहकों तक पहुंचाया जाता है।
व्हाट्सअप ग्रुप्स के चलते दोस्त, परिवार व सहयोगियों से आर्डर लेना आसान हो गया है।
“16 नवंबर 2016 को मैं भोपाल में पहली बार बहुत सी सब्ज़ियां लेकर आया। अभी तक मैं अकेले ही अपनी कार में सब्जियां बेचता हूँ। मैं स्वयं ग्रहकों तक सब्जियां पहुंचता हूँ। ताकि उन्हें भी खेतों से जोड़ा जा सके।”
अब उपज बढ़ रही है तो प्रतीक सप्ताह में दो बार मंडी में सब्जियां ले जाते हैं।
“लोग जैविक चीज़ों की कीमत के चलते उसे नहीं खरीदते हैं। हमारा उद्देश्य सब्जियों की कम से कम कीमत रखना है ताकी अधिक लोगों को पौष्टिक आहार मिले,” प्रतीक ने कहा।
टीम के पास अब 300 से अधिक ग्राहक हैं और अधिक किसान एफपीओ में शामिल होने के लिए तैयार हैं।
ऐसे किसान जिन्हें अपनी जैविक उपज के लिए अच्छी कीमत नहीं मिल रही थी, उन्हें अब एफपीओ द्वारा मदद की जा रही है। टीम को अपने ग्राहकों से ऑफर भी मिलते हैं कि वे उनके खेत इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने अब सब्जियों के साथ अनाज और दालों की आपूर्ति शुरू कर दी है। जल्द ही वे देसी गायों से दूध की आपूर्ति करने की भी योजना बना रहे हैं। प्रतीक्षा ने भी अपनी नौकरी छोड़ दी है और जल्द ही वह एफपीओ के लिए काम करेंगीं।
हाल ही में टीम ने धाबा खुर्द और नाथ्रुला गंज में दो किसान संसाधन केंद्र शुरू किए हैं, जहां से जैविक खेती में रूचि रखने वाला किसान मुफ्त प्रशिक्षण ले सकता है और अपने उत्पादन को बेचने के लिए कल्पवल्ली ग्रीन्स के साथ एग्रीमेंट कर सकता है। यह केंद्र जैविक खेती के लिए आवश्यक सभी संसाधन भी प्रदान करता है।
प्रतीक ने बताया,
“मैं अपने गांव वापस आया था क्योंकि खेती मेरा पहला प्यार था। जब मैं अपने गांव गया थक तो मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं सामुदायिक खेती करूँगा। लेकिन मुझे एहसास हुआ कि किसानों के लिए यह समय की आवश्यकता है। हमारे मॉडल का यूएसपी यह है कि इसमें लागत शून्य है। हम सभी जैविक खाद स्वयं तैयार करते हैं। कोई बिचौलिया नहीं है। अब किसान अपनी लागत का दुगना कमा रहे हैं।”
जब उनसे पूछा गया कि क्या वे अपने कॉर्पोरेट जीवन को याद नहीं करते। उनका जबाव ना था। लेकिन उन्होंने बताया कि कॉर्पोरेट में सीखी गयी चीज़ों ने उनके काम में बहुत मदद की है। हालाँकि वे कॉर्पोरेट से बहुत कम कमा रहे हैं लेकिन समाज को स्वास्थ्य खाना देने की संतुष्टि उनके लिए काफी है। उनके लिए कृषि से ज्यादा कुछ भी संतोषजनक नहीं है।
आप Prateek1sharma@gmail.com पर प्रतीक से संपर्क कर सकते हैं या 7987621152 पर कॉल कर सकते हैं।
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मध्य प्रदेश के मंदसौर शहर में 26 जून को एक माता-पिता ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि उन्हकी 7 वर्षीय बेटी स्कूल से घर नहीं लौटी है। दूसरी सुबह एक सब्जी बेचनेवाले ने उस लड़की को खून से लथपथ अवस्था में एक बस स्टैंड के पीछे बेहोश पाया।
लड़की को तुरंत स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहां डॉक्टरों ने बताया कि उसका लड़की का रेप हुआ है। वह बच्ची अभी भी सदमे से उबर नहीं पायी है। इसके अलावा उसे बहुत चोटें भी आयी हैं।
जैसे ही यह खबर स्थानीय लोगों में फैली तो वे सड़कों पर उत्तर आये। लोगों ने भारी मात्रा में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया और न्याय की मांग करने लगे।
लेकिन पुलिस को समझ नहीं आ रहा कि मामले की छानबीन की शुरुआत कहाँ से करे। स्कूल के सीसीटीवी कैमरा खराब पड़े हैं, तो यह पता लगाना मुश्किल था कि आखिर लड़की किसके साथ स्कूल से बाहर निकली थी।
प्रदर्शन करते लोग/बीबीसी
लेकिन बढ़ते प्रदर्शन के चलते पुलिस ने अपनी प्रतिक्रिया तेज की और स्कूल के पास एक दुकान से सीसीटीवी फुटेज प्राप्त की। उस 400 घंटे की फुटेज में से आखिरकार पुलिस को 3 वीडियो क्लिप मिली, जिनसे उन्हें कुछ सुराग मिल सकता था।
इस वीडियो क्लिप में एक लड़की को स्कूल की वर्दी में एक आदमी के साथ चलते हुए देखा गया। पीड़ित के माता-पिता ने वीडियो में अपनी बेटी के रूप में लड़की की पहचान की लेकिन आदमी का चेहरा स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दे रहा था।
इसलिए पुलिस ने वीडियो को लोगों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर करने का निश्चय किया। ताकी अपराधी के बारे में कुछ पता चले। हालाँकि ऐसा करने में जोखिम था। क्योंकि सोशल मीडिया पर फैली झूठी अफवाहों के चलते देश में हुई मोब लिंचिंग की घटनाओं से कोई भी अछूता नहीं रहा है।
मंदसौर में पहले ही गौ-हत्या आदि को लेकर साम्प्रयदायिक तनाव बढ़ रहा है। लेकिन पहले से सोशल मीडिया पर इस घटना के बारे में झूठी खबरें फैलना शुरू हो गया था। ऐसे में पुलिस ने राजनेताओं, धार्मिक नेताओं व स्थानीय लोगों की मदद मांगी।
पुलिस ने बताया कि ख़ुशी की बात थी कि दोनों समुदायों ने इस केस को सुलझाने में मदद की।
इन वीडियो क्लिप को शेयर करने के बाद पुलिस को दर्जनों टिप मिली। जिनके आधार पर उन्होंने साथ संदिग्ध लोगों को पकड़ा।
उन्होंने उनकी फेसबुक प्रोफाइल को छानना शुरू किया। आखिरकार तीन दिन बाद फेसबुक की मदद के चलते मुख्य आरोपी की पकड़ा है।
पुलिस ने कहा कि वीडियो शेयर करना जोखिम भरा था, लेकिन अच्छी बात है कि इसका परिणाम सकारत्मक निकला।
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पिछले कई दिनों से मुंबई बारिश के चलते समस्यायों से जूझ रही है। न जाने कितनी ही ट्रेन स्थगित की गयी हैं। सड़कों पर पानी भरा होने से जैसे बाढ़ आ गयी है। जिसके चलते सड़क परिवहन भी लगभग ठप होता दिख रहा है।
लेकिन इस मुश्किल परेशानी में न तो प्रशासन ही घुटने टेकने को तैयार है और ना ही मुम्बईकर। जी हाँ, लगातार हो रही बारिश भी मुंबई की रफ़्तार को रकने में असफल रही है।
प्रशासन समय रहते हर मुमकिन कोशिश कर रहा है आम जनता की परेशानियों को हल करने की। वहीं लोग भी प्रशासन की पहल में उनका साथ दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर वायरल पोस्ट इस बात को साबित करती हैं।
मुंबई सेंट्रल से वसई रोड स्टेशन के लिए एक स्पेशल ट्रेन चलाई गयी। जिसमे दुरंतों और राजधानी एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे यात्रियों के लिए खाना भिजवाया गया।
A food special train, carrying about 2000 food packets, prepared in Base Kitchen, Mumbai Central was run from Mumbai Central to Naigaon for the passengers of stranded trains due to water logging at Nallasopara pic.twitter.com/1ju3G3N1QH
आप मुंबई से जुडी लाइव अपडेट के लिए क्लिक कर सकते हैं।
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दिल्ली के शालीमार बाग में पिछले साल उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने 10 रूपये थाली कियोस्क की शुरुआत की थी। खबरे आ रहीं हैं कि वे इस साल के आखिर तक ऐसे 500 और फ़ूड कियोस्क खोलने की योजना पर काम कर रहे हैं।
नगरपालिका अधिकारी तिलक राज कटारिया ने कहा, “सभी पार्षदों को अपने क्षेत्र में ऐसी जगह तलाशने के लिए कहा गया जहां पर ऐसे पांच कियोस्क खोले जा सकें। यह तय किया गया है कि दिसंबर 2018 तक 105 नगरपालिका क्षेत्रों में 500 कियोस्क खोले जायेंगें।”
इसी तरह का प्रोजेक्ट साउथ दिल्ली नगर पालिका द्वारा भी 4 जगहों पर लांच किया गया है।
यह थाली प्रोजेक्ट पिछले साल अटल विहारी वाजपेयी के जन्मदिन (25 दिसम्बर) पर दीन दयाल उपाध्याय अन्तोदय योजना के अंतर्गत शुरू किया गया था।
“हमने शालीमार बाग़ में प्रारम्भिक तौर पर इसे शुरू किया था। यह थाली केवल 10 रूपये में उपलब्ध कराई जाएगी। हमने मेन्यू में पूरी-सब्ज़ी व कढ़ी-चावल रखने का फैसला किया है। हमने विक्रेता को एडवरटाइजिंग करने की छूट दी है ताकी स्कीम से कभी कुछ कम पड़े तो एडवरटाइजिंग से उसकी भरपाई हो जाये। यह सुविधा सुबह 10 बजे से रात 8 बजे तक खुली रहेगी,” कटारिया ने बताया।
इस स्कीम का उद्देश्य गरीबों को कम से कम पैसे में भरपेट भोजन उपलब्ध कराना है। साउथ दिल्ली में एम्स, निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन, द्वारका और नजफगढ़ में यह योजना शुरू की गयी है।
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आज खेलों की वजह से कई देश करीब आये हैं। अलग-अलग देशों में होने वाली खेल प्रतियोगिताएं पूरी दुनिया से दर्शकों को आकर्षित करती हैं। खेल किसी भी व्यक्ति को अनुशासन, टीम-भावना और अन्य महत्वपूर्ण गुणों को सिखाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। और खिलाड़ियों को हर जगह सम्मान की नजरों से देखा जाता है। मशहूर खिलाड़ी जिस भी चीज़ से जुड़ते हैं उसे मशहूर कर देते हैं। जैसा की माइकल जॉर्डन का नाइके ब्रांड के साथ जुड़ने से हुआ।
आज हम आपको बता रहे हैं ऐसे 5 मशहूर खेलों के बारे में जो पूरी दुनिया में खेले जाते हैं। लेकिन इन खेलों की जड़ें भारत से जुड़ी हुई हैं। जी हाँ, वह पांच खेल जो भारत ने दुनिया को दिए।
शतरंज
फोटो: पुराने शतरंज में इस तरह के मोहरे होते थे/ourindiaourproducts
जब चेन्नई के रमेशबाबू प्रग्ननंद्हा दुनिया के दूसरे सबसे छोटे शतरंज ग्रैंडमास्टर बने, तो यह घर वापसी के जैसा था, क्योंकि इस खेल का आविष्कार भारत में हुआ था।
शतरंज का इतिहास लगभग 1,500 साल पुराना है, और इस आधुनिक खेल की शुरुआत भारत में हुई थी। इसे तब ‘चतुरंगा’ कहा जाता था जिसका अर्थ है ‘सेना के चार भाग।’ यह खेल छठी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के दौरान बेहद लोकप्रिय था।
हड़प्पा और मोहनजोदारों में मिले पुरातात्विक अभिलेखों से भी पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान भी इस खेल को खेला जाता था। इसे एक समय पर ‘अष्टपदा’ भी कहा जाता था, जो कि स्पाइडर का संस्कृत अनुवाद है। 8×8 चेकर्ड बोर्ड पर इस खेल को पासे के साथ खेला जाता था। लेकिन धार्मिक पहलुओं के चलते पासे और जुआ को इससे हटा दिया गया। अरबी और फ़ारसी लोगों के साथ ये खेल भारत से बाहर गया और आज पूरी दुनिया में मशहूर हो गया है।
भारत में कुल 37 ग्रैंडमास्टर्स हैं, जिनमें से विश्व चैंपियन विश्वनाथन आनंद सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हैं।
पोलो
मणिपुर में जन्म पोलो आज दुनिया भर में खेला जाता है/फेसबुक
इस खेल को घुड़सवारी करते हुए खेला जाता है। दोनों टीम में चार-चार खिलाड़ी होते हैं। इस खेल में दो गोल पोस्ट होते हैं। एक लंबे लचीले मैलेट से लकड़ी की बॉल को गोल पोस्ट तक पहुंचाने की कोशिश की जाती है।
यह खेल मणिपुर में जन्मा था। 1859 में सिलचर पोलो क्लब की स्थापना ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों और चाय बागानियों ने की थी, क्योंकि तत्कालीन लेफ्टिनेंट जॉय शेरेर ने लोगों को यह खेल खेलते हुए देखा और निश्चय किया कि अंग्रेज़ों को यह खेल सीखना चाहिए।
भारत से, 1868 में पोलो माल्टा, 1869 में इंग्लैंड, 1870 में आयरलैंड, 1872 में अर्जेंटीना और 1874 में ऑस्ट्रेलिया गया। यह खेल वक़्त के साथ और भी कुशल होता गया।
पोलो अब एक अंतरराष्ट्रीय खेल है और अमेरिका से ऑस्ट्रेलिया तक हर जगह खेला जाता है। अमेरिका में, संयुक्त राज्य पोलो एसोसिएशन खेल का प्रशासनिक संगठन है। वास्तव में, 1900-1939 तक, पोलो भी एक ओलंपिक खेल था!
कब्बडी
2016 कब्बडी वर्ल्ड कप में भारतीय कब्बडी टीम/हर्ष विरादिया फेसबुक
अपने टीम के लगातार समर्थन से खेले जाने वाले इस खेल को 1936 के बर्लिन ओलंपिक में प्रसिद्धि मिली। विभिन्न तरीके से भारत में खेले जाने वाले इस खेल को पंजाब ने अपनी मार्शल परम्परा का हिस्सा बनाया।
आज, यह बांग्लादेश का राष्ट्रीय खेल और कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पंजाब और तेलंगाना का राज्यिक खेल है।
ऑल इंडिया कब्बडी फेडरेशन का गठन 1950 में हुआ था और इस खेल के लिए कुछ आधिकारिक नियम तैयार किए गए थे, जिनमें से कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में आज भी लागु होते हैं। जापान में 1979 में कब्बडी की शुरुआत हुई। सुंदर राम ने एशियाई एमेच्योर कब्बडी फेडरेशन की तरफ से जापान का दौरा किया, और दो महीने तक वहां कब्बडी सिखाई।
पहली एशियाई कब्बडी चैम्पियनशिप 1980 में हुई थी, और भारत इसमें चैंपियन बना।
यह खेल ब्रिटिश युग के दौरान शुरू हुआ जब उन्होंने पुणे के गैरीसन शहर में इसे खेला। इस खेल को पूना, या पूनाह के नाम से भी जाना जाता था। और सर्वप्रथम 1873 में पुणे में इसके नियम तैयार किए गए थे।
दरअसल, बैडमिंटन दो खेल, बैटलडोर और शटलकॉक के विलय से बना। ‘बैडमिंटन’ नाम ग्लूस्टरशायर में ब्यूफोर्ट के बैडमिंटन हाउस के ड्यूक से लिया गया था।
इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आयरलैंड, नीदरलैंड और न्यूजीलैंड 1934 में अंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन फेडरेशन के संस्थापक सदस्य थे, जिसमें भारत 1936 में एक सहयोगी के रूप में शामिल हुआ।
समय के साथ भारत में पुरुष व महिला खिलाड़ी जैसे साइना नेहवाल, और प्रकाश पादुकोण हुए। इनके अलावा अपर्णा पोपट, पुलेला गोपीचंद और चेतन आनंद हैं।
शुरुआत में जिस खेल का नाम महाराष्ट्र के एक शहर पर पड़ा, उसे आज पुरे विश्व में जाना जाता है।
कैरम
फोटो: अद्दितो भट्टाचार्जी
माना जाता है कि दक्षिण एशियाई मूल का यह लोकप्रिय ‘स्ट्राइक-एंड-पॉकेट’ गेम भारत और आसपास के क्षेत्रों में शुरू हुआ था। बहुत से क्लब और कैफे इसके नियमित टूर्नामेंट आयोजित करते हैं।
कैरम एक पारिवारिक गेम है। बुजुर्गों और बच्चों, सभी को बोर्ड पर मजा आता है। पटियाला के शाही महलों में से एक में कैरम बोर्ड कांच के बोर्ड के साथ है। 19वीं शताब्दी के शुरुआत में भारत के विभिन्न राज्यों में खेल की लोकप्रियता के चलते राज्य स्तरीय टूर्नामेंट आयोजित किये जाते थे।
साल 1958 में, भारत ने कैरम क्लबों के आधिकारिक संघों का गठन किया। जिससे टूर्नामेंट स्पोंसर किये जाने लगे और पुरस्कार भी दिए जाते थे। वर्ष 1988 में अंतरराष्ट्रीय कैरम फेडरेशन चेन्नई में आया। इस खेल ने धीरे-धीरे यूरोप और अमेरिका में भी लोकप्रियता हासिल की, जहां इसे भारतीयों द्वारा ले जाया गया था। वास्तव में, अमेरिका में लकड़ी से बने सबसे महंगे कैरम बोर्ड भारत से आयात किए गए हैं!
आज भले ही हम क्रिकेट के दीवाने हों, लेकिन हमने खेलों की दुनिया को जो दिया है वह भी हमें नहीं भूलना चाहिए।
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हाल ही में अभिनेता अजय देवगन ने अपनी आने वाली फिल्म के बारे में लोगों को बताया। उन्होंने ट्विटर पर पोस्ट किया कि उनकी आने वाली फिल्म भारत के महान राजनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य पर आधारित होगी। अजय देवगन इसमें चाणक्य की मुख्य भूमिका में नजर आयेंगें।
हालाँकि अभी तारीखों को लेकर कोई जानकारी नहीं दी गयी है। लेकिन इस फिल्म को नीरज पांडेय निर्देशित करेंगें। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में पैदा हुए, चाणक्य न केवल एक महान योद्धा बल्कि शिक्षक, अर्थशास्त्री और राजनीतिक सलाहकार भी थे।
कोई ही होगा जिसने भारत में चाणक्य का नाम नहीं सुना होगा। चाणक्य पर इससे पहले टेलीविज़न सीरीज भी बन चुके हैं। इसके अलावा जब भी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य पर को धारावाहिक बना तो चाणक्य के किरदार को उसमें बहुत मजबूती से दिखाया गया।
आज हम बता रहे हैं उन्हीं चाणक्य से संबंधित कुछ बातें जिन्होंने भारत को सबसे ताकतवर मौर्य साम्राज्य दिया।
भारतीय इतिहास में आचार्य चाणक्य को कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत के एक नाटक ‘मुद्राराक्षस’ के हिसाब से चाणक्य ही विष्णुगुप्त हैं, जिन्होंने ‘पंचतंत्र’ की रचना की।
जब मगध के नन्द वंश में चाणक्य का अपमान हुआ तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे नन्द के विनाश के बाद ही अपनी शिखा (चोटी) बांधेंगे। उन्होंने मगध के राजा धनानंद को परास्त कर चन्द्रगुप्त को राजा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की माँ ‘मूरा’ के नाम पर उसे ‘मौर्य’ उपनाम दिया और बाद में नन्द वंश को खत्म कर मगध में मौर्य वंश की स्थापना की गयी।
फोटो: वर्डप्रेस
एक बेहतरीन सलाहकार होने के साथ- साथ चाणक्य दूरदर्शी भी थे। उन्होंने सिकंदर के इरादों को बहुत पहले ही भांप लिया था। इसीलिए उन्होंने वर्षों पहले से ही चन्द्रगुप्त को भविष्य में होने वाले युद्ध के लिए प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया था।
नन्द को परास्त करने के बाद जब चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को राजा बनाया तो वे भली-भांति जानते थे कि यदि राजा की कोई हत्या कर दे तो उस व्यक्ति का सिंहासन पर अधिकार हो जाता है। इसलिए उन्होंने चन्द्रगुप्त के जीवन को सुरक्षित रखने की प्रतिज्ञा ली।
किसी हथियार से चन्द्रगुप्त की जान लेना असंभव था क्योंकि वह एक योद्धा था। पर हो सकता था कि उसे कभी जहर दिया जाये। इसलिए चाणक्य चन्द्रगुप्त के खाने में थोड़ा-थोड़ा जहर मिलाने लगे। ताकि अन्य विष के प्रति चन्द्रगुप्त के शरीर में प्रतिरोधी क्षमता पैदा हो जाये। इस जहर की खुराक हर रोज थोड़ी मात्रा में बढ़ा दी जाती थी।
फोटो: अमेज़न
अनजाने में एक बार चन्द्रगुप्त ने अपने भोजन का एक निवाला रानी दुर्धरा को खिलाया। जो उस समय गर्भवती थीं। उनका प्रसव होने में केवल सात दिन बचे थे। निवाला खाते ही रानी ज़हर के चलते बेहोश हो गयी। बताया जाता है कि उत्तराधिकारी को बचाने के लिए, चाणक्य ने रानी के पेट को चीरकर बच्चे को बहार निकाल लिया। हालाँकि, जहर की एक बून्द बच्चे के माथे को छू गयी थी जिससे एक बिंदु पड़ गया और इसीलिए बच्चे को बिन्दुसार नाम दिया गया।
चाणक्य अपनी बुद्धिमानी के साथ-साथ क्रूरता के लिए भी जाने जाते थे। कहा जाता है कि जब धनानंद को मार दिया गया तो चाणक्य स्वयं वहां उसे देखने गए। अपनी शिखा बांधने से पहले उन्होंने आदेश दिया कि धनानंद का अंतिम संस्कार न किया जाये और शरीर को ऐसे ही कीड़े-मकोड़ों के खाने के लिए छोड़ दिया गया।
फोटो: द खोज
एक बार एक ग्रीक एथनोग्राफर चाणक्य से मिलने आये। जब वे पहुंचे तो चाणक्य राज्य-संबंधित काम कर रहे थे। इसलिए वे पास में ही बैठकर उनके कार्य खत्म होने की प्रतीक्षा करने लगे। जैसे ही काम खत्म हुआ तो चाणक्य ने पास में जल रहे एक दिए को बुझा दिया और फिर एक दूसरा दिया जलाया। जब उनसे इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वह दिया राज्य का था इसलिए उसे राज्य के काम के वक़्त ही इस्तेमाल करना चाहिए। अपने निजी कार्यों के लिए मुझे अपनी वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए।
चाणक्य की मृत्यु के बारे में कोई भी प्रमाणिक लेख नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने जैन धर्म के लोगों की तरह स्वयं को भूख से तड़पा कर अपने प्राण दिए। बाकी कुछ लोग कहते हैं कि जब बिन्दुसार को अपने जन्म का सत्य पता चला तो वे चाणक्य से नफरत करने लगे। क्योंकि उन्हें बताया गया कि चाणक्य ने उनकी माँ की जान ली है। इससे दुखी होकर चाणक्य ने महल त्याग दिया और वन में चले गए।
अजय देवगन की फिल्म के लिए तो अभी दर्शकों को इंतज़ार करना होगा। अब देखना यह है कि स्पेशल 26 और रुस्तम जैसी फिल्मों के लिए जाने जाने वाले नीरज पांडेय कैसे इस महान राजनीतिज्ञ व अर्थशास्त्री की कहानी को दर्शकों तक पहुंचते हैं।
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मेजा राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में लगभग 10,000 लोगों की आबादी वाला एक छोटा सा गांव है। पुरुष आमतौर पर खेती करते हैं या भीलवाड़ा के पास शहर के कपड़ा कारखानों में मजदूरों के रूप में काम करते हैं। महिलाएं घर के काम में व्यस्त रहती हैं।
इस गांव से ताल्लुक रखने वाली प्रियंवदा सिंह मुंबई में धारावाहिकों के लिए फ्रीलांसर के रूप में काम करती थी। वे अक्सर छुट्टियों के दौरान ही बहुत कम समय के लिए मेजा अपने परिवार से मिलने जाती थीं।
एक बार ऐसे ही छुट्टियों में वे अपने गांव गयीं थी। लेकिन इस बार उन्हें एक बहाना मिला मुंबई वापिस न जाने का और उन्होंने अपनी नौकरी भी छोड़ दी। वजह थी उनका पैतृक किला।
साल 1870 में प्रियंवदा के पूर्वज रावत अमर सिंह को जागीरदारी प्रणाली के अंतर्गत यह जमीन मिली। जल्द ही इस जमीन पर निर्माण शुरू हो गया और पांच साल में यह किला बनकर पूरा हुआ। यह किला प्रियम्वदा के परिवार की संपत्ति है। इसके वर्तमान संरक्षक उनके पिता रावत जितेंद्र सिंह हैं।
हालाँकि यह किला सालों तक नजरअंदाज पड़ा रहा।
“मेरे दादाजी इंडियन रेलवे में काम करते थे और मेरे पिता राज्य सरकार में अधिकारी हैं। उनके काम के चलते वे गांव से बाहर ही रहे। जिस वजह से किले पर कोई ध्यान नही गया। इसके चलते हमने बहुत परेशानियां झेली। लोगों का गैराधिकारिक कब्ज़ा, इसे कूड़ा फेंकने के लिए इस्तेमाल करना आदि,” प्रियंवदा ने द बेटर इंडिया को बताया।
उन्होंने कहा कि किले को दीवारों में पौधे उगने लगे थे और छत में भी बहुत सीलन आ गयी थी। यहां पर केवल उल्लू और चमगादड़ों का ही वास था। और सिर्फ दो ही कमरों में बिजली थी।
तो प्रियंवदा ने निश्चय किया कि वे अपने इस पैतृक किले को सुधरवा कर इसे फिर से वही भव्य रूप देंगी।
जिसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपना सामान पैक कर यहां रहने का निर्णय किया।
उन्होंने बताया कि यह किला ही मेजा में मेरा एकमात्र घर था तो मुझे यहीं रहना था। मेरे पिताजी उदयपुर में नियुक्त हैं और दादी-दादा अजमेर में रहते हैं। अजमेर मेजा से 2.5 किलोमीटर दूर है।इसलिए मेरे लिए मुमकिन नही था कि मैं कहीं और रहकर यह काम कर पाती।
शुरुआत में उनके पिता उन्हें अकेले भेजने से कतरा रहे थे। यहां तक कि गांववालों को लगा कि वह पागल हो गयी है। लेकिन जैसे जैसे प्रियंवदा ने अपना प्रोजेक्ट शुरू किया तो चीज़े बदलने लगी।
“मैं एक पुराने किले की मरम्मत करवाना चाहती थी। इसलिए मैंने पुराने मिस्त्रियों को इसमें शामिल करने की सोची। क्योंकि उन्हें पुरानी तकनीक जैसे चुना आदि के साथ काम करने का ज्ञान था। मैं युवा और बुजुर्ग मिस्रियों को साथ लायी ताकि पुरानी निर्माण कला आने वाली पीढ़ी सीख सके। किले के काम के लिए हमने उन्हें पैसे दिए। लेकिन जल्द ही उन्हें और भी पुरानी जगहों की मरम्मत का काम मिलने लगा,” प्रियंवदा ने कहा।
उनकी मदद से, पिछले कुछ सालों में जिन लोगों को काम नहीं मिल रहा था और वे पूरी तरह से अपने परिवारों पर निर्भर थे, उन्हें फिर से कमाई करने का मौका मिला।
45 वर्षीय शिव जी भाटी ने बताया, “एक दुर्घटना में आँखों की रोशनी जाने से में बेरोजगार हो गया था। इस फोर्ट प्रोजेक्ट के आने से पहले तक मेरे लिए अपनी पत्नी व तीन बच्चों को पलना बहुत मुश्किल हो गया था। इस प्रोजेक्ट मैं वह सब काम करता जो बिना आँखों के भी किया जा सकता है। जैसे दीवार से पुराना प्लास्टर खरोंचना, पौधे लगाने के लिए गड्ढे खोदना, पुराने दरवाजों को सैंड पेपर से घिसना और लोहे के जाल से सीमेंट को छानना आदि।”
इस प्रोजेक्ट को बढ़ते देख गांव की महिलाएं भी काम करने आगे आयीं। घरों के अलावा कहीं और काम करने की अपनी क्षमता को उन्होंने पहचाना।
34 वर्षीय माया देवी ने बताया कि बहुत कम उम्र में विधवा होने के बाद अपनी बेटी की परवरिश के लिए मैं अपने ससुराल वालों पर निर्भर थी। लेकिन अब यहां काम करके मैं बहुत कुछ कमा लेती हूँ। और लगभग एक दशक कद बाद अब लोग मुझे चंदू की बहू की जगह मेरे नाम से बुलाते हैं।
मरम्मत का काम शुरू होने के बाद और भी बहुत सारी चीजें होती चली गईं।
एक बार जब प्रियंवदा किले की सफाई कर रहीं थी तो उन्हें इतिहास, हिंदी साहित्य, यात्रा आदि पर पुरानी किताबें मिली। उन्होंने एक सामुदायिक लाइब्रेरी खोलने का फैसला किया।
जल्द ही उन्हें दोस्त, परिवार और सहकर्मियों से नयी व पुरानी किताबें मिलने लगी। अब वे एक पूर्ण सामुदायिक लाइब्रेरी खोलने की राह पर हैं।
प्रियंवदा ने रक्त दान व योग के लिये भी कैंप लगवाना शुरू किया। इसके साथ ही किले में स्थानीय त्यौहार जैसे गणगौर और जल झुलनी एकादशी मनाना शुरू किया। युवायों को साथ लाने के लिए प्रतियोगिताएं रखी गयीं।
उन्होंने बताया कि इन सभी सामुदायिक कार्यों को स्थानीय लोगों को मदद से किया जा रहा है। अब लोग भी इन सभी गतिविधियों को पहचानने लगे हैं और मदद कर रहे हैं। रक्त दान कैंप के लिए भी गांववालों ने ही भीलवाड़ा स्थित एनजीओ से संपर्क भी गांववालों ने किया। साथ ही वहां के अस्पताल से कुछ नर्स व डॉक्टर भी बुलाये गये। गांववालों ने भी भारी मात्रा में रक्तदान किया और इस कैंप को सफल बनाया।
किले का निर्माण कार्य भी धीरे धीरे खत्म होने की कगार पर है।
अब छत में सीलन की समस्या सुलझ चुकी है। साथ ही कुछ असली कलाकृतियों को सहेजा जा रहा है। अब वे एक सामुदायिक रसोई गार्डन शुरू करने की सोच रही हैं।
साथ ही प्रियंवदा मीडिया में अपने अनुभव को मेजा गांव को एक सांस्कृतिक केंद्र बनाने में इस्तेमाल करन चाहती हैं। हम उम्मीद करते हैं कि वे अपने कार्य में सफल रहें।
मूल लेख: दीपिका भरद्वाज
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इतनी ऊंची मत छोड़ो, क्या करेगी चांदनी, यह अंदर की बात है, तथाकथित भगवानों के नाम जैसी हास्य कविताओं से भरपूर पुस्तकें लिखने वाले हुल्लड़ मुरादाबादी को कलाश्री, अट्टहास सम्मान, हास्य रत्न सम्मान, काका हाथरसी पुरस्कार जैसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म 29 मई 1942 को गुजरावाला, पाकिस्तान में हुआ था। बंटवारे के दौरान वे परिवार के साथ मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश आ गए थे। इनका वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्ढा था।
हुल्लड़ मुरादाबादी ने शुरुआत में तो वीर रस की कविताएं लिखी लेकिन कुछ समय बाद ही हास्य रचनाओं की ओर उनका रुझान हो गया और हुल्लड़ की हास्य रचनाओं से महफिले ठहाको से भरने लगी। 1962 में उन्होंने ‘सब्र’ उप नाम से हिंदी काव्य मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। बाद में वह हुल्लड़ मुरादाबादी के नाम से देश दुनिया में पहचाने गए।
हुल्लड़ मुरादाबादी ने हर छोटी सी बात को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। कविताओं के अलावा उनके दोहे सुनकर श्रोता हंसते-हंसते लोटपोट होने लगते। उन्होंने कविताओं और शेरो-शायरी को पैरोडियों में ऐसा पिरोया कि बड़ों से लेकर बच्चे तक उनकी कविताओं में डूबकर मस्ती में झूमते रहते।
आईये आज पढ़ते हैं उनकी दो बेहतरीन कवितायें –
मसख़रा मशहूर है, आंसू बहाने के लिए…
मसख़रा मशहूर है आंसू बहाने के लिए
बांटता है वो हंसी सारे ज़माने के लिएघाव सबको मत दिखाओ लोग छिड़केंगे नमक
आएगा कोई नहीं मरहम लगाने के लिएदेखकर तेरी तरक्की ख़ुश नहीं होगा कोई
लोग मौक़ा ढूंढते हैं काट खाने के लिए
फलसफ़ा कोई नहीं है और न मकसद कोई
लोग कुछ आते जहां में हिनहिनाने के लिए
मिल रहा था भीख में, सिक्का मुझे सम्मान का
मैं नहीं तैयार झुककर उठाने के लिए
ज़िंदगी में ग़म बहुत हैं हर क़दम पर हादसे रोज़
कुछ समय तो निकालो मुस्कुराने के लिए
क्या बताएँ आपसे
क्या बताएँ आपसे हम हाथ मलते रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए
भूख, महंगाई, गरीबी, इश्क़ मुझसे कर रहीं थीं
एक होती तो निभाता, तीनों मुझपर मर रही थीं
मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे
मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान् थे
रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए
हर तरफ़ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए
कुछ नहीं जब मिल सका तो भाव में बहने लगे
और चूहों की तरह ही दुम दबा भगने लगे
हमने तब लाईट जलाई, डायरी ले पिल पड़े
चार कविता, पाँच मुक्तक, गीत दस हमने पढे
चोर क्या करते बेचारे उनको भी सुनने पड़े
रो रहे थे चोर सारे, भाव में बहने लगे
एक सौ का नोट देकर इस तरह कहने लगे
कवि है तू करुण-रस का, हम जो पहले जान जाते
सच बतायें दुम दबाकर दूर से ही भाग जाते
अतिथि को कविता सुनाना, ये भयंकर पाप है
हम तो केवल चोर हैं, तू डाकुओं का बाप है
(हुल्लड़ मुरादाबादी की हास्य कविता)
साभार- कविता कोश
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पूर्व समुद्री कमांडों प्रवीण तेवतिया (33 वर्षीय) भारत के पहले दिव्यांग आयरनमैन बन गए हैं। हाल ही में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में आयरनमैन ट्रायथलॉन चैम्पियनशिप 2018 की दुनिया की सबसे कठिन और प्रतिष्ठित प्रतियोगिता का खिताब जीता है।
साल 2008 में मुंबई में हुए ताज हमले में आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन के दौरान प्रवीण को चार गोली लगी थी। उन्हें गोली उनके फेफड़ों और कान में लगी थी। जिसके चलते उनके सुनने की क्षमता चली गयी। इसके बाद उन्हें सर्विस में नॉन-एक्टिव ड्यूटी दी गयी।
पर तेवतिया इस से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने स्वयं को ड्यूटी के लिए पूरी तरह से फिट बनाने का फैसला किया। इसीलिए उन्होंने मैराथन में भाग लेना शुरू किया।
यूपी के बुलंदशहर से ताल्लुक रखने वाले वाले तेवतिया ने बताया, “मैं स्वयं को और नेवी को यह साबित करना चाहता था कि मैं न केवल अपने हौसलों से बल्कि शारीरिक रूप से भी ड्यूटी के लिए फिट हूँ। आज तक भारत में किसी भी नेवी सैनिक ने आयरनमैन का ख़िताब नहीं जीता है।”
आयरनमैन ट्रायथलॉन में 180.2 किलोमीटर तक साइकिल चलानी होती है। 110 किमी के लिए साइकिल चलाने के बाद, तेवतिया की साइकिल का डरेलर टूट गया और वे सड़क पर गिर गये। इस दुर्घटना में उनके घुटने व टखने में चोट आयी; लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
कुछ दुरी पर ही साइकिल की मरम्मत करने वाली टीम का टैंट था। जिन्होंने उनकी साइकिल को 35 मिनट में ठीक करके दिया।
तेवतिया ने फ्री प्रेस जर्नल को बताया, “अगले 70 किमी तक साइकिल से चढ़ाई करना वाकई मुश्किल था, लेकिन मैंने हौंसला नहीं खोया और 7:37 घंटों में 180.2 किमी को पूरा किया।”
अब अगले साल फरवरी में अमेरिका के अल्ट्रामन ख़िताब को जीतना उनका लक्ष्य है। हम प्रवीण को उनकी जीत के लिए बधाई देते हैं और उम्मीद करते हैं कि और भी लोग उनसे प्रेरणा लेंगें।
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अगर आप महाराष्ट्र में रहते हैं और आपको सिनेमा हॉल में जाकर फ़िल्में देखना पसंद है, तो आपके लिए एक अच्छी है। दरअसल, महारष्ट्र सरकार 1 अगस्त 2018 से एक नया नियम लागू करने जा रही है। इसके मुताबिक अब आप मूवी हॉल में बाहर से खाने-पीने की वस्तुएं ले जा सकते हैं।
खाद्य आपूर्ति मंत्री रविंद्र चव्हाण ने सरकार के फैसले की घोषणा की और कहा कि यदि कोई मल्टीप्लेक्स बाहर के खाने के लिए मना करते हैं तो उनके खिलाफ कार्यवाई की जाएगी।
द फाइनेंसियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार राज्य सरकार मल्टीप्लेक्स के अंदर बेचे जाने वाली खाद्य वस्तुओं की कीमत कम करने के लिए भी प्रयास कर रही है। वे सभी मल्टीप्लेक्स के मालिकों से के मीटिंग में इस पर काम करने के लिए आग्रह करेंगें।
27 जून को बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से सवाल किया था कि वे मल्टीप्लेक्स में अत्यधिक कीमत पर बेचीं जाने वाली खाने-पीने की वस्तुओं के दाम कम क्यों नहीं कर सकते। उन्होंने सरकार को बॉम्बे पुलिस अधिनियम के तहत सिनेमाघरों के अंदर बेचे जाने वाले खाद्य और पेय पदार्थों की कीमतों को नियंत्रित करने को कहा।
इसके साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि एक ही पदार्थ की दो अलग-अलग कीमतें नहीं हो सकती। उम्मीद है महाराष्ट्र सरकार का यह फैसला लोगों के लिए बेहतर साबित होगा।
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