दुबई निवासी दो बहनें मेहर भाटिया और शनाया भाटिया पिछले एक साल से सूखे मेवे जैसे कि बादाम, काजू, पिस्ता आदि बेच रही हैं। इससे जितने भी पैसे इकट्ठा होते है, उसे वे मुंबई के टाटा मैमोरियल अस्पताल में कैंसर पीड़ित बच्चों के इलाज़ के लिए भेजती हैं।
उनके प्रयासों से इन बच्चों और उनके माता-पिता को 1500 से भी ज्यादा रातों के लिए आश्रय मिला है, नहीं तो वे फुटपाथ पर होते।
कैंसर रोगियों के साथ काम कर रहे मुंबई स्थित एनजीओ, ‘हेल्पिंग हैंड्स फाउंडेशन’ के आवास प्रोजेक्ट के अंतर्गत, ये दोनों बहने संयुक्त अरब अमीरात में होने वाले विभिन्न आयोजनों में फंड इकट्ठा करने के लिए सूखे मेवे बेचती हैं। 16 वर्षीय मेहर कहती हैं, “हम कोई दान नहीं लेते, बल्कि हम मेवे बेचकर पैसे इकट्ठा करते हैं। 40 दिरहम (यूएआई मुद्रा) के एक पैकेट नट्स से अस्पताल के एक बच्चे के लिए एक रात का पैसा जुटाया जा सकता है।”
पिछले हफ्ते दोनों बहनों ने अपने माता-पिता के साथ मुंबई में इन बच्चों से मुलाकात की। यह पहली बार था जब मेहर और शनाया इन बच्चों से मिली हैं।
12 वर्षीय शनाया ने बताया, “इन बच्चों और उनके परिवारों से मिलकर पता चला कि अभी भी कितनी परेशानियां हैं और कितना कुछ करना बाकी है।”
अस्पताल में बच्चों से मिलने के बाद वे धर्मशाला गयीं, जहां पर इलाज़ के दौरान ये बच्चे और इनके माता-पिता रहते हैं। वहां उन्होंने एक 17 वर्षीय लड़की से बात की, जिसने उन्हें बताया कि उसका इलाज़ टाटा मैमोरियल अस्पताल में ही हुआ था, लेकिन फिर से उसे ल्युकेमिआ हो गया और उसके परिवार को फिर से गांव से मुंबई आना पड़ा। उस लड़की ने बताया कि कैसे उसकी ज़िन्दगी के 7 साल अस्पतालों के चक्कर काटते हुए बीते हैं।
उन्होंने पीड़ित बच्चों के माता-पिता से भी बात की। जिन्होंने दोनों बहनों को अपनी परेशानियों के बारे में बताया। अपने आगे की योजनाओं में मेहर और शनाया लोगों में जागरूकता फैलाने का काम करेंगीं।
( संपादन – मानबी कटोच )
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लगभग हर एक महिला अपने जीवन में कभी न कभी पीरियड्स से संबंधित परेशानी से गुजरती है। आज दस महिलाओं में से लगभग एक पॉलीसिस्टिक ओवेरियन डिसऑर्डर (पीसीओडी) से पीड़ित है।
पीसीओडी के चलते अन्य परेशानियां जैसे प्रेगनेंसी में समस्या, मोटापा हो जाना, चेहरे पर कील-मुहांसे होना या फिर पीरियड्स के दौरान अत्यधिक दर्द होना आदि आम लक्षण हैं।
हालाँकि, इस बिमारी के लिए कोई निश्चित इलाज़ नहीं है। पर फिर भी कुछ हम अपनी आदतों में कुछ बदलाव कर इसे नियंत्रित कर सकते हैं।
सेलिब्रिटी नूट्रिशनिस्ट रुजुता दिवेकर ने हाल ही में अपने इंस्टाग्राम पेज पर इसके लिए कुछ सुझाव शेयर किये हैं।
उन्होंने लोगों को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को छोड़ अपनी प्राकृतिक बुद्धि से काम लेने की सलाह दी है। उनके अनुसार, तीन पैरामीटर से आप पता कर सकते हैं कि आप कितने स्वस्थ हैं।
इनमें शामिल हैं, आपका पूरे दिन का एनर्जी लेवल, रात के दौरान आपकी नींद की मात्रा और आपका एक्सरसाइज का पालन।
यदि किसी को अनियमित पीरियड्स होते हैं और अत्यधिक दर्द होता है तो उन्हें कुछ निश्चित सुपरफूड खाने चाहिए। जिससे इन्सुलिन सम्वेदनशीलता और पीरियड्स को नियमित करने में मदद मिलेगी।
नारियल, घी, गुड़ और जलकुम्भी के बीज सुपरफूड्स हैं जो त्वचा पर बढ़े हुए छिद्रों को कम करने में मदद करते हैं। कच्चा केला, जिमीकंद और अंकुरित फलियां पीएमएस और माइग्रेन को रोकती हैं,” उन्होंने बताया। इस बीच डोसा, दलिया या भाकरी खाने से दर्द में राहत मिलती है और साथ ही ठोड़ी पर होने वाले मुहांसों को भी रोका जा सकता है।
रुजुता, पीरियड्स के समय दर्द को कम करने के लिए वे कैल्शियम और बी 12 सप्लीमेंट्स लेने की सलाह देती हैं। इसके अलावा आपको कुछ योगाभ्यास भी करने चाहिए जैसे कि सुप्त बद्धाकोणासन।
( संपादन – मानबी कटोच )
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भारत के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक जादवपुर यूनिवर्सिटी है। इसी यूनिवर्सिटी में एक बहुत पुरानी कैंटीन को चलाने वाले मिलन कांति डे का हाल ही में लंग कैंसर के चलते निधन हो गया। उन्हें सब लोग प्यार से ‘मिलन दा’ कहकर बुलाते थे।
जादवपुर यूनिवर्सिटी में न जाने कितनी पीढ़ियों के छात्र मिलन दा को जानते हैं। उनकी कैंटीन चार दशकों से विश्वविद्यालय की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा रही है। जेयू में छात्रों का कोई ‘अड्डा’ सेशन मिलन दा के कैंटीन से कुछ खाये बिना पूरा नहीं हुआ।
मिलन दा ने जादवपुर विश्वविद्यालय के गेट 4 के पास एक कैंटीन शुरू किया था। उनकी कैंटीन एक खास पकवान ‘धोपेर चोप’ के लिए प्रसिद्द थी।
‘धोपेर चोप’ के पीछे की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है। ‘धोप’ शब्द का मतलब बंगाली में ‘झूठ’ होता है। जो की गुस्से से भरे यूनिवर्सिटी के बुद्धिजीवियों ने बिडम्वना को दर्शाने के लिए रखा था।
यह कुरकुरा स्नैक और मिलन दा की स्पेशल चाय, इन दोनों के बिना कैंटीन में विद्यार्थियों के बीच होने वाली कोई भी राजनैतिक, सांस्कृतिक बहस पूरी नहीं होती थी।
मिलन दा का स्वभाव बहुत ही शांत था। वे तो बस चुप्पी के साथ ट्रे में चाय और धोपेर चोप परोसकर बच्चों के लिए विचार-विमर्श का माहौल बनाते थे।
हालांकि, जीवन उनके लिए इतना आसान नहीं रहा। मिलन दा, लिबरेशन युद्ध के दौरान बांग्लादेश से भागकर कोलकाता, भारत आये। यहां उन्होंने 1972 में इस कैंटीन की शुरुआत की। दिन के दौरान कॉलेज परिसर में चाय बेचते और रात में गेट के बाहर फुटपाथ पर सो जाते। मिलन दा ने संघर्ष किया और धीरे-धीरे अपना कारोबार बढ़ाया, कोलकाता में जमीन खरीदी, और अपने माता-पिता को अपने साथ रहने के लिए ले आये।
मिलन दा ने कैंसर के साथ लंबी लड़ाई के बाद 23 जुलाई को अपना आखिरी सांस ली। परिवार में उनकी पत्नी और दो बेटे हैं।
जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों के सोशल मीडिया अकाउंट्स मिलन दा के किस्सों से भरे हुए हैं। कई छात्रों ने कोलकाता में इस प्रतिष्ठित कैंटीन में बिताए गए अनमोल क्षणों को याद किया। अब, यह देखना है कि क्या उनकी पत्नी और बेटे मिलन दा की इस विरासत को आगे बढ़ाएंगे?
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कर्नाटक के कलबुर्गी के मकतमपुरा में स्थित एमपीएचएस सरकारी हाई स्कूल के क्लर्क बसवराज आज बहुत सी लड़कियों के लिए मसीहा बन गए हैं।
वह गरीब लड़कियों को शिक्षा के लिए साधन प्रदान कर उनका जीवन संवार रहे हैं। बसवराज की मदद से 45 लड़कियां शिक्षा प्राप्त कर पा रही हैं। वह स्कूल की 45 गरीब लड़कियों की फीस भरते हैं।
इन छात्राओं के माता-पिता फीस देने में असमर्थ हैं। यह लड़कियां पढ़-लिखकर आगे बढ़ सके इसलिए इनकी पढ़ाई का खर्चा बसवराज उठाते हैं।
दरअसल, अपनी बेटी की याद में उन्होंने यह पहल शुरू की है। उनकी बेटी धनेश्वरी का पिछले साल बीमारी के चलते देहांत हो गया था। उसी की याद में बसवराज ने इन गरीब लड़कियों के जीवन को सँवारने का फैसला किया।
एमपीएचएस सरकारी हाईस्कूल की छात्रा फातिमा ने कहा, ‘हम गरीब परिवारों से हैं और हम स्कूल की फीस का भुगतान नहीं कर सकते। बसवराज सर अपनी बेटी की याद में हमारी स्कूल फीस का भुगतान करते हैं। हम चाहते हैं कि उनकी बेटी की आत्मा को शांति मिले।’
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हाल ही में, गुजरात के अहमदाबाद में एक ऑटो चालक ने एक महिला के 4 लाख रूपये लौटकर ईमानदारी की मिसाल कायम की।
दरअसल, राजस्थान के जोधपुर से ताल्लुक रखने वाली प्रेमलता गहलोत (61 वर्षीय) दिल की मरीज हैं। जिसके चलते वे बीते मंगलवार अहमदाबाद के थलतेज में एक प्राइवेट अस्पताल में अपने पति के साथ इलाज़ के लिए आयी थीं। रनिप बस स्टैंड पर उतर कर वे नानजी नयी के ऑटो-रिक्शा में बैठ कर होटल गए थे।
लेकिन प्रेमलता 4 लाख रुपयों से भरा हुआ बैग नानजी के ऑटो में ही भूल गयी थीं। जब होटल जाने पर उन्हें इस बात का अहसास हुआ तो उनका दिल बैठ गया।
प्रेमलता ने कहा, “हम उस जगह वापिस गए और उस ऑटो-ड्राइवर को ढूंढने लगे, इसके बाद हम वस्त्रापुर पुलिस स्टेशन गए। इस उम्मीद में कि हमें हमारे पैसे शायद मिल जाये।”
इधर, जब नानजी (52 वर्षीय) ने अपना ऑटो साफ़ किया तो उन्हें बैग मिला। जिसमें इतने पैसे देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने बताया, “मुझे तुरंत समझ में आ गया था कि यह पैसे उसी महिला के हैं जिसे मैंने होटल छोड़ा था। मैं अपने बेटे और दामाद के साथ तुरंत वस्त्रापुर पुलिस स्टेशन गया। सौभाग्य से वे महिला और उनके पति मुझे वहीं मिल गए। और मैंने तुरंत पैसे वापिस कर दिए।”
नानजी पिछले 25 सालों से ऑटो-रिक्शा चला रहे हैं। प्रेमलता ने कहा कि यदि उन्हें पैसे नहीं मिलते तो शायद उनका जीवन खतरे में आ जाता। क्योंकि यह पैसे उनके इलाज़ के लिए थे।
हम नानजी नयी की ईमानदारी की सराहना करते हैं और उम्मीद करते हैं कि बहुत से लोग उनसे प्रेरणा लेंगें।
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बिहार के अदम्य अदिति गुरुकुल के हजारों छात्रों के लिए, जो आज सब इंस्पेक्टर, आईएएस, आईपीएस, आईआरएस और सीटीओ अधिकारी बन गए हैं, गुरु रहमान वह शिक्षक हैं जिन्होंने उनकी दुनिया बदल दी।
डॉ मोतीर रहमान खान ने 1994 में कोचिंग कक्षाएं शुरू की, क्योंकि उन्हें प्यार हो गया था।
उन्होंने बताया,
“अमिता (उनकी पत्नी) और मैं कॉलेज के दिनों से ही प्यार में पड़ गए थे। उसका दिल जीतने के लिए मैंने कड़ी मेहनत करके हिंदू विश्वविद्यालय में एमए में टॉप किया था। लेकिन उस समय हिन्दू-मुस्लिम की आपस में शादी होना नामुमकिन था। हमने अपने माता-पिता की सहमति के बिना शादी कर ली। हम दोनों स्पष्ट थे कि हम में से कोई भी अपना धर्म नहीं बदलेगा। जिसे समाज ने स्वीकार नहीं किया और हमें समाज से बहिष्कृत होना पड़ा। इसलिए मुझे कहीं नौकरी नहीं मिली।”
रहमान ने किराए के एक छोटे-से कमरे में अपनी कक्षाएं शुरू कीं, जहां छात्र फर्श पर बैठते थे। एक पुलिस इंस्पेक्टर के बेटे होने के नाते, वह हमेशा से एक आईपीएस अधिकारी बनना चाहते थे। उन्होंने कई प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं भी दीं और कुछ में पास भी हुए। इसलिए उन्होंने यूपीएससी, आईएएस और बीपीएससी जैसी विभिन्न प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं और यहां तक कि लिपिक (क्लर्क) पदों की परीक्षाओं के लिए अपने छात्रों को प्रशिक्षित करना शुरू किया।
उन्हें साल 1994 में बिहार में 4,000 उप निरीक्षकों की भर्ती के दौरान प्रसिद्धि मिली; जिनमें से 1,100 रहमान के छात्र थे। तब रहमान बिहार में हर किसी के लिए जाना-पहचाना नाम बन गए और राज्य के हर कोने से छात्र उनकी कक्षाओं में आने लगे।
इसके अलावा एक और घटना ने रहमान का कोचिंग कक्षाओं के प्रति नजरिया बदल दिया। एक बार एक छात्र उनके पास मार्गदर्शन के लिए आया, क्योंकि उसके पास कोचिंग के लिए पैसे नहीं थे। पर रहमान को पता चला कि वह छात्र बहुत ही मेहनती और काबिल है। इसलिए उन्होंने उसे केवल 11 रूपये लेकर अपनी कोचिंग क्लास में आने के लिए कहा। यही छात्र आज उड़ीसा के नौपड़ा का जिला अधिकारी है।
इसके बाद गरीब तबकों से आने वाले छात्रों से रहमान केवल 11 रूपये लेकर उन्हें प्रशिक्षित करते थे।
वे हमेशा छात्रों से पूछते कि वे कितनी फीस दे सकते हैं। जो कुछ भी छात्र उन्हें देते, वे उसी में उन्हें पढ़ाते थे।
“10,000 से अधिक छात्रों ने मेरी अकादमी से अध्ययन किया है। हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार फीस देता है। किसी ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया है,” रहमान कहते हैं।
साल 2007 तक, रहमान को गुरु रहमान के नाम से जाना जाने लगा। उन्होंने अपनी बेटी के नाम पर अपनी अकादमी को अदम्य अदिति गुरुुकुल का नाम दिया। रहमान और अमिता धार्मिक सद्भावना का प्रतीक भी बन गए हैं क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों के नाम से उपनाम को हटा दिया। उन्होंने अपने बच्चों का नाम अदम्य अदिति और अभिज्ञान अर्जित रखा।
अपनी बेटी व बेटे के साथ
“गुरुजी की कक्षाओं के बारे में अलग है कि वह लगातार अपने छात्रों को एक पिता की तरह प्रेरित करते हैं, जो हमारे जैसे गरीब छात्रों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। और कोई भी उनकी तरह इतिहास नहीं सिखा सकता है,” बिहार के मोहनिया के सीटीओ मुकेश चौधरी कहते हैं।
बिहार के पूर्णिया जिले के एक सेवानिवृत्त प्राथमिक विद्यालय शिक्षक की बेटी मीनु कुमारी झा (उनकी एक अन्य छात्र) आईपीएस अधिकारी बनना चाहती थी। वह आज आईपीएस अधिकारी हैं। उन्होंने मात्र 11 रूपये देकर रहमान के यहां पढ़ाई की।
प्राचीन इतिहास और संस्कृति में ट्रिपल एमए और पीएचडी, गुरु रहमान ने अब तक 10,000 से अधिक छात्रों को पढ़ाया है, जिनमें से 3,000 छात्रों को उप निरीक्षकों, 60 को आईपीएस अधिकारी और 5 को आईएएस अधिकारी के रूप में चुना गया है और कई अन्य आधिकारिक पदों पर हैं ।
अपनी छात्रा मीना कुमारी के साथ
वर्तमान में, रहमान लगभग 2,000 छात्रों को पढ़ाते हैं। इन छात्रों ने सामाजिक सुधार के लिए टीम भी बनाई है।
रहमान की अगुवाई में छात्रों की टीम ने अंगदान, गंगा घाट की सफाई और दिल्ली से लेह तक ट्राईसाइकिल पर यात्रा कर के दिव्यांग अनुराग चन्द्र के लिए धन जुटाने जैसे कई जागरूकता अभियान शुरू किए हैं।
अनुराग चंद्र के लिए फण्ड इकट्ठा करते हुए
बिहार के अलावा, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और झारखंड के छात्र भी यहां आते हैं और 11 से 100 रुपये के बीच कोई फीस देकर कोचिंग प्राप्त करते हैं। ये छात्र सफल पदों पर पहुंचने के बाद, अकादमी और रहमान द्वारा किये जा रहे समाज सुधार के कार्यों में भी दान करते हैं।
“शिक्षा हमारे देश को आगे बढ़ाने का एकमात्र तरीका है और इसके लिए हमें अपनी जाति, पंथ, धर्म या सामाजिक स्थिति के बावजूद प्रत्येक छात्र के लिए इसे उपलब्ध कराना है। आपकी वेबसाइट के जरिये मैं ऐसे छात्रों से जुड़ना चाहता हूँ, जिन्हें मेरी मदद की जरूरत हो,” रहमान कहते हैं।
आप अदम्य अदिति गुरुकुल के लिए 1st फ्लोर, गोपाल मार्केट, नया टोला, भीखना पहारी, सेंट्रल बैंक एटीएम, पटना, बिहार-800004 जा सकते हैं। इसके अलावा आप 09334107690/9304769416 पर कॉल कर सकते हैं। आप aimcivilservices.munna.ji@gmail.com पर भी मेल कर सकते हैं।
मूल लेख: मानबी कटोच
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यदि आप भारतीय रेल में सफर करते हैं तो ट्रेन कोच और बाथरूम में गंदगी से भली-भांति परिचित होंगें। लेकिन पश्चिमी रेलवे ने हाल ही में यात्रियों के लिए एक राहत भरी पहल की है।
दरअसल, पश्चिमी रेलवे ने घोषणा की है कि ट्रेनों में साफ़-सफाई संबंधित यात्रियों की परेशानियों को जल्द से जल्द हल करने की कोशिश की जाएगी। ख़बरों के मुताबिक, पश्चिमी रेलवे ने एक व्हाट्सअप नंबर जारी किया है। यदि आप किसी ट्रेन में सफर कर रहे हैं और आपको ट्रेन कोच, बाथरूम या फिर रेलवे स्टेशन पर कहीं भी गंदगी दिखती है तो आप फोटो खींचकर इस नंबर पर भेज दें।
पश्चिमी रेलवे चंद घंटों में आपकी समस्या को हल करेगी। यह व्हाट्सअप नंबर है 9004499733
पश्चिमी रेलवे के चीफ पब्लिक रिलेशंस ऑफिसर रविंदर भाकर ने कहा, “इस योजना को बड़ोदरा डिवीजन में सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया गया है। यही कारण है कि पश्चिमी रेलवे ने इसे सभी डिवीजन में शुरू करने का फैसला किया है।”
बेशक, रेलवे का यह कदम यात्रियों की सुविधा की दिशा में है। इसीलिए, अब यात्रियों की भी जिम्मेदारी है कि वे रेलवे स्टेशन व ट्रेन को साफ़ रखने में रेलवे की मदद करें।
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आपने अक्सर सुना होगा कि एक पुलिस वाला कभी भी छुट्टी पर नहीं होता है। इसी बात को मुंबई में पुलिस सब-इंस्पेक्टर वाई.एस मुल्ला और डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस (डीसीपी) शिवदीप लांडे ने साबित कर दिखाया है।
दरअसल, रविवार की रात वानखेड़े स्टेडियम के पास हुए एक एक्सीडेंट में मुल्ला और लांडे ने दो घायल लड़कियों को समय रहते अस्पताल पहुंचाया।
रविवार को ड्यूटी खत्म कर मुल्ला अपने परिवार के साथ मरीन ड्राइव घूमने गयी थीं। “रात के लगभग साढ़े बारह बजे मैंने एक बाइक के फिसलने की आवाज सुनी और देखा कि दो लड़कियां एक्टिवा से गिर गयी हैं। उनका खून बह रहा था,” मुल्ला ने बताया।
मुल्ला ने तुरंत लड़कियों के पास पहुंचकर उनकी मदद की। तभी डीसीपी लांडे भी वहां से गुजर रहे थे। उन्होंने सड़क के किनारे भीड़ देखी तो कारण पता करने आगे आये। उन्होंने लड़कियों को इस हालत में देख, तुरंत एक टैक्सी रुकवाई और खुद उन लड़कियों को अस्पताल लेकर गए।
इधर मुल्ला ने देखा कि डीसीपी के साथ कोई भी महिला पुलिसकर्मी नहीं है। इसलिए उन्होंने अपने परिवार को घर जाने के लिए कहा और खुद स्कूटी पर टैक्सी के पीछे-पीछे अस्पताल पहुंची। ताकि, किसी भी परिस्थिति में घायल लड़कियों की मदद हो सके।
दोनों लड़कियों को जीटी अस्पताल में भर्ती कराया गया। लड़कियों की पहचान नेहा कनेकर (21 वर्षीय) और निशा वाघेला (18 वर्षीय) के रूप में हुई। बाद में पता चला कि दोनों लड़कियां अपने दोस्त तुषार गोले (24 वर्षीय) के साथ घूमने निकली थीं। तुषार बाइक चला रहा था और दोनों लड़कियां पीछे बैठी थीं।
हालाँकि, नेहा और निशा को दुर्घटना में काफी चोटें आयी हैं, लेकिन तुषार को कोई चोट नहीं आयी। इस मामले में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गयी है क्योंकि यह आकस्मिक हुई घटना थी।
“हमारी मदद के लिए मैं पीएसआई मुल्ला और डीसीपी लांडे का पुरे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ। मैंने सुना कि मुल्ला ने ऑफ-ड्यूटी होते हुए भी हमारी मदद की,” नेहा कनेकर ने कहा।
हम इन पुलिसवालों के हौसलों की सराहना करते हैं और उम्मीद करते हैं कि बहुत से लोग इनसे प्रेरणा लेंगें।
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नारायण सेवा संस्थान, उदयपुर ने पंजाब से पहले जयपुर में भी ऐसे फैशन शो का आयोजन किया था। इसके अलावा गोवा में भी ‘रनवे इंस्पिरेशन’ फैशन शो पिछले साल दिसंबर में आयोजित किया गया था।
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हाल ही में, महाराष्ट्र के पुणे ग्रामीण क्षेत्र में संदीप पाटिल को नए पुलिस अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया है। इस मौके पर बहुत से लोग उन्हें फूलों के गुलदस्तों के साथ बधाई देने पहुंचें। यह देखकर पाटिल ने सभी लोगों से एक बहुत ही अनोखी और प्यारी मांग की।
दरअसल, उन्होंने सभी नागरिकों और अधिकारियों से अपील की है कि यदि कोई भी उन्हें उनकी नियुक्ति पर बधाई देने जाता है तो वह उनके लिए फूलों के गुलदस्ते की बजाय कोई भी ज्ञानवर्धक किताब उपहार स्वरूप लाये। वे इन सभी किताबों को इकट्ठा कर नक्सल प्रभावित क्षेत्र गडचिरोली के बच्चों और युवाओं के लिए भेजना चाहते हैं।
पाटिल (39 वर्षीय) को गडचिरोली में माओवादियों के विरुद्ध कई अभियानों के लिए जाना जाता है। इसके साथ ही उन्होंने इन क्षेत्रों के बच्चों और युवाओं के लिए भी कई योजनाएं चलायीं हैं। जैसे कि अग्निपंख, जिसके तहत यहां के अनाथ बच्चों को शिक्षा प्रदान की जाती है।
पाटिल ने पुलिस स्टेशनों में लाइब्रेरी खोलने पर भी जोर दिया है। पिछले दो सालों में किताबों के जरिये उन्होंने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लोगों और पुलिस के बीच के फासले को भरने की कोशिश की है।
पाटिल ने कहा, “मैंने अपने जीवन में दूसरी बार ऐसी कोई अपील की है। साल 2016 में जब मुझे सतारा का एसपी नियुक्त किया गया था, तब भी मैंने लोगों से फूलों के बदले किताबों की मांग की थी। उन सभी किताबों को हमने गडचिरोली के बच्चों और युवाओं के लिए भेज दिया था।”
हम पाटिल की इस पहल की सराहना करते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनसे प्रेरित होकर और भी बहुत से लोग इस तरह के अभियानों से जुडेंगें।
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राजस्थान की 48 वर्षीय वर्षा शर्मा अपने एक दोस्त को किडनी दान करना चाहती थी। पर उनका परिवार इसके सख्त खिलाफ था। उनका दोस्त भारतीय सेना में अफ़सर है, जिनका नाम कर्नल पंकज भार्गव है।
परिवार के विरोध के बाद जब सरकार ने भी वर्षा की मदद नहीं की तो उन्होंने कर्नाटक हाई कोर्ट में याचिका दायर की।
नियमों के अनुसार किसी भी अंगदान की प्रक्रिया में केवल कोई करीबी रिश्तेदार (जिनसे पीड़ित का खून का रिश्ता हो) ही अंग दान कर सकता है। लेकिन हाल ही में, कर्नाटक हाई कोर्ट ने वर्षा को ऐसा करने की इजाजत दे दी है।
दरअसल, वर्षा कर्नल भार्गव के भाई की सहपाठी रही थीं। इसलिए जब कर्नल भार्गव के बारे में उन्हें पता चला तो उन्होंने स्वयं उन्हें किड़नी दान करने की इच्छा जताई। इसके लिए वर्षा ने खुद को अक्टूबर, 2017 से तैयार करना शुरू किया और लगभग 21 किलो वजन भी घटाया।
उन्होंने इस केस में सबसे पहले अनिल श्रीवास्तव से संपर्क किया था, जो खुद एक किडनी डोनर हैं साथ ही ‘गिफ्ट ऑफ लाइफ एडवेंचर फाउंडेशन’ के फाउंडर हैं। वे शुरू से ही इस लड़ाई में वर्षा के साथ रहे।
हालांकि, कोर्ट ने लम्बे इंतज़ार के बाद वर्षा को मंजूरी दे दी और बीती 27 जुलाई को सर्जरी भी बिना किसी समस्या के कोलम्बिया एशिया हॉस्पिटल में हो गयी। कर्नल भार्गव और वर्षा, दोनों ही अभी अस्पताल में हैं। अस्पताल के ट्रांसप्लांट सर्जन डॉ. एस सुधाकर ने कहा कि यह मामला बहुत ही अलग था। वर्षा ने अपने परिवार और अधिकारियों, दोनों से विरोध का सामना करने के बाद कोर्ट में पेटिशन फाइल किया। उन्होंने अपने अधिकार की लड़ाई लड़ी है।
अब यह तो नहीं पता कि इस केस के बाद बिना किसी संबंध के अंगदान करने के मामलों में क्या फैसला होगा। लेकिन यक़ीनन इस केस से इस तरह के मामलों को देखने का नजरिया अवश्य बदलेगा।
हम वर्षा के दृढ निश्चय और हौंसले की सराहना करते हैं। उम्मीद है कि वर्षा और कर्नल भार्गव जल्द ही स्वस्थ होकर घर लौटें।
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भारतीय रेलवे की सीएसएमटी- पुणे इंटरसिटी एक्सप्रेस के सभी यात्रियों को वॉचमैन सुनील बिहारी का शुक्रिया अदा करना चाहिए। क्योंकि उनकी सतर्कता के चलते सेंट्रल रेलवे के घाट खंड में मंगलवार की सुबह एक बहुत बड़ी दुर्घटना होने से बच गयी।
सेंट्रल रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, “सुबह लगभग 9 बजे वॉचमैन सुनील बिहारी ने मंकी हिल और ठाकुरवाड़ी रेलवे स्टेशनों के बीच लाइन ट्रैक में लगभग 125 मिलीमीटर का अंतर देखा। सीएसएमटी-पुणे इंटरसिटी एक्सप्रेस इसी रास्ते से आ रही थी। उन्होंने तुरंत संबंधित अधिकारियों को सूचित किया और ट्रेन को रुकवाया।”
उनकी तुरंत कार्यवाई के चलते न केवल इंटरसिटी ट्रेन के यात्री बल्कि बाद में आने वाली कई अन्य ट्रेनों के यात्रियों की भी जान बच पायी।
घटना की जानकारी मिलते ही वरिष्ठ अधिकारी सूरज कांबले तुरंत साइट पर पहुंचे। 9:45 बजे तक, लाइन ट्रैक को ठीक कर दिया गया। तब तक के लिए रेलवे की मिडिल लाइन को ट्रेनों के लिए खोला गया। जिससे किसी भी ट्रेन को देरी नहीं हुई।
मानसून से दौरान कल्याण और लोनावाला के बीच के ट्रैक को रेलवे द्वारा अच्छे से निरीक्षित किया जाता है। क्योंकि इस पुरे घाट खंड में पत्थर होने से जोखिम बना रहता है। यदि एक भी भारी पत्थर रेलवे लाइन पर गिर जाये तो बड़ी समस्या पैदा हो सकती है।
इसलिए इस क्षेत्र को हमेशा सीसीटीवी कैमरा की निगरानी में रखा जाता है। हम सुनील बिहारी की सराहना करते हैं, जिन्होंने अपनी सूझ-बूझ के चलते इस खतरे को टाला।
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भारतीय-ऑस्ट्रेलियाई गणितज्ञ अक्षय वेंकटेश, इस साल के फील्ड मेडल के चार विजेताओं में से एक है। इस फील्ड मेडल को गणित में नोबेल पुरस्कार माना जाता है।
नई दिल्ली में जन्में 36 वर्षीय वेंकटेश ने बुधवार को “असाधारण रूप से गणित में विषयों की विस्तृत श्रृंखला का योगदान” के लिए यह सम्मान जीता है।
एएफपी ने बताया कि वेंकटेश ने मात्र 13 साल की उम्र में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय में गणित और भौतिकी में अपनी स्नातक की डिग्री शुरू की थी। संयुक्त राज्य अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से वेंकटेश ने नंबर थ्योरी में स्पेशलाइजेशन किया।
रियो डी जेनेरो में गणितज्ञों की अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में उन्हें इस सम्मान से नवाज़ा गया।
हर चार साल में 40 साल से कम उम्र वाले 4 बेहतरीन गणितज्ञों को उनके काम के लिए फील्ड मेडल दिया जाता है। प्रत्येक विजेता को 15,000 कैनेडियन डॉलर का नकद पुरस्कार भी प्राप्त होता है।
इस पुरस्कार की शुरुआत कनाड़ा के गणितज्ञ जॉन चार्ल्स फील्ड के अनुरोध पर साल 1932 में की गयी थी। उन्होंने वर्ष 1924 में टोरंटो गणित कांग्रेस में अहम भूमिका निभाई थी।
इस साल के अन्य तीन विजेता कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कौचर बिरकर, जर्मनी के पीटर स्कॉलेज (जो बॉन विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं), और इतालियन गणितज्ञ एलेसियो फिगल्ली हैं।
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अंसार शेख अपने परिवार में ग्रेजुएशन करने वाले पहले व्यक्ति है और सरकारी नौकरी पाने वाले भी। पर केवल अपने परिवार में ही नहीं बल्कि पुरे भारत में अंसार सबसे कम उम्र के आईएएस अधिकारियों में से एक है।
महाराष्ट्र निवासी अंसार ने साल 2016 में अपने पहले ही प्रयास में यूपीएससी की परीक्षा को पास कर लिया था। वे तब केवल 21 साल के थे। इतना ही नहीं उनकी ऑल इंडिया रैंक 361 थी।
अगर आप कभी उनके भाषण सुने, तो आपको पता चलेगा कि शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होंने और उनके परिवार ने कितनी परेशानियों का सामना किया है। उनके पिता, मराठावाड़ा के जालना जिले में शेलगाँव में एक रिक्शा चालक थे और शराब की लत से ग्रस्त थे। उन्होंने तीन बार शादी की। अंसार की माँ, जो खेत में काम करती थी, उनकी दूसरी पत्नी है।
अंसार घरेलू हिंसा और बाल विवाह जैसी कुरूतियों को देखकर बड़े हुए। उनकी बहनों की शादी 15 साल की उम्र में हुई थी, और उनके भाई को छठी कक्षा के बाद अपने चाचा के गेराज पर काम करने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
भले ही अंसार के भाई उनसे दो साल छोटे है, लेकिन अंसार उन्हें हर तरीके से खुद से बड़ा मानते है। ऐसा क्यूँ है ये आपको उनकी कहानी जानकर पता चलेगा।
हर कोई सोचता था कि अंसार अपने घर से दबाब के चलते पढ़ाई छोड़ देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
अपने एक भाषण में उन्होंने बताया,
“मेरे सभी रिश्तेदार मेरे माँ-बाप से पूछते थे कि क्या जरूरत है अंसार को पढ़ाने की। जब मैं चौथी कक्षा में था, तो मेरे माता-पिता ने मेरे टीचर से कहा कि वे मेरा स्कूल छुड़वाना चाहते हैं, पर उन्होंने इस बात से इनकार कर दिया। उन्होंने उनसे कहा कि आपका बेटा एक उज्ज्वल छात्र है। उसकी पढ़ाई में पैसा लगा कर आपको पछतावा नहीं होगा। वो एक दिन आपकी किस्मत बदल देगा। मेरे अशिक्षित माता-पिता के लिए मेरे शिक्षक द्वारा कही गयी यह बात बहुत बड़ी थी।”
और इसलिए, उनके माता-पिता ने शिक्षा और अंसार को एक मौका देने का फैसला किया। अंसार ने भी 12वीं में 91 प्रतिशत अंक लाकर अपने टीचर की कही उस बात का मान रखा!
वे जिला परिषद स्कूल में पढ़ाई के संघर्षों के बारे में हँसते हुए बताते हैं, “मुझे बड़े होने पर चिकन बहुत पसंद था। लेकिन जिस घर में एक वक़्त का खाना नसीब होना भी किस्मत थी। वहां चिकन भूल जाओ। इसलिए जब कभी दोपहर के भोजन में कीड़े मिलते थे तो शाकाहारी खाना खुद ब खुद मांसाहारी हो जाता था।”
उन्होंने 12वीं मराठी माध्यम से पढ़ने के बाद पुणे के फर्गूसन कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस विषय से ग्रेजुएशन में दाखिला लिया। हालाँकि, यह निर्णय आसान नहीं था। उनके पिता हर महीने उन्हें थोड़े-बहुत पैसे भेजते थे। बाकी इसके अलावा उनका भाई महीने की अपनी पूरी कमाई- 6000 रूपये उनके अकाउंट में जमा करा देता था।
अंसार ने कभी भी अपनी गरीबी को अपने रास्ते का कांटा नहीं बनने दिया। ग्रेजुएशन के फर्स्ट ईयर में उन्हें यूपीएससी की परीक्षा के बारे में पता चला। पढ़ाई के साथ-साथ परीक्षा की तैयारी करने के लिए उन्होंने यूनिक अकेडमी के तुकाराम जाधव से सम्पर्क किया और पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए उनसे अनुरोध किया।
हालांकि, बड़ा सवाल यह था कि वह यूपीएससी कोचिंग की फीस कैसे भरेंगे जो कि 70,000 रुपये थी।
उन्होंने याद करते हुए बताया, “जब मैंने जाधव सर को मेरे परिवार के बारे में बताया तो उन्होंने मुझे फीस में 50% डिस्काउंट दिया, क्योंकि उन्हें लगता था कि मैं कुछ कर सकता हूँ। जब मैंने क्लास में पहला कदम रखा, तो देखा कि वहां आए ज़्यादातर छात्र 20 से 30 साल के बीच में थे, जिन्होंने दो से तीन बार परीक्षा दी थी। मैं केवल 19 साल का था। इसलिए मैं अक्सर डरता था और सबसे बातचीत करना मुश्किल लगता था।”
लेकिन जैसे ही क्लास शुरू होने लगीं, अंसार की उत्सुकता बढ़ने लगी। उन्होंने सबसे बातचीत शुरू कर दी। साथ ही वे क्लास में कोई भी सवाल पूछने से नहीं कतराते थे।
“कभी-कभी मैं नोट्स के लिए पैसे बचाता और सिर्फ वड़ापाव खाकर गुजारा करता था। अपने दोस्तों से किताबे लेकर फोटोकॉपी करा लेता था। मैंने दिन में 13 घंटे पढ़ना शुरू किया। क्योंकि फेल होना मेरे लिए कोई विकल्प नहीं था। मुझे दूसरी बार तैयारी करने का मौका नहीं मिलता,” उन्होंने कहा।
उन्हें थोड़ी राहत मिली जब उनका प्रीलिम्स पास हो गया। लेकिन मेन्स और साक्षात्कार अभी भी रहता था। जब वह अपने मेन्स की तैयारी कर रहे थे, तब उनकी बहन के पति की बहुत ज्यादा शराब पीने से मौत हो गयी! इसके बाद परिवार को संभालने की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गयी थी, क्योंकि उनके पिता और भाई दोनों काम कर रहे थे।
“लेकिन मुश्किल समय में भी, मेरी बहन, जिसने अपने पति को खोया था, उसने हार नहीं मानी। उसने मुझे पुणे लौटने और परीक्षा के लिए तैयारी करने को कहा।”
बाद में जब परीक्षा का परिणाम आया तो उन्होंने परीक्षा पास कर ली थी।
अंसार आज भी अपना पैनल के साथ इंटरव्यू को याद करते हैं, जहां एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी ने उन्हें कट्टरपंथी संगठनों में शामिल मुस्लिम युवाओं के बारे में पूछा। वे अंसार के जवाबों से प्रभावित हुए। इस इंटरव्यू में उनसे पूछा गया था कि वे शिया संप्रदाय से है या सुन्नी से।
अंसार ने कहा था, “मैं एक भारतीय मुस्लिम हूँ।”
उन्होंने 275 में से 199 अंक प्राप्त किये, जो आईएएस के इंटरव्यू राउंड में बहुत बड़ी बात है।
आईएएस की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए अपने संदेश में, अंसार कहते हैं, “अगर आपको लगता है कि आपकी प्रतिस्पर्धा अन्य उम्मीदवारों के साथ है जो परीक्षा देते हैं, तो आप गलत हैं। आपकी एकमात्र प्रतियोगिता आप से है। तो अपने सभी निराशावादी विचारों से बाहर निकले और सफलता खुद आपको मिल जाएगी। याद रखें, गरीबी और सफलता का कोई संबंध नहीं है। आपको केवल कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प की ज़रूरत है। आप कहाँ से आते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ”
मूल लेख: जोविटा अरान्हा
संपादन – मानबी कटोच
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मुंबई के साकीनाका की निवासी माधवी गोंबरे (23 वर्षीय) ने हाल ही में विश्व एमेच्योर शतरंज बॉक्सिंग प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है।
शतरंज बॉक्सिंग खेल, शतरंज, जो एक दिमागी खेल है और बॉक्सिंग (शारीरिक खेल) को जोड़ता है। यह बहुत ही दिलचस्प खेल है जिसमें दोनों खेल एक के बाद एक राउंड में खेले जाते हैं।
इस खेल की शुरुआत मात्र एक कला प्रदर्शन के तौर पर साल 2003 में डच कलाकार लेप रूबिंग द्वारा की गयी थी। लेकिन कुछ ही समय में यह एक प्रतिस्पर्धी खेल बन गया। इस साल, कोलकाता में आयोजित इस प्रतियोगिता में रूस, फिनलैंड, यूएसए, जर्मनी और अन्य देशों के 100 से भी अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया था।
माधवी ने इस मुकाम तक पहुंचने के लिए मुश्किलों भरा सफर तय किया है। उनकी माँ एक स्कूल में चपरासी के रूप में काम करती हैं और उनके घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। पिछले साल जब माधवी ने पहली बार इस प्रतियोगिता में भाग लिया तो साकीनाका पुलिस स्टेशन के वरिष्ठ निरीक्षक अविनाश धर्माधिकारी ने उसकी फीस दी। इस प्रतियोगिता में भाग लेने की फीस 30, 000 रूपये थी।
बाद में डोंगरी में सहायक आयुक्त पुलिस (एसीपी) के रूप में नियुक्त होने के बाद भी अविनाश इस लड़की को नहीं भूले और उसकी सहायता करते रहे। इस साल अविनाश ने अनेक दानकर्ताओं के माध्यम से माधवी के लिए फीस के पैसे इकट्ठा किये।
मिड डे से बात करते हुए माधवी ने कहा, “मैं बहुत खुश हूँ। इसका पूरा श्रेय धर्मधिकारी सर को जाता है, जिन्होंने मेरी मदद की। उनके कारण ही मैंने लगातार दो साल तक स्वर्ण पदक जीते हैं। उन्होंने साकीनाका की निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता लविता पॉवेल का भी धन्यवाद किया, जिन्होंने उनकी शिक्षा और मुक्केबाजी प्रशिक्षण के लिए 1.5 लाख रुपये दिए।
न्यूज़ डीपली की एक रिपोर्ट के मुताबिक, शतरंज बॉक्सिंग का यह खेल भारत में लड़कियों के जीवन को बदल रहा है। रिपोर्ट में कोलकाता स्कूल की एक प्रधानाध्यपिका का कहना है कि शतरंज मुक्केबाजी ने घरेलू श्रम का एक विकल्प दिया है।
उम्मीद है कि माधवी के लिए भी यह खेल एक उज्जवल भविष्य बनाने में मदद करेगा!
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खेलों की सबसे अच्छी बात यह है कि आवश्यकता पड़ने पर लोग किसी भी जाति, पंथ, धर्म और स्थिति के बावजूद एकजुट हो मदद के लिए तैयार होते हैं।
इस सप्ताह की शुरुआत में, क्रिकेटर हरभजन सिंह ने पूर्व एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता हाकम भट्टल की सहायता की। दरअसल भट्टल वर्तमान में लिवर और किडनी की बीमारियों के चलते पंजाब के संगरूर के एक निजी अस्पताल में अपने जीवन के लिए जूझ रहे हैं।
उनकी पत्नी ने जब आर्थिक मदद के लिए सरकार से अनुरोध किया तब भट्टल की हालत के बारे में लोगों को पता चला। उनकी पत्नी ने कहा कि उन्होंने भट्टल के इलाज़ में अपनी सारी जमा पूंजी लगा दी और अब पैसे न होने के कारण अस्पताल प्रशासन उन्हें बाहर जाने के लिए कह रहा है।
इसके बाद, पहले खिलाड़ी रह चुके केन्द्रीय खेल मंत्री, राज्यवर्धन सिंह राठौर ने सोमवार को उनके इलाज के लिए परिवार को 10 लाख रुपये दिए।
I have ordered an immediate release of ₹10 lakhs for the medical treatment of Havildar Hakam Bhattal. Officers of @IndiaSports@Media_SAI have visited him, and we are keeping track of the situation. I wish him a quick recovery.
इस खबर को पढ़ने के बाद हरभजन सिंह ने ट्विटर पर भट्टल से सम्पर्क करने के लिए उनका फ़ोन नंबर और पता माँगा। इसके बाद वे भट्टल के परिवार से मिलने गए और कहा कि उनके अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद वे उनकी हर सम्भव मदद करेंगें।
— Harbhajan Turbanator (@harbhajan_singh) 30 July 2018
द टेलीग्राफ से बात करते हुए हरभजन ने बताया, “भट्टल न केवल एक gold मैडल विजेता है बल्कि ध्यानचंद अवार्ड विजेता भी हैं। मुझे यह पढ़कर बहुत दुःख हुआ कि भट्टल की पत्नी को यह कहना पड़ा कि उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और सरकार को देश के लिए सम्मान जीतने वालों की मदद करनी चाहिए।”
साथ ही टीम इंडिया के पूर्व स्पिनर ने यह साफ़ किया कि वे यह सब किसी पब्लिसिटी के लिए नहीं बल्कि इंसानियत के नाते कर रहे हैं।
उन्होंने कहा, “कृप्या इसे ऐसे मत लिखना कि लोगों को लगे कि मैं कोई पब्लिसिटी कर रहा हूँ। वास्तव में, मैं सिर्फ इंसानियत के लिए कुछ करना चाहता हूँ…..इंसानियत के नाते कुछ फ़र्ज़ बनता है।”
“हालांकि मैं एक हद तक ही कुछ कर सकता हूँ। लेकिन जब भी कोई घटना मेरे दिल को छू जाती है तो मैं व्यक्ति के धर्म या जाति को देखे बिना मदद के लिए हाथ अवश्य बढ़ाता हूँ। आख़िरकार हम सब पहले इंसान हैं,” उन्होंने बताया।
साल 1972 में भट्टल भारतीय सेना में शामिल हुए थे और 6 सिख रेजीमेंट में सेवारत थे। साल 1978 में उन्होंने बैंकॉक एशियाई खेलों में 20 किलोमीटर पुरुषों की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता था। साल 2008 में उन्हें पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने ध्यानचंद अवार्ड से सम्मानित किया था।
खेल मंत्रालय की मदद से पहले भट्टल की पत्नी ने शिकायत की, कि कैसे देश के लिए सम्मान लाने वाले खिलाडियों को सरकार भूल जाती है।
“जब तक खिलाड़ी खेलते हैं और स्वर्ण पदक जीतते हैं तब तक ही उनका ख्याल रखा जाता है। उसके बाद कोई उन्हें पूछता भी नहीं है। इनका केस इसका उदाहरण है। इस परिस्थिति में उन्हें हमारी मदद करनी चाहिए थी,” उनकी पत्नी ने कहा। इसके बाद खेल मंत्रालय ने भट्टल के इलाज़ की जिम्मेदारी ली।
( संपादन – मानबी कटोच )
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बॉर्डर, रिफ्यूजी और एलओसी कारगिल जैसी फ़िल्में बनाने वाले जे.पी दत्ता एक बार फिर अपनी नई फिल्म ‘पलटन’ के साथ बड़े परदे पर लौटने वाले हैं। कुछ समय पहले रिलीज़ हुए फिल्म के टीज़र से प्रतीत हो रहा है कि यह फिल्म किसी बड़े युद्ध की कहानी है।
दिलचस्प बात यह है कि दत्ता को एक बार फिर अपनी फिल्म के लिए प्रेरणा भारतीय सेना से ही मिली है। ‘पलटन’ फिल्म भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच लगभग 50 साल पहले सिक्किम में नाथू ला और चो ला में हुए एक सैन्य स्टैंड-ऑफ पर आधारित है।
सितंबर 1967 में नाथू ला और चो ला में जो हुआ, उसकी अविश्वसनीय कहानी – एक लड़ाई जिसके बारे में चीनी शायद ही कभी बात करें और जो भारत के अनगिनत सैनिकों को प्रेरित करती है।
वह वर्ष 1962 था। 20 अक्टूबर को, जहां एक तरफ हर एक देश की नजर क्यूबा में सोवियत-अमेरिका परमाणु स्टैंडऑफ पर थी। वहीं दूसरी तरफ दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश युद्ध लड़ने को तैयार थे। तिब्बत और क्षेत्रीय विवादों पर तनाव के चलते, चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने कश्मीर के अक्साई चीन क्षेत्र और तत्कालीन उत्तर-पूर्व फ्रंटियर एजेंसी (अब अरुणाचल प्रदेश) पर हमला किया।
कराकोरम पहाड़ों में 14000 फीट की ऊंचाई पर लड़ा गया यह युद्ध एक महीने भी नहीं चला। इस युद्ध में लगभग 2000 जानें दांव पर थी। इस युद्ध का विजेता चीन रहा। पर मुश्किल से 5 साल बाद ही दोनों देशों की सेनाओं में फिर से युद्ध हुआ।
इस बार युद्ध का मैदान नाथू ला था, जो तिब्बत-सिक्किम सीमा पर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण ऊंचाई वाला पास है।
उस समय सिक्किम भारतीय संरक्षण में था। इसलिए यहां पर भारतीय सेना ने अपने सैनिकों को बाहरी आक्रमण रोकने के लिए तैनात किया था। इस बात से नाखुश, चीन ने भारत से 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान सिक्किम-तिब्बत सीमा पर नाथू ला के पर्वतीय रास्ते को खाली करने के लिए कहा।
जब भारतीय सेना ने इस से इंकार कर दिया, तो चीन ने धमकी का सहारा लेना शुरू कर दिया और भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ का प्रयास किया। 13 जून, 1967 को, चीन ने पेकिंग (अब बीजिंग) में दो भारतीय राजनायकों पर जासूसी का आरोप लगाया, और अन्य कर्मचारियों को दूतावास परिसर में ही कैद करवा दिया।
दिल्ली में चीनी दूतावास के कर्मचारियों के खिलाफ पारस्परिक कार्रवाई में भारत ने दयालु प्रतिक्रिया दी। इन प्रतिबंधों को अंततः 3 जुलाई को हटा दिया गया था, लेकिन तब तक चीन और भारत के संबंध बहुत बिगड़ चुके थे।
तो जब पीएलए ने सिक्किम-तिब्बत सीमा पर 29 लाउडस्पीकर लगाकर भारतीय सेना को 1962 के युद्ध के जैसा नतीजा झेलने की चेतावनी देना शुरू किया, तो भारत ने सीमा पर तारों की बाड़ लगाने का फैसला किया ताकि चीनी सेना को सीमा उल्लंघन का बहाना न मिले। इसका काम 20 अगस्त को शुरू हुआ।
चीनी सेना ने इस बाड़ का विरोध किया और इसके चलते पीएलए राजनीतिक कमीश्नर और भारतीय सेना में पैदल सेना के कमांडिंग अधिकारी कर्नल राय सिंह के बीच वाद-विवाद हो गया। 7 सितंबर को एक लड़ाई हुई – दोनों सेनाओं के दिमाग में 1962 की यादें अभी भी ताजा थीं।
तीन दिन बाद, चीन ने भारतीय दूतावास के माध्यम से एक चेतावनी भेजी, जिसमें भारतीय नेताओं “प्रतिक्रियावादी” को बुलाया गया था।
11 सितंबर की सुबह, जब बिना किसी विवाद के भारतीय सेना ने काम करना शुरू किया, तो पीएलए सैनिकों ने विरोध जताया। कर्नल राय सिंह उनसे बात करने के लिए बाहर गए। अचानक चीनी सैनिकों ने अपनी मध्यम मशीन गन (एमएमजी) से फायर करना शुरू कर दिया।
अपने घायल कमांडिंग ऑफिसर को जमीन पर गिरता देख, दो बहादुर अधिकारियों (2 ग्रेनेडियर के कप्तान डागर और 18 राजपूत के मेजर हरभजन सिंह) ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया और चीनी एमएमजी पोस्ट पर हमला किया। यह लड़ाई खुले मैदान में हुई (नाथू ला पास में कोई छुपने का स्थान नहीं है), इसलिए भारतीय सैनिकों को दो अधिकारियों सहित भारी हताहतों का सामना करना पड़ा। इन दोनों को अपनी बहादुरी के लिए बहादुरी पुरस्कार से नवाज़ा गया।
इस समय तक, भारतीय सेना ने तोप के हमलों से चीनी सेना को जबाव दिया। आस-पास की हर चीनी पोस्ट पर हमला किया गया। पर्वतारोहियों, ग्रेनेडियर और राजपूतों द्वारा भयंकर हमलों के चलते अगले तीन दिनों में हर एक चीनी पोस्ट को तहस-नहस कर दिया गया था।
भारत की इस प्रतिक्रिया की ताकत और साहस से अचंभित होकर चीन ने युद्धपोतों को लाने की धमकी दी। अपने संदेश घर को सैन्य रूप से संचालित करने के बाद, भारत सिक्किम-तिब्बत सीमा पर एक असहज युद्धविराम के लिए सहमत हो गया। 15 सितंबर को सैम मानेकशॉ (तत्कालीन पूर्वी सेना कमांडर) और जगजीत सिंह अरोड़ा (तत्कालीन कोर कमांडर) की उपस्थिति में मृत सैनिकों के शरीर का आदान-प्रदान किया गया था।
लेकिन एक विद्रोही पीएलए अभी भी मौके की तलाश में थी। 1 अक्टूबर 1967 की सुबह, चो ला पास की सीमा का आकलन करते हुए एक बोल्डर पर अधिकार को लेकर चीनी सेना का एक भारतीय पलटन कमांडर (नायब सुबेदार ज्ञान बहादुर लिंबू) के साथ तर्क हो गया। चो ला पास सिक्किम-तिब्बत सीमा पर एक और पास नाथू ला से उत्तर दिशा में कुछ किलोमीटर की दुरी पर है।
आगे की लड़ाई में चीनी सेना ने आक्रामक पदों पर कब्जा कर लिया था। लेकिन चीनी भूल गए थे कि वे प्रसिद्ध गोरखा सैनिकों (नव निर्मित 7/11 गोरखा रेजिमेंट) का सामना कर रहे थे। अपनी जमीन पर खड़े होकर युद्ध के लिए तैयार हो रहे दुश्मन पर भारतीय सेना ने भयानक हमला किया।
सेक्शन कमांडर लांस नायक कृष्ण बहादुर ने इस हमले का नेतृत्व किया और खुद तीन बार चीनी गोली खायी। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और मरते दम तक अपने सैनिकों को खुकरी से चेतावनी देते रहे।
राइफलमैन देवी प्रसाद लिंबू ने अपना गोला-बारूद ख़त्म होने के बाद चीनी सैनिकों पर अपनी खुकरी से निशाना साधा और शहीद होने से पहले पांच चीनी सैनिकों का मार गिराया। उन्हें उनके साहस के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
एक और वीर चक्र से हवलदार तिनजोंग लामा को सम्मानित किया गया था, जिन्होंने चीनी सैनिकों द्वारा उपयोग की जाने वाली भारी मशीन गन को अपनी 57 मिमी गन से अचूक निशाना लगा खत्म कर दिया था। कमांडिंग अधिकारी कर्नल केबी जोशी ने भी व्यक्तिगत रूप से प्वाइंट 15,450 को पुनः प्राप्त करने के लिए कंपनी के हमले का नेतृत्व किया।
चो ला पास पर यह बन्दूकबाज़ी लगभग 10 दिन तक चली और चीनी पीएलए की हार के साथ समाप्त हुई। गोरखा सैनिको ने पीएलए को काम बैरक्स नामक एक फीचर तक 3 किलोमीटर पीछे जाने पर मजबूर कर दिया था। जहां वे आज तक तैनात हैं।
मेजर जनरल शेरू थापलीयाल (जिसे उस समय सिक्किम में तैनात किया गया था) द्वारा लिखे गए युद्ध के दस्तावेजों के मुताबिक भारत ने अपने लगभग 70 सैनिकों को खोया तो वहीं चीन के 400 सैनिक मारे गए थे। एक पूर्व भारतीय राजनयिक ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, “हमने चीन की नाक को घायल किया था।”
इस तरह से साल 1962 के युद्ध के कुछ हिसाब नाथु ला और चो ला पास पर पुरे किये गए। तब से लेकर अब तक सिक्किम के साथ-साथ ये दोनों पास भारत के नियंत्रण में हैं। नाथू ला फ्रंटियर में चीनी और भारतीय सैनिक केवल 30 मीटर की दुरी पर तैनात हैं।
दिलचस्प बात यह है कि नाथू ला को 2006 में सीमा व्यापार के लिए फिर से खोल दिया गया था और अब यह एक पर्यटक गंतव्य बन गया है। इस पास के चीनी साइड पर तिब्बत की चुम्बी घाटी है, जहां पीएलए गार्ड भारी मात्रा में तैनात हैं।
पास के भारतीय साइड पर एक व्यापारिक पोस्ट है। साथ ही दो युद्ध स्मारक (नाथू ला और पास के शहर शेरथांग में) बहादुर सैनिकों का सम्मान करते हैं, जिन्होंने देश और सिक्किम राज्य की रक्षा करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दे दिया।
नाथू ला में भारतीय सेना की कहानी ‘बाबा’ हरभजन सिंह (पंजाब रेजिमेंट के 23 वें बटालियन के एक सैनिक) और उनके लिए समर्पित असामान्य मंदिर के उल्लेख के बिना अधूरी है। दरअसल, हरभजन खच्चरों के एक समूह पर अपने सैनिकों के लिए सामान ले जा रहे थे, जब उनका पैर फिसलने से वे ग्लेशियर में डूब गए। पुरे तीन दिन बाद सेना को उनका शव मिला।
भारतीय सेना की एक लोक कहानी के मुताबिक हरभजन ने अपने साथी सैनिकों के सपनों में आकर उनके लिए एक स्मारक बनाने के लिए कहा। जिसके बाद उनके रेजिमेंट ने यह स्मारक बनाया। बाद में यह स्मारक मंदिर के रूप में प्रसिद्द हो गया ,जहां न केवल आम भारतीय सैनिक भी माथा टेकने आते हैं।
सेना के सैनिकों का मानना है कि हरभजन सिंह न केवल चीन के साथ 14,000 फीट ऊंची सीमा बिंदु की रक्षा करने वाले 3,000 सैनिकों की रक्षा करते हैं बल्कि उन्हें किसी भी हमले के बारे में तीन दिन पहले ही संकेत दे देते हैं। वास्तव में, उन्हें कप्तान के पद पर भी पदोन्नत किया गया था और हर महीने उनका वेतन उनके परिवार को भेजा जाता है।
इतना ही नहीं, बल्कि उनकी आधिकारिक सेवानिवृत्ति तक, इस अमर सैनिक को हर साल 14 सितंबर से वार्षिक छुट्टी दी जाती थी और तीन भारतीय सैनिक उनकी तस्वीर और सूटकेस उनके गांव तक छोड़कर आते थे!
उम्मीद है आगामी सितम्बर में रिलीज़ हो रही ‘पलटन’ इन सभी बहादुरी की इन सभी अद्भुत गाथाओं को दर्शकों तक पहुंचाने में सफल होगी !
मूल लेख: संचारी पाल
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कहानियां सिर्फ किसी गरीब के अमीर बनने की नहीं होतीं, बल्कि कहानी बनती है उसकी मेहनत, लगन और आत्मविश्वास से। कहानी बनती है उस सफर से, जो उसने इस मुकाम तक पहुँचने के लिए तय किया है।
ऐसा ही सफर रहा है पुणे के रामभाऊ का।
“वो होंडा सिविक गाड़ी से आया था ,नीचे उतरकर सीधा अपने कर्मचारियों के साथ काम पर लग गया। मिट्टी खोदते हुए, पुराने पौधों को हटा, नए पौधे लगाता हुआ। वहां खड़े होकर सभी काम अच्छे से करवाता हुआ,” ये लिखा है रामभाऊ के बारे में निनाद वेंगरूलेकर ने अपनी फेसबुक पोस्ट में।
रामभाऊ पुणे के एक साधारण से व्यक्ति थे। दिन भर किसी न किसी काम की तलाश में रहते थे। जो भी काम मिल गया, कर लिया ताकि दो पैसे कमा सकें। इसलिए जब निनाद ने उन्हें उनके बगीचे की देखभाल का काम दिया तो बिना किसी हिचकिचाहट के रामभाऊ ने तुरंत हाँ कर दी।
हालांकि, एक माली होना शायद ही किसी का सपना हो, पर मेहनती और उद्यमी रामभाऊ ने इस एक मौके से अपनी किस्मत ही पलट दी ।
अगर आज की बात करें तो उनके पास गाड़ी, अच्छा घर और पुणे में फैला हुआ उनका बागवानी का सफल कारोबार है -जो बहुत से लोगों के लिए वाकई एक सपने जैसा है।
इस मुकाम तक पहुंचने के बाद भी रामभाऊ ने अपनी जड़ों को नहीं भुलाया। वे आज भी बागवानी करते हैं और सिर्फ चार सालों में उन्होंने अपने इस रोजमर्रा के काम को ही अपना बिज़नेस बना लिया है।
पुणे-निवासी निनाद लिखते हैं कि कैसे एक दिन अचानक से वे रामभाऊ से मिले थे। तब रामभाऊ रोजमर्रा के छोटे-मोटे काम करते थे। निनाद ने उन्हें अपने घर के बगीचे का काम दिया और उनका काम देखकर अन्य कई लोगों ने भी रामभाऊ को काम पर रखा।
मात्र दो सालों में रामभाऊ लगभग 20 घरों के बगीचे संभाल रहे थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना काम फैलाया और उन्हें एक बिल्डर के काम्प्लेक्स में बगीचा लगाने का कॉन्ट्रैक्ट मिला। इसके बाद रामभाऊ ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वे शहर में आधा एकड़ जमीन के मालिक भी हैं। साथ ही उनके बिजनेस में 15 लोग उनके नीचे काम करते हैं।
निनाद अपनी पोस्ट में ग्रामीण बैंक के फाउंडर मुहम्मद यूनुस की कही हुई बात लिखते हैं, “गरीब लोग बोन्साई के पेड़ की तरह हैं। उनके बीज में कोई खराबी नहीं है। ये तो बस हमारा समाज है जो उन्हें पूरी तरह से पनपने का मौका नहीं देता है।”
लेकिन रामभाऊ उन चंद लोगों में से हैं जो अपना मौका खुद बनाते हैं। अगर आपके पास ढृढ़ इच्छाशक्ति और प्रतिभा है तो आप कुछ भी कर सकते हैं।
हम रामभाऊ की मेहनत व लगन की सराहना करते हैं और साथ ही धन्यवाद करते हैं निनाद वेंगरूलेकर का, जिनकी वजह से आज हम बहुत से लोगों को रामभाऊ की कहानी बता पा रहे हैं।
उम्मीद है बहुत से लोग इनसे प्रेरणा लेंगें।
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एक वक़्त था जब फ़िल्मी दुनिया एक ऐसे शायर की कलम से सजा हुआ था कि उसके हर गीत, हर ग़ज़ल और हर कव्वाली के बोल आज तक कानों में गूंजते हैं!
इस शायर का नाम था शकील बदायुनी, जिन्होंने ‘चौदहवीं का चांद’, ‘मुगल-ए-आजम’ और ‘मदर इंडिया’ जैसी कालजयी फिल्मों और ‘मेरे महबूब’, ‘गंगा-जमुना’ और ‘घराना’ जैसी अपने दौर की सुपरहिट फिल्मों के गाने लिखे थे!
उत्तर प्रदेश के बदायूँ क़स्बे में 3 अगस्त 1916 को जन्मे शकील अहमद उर्फ शकील बदायूँनी की परवरिश नवाबों के शहर लखनऊ में हुई। लखनऊ ने उन्हें एक शायर के रूप में शकील अहमद से शकील बदायूँनी बना दिया। शकील ने अपने दूर के एक रिश्तेदार और उस जमाने के मशहूर शायर जिया उल कादिरी से शायरी के गुर सीखे थे। वक़्त के साथ-साथ शकील अपनी शायरी में ज़िंदगी की हकीकत बयाँ करने लगे।
अलीगढ़ से बी.ए. पास करने के बाद,1942 में वे दिल्ली पहुंचे जहाँ उन्होंने आपूर्ति विभाग में आपूर्ति अधिकारी के रूप में अपनी पहली नौकरी की। इस बीच वे मुशायरों में भी हिस्सा लेते रहे जिससे उन्हें पूरे देश भर में शोहरत हासिल हुई। अपनी शायरी की बेपनाह कामयाबी से उत्साहित शकील ने आपूर्ति विभाग की नौकरी छोड़ दी और 1946 में दिल्ली से मुंबई आ गये।
मुंबई में उनकी मुलाक़ात संगीतकार नौशाद से हुई, जिनके ज़रिये उन्हें फिल्मों में अपना पहला ब्रेक मिला! 1947 में अपनी पहली ही फ़िल्म दर्द के गीत ‘अफ़साना लिख रही हूँ…’ की अपार सफलता से शकील बदायूँनी कामयाबी के शिखर पर जा बैठे।
1952 में आई ‘बैजू बावरा’ में लिखा उनका गीत ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज…’ सिनेमा जगत में धर्म निरपेक्षता की मिसाल बन गयी। शकील के लिखे इस भजन को संगीत दिया था नौशाद ने और इसे गाया था महान मुहम्मद रफ़ी साहब ने!
इसके अलावा शकील और नौशाद की जोड़ी ने मदर इंडिया का सुपरहिट गाना ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरसे बजा दे ज़रा बांसुरी…’ भी दिया, जो आज तक होली का सबसे सुहाना गीत माना जाता है।
1960 में रिलीज़ हुई ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में लिखी गयी शकील की मशहूर कव्वाली ‘तेरी महफ़िल में किस्मत आज़माकर हम भी देखेंगे’ महफ़िलों की जान बन गयी और शकील की कामयाबी पर भी चार चाँद लग गए।
हेमन्त कुमार के संगीत निर्देशन में भी शकील ने कई बेहतरीन गाने दिए जैसे – ‘बेकरार कर के हमें यूं न जाइये’, ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ (बीस साल बाद, 1962) और ‘भंवरा बड़ा नादान है बगियन का मेहमान’, ‘ना जाओ सइयां छुड़ा के बहियां’ (साहब बीबी और ग़ुलाम, 1962)।
अभिनय सम्राट दिलीप कुमार की फ़िल्मों की कामयाबी में भी शकील बदायूँनी के रचित गीतों का अहम योगदान रहा है। इन दोनों की जोड़ी वाली फ़िल्मों में मेला, बाबुल, दीदार, आन, अमर, उड़न खटोला, कोहिनूर, मुग़ले आज़म, गंगा जमुना, लीडर, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, संघर्ष और आदमी शामिल है।
शकील बदायूँनी को अपने गीतों के लिये लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें अपना पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार वर्ष 1960 में प्रदर्शित चौदहवी का चांद फ़िल्म के ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो..’ गाने के लिये दिया गया था। वर्ष 1961 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘घराना’ के गाने ‘हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं.’. के लिये भी सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। 1962 में उन्हें फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ में ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’ गाने के लिये फ़िल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।
लगभग 54 वर्ष की उम्र मे 20 अप्रैल 1970 को उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। शकील बदायूँनी की मृत्यु के बाद नौशाद, अहमद जकारिया और रंगून वाला ने उनकी याद मे एक ट्रस्ट ‘यादें शकील’ की स्थापना की ताकि उससे मिलने वाली रकम से उनके परिवार का खर्च चल सके।
कॉलेज के दिनों की कच्ची सी उमर बड़ी तेज़ी से पकना चाहती है. सब कुछ जल्दी से सीख लेने की भूख में रोज़ जीवन के नए नए आयाम खुलते जाते हैं, ख़ासतौर पर उन लोगों के लिए जो घर और घरवालों की सुरक्षा के छाते से दूर हॉस्टल में रहे हैं उनको ज़्यादा अवसर मिलता है चाहे अनचाहे बहुत कुछ सीखने का और पहले के सीखे हुए को छोड़ने का.
हमारे हॉस्टल की रातें बहुत छोटी होती थीं. विशेषतः हमारे जैसे लोगों के लिए जिनकी बक-बक-बक कभी ख़त्म ही नहीं होती थी. जिन्हें दुनिया के सारे सवाल पूछने होते थे और सारे जवाबों पर बहस करनी होती थी. जिस कमरे में घुसो एक नया संसार इंतज़ार कर रहा होता था. कहीं शिडनी शेल्डन और सुरेंद्र मोहन पाठक का तुलनात्मक अध्ययन हो रहा होता था कहीं विवेकानंद और कृष्णमूर्ति के अध्यात्म पर शास्त्रार्थ. किसी कमरे में छिप कर आधी रात की चाय बन रही होती थी और डाकुओं की ईमानदारी से सभी में बिस्कुट बाँटे जा रहे होते थे और किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी में कौन बेहतर है को लेकर लड़ाई छिड़ जाना आम बात थी. तो कहीं चरस और शराब के रासायनिक गुणों और उसके सामाजिक प्रभावों पर निबंध लिखे जा रहे होते. फिर प्राध्यापकों की हँसी उड़ाना और लड़कियों की बातें – क्या लड़कियाँ भी हमारी तरह गर्ल्स हॉस्टल में ऐसा ही कुछ कर रही होंगी जैसी बातें तो रोज़ का चक्कर था.
लेकिन सबसे मज़ेदार और रोमांचकारी होता था भूतों की, आत्माओं की, जिन्नात की, हॉंटेड घरों की, अजीब से डरावने अनुभवों की, नीचे दरवाज़ा बंद करने जाते हुए किसी के पीछे लगने की, दादी के गाँव के बरगद के पेड़ की, पुनर्जन्म की, किसी इंसान के एक साथ कई जगह दिखाई देने जैसी घटनाओं की अंतहीन कहानियाँ होती थीं. प्लेन चिट लड़कियों के हॉस्टल से निकल कर लड़कों के हॉस्टल का चस्का बन जाता था. फिर आगे चल कर कॉन्शसनैस / सब और अनकॉन्शसनैस की ब्रम्हाण्ड की, हर तरह की कांस्पिरेसी थ्योरीज़ की, अनहोनियों की बातें..
“भूत होता है या नहीं?”
“भगवान होता है या नहीं?”
ये बहुत क़ीमती विषय होते थे उन दिनों जिन पर चौबीसों घंटे बहसें छिड़ी रहती थीं. कई लोग बड़ी आसानी से कह जाते कि सब मन का वहम, मनघडंत बातें हैं. भूत-वूत नहीं होता है. “किसी ने ख़ुद देखा हो तो बताए, इधर-उधर की सुनी हुई नहीं चलेगी”. यहाँ सब चुप हो जाते थे क्योंकि भूत को तो अधिकतर लोगों ने दूसरों के क़िस्से में ही सुना था. भले ही बचपन से डरते आये हों लेकिन स्वयं जो भी अनुभव किया था उस पर ख़ुद को शक़ ही रहता है.
“तो ठीक है भाई, भूत किसी ने नहीं देखा तो क़िस्सा यहीं ख़त्म करते हैं भूत नहीं होता”
“वैसे तो भगवान भी किसी ने नहीं देखा”
“अमाँ अब अहमकों जैसी बातें मत करो”, कई लोग चिढ़ भी जाते थे. अल्लाह, भगवान्, गॉड को नहीं मानने वाले भी यह कहते सुने जाते कि ‘एक ताकत ज़रूर है जिससे यह कायनात चल रही है’.
फिर बात आती धर्म की. उसके साथ साथ बहसें छिड़तीं आध्यात्म, धर्म और ईश्वर के सम्बन्ध की. यह भी कहा सुना जाता कि ईश्वर की परिकल्पना धर्म के ज़रिये आम आदमी को दबा कर रखने के लिए बनाई गयी है ताकि ज़ाती, पारिवारिक और सामाजिक तौर पर अराजकता न फैल जाए. कई लोगों की आस्थाएँ बदलती रहती हैं. कभी ईश्वर को किसी स्वरुप में मान लेते हैं कभी नहीं मानते. बहुत से लोग किसी मुसीबत में पड़ने पर भगवान को मानने लग जाते हैं. कुछ अपनी सोच को एक धर्म के खूँटे से आज़ाद मानते हैं और ‘सारे इंसान एक हैं, सारे भगवान एक हैं’ में भरोसा रखते हैं. और कई धर्म के पिंजरे में तमतमाते हुए बाहर वालों को पत्थर मारते हैं. कुछ को धर्म मुक्त कर देता है, कुछ को बाँध देता है.
“लेकिन अगर प्रश्न करने वाले, ईश्वर को नकारने वाले ज्ञानमार्गी सही हैं तो कर्ममार्गी भी और ईश्वर से प्रेम करने वाले भक्तिमार्गी भी!”
“क्यों नहीं सब सही हैं ईश्वर से प्रेम करने वाले भी.. लेकिन ईश्वर से ‘डरने’ वाले कहाँ रखे जाएँ?”
एक उदाहरण देता हूँ – हमारे हॉस्टल के दिनों वाले भारत में शनि का काम किसी की कुण्डली में साढ़ेसाती बनाने से ज़्यादा कुछ नहीं था. फिर सीरियल-फिल्मों-अखबारों में साढ़े साती का ऐसा ख़ौफ़ पनपा कि गुरु, मंगल, शुक्र, बुध यहाँ तक कि सूरज चाँद भी पीछे छूट गए और जगह जगह शनि के मंदिर बन गए. बाक़ी गृह अपना वर्चस्व नहीं बना पाए जितना शनि के डर ने बना दिया.. पिछले बीस-तीस सालों में शनि के मंदिर जिस तादाद में बढे हैं उतने किसी भी और भगवान् के नहीं. लोग शनि के साथ भगवान् लगाने लगे हैं गुरु-शुक्र बेचारे उतना नहीं पनप पाए. भिखारियों को भी चौराहों पर शनि के नाम का काला तिल और तेल डलवाना आ गया गुरु के नाम का पीला टीका लगाने पर कौन बेवक़ूफ़ पैसे देता??
इस लेख का मकसद यह स्थापित करना कतई नहीं है कि भगवान होते हैं या नहीं होते. महज़ यह सवाल खड़े करना है कि लोग अपने विवेक और बुद्धि से अपने तौर-तरीक़ों, अपनी आस्थाओं पर एक नयी नज़र डालें. ऊपर से सुन्दरचंद ठाकुर की इस कविता ने एक अवसर दे दिया जिसमें वे कहते हैं:
“ईश्वर डर में बैठा बैठा रहता है
– भूत की तरह
भूत नहीं है
मैंने नहीं देखा उसे आज तक
इसलिए ईश्वर भी नहीं है..”
इस कविता को पूरी यहाँ सुनें:
लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.
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