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वीडियो : कारगिल शहीद कप्तान हनीफ उद्दीन की माँ का आप सबके लिए सन्देश!

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साल 1999 के कारगिल युद्ध में राजपुताना राइफल्स के कप्तान हनीफ उद्दीन ने अपने सैनिकों की रक्षा करते हुए खुद को देश के लिए कुर्बान कर दिया था। दिल्ली से ताल्लुक रखने वाले हनीफ को सिर्फ 25 साल की उम्र में शाहदत प्राप्त हुई थी।

अपने देश के लिए कुछ कर-गुजरने का साहस इन नौजवान सैनिक को शायद अपने घर से ही विरासत में मिला था। हाल ही में, लेखिका रचना बिष्ट रावत ने हनीफ की माँ हेमा अज़ीज़ के साथ उनकी मुलाकात के बारे में एक फेसबुक पोस्ट साँझा की है। इस पोस्ट में उन्होंने कप्तान हनीफ उद्दीन की ज़िन्दगी के कई अनछुए पहलुओं पर लिखा है। आप पोस्ट का हिंदी अनुवाद पढ़ सकते हैं,

“मैं आज सुबह वीर चक्र से सम्मानित कारगिल शहीद कैप्टन हनीफ उद्दीन की माँ से मिली और मुझे समझ आया कि उन्हें यह साहस कहाँ से मिला था। एक क्लासिकल गायिका, श्रीमती हेमा अज़ीज़ ने अपने दोनों बेटों को अकेले पाला क्योंकि जब हनीफ 8 साल के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। हनीफ के शहादत के बदले उन्होंने सरकार से पेट्रोल पंप लेने से मना कर दिया था बिल्कुल वैसे ही जैसे उन्होंने बचपन में हनीफ को स्कूल से वह मुफ्त वर्दी लेने से मना कर दिया था जो सिर्फ इसलिए दी जा रही थी क्योंकि उनके पिता नहीं थे।

उन्होंने कहा था, ‘अपनी टीचर को कहना कि मेरी माँ इतना कमाती है कि मेरे लिए वर्दी खरीद सके।’

उन्होंने कहा कि हनीफ एक सैनिक था और अपने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहा था। उन्होंने कभी भी यह उम्मीद नहीं की कि वह अपनी जान बचाने के लिए पीछे हट जाये। कप्तान हनीफ उद्दीन टर्टुक में कई गोलियाँ लगने के कारण शहीद हुए तब वे केवल 25 साल के थे। 40 से भी ज्यादा दिनों तक उनके शरीर का कुछ पता नहीं चला था। जब सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक ने उनकी माँ से कहा कि हनीफ के शरीर को शायद ढूंढा न जा सके क्योंकि दुश्मन लगातार गोलीबारी कर रहा था तो श्रीमती हेमा अज़ीज़ ने कहा कि अपने बेटे के शरीर को लाने के लिए वो किसी और सैनिक की जान खतरे में नहीं डालना चाहती हैं।”

बताया जाता है कि जब कारगिल युद्ध में दुश्मन गोलियों की बौछार कर रहा था तब कप्तान हनीफ को खुद से ज्यादा अपने सैनिकों की चिंता थी। ऐसे में उन्होंने खुद आगे बढ़कर गोलीबारी की। उन्होंने खुद सामने जाकर दुश्मन का ध्यान भटकाया ताकी उनकी सेना पास की सुरक्षित जगह पर पहुंच जाये।

आप शहीद कप्तान हनीफ उद्दीन की पूरी कहानी यहाँ पढ़ सकते हैं,

कप्तान हनीफ उद्दीन: वह कारगिल हीरो जिसने अपने सैनिकों को बचाने के लिए दी अपनी कुर्बानी!

अपनी एक और पोस्ट में रचना बिष्ट ने कप्तान हनीफ उद्दीन की माँ का एक विडियो भी साँझा किया है, आप देख सकते हैं,


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20 रूपये की यह अनोखी शीशी किसानों को लाखों कमाने में मदद कर रही है, जानिए कैसे!

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क सफ़ेद रंग की छोटी-सी 20 रूपये की शीशी आज किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है। यह शीशी है ‘वेस्ट डीकम्पोज़र’ की। वेस्ट डीकम्पोज़र का अर्थ है कचरे को गला-सड़ा कर अपघटित करना।

इस ‘वेस्ट डीकम्पोज़र’ की मदद से किसान खेतों की उर्वरकता बढ़ा सकते हैं और साथ ही जैविक खाद बना सकते हैं। उन्हें अब फसल के बाद बचने वाली पराली को भी जलाने की जरूरत नहीं है। ‘वेस्ट डीकम्पोज़र’ के घोल में इस पराली को मिला कर खाद तैयार की जा सकती है।

वेस्ट डीकम्पोज़र की शीशी

इस डीकम्पोज़र को राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र ने तैयार किया है। केंद्र के डायरेक्टर किशन चंद्रा बताते हैं कि पिछले साल से ही ये वेस्ट डीकम्पोज़र किसानों को दिया जा रहे हैं। इस वेस्ट डीकम्पोज़र की सबसे खास बात ये है कि किसान इसे दोबारा अपने खेत में ही तैयार कर सकते हैं और इसका इस्तेमाल करने के बाद उन्हें कोई कीटनाशक प्रयोग करने की जरुरत नहीं है।

गाजियाबाद में रहने वाले किसान पंकज वर्मा बताते हैं कि अब पराली उनके लिए सोना है और ये डीकम्पोज़र अमृत समान है। जबसे उन्होंने इसका इस्तेमाल करना शुरु किया है खेत की सेहत बढ़ गई है और फसल में कोई बीमारी नहीं लगती। वहीं हरियाणा के एक किसान अमित का कहना है कि इस डीकम्पोज़र ने हरियाणा के सैकड़ों किसानों को पराली जलाने से रोका है।

इस वेस्ट डीकम्पोज़र को गाय के गोबर और पत्तों में पाए जाने वाले जीवाणु से तैयार किया गया है। इसे इस्तेमाल करने की विधि बहुत ही आसान है,

  1. सबसे पहले इस वेस्ट डीकम्पोज़र को 200 लीटर पानी में 2 किलोग्राम गुड़ के साथ मिलकर इसका घोल तैयार करें और उसे लगभग एक सप्ताह तक ऐसे ही रहने दें।
  2. हर दिन इस घोल को किसी लकड़ी के डंडे से दिन में दो बार अच्छे से हिलाएं।
  3. एक हफ्ते बाद आप इस घोल का स्प्रे अपने खेतों में कर सकते हैं।
  4. स्प्रे के अलावा आप इस घोल को घर के किचन से निकलने वाले कूड़े-कचरे व खेतों में बचने वाली पराली आदि मिला कर खाद भी तैयार कर सकते हैं।
वेस्ट डीकम्पोज़र का तैयार घोल

इस घोल से ही आप कुछ लीटर घोल अलग निकाल कर और इसमें पानी और गुड़ मिलाकर फिर से घोल तैयार कर सकते हैं। इस तरह से आप एक ही घोल का इस्तेमाल बार-बार कर सकते हैं।

इस वेस्ट डीकम्पोज़र की मदद से खेती की लागत को कम से कम किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल करके किसान बिना किसी रसायन उर्वरक व कीटनाशक के फसल उगा सकते हैं। इससे यूरिया, डीएपी या एमओपी की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए आप यहाँ सम्पर्क कर सकते हैं,

नेशनल सेंटर ऑफ़ ऑर्गेनिक फार्मिंग (कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार)
हापुर रोड, कमला नेहरू नगर, गाजियाबाद – 201002
फोन: 0120 – 2764906, 2764212; फ़ैक्स: 0120- 2764901
ईमेल: nbdc@nic.in; वेबसाइट: http://ncof.dacnet.nic.in

आप इस पर कृषि जागरण का एक विडियो देख सकते हैं


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मुंबई: दृष्टिहीन लड़की की बहादुरी, लोकल ट्रेन में छेड़खानी कर रहे युवक को सिखाया सबक!

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हाल ही में, महाराष्ट्र के मुंबई से एक ऐसा वाकया सामने आया जिसके बारे में जान कर आप भी मानेंगे कि ‘विकलांगता सिर्फ एक मानसिक स्थिति है’!

दरअसल, एक 15-वर्षीय दृष्टिहीन लड़की अपने पिता के साथ कल्याण से दादर के लिए लोकल ट्रेन में सफ़र कर रही थी। बच्ची के दृष्टिहीन होने की वजह से दोनों, पिता और बेटी दिव्यांग डिब्बे में सवार हुए थे। 24 वर्षीय आरोपी विशाल बलिराम सिंह भी उसी डिब्बे में लड़की के बिल्कुल पीछे खड़ा था और लड़की को गलत तरीके से छूने लगा।

हालांकि, उसने अपने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दृष्टिहीन लड़की उसका कुछ विरोध कर पायेगी। आत्मरक्षा और कराटे में प्रशिक्षित यह लड़की बिल्कुल भी नहीं घबराई। उसने मौका पाते ही लड़के के हाथ को पकड़ लिया और उसे इतनी बुरी तरह मरोड़ा कि लड़का अपने घुटनों पर गिर गया और दर्द से उस की चीख निकल गयी।

इस से बाकी यात्री और लड़की के पिता का ध्यान उस पर गया। लड़की ने पूरी बात अपने पिता को बताई और आरोपी सिंह को छोड़ने से इंकार कर दिया।

दादर जीआरपी (सरकारी रेलवे पुलिस) के सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर प्रसाद पंधारे के मुताबिक, लड़की की हाथ पकड़ने की तकनीक इतनी घातक थी कि अगर वो अपनी पकड़ जरा भी ढ़ीली ना करती तो आरोपी की उंगलियाँ टूट भी सकती थीं।

“जब तक ट्रेन अगले स्टेशन, माटुंगा नहीं पहुंच गयी तब तक लड़की ने आरोपी को नहीं छोड़ा जो उससे कहीं अधिक लम्बा था। उसके चेहरे पर जरा भी डर नहीं था और उसने निडरता से हमे सिंह को गिरफ्तार करने के लिए कहा,” पंधारे ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया।

इस घटना के बाद लड़की ने कहा कि हम (दिव्यांग) हमेशा से ही इन बदमाशों के लिए आसान टारगेट होते हैं। लेकिन हमारे स्कूल में सेल्फ डिफेंस सिखाया जाता है। इसलिए हम ऐसे बदमाशों को सबक सिखा सकते हैं। लड़की ने कहा,

“मैं चाहती हूँ कि उस बदमाश को कड़ी सजा मिले ताकि दोबारा वो ऐसी हरकत करने के बारे में सोच भी ना सके।”

खैर अच्छी बात है कि यह लड़की आत्म-रक्षा में प्रशिक्षित थी और उस अपराधी को अच्छा सबक सिखा पायी। लेकिन आज भी हमारे देश में ऐसी बहुत-सी औरतें हैं जो अपने साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ़ आवाज नहीं उठा पाती हैं।

पर अब वक़्त आ गया है कि हम औरतें इस तरह की घटनाओं को नजर अंदाज करने की बजाय इनके खिलाफ़ आवाज उठायें और इस लड़की की तरह बाकी समाज के लिए एक मिसाल कायम करें!

कवर फोटो


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पुष्पा भारती से सब प्यार करते हैं!

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डॉ. धर्मवीर भारती को पसंद नहीं था कि उन्हें लोग लोकप्रिय ‘गुनाहों का देवता’ के लेखक के रूप में ही जानें. और ये लाज़मी भी था, जिस शख़्स ने ‘अन्धायुग’ और ‘कनुप्रिया’ जैसी कृतियाँ गढ़ी हों जो हमारी साहित्यिक धरोहर के चमकीले मोती हैं वे कहाँ पसंद करते कि 21 वर्ष की आयु में लिखा उपन्यास जहाँ प्यार की परिभाषाएँ ही छिछली थीं का नाम ही उनके साथ चिपके. बहरहाल लोग भारतीय चेतना को तराशने वाले, पत्रकारिता के गौरवस्तम्भ ‘धर्मयुग’ जो धर्मवीर भारती के क़ाबिल हाथों से पाला-पोसा वट-वृक्ष था को भी भूल चले हैं. तुकबंदी में नारेबाज़ी करने वाले कवियों या खामखाह तरक़्क़ीपसंदगी का दुशाला ओढ़े गंभीर दिखने की बचकानी कोशिश में लगे पोस्टरबाज़ी करके वाहवाही लूटने वाले कवियों की बौनी भीड़ में धर्मवीर भारती का नाम अग्रणी साहित्यकारों में गिना जाता है / गिना जाना चाहिए।

‘कनुप्रिया’ मुझे विशेष तौर पर प्रिय है. यह पुष्पा भारती के लिए लिखी थी उन्होंने. सबसे पहली बार जब यह बात पुष्पा जी से सुनी थी तो इस पर भरोसा नहीं हुआ था, लेकिन एक दिन धर्मवीर भारती जी की पुण्यतिथि पर उनके साथ बिताए पूरे लम्बे दिन में उन्होंने फिर से अपने सम्पूर्ण जीवन की कहानी सुनाई, और भारती जी के हाथों लिखी प्रतिलिपि जो पुष्पा भारती को समर्पित थी दिखाई तो अविश्वास उड़ गया. इन दोनों की कहानी महज़ एक प्रेमकथा ही है – ऐसे प्रेम की कथा जो इंसान के लिए अपनी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति पाने की सीढ़ी बनता है. इस प्रेम के बारे में कुछ लिखकर मैं इसे छोटा नहीं करना चाहता. पुष्पा भारती के प्रेम ने उनसे राधा-कृष्ण के सम्बन्ध का ऐसा अनोखा चित्रण करवा लिया है जो रूमान के परे प्रेम में परिपक्वता ढूँढने वालों को संभावनाओं की हरियाली से भर देता है.

प्रस्तुत है कनुप्रिया का एक अंश और वीडियो में पुष्पा भारती से बातचीत. सावधान रहिएगा कि कहीं हमारी टीम की तरह आपको इनसे प्यार न हो जाए क्योंकि पुष्पा भारती से सब प्यार करते हैं..

कनुप्रिया: तुम मेरे कौन हो

[कनु = कृष्ण
कनुप्रिया = कनु की प्रिया = राधा]

तुम मेरे कौन हो कनु
मैं तो आज तक नहीं जान पाई

बार-बार मुझ से मेरे मन ने
आग्रह से, विस्मय से, तन्मयता से पूछा है-
‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो !’

बार-बार मुझ से मेरी सखियों ने
व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुटिल संकेत से पूछा है-
‘कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’

बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने
कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है-
‘यह कान्ह आखिर तेरा है कौन?’

मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई
तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु !

अक्सर जब तुम ने
माला गूँथने के लिए
कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे लिए
श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर
मेरे आँचल में डाल दिये हैं
तो मैंने अत्यन्त सहज प्रीति से
गरदन झटका कर
वेणी झुलाते हुए कहा है :
‘कनु ही मेरा एकमात्र अंतरंग सखा है !’

अक्सर जब तुम ने
दावाग्नि में सुलगती डालियों,
टूटते वृक्षों, हहराती हुई लपटों और
घुटते हुए धुएँ के बीच
निरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हुई
मुझे
साहसपूर्वक अपने दोनों हाथों में
फूल की थाली-सी सहेज कर उठा लिया
और लपटें चीर कर बाहर ले आये
तो मैंने आदर, आभार और प्रगाढ़ स्नेह से
भरे-भरे स्वर में कहा है:
‘कान्हा मेरा रक्षक है, मेरा बन्धु है
सहोदर है।’

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है
और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ
और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है
तो मैंने डूब कर कहा है:

‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’

पर जब तुम ने दुष्टता से
अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छेड़ा है
तब मैंने खीझ कर
आँखों में आँसू भर कर
शपथें खा-खा कर
सखी से कहा है :
‘कान्हा मेरा कोई नहीं है, कोई नहीं है
मैं कसम खाकर कहती हूँ
मेरा कोई नहीं है !’

पर दूसरे ही क्षण
जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं
और बिजली तड़पने लगी है
और घनी वर्षा होने लगी है
और सारे वनपथ धुँधला कर छिप गये हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दुबका लिया है
तुम्हें सहारा दे-दे कर
अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आई हूँ
और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !
कि उस समय मैं बिलकुल भूल गयी हूँ
कि मैं कितनी छोटी हूँ
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृन्दावन को
जलप्रलय से बचाने की सामर्थ्य रखते हो,
और मुझे केवल यही लगा है
कि तुम एक छोटे-से शिशु हो
असहाय, वर्षा में भीग-भीग कर
मेरे आँचल में दुबके हुए

और जब मैंने सखियों को बताया कि
गाँव की सीमा पर
छितवन की छाँह में खड़े हो कर
ममता से मैंने अपने वक्ष में
उस छौने का ठण्डा माथा दुबका कर
अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ दिए
तो मेरे उस सहज उद्गार पर
सखियाँ क्यों कुटिलता से मुसकाने लगीं
यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!

लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु
तेज से प्रदीप्त हो कर इन्द्र को ललकारा है,
कालिय की खोज में विषैली यमुना को मथ डाला है
तो मुझे अकस्मात् लगा है
कि मेरे अंग-अंग से ज्योति फूटी पड़ रही है
तुम्हारी शक्ति तो मैं ही हूँ
तुम्हारा संबल,
तुम्हारी योगमाया,
इस निखिल पारावार में ही परिव्याप्त हूँ
विराट्,
सीमाहीन,
अदम्य,
दुर्दान्त;

किन्तु दूसरे ही क्षण
जब तुम ने वेतसलता-कुंज में
गहराती हुई गोधूलि वेला में
आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से
अपनी एक चुटकी में भर कर
मेरे सीमन्त पर बिखेर दिया
तो मैं हतप्रभ रह गयी
मुझे लगा इस निखिल पारावार में
शक्ति-सी, ज्योति-सी, गति-सी
फैली हुई मैं
अकस्मात् सिमट आयी हूँ
सीमा में बँध गयी हूँ
ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?

पर जब मुझे चेत हुआ
तो मैंने पाया कि हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हूँ जिसे दिग्वधू कहते हैं, कालवधू-
समय और दिशाओं की सीमाहीन पगडंडियों पर
अनन्त काल से, अनन्त दिशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हूँ, चलती
चली जाऊँगी…

इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे
और अन्त तो इस यात्रा का है ही नहीं मेरे सहयात्री!

पर तुम इतने निठुर हो
और इतने आतुर कि
तुमने चाहा है कि मैं इसी जन्म में
इसी थोड़-सी अवधि में जन्म-जन्मांतर की
समस्त यात्राएँ फिर से दोहरा लूँ
और इसी लिए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडंडी पर
क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ
मुझे इतने आकस्मिक मोड़ लेने पड़े हैं
कि मैं बिलकुल भूल ही गयी हूँ कि
मैं अब कहाँ हूँ
और तुम मेरे कौन हो
और इस निराधार भूमि पर
चारों ओर से पूछे जाते हुए प्रश्नों की बौछार से
घबरा कर मैंने बार-बार
तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है।
सखा-बन्धु-आराध्य
शिशु-दिव्य-सहचर
और अपने को नयी व्याख्याएँ देनी चाही हैं
सखी-साधिका-बान्धवी-
माँ-वधू-सहचरी
और मैं बार-बार नये-नये रूपों में
उमड़- उम़ड कर
तुम्हारे तट तक आयी
और तुम ने हर बार अथाह समुद्र की भाँति
मुझे धारण कर लिया-
विलीन कर लिया-
फिर भी अकूल बने रहे

मेरे साँवले समुद्र
तुम आखिर हो मेरे कौन
मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?

आज की कविता:

—–

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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आईआरएस अफसर की अनोखी पहल, शादी में मिले 1.25 लाख के तोहफ़े किए एनजीओ को दान!

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ईआरएस अफसर वी. साई वमसी ने साल 2016 में उन्होंने 220वीं रैंक के साथ परीक्षा पास की थी।

लेकिन, वमसी सिर्फ इस उपलब्धि को पाकर आराम से बैठने वालों में नहीं हैं। बल्कि, वे पूरी तन्मयता के साथ समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए सक्रिय हैं। हाल ही में, उन्होंने आकांक्षा नाम के एक एनजीओ को अपनी शादी में मिले लगभग 1.25 लाख रूपये के तोहफ़े दान कर दिए।

अपने फैसले के बारे में बताते हुए, वमसी ने कहा, “मैं हमेशा से मानता हूँ कि पूरा समाज ही मेरा परिवार है और मुझे लगता है कि यह दान दान नहीं है बल्कि समाज की ओर मेरी ज़िम्मेदारी है।”

एनजीओ आकांक्षा वीफब्स (विज़न फॉर अ बेटर सोसाइटी) को वमसी से काफी मदद मिली है। आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिले में कोलिमिगुंडला मंडल के थिममान्युनिपेटा गांव में स्थित यह एनजीओ शिक्षा के क्षेत्र में सराहनीय बदलाव ला रहा है।

यह एनजीओ लगभग 60 बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाता है। इन लोगों ने कोलिमिगुंडला मंडल के तीन सरकारी स्कूलों में डिजिटल लैब भी बनवाई हैं। अब तक, इस एनजीओ ने समाज को दो डॉक्टर, और एक सॉफ्टवेर इंजिनियर दिया है।

इसके अलावा, दो छात्र, आसिफ़ और आसिफ़ा को पिछले साल नेपाल में आयोजित कराटे चैंपियनशिप के लिए अंतर्राष्ट्रीय मेडल मिले थे।

वमसी जैसे अधिकारी विरले ही होते हैं जो समाज के बारे में सोचते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने समाज कल्याण के लिए हर महीने अपनी आधी सैलरी दान करने की भी प्रतिज्ञा ली है।

बेशक, वमसी इस समाज में और भी बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा हैं।

मूल लेख: प्रुध्वी वेगेसना


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ठाणे नहीं, रुड़की-पिरान कलियर के बीच चली थी देश की पहली ट्रेन!

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चपन से ही हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि भारत में सबसे पहली रेल साल 1853 में मुंबई(तब बॉम्बे) से ठाणे के बीच चलाई गयी थी। लेकिन इतिहास के इस दावे को आईआईटी रुड़की ने चुनौती दी।

दरअसल, साल 2002 में द हिन्दू में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1853 में जिस रेल की शुरुआत हुई थी वो भारत की पहली पैसेंजर ट्रेन थी। पर उसके 2 साल पहले ही देश में रेलगाड़ी की शुरुआत हो चुकी थी। प्रकाशन की रिपोर्ट में एक किताब के हवाले से बताया गया है कि ये रेल एक मालगाड़ी थी, जो रुड़की से पिरान कलियर के बीच चलाई गई थी।

इसलिए, भारत के रेल युग की शुरुआत साल 1853 से नहीं बल्कि 22 दिसंबर 1851 से हुई थी। जिस किताब का हवाला रिपोर्ट में दिया गया है, वह है ‘रिपोर्ट ऑन गंगा कैनाल’!

साभार: स्कूपव्हूप

इस किताब को ब्रिटिश लेखक पी. टी. कौटले ने लिखा है। यह किताब आज भी आईआईटी रुड़की की लाइब्रेरी में मौजूद है। इसके अनुसार, साल 1851 में किसानों की सिंचाई की समस्या को दूर करने के लिए अंग्रेज़ों ने एक नहर बनाने की योजना बनाई। गंगा नदी से निकलने वाली इस नहर को बनाने के लिए बहुत-सी मिट्टी की ज़रूरत थी।

इस मिट्टी को पिरान कलियर से 10 किलोमीटर दूर रुड़की तक ले जाने के लिए योजना के मुख्य इंजीनियर थोमसन ने इंग्लैंड से रेल इंजन मंगवाया था। इस इंजन के साथ दो बोगियां जोड़ी गई, जो 180-200 टन का वज़न ले जाने में सक्षम थीं। किताब के अनुसार, तब ये ट्रेन 10 किलोमीटर की इस दूरी को 38 मिनट में तय करती थी। यानी इसकी रफ़्तार 4 मील प्रति घंटे थी।

इस ट्रेन ने तकरीबन 9 महीनों तक काम किया लेकिन फिर साल 1852 में एक दुर्घटना में इसके इंजन में आग लग गई। पर तब तक नहर का काम पूरा हो चुका था।

इस के बाद, साल 1853 में भारत की पहली यात्री रेलगाड़ी शुरू की गयी थी।


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फ्लाइट में पड़ा व्यक्ति को दिल का दौरा, हीरो डॉक्टर ने बचायी जान, जानिए कैसे!

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हाल ही में, पुणे के एक डॉक्टर ने नागपुर-पुणे की गो एयर फ्लाइट में एक यात्री को दिल का दौरा पड़ने पर उसकी जान बचायी।

पुणे के बी.जे मेडिकल कॉलेज में डॉ. उदय राजपूत सीपीआर सेंटर के हेड हैं। उन्होंने बताया कि उस समय फ्लाइट में लगभग 120 यात्री होंगे और फ्लाइट ने रात के करीब 9:15 बजे उड़ान भरी थी। फ्लाइट के उड़ान भरने के लगभग 20 मिनट बाद एक यात्री, जाधव को अचानक दिल का दौरा पड़ गया।

डॉ. राजपूत ने बताया, “हमने पीछे की सीट से किसी के चिल्लाने की आवाज सुनी। जब मैं पीछे मुड़ा तो मैंने देखा कि एक औरत किसी मेडिकल इमरजेंसी के लिए क्रू स्टाफ़ को बुला रही थी। स्टाफ़ ने तुरंत पायलट को सुचना दी और उन्होंने किसी डॉक्टर के लिए घोषणा की।”

डॉ. राजपूत यह घोषणा सुनकर तुरंत मरीज के पास पहुँचे और चेक-अप शरू किया। डॉ. राजपूत ने बताया कि जाधव की ना तो सांस चल रही थी और ना ही धड़कन, जिसका मतलब था कि उसे दिल का दौरा पड़ा है। डॉ. राजपूत ने तुरंत उन को सीपीआर दिया पर इसका भी कोई फायदा नहीं हुआ।

जाधव अपनी पत्नी और एक और जोड़े के साथ सफ़र कर रहे थे। उनकी मदद से डॉ. राजपूत मरीज को थोड़ी खुली जगह पर लेकर गये। इसके बाद डॉ. राजपूत ने एयरलाइन स्टाफ़ से तुरंत जरूरी मेडिकल उपकरण लाने के लिए कहा। सभी एयरलाइन्स में ये मेडिकल उपकरण और मेडिकल किट रखना अनिवार्य होता है ताकि किसी भी मेडिकल इमरजेंसी में जरुरतमन्द की मदद की जा सके।

डॉ. राजपूत ने जाधव की धड़कन वापिस लाने के लिए उन्हें शॉक देने का निश्चय किया और शॉक के बाद उन्होंने सीपीआर जारी रखा। तब जाकर कहीं जाधव की सांस वापिस आई और वे होश में आये। फ्लाइट में उपस्थित एक छोटे से ऑक्सीजन सिलिंडर पर जाधव को रखा गया।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए फ्लाइट की लैंडिंग लगभग 10: 15 बजे पुणे में हुई। यहाँ से जाधव को उनके परिवारजनों के साथ एयरपोर्ट के अस्पताल भेजा गया। डॉ. राजपूत ने कहा कि उन्हें ख़ुशी है कि वे जाधव की समय रहते मदद कर उनकी जान बचा पाए।


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पुणे: आदिवासी महिलाओं को पुराने कपड़ों से पैड बनाने की ट्रेनिंग दे रहा है यह युवक!

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ज भी हमारे समाज में ‘माहवारी’ यानी कि पीरियड्स के बारे में खुलेआम बात करना शर्म का मुद्दा समझा जाता है। ऐसा विषय, जिसके बारे में जानते सब हैं लेकिन फिर भी बातचीत सिर्फ़ चारदीवारी में ही होती है। खासकर कि ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NHFS-4) के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 15 से 24 साल की उम्र की केवल 42 फीसदी महिलाएँ ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि लगभग 62% महिलाएँ पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं।

ऐसे हालातों में, महाराष्ट्र के पुणे में ‘समाजबंध’ नामक एक एनजीओ ने पीरियड्स के दौरान महिलाओं की सुरक्षा व स्वच्छता की दिशा में एक पहल की है। यह संगठन पुराने कपड़ों से सैनिटरी नैपकिन बनाता है और उन्हें आसपास के गांवों में आदिवासी महिलाओं को बाँट देता है।

बच्चों के साथ ‘समाजबंध’ की टीम

इतना ही नहीं, संगठन के कार्यकर्ता इन औरतों को सैनिटरी नैपकिन बनाना भी सिखा रहे हैं। समाजबंध के फाउंडर, सचिन आशा सुभाष ने साल 2016 में यह पहल शुरू की। सचिन ने कानून की पढ़ाई की है। इस पहल को शुरू करने की प्रेरणा उन्हें अपने घर से ही मिली।

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दरअसल, सचिन की माँ को पीरियड्स में सही देखभाल ना करने की वजह से अपना गर्भाशय निकलवाने के लिए सर्जरी करवानी पड़ी।

इसके बाद, सचिन को समझ आया कि ‘माहवारी’ औरतों की ज़िन्दगी का बहुत अहम हिस्सा है। हमेशा से ही सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे 26 वर्षीय सचिन ने निर्णय लिया कि वे ग्रामीण और आदिवासी इलाके की जरुरतमन्द महिलाओं को मुफ़्त में एक स्वच्छ जीवन प्रदान करेंगे।

अपने इस नेक काम में मदद के लिए उन्होंने सोशल मीडिया के जरिये और भी लोगों से अपील की। उन्होंने बताया कि उन्होंने महीनों तक पहले रिसर्च की कि ग्रामीण औरतों को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है। सचिन को इस दौरान अहसास हुआ कि भले ही सैनिटरी नैपकिन सस्ती कीमतों पर बेचे जाएँ, लेकिन महिलाओं को इसे खरीदने में झिझक होगी और उसकी वजह है इस विषय पर लोगों की शर्म।

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इस तरह की हर एक चुनौती का सामना कर पिछले दो सालों में समाजबंध पुणे के आसपास के आदिवासी गांवों में लगभग 2000 महिलाओं तक पहुंचने में सफल रहा है।

लोगों में जागरूकता लाने के साथ-साथ उनकी पहल इको-फ्रेंडली भी है। वे पुराने कपड़ों से सैनिटरी नैपकिन बनाते हैं और इन सैनिटरी नैपकिन को अच्छे से धोकर फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है।


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पुणे: बस में चोरी हुआ युवक का बटुआ, फ़ूड डिलीवरी बॉय ने की मदद!

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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018 को मुंबई के रहने वाले पुरुषोत्तम डी एक बस में पुणे जा रहे थे। रात के लगभग 10 बजे जब वे अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचे तो उन्हें अहसास हुआ कि किसी ने उनका बटुआ चोरी कर लिया है।

अब पुरुषोत्तम के पास ना तो पैसे थे और ना ही कोई पहचान पत्र। सब कुछ उनके बटुए के साथ चोरी हो चूका था। पुणे में इस स्टॉप से उनके अलगे पड़ाव, पारवती की दुरी लगभग 12 किलोमीटर थी। उनके पास जब कोई विकल्प नहीं बचा तो उन्होंने चलकर जाने का फैसला किया।

लगभग एक घंटे तक चलने के बाद, पुरुषोत्तम बिल्कुल थक गये और लंगड़ा कर चलने लगे। लेकिन पुरुषोत्तम को ऐसे लंगड़ाता हुआ चलते देखकर ज्ञानेश्वर बोम्बड़े खुद को उनकी मदद करने से रोक नहीं पाए। ज्ञानेश्वर, उबर इट्स के लिए खाने की डिलीवरी करने का काम करते हैं। उन्होंने जब पुरुषोत्तम को देखा तो वे तुरंत उनकी मदद के लिए आगे आये।

पुणे मिरर से बात करते हुए, पुरुषोत्तम ने कहा, “यह अनुभव बहुत बुरा था। मेरे पैसे, आईडी, सब चोरी हो गया था और इसलिए मैं पैदल ही अपने पड़ाव की ओर बढ़ने लगा जो कि 12 किलोमीटर दूर था…..”

स्त्रोत: विकिपीडिया

और फिर, लगभग 11:15 बजे, ज्ञानेश्वर उनके पास आये और उनकी मदद की।

“मैंने ज्ञानेश्वर के साथ लगभग 8 किलोमीटर तक सफर किया। उसने मुझे बहुत सांत्वना दी और अच्छा महसूस करवाया और वह भी बिना किसी स्वार्थ के।”

ज्ञानेश्वर, पुरुषोत्तम को उस हालत में देख नहीं पाए क्योंकि वे लगातार लंगड़ाते हुए जा रहे थे। इसीलिए, ज्ञानेश्वर ने उनकी मदद करने का फैसला किया। लेकिन, उसे उस ग्राहक के बारे में भी सोचना था जो अपने घर पर खाने की डिलीवरी का इंतजार कर रहा था।

ज्ञानेश्वर ने बताया कि जब वह पासन सर्कल से गुज़र रहा था तो उसने देखा कि एक आदमी पैर में चोट की वजह से ठीक से चल नहीं पा रहा है। ऐसे में वह उसके पास गया और पूछा कि अगर वह उनकी कोई मदद कर सकता है तो। पुरुषोत्तम ने उससे कहा कि वह उन्हें यूनिवर्सिटी रोड पर कहीं छोड़ दे। लेकिन फिर ज्ञानेश्वर ने जोर देकर कहा कि वह उन्हें उनके ठहरने के स्थान के आस-पास कहीं छोड़ देगा क्योंकि फिर उसे दो जगह खाने की डिलीवरी के लिए जाना है।

ज्ञानेश्वर, महाराष्ट्र के लातूर से ताल्लुक रखते हैं और फ़िलहाल एम.ए. में पढ़ रहे हैं। शहर में अपना खर्च चलाने के लिए वे रात को डिलीवरी बॉय का काम करते हैं।

“मुझे बुरा लग रहा था कि उन्हें पूरी रात मेरे साथ घूमना पड़ेगा, इसलिए मैंने उस ग्राहक को फ़ोन करके बताया कि उन्हें 15-20 मिनट अधिक इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि उनका खाना डिलीवर करने में थोड़ा समय लग जाएगा और वे मान गये। यह कोई बड़ी बात नहीं है बस इंसानियत के लिए मैंने एक छोटा-सा काम किया है। मैं कोशिश करता हूँ कि लोगों की मदद आकर पाऊं,” ज्ञानेश्वर ने कहा

अगर ज्ञानेश्वर उस दिन पुरुषोत्तम की मदद के लिए न आते तो शायद उन्हें घंटों चलना पड़ता। इसी तरह के छोटे-छोटे वाकया, आपका विश्वास इंसानियत में बनाये रखते हैं।

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श्रद्धांजलि : 15,000 से भी ज़्यादा बच्चों का सुरक्षित प्रसव करवाने वाली ‘जननी अम्मा’!

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जानी-मानी समाज सेविका और पद्मश्री से सम्मानित सुलागिट्टी नरसम्मा ने 25 दिसंबर 2018 को बंगलुरु में अपनी आखिरी सांस ली। कर्नाटक के एक छोटे-से गांव कृष्णपुरा में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने करीब 15 हजार बच्चों का सुरक्षित प्रसव करवाया था।

मृत्यु के समय उनकी उम्र 98 साल थी। साल 2017 में नरसम्मा को समाज सेवा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान देने के लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री अवॉर्ड से भी नवाजा था।

जानकारी के मुताबिक, कर्नाटक के तुमकुर जिले में जन्मीं नरसम्मा इस इलाके में ‘जननी अम्मा’ के नाम से मशहूर थी। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में करीब 15 हजार गर्भवती महिलाओं का सुरक्षित प्रसव कराया है। दाई का काम उन्होंने अपनी दादी से सीखा था। नरसम्मा ने कभी भी किसी डिलीवरी के लिए कोई पैसे नहीं लिए।

वे पारम्परिक तरीकों से गर्भवती महिला की डिलीवरी करवाती थीं। नरसम्मा वैसे तो अनपढ़ थीं लेकिन वे अपने काम में इतनी माहिर थी कि साल 2014 में उन्हें तुमकुर विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया।

पिछले कई महीनों से नरसम्मा की तबीयत काफी ख़राब थी। उन्हें फेफड़ों की घातक बीमारी के चलते अस्पताल में भारती करवाया गया था। यहाँ उन्हें 3-4 दिन वेंटीलेटर पर रखा गया। लेकिन नरसम्मा की तबीयत नहीं सुधरी और फिर 25 दिसंबर को उन्होंने इस दुनिया से विदा ली।

हजारों बच्चों को जीवनदान देने वाली इस ‘जननी अम्मा’ को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि!


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बाबा आमटे: कुष्ठ रोगियों को नया जीवन दान देने के लिए छोड़ दी करोड़ों की दौलत, बन गये समाज-सेवी!

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डॉ. मुरलीधर देवीदास आमटे को सभी लोग ‘बाबा आमटे’ के नाम से जानते हैं। बाबा आमटे भारत के प्रमुख व सम्मानित समाजसेवी थे।

बाबा आमटे का जन्म 26 दिसम्बर 1914 को महाराष्ट्र स्थित वर्धा जिले के हिंगणघाट गाँव में एक ब्राह्मण जागीरदार परिवार में हुआ था। उनके माता-पिता उन्हें लाड़ से ‘बाबा’ कहते थे और बाद में वे ‘बाबा आमटे’ के नाम से ही प्रसिद्द हुए। उनके पिता देवीदास हरबाजी आमटे सरकारी नौकरी पर कार्यरत थे। उनका बचपन राजशाही ठाठ-बाट में बीता।

बाबा आमटे

बचपन से ही बाबा के मन में दूसरों के प्रति सेवा भाव और भरपूर करुणा भरी हुई थी। एक बार एक अंधे भिखारी को देख उनका हृदय इतना व्याकुल हो उठा कि उन्होंने उसकी झोली रुपयों से भर दी। तब वे केवल 9 साल के थे। उस वक़्त शायद ही कोई सोच सकता था, कि एक दिन यही बालक गरीबों और जरुरतमंदों के लिए उनका मसीहा बनकर उभरेगा।

वकालत की पढ़ाई करने वाले बाबा आमटे शहीद राजगुरु के साथी रहे। उन पर विनोबा भावे के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा। उनसे प्रेरित होकर उन्होंने पूरे भारत का दौरा किया। इस दौरान लोगों की गरीबी और दुःख-दर्द ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इनकी सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

वकील बाबा आमटे

उन दिनों कुष्ठ रोग यानी कि कोढ़ की बीमारी को दैवीय श्राप माना जाता था और कोढ़ रोगियों को समाज से बाहर कर दिया जाता था। न तो उनके लिए कोई इलाज था और न ही कोई उन्हें अपने यहाँ आश्रय देता था। एक दिन बाबा आमटे ने एक कोढ़ी को तेज बारिश में भीगते देखा, लेकिन कोई भी व्यक्ति उसकी मदद को आगे नहीं बढ़ रहा था। उन्होंने सोचा कि अगर इसकी जगह मैं होता तो क्या होता? उसी क्षण बाबा ने उस रोगी को उठाया और अपने घर की ओर चल दिए।

इस घटना ने उनके मन पर गहरा प्रभाव डाला और इस रोग के बारे में और अधिक अध्ययन करने के इरादे से ही उन्होंने 1951 में कलकत्ता के ‘स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन्स’ में प्रवेश लिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी साधना ताई के साथ महलों जैसा घर छोड़कर कुष्ठ रोगी, विकलांग आदि जरुरतमंदों की सेवा करने का प्रण लिया।

महाराष्ट्र के चंद्रपुर में वरोड़ा के पास उन्होंने घने जंगल में अपनी पत्नी साधनाताई, दो पुत्रों, एक गाय एवं सात रोगियों के साथ आनंदवन की स्थापना की। इसी जगह से उन्होंने ‘महारोगी सेवा समिति की शुरुआत भी की। यही आनंदवन आज बाबा आमटे और उनके सहयोगियों की कड़ी मेहनत से हताश और निराश कुष्ठ रोगियों के लिए सम्मानजनक जीवन जीने का केंद्र बन चुका है।

बाबा आमटे और साधना ताई

जब बाबा आमटे यहाँ आये थे, तो यहाँ पथरीली जमीन, घने वन और वन्यजीवों के अलावा कुछ नही था। पर बाबा आमटे और साधना ताई की मेहनत ने इस जगह को सही मायनों में आनंदवन बना दिया। आश्रम में रहते हुए वे कुष्ठ रोगियों की सेवा में लग गए। उन्होंने आश्रम के परिवेश को ऐसा बनाया, जहाँ कुष्ठ रोगी सम्मान से जीवन जी सकें तथा यथा क्षमता आश्रम की गतिविधियों में योगदान दे सकें।

इतना ही नहीं, उनके त्याग की भावना इतनी प्रबल थी कि उन्होंने जानते-बूझते अपने शरीर में कोढ़ को पनपने दिया ताकि इस रोग के लिए बनने वाली विभिन्न औषधियों का उनके शरीर पर प्रयोग किया जा सके।

आनंदवन में स्थित एक हेंडीक्राफ्ट शॉप

साल 1985 में बाबा ने ‘भारत जोड़ो’ आन्दोलन शुरू किया, जिसे वे कश्मीर से कन्याकुमारी तक ले गए। इस आन्दोलन का उद्देश्य देश में अखंडता व एकता की भावना को जगाना और शान्ति व पर्यावरण की रक्षा का सन्देश घर-घर फैलाना था।

साल 1990 में उन्होंने नर्मदा के किनारे अपना डेरा डाला। दरअसल, सरदार सरोवर बाँध का निर्माण नर्मदा नदी और उसके किनारे बसे स्थानीय निवासियों के लिए एक खतरा था। इन लोगों के जीवन के लिए और नर्मदा को बचाने के लिए बाबा आमटे ने ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ शुरू किया।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन

लेकिन बाबा आमटे की यात्रा यहीं नहीं रुकनी थी। उन्होंने आनंदवन की ही तर्ज पर नागपुर के उत्तर में अशोकवन बनाया और उसके बाद सोमनाथ में भी ऐसे ही एक आश्रम की स्थापना की गयी। आनंदवन की ही तरह इन सब स्थानों में विकलांगों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था की गई। यहाँ भी हज़ारों कुष्ठ रोगियों का इलाज किया जाता है और उन्हें फिर से अपना जीवन जीने का अवसर मिलता है।

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के हेमलकसा कस्बे में बाबा आमटे ने ‘लोक बिरादरी प्रकल्प’ की स्थापना भी की। इस संस्था का उद्देश्य आदिवासियों का कल्याण है। यहाँ आदिवासी बच्चों के लिए एक स्कूल भी बना है, जहां आज 650 के आस पास बच्चे पढ़ते हैं।

आदिवासी-कल्याण के लिए संस्था

बाबा आमटे को उनके कार्यों के लिए बहुत से पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। भारत सरकार की ओर से उन्हें 1971 में पद्मश्री दिया गया और 1980 में वे पद्मविभूषण से अलंकृत हुए। उन्हें साल 1983 में अमेरिका के ‘डेमियन डट्टन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। इसे कुष्ठ रोग के क्षेत्र में कार्य के लिए दिया जानेवाला सर्वोच्च सम्मान कहा जाता है।

एशिया के नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले रेमन मैगसेसे (फिलीपीन) से उन्हें 1985 में अलंकृत किया गया। महाराष्ट्र सरकार नें उन्हें  सर्वोच्च सम्मान ‘महाराष्ट्र भूषण’ से सम्मानित किया। इन सभी सम्मानों के अलावा उन्होंने और भी अनगिनत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया। ताउम्र लोगों की सेवा करने वाले बाबा आमटे ने साल 2008 में 9 फरवरी को 94 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा ली।

उन्होंने ‘गाँधी शांति पुरस्कार’ से भी नवाज़ा गया

बाबा आमटे की विरासत को उनके बेटों और बहुओं ने आगे बढ़ाया। इतना ही नहीं आज आमटे परिवार की तीसरी पीढ़ी, यानी कि बाबा आमटे के पोते और पोती भी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। बाबा आमटे के नक्शेकदम पर चलते हुए आज उनका पूरा परिवार जरूरतमंदों की सेवा कर रहा है। जिस आनंदवन को कभी बाबा आमटे ने 14 रूपये से शुरू किया था, आज वहां इन रोगियों के इलाज और रहने-खाने के लिए करोड़ों रूपये खर्च किये जाते है।

आज स्व-संचालित आनंदवन आश्रम में तक़रीबन 5000 लोग रहते है। महाराष्ट्र के आनंदवन का सामाजिक विकास प्रोजेक्ट आज पूरे विश्व में अपनी पहचान बना रहा है।

बाबा आमटे ने अपना सारा जीवन परोपकार के लिए समर्पित कर दिया। इस महान व्यक्ति को तहे दिल से श्रद्धांजलि!

संपादन – मानबी कटोच


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बाज़ार से प्लास्टिक का नहीं बल्कि खुद बीज बो कर उगाया अपना क्रिसमस ट्री!

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क्रिसमस का इंतजार सबको होता है खासकर कि बच्चों को। एक हफ़्ता पहले से ही बच्चे अपने स्कूल, घरों में क्रिसमस के पेड़ की सजावट शुरू कर देते हैं। अक्सर, क्रिसमस के लिए हम बाज़ार से प्लास्टिक के नकली पेड़ लेकर आते हैं। बेशक, सितारे, बर्फ की बूंदों, तोहफ़ों और मोतियों के साथ एलईडी लाइट्स से सजा हुआ यह क्रिसमस का पेड़ बहुत ही खुबसूरत लगता है।

पर, इस क्रिसमस पर केरल में वायनाड जिले के अम्बलावाया गाँव के निवासी एलन ने कुछ अलग ही तरह का क्रिसमस पेड़ बनाया। एलन अभी नौवीं कक्षा में पढ़ रहे हैं, लेकिन इस बच्चे की समझदारी बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा है।

दरअसल, एलन ने क्रिसमस डे के लिए एक इको-फ्रेंडली तरीके से क्रिसमस पेड़ बनाया है। इसके लिए एलन ने एक बड़े बांस के फ्रेम को मिट्टी से अच्छे से ढका और फिर इस मिट्टी में कंगनी (मलयालम में थीना) के बीज बो दिए। कंगनी या टांगुन, मोटे अन्नों/अनाजों में दूसरी सबसे अधिक बोई जाने वाली फसल है, खासतौर पर पूर्वी एशिया में। इसे ‘चीनी बाजरा’ भी कहते हैं।

क्रिसमस पेड़ का आकर और उसमें बोये गये बीज (साभार: सतीश कुमार फेसबुक पेज)

एलन हर दिन इन पौधों में पानी भी देते हैं। लगातार 3-4 दिन तक पानी देने से, सभी बीज अंकुरित हो जायेंगे और फिर यह एक हरे-भरे क्रिसमस पेड़ की तरह दिखाई देगा।

एलन और उसके इस इको-फ्रेंडली क्रिसमस पेड़ के बारे में एक फेसबुक यूजर सतीश कुमार ने अपनी एक पोस्ट के जरिये बताया। सतीश ने लिखा कि उसने जब रास्ते में एलन में और उसकी इस पहल को देखा तो उसने निश्चय किया कि इसे और भी लोगों से साँझा किया जाना चाहिए।

पर सतीश ने खेद भी जताया है कि वह इस पोस्ट को जल्द से जल्द शेयर करना चाहता था और इसलिए, इन बीजों को अंकुरित होने तक का इंतजार नहीं कर पाया। हालांकि, उसे पौधे उगने के बाद की तस्वीर भी डालनी चाहिए थी।

एलन की यह पहल यकीनन काबिल-ए-तारीफ है। बाज़ार से प्लास्टिक आदि से बने नकली क्रिसमस ट्री खरीदने की बजाय हमें बच्चों को हरियाली का महत्व समझाते हुए उन्हें खुद का पेड़ उगाने की सलाह देनी चाहिए।


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बीना दास : 21 साल की इस क्रांतिकारी की गोलियों ने उड़ा दिए थे अंग्रेज़ों के होश!

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तारीख

6 फरवरी 1932

इतिहास का वह स्वर्णिम दिन, जब 21 साल की एक भारतीय लड़की की हिम्मत ने अंग्रेज़ों के होश उड़ा दिए थे। साथ ही, इस लड़की ने उस रुढ़िवादी सोच को भी जड़ से हिला दिया, कि हथियार चलाना सिर्फ पुरुषों काम है।

यह 21 साल की लड़की थी बीना दास। बंगाल के कृष्णानगर में 24 अगस्त 1911 को प्रसिद्द ब्रह्मसमाजी शिक्षक बेनी माधव दास और समाज सेविका सरला देवी के घर जन्मी बीना बचपन से ही क्रांतिकारी स्वाभाव की थी। उनके पिता माधव दास उस समय के प्रसिद्द शिक्षक थे और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता भी उनके छात्र रहे थे।

बीना की बड़ी बहन कल्याणी दास भी स्वतंत्रता सेनानी रहीं। अपने स्कूल के दिनों से ही दोनों बहनों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने वाली रैलियों और मोर्चों में भाग लेना शुरू कर दिया था। इनकी माता सरला देवी भी सार्वजनिक कार्यों में बहुत रुचि लेती थीं और निराश्रित महिलाओं के लिए उन्होंने ‘पुण्याश्रम’ नामक संस्था भी बनाई थी।

बीना दास (साभार: फेसबुक)

साल 1928 में अपनी स्कूल की शिक्षा के बाद वे छात्री संघ (महिला छात्र संघ) में शामिल हो गयीं। यह संघ ब्राह्मो गर्ल्स स्कूल, विक्टोरिया स्कूल, बेथ्यून कॉलेज, डायोकेसन कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं का समूह था। बंगाल में संचालित इस समूह में 100 सदस्य थे, जो भविष्य के लिए क्रांतिकारियों को इसमें भर्ती करते और साथ ही ट्रेनिंग भी देते थे।

संघ में सभी छात्राओं को लाठी, तलवार चलाने के साथ-साथ साइकिल और गाड़ी चलाना भी सिखाया जाता था। इस संघ में शामिल कई छात्राओं ने अपना घर भी छोड़ दिया था और ‘पुण्याश्रम’ में रहने लगीं, जिसका संचालन बीना की माँ सरला देवी करती थीं। हालांकि, यह छात्रावास बहुत सी क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ भी था। यहाँ के भंडार घर में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए हथियार, बम आदि छिपाए जाते थे।

बताया जाता है कि कमला दास ने ही बीना को रिवोल्वर लाकर दी थी। साथ ही वे टिन के बक्सों में बाकी क्रांतिकारियों के लिए बम आदि भी लाती थीं।

कलकत्ता के ‘बेथ्युन कॉलेज’ में पढ़ते हुए 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना ने अपनी कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया। वे स्वयं सेवक के रूप में कांग्रेस अधिवेशन में भी सम्मिलित हुईं। इसके बाद वे ‘युगांतर’ दल के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आईं। उन दिनों क्रांतिकारियों का एक काम बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना था कि भारतीय उनसे कितनी नफ़रत करते हैं।

6 फ़रवरी, 1932 को बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैक्सन को कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को दीक्षांत समारोह में उपाधियाँ बाँटनी थीं। बीना दास को बी.ए. की परीक्षा पूरी करके दीक्षांत समारोह में अपनी डिग्री लेनी थी। उन्होंने अपने साथियों से परामर्श करके तय किया कि डिग्री लेते समय वे दीक्षांत भाषण देने वाले बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैक्सन को अपनी गोली का निशाना बनाएंगी।

उन दिनों जैक्सन को ‘जैकर्स’ के रूप में जाना जाता था और उन्होंने इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में अपनी सेवाएँ दी थी, इसलिए उनका नाम काफ़ी मशहूर था।

जैसे ही जैक्सन ने समारोह में अपना भाषण देना शुरू किया, बीना ने भरी सभा में उठ कर गवर्नर पर गोली चला दी। पर बीना का निशाना चुक गया और गोली जैक्सन के कान के पास से होकर गुज़री। गोली की आवाज़ से सभा में अफ़रा-तफ़री मच गयी।

इतने में लेफ्टिनेन्ट कर्नल सुहरावर्दी ने दौड़कर बीना का गला एक हाथ से दबा दिया और दूसरे हाथ से पिस्तोल वाली कलाई पकड़ कर हॉल की छत की तरफ़ कर दी। इसके बावजूद बीना एक के बाद एक गोलियाँ चलाती रहीं। उन्होंने कुल पाँच गोलीयां चलाई। बीना को तुरंत ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

इसके बाद बीना दास सभी अख़बारों की सुर्खियाँ बन गयीं – ‘कलकत्ता की ग्रेजुएशन कर रही एक छात्रा ने गवर्नर को मारने का प्रयास किया!’

‘रीडिंग ईगल’ अख़बार की एक क्लिपिंग

बीना दास पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें नौ साल के कठोर कारावास की सज़ा हुई। मुकदमे के दौरान उन पर काफ़ी दबाव बनाया गया कि वे अपने साथियों का नाम उगल दें, लेकिन बीना टस से मस न हुईं। उन्होंने मुकदमे के दौरान कहा,

“बंगाल के गवर्नर उस सिस्टम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने मेरे 30 करोड़ देशवासियों को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है।”

उन्होंने आगे कहा कि वे गवर्नर की हत्या कर इस सिस्टम को हिला देना चाहती थीं।

गवर्नर स्टेनली जैक्सन(बाएं) और ग्लासगो हेराल्ड में छपा एक लेख (दायें)
स्त्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स/गूगल समाचार पत्र

सज़ा मिलने से पहले उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में कहा,

“मैं स्वीकार करती हूँ, कि मैंने सीनेट हाउस में अंतिम दीक्षांत समारोह के दिन गवर्नर पर गोली चलाई थी। मैं खुद को इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार मानती हूँ। अगर मेरी नियति मृत्यु है, तो मैं इसे अर्थपूर्ण बनाना चाहती हूँ, सरकार की उस निरंकुश प्रणाली से लड़ते हुए जिसने मेरे देश और देशवासियों पर अनगिनत अत्याचार किये हैं….”

उनके संस्मरण, ‘जीबन अध्याय’ में उनकी बहन कल्याणी दास ने लिखा है कि कैसे भाग्य ने दोनों बहनों को फिर से एक साथ ला खड़ा किया था जब उन्हें भी हिजली कैदखाने में लाकर बंद कर दिया गया था। बाद में इस जगह को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया।

मकरंद परांजपे द्वारा लिखे गए इस संस्मरण की एक समीक्षा के अनुसार, बीना अपने साथियों के साथ भूख हड़ताल करके अपनी दर्द सहने की क्षमता को जांचती थीं। इतना ही नहीं वह कभी जहरीली चींटियों के बिल पर अपना पैर रख देती तो कभी अपनी उँगलियों को लौ पर और इस तरह देखा जाए तो वे सही मायनों में ‘आग से खेलती थी’!

बीना दास- एक संस्मरण

कितनी भी मुश्किलें और चुनौतियाँ बीना के रास्ते में आई हों, लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता के लिए लड़ना नहीं छोड़ा। साल 1937 में प्रान्तों में कांग्रेस सरकार बनने के बाद अन्य राजबंदियों के साथ बीना भी जेल से बाहर आईं। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय उन्हें तीन वर्ष के लिये नज़रबन्द कर लिया गया था। 1946 से 1951 तक वे बंगाल विधान सभा की सदस्या रहीं। गांधी जी की नौआख़ाली यात्रा के समय लोगों के पुनर्वास के काम में बीना ने भी आगे बढ़कर हिस्सा लिया था।

उन्होंने 1947 में अपने साथी स्वतंत्रता सेनानी ज्योतिष भौमिक से शादी की, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में भाग लेती रहीं। अपने पति की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता छोड़कर, ज़माने की नजरों से दूर ऋषिकेश के एक छोटे-से आश्रम में जाकर रहने लगीं थीं। अपना गुज़ारा करने के लिए उन्होंने शिक्षिका के तौर पर काम किया और सरकार द्वारा दी जाने वाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन को लेने से इंकार कर दिया।

देश के लिए खुद को समर्पित कर देने वाली इस वीरांगना का अंत बहुत ही दुखदपूर्ण था। महान स्वतंत्रता सेनानी, प्रोफेसर सत्यव्रत घोष ने अपने एक लेख, “फ्लैश बैक: बीना दास – रीबोर्न” में उनकी मार्मिक मृत्यु के बारे में लिखा है। उन्होंने कहा,

“उन्होंने सड़क के किनारे अपना जीवन समाप्त किया। उनका मृत शरीर बहुत ही छिन्न-भिन्न अवस्था में था। रास्ते से गुज़रने वाले लोगों को उनका शव मिला। पुलिस को सूचित किया गया और महीनों की तलाश के बाद पता चला कि यह शव बीना दास का है। यह सब उसी आज़ाद भारत में हुआ जिसके लिए इस अग्नि-कन्या ने अपना सब कुछ ताक पर रख दिया था। देश को इस मार्मिक कहानी को याद रखते हुए, देर से ही सही, लेकिन अपनी इस महान स्वतंत्रता सेनानी को सलाम करना चाहिए।”

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संपादन – मानबी कटोच


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2018 में भारत में हुए ये 15 महत्वपूर्ण खोज; भारतीय वैज्ञानिकों का रहा यह साल!

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वर्ष 2018 में भारतीय वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों ने अंतरिक्ष और रक्षा क्षेत्र से जुड़े विभिन्न अभियानों में कई अभूतपूर्व सफलताएं हासिल की हैं। लेकिन, वर्ष 2018 की वैज्ञानिक उपलब्धियां महज यहीं तक सीमित नहीं रही हैं। अंतरिक्ष एवं रक्षा क्षेत्र के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय वैज्ञानिकों ने कई उल्लेखनीय शोध किए हैं। नैनोटेक्नोलॉजी से लेकर अंतरिक्ष मौसम विज्ञान तक विविध क्षेत्रों में हो रहे वैज्ञानिक विकास, नई तकनीकों और उन्नत प्रौद्योगिकियों से जुड़ी खबरें लगभग पूरे साल सुर्खियां बनती रही हैं। यहां वर्ष 2018 की ऐसी 15 कहानियों का संग्रह दिया जा रहा है, जो भारतीय वैज्ञानिकों के कार्यों की झलक प्रस्तुत करती हैं।

 

  1. किसानों को जहरीले कीटनाशकों से बचाने वाला जैल

 

किसानों द्वारा खेतों में रसायनों का छिड़काव करते समय कोई सुरक्षात्मक उपाय नहीं अपनाने से उनको विषैले कीटनाशकों का शिकार बनना पड़ता है। इंस्टीट्यूट फॉर स्टेम सेल बायोलॉजी ऐंड रीजनरेटिव मेडिसिन के वैज्ञानिकों ने त्वचा पर लगाने वाला “पॉली-ऑक्सीम” नामक एक सुरक्षात्मक जैल बनाया है, जो जहरीले रसायनों को ऐसे सुरक्षित पदार्थों में बदल देता है, जिससे वे मस्तिष्क और फेफड़ों जैसे अंगों में गहराई तक नहीं पहुंच पाते हैं। शोधकर्ताओं ने एक ऐसा मुखौटा विकसित करने की योजना बनाई है जो कीटनाशकों को निष्क्रिय कर सकता है।

  1. उत्कृष्ट तकनीक से बना दुनिया का सबसे पतला पदार्थ

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के शोधकर्ताओं ने नैनो तकनीक की मदद से एक ऐसा पतला पदार्थ बनाया है, जो कागज के एक पन्ने से भी एक लाख गुना पतला है। उन्होंने मैग्नीशियम डाइबोराइड नामक बोरॉन यौगिक द्वारा सिर्फ एक नैनोमीटर (मनुष्य के बाल की चौड़ाई लगभग 80,000 नैनोमीटर होती है) मोटाई वाला एक द्विआयामी पदार्थ तैयार किया है। इसे दुनिया का सबसे पतला पदार्थ कहा जा सकता है। इसका उपयोग अगली पीढ़ी की बैटरियों से लेकर पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने वाली फिल्मों के निर्माण में किया जा सकता है।

  1. केले के जीनोम का जीन संशोधन

राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, मोहाली के शोधकर्ताओं ने जीन संशोधन की क्रिस्पर/सीएएस9 तकनीक की मदद से केले के जीनोम का संशोधन किया है। भारत में किसी भी फल वाली फसल पर किया गया अपनी तरह का यह पहला शोध है। सकल उत्पादन मूल्य के आधार पर गेहूं, चावल और मक्का के बाद केला चौथी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल मानी जाती है। केले की पोषक गुणवत्ता में सुधार, खेती की दृष्टि से उपयोगी गुणों के समावेश और रोग प्रतिरोधी किस्मों के विकास में जीन संशोधन तकनीक अपनायी जा सकती है।

  1. जीका, डेंगू, जापानी एन्सेफ्लाइटिस और चिकनगुनिया से निपटने के लिए की गईं खोजें

हरियाणा के मानेसर में स्थित राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र (एनबीआरसी) के वैज्ञानिकों ने शिशुओं में माइक्रोसिफेली या छोटे सिर होने के लिए जिम्मेदार जीका वायरस की कोशिकीय और आणविक प्रक्रियाओं का पता लगाया है। शोधकर्ताओं ने पाया कि जीका वायरस के आवरण में मौजूद प्रोटीन मनुष्य की तंत्रिका स्टेम कोशिकाओं की वृद्धि दर को प्रभावित करता है और दोषपूर्ण तंत्रिकाओं के विकास को बढ़ावा देता है। एक अन्य शोध में फरीदाबाद स्थित रीजनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक प्रमुख प्रोटीन की पहचान की है, जो एंटी-वायरल साइटोकिन्स को अवरुद्ध करके डेंगू और जापानी एन्सेफलाइटिस वायरस को बढ़ने में मदद करता है। यह खोज डेंगू और जापानी एन्सेफलाइटिस के लिए प्रभावी दवा बनाने में मददगार हो सकती है। इसी तरह, एमिटी विश्वविद्यालय, नोएडा, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली और महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के शोधकर्ताओं ने चिकनगुनिया का पता लगाने के लिए मोलिब्डेनम डाइसल्फाइड नैनोशीट की मदद से एक बायोसेंसर विकसित किया है।

  1. तपेदिक की शीघ्र पहचान करने वाली परीक्षण विधि

ट्रांसलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, फरीदाबाद और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों ने फेफड़ों और उनके आसपास की झिल्ली में क्षयरोग संक्रमण के परीक्षण के लिए अत्यधिक संवेदनशील, अधिक प्रभावी और तेज विधियां विकसित की हैं। बलगम के नमूनों में जीवाणु प्रोटीन का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी आधारित वर्तमान विधियों के विपरीत इन नयी विधियों में बलगम में जीवाणु प्रोटीन का पता लगाने के लिए एपटामर लिंक्ड इमोबिलाइज्ड सॉर्बेंट एसे (एलिसा) और इलेक्ट्रोकेमिकल सेंसर (ईसीएस) का उपयोग होता है।

  1. पंजाब के भूजल में मिला आर्सेनिक

भूजल में आर्सेनिक के अधिक स्तर के कारण मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, असम, मणिपुर और छत्तीसगढ़ को ही प्रभावित माना जाता रहा है। लेकिन, अब पंजाब के भूमिगत जल में भी आर्सेनिक की भारी मात्रा होने का पता चला है। नई दिल्ली स्थित टेरी स्कूल ऑफ एडवांस स्टडीज के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नये अध्ययन में पंजाब के बाढ़ प्रभावित मैदानी क्षेत्रों के भूमिगत जल में आर्सेनिक का अत्यधिक स्तर पाया गया है। यहां भूजल में आर्सेनिक स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के निर्धारित मापदंड से 20-50 गुना अधिक पाया गया है।

  1. अंतरिक्ष मौसम चेतावनी मॉडल ने लघु हिम युग को किया खारिज

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आइजर) कोलकाता के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित एक मॉडल की गणनाओं के आधार पर आगामी सनस्पॉट (सौर कलंक) चक्र के शक्तिशाली होने की अवधारणा को नकार दिया गया है। आगामी सनस्पॉट चक्र-25 में पृथ्वी के निकट और अंतर-ग्रहीय अंतरिक्ष में पर्यावरणीय परिस्थितयां तथा जलवायु को प्रभावित करने वाले सौर विकिरण के मान वर्तमान सौर चक्र के दौरान पिछले एक दशक में प्रेक्षित मानों के समान या थोड़ा अधिक होंगे। इस विधि द्वारा अगले सनस्पॉट चक्र की शक्तिशाली चरम सक्रियता में पहुंचने की भविष्यवाणियां एक दशक पहले की जा सकती हैं।

  1. ऑटिज्म की पहचान के लिए नया टूल

कई मामलों में, ऑटिज्म या स्वलीनता को मंदबुद्धि और अटेंशन डेफिसिट हाइपर-एक्टिविटी डिस्ऑर्डर नामक मानसिक विकार समझ लिया जाता है। रोग की शीघ्र पहचान और हस्तक्षेप से बच्चों में स्वलीनता विकारों को समझने में सहायता मिल सकती है। इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए, चंडीगढ़ के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के वैज्ञानिकों ने ऑटिज्म वाले बच्चों की जांच के लिए एक भारतीय टूल विकसित किया है। चंडीगढ़ ऑटिज्म स्क्रीनिंग इंस्ट्रूमेंट (सीएएस) को सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को ऑटिज्म की शुरुआती जांच में मदद करने के लिए तैयार किया गया है।       

  1. अल्जाइमर और हंटिंगटन के इलाज की नई आशा

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएससी), बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने अल्जाइमर रोग के लिए जिम्मेदार उन शुरुआती लक्षणों का पता लगाया है, जिससे यादाश्त कम होने लगती है। उन्होंने पाया है कि मस्तिष्क में फाइब्रिलर एक्टिन या एफ-एक्टिन नामक प्रोटीन के जल्दी टूटने से तंत्रिका कोशिकाओं के बीच संचार में व्यवधान होता है और इसके परिणामस्वरूप स्मृति की कमी हो जाती है। इस शोध का उपयोग भविष्य में रोग की प्रारंभिक जांच परीक्षण विधियां विकसित करने के लिए किया जा सकता है। फल मक्खियों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में, दिल्ली विश्वविद्यालय के आनुवांशिकी विभाग के शोधकर्ताओं ने पाया है कि मस्तिष्क की न्यूरोनल कोशिकाओं में इंसुलिन सिग्नलिंग को बढ़ाकर हंटिंग्टन रोग का बढ़ना रोका जा सकता है।

  1. प्लास्टर ऑफ पेरिस से होने वाले प्रदूषण से मुक्ति दिलाने वाली हरित तकनीक

पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (सीएसआईआर-एनसीएल) के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी पर्यावरण हितैषी तकनीक विकसित की है, जो किफायती तरीके से अस्पतालों से प्लास्टर ऑफ पेरिस अपशिष्टों को पुनर्चक्रित करने में मदद करती है। इस तकनीक की सहायता से अपशिष्ट को असंक्रमित करके उससे अमोनियम सल्फेट और कैल्शियम बाइकार्बोनेट जैसे उपयोगी उत्पाद बनाए जा सकते हैं। नदियों एवं अन्य जलाशयों में विसर्जित की जाने वाली प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को विघटित करने के लिए भी इस तकनीक का उपयोग किया जा सकता है।

  1. भारतीय सभ्यता पर रोशनी डालते पाषाण युगीन उपकरण और आनुवांशिक अध्ययन

चेन्नई के पास एक गांव में खोजे गए पाषाण युग के उपकरणों से पता चला है कि लगभग 385,000 साल पहले भारत में मध्य पुरापाषाण सभ्यता मौजूद थी। लगभग उसी काल के दौरान यह सभ्यता अफ्रीका और यूरोप में भी विकसित थी। भारत के मध्य पुरापाषाण सभ्यता के उस दौर में ले जाने वाली यह खोज उस लोकप्रिय सिद्धांत को चुनौती देती है, जिसमें कहा गया है कि  आधुनिक मानवों द्वारा लगभग 125,000 साल पहले या बाद में मध्य पुरापाषाण सभ्यता अफ्रीका से भारत आई थी। वहीं, उत्तर भारत के आधुनिक हरियाणा में रहने वाले रोड़ समुदाय के लोगों के बारे में किए गए एक अन्य जनसंख्या आनुवंशिक अध्ययन से पता चला है कि ये लोग कांस्य युग के दौरान पश्चिम यूरेशियन आनुवंशिक वंशों से सिंधु घाटी में आए थे।

  1. सिक्किम में स्थापित हुआ भूस्खलन चेतावनी तंत्र

उत्तर-पूर्वी हिमालय के सिक्किम-दार्जिलिंग बेल्ट में एक अतिसंवेदी भूस्खलन चेतावनी तंत्र स्थापित किया गया है। इस चेतावनी तंत्र में 200 से अधिक सेंसर लगाए गए हैं, जो वर्षा, भूमि की सतह के भीतर छिद्र दबाव और भूकंपीय गतिविधियों समेत विभिन्न भूगर्भीय एवं हाइड्रोलॉजिकल मापदंडों की निगरानी करते हैं। यह तंत्र भूस्खलन के बारे में लगभग 24 घण्टे पहले ही चेतावनी दे देता है। इसे केरल स्थित अमृता विश्वविद्यालय और सिक्किम राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के शोधकर्ताओं ने बनाया है।

  1. मौसम की भविष्यवाणी के लिए कम्प्यूटिंग क्षमता में संवर्धन

इस साल भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) ने मौसम पूर्वानुमान और जलवायु निगरानी के लिए अपनी कंप्यूटिंग क्षमता को संवर्धित किया है। इसकी कुल उच्च प्रदर्शन कंप्यूटिंग (एचपीसी) शक्ति को 6.8 पेटाफ्लॉप के उच्चतम स्तर पर ले जाया गया है। इसके साथ ही भारत अब मौसम और जलवायु संबंधी उद्देश्यों के लिए समर्पित एचपीसी संसाधन क्षमता में यूनाइटेड किंगडम, जापान और यूएसए के बाद दुनिया में चौथे स्थान पर पहुंच गया है।

  1. वैज्ञानिकों ने सिल्क पॉलीमर से विकसित की कृत्रिम कशेरुकीय डिस्क

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, गुवाहाटी के वैज्ञानिकों ने सिल्क-आधारित एक ऐसी कृत्रिम जैव डिस्क बनाई है, जिसका भविष्य में डिस्क रिप्लेसमेंट थेरेपी में उपयोग किया जा सकता है। इसके लिए एक “डायरेक्शल फ्रीजिंग तकनीक” द्वारा सिल्क-आधारित कृत्रिम जैव डिस्क के निर्माण की प्रक्रिया विकसित की गई है। यह डिस्क आंतरिक रुप से हूबहू मानव डिस्क की तरह लगती है और उसकी तरह ही काम भी करती है। एक जैव अनुरुप डिस्क को बनाने के लिए सिल्क बायो पॉलीमर का उपयोग भविष्य में कृत्रिम डिस्क की लागत को कम कर सकता है।

  1. कम आर्सेनिक जमाव वाले ट्रांसजेनिक चावल और जल्दी पुष्पण वाली ट्रांसजेनिक सरसों

चावल में आर्सेनिक जमाव की समस्या को दूर करने के लिए, लखनऊ स्थित सीएसआईआर-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई) के शोधकर्ताओं ने कवकीय जीन का इस्तेमाल करते हुए आर्सेनिक का कम जमाव करने वाली चावल की ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित की है। उन्होंने मिट्टी में पाए जाने वाले एक कवक से आर्सेनिक मिथाइलट्रांसफेरेज (वार्सएम) जीन का क्लोन बनाकर उसे चावल के जीनोम में डाला। एक अन्य अध्ययन में, टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज को वैज्ञानिकों ने सरसों की शीघ्र पुष्पण वाली ट्रांसजेनिक किस्म विकसित की है।

विज्ञान के क्षेत्र से जुड़े कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रयासों की बात करें तो उनमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा साइबर-भौतिकीय प्रणालियों के लिए 3660 करोड़ रुपये की लागत से शुरू किया गया पांच वर्षीय राष्ट्रीय मिशन भी शामिल है। इसके अलावा बेंगलुरु में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स ने गतिशील ब्रह्मांड पर नजर रखने के लिए भारत के पहले रोबोटिक टेलीस्कोप को चालू किया है। वहीं, महत्वाकांक्षी भारतीय न्यूट्रिनो वेधशाला (आईएनओ) परियोजना को भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से स्वीकृति मिल गई है। 

भाषांतरण- शुभ्रता मिश्रा

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दिल्ली : अपनी जान जोखिम में डाल कर, ऑटो चालक ने माँ-बेटे को डूबने से बचाया!

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क्सर हम अपनी ही परेशानियों में इतने उलझे हुए होते है कि दूसरों की मदद करना तो दूर, हमारा उनकी मुसीबतों पर ध्यान भी नहीं जाता। पर इस स्वार्थी दुनिया की भीड़ में भी ऐसे कई लोग हैं, जो आज भी दूसरों की मदद करने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं करते। आज की हमारी कहानी के नायक भी ऐसे ही कुछ विरले लोगों में से एक हैं!

जब कभी इंसानियत की बात होगी तो शायद दिल्ली निवासी पवन शाह का ज़िक्र ज़रूर होगा। पवन एक ऑटो चालक थे। 22 दिसंबर 2018 की रोज़, हर दिन की तरह पवन एक सवारी को छोड़ कर लौट रहे थे, कि तभी उन्हें मीठापुर नहर के पुल के रेलिंग पर एक महिला अपने एक साल के बेटे को हाथ में लिए खड़ी दिखाई दी।

पवन को उस महिला की नियत पर संदेह हुआ तो उन्होंने तुरंत अपना ऑटो रोक दिया। लेकिन जब तक पवन उस महिला के पास पहुंचे तब तक उसने अपने बच्चे के साथ पानी में छलांग लगा दी थी।

पवन अपनी जान की परवाह किए बगैर उस महिला को बचाने के लिए पानी में कूद गये। सबसे पहले पवन ने बच्चे का हाथ पकड़कर उसे बचाया। महिला को बचाते हुए पवन समझ गए थे कि वह माँ और बेटे, दोनों को एक साथ नहीं बचा पायेंगे, इसलिए उन्होंने मदद के लिए आवाज़ लगानी शुरू कर दी।

पवन की आवाज़ सुनकर तीन राहगीर – राजवीर, जामिल और संजीव उनकी मदद के लिए आये। इन तीनों ने मिल कर मानव श्रुंखला बनाई और बच्‍चे को पकड़ लिया।

पर पवन इन दोनों को बचाते-बचाते खुद पानी के तेज बहाव में बह गये। महिला और बच्‍चे को अस्‍पताल में भर्ती कराया गया, जहां डॉक्‍टर ने उन्‍हें खतरे से बाहर बताया है। घटना की जानकारी पुलिस को दी गयी , जिसके बाद पवन को तलाशना शुरू किया गया।

पर पवन का अब तक कुछ पता नहीं चल पाया है। उम्मीद और प्रार्थना है कि अपनी जान दांव पर लगाकर दो जीवन दान देने वाले पवन सुरक्षित होंगे।

दक्षिण-पूर्व दिल्‍ली के डीएसपी ने हाल ही में घोषणा की है, कि इस नेक काम के लिए पवन का नाम जीवन रक्षक अवॉर्ड के लिए नामित किया जाएगा।


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हिंदी साहित्य के ‘विलियम वर्ड्सवर्थ’सुमित्रानंदन पंत!

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20वीं सदी के प्रारम्भ में भाषा, भाव, शैली, छंद और अलंकार के बंधनों को तोड़ कर कविताएँ लिखने वाली एक शैली का जन्म हुआ, जिसका पुरानी कविता से कोई मेल न था, इसे नाम दिया गया छायावाद। हिंदी साहित्य के इसी छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक थे सुमित्रा नंदन पंत। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है।

सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा के कैसोनी गांव (अब उत्तराखंड में) में 20 मई 1900 को हुआ था। पंत के जन्‍म के बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था। दादी के लाड़ प्यार में पले पंत ने अपने लिए नाम का चयन भी खुद ही किया। जी हां, पंत का वास्तविक नाम गुसाई दत्त था, जिसे उन्‍होंने बदल कर सुमित्रानंदन पंत रखा।

कविता पाठ करते हुए पंत जी

पंत को हिंदी साहित्य का ‘विलियम वर्ड्सवर्थ’ कहा जाता था। उन्हें ऐसे साहित्यकारों में गिना जाता है, जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। उनके बारे में साहित्यकार राजेन्द्र यादव कहते हैं, “पंत अंग्रेज़ी के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।”

उनकी रचनाओं के अलावा एक और वाकया मशहूर है पंत के बारे में, कि हिंदी सिनेमा जगत के महानायक अभिनेता अमिताभ बच्चन का नामकरण पंत ने ही किया था। पंत और हरिवंश राय बच्‍चन अच्‍छे मित्र थे। जब हरिवंश जी के यहाँ बेटे का जन्म हुआ तो उन्होंने तय किया कि उसका नाम ‘इंकलाब’ रखेंगे। पर पंत को उनके बेटे के लिए ‘अमिताभ’ नाम ज्यादा भाया और हरिवंश ने भी अपने दोस्त की बात रख ली।

बाएं से: हरिवंश राय बच्चन, सुमित्रानंदन पंत और रामधारी सिंह ‘दिनकर’

पंत का पहला काव्य-संग्रह ‘पल्लव’ साल 1926 में प्रकाशित हुआ। संस्कृतनिष्ठ हिंदी में लिखने वाले पंत की 28 रचनाओं में कविताएँ, नाटक और लेख शामिल हैं। जिनमें से ‘खादी के फूल’ उनका और हरिवंश राय बच्चन का संयुक्त काव्य-संग्रह है। कवि के रूप में तो उनकी ख्याति विश्वभर में फैली; लेकिन पंत ने गद्य साहित्य में भी अपना योगदान दिया था। उनके द्वारा लिखे गये कई निबन्ध, आलोचना और समीक्षा आदि प्रकाशित हुए।

प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद से सम्मान प्राप्त करते हुए पंत जी

हिंदी साहित्य सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968), साहित्य अकादमी, तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। साल 1977 में 28 दिसंबर को पंत ने दुनिया से विदा ली। हिंदी साहित्य के इस महान कवि की कुछ कृतियाँ आप हमारे साथ पढ़ सकते हैं।

1. ‘रेखा चित्र’ कविता

चाँदी की चौड़ी रेती,
फिर स्वर्णिम गंगा धारा,
जिसके निश्चल उर पर विजड़ित
रत्न छाय नभ सारा!

फिर बालू का नासा
लंबा ग्राह तुंड सा फैला,
छितरी जल रेखा–
कछार फिर गया दूर तक मैला!

जिस पर मछुओं की मँड़ई,
औ’ तरबूज़ों के ऊपर,
बीच बीच में, सरपत के मूँठे
खग-से खोले पर!

पीछे, चित्रित विटप पाँति
लहराई सांध्य क्षितिज पर,
जिससे सट कर
नील धूम्र रेखा ज्यों खिंची समांतर।

बर्ह पुच्छ-से जलद पंख
अंबर में बिखरे सुंदर
रंग रंग की हलकी गहरी
छायाएँ छिटका कर।

सब से ऊपर निर्जन नभ में
अपलक संध्या तारा,
नीरव औ’ निःसंग,
खोजता सा कुछ, चिर पथहारा!

साँझ,– नदी का सूना तट,
मिलता है नहीं किनारा,
खोज रहा एकाकी जीवन
साथी, स्नेह सहारा!


2. ‘बूढ़ा चाँद’ कविता 

बूढ़ा चांद
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है ।

यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढ़ा प्रहरी
प्रेम की ढाल ।

हाथी दांत की
स्‍वप्‍नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही ।
ओ बाहरी

खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा।

राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढ़ा चांद
कला के विछोह में
म्‍लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया।

पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है।

वही कला,
राका शशि,-
वही बूढ़ा चांद,
छाया शशि है।

महाकवि रबीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखी गई कविता ‘जन-मन-गण’ देश का राष्ट्रगान बन गई और देशभक्ति की एसी ही निर्मल भावना ओत-प्रोत पंत ने भी अपनी कविता ‘राष्ट्र गान’ लिखी। आप यहाँ पढ़ सकते हैं,

3. ‘राष्ट्र गान’ कविता

जन भारत हे!
भारत हे!

स्वर्ग स्तंभवत् गौरव मस्तक
उन्नत हिमवत् हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!

गगन चुंबि विजयी तिरंग ध्वज
इंद्रचापमत् हे,
कोटि कोटि हम श्रम जीवी सुत
संभ्रम युत नत हे,
सर्व एक मत, एक ध्येय रत,
सर्व श्रेय व्रत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!

समुच्चरित शत शत कंठो से
जन युग स्वागत हे,
सिन्धु तरंगित, मलय श्वसित,
गंगाजल ऊर्मि निरत हे,
शरद इंदु स्मित अभिनंदन हित,
प्रतिध्वनित पर्वत हे,
स्वागत हे, स्वागत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!

स्वर्ग खंड षड ऋतु परिक्रमित,
आम्र मंजरित, मधुप गुंजरित,
कुसुमित फल द्रुम पिक कल कूजित
उर्वर, अभिमत हे,
दश दिशि हरित शस्य श्री हर्षित
पुलक राशिवत् हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!

जाति धर्म मत, वर्ग श्रेणि शत,
नीति रीति गत हे
मानवता में सकल समागत
जन मन परिणत हे,
अहिंसास्त्र जन का मनुजोचित
चिर अप्रतिहत हे,
बल के विमुख, सत्य के सन्मुख
हम श्रद्धानत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!

किरण केलि रत रक्त विजय ध्वज
युग प्रभातमत् हे,
कीर्ति स्तंभवत् उन्नत मस्तक
प्रहरी हिमवत् हे,
पद तल छू शत फेनिलोर्मि फन
शेषोदधि नत हे,
वर्ग मुक्त हम श्रमिक कृषिक जन
चिर शरणागत हे,
जन भारत हे,
जाग्रत् भारत हे!


4. ‘दो लड़के’ कविता 

मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर)
दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर!
नंगे तन, गदबदे, साँबले, सहज छबीले,
मिट्टी के मटमैले पुतले, – पर फुर्तीले।

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतरकर
वे चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ सुन्दर-
सिगरेट के खाली डिब्बे, पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े, तस्वीरे नीली पीली
मासिक पत्रों के कवरों की, औ\’ बन्दर से
किलकारी भरते हैं, खुश हो-हो अन्दर से।
दौड़ पार आँगन के फिर हो जाते ओझल
वे नाटे छः सात साल के लड़के मांसल

सुन्दर लगती नग्न देह, मोहती नयन-मन,
मानव के नाते उर में भरता अपनापन!
मानव के बालक है ये पासी के बच्चे
रोम-रोम मावन के साँचे में ढाले सच्चे!
अस्थि-मांस के इन जीवों की ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह- वह सूक्ष्म, अनश्वर!
न्यौछावर है आत्मा नश्वर रक्त-मांस पर,
जग का अधिकारी है वह, जो है दुर्बलतर!

वह्नि, बाढ, उल्का, झंझा की भीषण भू पर
कैसे रह सकता है कोमल मनुज कलेवर?
निष्ठुर है जड़ प्रकृति, सहज भुंगर जीवित जन,
मानव को चाहिए जहाँ, मनुजोचित साधन!
क्यों न एक हों मानव-मानव सभी परस्पर
मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर।
जीवन का प्रासाद उठे भू पर गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने, मानव-हित निश्चय।

जीवन की क्षण-धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित,
रक्त-मांस की इच्छाएँ जन की हों पूरित!
-मनुज प्रेम से जहाँ रह सके, मानव ईश्वर!
और कौन-सा स्वर्ग चाहिए तुझे धरा पर?


5. ‘करुणा’ कविता

शब्दों के कंधों पर
छंदों के बंधों पर
नहीं आना चाहता ।
वे बहुत बोलते हैं ।

तब ?
ध्यान के यान में
सूक्ष्म उड़ान में,
रुपहीन भावों में
तत्व मात्र गात्र धर
खो जाऊँ?
अर्थ हीन प्रकाश में
लीन हो जाऊँ ।
तुम परे ही रहोगी ।

नहीं,…
तुम्हीं को बुलाऊँ
शब्दों भावों में
रूपों रंगों में,
स्वप्नों चावों में,-
तुम्हीं आओ
सर्वस्व हो ।
मैं न पाऊँगा
नि:स्व हो ।


6. ‘वाचाल’ कविता 

‘मोर को
मार्जार-रव क्यों कहते हैं मां’

‘वह बिल्ली की तरह बोलता है,
इसलिए ।’

‘कुत्ते् की तरह बोलता
तो बात भी थी ।
कैसे भूंकता है कुत्ता,
मुहल्ला गूंज उठता है,
भौं-भौं ।’
‘चुप रह !’

‘क्यों मां ?…
बिल्ली बोलती है
जैसे भीख मांगती हो,
म्या उं.., म्या उं..
चापलूस कहीं का ।
वह कुत्ते की तरह
पूंछ भी तो नहीं हिलाती ‘-
‘पागल कहीं का ।’

‘मोर मुझे फूटी आंख नहीं भाता,
कौए अच्छे लगते हैं ।’
‘बेवकूफ ।’

‘तुम नहीं जानती, मां,
कौए कितने मिलनसार,
कितने साधारण होते हैं ।…
घर-घर,
आंगन, मुंडेर पर बैठे
दिन रात रटते हैं
का, खा, गा …
जैसे पाठशाला में पढ़ते हों ।’

‘तब तू कौओं की ही
पांत में बैठा कर ।’

‘क्यों नहीं, मां,
एक ही आंख को उलट पुलट
सबको समान दृष्टि से देखते हैं ।-
और फिर,
बहुमत भी तो उन्हीं का है, मां ।’
‘बातूनी ।’


7. ‘चींटी’ कविता

चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।

गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।

चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।

वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।


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ट्रेनों के रख-रखाव और मरम्मत में मदद करेगा भारतीय रेलवे का ‘उस्ताद’!

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भारतीय रेलवे के नागपुर डिवीज़न ने एक अनोखा रोबोट तैयार किया है। इस रोबोट की खासियत यह है कि इसके जरिए ट्रेन के निचले हिस्से के न सिर्फ फोटोग्राफ लिए जा सकेंगे बल्कि उसके पूरे हिस्से की जांच भी की जा सकती है।

फिलहाल इस तरह की जांच के लिए तकनीकी विशेषज्ञों को कोच के नीचे लेटकर जांच करनी पड़ती है। इस रोबोट को ‘अंडर गियर सर्विलेंस थ्रू आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस असिस्टेड ड्रॉइड’ या ‘उस्ताद‘ (USTAD) नाम दिया है। इस रोबोट के कारण रेलवे कर्मचारियों के लिए काम काफी आसान हो जाएगा। इसकी मदद से ट्रेन के किसी भी पार्ट में आई तकनीकी खराबी को भी आसानी से जांचकर उसकी मरम्मत की जा सकेगी।

इस रोबोट में एचडी कैमरा लगाया गया है, जो 360 डिग्री तक घूम सकता है। इस कैमरे से न सिर्फ फोटो लिया जा सकता है बल्कि उसका विडियो भी तैयार हो सकता है और वाईफाई के जरिए इंजिनियर अपने कमरे में कम्प्यूटर पर इस कैमरे से ली गई फुटेज को देख सकेंगे। अगर किसी पार्ट पर फोकस करना होगा तो ये कैमरे जूम भी कर सकते हैं।

इस रोबॉट में एलईडी फ्लड लाइट भी लगाई गई है। जिससे यह अंधेरे और कम रोशनी में भी फोटो लेने में सक्षम है। साथ ही, यह धीमी से धीमी आवाज को भी सुन सकता है जिससे फ्लैट टायर आदि के बारे में पहले से जानकारी ली जा सकती है।

इससे तकनीशियन को हर तरह की जांच परख में मदद मिलेगी। इस रोबोट में खास तरह के इंटेलिजेंस कैमरों का प्रयोग किया गया है, जो बारीक कमियों को भी बेहद आसानी से पकड़ सकते हैं।

मध्य रेलवे के प्रवक्ता सुनील उदासी ने बताया, “यह वास्तविक समय में वीडियो और कोच के अंडर-गियर भागों की तस्वीरों को रिकॉर्ड करता है और उन्हें वाईफाई पर प्रसारित करता है। इंजीनियर इन वीडियो को बड़े स्क्रीन पर देख सकते हैं और उन्हें रिकॉर्ड भी कर सकते हैं। इंजीनियरों द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार रोबोट के कैमरे को किसी भी दिशा में घुमाया जा सकता है।”

उस्ताद को 4 महीने में तैयार किया है। इसमें करीब 2 लाख रुपए खर्च हुए हैं।


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उत्तर-प्रदेश: महज़ 75 परिवारों के इस गाँव के हर घर में हैं एक आईएएस या आईपीएस अफ़सर!

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त्तर-प्रदेश के जौनपुर जिले के माधोपट्टी गाँव का नाम किसी आम नागरिक ने सुना हो या नहीं लेकिन इस गाँव का नाम प्रशासनिक गलियारों में हर बार सुर्ख़ियों में रहता है। इसके पीछे एक ख़ास वजह है।

कहा जाता है कि इस गाँव में सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी ही जन्म लेते हैं। पूरे जिले में इसे अफ़सरों वाला गाँव कहते हैं। इस गाँव में महज 75 घर हैं, लेकिन यहाँ के 47 आईएएस अधिकारी उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में सेवाएँ दे रहे हैं।

माधोपट्टी गाँव मैप

ख़बरों के मुताबिक, साल 1914 में गाँव के युवक मुस्तफा हुसैन (जाने-माने शायर वामिक़ जौनपुरी के पिता) पीसीएस में चयनित हुए थे। इसके बाद 1952 में इन्दू प्रकाश सिंह का आईएएस की 13वीं रैंक में चयन हुआ। इन्दू प्रकाश के चयन के बाद गाँव के युवाओं में आईएएस-पीसीएस के लिए जैसे होड़ मच गई। इन्दू प्रकाश सिंह फ्रांस सहित कई देशों में भारत के राजदूत भी रहे।

इंदु प्रकाश सिंह (स्त्रोत: विकिपीडिया)

इंदू प्रकाश के बाद गाँव के ही चार सगे भाइयों ने आईएएस बनकर रिकॉर्ड कायम किया। वर्ष 1955 में देश की सर्वक्षेष्ठ परीक्षा पास करने के बाद विनय सिंह आगे चलकर बिहार के प्रमुख सचिव बने। तो वर्ष 1964 में इनके दो सगे भाई छत्रपाल सिंह और अजय सिंह एक साथ आईएएस के लिए चुने गए।

अफ़सरों वाला गाँव कहने पर यहां के लोग ख़ुशी से फूले नहीं समाते हैं। माधोपट्टी के डॉ. सजल सिंह बताते हैं, “ब्रिटिश हुकूमत में मुर्तजा हुसैन के कमिश्नर बनने के बाद गाँव के युवाओं को प्रेरणास्त्रोत मिल गया। उन्होंने गाँव में जो शिक्षा की अलख जगाई, वह आज पूरे देश में नज़र आती है।”

जिला मुख्यालय से 11 किलोमीटर पूर्व दिशा में स्थित माधोपट्टी गाँव में एक बड़ा सा प्रवेश द्वार गाँव के ख़ास होने की पहचान कराता है। करीब 800 की आबादी वाले इस गाँव में अक्सर लाल-नीली बत्ती वाली गाड़ियाँ नजर आती हैं। बड़े-बड़े पदों पर पहुंचने के बाद भी ये अधिकारी अपना गाँव नहीं भूले हैं।

माधोपट्टी गाँव का प्रवेशद्वार

इस गाँव की महिलाएँ भी पुरुषों से पीछे नहीं हैं। आशा सिंह 1980 में, ऊषा सिंह 1982 में, कुवंर चंद्रमौल सिंह 1983 में और उनकी पत्नी इन्दू सिंह 1983 में, अमिताभ 1994 में आईपीएएस बने तो उनकी पत्नी सरिता सिंह 1994 में आईपीएस चुनी गईं।

सजल सिंह बताते हैं, “हमारे गाँव में एजुकेशन लेवल बहुत ही अच्छा है। यहाँ हर घर में एक से अधिक लोग ग्रेजुएट हैं। महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। गाँव का औसतन लिटरेसी रेट 95% है, जबकि यूपी का औसतन लिटरेसी रेट 69.72% है।”

न केवल प्रशासनिक सेवाओं में बल्कि और भी क्षेत्रों में इस गाँव के बच्चे नाम कमा रहे हैं। यहाँ के अमित पांडेय केवल 22 वर्ष के हैं लेकिन इनकी लिखी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस गाँव के अन्मजेय सिंह विश्व बैंक मनीला में है, डॉक्टर नीरू सिंह और लालेन्द्र प्रताप सिंह वैज्ञानिक के रूप में भाभा इंस्टीट्यूट में, तो ज्ञानू मिश्रा राष्ट्रीय अंतरिक्ष संस्थान, इसरो में सेवाएँ दे रहे हैं।

बेशक, सिरकोनी विकास खंड का यह गाँव देश के दूसरे गांवों के लिए एक रोल मॉडल है।

संपादन – मानबी कटोच


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5 साल के जिस बाल मज़दूर को कैलाश सत्यार्थी ने बचाया था, आज वह वकील बन लड़ रहा है रेप पीड़ितों के लिए!

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23 वर्षीय अमर लाल कभी भी वकील बनने का अपना सपना पूरा नहीं कर पाते यदि नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी न होते। आज अमर लाल नोएडा में कानून की पढ़ाई कर रहे हैं।

बाल मज़दूरी के शिकार, अमर को पाँच साल की उम्र में सत्यार्थी के बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के ज़रिये बचाया गया था। तब से उनके जीवन में लगातार बदलाव आया है।

“जब भाईसाहब जी (कैलाश सत्यार्थी) ने मुझे देखा तो मैं एक टेलीफोन पोल को ठीक करने के लिए काम कर रहा था। मैं पाँच साल का था जब मुझे बचपन बचाओ आंदोलन ने छुड़वाया था। मैं एक वकील बनकर समाज की भलाई के लिए अपना योगदान देना चाहता हूँ,” अमर ने डेक्कन हेराल्ड को बताया।

सत्यार्थी ने जिन भी बच्चों का जीवन संवारा है, वे सब उन्हें प्यार से ‘भाईसाहब जी’ बुलाते हैं। सत्यार्थी ने हाल ही में बहुत गर्व के साथ अमर के बारे में सोशल मीडिया पर साझा किया।

उन्होंने ट्वीट किया, ”आज, मेरा बेटा अमर लाल एक 17 साल की रेप सर्वाइवर के लिए अदालत में खड़ा हुआ। इस युवा वकील के माता-पिता के रूप में यह हमारे लिए गर्व का क्षण है, जिसे हमने 5 साल की उम्र में बाल मज़दूरी से बचाया था। अपनी पढ़ाई पूरी करने तक अमर बाल आश्रम में रहा। अभी और आगे जाना है।”

अमर अपने परिवार से पहले सदस्य है, जो पढ़-लिख कर यहाँ तक पहुंचे है।

उन्होंने बताया, “हम बंजारा समुदाय से आते हैं। हमेशा एक जगह से दूसरी जगह पर पलायन करते रहने की वजह से हमें कभी भी स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाता है।”

अमर वास्तविक तौर पर राजस्थान से हैं। वकालत की डिग्री हासिल कर, अमर रेप पीड़ितों के लिए लड़ना चाहते हैं।

ऐसी ही एक कहानी किंसु कुमार की है, जिसे बीबीए ने आठ साल की उम्र में दिसंबर 2003 में बचाया था। किंसु अब राजस्थान में बी.टेक के छात्र हैं और एक दिन आईएएस अधिकारी बनने का सपना देखते हैं। किंसु कभी मिर्ज़ापुर (उत्तर प्रदेश) में गाड़ियों को धोने का काम करते थे। उन्हें भी दूसरों की तरह बाल मज़दूरी का शिकार होने से बचाया गया था।

2016 में ‘सेव द चिल्ड्रन’ द्वारा किये गये सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में लगभग 380.7 लाख़ लड़के और 80.8 लाख़ लड़कियाँ बाल मज़दूरी के शिकार हैं। लेकिन इसके खिलाफ़ एक मुहीम छेड़ते हुए, सत्यार्थी के बचपन बचाओ आंदोलन ने 87,000 से भी अधिक बच्चों को विभिन्न तरीके के उत्पीड़न और शोषण से मुक्त करवाया है।

संपादन – मानबी कटोच


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काकोरी कांड में नहीं था कोई हाथ, फिर भी फाँसी के फंदे पर झूल गया था यह क्रांतिकारी!

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9 अगस्त 1927 को हुए काकोरी कांड के लिए ब्रिटिश सरकार ने राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफ़ाक उल्ला ख़ान और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के साथ-साथ ठाकुर रोशन सिंह को भी फाँसी की सज़ा सुनाई। हालांकि, इतिहासकारों की माने तो ठाकुर रोशन सिंह इस ट्रेन डकैती का हिस्सा ही नहीं थे।

ठाकुर रोशन सिंह का जन्म शाहजहाँपुर, उत्तर-प्रदेश के खेड़ा नवादा गाँव में 22 जनवरी, 1892 को एक किसान परिवार में हुआ था। इनकी माँ का नाम कौशल्या देवी एवं पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। बचपन से ही साहसी रहे रोशन सिंह में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी।

ठाकुर रोशन सिंह

साल 1921 के असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के चलते रोशन सिंह को भी ब्रिटिश पुलिस ने जेल में डाल दिया था। कारावास के दौरान ही उनका परिचय मेरठ के एक क्रांतिकारी विष्णुशरण दुबलिश से हुआ। धीरे-धीरे उनमें मित्रता बढ़ गयी और रोशन सिंह भी विष्णु के क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होने लगे।

उन्हीं के माध्यम से रोशन बाकी क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये और बिस्मिल के साथ उनकी दोस्ती हर दिन गहरी होती गयी। अपने साथियों के साथ मिलकर रोशन सिंह ने कई क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। ब्रिटिश पुलिस उनसे तंग आ चुकी थी। उन्हें पकड़ने के नए बहाने ढूंढे जाने लगे ताकि उन्हें लम्बे समय के लिए कारावास में डाला जा सके।

और फिर काकोरी कांड के लिए ठाकुर रोशन सिंह की भी गिरफ्तारी हुई।

काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार हुए क्रांतिकारी (9वें नंबर पर ठाकुर रोशन सिंह)

इतिहास के कुछ जानकारों का कहना है कि 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के पास काकोरी स्टेशन के पास जो सरकारी खज़ाना लूटा गया था, उसमें ठाकुर रोशन सिंह शामिल नहीं थे। बल्कि, उस समय उनकी उम्र के ही केशव चक्रवर्ती काकोरी डकैती में शामिल थे और उनकी शक्ल कुछ-कुछ रोशन सिंह से मिलती थी। इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया। पर उनके खिलाफ़ सबूत नहीं जुटा पा रहे थे।

यह भी पढ़ें: काकोरी कांड का वह वीर जिसे अंगेज़ों ने तय समय से पहले दे दी फाँसी!

ऐसे में धूर्त अंग्रेजों ने रोशन सिंह पर चल रहे पुराने मुकदमों के सबूतों को तोड़-मरोड़कर अदालत में पेश किया ताकि सबको लगे कि रोशन सिंह भी काकोरी के अपराधी हैं। केशव चक्रवर्ती को उसके बाद ढूंढा तक नहीं गया और रोशन सिंह को ही काकोरी कांड का आरोपी बना दिया गया।

अदालत ने जब उन्हें भी फाँसी की सज़ा सुनाई तो रोशन सिंह का चेहरा खिल उठा। वे अपने साथियों की ओर देखकर हँसते हुए बोले, ‘‘क्यों, अकेले ही चले जाना चाहते थे?’’ यह सुनकर उनके साथियों व परिजनों की आँखें नम हो गयीं। उन्हें तनिक भी अफ़सोस नहीं था कि उन्हें फाँसी की सज़ा क्यों हुई।

ठाकुर रोशन सिंह का शव

ठाकुर रोशनसिंह ने 6 दिसंबर 1927 को इलाहाबाद में नैनी की मलाका की काल-कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र लिखा था,

“इस सप्ताह के भीतर ही फाँसी होगी। आप मेरे लिये रंज हरगिज़ न करें। मेरी मौत खुशी का सबब होगी। यह मौत किसी प्रकार के अफ़सोस के लायक नहीं है। दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की जिन्दगी जीने के लिये जा रहा हूँ…”

इस पत्र की समाप्ति पर उन्होंने दो पंक्तियाँ ये भी लिखीं,

“ज़िंदगी ज़िदा-दिली को जान ऐ रोशन
वरना कितने ही यहां रोज फ़ना होते हैं”

19 दिसंबर 1927 का वो दिन भी आया, जब बिस्मिल और रोशन सिंह साथ में फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने जा रहे थे। रोशन सिंह ने अपनी रौबीली मूंछ पर ताव देते हुए ‘बिस्मिल’ से कहा, “देख, ये ठाकुर भी जान की बाज़ी लगाने में पीछे नहीं रहा।”

बाएं से अशफ़ाक उल्ला खान, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और ठाकुर रोशन सिंह

मृत्यु के आखिरी क्षणों तक भी उनके चेहरे पर सिर्फ गर्व था। जिस जगह रोशन सिंह को फाँसी दी गयी, आज वहां एक अस्पताल है और इस अस्पताल के बाहर उनकी प्रतिमा लगी है।

भारत माँ के इस वीर को कोटि-कोटि नमन!


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