पंजाब व हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ में बारिश के चलते लोगों को काफी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं। सड़कों पर पानी भरने से यातायात तो जैसे थम गया हो। लेकिन हमारे देश में हर एक मुसीबत का सामना करके अपनी ड्यूटी निभाने वाले लोगों की कमी नहीं है।
चंडीगढ़ में भी यही हुआ। पिछले दिनों हुई बारिश के चलते जब ट्रैफिक बहुत बढ़ गया तो दो हैड कॉन्स्टेबल, गुरधेन सिंह और गुरदेव सिंह सड़कों पर घुटनों तक भरे पानी में खड़े होकर यातायात को संभालते नजर आये।
हालाँकि, इन दोनों के प्रयासों पर उस समय ज्यादा किसी ने ध्यान नहीं दिया। पर सोशल मीडिया के चलते आज न केवल शहर में बल्कि पुरे देश में इनको सराहा जा रहा है।
18 जुलाई को अभिनेत्री व राजनेता गुल पनाग ने हेड कॉन्सटेबल की तस्वीर ट्वीट करते हुए पंजाब के मुख्यमंत्री कप्तान अमरिंदर सिंह का ध्यान इनकी तरफ आकर्षित किया।
Dear @capt_amarinder Sir,
hard working traffic policemen like this gentleman, would be immensely helped by good rain gear and a pat on the back.
This is under the Zirakpur flyover, Patiala Road. pic.twitter.com/9IYqhtVNtP
उनके ट्वीट के बाद कप्तान सिंह ने एडीजीपी को दोनों कॉन्स्टेबलों को सम्मानित करने के निर्देश दिए।
Thank you @GulPanag for highlighting dedication to duty shown by HC Gurdhian Singh No 381 & HC Gurdev Singh 396 of SAS Nagar. They will be honoured tomorrow by ADGP Traffic with a Commendation Certificate & cash reward. Appreciate positive feedback from citizens! https://t.co/CTri3tu5YL
— Capt.Amarinder Singh (@capt_amarinder) July 18, 2018
दोनों हैड कॉन्स्टेबलों को 1000 रूपये व सर्टिफिकेट के नवाज़ा गया। इस पर दोनों सिपाहियों ने कहा कि हम केवल अपनी ड्यूटी कर रहे थे। उन्होंने गुल पनाग और मुख्यमंत्री को धन्यवाद दिया।
इसी के साथ पंजाब पुलिस ने एक नई पहल शुरू की है। पंजाब पुलिस के प्रवक्ता ने बताया कि नागरिकों द्वारा पुलिस वालों के लिए फीडबैक के आधार पर ‘पुलिस पर्सनेल ऑफ़ द वीक/मंथ’ चुना जायेगा। जिसे सर्टिफिकेट और नकद राशि से सम्मानित किया जायेगा।
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उत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़े ज़िलों में से एक सिद्धार्थ नगर का एक छोटा-सा गांव हसुड़ी औसानपुर, देश का शायद एकमात्र गांव है जिसकी जानकारी जीआईएस (जियोग्राफिकल इनफार्मेशन सिस्टम) सॉफ्टवेयर पर उपलब्ध है। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि यह गांव आज भारत के ‘डिजिटल गांव’ के नाम से भी जाना जा रहा है।
इन सभी सुविधाओं का गांव में उपलब्ध होने का श्रेय जाता है, गांव के प्रधान दिलीप त्रिपाठी को। दिलीप के परिवार में उनके दादा जी व पिता जी सभी सरकारी सेवाओं में कार्यरत थे। इसलिए वे सभी चाहते थे कि दिलीप भी सरकारी नौकरी करें।
हसुड़ी औसानपुर गांव के प्रधान दिलीप त्रिपाठी
गांव के ही प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिलीप को सिद्धार्थ नगर भेज दिया गया। उन्हें सरकारी नौकरी में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसीलिए उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद सोलर पैनल का बिजनेस शुरू किया। उनका बिजनेस अच्छा चलने लगा तो उनके छोटे भाई भी सिद्धार्थनगर आ गए।
दिलीप के माता-पिता गांव में ही रहते थे। इसलिए उनका भी गांव में आना-जाना लगा रहता था। दिलीप को हमेशा से अपने गांव का पिछड़ा होना चुभता था। क्योंकि तब गांव में सड़क, बिजली जैसी सुविधाएँ भी नहीं थी।
दिलीप ने बताया, “साल 2006 में बरसात के दिनों में रात को हमारी मम्मी को सांप ने काट लिया। गांव में अस्पताल और एम्बुलेंस की कोई सुविधा नहीं थी। तो गांववाले उन्हें शहर ले जाने की बजाय गांव में ही झाड़-फूँक करते रहे। जब तक हम लोग गांव पहुंचे तो मम्मी का देहांत हो चूका था।”
उन्होंने कहा कि जब लोगों से हमने पूछा कि आप उन्हें अस्पताल क्यों नहीं लेकर गए तो गांववालों ने कहा कि सांप के काटने का अस्पताल में क्या इलाज होगा। यह सुनकर दिलीप को समझ में आया कि उनके गांव में न केवल सुविधाओं कि बल्कि जागरूकता की भी कमी है।
“उसी समय हमने और हमारे भाई ने निश्चय किया कि यदि कभी हमारे पास साधन हुआ तो हम अवश्य अपने गांव के लिए कुछ करेंगे,” दिलीप ने बताया।
कुछ समय बाद जब उनका बिजनेस बढ़िया चलने लगा और उनकी जानकारी बड़े अधिकारियों व नेताओं से होने लगी तो उन्होंने एक विधायक से कहकर अपने गांव की मुख्य सड़क को सुधरवा दिया। जिससे गांव वालों का उनपर विश्वास बनने लगा।
जब गांव में सरपंच का चुनाव होना था तो गांव के युवा वर्ग ने जोर दिया कि दिलीप भी चुनाव लड़ें। दिलीप बताते हैं, “जब चुनाव का समय था तभी गुजरात के पुंसरी गांव के ऊपर एक डॉक्यूमेंट्री आयी थी। जिसे देखकर हमें बहुत प्रेरणा मिली और हमने निश्चय किया कि अगर मैं सरपंच बना तो ये सब सुविधाएँ अपने गांव में दूंगा।”
गांववालों के सहयोग से दिलीप चुनाव जीत गए। लेकिन उनके गांव की आबादी केवल 1124 है, जिस वजह से उनके यहां छोटी पंचायत के हिसाब से एक साल का बजट 5 लाख रूपये आता है। फिर भी दिलीप ने अपने गांव को हर सम्भव सुविधा प्रदान करने के लिए रास्ता खोज निकाला।
उन्होंने सरपंच होने के बावजूद सांसद आदर्श गांव योजना के अंतर्गत अपने गांव को गोद लिया।
“हम अपने गांव के कुछ लोगों के साथ गुजरात के हाईटेक गांवों के दौरे पर गये। वहां देखा कि कैसे वहां की पंचायत काम कर रही है। अपने लोगों को भी दिखाया कि गांव भी मॉड्रन और हाईटेक हो सकते हैं। बहुत लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद अपने गांव के लिए एक रूपरेखा तैयार की,” दिलीप ने कहा।
अपने काम के दौरान दिलीप ने बहुत सी समस्यायों का सामना किया। सबसे बड़ी समस्या उनके सामने फंड की थी। इसलिए उन्होंने अपने परिवार के साथ मिलकर तय किया कि अगर उन्हें गांव के विकास में अपनी जेब से भी पैसा लगाना पड़े तो भी वे पीछे नहीं हटेंगें।
दूसरी समस्या थी, कुछ लोगों का विरोध। दिलीप ने बताया कि हमारे कामों का बहुत से लोगों ने विरोध किया। जब वाई-फाई का प्रस्ताव हमने दिया तो लोगों ने कहा कि इससे बच्चे बिगड़ेंगें। लेकिन धीरे-धीरे जागरूकता फैलाकर वे गांववालों को समझाने में सफल रहे।
“सबसे पहले हमने गांव में शिक्षा पर ध्यान दिया। गांव के सरकारी स्कूल को सुधरवाया। इसी प्राइमरी स्कूल से हमने भी पढ़ाई की थी। उसकी पूरी मरम्मत कराकर, शौचालय, लाइब्रेरी आदि बनवायी। साथ ही सीसीटीवी भी लगवाए, जिससे सरकारी शिक्षक भी समय के पाबंद हो गए। बच्चों को अब समय-समय पर बाहर घुमाने भी ले जाया जाता है,” दिलीप कहते हैं।
उन्होंने बच्चों को ही अपना संदेश वाहक बनाया। उन्होंने साफ़-सफाई अभियान के लिए बच्चों द्वारा परिवारों को जागरूक करवाया। आज हर दूसरे घर के बाहर एक कूड़ादान रखा गया है। पुरे गांव में 23 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। साथ ही, बिजली की समस्या को खत्म करने के लिए हर गली-मोहल्ले में सोलर लाइट लगवाई गयीं हैं।
गांव की जानकारी जीआईएस सिस्टम पर उपलब्ध करवाने से लोगों को पता चला कि गांव में कहाँ-कहाँ सरकारी जमीन है। जिसके चलते सभी अवैध कब्जे हटवाकर उस जमीन का उपयोग गांव की भलाई के लिए किया जा रहा है।
गांव के चौराहों पर लाउडस्पीकर भी लगें हैं, ताकि सार्वजनिक रूप से गांववालों को किसी भी चीज़ की जानकारी दी जा सके। इसके अलावा सुबह-शाम भजन संध्या के प्रोग्राम भी इस पर चलाये जाते हैं। दिलीप ने कहा कि हमारे गांव के हर घर में आज शौचालय है।
औसानपुर गांव के दौरे पर अब तक कैबिनेट मंत्री जय प्रताप सिंह समेत कई अधिकारी आ चुके हैं। सभी लोग इस गांव की तरक्की देख दंग रह गए।
दिलीप के सपनों के इस गांव को आज देश में ‘पिंक विलेज’ के नाम से भी जाना जाता है। वे कहते हैं,
“अक्सर पिंक कलर महिलाओं का पसंदीदा होता है, इसलिए हमने हमारे गांव को पिंक कलर दिया। यह हमारा सम्मान है हमारे गांव की प्रत्येक महिला के प्रति। आज गांव की हर गली व घर गुलाबी रंग में रंगा हुआ है।”
साथ ही गांव में आज एक कंप्यूटर सेंटर व एक सिलाई सेंटर भी है। दिलीप का कहना है कि वे तकनीक के सहारे विकास की रोशनी अपने गांव में फैला रहे हैं। उनके काम को न केवल उनके गांववालों द्वारा बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा रहा है।
नगर विकास मंत्री द्वारा सम्मानित
नगर विकास मंत्री सुरेश खन्ना द्वारा भी दिलीप को सम्मानित किया गया है। हाल ही में, पंचायती राज दिवस पर दिलीप को उनके कामों के लिए प्रधानमंत्री ने नाना जी देशमुख राष्ट्रीय गौरव ग्राम पुरस्कार और दीन दयाल उपाध्याय पंचायत सशक्तिकरण पुरुस्कार से सम्मानित किया है। हसुड़ी औसानपुर पंचायत पहली और इकलौती ग्राम पंचायत है जिसे ये दोनों पुरुस्कार साथ में मिले हैं।
दिलीप ने बताया, “कुछ समय पहले मुख्यमंत्री ने भी हमें चाय पर बुलाया था। उन्होंने हमें कहा कि वे जल्द ही हमारे गांव के दौरे पर आएंगें। हम शायद पूरी ज़िन्दगी पैसा कमाते रह जाते लेकिन कोई हमें नहीं जान पाता। पर आज जब हमने अपनी जन्मभूमि व कर्मभूमि के लिए कुछ किया है तो लगता है कि सबकुछ पा लिया।”
मुख्यमंत्री योगी ने परिवार सहित दिलीप त्रिपाठी को चाय पर बुलाया था
अपने गांव के लिए उनकी आगे की योजना के बारे में पूछने पर दिलीप ने बताया, “अभी भी हमारे गांव में पलायन की समस्या है। लोग यहां से शहर तो जाते हैं पर शहर से लौटकर गांव कोई नहीं आता। इसलिए हमारा ध्यान अब गांव में ही रोजगार के क्षेत्र उत्पन्न करना है।”
हालाँकि, अभी भी दिलीप को सरकार की तरफ से कोई अतिरिक्त आर्थिक सहायता नहीं मिल रही है। लेकिन फिर भी उनके हौंसलों में कोई कमी नहीं आयी है। उन्होंने बारिश के पानी को इकट्ठा कर फिर से इस्तेमाल में लाने का भी सिस्टम गांव में लगवाया है।
इन सभी कार्यों के साथ-साथ वे निजी तौर पर गांव की लड़कियों की शादी में 11,000 रूपये भी देते हैं। साथ ही उन्होंने फैसला लिया है कि गांव के हर घर की नेमप्लेट पर उस घर की बेटी का नाम लिखा जाये। इस फैसले का उद्देश्य बेटियों के अधिकारों के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना है।
द बेटर इंडिया के माध्यम से दिलीप भारत के अन्य लाखों सरपंच, व्यवसायी और राजनेताओं से अपील करना चाहते हैं। वे कहते हैं,
“आप सभी के पास इच्छाशक्ति है। यदि आप ठान लें कि आपको अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ करना है तो यक़ीनन आप अपने गांव की तस्वीर बदल सकते हैं। अगर आज आप अच्छा कमा रहे हैं तो कोई भी गांव गोद लेकर उसका विकास करने में कोई हर्ज नहीं है। यदि आप एक सुविधा भी किसी गांव को दे सकते हैं तो जरूर दें। खासकर कि युवा वर्ग को आगे आना होगा। ऐसे ही बदलाव आएगा।”
आप दिलीप से सम्पर्क करने के लिए उनके फेसबुक पेज पर लिख सकते हैं व 9450566110 पर कॉल कर सकते हैं।
संपादन – मानबी कटोच
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कभी बीमारी के इलाज के लिए भी इन मजदूर महिलाओं को साहूकारों से उधार मांगनी पड़ती थी। जिसका मनचाहा ब्याज साहूकार लेता था। लेकिन आज सखी मंडल के बचत बैंक से ये महिलाएं कम से कम ब्याज दर पर पैसे उधार ले सकती हैं।
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अगर आप पेट्रोल पंप पर अपनी गाड़ी में हवा भराने के पैसे देते हैं तो यह आपके लिए खट्टी-मीठी खबर है। क्योंकि हमारे अधिकारों के हिसाब से आप किसी भी पेट्रोल पंप पर बिना किसी शुल्क के गाड़ी में हवा भरवा सकते हैं।
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कभी-कभी आपकी सच्ची भावनाएं काफी होती हैं, सैकड़ों वर्षों से चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ने के लिए। हम सब जानते हैं कि हमारे समाज में सदियों से औरतों को अपने परिवारजनों का अंतिम संस्कार करने से दूर रखा जाता है। बहुत से परिवारों में, किसी की मृत्यु होने पर औरतें घर पर शोक करती हैं जबकि आदमी शमशान जाकर अंतिम संस्कार करते हैं।
हालाँकि, वाराणसी की निवासी पुष्पावती पटेल ने अपनी मां का अंतिम संस्कार कर इस परम्परा को तोडा है। लेकिन उसने ऐसा बहुत ही साधारण कारण के चलते किया – अपनी माँ की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए।
पुष्पावती के पिता बीस साल पहले निधन हो गया था।
तब उनकी माँ संतोरा देवी ने कहा था कि समय आने पर उनका अंतिम संस्कार उनकी इकलौती बेटी करे।
उन्होंने अपने परिवार को उनके मरने बाद उनकी आँखे दान करने के लिए भी कहा था।
22 जुलाई को संतोरा देवी का निधन हो गया, और पुष्पावती अपनी माँ की 20 वर्षीय पुरानी इच्छा पूरी करने के लिए दृढ़ थीं। हालांकि, उन्हें पड़ोसियों और रिश्तेदारों से बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने कहा कि मृतकों के शरीर को घाट में ले जाने या अंतिम संस्कार करने में महिलाओं ले लिए कोई जगह नहीं है।
पर पुष्पावती ने किसी की भी नहीं सुनी। उनके दोनों भाई, बाबूलाल और त्रिभुवन ने भी उनका पूरा साथ दिया।
अपनी नन्द को अपनी माँ की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए लड़ता देख बबूलाल और त्रिभुवन की पत्नियां भी पुष्पावती के साथ अपनी सास के मृत शरीर को शमशान घाट तक लेकर गयीं।
आज तक से बात करते हुए पुष्पावती ने बताया कि वह केवल अपनी माँ की अंतिम इच्छा पूरी कर रही थी। उनके भाइयों ने कहा कि उन्हें अपनी बहन पर गर्व है, जो अपने फैसले पर डटी रही।
संतोरा देवी के परिवार ने उनकी आँखे दान कर, उनकी दूसरी इच्छा का भी मान रखा है।
संतोरा देवी के इस बीस वर्षीय प्रण के चलते उनके परिवार में औरतों को रूढ़िवादी परम्परा को तोड़ने का हक़ मिला और किसी जरूरतमंद को आँखों की रोशनी मिली है।
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उड़ीसा में हाल ही में रथ यात्रा के बाद बाहुड़ा यात्रा का महोत्सव मनाया गया है। यह हिन्दू धर्म के वार्षिकोत्सव हैं, जो हर साल आषाढ़ के महीने में मनाये जाते हैं।
लेकिन इस महोत्सव के बाद उड़ीसा के बारीपाड़ा में जो हुआ, वह चर्चा का विषय बन गया है। दरअसल, बाहुड़ा यात्रा के बाद सोमवार को हिन्दू और मुस्लिम, दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर साफ़-सफाई की।
स्थानीय स्वयंसेवकों का एक समूह आगे आया और उन्होंने गली-सडकों को साफ करना शुरू किया। उन्होंने कहा कि साफ़-सफाई का किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है।
एक स्वयंसेवक ने एएनआई को बताया, “स्वच्छता का कोई धर्म नहीं है। इसलिए हम सभी ने साथ आकर इस काम में मदद की। हम खुशकिस्मत हैं कि हमें यह मौका मिला।”
वही एक और स्वयंसेवक ने कहा, “हम देश के लोगों के लिए एक उदाहरण देना चाहते हैं। हमें स्वास्थ्य रहने के लिए अपने शहरों को साफ़ रखना चाहिए।”
रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ को उनके भाई बालभद्र और बहन सुभद्रा के साथ जगन्नाथ मंदिर से रथ में गुंडीचा मंदिर में ले जाया जाता है। जहां पर उन्हें 9 दिन रखा जाता है। इसके बाद इन्हें जगन्नाथ वापिस लाया जाता है। भगवान के घर वापिस आने की यात्रा को बाहुड़ा यात्रा कहते हैं।
द बेटर इंडिया इन लोगों के इस कार्य की सराहना करता है। यक़ीनन, बहुत से लोगों को इससे प्रेरणा ले कर स्वच्छता के महत्व को समझना चाहिए।
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हमारे देश में खेल की बात होते ही क्रिकेट का नाम सामने आता है! पर ऐसे कई खिलाड़ी है, जिन्होंने पिछले कुछ सप्ताह में अलग-अलग खेलों में देश का नाम रौशन किया है! इन सभी को आपका आदर और प्रोत्साहन और आगे बढ़ा सकता है! तो आईये मिलते हैं देश को गौरान्वित कर रहे इन खिलाडियों से! साथ ही देखिये कहानी भारत के पहले हॉकी गोल्ड की!
जब एक सैनिक अपने कर्तव्य के लिए कुछ भी कर-गुजरता है, तो यह केवल चंद पलों का निर्णय होता है। जिसमें वह केवल अपने देश के बारे में सोचता है।
ऐसा ही कुछ कर दिखाया था, देश के दो सिपाही, सूबेदार योगेंद्र यादव और नायब सुबेदार संजय कुमार ने साल 1999 के कारगिल युद्ध में। ये दोनों भारतीय सेना के वो अफसर हैं, जो परमवीर चक्र से सम्मानित होने के बाद, आज भी सेना में सेवारत हैं।
यादव केवल 19 वर्ष के थे जब उन्हें परमवीर चक्र मिला। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा उनके खून में था। उनके पिता भी एक सैनिक थे और मात्र 16 वर्ष की उम्र में यादव को भारतीय सेना के एक पैदल सेना रेजिमेंट ‘द ग्रेनेडियर’ में भर्ती किया गया था।
कारगिल के युद्ध के दौरान कुमार केवल 23 वर्ष थे और 13 जैक राइफल्स में तैनात थे।
इन दोनों सैनिकों ने खतरनाक परिस्थितियों में भी अविश्वसनीय बहादुरी दिखाई और बर्फीली चोटीयों और घाटियों में अपने मिशन को अंजाम दिया।
साल 1999 में गर्मियों की बात है। यादव अपनी शादी के लिए 5 मई को अपने घर, बुलंदशहर आए थे और 20 मई को अपनी यूनिफार्म में बटालियन में शामिल होने के लिए लौट आए। इन सैनिकों को पाकिस्तानी घुसपैठियों द्वारा कब्जे में ली गयी टोलोलिंग पीक को हासिल करने का आदेश दिया गया था।
इस घटनाक्रम में मात्र 21 दिनों में भारतीय सेना ने अपने दो अधिकारियों, दो जूनियर कमीशन अधिकारी और 21 जवानों को खो दिया था।
हिंदुस्तान टाइम्स से बात करते हुए यादव ने कहा कि मौत तो जैसे बहुत आम बात हो गयी थी।
18 ग्रेनेडियर के साथ वे ‘घातक’ कमांडो पलटन का हिस्सा थे। उनका काम खतरनाक रास्ते तय करके पाकिस्तानी सेना पर हमला करना था। यादव और उनके साथी पहाड़ी की चोटी पर स्थित पाकिस्तानी पोस्ट तक दो रात व एक दिन में पहुंच गए थे।
“हमें आखिरी पड़ाव तक रस्सी की मदद से चढ़ना था। हालाँकि हम बिना कोई आवाज किये आगे बढ़ रहे थे लेकिन कुछ चट्टानों के खिसकने से दुश्मनों को पता चल गया और उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी। सिर्फ हम सात लोग ऊपर तक पहुंच पाए,” यादव ने बताया।
बाद में लड़ाई में, भारतीय सैनिकों ने चार पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया, और फिर वे उनके बंकरों में छुप गए। पांच घंटे के क्रॉसफायर को सहन करने के बाद, सेना ने बारूद बचाने के इरादे से शांति से छुपकर इंतजार करने का फैसला किया।
पाकिस्तानी जवानों ने उन्हें मृत समझा और उन्हें देखने के लिए बाहर आये। तभी यादव और उनके साथियों ने गोलीबारी करना शुरू कर दिया। उन्होंने अधिकतर पाकिस्तानी सेना को खत्म कर दिया था। लेकिन एक पाकिस्तानी सैनिक बच निकला और अन्य सैनिकों के साथ वापिस आकर, यादव और उनके सैनिकों पर हमला बोल दिया।
सभी सैनिकों में से केवल यादव ही बच पाए। उन्होंने बाकी सभी मृत सैनिकों के बीच मरे होने का नाटक किया। हालाँकि, पाकिस्तानी सैनिक फिर भी गोलियां बरसाते रहे। एक गोली उनके सीने में भी आकर लगी, लेकिन वह उनके जेब में रखे सिक्के से टकरा कर लौट गयी।
यादव ने इसे अपने बचने का इशारा समझा। यादव के शरीर में 18 गोलियां लगी थी और उनके बाएं हाथ की हड्डी टूट गयी थी। लेकिन फिर भी उन्होंने हिम्मत करके दुश्मन की तरफ एक बम फेंका। इसके बाद एक नाले में से रेंगते हुए उन्होंने अपने पलटन को आगाह किया।
बाद में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और उन्हें ठीक होने में 16 महीने लगे।
13वें बटालियन, जम्मू-कश्मीर राइफल्स के सैनिक नायब सुबेदार संजय कुमार, 4 जुलाई को मुशकोह घाटी में प्वाइंट 4875 के फ्लैट टॉप पर कब्जा करने के लिए एक सैन्य टुकड़ी के साथ आगे बढ़े।
कुमार हिमाचली थे और उन्हने पहाड़ों पर चढ़ने की आदत थी। टीम ने चट्टान पर चढ़ना शुरू किया, लेकिन लगभग 150 मीटर की दुरी से दुश्मन के बंकरों ने उन पर मशीन गन से हमला कर दिया।
पर बहादुरी दिखाते हुए कुमार ने अकेले रास्ता पार किया। अपनी परवाह किये बिना वे दुश्मन से लड़े और तीन पाकिस्तानी सिपाहियों को मार गिराया। इस दौरान उन्हें भी काफी चोटें आयी, वे लड़ते रहे। उन्होंने एक बंकर पर चढ़कर दुश्मन पर हमला शुरू कर दिया। उनका खून बहता रहा फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्हें देखकर उनके साथियों हौसला बढ़ा और उन्होंने दुश्मनों से फ्लैट टॉप को आजाद करा दिया।
इस कारगिल युद्ध ने इन दोनों सिपाहियों की ज़िन्दगी बदल दी। हालाँकि उन्होंने इस युद्ध में अत्यधिक हौंसला और निस्वार्थता का परिचय दिया, लेकिन वे इसे महान नहीं मानते। यादव कहते हैं कि उन्होंने वही किया जो करना चाहिए था।
मूल लेख: रेमंड इंजीनियर
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कारगिल युद्ध के सैनिकों की विरासत भारत के लिए अमूल्य है। न जाने कितने जवानों ने कारगिल की बर्फीली पहाड़ियों में अपनी जान गंवा दी। उन्हीं में से एक थे कप्तान नेइकेझाकुओ केंगुरुसी।
उनके परिवार वाले और दोस्त उन्हें प्यार से नैबु बुलाते थे और उत्तर भारत में उनके जूनियर अफसर उन्हें निम्बू साहब कहकर पुकारते थे। कप्तान केंगुरुसी का जन्म कोहिमा के नेरहमा गांव में हुआ था।
नागालैंड में एक शताब्दी पहले तक इस गांव को पेरहमा या फिर हमेशा लड़ने वालों का घर कहा जाता था।
कप्तान केंगुरुसी के लिए स्वतंत्र नागा भावना उनकी पारिवारिक विरासत थी। उनके महान दादा, पेरेइल, गांव के सबसे सम्मानित योद्धाओं में से एक थे। आज, नेरहेमा में एक धुंधला हुआ स्मारक है, जो योद्धा के पोते को समर्पित है। वे भी अपने दादा की ही भांति योद्धा थे।
उन के पिता, नीसीली केंगुरुसी, सरकार में एक ग्रेड चपरासी थे। वे धार्मिक और युद्ध-विरोधी थे। इसलिए वह शुरू में नहीं चाहते थे कि उनका बेटा सेना में शामिल हो, लेकिन नैबु ने उन्हें आश्वस्त किया कि सशस्त्र बलों में सेवा करने का सम्मान इस से जुड़े जोखिमों से कहीं अधिक है। कोहिमा साइंस कॉलेज से स्नातक होने के बाद, उन्होंने 12 दिसंबर, 1998 को भारतीय सेना में कमीशन होने से पहले कोहिमा में एक सरकारी हाई स्कूल में एक शिक्षक के रूप में कार्य किया था।
साल 1999 में, जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, तो कप्तान केंगुरुसी राजपूताना राइफल्स बटालियन में जूनियर कमांडर थे। अपने दृढ़ संकल्प और कौशल के लिए, उन्हें घातक पलटन बटालियन का मुख्य कमांडर बनाया गया था। शारीरिक रूप से फिट और प्रेरित सैनिक ही इस पलटन में जगह बना सकते हैं।
28 जून 1999 की रात को इस पलटन को ब्लैक रॉक पर दुश्मन द्वारा रखी गयी मशीन गन पोस्ट को हासिल करना था। इसकी फायरिंग के चलते भारतीय सेना उन दिनों उस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रही थी।
जैसे ही कमांडो पलटन ने चट्टान को पार किया, उन पर मोर्टार और आटोमेटिक गन फायरिंग होने लगी। जिसमें सभी सैनिकों को चोटें आयीं। कप्तान केंगुरुसी को भी पेट में गोली लगी। अपनी चोट के बावजूद उन्होंने अपनी सेना को आगे बढ़ते रहने को कहा। जब वे अंतिम चट्टान पर पहुंच गए तो उनके और दुश्मन पोस्ट के बीच केवल एक दीवार थी।
उनके सैनिक आगे बढ़ें और इस दीवार को भी पार करें इसके लिए कप्तान केंगुरुसी ने एक रस्सी जुटायी। हालाँकि, बर्फीली चट्टान पर उनके जूते फिसल रहे थे। वे चाहते तो आसानी से वापिस जाकर अपना इलाज करवा सकते थे। लेकिन कप्तान केंगुरुसी ने कुछ अलग करने की ठानी थी।
16,000 फीट की ऊंचाई पर और -10 डिग्री सेल्सियस के कड़े तापमान में, कप्तान केंगुरुसी ने अपने जूते उतार दिए। उन्होंने नंगे पैर रस्सी की पकड़ बना कर आरपीजी रॉकेट लॉन्चर के साथ ऊपर की चढ़ाई की।
ऊपर पहुंचने के बाद, उन्होंने सात पाकिस्तानी बंकरों पर रॉकेट लॉन्चर फायर किया। पाकिस्तान ने बंदूक की गोलीबारी के साथ जवाब दिया लेकिन उन्होंने भी तब तक गोलीबारी की जब तक कि उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों को खत्म नहीं कर दिया। इसी बीच दो दुश्मन सैनिक उनके पास आ पहुंचे थे, जिन्हें उन्होंने चाकू से लड़ते हुए मार गिराया। उन्होंने अपने राइफल से दो और घुसपैठियों को मार गिराया। लेकिन दुश्मन की गोली लगने से वे भी चट्टान से गिर गए।
पर उनके कारण बाकी सेना को दुश्मन पर हमला बोलने का मौका मिल गया। मिशन पूरा करने के बाद जब उनके साथियों ने नीचे गहराई में देखा, जहां उनके निम्बू साहब का मृत शरीर पड़ा था, तो उन्होंने आंसुओं के साथ ये जीत उन्हें समर्पित की,
“ये आपकी जीत है निम्बू साहब, ये आपकी जीत है।”
कप्तान केंगुरुसी केवल 25 साल के थे, जब वे देश के लिए शहीद हो गए। अपने पिता के लिए लिखे आखिरी खत में कप्तान केंगुरुसी ने लिखा था,
“डैड, शायद मैं फिर से हमारे परिवार का हिस्सा बनने के लिए घर न लौट पाऊं। अगर मैं वापिस न भी आ पाऊं तो शोक मत करियेगा। क्योंकि मैंने अपने देश के लिए अपना क=सब कुछ न्योछावर करने का फैसला किया है।”
अपने बेजोड़ साहस और सर्वोच्च बलिदान के लिए, उन्हें मरणोपरांत महा वीर चक्र से सम्मानित किया गया। आर्मी सर्विसेज कॉर्प्स से को हासिल करने वाले वे एकमात्र सैनिक हैं। उनके मेडल पर लिखा है,
“उन्होंने कर्तव्य के लिए अपनी ड्यूटी से आगे बढ़कर विशिष्ट बहादुरी और दृढ़ संकल्प प्रदर्शित किया और भारतीय सेना की सच्ची परंपराओं में दुश्मन के सामने सर्वोच्च बलिदान दिया है।”
उनकी मौत का शायद उनकी ज़िन्दगी से ज्यादा प्रभाव हुआ। जब उनका शरीर दीमापुर पहुंचा तो हज़ारो लोग उनके गांव के रास्ते पर उनके सम्मान में खड़े थे। उन्हें पुरे सैन्य सम्मान के साथ विदा किया गया। इस दुःख में नागालैंड अपने तीन दशकों के विद्रोह को भूल पुरे देश के साथ खड़ा हुआ।
कप्तान केंगुरुसी जैसे सैनिक हर दिन पैदा नहीं होते हैं। नागा मिट्टी के इस सच्चे बेटे और नायक के बलिदान को हमेशा देश द्वारा कृतज्ञता के साथ याद किया जाना चाहिए जिसकी रक्षा करते उन्होंने अपना बलिदान दिया।
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कारगिल विजय के 19 साल हो गए हैं। आज भी देश के वीर जवानों की शहादत की कहानियां हर भारतीय का सीना फख्र से चौड़ा कर देती हैं।
इन जवानों ने अपने सीने पर गोलियां खाकर देश की रक्षा की। शहादत के बाद वो जवान अपने पीछे छोड़ गए बहादुरी की शौर्य गाथाएं। कारगिल विजय दिवस पर हम आपको बता रहे हैं उन वीरों की कहानियां, जो हमारे देश के इतिहास में दर्ज हो गईं।
चारुलता आचार्य छह महीने की गर्भवती थीं, जब उनके ससुर जगन्नाथ आचार्य, एक सेवानिवृत्त विंग कमांडर को 28 जून, 1999 को भारतीय सेना के एक प्रवक्ता का फोन आया था। उनके पति, मेजर पद्मपानी आचार्य, सेकंड राजपूताना राइफल्स के कंपनी कमांडर थे और उस समय कारगिल में तैनात थे।
इस फोन कॉल से सिर्फ एक हफ्ते पहले, 21 जून को, पूरे परिवार ने मेजर पद्मपनी का 31वां जन्मदिन उनके साथ फोन पर मनाया था।
“आपका बेटा बहादुरी से लड़ा। उन्होंने इतिहास रचा है, लेकिन अब इस दुनिया में नहीं है,” सेना के प्रवक्ता ने कहा।
आचार्य परिवार में उदासी छा गयी थी। हमारे लिए तो यह कल्पना करना भी आसान नहीं कि उन पर क्या बीती होगी। हालाँकि, किसी भी सैनिक का परिवार बुरी खबरों के लिए तैयार रहता है, लेकिन इस तरह की खबर को अपनाना यकीनन मुश्किल है।
“एक मां के रूप में, मैं निश्चित रूप से दुखी होती हूं, लेकिन एक देशभक्त के रूप में, मुझे अपने बेटे पर गर्व है। मैं शायद जीवित न रहूं लेकिन वह हमेशा जीवित रहेगा। उसने मुझे वादा लिया था कि उसके शहीद होने पर मैं रोयुंगी नहीं।”
उनके हैदराबाद के घर में राखी हुई मेजर आचार्य की वर्दी/ट्विटर हरप्रीत
उनके पिता ने कहा, “इस सच को अपनाना और इसके साथ जीना मुश्किल है। लेकिन हमें उस पर गर्व है और हम उसे बहुत याद करते हैं।”
उस फ़ोन पर कहा गया था कि मेजर आचार्य ने इतिहास रचा है। उन्होंने युद्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और भारत एक महीने बाद युद्ध जीत गया। उनके परिवार के लिए सबसे बड़ी बात यही है कि उन्होंने देश के लिए अपना जीवन दिया।
मेजर आचार्य और उनकी सेना को लोन हिल पर कब्जा करने और कारगिल में टोलोलिंग चोटी को पुनः प्राप्त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। यह दोनों अभियान रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण थे।
“28 जून, 1999 को कंपनी कमांडर मेजर पद्मपानी आचार्य को दुश्मन की पोस्ट को खत्म करने का एक बड़ा कार्य सौंपा गया था। जहां पर भारी मात्रा में माइंस, मशीन बंदूक और तोप थी। बटालियन और ब्रिगेड के संचालन की सफलता इस पोस्ट के कब्जे पर टिकी थी। लेकिन शुरुआत में ही दुश्मन ने भारतीय सेना पर तोप से हमला बोल दिया, जिससे पलटन को बहुत चोटें आयी,” एसएस गांधी ने अपनी पुस्तक ‘पोर्ट्रेट्स ऑफ वैलोर’ में लिखा।
हालाँकि, इस साहसी सैनिक को पता था कि स्थिति को संभालने के लिए क्या किया जाना चाहिए। साथ ही मेजर आचार्य यह भी जानते थे कि उनका या फिर पूरी पलटन का जीवन भी अगर न्योछावर हो जाये तो देश के आगे बहुत छोटी कीमत होगी।
गंभीर चोटों के बावजूद उन्होंने अपने पलटन को आगे बढ़कर टोलोलिंग चोटी को जीतने का हौंसला दिया।
मेजर आचार्य की पत्नी चारुलता व उनकी बेटी अपराजिता
“दुश्मन पोस्ट से गोलियों की बौछार के बावजूद बिना रुके मेजर आचार्य उनके बंकर और ग्रेनेड्स तक पहुंच गए। इस साहसी हमले के दौरान, वह गंभीर रूप से घायल हो गए थे। जिसकी वजह से वह आगे नहीं बढ़ पाए लेकिन अपनी परवाह किये बिना उन्होंने अपने सैनिकों को आगे बढ़ दुश्मन पर हमला करने के लिए कहा। उन के हौंसले और दृढ़ निश्चय के चलते दुश्मन पोस्ट को खत्म कर टोलोलिंग चोटी को फिर से हासिल किया गया। मिशन तो पूरा हो गया, लेकिन मेजर आचार्य गंभीर रूप से घायल होने के वजह से नहीं बच पाए,” एसएस गांधी कहते हैं।
आचार्य की अपने परिवार के साथ पिछली बातचीत, उनके विचार और मन की शांत स्थिति के बारे में बताती है। चोटी पर जाने से 10 दिन पहले उन्होंने व्यक्तिगत और सैन्य मुद्दों पर चर्चा करते हुएअपने पिता को पत्र लिखा था। दिल को छू जाने वाले इस खत में उन्होंने लिखा,
“प्रिय पापा, ….. चोटों के बारे में ज्यादा परेशान ना हो। यह तो हमारे काम का हिस्सा हैं और हमारे नियंत्रण से परे हैं। लेकिन कम से कम यह अच्छे कारण के लिए है।
मम्मा को बताएं कि युद्ध जीवन भर का सम्मान है और मैं कुछ भी छोटा नहीं सोच सकता। राष्ट्र की सेवा करने का और बेहतर तरीका क्या है? चारु को महाभारत की कहानियां सुनाएँ, ताकि आपके पोते/पोती को अच्छे गुण मिले।”
कारगिल युद्ध जीता जाने के बाद, उनके पिता ने भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनका यह आखिरी पत्र भेजा। प्रधान मंत्री ने युद्ध में मेजर के योगदान को स्वीकार करते हुए उन्हें जवाब लिखा।
मेजर आचार्य को महा वीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो उनके पिता द्वारा प्राप्त किया गया था। प्रधान मंत्री वाजपेयी ने कमांडर (सेवानिवृत्त) आचार्य को गर्मजोशी से बधाई दी, और वे तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर नारायणन से भी मिले।
मेजर आचार्य की बहादुरी ने अपने परिवार पर एक स्थायी प्रभाव डाला- जो देशभक्ति, गर्व और प्रोत्साहन से भरा हुआ है। उनकी बेटी, जिसका नाम अपराजिता नाम रखा गया, मतलब जिसे जीता न जा सके, अब 19 साल की है। यह युवा लड़की अपने पिता की साहसी कहानियों को सुनकर बड़ी हुई है और उन सभी को उसने कॉफी टेबल बुक में संकलित कर लिया है।
अपनी पोती के भविष्य के बारे में पूछने पर कमांडर (सेवानिवृत्त) आचार्य कहते हैं, “अब जब भारतीय सेना ने महिलाओं के लिए अपने द्वार खोले हैं, तो मुझे ख़ुशी होगी यह देखकर कि मेरी पोती इसका हिस्सा बने।”
मूल लेख: तन्वी पटेल
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“एक पल में है सच सारी ज़िन्दगी का, इस पल में जी लो यारों, यहां कल है किसने देखा”
ये पंक्तियाँ कारगिल में शहीद हुए कप्तान हनीफ उद्दीन के छोटे भाई समीर ने लिखी थीं और अक्सर हनीफ इन्हें गुनगुनाते थे। लेकिन ये चंद शब्द हनीफ के जीवन की सच्चाई बन गए।
दिल्ली से ताल्लुक रखने वाले, गायक और जाबांज भारतीय सैनिक हनीफ उद्दीन का जन्म 23 अगस्त, 1974 को हुआ। उन्होंने आठ साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया था और उनके नफीस व समीर, दो भाई थे। उनकी माँ हेमा अज़ीज़ एक शास्त्रीय संगीत गायिका हैं जिन्होंने दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी और कथक केंद्र के लिए काम किया।
फोटो: फेसबुक
दिल्ली के शिवाजी कॉलेज से ग्रेजुएशन करने वाले हनीफ एक अच्छे गायक भी थे। आखिर यह गुण उन्हें उनकी अम्मी से विरासत में मिला। कॉलेज के दिनों में हनीफ काफी प्रसिद्द थे। वे हमेशा से इंडियन आर्मी में भर्ती होना चाहते थे।
ग्रेजुएशन के बाद बाकी सभी नौकरियों को छोड़कर वे सेना में भर्ती की तैयारी जुट गए। बिना किसी के मार्गदर्शन के उन्होंने टेस्ट पास किया और ट्रेनिंग में भी अच्छे अफसरों में अपनी जगह बनाई।
7 जून, 1997 को उन्हें राजपुताना राइफल्स की 11वीं बटालियन में सियाचिन में कमीशन किया गया। बाद में, कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन को लद्दाख के टर्टुक में तैनात किया गया था।
हनीफ बहुत खुश मिजाज वाले इंसान थे। अक्सर वे अपने सैनिक साथियों का गाकर हौंसला बढ़ाते थे। वे हमेशा अपना म्यूजिक सिस्टम अपने साथ रखते थे। उनके साथी सैनिकों के बीच भी वे काफी मशहूर थे।
ऑपरेशन थंडरबोल्ट (6 जून, 1999)
वे कारगिल के शुरूआती दिन थे और उस वक़्त दुश्मन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध थी। 6 जून, 1999 को टर्टुक क्षेत्र में 18,000 फीट की ऊंचाई पर ऑपरेशन थंडरबॉल्ट में 11वीं राजपुताना राइफल्स की टुकड़ी तैनात की गई थी। उनका मिशन इस क्षेत्र में एक मजबूत पकड़ बनाना था जिससे सेना को दुश्मन सैनिकों की गतिविधियों की निगरानी करने में मदद मिले। इस क्षेत्र में कब्जे से सैनिकों को युद्ध के शुरुआती चरणों में रणनीतिक मदद मिल सकती थी।
इस ऑपरेशन को हनीफ ने लीड किया। उन्होंने एक जूनियर कमीशन अधिकारी और तीन अन्य रैंक अफसरों के साथ ऑपरेशन शुरू किया। उन्होंने 4 और 5 जून की रात को महत्वपूर्ण कदम उठाए और पास की जगहों पर कब्जा कर लिया। वे निरंतर आगे बढ़ रहे थे।18,500 फीट की ऊंचाई और माइनस में तापमान भी उनके इरादे नहीं डिगा पाया।
लेकिन दुश्मन ने उनकी गतिविधि भांप ली और गोलीबारी शुरू कर दी। इसके जबाव में भारतीय सेना ने भी गोलियाँ चलानी शुरू की। कप्तान हनीफ, जो खुद से ज्यादा अपने सैनिकों की सुरक्षा की फ़िक्र में थे, उन्होंने आगे बढ़कर गोलीबारी की। उन्होंने खुद सामने जाकर दुश्मन का ध्यान भटकाया ताकी उनकी सेना पास की सुरक्षित जगह पर पहुंच जाये।
दुश्मन उन पर हर तरफ से गोलियाँ बरसा रहा था। अपनी जान देकर भी कप्तान हनीफ ने अपने साथियों की जान बचाई और जिस पोस्ट को हासिल करने के लिए वे गए थे, उससे 200 मीटर की दूरी पर ही उन्होंने शहादत को गले लगा लिया!
केवल 25 वर्ष की उम्र में दो साल भारतीय सेना में सेवा करने के बाद वे शहीद हो गए। इस क्षेत्र में चल रही अत्यधिक गतिविधियों के चलते युद्ध के अंत तक भी सेना उनके मृत शरीर को नहीं ढूंढ पायी थी।
इस बहादुरी और साहस के लिए उन्हें वीर चक्र से नवाज़ा गया। बेशक, कप्तान हनीफ जैसे जवान हर रोज पैदा नहीं होते। आज भी हनीफ के घर में उनके मेडल और सम्मान से सजा एक कोना उनकी बहादुरी की गाथा गाता है।
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देश में बहुत लोगों के लिए भारतीय सेना हमेशा से प्रेरणा का स्त्रोत रही है। ऐसे साहसिक और विश्वसनीय जवान जो बादल फटने या फिर ईमारत के ढहने पर भी आपके बचाव के लिए आयेंगें।
हाल ही में, भारतीय सेना ने उत्तराखंड में एक गांव में फंसे लोगों को बचाया है।
पिछले हफ्ते उत्तराखंड के चमोली जिले के मालारी इलाके में बादलों के फटने से भारी मात्रा में भूस्खलन हुआ। अत्याधिक बारिश के चलते और नदियों के पुरे उफान पर आ जाने से गांववालों की परेशानियां लगातार बढ़ गयी। बताया जा रहा है कि इस प्राकृतिक आपदा के चलते 4 लोगों की मौत भी हो गयी।
रठगांव और चमोली को जोड़ने वाली नदी का पुल भी नदी के तेज बहाव के चलते टूट गया।
यह पुल एकमात्र रास्ता था जिससे ग्रामीण नदी पार कर सकते थे। इसकी वजह से लगभग 41 परिवार उस गांव में फंस गए, क्योंकि उनके पास कोई भी रास्ता नहीं था नदी पार करने के लिए।
हालांकि, भारतीय सेना की फील्ड इंजीनियर कंपनी ने वहां पहुंच स्थिति को संभाला। केवल डेढ़ दिन के भीतर, इन जवानों ने उत्तराखंड के दो जिलों को जोड़ने के लिए एक फुटब्रिज बनाया।
नदी का बहाव तेज था और लगातार बारिश भी परेशानी का कारण बनी हुई थी। पर कोई भी समस्या भारतीय सेना को उनका काम करने से नहीं रोक पायी।
यह पहली बार नहीं है कि सेना टूटे हुये पुल का पुनर्निर्माण करने में मदद कर रही है। मुंबई की एल्फिंस्टन पुल त्रासदी भी एक उदाहरण है कि कैसे सेना ने मदद करने के लिए कदम बढ़ाया था।
एक स्थिति में नागरिकों की सेवा के लिए खड़े होने वाले भारतीय सैनिकों के इस जज्बे को सलाम!
( संपादन – मानबी कटोच )
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डॉ भरत वातवानी और सोनम वांगचुक को इस वर्ष रमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। उन्हें 31 अगस्त को फिलीपींस के सांस्कृतिक केंद्र में एक समारोह पर औपचारिक रूप से पुरस्कार दिया जाएगा।
डॉ भरत वातवानी मुंबई से एक मनोचिकित्सक हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के करजत में श्रद्धा पुनर्वास फाउंडेशन की स्थापना की। जहां उनका उद्देश्य मानसिक रूप से बीमार लोगों को ठीक कर उनके परिवारों से फिर से मिलाना है।
फाउंडेशन ने कहा, “भारत में मंज़िल पीड़ितों के लिए डॉ भरत के काम को देखते हुए, उन्हें सम्मानित किया जा रहा है। वे अपने कार्य के प्रति दृढ़ निश्चयी हैं। और हर हाल में मानवीय सम्मान को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं।”
इसके अलावा सोनम वांगचुक एक इंजीनियर, इन्नोवेटर और शिक्षा सुधारवादी हैं। फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में आमिर खान का किरदार वांगचुक के जीवन पर ही आधारित था। वे स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख (एसईसीओएमएल) के संस्थापक-निदेशक भी हैं।
सोनम वांगचुक ने सरकारी स्कूल व्यवस्था में सुधार लाने के लिए सरकार, ग्रामीण समुदायों और नागरिक समाज के सहयोग से 1994 में ऑपरेशन न्यू होप भी शुरू किया था। फाउंडेशन ने कहा,
“उनके कार्यों के चलते लद्दाखी युवाओं के जीवन में सुधार आया है। अब उनके पास बहुत से अवसर हैं। उन्होंने अपनी संस्था से दुनिया में अल्पसंख्यक लोगों के लिए एक उदाहरण स्थापित किया है।”
यक़ीनन यह देश के लिए गर्व की बात है कि हमारे यहां से दो भारतियों को यह सम्मान मिलने जा रहा है।
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वर्तमान समय में महिलाओं के लिए स्वावलंबन की राह अपनाना बहुत जरुरी हो गया है। महिलाएं हर क्षेत्र में आगे जरुर बढ़ रही हैं, लेकिन देश की तरक्की के लिए आत्मनिर्भर महिलाएँ होना ज़रूरी है। महिलाएँ स्वरोजगार के लिए उद्यमी बनना स्वीकार करेंगी तभी प्रगतिशील समाज की कल्पना की जा सकती है। छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले में स्वयंसहायता समूह से जुड़ी हज़ारों महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनकर अपने परिवार का सहारा बन रहीं हैं। घर के राशन के लिए पैसे नहीं होने पर जो महिलाएं दूसरे के सामने हाथ फैलाती थीं, वे आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनकर स्वावलंबी बनने के गुर सिखा रहीं हैं। यह सब हो पाया है जिमीकंद रोपण महाअभियान से।
क्या है जिमीकंद ?
देखने में आम और मिट्टी के रंग की यह सब्जी जमीन के नीचे उगती है। इसे सूरन के नाम से भी जाना जाता है। जिमिकंद एक गुणकारी सब्जी है, जो सभी को स्वस्थ एवं निरोगी रखने में मदद करती है। इसके गुण इतने कि कई रोगों से मुक्ति दिला दे।
क्या है जिमीकंद रोपण महाअभियान ?
जिमीकंद रोपण महाअभियान के तहत माँ बमलेश्वरी स्वयं सहायता समूह से जुड़कर महिलाएं अपने स्तर पर जिमीकंद की खेती कर हजारों नहीं लाखों रुपए कमा रहीं हैं। इस वर्ष (2018) जिले भर के 300 गांवों में महिलाओं ने 23 लाख जिमीकंद का रोपण किया है, जिसके माध्यम से अनुमानित 10 करोड़ का व्यवसाय करेंगी। इन महिलाओं की मेहनत के बल पर आने वाले कुछ सालों में राजनांदगाँव जिला जिमीकंद के उत्पादन में नंबर वन पर होगा ।
छोटी शुरुआत ने दी बड़ी सफलता
1000 समूहों से की शुरुआत:
वर्ष 2014-15 में बतौर प्रयोग 1000 महिलासमूह को अपने-अपने स्तर पर जिमीकंद का उत्पादन करने के लिए प्रेरित किया गया। शुरुआत में महिलाओं ने 10, 02011 जिमीकंद का रोपण किया और इससे दो करोड़ रुपए की आमदनी हुई। अब स्वयं सहायता समूह ने दूसरों को भी आत्मनिर्भर बनाने का अभियान शुरू कर दिया। यह छोटी शुरुआत आज एक जन आंदोलन का रूप ले चुकी है और लाखों लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक रूप से मज़बूत कर रही है ।
आत्मनिर्भर बनकर स्वावलंबी बनने के गुर सिखा रहीं
खैरागढ़ विकासखंड के केसला गांव की महिलाओं ने समूह से प्रेरणा लेकर जिमीकंद की खेती की और आज हजारों रुपए का आर्थिक लाभ लेते हुए दूसरों को भी इस खेती के लिए प्रेरित कर रही हैं। हुलिया बाई वर्मा ने बताया कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से उन्हें मजदूरी करनी पड़ती थी। पर फिर समूह से प्रेरणा लेकर बीते साल घर की बाड़ी में 1 क्विंटल जिमीकंद की खेती की और आज एक अच्छी आमदनी के माध्यम से अपने बच्चों के बेहतर शिक्षा के लिए ख़र्च कर रही है ।
जिमीकंद रोपण के लिए कराई गई प्रतियोगिता
माँ बमलेश्वरी स्वयं सहायता समूह द्वारा जिमीकंद रोपण महाभियान के तहत ग्राम, क्लस्टर एवं कार्यकर्ता स्तर पर प्रतियोगिता भी कराई गयी है I इस प्रतियोगिता का मुख्य उद्देश्य जिमीकंद लगाओ और हज़ारो पाओ है; अर्थात सबसे ज़्यादा जिमीकंद लगाने वाली महिला या समूह को आर्थिक सहायता के साथ- साथ प्रमाण पत्र एवं मोमेंटो से सम्मानित किया गया इस महाअभियान को सफल बनाने हेतु स्वयं फूलबासन दीदी ने पदयात्रा कर गांव- गांव महिलाओं को इस खेती के बारे में जानकरी दी I
मां बम्लेश्वरी महिला स्वयंसहायता समूह की ओर से ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए लंबे समय से मुहिम छेड़ी गई है। पद्मश्री फुलबासन यादव ने देखा कि ग्रामीण महिलाओं के घर की आर्थिक स्थिति के सुधार के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। विचार आया कि घर की बाड़ी या फिर खाली पड़ी जमीन पर जिमीकंद की खेती शुरु की जाए। फूलबासन बाई के अनुसार जिमीकंद खेती के माध्यम से महिलाओं की अतिरिक्त आय हो जाती है।
आठ माह में करें उत्पादन
घर की बाड़ी में आधा फीट का गड्ढा खोदकर जिमीकंद के बीज को डाला जाता है। जहां पर पानी की उपलब्धता होती है, वहां इसका उत्पादन जल्द होता है यानी कि आठ माह के भीतर ही उत्पादन कर आर्थिक लाभ लिया जा सकता है।महिलाओं को इस खेती के लिए प्रेरित करने वाली पद्मश्री फुलबासन बाई यादव ने बताया कि बारिश के पहले ही इसका रोपण किया जाना चाहिए ताकि इसका ज़्यादा से ज़्यादा लाभ मिल सके ।
व्याधि रोगी के लिए उत्तम आहार
वैज्ञानिकों ने बताया कि जिमीकंद में पोटेशियम, फास्फोरस और मैग्नीशियम की भरपूर मात्रा होती है। साथ ही यह लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण में भी काफी सहयोग करता है। इसके अलावा ओमेगा-3, विटामिन बी-6 भी जिमीकंद में काफी मात्रा में पाये जाते हैं। आयुर्वेद में गठिया, कब्ज और पेट से जुडी व्याधियों के लिए इसे उत्तम आहार बताया गया है। इसके अलावा एंटी आक्सीडेंट भी जिमीकंद में पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं जिससे स्वास्थ्य का स्तर अच्छा बनाये रखने में शरीर को मदद मिलती है
लाखों महिलाएँ, करोड़ों का व्यवसाय और अनगिनत जीवन में रंग भर देना ही किसी व्यापार का उद्देश्य होता है। इस जिमीकंद की खेती ने लाखों महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया है, अपने बेहतर कल के लिए निरंतर कार्य कर रही राजनांदगाँव जिले की इन महिलाओं के जज़्बे को सलाम।
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27 जुलाई की आधी रात को लगने वाला पूर्ण चंद्रग्रहण 21वीं शताब्दी का सबसे लंबा चंद्रगहण होगा, जो लगभग 103 मिनट तक रहेगा। पिछली सदी में सबसे लंबा पूर्ण चंद्रग्रहण वर्ष 2000 में 16 जुलाई को हुआ था, जो इस बार के पूर्ण चंद्रग्रहण से चार मिनट अधिक लंबा था। आईये जानते है इसके बारे में 10 ज़रूरी बातें!
1. एशिया और अफ्रीका के लोगों को इस बार पूर्ण चंद्रग्रहण का सबसे बेहतर नजारा देखने को मिलेगा। यूरोप, दक्षिण अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया में यह ग्रहण आंशिक रूप से देखा जा सकेगा। जबकि, उत्तरी अमेरिका और अंटार्कटिका में यह नहीं दिखाई पड़ेगा। भारत में पूर्ण चंद्रग्रहण 27 जुलाई को रात 22:42:48 बजे शुरू होगा और 28 जुलाई की सुबह 05:00:05 बजे खत्म होगा।
वर्ष 2018 चरण चंद्रमा की स्थिति समय (इंडियन स्टैंडर्ड टाइम)
जुलाई 27 1 उपछाया क्षेत्र (पेनंब्रा) में चंद्रमा का प्रवेश 22:42:48
जुलाई 27 2 प्रतिछाया क्षेत्र (अंब्रा) में चंद्रमा का प्रवेश 23:53:52
जुलाई 28 3 चंद्रग्रहण के समग्र स्वरूप का आरंभ 00:59:39
जुलाई 28 4 अधिकतम चंद्रग्रहण 01:51:27
जुलाई 28 5 चंद्रग्रहण की समग्रता का अंत 02:43:14
जुलाई 28 6 चंद्रमा का प्रतिछाया क्षेत्र को छोड़ना 03:49:02
जुलाई 28 7 चंद्रमा का उपछाया क्षेत्र को छोड़ना 05:00:05
2. चंद्रग्रहण की अवधि का निर्धारण दो बातों के आधार पर होता है। सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा के केंद्रों का एक सीधी रेखा में होना और ग्रहण के समय पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी के आधार पर चंद्रगहण की अवधि का आकलन होता है। इस बार इन तीनों खगोलीय पिंडों के केंद्र लगभग एक सीधी रेखा में होंगे, और चंद्रमा की पृथ्वी से दूरी अपने अधिकतम बिंदु के बेहद करीब होगी। चंद्रमा इस बार पृथ्वी से अपने सबसे दूरस्थ बिंदु के नजदीक होगा, इसलिए यह अत्यंत छोटा दिखाई पड़ेगा। यही कारण है कि पृथ्वी की छाया को पार करने में चंद्रमा को इस बार ग्रहण के समय अधिक समय लगेगा और चंद्रग्रहण लंबे समय तक बना रहेगा।
3. पुराणों में ग्रहण का कारण राहू और केतु जैसे राक्षसों द्वारा कभी-कभार सूर्य अथवा चंद्रमा को अपना ग्रास बना लेने को बताया गया है। भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट (476-550 ईसवीं) ने ग्रहण से संबंधित वैज्ञानिक सिद्धांत प्रस्तुत किये। उन्होंने इस बात को सिद्ध किया कि जब सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी आती है तो पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ने से चंद्रग्रहण होता है। इसी तरह सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा के आने पर चंद्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है तो सूर्यग्रहण होता है। यही वजह है कि चंद्रग्रहण पूर्णिमा के दिन ही होता है, जब सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी की दो विपरीत दिशाओं में होते हैं। वहीं, सूर्यग्रहण अमावस्या के दिन होता है, जब सूर्य एवं चंद्रमा पृथ्वी की एक ही दिशा में स्थित होते हैं।
4. ग्रहण वास्तव में छाया के खेल से अधिक कुछ नहीं है और इससे किसी तरह की रहस्यमयी किरणों का उत्सर्जन नहीं होता। चंद्रग्रहण को देखना पूरी तरह सुरक्षित है और इसके लिए किसी खास उपकरण की आवश्यकता भी नहीं होती। हालांकि, सूर्यग्रहण को देखते वक्त थोड़ी सावधानी जरूर बरतनी चाहिए क्योंकि सूर्य की चमक अत्यधिक तेज होती है।
फोटो – Boston.com
5. सूर्य का प्रकाश पृथ्वी के ठोस हिस्से से गुजर नहीं पाता है, लेकिन पृथ्वी को ढंकने वाले वायुमंडल से न केवल सूर्य की किरणें आर-पार निकल सकती हैं, बल्कि इससे टकराकर ये किरणें चंद्रमा की ओर परावर्तित हो सकती हैं। सूर्य के प्रकाश में उपस्थित अधिकतर नीला रंग पृथ्वी के वायुमंडल द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है, जिससे आसमान नीला दिखाई देता है। जबकि, लाल रोशनी वायुमंडल में बिखर नहीं पाती और पृथ्वी के वातावरण से छनकर चंद्रमा तक पहुंच जाती है, जिससे चंद्रमा लाल दिखाई पड़ता है। इस बार सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा के केंद्र पूर्ण चंद्रग्रहण के दौरान लगभग सीधी रेखा में होंगे तो सूर्य के प्रकाश की न्यूनतम मात्रा वायुमंडल से छनकर निकल पाएगी, जिससे चंद्रमा पर अंधेरा दिखाई पड़ेगा।
6. एक रुपये का सिक्का लें और इसके द्वारा पड़ने वाली छाया को देखें। हम आसानी से देख सकते हैं कि छाया के केंद्रीय हिस्से पर अंधेरा है, लेकिन किनारे की तरफ अंधेरा कम है। इस तरह पड़ने वाली छाया के गहरे भाग को प्रतिछाया क्षेत्र (अंब्रा) और हल्के रंग का हिस्सा उपछाया क्षेत्र (पेअंब्रा) कहा जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी पर भी प्रतिछाया और उपछाया दोनों बनती हैं।
इस बार चंद्रग्रहण के दिन पृथ्वी के उपछाया क्षेत्र में रात के करीब 10.53 बजे चंद्रमा के प्रवेश को देखा नहीं जा सकेगा। चंद्रमा का अधिकतर हिस्सा जैसे-जैसे उपछाया क्षेत्र से ढकता जाएगा तो इसकी कम होती चमक को स्पष्ट रूप से देखा जा सकेगा।
करीब 11:54 बजे चंद्रमा प्रतिछाया क्षेत्र में प्रवेश करेगा। उस वक्त पूर्णिमा के चांद पर धीरे-धीरे गहराते अंधेरे को देखना बेहद रोचक होगा।
7. इस चंद्रग्रहण के दिन 27 जुलाई को रात के समय आकाश में एक अन्य लाल रंग का चमकता हुआ पिंड मंगल भी अपना विशेष प्रभाव छोड़ने जा रहा है। उस दिन मंगल ग्रह सूर्य के लगभग विपरीत दिशा में होगा और इसलिए यह ग्रह पृथ्वी के करीब होगा। उस दौरान लाल ग्रह मंगल और लाल रंग का चंद्रमा रात के आकाश में चकाचौंध पैदा करेंगे।
8. मध्यरात्रि लगभग 12:30 बजे चंद्रग्रहण अपने समग्र स्वरूप को धारण करने लगेगा और अगले एक घंटे के लिए चंद्रमा पूरी तरह से पृथ्वी की छाया से ढंक जाएगा। इस दौरान गहरे लाल से लेकर ईंट जैसे रंग की तरह लाग रंग के विभिन्न रूपों को देखना मजेदार अनुभव होगा।
9. आमतौर पर सूर्य-पृथ्वी-चंद्रमा पूरी तरह से एक रेखा में नहीं होते हैं, जिसके कारण सूर्य का प्रकाश पृथ्वी के वायुमंडल से छनकर निकल जाता है और चंद्रमा का रंग लाल हो जाता है। हालांकि, इस बार सूर्य-पृथ्वी-चंद्रमा सीधे रेखा में होंगे, जिससे चंद्रमा पर अंधेरा होगा। 28 जुलाई को पूर्वाहन 1:51:27 बजे चंद्रमा पर अंधेरा होगा और इसकी चमक इतनी धीमी होगी कि यह दिखाई नहीं पड़ेगा। इस समय पूर्ण चंद्रग्रहण अपने उच्चतम स्तर पर होगा और फिर जल्दी ही अपने रंग में लौटना शुरू हो जाएगा।
10. वर्ष में अधिक से अधिक सात ग्रहण और कम से कम दो ग्रहण हो सकते हैं। एक वर्ष के भीतर होने वाले ग्रहणों में चार सूर्यग्रहण और तीन चंद्रग्रहण या फिर पांच सूर्यग्रहण और दो चंद्रग्रहण का संयोजन हो सकता है। अगर एक वर्ष में सिर्फ दो ही ग्रहण होते हैं तो वे दोनों सूर्यग्रहण होते हैं।
लेख साभार – इंडिया साइंस वायर
(पब्लिक आउटरीच ऐंड एजुकेशन कमेटी, एस्ट्रॉनोमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया के इन्पुट्स पर आधारित)
भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र
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ठीक दस बजे मेरी साइकिल चीकू के घर के सामने रुकी. अभी तक की पंद्रह साला ज़िन्दगी में यह शायद बहाद्दुरी का सबसे बड़ा कारनामा था. दिल एक पानी से निकली बड़ी मछली की तरह छटपटा कर मानों शरीर से बाहर निकल जाना चाहता था. लेकिन मैंने किसी तरह उसे दबोच रखा था.
साइकिल को स्टैंड पर लगाना चाहा तो कम्बख़्त ठीक से खड़ी न हो. ज़मीन उबड़-खाबड़ थी या स्टैंड ख़राब था या मेरी अस्थिर मनःस्थिति अब वो तो याद नहीं लेकिन एक आवाज़ याद है जो ज़ोर ज़ोर से अंदर से आ रही थी कि क्या कर रहा है बे, वापस चला जा. जैसे तैसे साइकिल को हाथ में ही पकड़ कर घंटी बजायी. ऐसा लगा कि अंदर कोई हरकत हुई. पता नहीं कौन दरवाज़ा खोलने आएगा. पता नहीं मेरे गले से आवाज़ निकलेगी या नहीं. थूक गटक कर गले तो तैयार रखा कि जब बोलने की नौबत आये तो शब्द कहीं अटक ही न जाएँ. कोई तीस सेकन्ड्स हो गए घण्टी बजाये लेकिन अभी तक तो कोई नहीं आया. अब तक यह विश्वास हो चला था कि आज कुछ गड़बड़ होने ही वाली है. मछली की तरह फड़फड़ाता दिल अब था ही नहीं, वहाँ कोई ख़ाली गड्ढा था – एक गहरा कुँआ जिसकी तलहटी में एक बाइक स्टार्ट नहीं हो रही थी और कोई वहशियों की तरह किक पर किक मारे जा रहा था.
एक तो दरवाज़ा खुलने में इतनी देर हो रही थी, दूसरे इस फ़ितरती दिमाग़ की उड़ानें देखो.. कुँआ, मछली, स्टार्ट नहीं हो रही बाइक.. मुझे शक़ हुआ कि कोई अंदर से बाहर झाँक के देख रहा है और मेरी मनःस्थिति के मज़े ले रहा है. फिर लगा कि पूरा परिवार अंदर एक साथ है और सब गुस्से से मुझे अंदर से देख रहे हैं. हे भगवान कहाँ फँस गया आज. अरे भाई कोई बाहर आ कर डाँट ही दे.. मैं चला जाऊँ यहाँ से झंझट तो ख़त्म हो.
सुबह सुबह क्रिकेट खेलते वक़्त सब दोस्तों ने गन्दी गन्दी गालियाँ दी थीं (उन दिनों हम गालियाँ देना सीख रहे थे और हमारी रचनाधर्मिता का बड़ा हिस्सा नयी नयी गालियाँ ईजाद करने में जाता था) कि ‘#@$%’ इतरा मत. मैं क्यों नहीं इतराता चीकू के घर जो जाना था. चीकू, हम सबके जीवन का अभिन्न अंग थी. स्वप्न सुंदरी थी. उसके एक इशारे पर हम क्या नहीं कर गुज़रते. हम सब उसे लगभग दो सालों से जानते थे. छिंदवाड़ा में एक सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि लड़कों और लड़कियों का स्कूल आमने-सामने है. लड़कियाँ लाल कुर्ती और सफ़ेद सलवार में होती थीं और हमें ख़ाकी पैन्ट्स और सफ़ेद शर्ट पहननी होती थी. एक जैसे कपड़ों की भीड़ में भी चीकू अलग ही नज़र आती थी. अपनी साइकिल से जब स्कूल जा रही होती तो हम सब ‘ताड़’ लेते थे उसे. फिर ठण्डी आहें भर कर अपनी कक्षाओं में चले जाते. मुझे नहीं लगता कि किसी ने कभी बात भी की थी उससे. लेकिन उसे हम सब जानते थे. उसके बारे में बातें किया करते थे.
अब तक तो मैं यह पूरी तरह मान चुका था कि अंदर पूरा परिवार इकठ्ठा है और यह विमर्श कर रहा है कि इस लड़के के साथ क्या किया जाय. अभी भी मौक़ा था मैं निकल सकता था. फिर मुझे हमारे चहेते सुरेंद्र मोहन पाठक का हरदिलअज़ीज़ नायक सुनील चक्रवर्ती याद आया. वो क्या करता अगर वो मेरी जगह होता? टॉम सायर क्या करता? मैं हक़ फ़िन हूँ या टॉम सायर? इनके अलावा और भी लोग याद आये उन्होंने थोड़ी ताकत दी, मैंने गहरी साँस ली और दूसरी बार घण्टी बजा दी. लापरवाह दिखने की कोशिश तो पहले से ही ज़ारी थी. सत्रह बार सोच समझकर सबसे अच्छे कपड़े पहन के आया था लेकिन सब गड़बड़झाला हो ही गया था.. फिर दिखा कि शर्ट के बटन भी ऊपर नीचे लगे हैं.. हे भग- इसके पहले कि शर्ट का कुछ करता दरवाज़ा खुला और चीकू बाहर आयी.
खून सूख गया, तोते उड़ गए (वो ज़रूर मेरी बटन देख कर हँस रही थी) मैंने ऑर्गेनिक केमिस्ट्री की किताब उसे पकड़ाई. उसने किताब ले ली पता नहीं क्या चल रहा था उसके दिमाग़ में क्यों उसे हँसी आ रही थी. मुझे पता नहीं चल रहा था लेकिन कुछ तो मैं अजीब सा कर ही रहा होऊँगा तभी तो वो हँसी रोक रही थी. मैं वहाँ से ग़ायब हो जाना चाहता था.
“प्रिज़्म..”, एक बेकार, वाहियात सी आवाज़ मेरे गले से निकली. कहाँ तो हम अमिताभ बच्चन की आवाज़ में बोलने का शिद्दत से रियाज़ किया करते थे कहाँ जब वक़्त आया तो मिमियाना सा निकला. ‘शाबास, बहुत ख़ूब मनीष कुमार, तुम हो ही निरे बेवक़ूफ़’. मैं भी उसकी तरह इंसानियत से मुस्कुरा सकता था लेकिन चेहरा एक चट्टान की तरह खिंचा हुआ था. भावशून्य.
“ओह..:, उसने अपनी जेब से प्रिज़्म निकाला और मुझे दिया. और तब वो अनहोनी हुई.. उसकी ऊँगली ने मेरी ऊँगली को छुआ.. मेरी रग रग में रागिनियाँ बजीं. एक सनसनाहट पूरे शरीर में दौड़ी. मैंने उसकी तरफ़ देखा, वो हँसी दबा कर मेरी तरफ़ देख रही थी. पता नहीं क्या कह रही थी.. मेरे मज़े ही ले रही होगी. मैंने नज़रें चुरा लीं – कहा “अच्छा” और जैसे कोई बकरा कसाई की पकड़ से भाग निकले वैसे ही ताबड़तोड़ पैडल मारता हुआ निकल गया. मुझे पता था कि वो पीछे खड़े हो कर मेरी ओर देख रही होगी, अब शायद खुल के हँस रही होगी। जैसे तैसे आख़िरकार उसकी गली का मोड़ मुड़ा और मैंने चैन की साँस ली. लेकिन सब गुड़गोबर हो चुका था. बात करने का ऐसा मौक़ा, इम्प्रैशन जमाने का अवसर खो चुका था. जिसको शर्ट के बटन बंद करने भी नहीं आते उसका यही हश्र होना था. और इससे घटिया और कौन सी बात होती कि टॉम सायर, सुनील चक्रवर्ती, अमिताभ बच्चन का मुरीद का इस बात पर ख़ुश था कि उँगलियाँ छू गयीं.. उसको पता भी नहीं चला होगा कि ऐसा कुछ हुआ भी है. बाक़ी बचे हुए दिन में न तो किसी दोस्त से मिलने का मन हुआ, न पिक्चर जाने का न ही कोई किताब पढ़ने का.
रात भी धीमे धीमे गुज़री.
दूसरे दिन स्कूल में मोटे ने ढूँढ निकाला मुझे, क्लास में था, कोई ज़्यादा बात नहीं होती थी उससे. कहने लगा: “तू अपने आपको बड़ी तोप तो नहीं समझ रहा है न. उसकी उँगली छू कर आया है तो कोई बड़ी बात नहीं हो गयी.”
हैं? इसे कैसे पता? ये वहीं कहीं रहता था शायद चीकू का कज़िन था दूर का. इसे किसने बताया.. ओह ओह बता तो सिर्फ़ चीकू ही सकती थी. मतलब उसे भी पता चला छुअन का.. उसे पता तो था कि मैं भी उसे देखने वालों में था.
इसके आगे की कहानी कुछ नहीं है. वो पंद्रह साल की उम्र थी आज से कोई चौंतीस साल पहले की बात है, वो ज़माना कुछ और था. एक बार एक भरपूर नज़र से कोई देख लेती थी तो फिर बंदा सालों उसके ही ख़्वाब सजा कर रखता था. हर मोहल्ले में यह सिलसिला चलता था – छज्जे से ताकना, देखना-वेखना, कभी कभार भीड़ में कुछ कह गुज़रना और उसकी हँसी छूट जाना. कभी कभार ख़त लिखने का भी सिलसिला बन जाता था और दोनों मिल कर मर जाने की बात करते थे. भागने की नहीं बात मर जाने की होती थी. अंदर से दोनों को ही मालूम होता था कि शादी होने की कोई गुंजाइश ही नहीं है. आगे चल कर अधितकर लड़कियों की शादी माँ-बाप की मर्ज़ी से हो जाती थी. लड़के अपने दोस्तों के साथ ग़म मनाते, लड़कियाँ अपने ससुराल की होने की कोशिश करतीं. वहीं की हो कर रह जातीं. मायके हर साल लौटतीं और कभी उससे मिलतीं तो भी बिना हसरत, बिना ग्लानि के. फिर दो तीन साल में मजनूँ मियाँ के घर भी एक अदद बीवी आ जाती. तमाम उम्र भर दोनों के दिलों में क्या गुज़रती वो उनके दिल में ही रहती.
क्या लिखना शुरू किया था, यहाँ कैसे पहुँचा अब ठीक से तो पता नहीं पर आजकल किशोरों के इश्क़ और ब्रेकअप का खेल देख कर लगता है कि उनसे कहा जाए कि आप लोग इतने मज़े नहीं ले पा रहे हो. यहाँ फ़ास्ट फ़ूड जैसी नेकनीयती है. दिखने का, स्वाद का मामला है.. लेकिन आपको एक सम्बन्ध कितना पोषक कर सकता है वह गायब है. मैं यह नहीं कहूँगा कि आज इसके साथ कल उसके साथ में कोई ग़लती है लेकिन ये आपकी जड़ें विकसित होने की भी उम्र है.. और व्यक्तित्व की जड़ें ठीक से उन्नत नहीं हुईं तो ख़ामियाज़ा जीवन भर भुगतना पड़ सकता है. ग़ौर से देखें पिछले 2-3 सालों के बनते बिगड़ते संबंधों में कितना वक़्त और ध्यान आपके सम्बन्ध खा गए और क्या हासिल हुआ? एक तलाश ही न? तलाश भी अगले इंसान की.. अपने आप की नहीं. बात यह नहीं है कि विर्जिनिटी (कौमार्य) किस उम्र में गँवाया बात यह है कि धीरे धीरे एक नज़र का, एक छोटी सी छुअन का, एक पत्र के इन्तिज़ार का लुत्फ़ जाता रहा.
जो समझदार हैं वो आज भी श्रृंगार रस के मज़े ले लेते हैं. जो जल्दी में हैं उनकी बैचेनी में ही कटेगी.
इस बात के साथ पेश है एक श्रृंगार रस का वीडियो जिसे US में फ़िल्माया गया था. राधारमण कीर्तने जी फ़्लोरिडा में पंडित जसराज के स्कूल का काम सँभालते हैं और सारा फ़ीस्ट वहीं की अभिनेत्री हैं:
लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.
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