Quantcast
Channel: The Better India – Hindi
Viewing all 3559 articles
Browse latest View live

मैनुअल आरों: पहला भारतीय खिलाड़ी, जो बना शतरंज का ‘इंटरनेशनल मास्टर’!

$
0
0

तिहासकारों की मानें तो शतरंज का खेल दुनिया को भारत ने दिया है। जिसके बाद इसे अरब देशों ने अपनाया और फिर धीरे-धीरे यूरोप में भी इस खेल ने अपनी पहचान बना ली।

लेकिन विश्व-स्तर पर शतरंज के खेल में भारत को पहचान मिली 1950 के दशक में। इस दशक में एक भारतीय शतरंज खिलाड़ी ने साबित किया कि भारत न सिर्फ़ इस खेल का जन्मदाता है बल्कि इस खेल में महारथ भी रखता है। यह खिलाड़ी थे मैनुअल आरों!

उन्होंने न केवल भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाई बल्कि भारत में भी इस खेल को मशहूर किया।

मैनुअल आरों का जन्म 30 दिसम्बर 1935 को बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में हुआ था। उनके माता-पिता भारतीय थे। मैनुअल आरों भारतीय राज्य तमिलनाडु में पले बढ़े। यहीं उन्होंने अपनी शुरूआती पढ़ाई की। उन्होंने अपनी बी.एस.सी की डिग्री इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की।

मात्र 8 साल की उम्र में चैस खेलना शुरू करने वाले आरों ने अपनी बड़ी बहन से खेल की तकनीक सीखीं। उन्होंने अपना पहला चैस टूर्नामेंट इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खेला। और इसके बाद यह सिलसिला कभी भी नहीं रुका।

साल 1950 के मध्य से लेकर 1970 के अंत तक भारत में शतरंज के बादशाह मैनुअल आरों ही रहे। उन्होंने 9 बार राष्ट्रीय शतरंज की चैंपियनशिप का खिताब अपने नाम किया। 1969 से 1973 तक उन्होंने लगातार पांच वर्षों तक राष्ट्रीय खिताब पर कब्जा बनाए रखा।

तमिलनाडु में उन्होंने 11 बार राज्य की चैंपियनपशिप जीती। 1961 में एशियाई-ऑस्ट्रेलिया जोनल फाइनल में मैनुअल आरों ने ऑस्ट्रेलिया के सी.जे.एस. पर्डी को 3-0 से हराया और वेस्ट एशियाई जोनल में मंगोलिया के सुकेन मोमो को 3-1 से हरा दिया। जिसके बाद वे बन गये ‘इन्टरनेशनल मास्टर!’

मैनुअल आरों ‘इन्टरनेशनल मास्टर’ बनने वाले प्रथम भारतीय हैं। यह वह दौर था जब शतरंज भारत में बहुत अधिक नहीं खेला जाता था। इस दौर में आरों की यह उपलब्धियाँ ना केवल उनके लिए बल्कि पुरे देश के लिए गर्व की बात थीं। शतरंज के खेल को एक कायम मुकाम देने के लिए आरों को कई सम्मानों से अलंकृत किया गया।

मैनुअल प्रथम शतरंज खिलाड़ी हैं जिन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया है। उन्होंने तमिलनाडु चैस एसोसिएशन के लिए सेक्रेटरी के तौर पर अपनी सेवाएँ दीं और फिर, ऑल इंडिया चैस फेडरेशन के चेयरमैन भी रहे।

उनके बाद साल 1978 में वी. रवि दुसरे भारतीय थे जो ‘इंटरनेशनल मास्टर’ बने। वी. रवि के दस साल बाद साल 1988 में भारत को विश्वनाथ आनंद के रूप में अपना पहला ‘ग्रैंड मास्टर’ मिला।

पर यह कहना बिलकुल भी गलत न होगा कि शतरंज के इन महारथियों के लिए विश्व-स्तर पर पहुँचने की राह मैनुअल आरों ने ही बनाई थी।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post मैनुअल आरों: पहला भारतीय खिलाड़ी, जो बना शतरंज का ‘इंटरनेशनल मास्टर’! appeared first on The Better India - Hindi.


आज़ादी की लड़ाई में बिछड़ी पत्नी से 72 साल बाद मिले 90 वर्षीय स्वतन्त्रता सेनानी; दिल छू जाने वाला था मंज़र!

$
0
0

केरल का एक विवाहित जोड़ा, जो कि साल 1946 में किसान आंदोलन के दौरान एक-दुसरे से बिछड़ गया था; पूरे 72 साल बाद एक-दूजे से मिला।

90 वर्षीय ए. के. नाम्बियार उस समय केरल के गाँव कवुम्बई के किसान आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल चले गये और उन्हें उनकी पत्नी शारदा (अब 86 वर्षीय) से बिछड़ना पड़ा था। उस समय शारदा की उम्र सिर्फ़ 14 साल थी और नाम्बियार 18 साल के थे।

शारदा और नाम्बियार की शादी को लगभग 8 महीने ही हुए थे कि गाँव में ब्रिटिश राज और जमींदारों के खिलाफ़ किसानों का विद्रोह बढ़ने लगा। इसे रोकने के लिए ब्रिटिश पुलिस ने किसानों को गिरफ़्तार करना शुरू किया, जिसके चलते नाम्बियार और उनके पिता को घर से निकलकर भूमिगत होना पड़ा।

लेकिन ब्रिटिश पुलिस के सिपाही हर रोज उनके घर जाकर उनके परिवार वालों को और ख़ासकर कि उनकी नई दुल्हन शारदा को परेशान करते। इसलिए नाम्बियार के परिवार ने फ़ैसला लिया कि पूरा मामला ठंडा पड़ने तक शारदा को उनके मायके भेज दिया जाये।

हालाँकि, उस वक्त मायके जाते समय शारदा नहीं जानतीं थीं कि ये जुदाई कुछ दिनों की नहीं बल्कि हमेशा के लिए थी। उन्हें लगा था कि कुछ समय बाद ससुराल से बुलावा आ जायेगा, पर ऐसा नहीं हुआ।

कवुम्बई गाँव में ब्रिटिश पुलिस ने नाम्बियार और उनके पिता को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 8 साल कारावास की सज़ा सुनाई गयी। नाम्बियार के भतीजे मधु कुमार ने बताया कि अंग्रेजों ने उनके घर को तहस-नहस करके आग के हवाले कर दिया था।

उन्होंने अपनी सज़ा कन्नूर, विय्यूर और सलेम की जेलों में काटी। इस दौरान सलेम की जेल में 11 फ़रवरी 1950 को उनके पिता थालियान रमन नाम्बियार की गोली मार कर हत्या कर दी गई। इस संघर्ष में नाम्बियार को भी 22 गोली लगीं, जिनमें से 3 को आज भी उनके शरीर से नहीं निकाला जा सका है।

इधर शारदा के परिवार को जब इन घटनाओं की ख़बर मिली, तो उन्होंने मान लिया कि शायद नाम्बियार कभी नहीं लौटेंगे। इसलिए उन्होंने युवा शारदा की दूसरी शादी करवाने का फ़ैसला कर लिया। अपने जेल कारावास के बाद जब नाम्बियार लौटे तो उनका भी पूरा ध्यान अपने घर-परिवार को फिर से सहेजने पर था। जैसे-जैसे वक़्त बीता, शारदा और नाम्बियार अपनी-अपनी जिंदगी में मसरूफ़ हो गये। नाम्बियार की भी दूसरी शादी हो गयी थी।

लेकिन, इन दोनों के दिल में यूँ अलग हो जाने का मलाल हमेशा रहा। इतने सालों बाद जब ये दोनों मिले, तो ज्यादा कुछ नहीं कह पाए पर 72 सालों का दर्द आँखों से आँसूओं की शक्ल में बह निकला।

नाम्बियार, शारदा या फिर उनके किसी भी रिश्तेदार ने नहीं सोचा था कि वे यूँ एक बार फिर मिलेंगें। पर कहते हैं न, ‘किस्मत के खेल निराले’। यह किस्मत ही थी कि अचानक शारदा का बेटा और जैविक खेती करने वाला भागर्वन, नाम्बियार के रिश्तेदारों के बीच पहुँच गया।

जैसे-जैसे उन्होंने अपने परिवारों के बारे में बात करना शुरू किया, उन्हें पता चला कि उनका एक-दुसरे से संबंध है। वह किस्सा जो वर्षों पहले उस आंदोलन में कहीं खोकर रह गया था, वह फिर से उठा। परिवारजनों ने जब यह इतिहास सुना, तो उन्होंने नाम्बियार और शारदा की मुलाकात करवाने का फ़ैसला किया।

नाम्बियार की दूसरी पत्नी का देहांत हो चुका हैं और शारदा भी 30 साल पहले विधवा हो गयी थीं।

भार्गवन ने बताया कि पहले तो उनकी माँ ने नाम्बियार से मिलने और बात करने से इन्कार कर दिया। लेकिन काफ़ी आग्रह के बाद वह मिलने के लिए राजी हो गईं। भार्गवन ने बताया कि मुलाकात के समय दोनों ही बेहद भावुक हो गए थे। शारदा ने नाम्बियार से कहा, कि जो भी हुआ उसके लिए उन्हें किसी से भी कोई शिकायत नहीं है। वे दोनों ज़्यादा कुछ नहीं कह पाए, बस भरी हुई आँखों के साथ एक-दुसरे के पास बैठे रहे।

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post आज़ादी की लड़ाई में बिछड़ी पत्नी से 72 साल बाद मिले 90 वर्षीय स्वतन्त्रता सेनानी; दिल छू जाने वाला था मंज़र! appeared first on The Better India - Hindi.

10 प्रशासनिक अधिकारी: साल 2018 में इनके प्रयासों ने देश को दी विकास की राह!

$
0
0

प्र शासनिक अधिकारी – जिनका काम है हर दिन अपने निर्धारित शहर, गाँव या कस्बों में जाकर वहां के प्रशासनिक व्यवस्था को संभालना! नियमों का पालन, नागरिकों के सशक्तिकरण और आपके और मेरे जैसे लोगों के लिए एक बेहतर कल का निर्माण, यह सभी कुछ उनकी ड्यूटी का हिस्सा हैं।

यह एक कड़ी ज़िम्मेदारी है और वह भी ऐसे समाज में, जहाँ राजनीति और व्यापार में भ्रष्टाचार की कोई कमी न हो। लेकिन अच्छी बात यह है कि धीरे-धीरे ही सही लेकिन प्रशासन व्यवस्था में एक सकारात्मक बदलाव आ रहा है। और यह संभव हो रहा है देश के उन कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार अफ़सरों के चलते, जो खुद को पूरी तरह से देश और देशवासियों की सेवा के लिए समर्पित करते हैं।

यही कारण है कि द बेटर इंडिया हर साल ऐसे 10 प्रशासनिक अधिकारियों (किसी विशेष क्रम में नहीं) के प्रयासों के बारे में अपने पाठकों को बताता है, जिनकी वजह से देश में कई जगह बदलाव आया है। यही अधिकारी हमें आशा की किरण देते हैं, कि कुछ अच्छे अफ़सरों के सच्चे प्रयास एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं!

1. हर्ष पोद्दार, आईपीएस

हर्ष पोद्दार

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट और एक पूर्व वकील, हर्ष पोद्दार भारतीय सिविल सेवा में शामिल होने के लिए लंदन से वापिस आये थे। आज वे आईपीएस के तौर पर आम लोगों की सेवा कर रहे हैं। उनकी कई उम्दा पहलों के चलते, उन्हें हर जगह सराहा जा रहा है। इन्हीं पहलों में से एक है ‘यूथ पार्लियामेंट चैम्पियनशिप’, जिसके अंतर्गत महाराष्ट्र के 18 जिलों में अपराध और आतंक के खिलाफ़ लगभग 2,00,000 युवा नेताओं को खड़ा किया गया है – इन क्षेत्रों की कुल आबादी ब्रिटेन के बराबर है।

वर्तमान में नागपुर के पुलिस उपायुक्त के पद पर नियुक्त हर्ष पोद्दार की कार्यवाहियों की वजह से मालेगांव में अवैध व्यापार और सांप्रदायिक दंगों को काफी हद तक कम किया जा चूका है। मालेगांव का इतिहास सांप्रदायिक हिंसा और बम विस्फोट की घटनाओं से भरा पड़ा है।

उन्होंने पुलिस स्टेशनों के प्रबंधन को भी सुव्यवस्थित किया है, जिससे उन्हें आईएसओ और ’स्मार्ट पुलिस’ सर्टिफिकेशन प्राप्त करने में मदद मिली है। इसके अलावा, उन्होंने ‘उड़ान’ प्रोजेक्ट लॉन्च किया है, जिसके तहत सैकड़ों स्थानीय छात्रों को मुफ्त कोचिंग और करियर परामर्श प्रदान किया जाता है।

हर्ष ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए कहा, “हम मालेगांव का इतिहास दंगों और बम विस्फोट के शहर से बदलकर कुछ सकारात्मक बनाना चाहते हैं।” जब उनसे पूछा गया कि उन्हें सबसे ज्यादा प्रेरणा कहाँ से मिलती है, तो उन्होंने कहा, “एक अधिकारी होने का यह जो अवसर मेरे पास है, उससे – मैं अपनी इस नौकरी का शुक्रगुज़ार हूँ, जहाँ मुझे इतना कुछ सीखने को मिलता है।”

साल 2018 में अच्छे प्रशासन में उनके योगदान के लिए हर्ष को जीफाइल्स पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वे सबसे कम उम्र के अधिकारी हैं। हर्ष पोद्दार वर्तमान में नागपुर में तैनात हैं और साल 2019 से वे शहर में क्राइम को एक व्यवस्थित ढंग से रोकने पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगें।

यह भी पढ़ें: मुंबई पुलिस का सराहनीय कार्य, 1500 की भीड़ से बचाई 2 वर्षीय बच्चे सहित पांच लोगों की जान!

2. निखिल निर्मल, आईएएस

निखिल निर्मल

पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार जिले के डीएम, आईएएस अफ़सर निखिल निर्मल की माने तो सिविल सर्विस का असल मकसद प्रशासन को ग़रीब और जरुरतमन्द लोगों के घर तक ले जाना होता है। शून्य लागत के साथ शुरू की गयी उनकी पहल, ‘आलोरण’ के चलते पिछले तीन महीनों में 73 स्कूलों में 20,000 से अधिक छात्रों के जीवन में सकारात्मक बदलाव आया है।

एर्नाकुलम (केरल में) के चाय बागानों के बीच पले-बढ़े, निखिल ने दोआर क्षेत्र में चाय बागानों के गरीब श्रमिकों के लिए एक सार्वजनिक जागरूकता और शिकायत निवारण पहल ‘आपनार बागाने प्रोशासन’ की शुरुआत की है। इसके अलावा, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने ‘भ्रष्ट व्यवसायियों’ पर सुनियोजित कार्यवाही कर, उनके खिलाफ़ लोगों को जागरूक किया है।

अब स्थानीय लोगों को अपने डीएम से मिलने के लिए किसी अपॉइंटमेंट की ज़रूरत नहीं होती और न ही उन्हें दो-तीन दिन इंतजार करना पड़ता है। बल्कि, उनका डीएम खुद उनकी समस्याओं को हल करने के लिए उनके पास जाता है। और यही इस पहल का सबसे बड़ा प्रभाव है।

“मैं हमेशा से यही करना चाहता था, मैं यह सुनिश्चित करना चाहता था कि कतार में खड़े आख़िरी आदमी तक हर वह सुविधा पहुंचे, जिसकी उसे सब्स ज़्यादा ज़रूरत है,” निखिल ने द बेटर इंडिया को बताया।

साल 2019 में निखिल इस क्षेत्र के गरीब लोगों के लिए आलोरण के जैसे ही और भी ज़ीरो लागत की पहल शुरू करना चाहते हैं।

3. रेमा राजेश्वरी, आईपीएस

रेमा राजेश्वरी

गाँव के एक उजड़े हुए स्कूल की इमारत को सुधरवाना, स्कूल के बच्चों को शौचालय और पीने के साफ़ पानी की सुविधा और लगभग 1200 बच्चियों को बाल-विवाह से बचाना। आईपीएस अधिकारी रेमा राजेश्वरी ने अपने एक दशक के शानदार पुलिस करियर के दौरान ऐसी कई उपलब्धियाँ हासिल की हैं।

हालांकि, यही सिर्फ़ एक कारण नहीं है, कि तेलंगाना की इस उच्च अधिकारी को पुलिस फ़ोर्स में इतना सम्मान मिलता है। आज के समय में जब व्हाट्सअप के ज़रिये चारों तरफ़ गलत और झूठी ख़बरें फ़ैल रहीं हैं, जिसके चलते देश में आये दिन दंगों और तनाव का माहौल रहता है। ऐसे में उन्होंने गाँव के स्तर पर पुलिस व्यवस्था को दुरुस्त करने और इन झूठी ख़बरों से लड़ने की मुहीम छेड़ी है।

उनकी मुहीम का काफ़ी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले 400 गांवों में अब तक कोई भी झूठी ख़बर से सम्बंधित हत्या नहीं हुई है।

“मेरा उद्देश्य उन लोगों के दिल में सुरक्षा की भावना पैदा करना है, जिनकी मुझ पर जिम्मेदारी है और यह सुनिश्चित करने के लिए हम पहले से ही ठोस कदम उठा रहे हैं,” रेमा ने द बेटर इंडिया को बताया।

आने वाले साल में उनका ध्यान बाल-विवाह और यौन उत्पीड़न जैसी सामाजिक कुरूतियों पर लगाम कसने की तरफ़ रहेगा।

4. बी रघु किरण, आईआरएस

बी. रघु किरण

जब केन्द्रीय सरकार ने बाकी सभी टैक्स हटाकर सिर्फ जीएसटी टैक्स (द गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स) लगाने का फ़ैसला किया, तो आम लोगों को इसे समझने में काफ़ी दिक्कत होने लगी। बहुत लोगों को पता ही नहीं था कि किन सेवाओं के लिए उन्हें टैक्स भरना है और किन के लिए नहीं। साथ ही, लोगों के मन में संदेह था कि उनके द्वारा भरा गया टैक्स वाकई में सरकार तक पहुंच रहा है या नहीं।

लोगों के इन सवालों को हल करने के लिए आईआरएस अधिकारी बी रघु किरण ने अपने सॉफ्टवेयर स्किल का अच्छा प्रयोग करते हुए एक एप्लीकेशन ‘जीएसटी-वेरीफाई’ बनाया। इसकी मदद से कोई भी कभी भी चेक कर सकता है कि जहाँ से भी उन्होंने खरीदारी की है, वह व्यवसायी टैक्स लेने के लिए अधिकारिक है या नहीं। इस एप्लीकेशन को बनाने के लिए रघु किरण ने अपनी जेब से पैसा खर्च किया और साथ ही उन्होंने अपनी ड्यूटी खत्म होने के बाद इसे बनाने के लिए अलग से समय दिया।

“जीएसटी का लाभ लोगों तक तभी पहुंच सकता है, जब वे धोखेबाज़ व्यापारियों से सुरक्षित हों, इसलिए मैंने उन्हें जानकारी देने के साथ-साथ सशक्त बनाने का फ़ैसला किया,” रघु ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया।

2019 में बी रघु किरण जीएसटी कर से सम्बंधित अन्य पहलुओं को सुधारने और ठीक करने के लिए तकनीक का उपयोग करने की योजना बना रहे हैं।

5. अतुल कुलकर्णी, आईपीएस

अतुल कुलकर्णी

अक्सरआम नागरिक पुलिस प्रशासन के पास जाने से कतराते हैं। लेकिन एएसपी अतुल कुलकर्णी का मानना है कि यदि लोग पुलिस के पास आने से कतराते हैं, तो क्या पुलिस जरुरतमन्द लोगों के पास नहीं जा सकती? इसी सोच के साथ उन्होंने नशीली दवाओं के दुरुपयोग, यौन उत्पीड़न और घरेलू शोषण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों से निपटने के लिए समुदाय द्वारा संचालित पहल की शुरुआत की है।

इस पहल को ‘भरोसा सेल’ का नाम दिया गया है और इसके तहत अतुल और उनकी टीम ने हर शनिवार को पीड़ित नागरिकों के लिए उनकी शिकायतों को सुनकर उनका निवारण करने के लिए बैठकें शुरू की हैं। पर उनकी सबसे उम्दा पहल है युवा लडकियों की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाना। इस अफ़सर ने लड़कियों के लिए स्कूलों में शिकायत बॉक्स और शहर में ‘निर्भया पाठक’ पेट्रोल वैन शुरू की हैं।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “मैंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) से पढ़ाई की और इसके साथ-साथ शहर की झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर दूरदराज के गांवों में भी सामाजिक कार्यों से जुड़ा रहा। मैं हमेशा देखता था कि इन लोगों का जीवन कितना मुश्किल है और इसीलिए मैं बस सुनिश्चित करना चाहता था कि उन्हें वह न्याय मिले जिसके वे हकदार हैं।”

आने वाले साल में, अतुल कुलकर्णी ने महिला सुरक्षा बढ़ाने और जिले में स्मार्ट पुलिसिंग को सक्षम बनाने के लिए एक डिजिटल ऐप लॉन्च करने की योजना बनाई है।

6. हरी चंदना दसारी, आईएएस

हरी चंदना दसारी

साल 2018 में, ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) शहर भर में प्लास्टिक के पुनरुपयोग की पहल के माध्यम से ‘हरित क्रांति’ लाने में सफ़ल रहा और जिस महिला ने इस परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह हैं जीएचएमसी (पश्चिम क्षेत्र) की ज़ोनल कमिश्नर हरी चंदना दसारी।

उनके प्रयासों की वजह से हैदराबाद में एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है। उन्होंने एक गंदे डंप यार्ड को भारत के पहले सर्टिफाइड डॉग पार्क में बदल दिया जिसे अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार बनाया गया है!

“चाहे वह डॉग पार्क का निर्माण हो या फुटपाथ बनाने के लिए प्लास्टिक कचरे का उपयोग हो, इसके पीछे का विचार लोगों के शहरी परिदृश्य को देखने के नज़रिये को बदलना था। मैंने पर्यावरण अर्थशास्त्र में पढ़ाई की है और मेरा मानना है कि भारत का भविष्य इसके कचरा-प्रबन्धन और उसके पुनरुपयोग पर भी निर्भर करता है,” चंदना ने द बेटर इंडिया को बताया।

साल 2018 में सूखे कचरे से निपटने के बाद आने वाले साल में उनका उद्देश्य गीले कचरे के उचित प्रबन्धन पर रहेगा।

7. आशीष तिवारी, आईपीएस

आशीष तिवारी

उत्तर प्रदेश में बहुअर क्षेत्र के एक नक्सल प्रभावित गाँव में साल 2018 का ‘फादर्स डे’ एक बहुत ही प्यारा तोहफ़ा लेकर आया था- शिक्षा। दरअसल, मिर्जापुर के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक, आईपीएस अधिकारी आशीष तिवारी ने गाँव के एक उजड़े स्कूल को गोद लिया और इसे सुधरवा कर एक चमकीले पीले रंग की स्कूल बस का रूप दिया।

हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जब आशीष ने सामाजिक तौर पर कोई इनोवेशन किया है। इससे पहले भी वे पुलिसकर्मियों की तैनाती, छुट्टी-प्रबंधन, सामुदायिक पुलिसिंग और अन्य कार्यों को संभालने के लिए एक डिजिटल एप्लीकेशन बना चुके हैं। उन्होंने स्थानीय गांवों में महिलाओं की अनोखी ’हरी ब्रिगेड’ बनायीं हैं, जो न केवल घरेलू हिंसा और जुर्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाती हैं, बल्कि नक्सल गतिविधियों पर भी नज़र रखती हैं।

आशीष ने द बेटर इंडिया को बताया, “तकनीक और सरल इनोवेशन पुलिस के काम को काफ़ी आसान और प्रभावी बना सकते हैं।” उनके द्वारा पुलिस कर्मियों द्वारा ली जाने वाली छुट्टियों का प्रबन्धन डिजिटल तौर पर किये जाने से सिस्टम में काफ़ी बदलाव आया है।

आने वाले साल में आशीष का पूरा ध्यान भ्रष्टाचार को हटा कर अच्छे प्रशासन की स्थापना पर रहेगा।

8. रेनू राज

रेनू राज

प्रभावशाली लोगों के अवैध खदानों पर छापा मारने से लेकर बेसहारा बुजुर्गों की देख-रेख करने तक, हर बार रेनू राज का नाम सुर्ख़ियों में रहा है। सभी नागरिकों के दिलों में अपने लिए सम्मानित जगह बना चुकी रेनू ने अवैध कब्जों पर भी नकेल कसी है और साथ ही, सरकारी जमीनों को पिछड़े वर्गों के इस्तेमाल के लिए उपलब्ध करवाया है।

यह रेनू के कार्यकाल में ही था, जब कई अस्पतालों के सहयोग से एक मेगा मेडिकल कैंप आयोजित किया गया। इसमें 2,000 वरिष्ठ नागरिकों का चेकअप हुआ; मौके पर उन्हें उपचार दिया गया, और बाद में 250 नि:शुल्क सर्जरी भी की गई। त्रिशूर में आयोजित राजकीय स्कूल युवा उत्सव के आयोजन और केरल में बाढ़ के दौरान राहत प्रयासों में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही।

“सबसे ज़्यादा जरूरी था, कि मैं इन बुजुर्गों को उनके बच्चों के साथ घर भेज पाऊं, न कि दूसरे किसी वृद्धाश्रम में। यह मेरे लिए बहुत मायने रखता है, क्योंकि दूसरों के जीवन में बदलाव लाना ही मेरा सपना रहा है,” रेनू ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए कहा।

2019 में, रेनू राज (मुन्नार में तैनात) ने जिले के बागान श्रमिकों, विशेष रूप से उनके बच्चों की शिक्षा और रोज़गार के विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करने की योजना बनाई है।

9. कुंदन कुमार, आइएएस

कुंदन कुमार

बिहार का बांका जिला पिछले कुछ समय से विकास के क्षेत्र में कई रिकॉर्ड बना रहा है। यहीं से ‘उन्नयन बांका प्रोग्राम’ की भी शुरुआत हुई है। यह प्रोग्राम एक ऑनलाइन-ऑफलाइन प्रक्रिया है जिसके तहत अत्याधुनिक तकनीक जैसे एआई और बिग डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करके शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाया जा रहा है। वास्तव में, इस प्रोजेक्ट की सफ़लता यह है, कि केंद्र सरकार भारत के लगभग 5,000 गांवों के स्कूलों में इसे लागू कर रही है!

इस अद्भुत परिवर्तन को लाने वाले व्यक्ति हैं, बांका के आईएएस अधिकारी कुंदन कुमार। इस अविश्वसनीय पहल ने सिंगापुर को हराकर द्विवार्षिक राष्ट्रमंडल CAPAM सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय नवाचार पुरस्कार 2018 भी जीता है।

“सबसे आश्चर्यजनक प्रभाव इन गरीब और पिछड़े वर्ग के बच्चों के आत्मविश्वास पर पड़ा है। राजमिस्त्री और चाय बेचने वालों के बच्चे अब सेमिनार का नेतृत्व करने और अमेरिका में प्रोफेसरों के सवालों का जवाब देने से नहीं डरते हैं। अब वे राज्य के टॉपरों की सूची में अपनी मोहर लगा रहे हैं और टीसीएस जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी पा रहे हैं,” कुंदन ने कहा।

2019 में कुंदन कुमार भारत में उन सभी जिलों के साथ काम करने की योजना बना रहे हैं, जहाँ ‘उन्नयन प्रोग्राम’ को लागु किया गया है।

10. कृष्णा तेजा, आईएएस

कृष्णा तेजा

केरल में, आईएएस अधिकारी कृष्णा तेजा स्थानीय लोगों के लिए किसी हीरो से कम नहीं हैं। केरल के अलाप्पुझा जिले में कुट्टनाड के उप-कलेक्टर के रूप में, उन्होंने अगस्त 2018 में आई भयानक बाढ़ के दौरान लगभग 2.5 लाख लोगों (और 12000 मवेशियों) की जान बचाने के लिए बहुत बड़ा रेस्क्यू ऑपरेशन किया था।

हालाँकि, ‘ऑपरेशन कुट्टनाड’ केवल शुरुआत थी। उसके बाद दो सप्ताह के लिए, जिला प्रशासन ने लगभग 700 राहत शिविरों का आयोजन और प्रबंधन किया, जिससे यह सुनिश्चित किया गया कि लोग अपने इन अस्थायी घरों में अच्छी तरह से रहें। उन्होंने समुदाय संचालित ‘आई एम फॉर अल्लेप्पी’ पहल की शुरुआत भी की, जिसके तहत 500 घरों का निर्माण, 100 आँगनवाड़ियों को गोद लेना, लगभग 40,000 स्कूल-किट का वितरण आदि किया गया।

“सबसे आगे रहकर एक आंदोलन का नेतृत्व करने का मतलब है कि आपको इसे बरकरार रखना होगा, चाहे कुछ भी हो। इसलिए मैंने यह सुनिश्चित करने के लिए अपनी पूरी कोशिश की, कि ‘ऑपरेशन कुट्टनाड’ कभी बेकार न जाए। ‘आई एम फॉर अल्लेप्पी’ पहल के ज़रिये मैं बस यही करने की कोशिश कर रहा हूँ,” आईएएस तेजा ने बताया।

आने वाले साल में, कृष्णा तेजा इस पहल के सभी उद्देश्यों को पूरा करने पर ध्यान केन्द्रित करेंगें।

अपने कर्तव्य को पूरी निष्ठां से निभाने वाले इन, और इन जैसे सभी अधिकारियों को हमारा सलाम!

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post 10 प्रशासनिक अधिकारी: साल 2018 में इनके प्रयासों ने देश को दी विकास की राह! appeared first on The Better India - Hindi.

भारतीय सेना : मायनस 9 डिग्री में खुद रहे बाहर, बर्फ़ में फंसे हुए यात्रियों को दिया अपना बैरक!

$
0
0

28 दिसंबर 2018 को सिक्किम में भारी बर्फ़बारी के चलते लगभग 2,500 टूरिस्ट नाथू ला और 17 मील क्षेत्र में फंस गये थे। इनके पास न तो किसी से सम्पर्क करने का कोई साधन था और साथ ही, खून जमा देने वाली ठंड में सभी यात्रियों का हौंसला भी जबाव देने लगा था।

जब इन लोगों ने जिंदा बच पाने की सभी उम्मीदें छोड़ दी, तो ऐसे में भारतीय सेना के जवानों ने इन्हें बचाने के लिए राहत बचाव कार्य शुरू किया। सैनिकों ने न सिर्फ़ इन यात्रियों को बचाया बल्कि इन सभी के रहने और खाने-पीने का भी इंतजाम किया।

इन यात्रियों में बच्चे, बड़े-बूढ़े सब शामिल थे। इनमें से 90 लोगों की तबीयत ख़राब होने की वजह से उन सभी के लिए एम्बुलेंस का इंतजाम करवा कर उन्हें तुरंत अस्पताल रवाना किया गया। भारतीय सेना ने इस रेस्क्यू ऑपरेशन की तस्वीरें अपने ट्विटर हैंडल पर भी शेयर की।

इस राहत-कार्य का नेतृत्व करने वाले ब्रिगेडियर जे. एस. धद्वाल ने कहा, “ये टूरिस्ट लगभग 13,000 फीट की ऊंचाई पर फंसे हुए थे। उन्हें 9,000 फीट पर भारतीय सेना के बेस पर लाया गया, जहाँ उन्होंने रात बिताई।”

“अगर सेना वक़्त पर नहीं पहुंचती तो हमसे कई लोग आज जीवित नहीं होते। सैनिकों ने हमें रहने के लिए अपने बैरक दिए और हमारे साथ अपना खाना भी बाँटा,” एक टूरिस्ट ने बताया

ट्विटर पर भी भारतीय सेना को काफ़ी सराहना मिल रही है। संदीप कुलकर्णी नामक एक ट्विटर यूज़र ने लिखा, “धन्यवाद, मैं उन फंसे हुए लोगों में से एक था और मैं भारतीय सेना का तहे दिल से शुक्रिया करता हूँ….. उन्होंने हमारी बहुत मदद की और अत्यधिक बिगड़े हुए मौसम में हमें बचाया!”

यहाँ फंसे हुए एक यात्री आर्यन अहमद ने दार्जीलिंग क्रोनिकल के साथ एक ख़त के माध्यम से अपना अनुभव सांझा किया। उन्होंने लिखा, “हमें सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने (सैनिकों ने) अपने बिस्तर और स्लीपिंग बैग हमें दे दिए और खुद बाहर -9° तापमान में रहे। उन्होंने  हमारे लिए जो भी किया, उसे बयान करने के लिए सिर्फ़ शब्द काफ़ी नहीं है। मैं यहाँ और देश भर के लोगों को बताना चाहता हूँ, कि मैं उनका बहुत-बहुत आभारी हूँ।”

तो वहीं एक और ट्विटर यूजर ने लिखा, “शुक्रिया, आपकी वजह से मेरा परिवार सुरक्षित है!”


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post भारतीय सेना : मायनस 9 डिग्री में खुद रहे बाहर, बर्फ़ में फंसे हुए यात्रियों को दिया अपना बैरक! appeared first on The Better India - Hindi.

टेलीविज़न के इतिहास की एक बेजोड़ कृति; कैसे बनी थी, श्याम बेनेगल की ‘भारत एक खोज’!

$
0
0

“…सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं

आकाश भी नहीं था

छिपा था क्या, कहाँ
किसने ढका था
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहाँ था…”

ये पंक्तियाँ वैसे तो ऋगवेद के श्लोक का अनुवाद हैं, पर बहुत से लोगों के लिए इन पक्तियों की पहचान आज से दो दशक पहले बने दूरदर्शन के धारावाहिक ‘भारत एक खोज’ के गीत के रूप में है। ‘भारत एक खोज’ – 53-एपिसोड का एक धारावाहिक, जो साल 1988 से 1989 के बीच हर रविवार सुबह 11 बजे प्रसारित होता था।

‘भारत एक खोज’ का डीवीडी कवर

इस धारावाहिक के निर्माता और निर्देशक थे, हिन्दी फिल्मों के मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल। अंकुर, निशांत, मंथन और भूमिका जैसी फिल्मों के लिये चर्चित बेनेगल समानांतर सिनेमा के अग्रणी निर्देशकों में शुमार किये जाते हैं।

बेनेगल ने ही 80 के दशक में वह धारावाहिक दिया जो न केवल दुरदर्शन बल्कि भारत देश के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। देश के प्रथम राष्ट्रपति जवाहरलाल नेहरु द्वारा लिखी गयी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ (भारत की खोज) पर आधारित यह टीवी सीरीज़ शायद टेलीविज़न के इतिहास में अब तक का सबसे उत्तम रूपांतरण है।

साल 1980 के दशक में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे सीरियल भारत के हर घर में अपनी जगह बना चुके थे। उस समय भारत सरकार को लगा कि भारत के विशाल इतिहास पर भी उन्हें एक टेलीविज़न धारावाहिक बनाना चाहिए, जो कि आम नागरिकों तक भारत की इस अनसुनी कहानी को पहुंचा सके।

इस काम के लिए चुना गया श्याम बेनेगल को। हालांकि, अपने एक साक्षात्कार में बेनेगल ने बताया था कि ‘महाभारत’ धारावाहिक बनाने में उनकी दिलचस्पी थी, लेकिन वह पहले ही बी.आर चोपड़ा को दिया जा चूका था। ऐसे में उनके पास भारतीय इतिहास पर एक धारावाहिक बनाने का ऑफर आया।

बेनेगल ने यह ऑफर स्वीकार किया और इस टीवी सीरियल का आधार चुना गया नेहरु द्वारा लिखी गयी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ को। बेनेगल बताते हैं, “यह किताब मुझे बचपन में मेरे जन्मदिन पर तोहफे के तौर पर मिली थी और यह किताब मेरे लिए भारतीय इतिहास से रूबरू कराने वाली पहली कड़ी थी।”

‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ किताब

आज भी बहुत से लोग इस किताब को भारतीय इतिहास के एक परिचय या फिर एक प्रस्तावना के रूप में देखते हैं। नेहरु ने साल 1944 में अप्रैल-सितंबर के बीच अहमदनगर में अपने जेल कारावास के समय इस किताब को लिखा था। इस एक किताब में उन्होंने भारत के 5,000 सालों के इतिहास को लिखा है।

यह किताब श्याम बेनेगल के ‘भारत एक खोज’ का आधार बनी और इसी धारावाहिक के साथ उन्होंने छोटे परदे पर कदम रखा। उनकी टीम में लगभग 15 इतिहासकार थे, जिन्होंने सीरीज़ के हर एक एपिसोड के लिए बेनेगल और उनके लेखकों की टीम का मार्गदर्शन किया। स्क्रिप्ट को लिखा अतुल तिवारी और शमा ज़ैदी जैसे लेखकों की टीम ने। इस टीम में लगभग 25 लेखक थे।

इसके अलावा भारतीय इतिहास के हर एक दौर को दर्शाने के लिए, उस दौर के विशेषज्ञों से भी सलाह-मशवरा किया गया था। इतिहास के विषय के 40 विशेषज्ञ बेनेगल की प्री-प्रोडक्शन टीम का हिस्सा रहे।

शमा ज़ैदी और अतुल तिवारी

इस धारावाहिक की स्क्रिप्ट साल 1986 से बनना शुरू हुई। कहा जाता है कि इस दौरान 10,000 से भी ज्यादा इतिहास सम्बन्धित किताबों से बेनेगल और उनकी टीम घिरी रहती थी।

‘भारत एक खोज’ का पहला एपिसोड साल 1988 में नेहरु के जन्मदिवस, 14 नवंबर को प्रसारित हुआ। यह एक साप्ताहिक शो था। हर हफ्ते रविवार को एक एपिसोड दिखाया जाता था। एक एपिसोड की अवधि 60 मिनट से 90 मिनट होती थी। हिंदुस्तान टाइम्स को एक साक्षात्कार में बेनेगल ने बताया था,

“यह धारावाहिक बहुत सफल रहा और बाद में भी कई बार फिर से चैनल पर चलाया गया। उस समय यह डीवीडी पर भी उपलब्ध होता था… हम देश के इतिहास के बारे में बात करते समय हर एक तथ्य को जांच-परख कर एकदम सटीक बनाना चाहते थे। आखिर, हम इस शो के जरिये एक बार फिर भारतीय इतिहास को जी रहे थे।”

यह सीरीज़ भारतीय सिनेमा और टेलीविज़न के बहुत से कलाकारों के लिए उनका डेब्यू सीरियल बना। लगभग 350 थिएटर आर्टिस्ट ने इस धारावाहिक से अपना एक्टिंग करियर शुरू किया, जिनमें से ज्यादातर नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के छात्र थे। बेनेगल ने धारावाहिक का सूत्रधार स्वयं जवाहर लाल नेहरु को रखा और उनका किरदार निभाया रोशन सेठ ने।

रोशन सेठ, नेहरु के किरदार में

रोशन सेठ के साथ-साथ, ओम पूरी, पीयूष मिश्रा, अलोक नाथ, शबाना आज़मी, अमरीश पूरी, नसरुद्दीन शाह जैसी कई मशहूर हस्तियों ने भी इस धारावहिक में किरदार निभाए। ओम पूरी ने जहाँ एक तरफ कई एपिसोड में उम्दा किरदार निभाए तो दूसरी ओर उन्होंने अपनी दमदार आवाज़ में शो के कथाकार के रूप में योगदान दिया। बेनेगल ने इस बारे में कहा,

“नेहरु की किताब में भी बहुत जगह खालीपन था; जैसे कि उन्होंने किताब में दक्षिण भारत की बात नहीं की है। यह किताब हमें नेहरु की दृष्टि से भारतीय इतिहास के बारे में बताती है। लेकिन इस खालीपन को भर कर ही हम असल मायनों में दर्शकों को निष्पक्ष इतिहास बता सकते थे। इसलिए नेहरु के अलावा एक और सूत्रधार की जरूरत थी, जो उस खालीपन को भरे और ओम पूरी ने यह काम बेहतरीन ढंग से किया।”

ओम पूरी ने ‘भारत एक खोज’ के पद्मावत एपिसोड में अलाउद्दीन खिलजी का किरदार निभाया था

शो के लिए मुंबई की फिल्म सिटी के दो फ्लोर बुक किये गये थे और 140 से भी ज्यादा सेट बनाये गये थे। उन्होंने इतिहास की कहानी को पारम्परिक तरीकों से नहीं, बल्कि रचनात्मक तरीके से परदे पर उतारा।

यह पूरा शो डोक्युमेंटरी स्टाइल में बनाया गया था, लेकिन बहुत जगह बेनेगल ने नाटक और ड्रामा को भी जगह दी। जैसे कि महाभारत के एपिसोड को उन्होंने एक लोक कलाकार की आवाज़ में दर्शकों तक पहुंचाया। उन्होंने कहानी बताने की अलग-अलग विधाओं का इस्तेमाल किया। यह बेनेगल का दृष्टिकोण था क्योंकि उन्हें भारतीय इतिहास ऐसे लोगों को बताना था जिन्होंने स्कूलों में इसे नहीं पढ़ा है।

इस धारावाहिक को बनाते समय बेनेगल और उनकी टीम ने हर दिन नई चुनौतियों का सामना किया और वे कभी पीछे नहीं हटे। बल्कि कुछ और था जो उन्हें हमेशा परेशान करता।

“मैं इसे पूरा करना चाहता था। मुझे सपने आने लगे थे कि मैं मर गया हूँ। मुझे बस चिंता थी कि अगर मैं मर गया. तो शो का क्या होगा और अगर यह अधुरा रह गया तो?” श्याम बेनेगल ने एक इंटरव्यू में कहा था।

निर्देशक श्याम बेनेगल

बताया जाता है कि ओम पूरी ने शो की शूटिंग के दौरान सिनेमा से एक साल का ब्रेक ले लिया था और खुद को पूरी तरह से ‘भारत एक खोज’ के लिए समर्पित कर दिया। लेकिन इन सभी कलाकारों की मेहनत रंग लायी। आज भी लोग ‘भारत एक खोज’ के बारे में बात करते हैं। शो से जुड़े सभी कलाकारों का शायद वह सबसे बेहतरीन काम था, जिसे बेनेगल के निर्देशन ने और निख़ारा।

आप ‘भारत एक खोज’ धारावाहिक के सभी एपिसोड यहाँ देख सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post टेलीविज़न के इतिहास की एक बेजोड़ कृति; कैसे बनी थी, श्याम बेनेगल की ‘भारत एक खोज’! appeared first on The Better India - Hindi.

नूर इनायत ख़ान : एक भारतीय शहज़ादी, जो बनी पहली महिला ‘वायरलेस ऑपरेटर’जासूस!

$
0
0

साल 2012 में महारानी एलिज़बेथ द्वितीय की बेटी राजकुमारी एनी ने इंग्लैंड के गार्डन स्क्वायर में एक लड़की की प्रतिमा का अनावरण किया। इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है, कि ब्रिटेन में लगी यह मूर्ति किसी एशियाई महिला की पहली मूर्ति है।

यह मूर्ति है नूर इनायत ख़ान की। नूर इनायत ख़ान, मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की वंशज, एक भारतीय शहज़ादी, और दुसरे विश्व-युद्ध के दौरान हिटलर के नाज़ी साम्राज्य के खिलाफ़ ब्रिटिश सेना की जासूस!

वह सीक्रेट एजेंट, जो दुश्मनों की ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा कर उसे कोड कर, वायरलेस ऑपरेटर के जरिये ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुँचाती थीं। सोचने वाली बात यह थी कि नूर भारत के उस घराने से संबंध रखती थीं जिन्होंने कभी अंग्रेजों के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि उनके पूर्वजों ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ़ लड़ते हुए अपनी जान दी। तो इस घराने की शहज़ादी आख़िर क्यों इंग्लैंड के लिए उनकी जासूस बन गयी?

नूर इनायत ख़ान (बाएं) और ब्रिटेन में लगी उनकी प्रतिमा (दाएं)

1 जनवरी 1914 को मोस्को में जन्मीं नूर का पूरा नाम नूर-उन-निसा इनायत ख़ान था। उनके पिता, हज़रत इनायत ख़ान एक सूफ़ी संगीतकार थे और टीपू सुल्तान के पड़पोते थे। जबकि नूर की माँ, ओरा रे एक ब्रिटिश महिला थीं जिनकी परवरिश अमेरिका में हुई। सूफ़ीवाद को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने के श्रेय नूर के पिता को ही जाता है।

प्रथम विश्व-युद्ध के चलते नूर के परिवार को रूस छोड़कर फ्रांस जाना पड़ा। यहाँ वे पेरिस में बस गये। यहाँ उनके घर का नाम ‘फ़ज़ल मंज़िल’ था। बचपन से ही नूर और उनके भाई-बहनों को सूफ़ीवाद की शिक्षा मिली थी। उन्हें हमेशा ही उनके अब्बू ने अहिंसा, मानवता, सच बोलना, और शांति का पाठ पढ़ाया था।

1. नूर अपने पूरे परिवार के साथ, 2. हज़रत इनायत खान, 3. नूर अपनी माँ के साथ

नूर की ज़िंदगी पर ‘द स्पाई प्रिसेंज: द लाइफ़ ऑफ़ नूर इनायत ख़ान’ नाम से किताब लिखने वाली श्राबणी बसु के मुताबिक, नूर बहुत शांत स्वभाव की थीं। उन्हें पढ़ने और लिखने के साथ-साथ संगीत में काफ़ी दिलचस्पी थी। वे वीणा-वादन करती थीं। 25 साल की उम्र में उनकी पहली किताब छपी। उन्होंने बुद्ध जातक कथाओं से प्रेरित होकर बच्चों के लिए यह कहानियों की किताब लिखी थी।

वीणा बजाते हुए नूर

साल 1940 में जब फ्रांस पर जर्मनी ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे हिटलर की दहशत पेरिस तक पहुँचने लगी। मासूम लोगों पर अत्याचार होते देख सूफ़ीवाद में पली-बढ़ी नूर को जैसे सदमा लगा। वे उन लोगों के लिए कुछ करना चाहती थीं जहाँ उनकी ज़िंदगी का सबसे खुबसूरत वक़्त बीता था। नूर और उनके भाई विलायत ने लंदन जाने का निर्णय किया।

यहाँ आकर नूर ने महिलाओं की सहायक वायु सेना में भर्ती होने के लिए आवेदन किया। पर उनके आवेदन को ब्रिटिश सेना ने ठुकरा दिया क्योंकि उनके अनुसार एक भारतीय नाम की लड़की जो कि फ्रांस की निवासी रह चुकी है उसे वे ब्रिटिश सेना में कैसे जगह दे सकते थे।

पर नूर हार मानने वालों में से कहाँ थीं। उन्होंने तुरंत ब्रिटिश सेना को पत्र लिखा और उनसे सवाल किया कि वो एक ब्रिटिश माँ की बेटी हैं और उस देश की मदद करना चाहती हैं जिसने उन्हें अपनाया है। वे फ़ासीवाद के खिलाफ़ लड़ना चाहती हैं तो वे ब्रिटिश सेना में काम क्यों नहीं कर सकती हैं।

उनकी इस हिमाकत के जबाव में ब्रिटिश शासन ने उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया। श्रावणी बसु बताती हैं कि साक्षात्कार के दौरान नूर से पूछा गया कि क्या वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ बग़ावत करने वाले नेताओं का समर्थन करती हैं? नूर ने बिना झिझके कहा कि आज जब पुरे विश्व में फ़ासीवाद के खिलाफ़ जंग जारी है तो मेरा फ़र्ज़ है कि मैं इसके खिलाफ़ ब्रिटेन और अमेरिका का साथ दूँ। लेकिन जिस पल यह युद्ध खत्म होगा मैं भारत की आज़ादी के लिए अपने वतन का साथ दूंगी।

अंग्रेज उनके जबाव से हैरान तो थे लेकिन साथ ही यह भी समझ गये कि नूर बहुत हिम्मत वाली हैं और उनके मिशन के लिए जरूरी भी। क्योंकि नूर बहुत अच्छे से फ्रेंच भाषा पढ़-लिख सकती थीं। उनका चयन हो गया और फिर शुरू हुआ उनका प्रशिक्षण।

साल 1942 में नूर को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल द्वारा गठित ‘स्पेशल ऑपरेशन एक्ज़िक्यूटिव’ संगठन में भर्ती किया गया। इस संगठन का काम फ्रांस में रहते हुए अंग्रेजों के लिए जर्मन सेना की जासूसी करना था। यहाँ से नूर के जीवन ने एक नया मोड़ लिया।

हमेशा ही सूफ़ी माहौल में पली-बढ़ी नूर के लिए ये सब बहुत नया था। अब वे महान हज़रत इनायत ख़ान की बेटी या फिर हिन्दुस्तान की कोई शहज़ादी नहीं थीं बल्कि वे ब्रिटिश सेना में सिर्फ़ एक नंबर थीं और यहाँ उनका नाम था ‘नोरा बेकर’! हालांकि, उनके सभी प्रशिक्षकों को लगता था कि नूर एक सीक्रेट एजेंट बनने के लिए नहीं हैं। एक बार तो ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने साफ़ कह दिया था कि वे झूठ नहीं बोल पाएंगी।

नूर को ब्रिटेन की वायु सेना में ‘नोरा बेकर’ नाम दिया गया

बसु कहती हैं कि उन्होंने हमेशा सच बोलना सीखा लेकिन एक सीक्रेट एजेंट बनने के बाद उनके नाम से लेकर उनके कागज़ात और उनका वज़ूद, सब झूठ था। वायरलेस ऑपरेटर की ट्रेनिंग उनके लिए आसान ना थी। अक्सर परीक्षण के दौरान वे डर जाती थीं। उनके अफ़सरों को लगता था कि नूर यह काम नहीं कर पाएंगी। लेकिन फिर भी उन्हें जासूस बनाकर फ्रांस भेजने का निर्णय लिया गया क्योंकि वे फ्रेंच-भाषी थीं और दूसरा वे किसी भी सन्देश को बहुत जल्द कोड या फिर डी-कोड कर लेती थीं।

नूर हमेशा ही एक लेखिका बनना चाहती थीं। उन्हें लिखने का मौका तो मिला पर एक बहुत ही अलग और नई भाषा में।नूर को जून 1943 में जासूसी के लिए रेडियो ऑपरेटर बनाकर फ्रांस भेज दिया गया और उनका कोड नाम ‘मेडेलिन’ रखा गया। मेडेलिन, नूर द्वारा लिखी गयी एक जातक कथा में नायिका का नाम था और जिस रेडियो एन्क्रिप्शन कोड का इस्तेमाल उन्होंने किया, वह नूर ने अपनी ही एक कविता से बनाया था।

नूर पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर थीं क्योंकि उनसे पहले सिर्फ़ पुरुष ही वायरलेस ऑपरेटर होते थे। हालांकि, यह काम बहुत जोख़िम भरा था। क्योंकि, जर्मन सीक्रेट पुलिस ‘गेस्टापो’ ऑपरेटर के इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल्स की पहचान कर इन जासूसों को आसानी से पकड़ सकती थी। यहाँ तक कि पेरिस पहुंचने के अगले महीने ही जर्मन सेना ने सभी ऑपरेटर्स को पकड़ लिया। इसके बाद पेरिस में सिर्फ़ एक ही ट्रांसमीटर बचा था और वह थीं नूर। ब्रिटिश सेना ने नूर को वापिस आने के लिए कहा। लेकिन नूर ने वापिस आने से मना कर दिया।

नूर का कोड नाम ‘मेडेलिन’ था 

नूर ने जून से लेकर अक्टूबर के बीच अकेले ही काम किया और उनके द्वारा भेजे गये सन्देश कभी भी गलत नहीं होते थे। नूर को पता था कि अगर उन्होंने किसी एक जगह से 15 मिनट तक मेसेज भेजा तो जर्मन सेना को पता चल जायेगा इसलिए वे हमेशा मेसेज भेजने के बाद किसी पार्क में चली जाती थीं। एक बार जब वे अपनी ट्रांसमिशन मशीन के साथ पार्क में थीं तो उन्हें जर्मन सैनिकों ने रोककर पूछ लिया कि उनके ब्रीफ़केस में क्या है?

नूर सच नहीं कह सकती थीं और झूठ बोलना उनके लिए जैसे नामुमकिन था। उनके सर्किट का नाम ‘सिनेमा’ था और इसलिए उन्होंने कहा कि ‘सिनेमा दिखाने की मशीन है।’ उनका आत्म-विश्वास देखकर जर्मन सैनिकों ने उन पर यकीन कर लिया। ऐसे ही कई बार जर्मन सेना की आँखों में धूल झोंककर नूर फरार होती रहीं। पर अब उनका हुलिया दुश्मनों को पता चल चूका था। इसलिए उन्हें हर दिन अपना रूप बदलना पड़ता।

सीक्रेट एजेंट द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले ट्रांसमीटर मशीन

लेकिन अक्टूबर, 1943 में नूर की गिरफ्तारी की वजह बना अपने ही एक सहयोगी का धोखा। उनकी ही एक सहयोगी ने चंद पैसों के लिए उनका राज उजागर कर दिया और नूर को पेरिस में उनके अपार्टमेंट से पकड़ा गया। हालांकि, जर्मन सैनिकों के लिए उन्हें गिरफ्तार करना भी बहुत आसान नहीं था। बताया जाता है कि लगभग 6 सैनिकों ने उन्हें साथ मिलकर काबू में किया था।

जेल में भी उन पर बहुत अत्याचार किये गए लेकिन नूर ने कोई भी जानकारी नहीं दी। बल्कि, जर्मन अधिकारियों के लिए वे बहुत ही खतरनाक कैदी थीं। उन्होंने दो बार जेल से भागने का प्रयास किया, हालांकि दोनों बार उन्हें पकड़ लिया गया।जर्मन सेना ने उनसे ब्रिटिश अधिकारियों की जानकारी उगलवाने का हर संभव प्रयास किया पर वे नूर से उनका असली नाम तक नहीं जान पाए।

27 नवम्बर 1943 को नूर को पेरिस से जर्मनी ले जाया गया। लगभग 10 महीनों तक नूर को हर तरह से प्रताड़ित कर उनसे जानकारी हासिल करने की कोशिश की गयी। सितंबर 1944 में नूर को डाउशे कसंट्रेशन कैंप में ले जाया गया। यहाँ 13 सितंबर 1944 को नूर को गोली मार दी गयी। उस वक़्त नूर की जुबान से निकला आखिरी लफ्ज़ था ‘लिबरेटे’ जिसका फ्रेंच में मतलब होता है आज़ादी!

मृत्यु के समय नूर की उम्र 30 साल थी। जिस नूर को अंग्रेजी अफ़सरों ने अपने मिशन में कभी सबसे कमजोर कड़ी माना था वही नूर उस मिशन की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरीं। उनके सम्मान में ब्रिटेन की डाक सेवा, रॉयल मेल ने डाक टिकट जारी किया गया। नूर की बहादुरी को उनकी मौत के बाद फ्रांस में ‘वॉर क्रॉस’ देकर सम्मानित किया गया तो ब्रिटेन ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान जॉर्ज क्रॉस से उन्हें नवाज़ा!

नूर इनायत ख़ान की कहानी को किताब की शक्ल देकर आम नागरिकों तक पहुँचाने वाली लेखिका श्रावणी बसु ने उनकी याद और सम्मान में ‘नूर इनायत ख़ान मेमोरियल ट्रस्ट‘ की भी शुरुआत की है। उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान कहा,

“मुझे एहसास हुआ कि नूर की कहानी ने आम लोगों को, विशेष रूप से युवाओं के दिल को कितना छुआ … मुझे लगा कि नूर के संदेश, उसके आदर्शों और उसके साहस को आज के समय में याद रखना बेहद जरूरी है।”

लेखिका श्रावणी बसु द्वारा लिखी गई किताब, ‘द स्पाई प्रिसेंज: द लाइफ़ ऑफ़ नूर इनायत ख़ान’

हाल ही में, हॉलीवुड़ में द्वितीय विश्व-युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले जासूसों पर एक फिल्म बनाने की घोषणा की गयी है। इस फिल्म में नूर इनायत ख़ान का किरदार भारतीय अभिनेत्री राधिका आप्टे निभाएंगी। उम्मीद है कि नूर की कहानी बड़े परदे पर भी लोगों का दिल छू जाएगी।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post नूर इनायत ख़ान : एक भारतीय शहज़ादी, जो बनी पहली महिला ‘वायरलेस ऑपरेटर’ जासूस! appeared first on The Better India - Hindi.

कादर ख़ान: क़ब्रिस्तान में डायलॉग प्रैक्टिस करने से लेकर हिंदी सिनेमा के दिग्गज कलाकार बनने तक का सफर!

$
0
0

“बेटे, इस फ़कीर की एक बात याद रखना… ज़िंदगी का अगर सही लुत्फ़ उठाना है न, तो मौत से खेलो… सुख में हँसते हो, तो दुःख में कहकहे लगाओ.. ज़िंदगी का अंदाज़ बदल जायेगा! बेटे ज़िन्दा हैं वो लोग जो मौत से टकराते हैं; मुर्दों से बद्तर हैं वो लोग, जो मौत से घबराते हैं… सुख को ठोकर मार और दुःख को अपना. सुख तो बेवफ़ा है चंद दिनों के लिए आता है और चला जाता है, मगर दुःख; दुःख तो अपना साथी है अपने साथ रहता है! पोंछ ले आँसू, पोंछ ले आँसू; दुःख को अपना ले. अरे, तक़दीर तेरे क़दमों में होगी और तू मुक़द्दर का बादशाह होगा…”

साल 1977 में आई अमिताभ बच्चन की फ़िल्म, ‘मुकद्दर का सिकंदर’ और इस फ़िल्म के इस एक संवाद ने लोगों का दिल छू लिया था। इतना ही नहीं, जब अमिताभ बच्चन ने इस डायलॉग को सुना तो उनकी आँखों से आँसू बह निकले थे। इस डायलॉग को लिखा था कादर ख़ान ने।

80 और 90 के दशक में हिंदी सिनेमा के लिए पटकथा लेखन का अगर कोई सिकंदर था, तो वह थे कादर ख़ान!

31 दिसंबर 2018 को लम्बे समय से बीमार चल रहे हिंदी सिनेमा जगत के दिग्गज कलाकार और पटकथा लेखक, कादर ख़ान का निधन हो गया।

यह कादर ख़ान ही थे जिनके लिखे संवाद कई हिट फिल्मों की नींव बने। महानायक अमिताभ बच्चन को भी उनके द्वारा लिखे गये डायलॉग्स ने ही बॉलीवुड का ‘एंग्रीयंग मैन’ बनाया था।

अमिताभ बच्चन के साथ कादर खान

काबुल में जन्मे कादर ख़ान ने साल 1973 में राजेश खन्ना के साथ फिल्म ‘दाग’ से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की। इसके बाद शुरू हुआ कभी न रुकने वाला एक ख़ूबसूरत सिलसिला, जहाँ कादर ख़ान 300 से अधिक फिल्मों में नज़र आए। 80 से लेकर 90 के दशक में सहायद ही कोई ऐसी फ़िल्म आई होगी, जिसमें उन्होंने कोई भूमिका न अदा की हो।

पर कादर ख़ान को ये नाम और शोहरत रातों-रात नहीं मिली थी। उन्होंने इस मुकाम तक पहुँचने के लिए न जाने कितनी ठोकरें खायीं। बहुत ही कम उम्र में उनके माता-पिता एक दुसरे से अलग हो गए और उनकी माँ की दूसरी शादी कर ली।

उनके सौतेले पिता का रवैया उनके साथ कभी भी अच्छा नहीं था। कभी कई-कई दिनों तक उन्हें भूखा रहना पड़ता, तो कभी मार-पीट कर, घर से निकाल दिया जाता था। पर ये उन की हिम्मत और कुछ कर गुज़रने की लगन थी, कि उन्होंने ज़िंदगी में अपना एक अलग मुकाम बनाया। कई मौको पर कादर ख़ान ने कहा था कि उनकी कामयाबी में उनकी माँ की सलाह और साथ का बहुत बड़ा हाथ रहा।

बचपन में उनके घर के पास एक फैक्ट्री हुआ करती थी, जहाँ उनके साथ के बच्चे कुछ देर काम करके एक-दो रूपये कमा लिया करते थे। एक दिन कादर ने भी इस फैक्ट्री में काम करने की सोची। लेकिन जउन्हें जाता देख, उनकी माँ ने उन्हें रोककर कहा, “मुझे पता है, तुम कहाँ जा रहे हो। तुम उन बच्चों के साथ चंद पैसे कमाने जा रहे हो। पर ये सब तुम्हें कभी भी बहुत आगे तक नहीं ले जायेगा। अगर तुम सच में चाहते हो कि तुम्हारा परिवार गरीबी में न रहे, तो जितना पढ़ सकते हो उतना पढ़ो।”

कादर ख़ान

कादर पर उनकी माँ की इस सीख का इतना असर हुआ कि उन्होंने पूरी ज़िन्दगी सीखना और पढ़ना कभी नहीं छोड़ा। मुंबई के एक कॉलेज से कादर ख़ान ने इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया था। इसके बाद उन्होंने एक इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफ़ेसर के तौर पर काम भी किया।

शुरू से ही उन्हें डायलॉग बोलने और एक्टिंग का भी शौक़ था। स्कूल के दिनों से ही उनका रिश्ता थिएटर से जुड़ गया था। बचपन में वे एक कब्रिस्तान में जाकर डायलॉग बोलने का रियाज़ करते थे। एक लम्बे अरसे तक थिएटर से जुड़े रहने के पश्चात उनके एक नाटक ‘लोकल ट्रेन’ को ‘ऑल इंडिया बेस्ट प्ले’ का ख़िताब मिला। इस नाटक की इतनी चर्चा थी, कि उस वक़्त के मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार ने इसे देखने की गुज़ारिश की।

कादर ख़ान ने भी तुरंत सभी तैयारियाँ कर, दिलीप कुमार के लिए फिर से यह नाटक दिखाया। उनके नाटक से दिलीप कुमार इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत उन्हें दो फ़िल्मों के संवाद लेखन का ऑफर दे दिया। इसके बाद उनका रिश्ता फ़िल्मों से जुड़ गया। एक्टिंग के साथ-साथ उन्होंने 250 से अधिक फिल्मों के लिए संवाद लिखे।

दिलीप कुमार और कादर खान

साल 1974 में उन्हें अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा ब्रेक मिला। मनमोहन देसाई ने उन्हें अपनी एक फिल्म के लिए संवाद लिखने को कहा। हालांकि, उन्हें कादर ख़ान पर कोई ख़ास भरोसा नहीं था। देसाई अक्सर कहते, “तुम लोग शायरी तो अच्छी कर लेते हो पर मुझे चाहिए ऐसे डायलॉग जिस पर जनता ताली बजाए।”

फिर क्या था, कादर ख़ान संवाद लिखकर लाए और मनमोहन देसाई को कादर ख़ान के डायलॉग इतने पसंद आए कि वो घर के अंदर गए, अपना तोशिबा टीवी, 21000 रुपए और ब्रेसलेट कादर ख़ान को वहीं के वहीं तोहफ़े में दे दिया। इसके बाद कादर ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी भाषा पर पकड़, हाज़िर-जबावी कॉमेडी और बेहतरीन अदायगी ने उन्हें मशहूर पटकथा लेखकों की फ़ेहरिस्त में ला खड़ा किया।

पटकथा के साथ-साथ कादर ख़ान एक बेहतरीन अभिनेता भी थे। कोई भी किरदार हो; चाहे गंभीर या फिर कॉमेडी, कादर ख़ान के अभिनय का कोई सानी नहीं था। और कुछ इस तरह… कभी भूखा सोने वाला यह कलाकार अपनी कला के ज़रिये कामयाबी की सीढियाँ चढ़ता गया!

शायद कोई नहीं जो उनकी कमी को सिनेमा जगत में पूरा कर सके। पर जो जगह वो दर्शकों के दिलों में बना कर गए हैं, वह हमेशा कायम रहेगी!

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post कादर ख़ान: क़ब्रिस्तान में डायलॉग प्रैक्टिस करने से लेकर हिंदी सिनेमा के दिग्गज कलाकार बनने तक का सफर! appeared first on The Better India - Hindi.

पिता ने कर्ज़ लेकर बनवाया था क्रिकेट ग्राउंड, बेटी ने नेशनल टीम में सेलेक्ट होकर किया सपना पूरा!

$
0
0

हाल ही में भारतीय महिला क्रिकेट टीम में एक नई खिलाड़ी शामिल हुई हैं। 21 दिसंबर 2018 को राजस्थान के चुरू जिले से ताल्लुक रखने वाली प्रिया पुनिया को टीम में जगह मिली है। वह भारत-न्यूज़ीलैंड के बीच होने वाले 20-20 टूर्नामेंट के लिए चुनी गई टीम का हिस्सा हैं।

प्रिया का चयन उनके साथ-साथ उनके पिता सुरेंद्र पुनिया की मेहनत और लगन का भी नतीजा है। प्रिया की इस कामयाबी से उनके पिता का हर संघर्ष सफ़ल हो गया है। ख़बरों के मुताबिक, सुरेंद्र पुनिया ने अपनी कुछ प्रॉपर्टी बेच कर और कुछ कर्ज़ लेकर जयपुर के पास ही 22 लाख रूपये में 1.5 बीघा जमीन खरीदी थी, ताकि वे अपनी बेटी के लिए क्रिकेट ग्राउंड बनवा सकें।

प्रिया के पिता भारतीय सर्वेक्षण विभाग में कार्यरत हैं। साल 2016 में उनका तबादला दिल्ली से जयपुर हो गया था। जब जयपुर में प्रिया ने क्रिकेट अकैडमी ज्वाइन करनी चाही, तो वहाँ के कोच ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि ‘एक लड़की क्या कर पायेगी?’

यह बात प्रिया के दिल को लग गयी और उन्होंने उस अकैडमी में जाना छोड़ दिया।

यह घटना तब हुई, जब भारतीय टीम के लिए प्रिया का चयन लगभग तय था, लेकिन उन्हें टीम में जगह नहीं मिली थी। इसके एक साल पहले से ही, उत्तरी ज़ोन के लिए दिल्ली के तरफ़ से खेलने वाली प्रिया का प्रदर्शन काफ़ी अच्छा था। उन्होंने अपनी टीम के लिए 95 रन बनाए थे। ‘इंडिया ए’ टीम के लिए भी वह बेहतरीन प्रदर्शन कर चुकी हैं। 2015 में टीम के लिए नहीं चुने जाने के बारे में प्रिया ने कहा, “मुझे लगा था कि मेरा चयन होगा। मुझे बुरा लगा पर मैंने उम्मीद नहीं हारी। मुझे पता था कि मेरा समय भी आएगा।”

दिल्ली के लिए खेलते हुए (साभार: फेसबुक/प्रिया पुनिया)

अपनी बेटी की मेहनत और लगन को देखते हुए सुरेंद्र ने एक क्रिकेट-पिच बनाने वाले से बात की। लेकिन उसने इस काम के लिए 1 लाख रूपये की मांग की। इसलिए, सुरेंद्र ने खुद ही क्रिकेट पिच बनाने का फ़ैसला लिया और साथ ही इसके रख-रखाव के लिए हर महीने 15,000 रूपये खर्च किये।

प्रिया का जुनून था कि वह अपने दम पर ही टीम में अपनी जगह बनाएंगी। इसलिए जब बीसीसीआई के एक अधिकारी ने उनके पिता से उनके लिए सिफ़ारिश लगाने की बात की, तो प्रिया ने साफ इंकार कर दिया। प्रिया ने कहा कि अगर इस तरह से उन्हें टीम में जगह मिलेगी तो वह खुद पीछे हट जाएँगी।

इस 22-वर्षीय खिलाड़ी ने सिर्फ़ प्रैक्टिस या फिर टीम में चयन आदि के लिए ही मुश्किलों का सामना नहीं किया है। जयपुर आने के बाद उनका स्वास्थ्य पर भी असर पड़ा। उन्हें पहले पीलिया हो गया और फिर इसके तीन महीने बाद उनके हाथ का अंगूठा फ्रैक्चर हो गया था।

ऐसे में जब प्रिया का हौंसला टूटने लगा, तो उनके पिता न सिर्फ़ उनके मार्गदर्शक बने, बल्कि एक दोस्त के रूप में भी उनके साथ खड़े रहे। आज प्रिया की इस सफ़लता ने पिता और बेटी के सपनों में रंग भर दिए हैं।

कवर फोटो

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post पिता ने कर्ज़ लेकर बनवाया था क्रिकेट ग्राउंड, बेटी ने नेशनल टीम में सेलेक्ट होकर किया सपना पूरा! appeared first on The Better India - Hindi.


कभी विवादों में रहा, तो कभी इस पर रोक लगायी गयी; जानिये ‘भारत रत्न’का इतिहास!

$
0
0

मारे देश में असाधारण राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है, ‘भारत रत्न’! इसकी स्थापना 2 जनवरी 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा की गयी थी। शुरुआत में यह सम्मान कला, साहित्य, विज्ञान तथा सामाजिक सेवा के क्षेत्र में दिया जाता था। लेकिन अब इसे किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को उसके अभूतपूर्व योगदान और उपलब्धियों के लिए दिया जा सकता है।

‘भारत रत्न’ कोई पदवी नहीं बल्कि सिर्फ़ एक सम्मान है। कोई भी व्यक्ति इसे अपने नाम के साथ पदवी के तौर पर नहीं लगा सकता है। यह सम्मान भारत के किसी भी नागरिक को दिया जा सकता है, चाहे वह किसी भी जाति, व्यवसाय, पद और लिंग से सम्बंधित हो। आईये देश इस सर्वोच्च सम्मान के बारे में थोड़ा और जाने-

स्थापना :

‘भारत रत्न’ की स्थापना का उद्देश्य उन सभी लोगों को सम्मानित करना था, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से हर एक चुनौती को पार करते हुए, इस देश के विकास में अपना योगदान दिया। हर साल केवल तीन व्यक्तियों को ही इस सम्मान से नवाज़ा जा सकता है।

हालांकि, यह बिलकुल भी ज़रूरी नहीं कि हर साल यह सम्मान दिया जाये।

शुरुआत में मरणोपरांत किसी भी व्यक्ति को भारत रत्न से नवाज़े जाने का कोई प्रावधान नहीं था। लेकिन बाद में इस प्रावधान को भी शामिल किया गया।

भारत रत्न जिन भी लोगों को मिलना चाहिए, उनके नामों का सुझाव प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति को भेजा जाता है। लेकिन किसे भारत रत्न देना है और किसे नहीं, इसका फ़ैसला केवल राष्ट्रपति करते हैं। हर साल 26 जनवरी को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत व्यक्ति को भारत रत्न से सम्मानित किया जाता है। इस सम्मान के साथ कोई भी धनराशि नहीं दी जाती है।

बदलाव :

भारत रत्न पदक के डिजाईन में भी पहले से कई बदलाव किये गये हैं। शुरूआती दौर में यह एक 35 मिलीमीटर का गोलाकार स्वर्ण पदक हुआ करता था; जिस पर सामने की तरफ़ सूर्य-चिन्ह बना हुआ होता था, ऊपर ‘भारत रत्न’ लिखा होता था और नीचे एक पुष्प हार बना होता था। पदक के पिछले हिस्से पर राष्ट्रीय चिन्ह के नीचे ‘सत्यमेव जयते’ लिखा जाता था।

भारत रत्न

समय के साथ ‘भारत रत्न’ का रंग-रूप भी बदल गया। पश्चिम बंगाल के अलीपुर में बनाया जाने वाला यह पदक अब  पीपल के पत्ते के आकार में बनता है। यह तांबे का होता है और इस पर प्लैटिनम का सूर्य-चिन्ह बना होता है। इसके नीचे चाँदी से ‘भारत रत्न’ लिखा जाता है। इसे सफ़ेद फ़ीते के साथ गले में पहनाया जाता है।

देश के सबसे पहले भारत रत्न :

भारत रत्न की स्थापना वर्ष में यह सम्मान सबसे पहले राजनीतिज्ञ सी. राजागोपालाचारी, सर्वेपल्ली राधाकृष्णन (जो बाद में भारत के दुसरे राष्ट्रपति बने), और वैज्ञानिक सी.वी रमन को दिया गया था।

बाएं से: सी. राजागोपालाचारी, सर्वेपल्ली राधाकृष्णन और वैज्ञानिक सी.वी रमन

सम्मानित हुए भारतीय और विदेशी भी :

साल 2018 तक 45 लोगों को भारत सरकार द्वारा भारत रत्न से नवाज़ा जा चूका है।

इन 45 में से 12 लोगों को मरणोपरान्त यह सम्मान दिया गया। लाल बहादुर शास्त्री प्रथम व्यक्ति थे, जिन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न मिला। दिलचस्प बात यह है कि ‘भारत रत्न’ न सिर्फ़ भारतीय नागरिकों को बल्कि दो बार विदेशी नागरिकों को भी दिया गया।

पाकिस्तानी नागरिक अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान और साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला को भी भारत सरकार ने इस सम्मान से नवाज़ा। ग़फ़्फ़ार खान को यह सम्मान स्वतंत्रता के लिए उनके बलिदान और योगदान के लिए मिला, वही मंडेला को उनके असाधारण मानवीय कार्यों से प्रभावित होकर भारत रत्न दिया गया।

पाकिस्तानी नागरिक अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान और साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला

खेल जगत में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया गया है। सचिन भारत रत्न पाने वाले सबसे पहले खिलाड़ी और अब तक के सबसे कम उम्र के व्यक्ति हैं।

भारत रत्न लेते हुए सचिन तेंदुलकर

विवादों में घिरा रहा यह सम्मान :

भारत रत्न को लेकर देश में कई बार विवाद होते रहे हैं। बहुत बार बीच में इस सम्मान को स्थगित भी किया गया है।जुलाई 1977 से जनवरी 1980 तक और अगस्त 1992 से दिसंबर 1995 तक भारत रत्न पर रोक लगाई गयी थी। साल 1977 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सभी व्यक्तिगत सम्मानों पर प्रतिबन्ध लगाया था। लेकिन भारत की अगली प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 25 जनवरी 1980 को यह प्रतिबंध हटा दिया।

देश के सर्वोच्च सम्मान माने जाने वाले ‘भारत रत्न’ और विवादों का सिलसिला यही ख़त्म नहीं हुआ। साल 1992 में भारत रत्न के खिलाफ़ कोर्ट में याचिका दायर कर, इसकी वैधता पर सवाल उठाये गए। ये याचिकाएं केरल और मध्य-प्रदेश में की गयीं थी। इन याचिकाओं पर कार्यवाही के दौरान तीन साल तक किसी को भी भारत रत्न नहीं दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद दिसंबर 1995 में इसे फिर से शुरू किया गया।

चाहे कैसा भी इतिहास रहा हो इस सम्मान का, एक बात तो तय है कि देश का हर ‘भारत रत्न’, देश का गौरव है!

( संपादन – मानबी कटोच )


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post कभी विवादों में रहा, तो कभी इस पर रोक लगायी गयी; जानिये ‘भारत रत्न’ का इतिहास! appeared first on The Better India - Hindi.

रमाकांत आचरेकर : जिनके एक थप्पड़ ने बनाया दिया सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का ‘मास्टर ब्लास्टर’!

$
0
0

भारतीय क्रिकेट कोच, रमाकांत आचरेकर को ज़्यादातर मुंबई के शिवाजी पार्क में युवा खिलाड़ियों को क्रिकेट सिखाने के लिए जाना जाता रहा। मुंबई क्रिकेट टीम के लिए चयनकर्ता रहे, आचरेकर को साल 2010 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।

आचरेकर को एक क्रिकेट खिलाड़ी के तौर पर कोई बड़ी कामयाबी कभी नहीं मिली, लेकिन एक क्रिकेट कोच के रूप में उन्होंने देश को सचिन तेंदुलकर, अनिल कुम्बले जैसे बेहतरीन खिलाड़ी दिए। ये आचरेकर ही थे, जिन्होंने क्रिकेट के लिए सचिन की प्रतिभा को पहचाना और उसे इतना निखारा कि आज पूरा देश उन्हें ‘मास्टर ब्लास्टर’ के नाम से जानता है।

अपने कोच आचरेकर को भारत रत्न दिखाते हुए सचिन तेंदुलकर

अपने क्रिकेट करियर के दौरान अनगिनत रिकॉर्ड बनाने वाले, तेंदुलकर ने हमेशा ही अपनी कामयाबी का सबसे ज़्यादा श्रेय अपने गुरू, आचरेकर को दिया। सचिन को बचपन में क्रिकेट में सही दिशा दिखाने वाले अचरेकर ही थे।

एक इंटरव्यू के दौरान सचिन ने अपने बचपन की एक घटना को याद करते हुए बताया, “मैं अक्सर स्कूल के बाद भागकर लंच के लिए घर जाता था और तब तक आचरेकर सर मेरे लिए मैच तय करते थे। वे सामने वाली टीम से बात करते और सबको कहते कि मैं नंबर चार पर खेलूँगा।”

“एक दिन मैं अपने दोस्त के साथ अपना प्रैक्टिस मैच छोड़कर, हमारे स्कूल की सीनियर टीम का मैच देखने वानखेड़े स्टेडियम चला गया। वहां आचरेकर सर हमें मिल गये। उन्हें पता था कि मैं मैच छोड़कर आया हूँ, पर फिर भी उन्होंने मुझसे पूछा, ‘मैच कैसा रहा?’ मैंने उन्हें बताया कि हमारी टीम के लिए चीयर करने के लिए मैं मैच छोड़ कर आया हूँ। इतना सुनते ही उन्होंने मुझे एक चांटा मारा,” सचिन ने आगे कहा

सचिन को थप्पड़ मारकर अचरेकर ने उनसे कहा, “तुम यहाँ दूसरों के लिए चीयर करने के लिए नहीं हो। खुद इस तरह खेलो कि दुसरे तुम्हारे लिए चीयर करें।”

आचरेकर के उस एक थप्पड़ ने सचिन की ज़िंदगी बदल दी। उस दिन के बाद उन्होंने हर एक मैच को बहुत गंभीरता और ज़िम्मेदारी के साथ खेला। सचिन के अलावा और भी कई क्रिकेटर हैं, जो अपने करियर का श्रेय अचरेकर को देते हैं।

भारत के पूर्व खिलाड़ी चंद्रकांत पंडित ने एक बार बताया था, कि उनके क्रिकेट करियर के लिए उनके पिता को आचरेकर ने ही मनाया था। पंडित के पिता चाहते थे कि पंडित पढ़-लिखकर, कोई अच्छी नौकरी कर, पैसे कमाए। उनके पिता की बात सुन, आचरेकर ने उन्हें 1,000 रूपये देते हुए कहा था, “कल से तुम्हारा बेटा मेरा है और इसके लिए सैलरी मैं तुम्हे दूँगा”।

ऐसे ही न जाने कितने बेहतरीन खिलाड़ियों का जीवन आचरेकर ने संवारा और उनके इन्हीं छात्रों ने भारतीय क्रिकेट को विश्व-स्तर पर ला खड़ा किया। इनकी ज़िन्दगी के इन्हीं खट्टे-मीठे और प्रेरक घटनाओं को पत्रकार कुणाल पुरंदरे ने ‘रमाकांत आचरेकर : मास्टर ब्लास्टर्स मास्टर’ नामक किताब का रूप दिया।

भारतीय क्रिकेट टीम के द्रोणाचार्य कहे जाने वाले आचरेकर ने 2 जनवरी 2019 को आख़िरी सांस ली।

उनके निधन पर उनके सबसे काबिल छात्र, सचिन ने भावुक होकर लिखा, कि उन्होंने क्रिकेट की एबीसीडी आचरेकर से ही सीखी थीं। उनके करियर में आचरेकर के योगदान को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है और आज जिस मुकाम पर सचिन खड़े हैं, उसकी नींव आचरेकर ने ही बनाई है।

बेशक आज रमाकांत आचरेकर हमारे साथ नहीं हैं, पर उनके शिष्य आज भी देश का नाम रौशन कर रहे हैं! भारत को विश्व स्तरीय खिलाड़ी देने वाले इस महान कोच को विनम्र श्रद्धांजलि!

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post रमाकांत आचरेकर : जिनके एक थप्पड़ ने बनाया दिया सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का ‘मास्टर ब्लास्टर’! appeared first on The Better India - Hindi.

लोगों ने कीचड़ और पत्थर फेंक कर रोका, घर से निकाला पर स्त्री शिक्षा की ज्योत जलाये रखी सावित्रीबाई ने!

$
0
0

“यदि पत्थर पूजने से होते बच्चे
तो फिर नाहक
नर-नारी शादी क्यों रचाते?”

ये पंक्तियाँ सावित्री बाई फुले के मराठी कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ से एक कविता का हिंदी अनुवाद है। इस कविता के माध्यम से सावित्री बाई अंधविश्वास और रूढ़ियों का खंडन कर लोगों को जागरूक करती हैं।

साल 1852 में  ‘काव्य फुले’ प्रकाशित हुआ था। यह वह समय था, जब भारत में लड़कियों, शूद्रों और दलितों को शिक्षा प्राप्त करने पर मनाही थी। दलितों और महिलाओं के इस शोषण के खिलाफ़ सावित्री बाई फुले ने आवाज़ उठाई। उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के समाज सुधार कार्यों में उनका कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।

सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फूले

ज्योतिबा फुले उस समय के महान सुधारकों में से एक थे। उन्होंने दलित उत्थान और स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किये और इसकी शुरुआत की अपने ही घर से। सबसे पहले ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्री को शिक्षित किया और फिर सावित्री उनके साथ दलित एवं स्त्री शिक्षा की कमान सम्भालने लगी।

महाराष्ट्र के पुणे में ज्योतिबा ने 13 मई 1848 को लड़कियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल ‘बालिका विद्यालय’ खोला। इस स्कूल को आगे बढ़ाया सावित्री बाई फुले ने। सावित्री न सिर्फ़ इस स्कूल की बल्कि देश की पहली शिक्षिका बनीं। साल 1848 से 1851 के बीच सावित्री और ज्योतिबा के निरंतर प्रयासों से ऐसे 18 कन्या विद्यालय पूरे देश में खोले गये।

देश में महिला शिक्षा के दरवाज़े खोलने वाली इस महान समाज सुधारिका, सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में उनकी शादी ज्योतिराव फुले से कर दी गयी। ज्योतिराव ने उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया और पढ़ने के लिए प्रेरित किया। सावित्री ने न केवल शिक्षा ग्रहण की बल्कि समय के साथ वे एक विचारक, लेखिका और समाजसेवी के रूप में उभरीं।

सावित्री बाई को पढ़ाते हुए ज्योतिबा का एक प्रतिकात्मक चित्र

जब सावित्री ने कन्या विद्यालय में पढ़ाना शुरू किया, तो समाज में उनका पुरज़ोर विरोध हुआ। वे अगर स्कूल जाती थीं तो रास्ते में लोग उन्हें पत्थर मारते और यहाँ तक कि कीचड़ भी फेंकते थे। इसलिए वे अपने थैले में अलग से एक साड़ी रखती ताकि स्कूल पहुँचने पर कपड़े बदलकर बच्चियों को पढ़ाना शुरू कर सकें।

इन सब चुनौतियों के बावजूद सावित्री का मनोबल नहीं टुटा, बल्कि वे इससे भी बड़ी चुनौती का हल खोजने में अपना समय देने लगी। उस समय उनके लिए सबसे ज्यादा जरूरी था, कि लोग अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजें। सावित्री घर-घर जाकर लोगों से बात करती, उन्हें शिक्षा का महत्व समझाती। न जाने कितनी ही बार उन्हें लोगों से तिरस्कार मिला।

बच्चियों को पढ़ाते हुए सावित्री बाई फूले

सावित्री बाई मराठी भाषा की प्रखर कवियत्री बनकर भी उभरीं। उन्होंने दलित तथा स्त्री शिक्षा के मुद्दे पर बहुत-सी प्रेरणात्मक कविताएँ लिखीं। बच्चों को शिक्षा का महत्व समझाने के लिए उन्होंने बालगीत भी लिखे। उनके लिखे एक बालगीत का हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार है

सुनहरे दिन का उदय हुआ
आओ प्यारे बच्चो
हर्ष उल्लास से
तुम्हारा स्वागत करती हूँ आज

विद्या ही सच्चा धन है
सभी धन-दौलत से बढ़कर
जिसके पास है ज्ञान का भंडार
है वह सच्चा ज्ञानी लोगों की नज़रो में

(सावित्रीबाई फुले की मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद अनिता भारती ने किया है। अनिता भारती सुप्रसिद्ध दलित स्त्रीवादी साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

उनके समाज सुधार के कार्यों को बढ़ते देख विरोधियों ने उनके परिवार वालों को इस कदर भड़काया कि ज्योतिबा और सावित्री को उनके परिवार ने ही घर से बाहर निकाल दिया। ज्योतिबा और सावित्री घर से बेघर हो गये लेकिन उन्होंने न जाने कितनी ही बाल-विधवाओं को आश्रय देकर, उनका जीवन संवारा।

समाज में जागरूकता लाने का कार्य भी सावित्री बाई ने बाखूबी किया

लोग जितना उन्हें रोकने की कोशिश करते, उतने ही आत्म-विश्वास से सावित्री कुरूतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाती।  ज्योतिबा और सावित्री बाई ने मिलकर ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इस संगठन के जरिये उन्होंने लोगों को दहेज प्रथा और बाल विवाह जैसी कुरूतियों के खिलाफ़ जागरूक किया।

सावित्रीबाई और ज्योतिबा ने दूसरों को ही उपदेश नहीं दिए। अपने विचारों को खुद के जीवन में भी उतारा। ज्योतिबा और सावित्रीबाई के कोई संतान नहीं थी। ज्योतिबा पर लोगों ने दबाव डाला कि वे दूसरी शादी कर लें। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। बल्कि उनके ही विधवा आश्रम में जब एक विधवा ने बच्चे को जन्म दिया, तो ज्योतिबा और सावित्री ने इस बच्चे को गोद लेकर इसे अपना नाम दिया।

सावित्री बाई ने ज्योतिबा के जाने के बाद भी उनकी क्रांति की मशाल को जलाये रखा। जब ज्योतिबा फुले ने इस दुनिया से विदा ली, तब भी सावित्री अडिग रहीं। उन्होंने अपने पति की चिता को खुद मुखाग्नि दी। भारत में शायद यह पहली बार था जब किसी औरत ने इतना साहस भरा कदम उठाया। ज्योतिबा के बाद सावित्री ने सत्यशोधक समाज संगठन को बखूबी संभाला।

सत्यशोधक समाज के सम्मेलनों में भाग लेती सावित्री बाई फूले

अपने जीवन की अंतिम सांस तक वे स्त्रियों के अधिकारों, छुआछूत, सती प्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसे मुद्दों पर काम करती रहीं।

साल 1897 में सावित्रीबाई ने अपने बेटे यशवंत राव के साथ मिलकर प्लेग पीड़ितों के लिए एक अस्पताल खोला। यहाँ यशवंतराव मरीजों का इलाज करते और सावित्रीबाई मरीजों की देखभाल करती थीं। इन मरीजों की देखभाल करते हुए वो खुद भी इस बीमारी की शिकार हो गईं।

पुणे में लगी उनकी प्रतिमा (विकिपीडिया)

10 मार्च 1897 को सावित्री बाई ने अपनी आखिरी सांस ली। भले ही वे दुनिया से चली गई लेकिन अपने पीछे अनगिनत सावित्री छोड़ गयीं, जिन्हें इस समाज में अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना आता है। उस वक़्त भले ही ज्योतिबा और सावित्री के महत्व को लोगों ने नहीं समझा, लेकिन आज बड़े-बड़े संस्थानों के छात्र-छात्राएं इन दोनों द्वारा किये गये कार्यों पर शोधपत्र लिखते हैं।

आज स्त्री साहित्य, दलित साहित्य और शिक्षा के अधिकार आदि पर महाविद्यालयों और विश्व-विद्यालयों में कोर्स उपलब्ध हैं और शायद, यही सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले को सबसे बड़ी श्रद्धांजलि है!


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post लोगों ने कीचड़ और पत्थर फेंक कर रोका, घर से निकाला पर स्त्री शिक्षा की ज्योत जलाये रखी सावित्रीबाई ने! appeared first on The Better India - Hindi.

गोपालदास ‘नीरज’: ‘कारवाँ गुजर गया’और रह गयी बस स्मृति शेष!

$
0
0

“आँसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा
जहाँ प्रेम की चर्चा होगी, मेरा नाम लिया जाएगा”

वि गोपालदास ‘नीरज’ की लिखी ये पंक्तियाँ शायद उनके अपने जीवन का सार हैं। क्योंकि गोपालदास ‘नीरज’ हिंदी साहित्य का वो चमकता सितारा हैं जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी और सरल हिंदी से साहित्य को एक नया आयाम दिया। उनकी लेखन शैली में प्रेम का भाव निहित था। उनकी रचनाओं में दर्द और प्रेम की अभिव्यक्ति एक साथ देखने को मिलती थी।

कहा जाता है कि हरिवंश राय बच्चन के बाद युवा पीढ़ी पर अगर दुसरे किसी कवि ने राज किया, तो वो थे गोपालदास ‘नीरज’! उनका नाम गोपालदास सक्सेना था और ‘नीरज’ उनका उपनाम। उनका जन्म 4 जनवरी, 1925 को उत्तरप्रदेश में इटावा के ‘पुरावली’ गाँव में एक साधारण कायस्थ-परिवार में हुआ था। बहुत कम उम्र में ही पिता का साया सिर से उठ गया, तो उन्हें एटा जाकर अपनी बुआ के यहाँ निर्वाह करना पड़ा।

ज़िंदगी में बचपन से ही चुनौतियों की कोई कमी नहीं रही। साल 1942 में जैसे-तैसे हाई स्कूल पास किया और फिर दिल्ली जाकर एक जगह टाइपिस्ट की नौकरी करने लगे। पर पढ़ाई के प्रति उनकी लगन कभी भी कम ना हुई। इसीलिए उन्होंने चाहे दिल्ली में कोई नौकरी की या फिर बाद में कानपूर आकर, साथ में उनकी पढ़ाई भी जारी रही। ये उनका जुनून ही था कि साल 1953 तक उन्होंने अपना एम. ए पूरा कर लिया।

यह भी पढ़ें: यथार्थ के कवि निराला की कविता और एक युवा का संगीत; शायद यही है इस महान कवि को असली श्रद्धांजलि!

उनके काव्य लेखन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने हाई स्कूल के दिनों में ही लिखना शुरू किया था। वहाँ किसी लड़की से उनका प्रणय-संबंध जुड़ गया। पर वह रिश्ता ज्यादा चला नहीं और वह लड़की उनसे दूर हो गयी। उस दर्द को बयान करने के लिए गोपालदास ने काव्य का सहारा लिया और लिखा,

“कितना एकाकी मम जीवन,
किसी पेड़ पर यदि कोई पक्षी का जोड़ा बैठा होता,
तो न उसे भी आँखें भरकर मैं इस डर से देखा करता,
कहीं नज़र लग जाय न इनको।”

हालांकि, अपने लेखन के बारे में गोपालदास ने एक बार कहा,

“मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हाँ इतना ज़रूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में ‘निशा निमंत्रण’ पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई….”

बच्चन जी के साथ उनका रिश्ता दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया। वे अक्सर बताते थे कि एक कवि सम्मेलन में भाग लेने जाते हुये जिस वाहन की व्यवस्था की गई थी, उसमें इनके बैठने की जगह नहीं बची। ऐसे में बच्चन जी ने उनसे कहा कि तुम मेरी गोद में बैठ जाओ। इन्होंने कहा कि याद रखियेगा, आज से मैं आपका गोद लिया पुत्र हो गया। यही बात उन्होंने अमिताभ बच्चन को भी कही कि तुमसे पहले मैं तुम्हारे पिता का पुत्र हूँ।

ज़िंदगी के संघर्ष के साथ उनकी लेखनी भी चलती रही। उनके व्यक्तित्व की सबसे खास बात यह थी कि उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ़ डायरी या किताबों तक सीमित नहीं रहने दिया। वे लगातार कवि सम्मेलनों में भाग लेते और अपने शब्दों से ऐसा समां बांधते कि उनकी बात श्रोतागण के दिलों में घर कर जाती। अगर कहीं, किसी कवि सम्मेलन में वे स्वयं ना जाएँ तो उन्हें आग्रह कर बुलाया जाता।

यह भी पढ़ें: हिंदी साहित्य के ‘विलियम वर्ड्सवर्थ’ सुमित्रानंदन पंत!

एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि एक बार इटावा के किसी गाँव से काव्यपाठ करके लौट रहे थे। जीप जंगल से गुजर रही थी कि डीजल खत्म हो गया। रात के गहरे अंधेरे में दो नकाबपोश डाकुओं ने उन्हें घेर लिया और अपने सरदार दद्दा के पास ले गए। दद्दा चारपाई पर लेटे हुए थे। डीजल खत्म होने की बात बताई तो दद्दा बोले- पहले भजन सुनाओ, फिर हम मानेंगे। इस पर उन्होंने कई भजन सुनाए। दद्दा ने जेब से सौ रुपये निकालकर दिए और कहा, ‘बहुत अच्छा गा लेते हो’। बाद में गोपालदास को जानकारी मिली कि वे दद्दा बागी सरदार माधौ सिंह थे।

बेशक, उनके कद्रदानों की कोई कमी नहीं थी। वे जो भी लिखते या फिर पढ़ते, वो लोगों के दिल को छू जाता। इसलिए जिन मुद्दों पर अक्सर बाकी लोग चुप हो जाते, उन पर भी गोपालदास लिखना ना छोड़ते।

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए।

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए।

जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए।

गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

जब कोलकाता में भीषण अकाल पड़ा तो गोपालदास ने निःशुल्क काव्यपाठ किये। इन सम्मेलनों से जो भी राशि इकट्ठी हुई, उसे लोगों की मदद के लिए दान किया गया। पर कवि सम्मेलनों में उनकी धाक जम चुकी थी। कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को बम्बई के फिल्म जगत ने गीतकार के रूप में ‘नई उमर की नई फसल’ फिल्म के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया गया।

उस वक़्त वे अपने कवि-सम्मेलनों में इतने मसरूफ़ थे कि उन्होंने मना कर दिया। पर जब कई बार उन्हें आग्रह किया तो उन्होंने अपनी कुछ कविताएँ फ़िल्म के लिए दे दीं। उनकी कविताओं को ही संगीतबद्ध कर गीत बनाये गये।

और जब उनकी कविता ‘कारवाँ गुजर गया’ गीत के तौर पर पहली बार ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित हुई, तो इसने उन्हें रातोंरात मशहूर कर दिया। इसके बाद उन्हें बहुत-सी फ़िल्मों में काम करने का मौका मिला। गीतकार के तौर पर उन्हें तीन बार फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।

कारवाँ गुज़र गया
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठें कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिए धुआँ-धुआँ पहन गए,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके,
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ़ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक़्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी,
और हम अजान-से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

इसके अलावा, दर्द दिया है, प्राण गीत, आसावरी, गीत जो गाए नहीं, बादर बरस गयो, दो गीत, नदी किनारे, नीरज की गीतीकाएं, नीरज की पाती, बादलों से सलाम लेता हूँ, कुछ दोहे नीरज के आदि संग्रह उनकी प्रमुख कृतियों में शामिल हैं।उन्होंने कई सालों तक लगातार फ़िल्मों के लिए काम किया। पर एक वक़्त के बाद हिंदी सिनेमा में फ़िल्मों का रुख कुछ बदलने लगा और उनका मन मुंबई से ऊब गया और उन्होंने अलीगढ़ की टिकट कटा ली। अपने इस फैसले पर वे अक्सर कहते थे,

“इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥”

एक तरफ जहाँ उनके चाहने वालों की कमी नहीं थी, तो दूसरी तरफ साहित्य में उनकी आलोचना भी कम ना थी। वे सादा और सरल पाठकों के मन की गहराई में उतरे, तो वहीं गंभीर अध्ययन करने वालों के मन को भी छुआ। साहित्य के मशहूर कवि ‘दिनकर’ जी ने उन्हें हिन्दी की ‘वीणा’ माना, तो कुछ अन्य लोग उन्हें ‘संत कवि’ की संज्ञा देते हैं। वहीं कुछ आलोचक उन्हें ‘निराश मृत्युवादी’ समझते हैं।

अब तारीफ़ हो या आलोचना, लेकिन साहित्यिक गलियारों में उनका जिक्र लाज़मी है ‘प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह’

प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह

जब चले जाएंगे लौट के सावन की तरह ,
याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह |

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा
जाने शरमाए वो क्यों गांव की दुल्हन की तरह |

कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो
जिन्दगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह |

दाग मुझमें है कि तुझमें यह पता तब होगा,
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह |

हर किसी शख्स की किस्मत का यही है किस्सा,
आए राजा की तरह ,जाए वो निर्धन की तरह |

जिसमें इन्सान के दिल की न हो धड़कन की ‘नीरज’
शायरी तो है वह अखबार की कतरन की तरह |

गोपालदास ने हिंदी साहित्य की ‘हाइकू’ और ‘मुक्तक’ जैसी विधाओं पर भी अपनी लेखनी चलाई, जिन्हें आज कल लोग कहीं पीछे छोड़ते जा रहे हैं। उनके लिखे हाइकू और मुक्तक आप पढ़ सकते हैं।

हाइकू

जन्म मरण
समय की गति के
हैं दो चरण

वो हैं अकेले
दूर खडे होकर
देखें जो मेले

मेरी जवानी
कटे हुये पंखों की
एक निशानी

हे स्वर्ण केशी
भूल न यौवन है
पंछी विदेशी

वो है अपने
देखें हो मैने जैसे
झूठे सपने

किससे कहें
सब के सब दुख
खुद ही सहें

हे अनजानी
जीवन की कहानी
किसने जानी


मुक्तक

बादलों से सलाम लेता हूँ
वक्त क़े हाथ थाम लेता हूँ
सारा मैख़ाना झूम उठता है
जब मैं हाथों में जाम लेता हूँ

ख़ुशी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा

है प्यार से उसकी कोई पहचान नहीं
जाना है किधर उसका कोई ज्ञान नहीं
तुम ढूंढ रहे हो किसे इस बस्ती में
इस दौर का इन्सान है इन्सान नहीं

अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई

हर सुबह शाम की शरारत है
हर ख़ुशी अश्क़ की तिज़ारत है
मुझसे न पूछो अर्थ तुम यूँ जीवन का
ज़िन्दग़ी मौत की इबारत है

काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी

हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए समय-समय पर उन्हें कई सम्मानों से नवाज़ा गया। वे पहले कवि हैं जिन्हें भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में दो बार सम्मानित किया। साल 1991 में उन्हें ‘पद्मश्री’ मिला तो साल 2007 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा गया। उन्हें ‘यश भारती’ और ‘विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार’ भी मिला।

गोपालदास कवि सम्मेलनों में लगातार जाते रहते थे। इसके लिए अक्सर यात्रा पर रहते और इसका सबसे गहरा प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ा। जीवन के अंतिम वर्षों में उनका शरीर मानो बिमारियों का घर हो गया था। काफ़ी वक़्त तक बीमारी और दर्द से जूझने के बाद, 19 जुलाई 2018 को उन्होंने दुनिया से विदा ली।

जीवन कट गया

जीवन कटना था, कट गया
अच्छा कटा, बुरा कटा
यह तुम जानो
मैं तो यह समझता हूँ
कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया
जीवन कटना था कट गया।
रीता है क्या कुछ
बीता है क्या कुछ
यह हिसाब तुम करो
मैं तो यह कहता हूँ
परदा भरम का जो हटना था, हट गया
जीवन कटना था कट गया।

क्या होगा चुकने के बाद
बूँद-बूँद रिसने के बाद
यह चिंता तुम करो
मैं तो यह कहता हूँ
कर्जा जो मिटटी का पटना था, पट गया
जीवन कटना था कट गया।

बँधा हूँ कि खुला हूँ
मैला हूँ कि धुला हूँ
यह विचार तुम करो
मैं तो यह सुनता हूँ
घट-घट का अंतर जो घटना था, घट गया
जीवन कटना था कट गया।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post गोपालदास ‘नीरज’: ‘कारवाँ गुजर गया’ और रह गयी बस स्मृति शेष! appeared first on The Better India - Hindi.

नेत्रहीन नागरिकों के लिए एक पहल, ‘ब्रेल लिपि’में लिखा गया भारतीय संविधान!

$
0
0

साल 2018 में, संविधान दिवस के मौके पर भारत सरकार ने नेत्रहीन नागरिकों के लिए एक पहल की। दरअसल, नेत्रहीन नागरिकों के लिए ‘भारतीय संविधान’ को ब्रेल लिपि में उपलब्ध करवाया गया है। ऐसा इतिहास में पहली बार हुआ।

ब्रेल लिपि वह लिपि है जिसको विश्व भर में नेत्रहीनों को पढ़ने और लिखने में छूकर व्यवहार में लाया जाता है। छह बिंदुओं के उपयोग कर 64 अक्षर और चिह्न वाली यह लिपि बनायी गई है।

संविधान को इस लिपि में लिखने के प्रोजेक्ट पर स्वागत थोराट (फाउंडर, स्पर्शज्ञान अख़बार) ने ‘सावी फाउंडेशन‘ और ‘द बुद्धिस्ट एसोसिएशन फॉर विज़ुअल्ली इम्पेयर्ड’ के साथ मिलकर काम किया। अब कोई भी नेत्रहीन व्यक्ति जो कि ब्रेल लिपि में पढ़ना जानता हैं वह खुद भारतीय संविधान को पढ़ सकता है। संविधान को पांच भागों में विभाजित कर उसे ब्रेल लिपि में लिखा गया है।

स्वागत थोराट ने साल 2008 में मराठी भाषा में ब्रेल अख़बार, ‘स्पर्शज्ञान’ की शुरुआत की थी। यह भारत का पहला ब्रेल अख़बार है। उन्हीं के प्रयासों से हिंदी भाषा में भी ब्रेल अख़बार ‘रिलायंस दृष्टि’ की शुरुआत की गई है। थोराट ने कहा, “वे संविधान के साथ और भी पुस्तकें ब्रेल लिपि में प्रकाशित करेंगे ताकि जो भी नेत्रहीन छात्र वकालत या फिर प्रशासनिक सेवाओं में जाने का सपना देखते हैं, उनकी मदद हो सके।”

ब्रेल लिपि 150 पन्नों को पार नहीं कर सकती इसलिए संविधान को पांच भागों में विभाजित कर प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया।

भारत में ब्रेल लिपि को साल 1950 के बाद अपनाया गया। भारतीय भाषाओं की लिपियों को ‘ब्रेल पद्धिति’ से निरुपित करने के लिए एक समान नियम व निर्देश बनाये गये और इसे ‘भारती ब्रेल’ कहा गया।

‘ब्रेल लिपि’ का अविष्कार साल 1821 में एक नेत्रहीन फ्रांसीसी लेखक लुई ब्रेल ने किया था। 4 जनवरी 1809 को जन्में लुई ने बचपन में एक दुर्घटना में अपनी आँखों की रोशनी खो दी थी। लेकिन इस एक दुर्घटना को वो अपने जीवन का सार नहीं बनाना चाहते थे और इस लिए उन्होंने निरंतर प्रयास किये कि वे कुछ ऐसा करें जिससे ना केवल उन्हें बल्कि पूरी दुनिया में उनके जैसे और भी लोगों को लिखने-पढ़ने का मौका मिले। उनके नाम पर ही इस लिपि को ‘ब्रेल लिपि’ कहा गया।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post नेत्रहीन नागरिकों के लिए एक पहल, ‘ब्रेल लिपि’ में लिखा गया भारतीय संविधान! appeared first on The Better India - Hindi.

‘स्पर्शज्ञान’: नेत्रहीनों के लिए देश का पहला ब्रेल अख़बार!

$
0
0

हाराष्ट्र के स्वागत थोराट, फरवरी 2008 से भारत का पहला ब्रेल अख़बार ‘स्पर्शज्ञान’ चला रहे हैं। मराठी भाषा में प्रकाशित होने वाला 50 पन्नों का यह अख़बार, महीने की 1 तारीख़ और 15 तारीख़ को प्रकाशित होता है। ‘स्पर्शज्ञान’ का मतलब होता है ‘स्पर्श करके ज्ञान अर्जित करना’!

स्वागत थोराट का यह अख़बार महाराष्ट्र के 31 जिलों में मौजूद नेत्रहीन स्कूलों और नेत्रहीनों के विकास से जुड़ी विभिन्न स्वंय सेवी संस्थाओं को मुफ्त में दिया जाता है। एक इंटरव्यू के दौरान थोराट ने बताया था कि उनकी शुरुआत अख़बार की 100 प्रतियों के साथ हुई थी, लेकिन अब वे 400 से ज्यादा प्रतियाँ प्रकाशित करते हैं।

स्वागत थोराट पेशे से स्वतंत्र पत्रकार और थियेटर निर्देशक रहे हैं। वे नियमित अन्तराल पर दूरदर्शन और कई अन्य मीडिया संस्थानों के लिए डॉक्युमेंट्री बनाते थे।

स्वागत थोराट (बाएं), एक थिएटर नाटक निर्देशित करते हुए (दाएं)

इसी सिलसिले में उनको एक बार दूरदर्शन के ‘बालचित्र वाहिनी’ कार्यक्रम के लिए डॉक्यूमेंट्री बनाने का मौका मिला जो कि नेत्रहीनों के बारे में थी। इसी दौरान थोराट को नेत्रहीन बच्चों से सीधा मिलने, उन्हें जानने और उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा समझने का मौका मिला। थोराट ने जाना कि कोई भी शारीरिक अक्षमता इन बच्चों की कल्पना और आगे बढ़ने के जज़्बे को नहीं रोक सकती।

साल 1997 में थोराट ने एक मराठी नाटक ‘स्वतंत्रयाची यशोगथा’ का निर्देशन किया। इस नाटक में पुणे के दो स्कूलों के 88 नेत्रहीन बच्चों ने हिस्सा लिया। यह नाटक इतना सफल रहा कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा हुई। इस नाटक में  88 नेत्रहीन कलाकारों को शामिल करने के लिए इसका नाम गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज किया गया। थोराट ने बताया,

“जब मैं इस नाटक के मंचन के लिए इन बच्चों के साथ यात्रा कर रहा था तो मैंने देखा कि ये बच्चे आपस में देश दुनिया की उन चीजों के बारे में बात कर रहे थे जो इन्होने पहले कहीं पढ़ी थी या सुनी थी। तब मुझे अहसास हुआ कि ये बच्चे और ज्यादा जानने को इच्छुक हैं और ये उनकी जरूरत भी है।”

इसके बाद थोराट ने ठान लिया कि वे देश में नेत्रहीन लोगों के लिए जरुर कुछ करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपनी बचत से लगभग 4 लाख रूपये खर्च कर एक ब्रेल मशीन खरीदी और मुंबई में एक ऑफिस भी किराये पर लिया। जिसके बाद 15 फरवरी, 2008 को ‘स्पर्शज्ञान’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ।

थोराट कहते हैं कि हमारे समाज में नेत्रहीन लोगों के लिए बहुत कुछ होने की जरूरत है। आज उनकी टीम में छह लोग हैं। उन्हीं के प्रयासों के चलते साल 2012 में रिलायंस फाउंडेशन ने भी ब्रेल लिपि में एक हिंदी अख़बार ‘रिलायंस दृष्टि’ की शुरुआत की। रिलायंस दृष्टि का संपादन भी स्वागत थोराट ही करते हैं।

स्वागत थोराट के जैसे ही एक और समाज सेवी उपासना मकाती ने भी साल 2013 में नेत्रहीन लोगों के लिए ब्रेल लिपि में एक लाइफस्टाइल मैगज़ीन ‘व्हाइट प्रिंट‘ शुरू की। अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित होने वाली यह मैगज़ीन देश की पहली लाइफस्टाइल ब्रेल मैगज़ीन है।

उपासना मकाती

थोराट का कहना है कि सभी पुस्तकालयों में दृष्टिहीन छात्रों के लिए ब्रेल लिपि में पुस्तकों का एक विभाग अलग से होना चाहिए। हालांकि, शुरू में लोगों को थोराट का काम समझ नहीं आता था पर अब उनके और भी दोस्त व साथी उनका साथ दे रहे हैं।

इस अख़बार में सामाजिक मुद्दों, अंतरराष्ट्रीय मामलों, प्रेरक जीवनी के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, संगीत, फिल्म, थियेटर, साहित्य और खानपान से जुड़ी ख़बरें होती हैं।

आज हमारे देश में इस तरह के अख़बारों की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है और इस पर थोराट कहते हैं,

“मैं उस दिन का सपना देख रहा हूँ जब इन लोगों (दृष्टिहीन) को इनका एक एक दैनिक अख़बार मिलेगा। मुझे उम्मीद है कि कोई एक मीडिया हाउस तो ऐसा अख़बार शुरू करेगा, और अगर नहीं तो कुछ सालों में, मैं एक दैनिक ब्रेल अख़बार जरुर शुरू करूँगा।”

ये स्वागत थोराट और उनके जैसे कुछ अन्य संवेदनशील लोगों के सतत प्रयासों का ही परिणाम है कि आज भारतीय संविधान को देश के दृष्टिहीन नागरिकों के लिए ब्रेल लिपि में उपलब्ध करवाया गया है।

यह भी पढ़े: नेत्रहीन नागरिकों के लिए एक पहल, ‘ब्रेल लिपि’ में लिखा गया भारतीय संविधान!

हमें उम्मीद है कि देश में और भी लोग स्वागत थोराट और उपासना मकाती से प्रेरित होंगें।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post ‘स्पर्शज्ञान’: नेत्रहीनों के लिए देश का पहला ब्रेल अख़बार! appeared first on The Better India - Hindi.

कविता-क्लोनिंग [क्या इससे बचना सम्भव है?]

$
0
0

 ज से तीस बरस पहले हॉस्टल में रहने वाले दिनों में हम कुछ लड़कों ने गुलज़ार की अभिव्यक्ति के एक आयाम को डीकोड कर लिया था, जो लड़कियों को लट्टू बनाने में बड़ा काम आता था. “तुम्हारी आँखों की सुर्ख़ ख़ुशबू बनी रही रात भर” जैसी बातें पर्याप्त थीं किसी पंजाबन की नींद उड़ाने के लिए. वो झूठ था, यहाँ रात भर क्रिकेट की बात होती थी, एक दूसरे की टाँग खींची जाती थी, चाय का जुगाड़ घंटों खा जाता था.. कहने का मतलब यह कि सम्वेदना हमारी नहीं थी लेकिन “इस शाम का नीला तुम्हारे साथ पी लूँ” जैसी बातें बनाना हम सब बख़ूबी सीख गए थे.

कुछ लोग तो बाक़ायदा गुलज़ार जैसी कविता ही लिखने लगे और अपने आपको वाकई कवि भी समझने लगे थे. चूँकि चुराई हुई शैली थी, तो किसी ने उनकी कविता छापी नहीं और वे जल्द ही कवित्त छोड़ छाड़ कर नौकरी के जोड़तोड़ में लग गए. हो सकता है कि फ़ेसबुक जैसा कोई मंच होता और सब वहाँ लिखते, एक दूसरे की तारीफ़ों के पुल बाँधते, ख़ास लोगों की चमचागिरी करते, उनसे अपनी किताब के बारे में कुछ लिखवा लेते, अपने जूनियर बैच के कवियों को दबाए रखते तो आज वे सब आज के वरिष्ठ कवियों में शुमार होते.

मनस में पहले सम्वेदना उतरती है. जब वह सम्वेदना किसी वजह से अभिव्यक्ति ढूँढती है, तब कला का जन्म होता है. किसी भी माध्यम में हो, अभिव्यक्ति को भाषा चाहिए जैसे हर पेंटर की एक अपनी भाषा होती है, हर मूर्तिकार की अलग और साहित्यकार की अलग. यह भाषा कलाकार ख़ुद अपनी सलाहियत से गढ़ता/अपनाता है. और इस भाषा की आभा से ही लोग उस कलाकार के शिल्प में दिलचस्पी रखते हैं.

एम. एफ. हुसैन की तरह पेंटिंग बनाने वाले की कद्र कैसे हो? वह तो उनकी भाषा, उनके प्रतीक, उनके स्ट्रोक्स, उनकी अभिव्यक्तियों की युक्तियों को समझ कर उनकी प्रतिलिपियाँ बना रहा है. वैसे ही एस. डी. बर्मन की धुन पर कोई दूसरा गीत रचे तो कहाँ से वाहवाही मिलेगी उन्हें? आज आप जिस शहर में जाएँ चार-छः ग़ज़ल गायक टकरा ही जाएँगे – सभी की एक जैसी धुनें होती हैं ये लोग क्यों नहीं बेग़म अख़्तर, मेंहदी हसन या इक़बाल बानो की तरह अपना हस्ताक्षर बनाने की सोचते हैं? एक दूसरे की तरह गा कर आप कैसे स्थापित हो पाएँगे? जैसे आजकल हर शहर में रेडियो जॉकी एक ही अंदाज़ में बात करते नज़र आते हैं. ये उनके स्वयं के अंदाज़ नहीं हैं, वरन सीखी हुई स्किल है, जो उन्हें नौकरी-वौकरी तो दिलवा दे लेकिन एक अमीन सायानी की तरह इतिहास में स्थान नहीं दिलवा पाएगा न ही वे कलाकार कहलायेंगे.

वैसे ही कविता लिखने की स्किल सीख सीख कर किताबें छपवाई जा रही हैं, वैसे भी आजकल कोई सम्पादन का मुआमला तो है नहीं, अपने पैसे दे कर जैसी चाहे छपवा लो, फिर सोशल मीडिया पर अपने आपको प्रमोट कर लो. कवि मित्र एक दूसरे की किताबें प्रमोट करते रहें और ज़िन्दगी आगे चलती रहे. लेकिन इन्हीं में से कुछ लोग हैं, जो जुटे हुए हैं अपनी संवेदनाओं को समझने, अपनी अभिव्यक्ति के हस्ताक्षर तराशने. वक़्त के साथ वही टिकेंगे, बाक़ी लाइक्स गिनते हुए जैसे तैसे अपने को ख़ुद के सामने श्रेष्ठ साबित करने के असंतोषजनक प्रयास करते रहेंगे।

[उपन्यासों की क्लोनिंग नहीं हो रही है क्योंकि उपन्यास लिखना तो बड़ी मेहनत का काम है.]

अब विषय बदलते हैं. आज कुछ भारी हो गया इसे ठीक करने के लिए मिलिए चुलबुली आकृति सिंह से:

—–

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे।

The post कविता-क्लोनिंग [क्या इससे बचना सम्भव है?] appeared first on The Better India - Hindi.


भारतीय रेलवे भी अपनाएगा एयरलाइन मॉडल: ट्रेन में आरक्षित और खाली सीटों का चार्ट होगा पब्लिक!

$
0
0

ल्द ही, जब भी आप किसी ट्रेन में सीट बुक करेंगे तो एयरलाइन की तरह ट्रेन में भी उपलब्ध सीटों का स्टेटस देख पायेंगें। जी हाँ, अब ट्रेनों के आरक्षित चार्ट को पहले ही सार्वजनिक कर दिया जायेगा ताकि लोगों को पता चल सके कि कितनी सीट पहले ही बुक हो चुकी हैं।

द इकोनोमिक टाइम्स की खबर के मुताबिक, रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे सेंटर फॉर रेलवे इन्फॉर्मेशन सिस्टम (CRIS) की मदद से ट्रेनों का आरक्षण चार्ट सार्वजनिक करें। इस कदम का उद्देश्य लोगों को ज्यादा से ज्यादा सुविधा देकर उनकी समस्याओं को हल करना है।

जब भी हम हवाई जहाज या फिर बस में सीट बुक करते हैं तो हम सीटिंग लेआउट देख सकते हैं। साथ ही, हमें पहले से ही बुक हो चुकीं सीटों और बची हुई सीटों, दोनों को अलग-अलग रंग में दिखाया जाता है ताकि यात्री आसानी से सीट बुक कर सकें। ऐसा ही कुछ, अब रेलवे मंत्रालय करेगा।

एयरलाइन्स में यात्री अपनी सुविधानुसार और क्षमता के मुताबिक सीट बुक करते हैं, क्योंकि कुछ सीट के लिए उन्हें अतिरिक्त पैसे भी देने पड़ते हैं। हालांकि, रेलवे इस बारे में बाद के चरणों में काम करेगा। फ़िलहाल, यात्रियों को सीट मिलने की अनिश्चितता को खत्म करने पर उनका ध्यान है।

“अभी के लिए, किसी भी ट्रेन के आरक्षण चार्ट को पब्लिक करने पर काम हो रहा है। ताकि यात्रियों को पता चले कि किस ट्रेन में कौन-सी सीटें अभी बची हैं। हवाई जहाज या बस की तरह ही, अब यात्रियों को ट्रेन का भी सीटिंग लेआउट दिखेगा, जिसमें टिकट बुक करते समय उन्हें पता रहेगा कि कौन-सी सीट बुक हो चुकी। पीएनार नंबर की मदद से यात्री सीट बुक कर सकेंगें,” रेलवे मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया

हालांकि, इस प्रस्ताव को हकीकत में बदलने के लिए रेलवे को बहुत-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि हर एक स्टेशन पर यात्री उतरते-चढ़ते हैं, ऐसे में सीटों की व्यवस्था रेलवे के लिए कई बार मुश्किल खड़ी कर सकती है।

पिछले महीने ही, रेलवे ने ट्रेनों में निचली सीटों का आरक्षण कोटा महिलाओं और सीनियर सिटिज़न के लिए बढ़ाया है ताकि उन्हें सफर में किसी तरह की परेशानी ना हो।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post भारतीय रेलवे भी अपनाएगा एयरलाइन मॉडल: ट्रेन में आरक्षित और खाली सीटों का चार्ट होगा पब्लिक! appeared first on The Better India - Hindi.

आँखों में आँसू लिए यह महिला कर रही है भारतीय सेना का शुक्रिया; जानिये क्यूँ !

$
0
0

28 दिसंबर 2018 को सिक्किम में भारी बर्फ़बारी के चलते लगभग 2,500 टूरिस्ट नाथू ला और 17 मील क्षेत्र में फंस गये थे। इन सभी यात्रियों को बचाने के लिए भारतीय सेना के जवानों ने इन्हें बचाने के लिए राहत बचाव कार्य शुरू किया। सैनिकों ने न सिर्फ़ इन यात्रियों को बचाया बल्कि इन सभी के रहने और खाने-पीने का भी इंतजाम किया।

यह भी पढ़ें: भारतीय सेना : मायनस 9 डिग्री में खुद रहे बाहर, बर्फ़ में फंसे हुए यात्रियों को दिया अपना बैरक!

इस खबर के सोशल मीडिया पर वायरल होते ही लोगों ने ट्विटर पर भारतीय सेना को सराहा और उन्हें धन्यवाद कहा। भारी बर्फ़बारी में फंसे कई टूरिस्ट ने भी भारतीय सेना शुक्रिया अदा किया है।

इस घटना के एक सप्ताह बाद, फिर से एक और टूरिस्ट की दिल छू जाने वाली एक विडियो ट्विटर पर वायरल हो रही है। घंटों बर्फ में फंसे रहने के बाद जब भारतीय सेना इनके बचाव के लिए आई तो इन यात्रियों का दर्द और भारतीय सेना के प्रति सम्मान आँखों से आँसू बन बह निकला।

ट्विटर पर वायरल हो रही एक विडियो में देख सकते हैं कि कैसे एक महिला यात्री भारतीय सेना का आभार व्यक्त कर रही हैं और उनकी आँखों के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।

“हम न्यूज़ में सुनते थे कि आर्मी क्या-क्या करती है? पर आज पहली बार देखा है…,” रोते हुए इस महिला टूरिस्ट ने कहा

इससे पहले भी यहाँ फंसे हुए एक यात्री आर्यन अहमद ने दार्जीलिंग क्रोनिकल के साथ एक ख़त के माध्यम से अपना अनुभव सांझा किया। उन्होंने लिखा, “हमें सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने (सैनिकों ने) अपने बिस्तर और स्लीपिंग बैग हमें दे दिए और खुद बाहर -9° तापमान में रहे। उन्होंने हमारे लिए जो भी किया, उसे बयान करने के लिए सिर्फ़ शब्द काफ़ी नहीं है। मैं यहाँ और देश भर के लोगों को बताना चाहता हूँ, कि मैं उनका बहुत-बहुत आभारी हूँ।”


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post आँखों में आँसू लिए यह महिला कर रही है भारतीय सेना का शुक्रिया; जानिये क्यूँ ! appeared first on The Better India - Hindi.

पहली बार देश की महिला पुलिसकर्मियों के लिए बनाया गया स्पेशल ‘बॉडीसूट’!

$
0
0

क्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) ने महिला पुलिसकर्मियों और पैरामिलिट्री अफ़सरों के विभिन्न शारीरक मापों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए ख़ास तरीके का ‘रायट गियर’ तैयार किया है। ‘रायट गियर,’ एक ख़ास तरह का यूनिफॉर्म या बॉडीसूट होता है, जिसे आग और एसिड प्रतिरोधक मटेरियल से बनाया जाता है। यह आपातकालीन स्थिति में पुलिसकर्मियों को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से तैयार किया जाता है।

अब ऐसा पहली बार हुआ है कि, इस यूनिफॉर्म को खास तौर पर देश के अलग-अलग प्रांतों से आने वाली महिला पुलिस कर्मचारियों के शारीरिक माप को ध्यान में रखकर बनाया गया है। पंजाब के जालंधर में आयोजित 106वें भारतीय विज्ञान कांग्रेस आयोजन के दौरान इस यूनिफॉर्म को प्रदर्शनी में लगाया गया।

डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजियोलॉजी एंड अलाइड साइंसेज (डीआईपीएएस) के तकनीकी अधिकारी इंद्रजीत सिंह ने कहा, “अभी महिला पुलिसकर्मी, पुरुष अधिकारियों के लिए बनाए गए रायट गियर का इस्तेमाल करती हैं, जो उन्हें अच्छी तरह से फिट नहीं होते है।”

लेकिन अब खास तौर से बनाये गये इस बॉडीसूट को तीन आकारों (छोटा, मध्यम और बड़ा) में महिला कर्मचारियों के लिए उपलब्ध करवाया जायेगा। यह बॉडीसूट पहले सूट के मुकाबले बहुत हल्का है और साथ ही, यह पहले सूट से ज्यादा सुरक्षा प्रदान करता है। इस सूट से पुलिसकर्मियों के शरीर का ऊपरी भाग पूरी तरह से कवर हो सकता है। इसके पिछले हिस्से को रीढ़ के आकार में बनाया गया है। इसके अलावा यह सूट हाथ और पैरों को भी कवर करेगा।

डीआरडीओ का दावा है कि यह अपनी तरह का पहला बॉडीसूट है, जिसे इतनी बेहतर तकनीकों के साथ बनाया गया है और अब संस्थान ने इस सूट पर अपना पेटेंट लेने के लिए भी अप्लाई किया है। फ़िलहाल, इस सूट को क्वालिटी टेस्ट के लिए भेजा गया है।

संपादन – मानबी कटोच


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post पहली बार देश की महिला पुलिसकर्मियों के लिए बनाया गया स्पेशल ‘बॉडीसूट’! appeared first on The Better India - Hindi.

80 मटकों में हर रोज़ 2000 लीटर से भी ज़्यादा पानी भर कर, दिल्ली की प्यास बुझाता है यह 69 वर्षीय ‘मटका मैन’!

$
0
0

दिल्ली निवासी 69 वर्षीय अलगरत्नम नटराजन को लोग ‘मटका मैन’ के नाम से भी जानते हैं। वे हर रोज़ साउथ दिल्ली में अनगिनत ग़रीब और जरुरतमंदों की प्यास बुझाते हैं। नटराजन दिल्ली में बहुत-सी समाज सेवी संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। अपने सामाजिक कार्यों के दौरान जब उन्होंने दिल्ली में लोगों को दो वक़्त के खाने और साफ़ पानी पीने के लिए भी मोहताज पाया तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने इस सबसे प्रेरित होकर अपने घर के बाहर एक वाटर कूलर लगा दिया ताकि उस रास्ते से गुजरने वाले राहगीर अपनी प्यास बुझा सकें।

जो काम घर के बाहर से शुरू हुआ, वह आज पूरी साउथ दिल्ली तक पहुँच चूका है। उन्होंने यहाँ के अलग-अलग इलाकों में लगभग 80 मटके लगवाए हैं और हर सुबह जाकर इन सारे मटकों को स्वच्छ और पीने योग्य पानी से भरते हैं। इस पहल के बारे में नटराजन कहते हैं, “एक बार मेरे वाटर कूलर से पानी भर रहे एक गार्ड को मैंने पूछा कि वह पानी लेने के लिए इतनी दूर यहाँ क्यों आया है, जहाँ काम करता है वहाँ क्यों नहीं पानी लेता है। उसने बताया कि वहाँ उसको पीने के लिए पानी नहीं दिया जाता है।”

दिल्ली में अलग-अलग जगह पर लगवाए गये पानी के मटके

यह जवाब सुनकर नटराजन स्तब्ध रह गये। और यहीं से उनको ग़रीब और जरुरतमंदों की प्यास बुझाने की प्रेरणा मिली। वाटर कूलर लगवाने में बहुत खर्चा आता, इसलिए उन्होंने मिट्टी के मटके रखवाए। नटराजन के इस काम में उन्हें उनके परिवार का पूरा साथ मिला।

जब नटराजन ने यह काम शुरू किया था, तब लोगों को लगता था कि सरकार ने उन्हें इस काम के लिए नियुक्त किया है। पर नटराजन को न तो सरकार से और न ही किसी संस्था से इस काम के लिए मदद मिलती है। वे अपनी जेब से ही पूरा खर्च उठाते हैं और अब उन्हें उनके जैसे ही कुछ अच्छे लोगों से दान के तौर पर मदद मिल रही है।

मटकों में पानी भरते हुए नटराजन

नटराजन, मूल रूप से बंगलुरु से हैं। पर युवावस्था में ही लंदन चले गए थे और बतौर व्यवसायी उन्होंने 40 साल वहाँ बिताए। लेकिन नटराजन को वहाँ आंत का कैंसर हो गया था। इलाज करवाने के बाद उन्होंने भारत लौटने का फ़ैसला लिया। यहाँ आकर वे एक अनाथालय व कैंसर के मरीज़ों के आश्रम में स्वयंसेवा करने लगे और चांदनी चौक में बेघरों को लंगर भी खिलाने लगे।

नटराजन ने एक वैन में 800 लीटर का टैंकर, पंप और जेनरेटर लगवाया है, जिससे वह रोज़ मटकों में पानी भरते हैं।

मटका मैन की वैन

नटराजन ने बताते है, “गर्मी के दिनों में मटके में हमेशा पानी भरा रखने के लिए मैं दिन में चार चक्कर लगाता हूँ। गर्मी के महीनों में मटकों में पानी भरने के लिए रोज़ 2,000 लीटर पानी की ज़रूरत होती है।”

मटकों के अलावा उन्होंने जगह-जगह 100 साइकिल पंप भी लगवाए हैं। यहाँ ग़रीब लोग 24 घंटे हवा भरवा सकते हैं।

नटराजन के बारे में और उनके काम के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप उनकी वेबसाइट देख सकते हैं। आप नटराजन से 9910411779 व 9910401101 पर सम्पर्क कर सकते हैं।

कवर फोटो 


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post 80 मटकों में हर रोज़ 2000 लीटर से भी ज़्यादा पानी भर कर, दिल्ली की प्यास बुझाता है यह 69 वर्षीय ‘मटका मैन’! appeared first on The Better India - Hindi.

‘मोबाइल’पुलिस स्टेशन: महाराष्ट्र की आईपीएस अफ़सर विनीता साहू की अनोखी पहल!

$
0
0

मारे देश की आम जनता के मन में अक्सर पुलिस व्यवस्था और पुलिस अधिकारियों को लेकर संदेह रहता है। खासकर ग्रामीण और पिछड़े तबके के लोग किसी भी मामले में पुलिस के पास जाने से कतराते हैं। हालांकि, देश में कानून व्यवस्था को मजबूत रखने के लिए पुलिस अधिकारियों को सख्त रवैया अपनाना पड़ता है। पर इस वजह से कहीं न कहीं आम लोगों की नज़रों में पुलिस के प्रति एक डर उत्पन्न हो जाता है।

इस समस्या को हल करने के लिए और नागरिकों का भरोसा कानून व्यवस्था पर बनाने के लिए महाराष्ट्र के भंडारा जिले की आईपीएस अफ़सर विनीता साहू ने एक अनोखी और प्रभावशाली पहल शुरू की है।

आईपीएस विनीता ने एक सोशल ऑडिट रिपोर्ट में कहा, “तेजी से आगे बढ़ रही इस दुनिया में आज जब हर चीज़ घर के दरवाजे तक पहुँच रही है और कोई भी सर्विस तुरंत उपलब्ध करा दी जाती है, तो हमें भी (पुलिस) देश की सबसे महत्वपूर्ण कानून व्यवस्था और सुरक्षा संगठन होने के नाते नागरिकों के सेवा के लिए समान रूप से तेज और हर समय उपलब्ध होना चाहिए।”

हालांकि,उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि लोगों को पुलिस स्टेशनों से संपर्क करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और वह भी बिना इस डर के कि उनकी शिकायतें अनसुनी नहीं होंगी या फिर उन्हें ऐसे अपराध की सजा नहीं मिलेगी जो उन्होंने नहीं किया है। 

पर आईपीएस विनीता ने न सिर्फ़ आम नागरिकों के लिए जागरूकता अभियान चलाया बल्कि अपनी पहल के जरिये उन्होंने पुलिस स्टेशनों को आम लोगों के घरों तक पहुँचाया। फ़िलहाल, विनीता साहू भंडारा की पुलिस अधीक्षक के तौर पर नियुक्त हैं।

साभार: अंकिता बोहरे

इस प्रोजेक्ट में आईपीएस विनीता की मदद करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता, अंकिता बोहरे ने द बेटर इंडिया को बताया,

“यह अभियान दो सिद्धांतों से प्रेरित था, जिन्हें आज सेवा क्षेत्र में पूरा किया जा रहा है। पहला, सहज सुविधा- जिसे डोर-टू-डोर सेवा कहा जा सकता है। और दूसरा सिद्धांत है कि सेवा देने वाले पुलिसकर्मी और नागरिकों के बीच ‘परस्पर विश्वास’ हो।”

यह पहल बहुत ही सरल है- ये ‘मोबाइल’ पुलिस स्टेशन महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में अस्थायी चौकी होंगे, जहाँ गाँव वाले अपनी समस्याएँ बता सकते हैं या शिकायत भी दर्ज करवा सकते हैं।

हर एक स्टेशन पर एक महिला कॉन्सटेबल के अलावा एक पुलिस अधिकारी और दो पुलिसकर्मी नियुक्त होंगे। गाँव वालों को पूरी सुविधा रहे इसलिए स्कूलों या ग्राम पंचायतों जैसी इमारतों को पुलिस स्टेशनों में बदला गया है। और जहाँ ऐसा करना मुमकिन नहीं था वहाँ अस्थायी टेंट में पुलिस स्टेशन बनाये गये हैं।

साभार: अंकिता बोहरे

जिस पहल की शुरुआत एक मोबाइल स्टेशन के तौर पर हुई थी वह आज नुक्कड़ नाटक, प्रोजेक्टर, एप्लीकेशन आदि से लैस डिजिटल स्टेशन तक पहुँच चुकी है। इन सबकी मदद से लोगों में जागरूकता बढ़ी और उन्होंने पुलिस से जुड़ना शुरू किया है। अब पुलिसकर्मियों के साथ-साथ ग्रामीणों का व्यवहार भी सकारात्मक हुआ है। धीरे-धीरे, अंधविश्वास के चलते होने वाले अपराध और साइबर अपराधों के मामले कम होने लगे हैं और यह इस बात का प्रमाण है कि आईपीएस विनीता की पहल सही दिशा में आगे बढ़ रही है।

इस अभियान की शुरुआत साल 2017 में 28 जनवरी को हुई थी। हर शनिवार को भंडारा और उसके आसपास के लगभग 17 स्थानों पर मोबाइल पुलिस स्टेशन संचालित किए जाते हैं। विनीता द्वारा पेश की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार, इन शिविरों के चलते 1.5 लाख से अधिक लोगों को फायदा पहुँचा है। उन्होंने बताया कि सभी शिविरों की पूरी प्रक्रिया हर एक शिविर से संबंधित रजिस्टर में लिखी जाती है और सभी मामलों की जांच आईपीएस विनीता के सब-डिवीज़न से होती है। 

इस टीम का दृढ़-विश्वास है कि बेहतर संचार-व्यवस्था के चलते अब सभी समुदाय पुलिस के साथ सहजता से काम कर रहे हैं और पुलिस को यह समझने में भी मदद मिल रही है कि आम लोगों को क्या मुश्किलें हैं और कैसे उनकी मदद की जा सकती है।

साभार: अंकिता बोहरे

बोहरे ने एक ईमेल इंटरव्यू में द बेटर इंडिया को लिखा कि व्यक्तिगत राय से लेकर सामान्य अनुभवों तक, पुलिस के प्रति नागरिकों की गंभीर राय और निंदा के कई कारण हैं। उन्होंने आगे लिखा,

“पुलिस फाॅर्स का मतलब सुरक्षा होना चाहिए लेकिन अब यह डर और अविश्वास का पर्याय बन गया है। इसके कारण, लोगों के अनुभवों और हालातों के हिसाब से बहुत अलग-अलग हैं। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि सही समय पर जानकारी और बातचीत के आभाव के चलते भी गलतफहमियाँ पैदा हुई हैं।”

हालांकि, मोबाइल पुलिस स्टेशन इस कलंक को हटाने और नागरिकों व पुलिस के बीच इस खाई को भरने की दिशा में काम कर रहे हैं।

“इसके अलावा, नागरिकों के समर्थन के चलते विभिन्न अवैध गतिविधियों और अपराधों को बहुत हद तक रोका जा रहा है। और इस पहल को मिल रहे समर्थन को देखते हुए अन्य विभागों और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों ने भी यहाँ आना शुरू किया है। जिससे अब एक ही मंच पर सभी सामुदायिक शिकायतों को हल किया जा सकता है,” बोहरे ने कहा।

चाहे फिर पुलिस स्टेशन को लोगों के दरवाजे तक ले जाना हो या फिर यह सुनिश्चित करना कि ये लोग बिना किसी डर और झिझक के अच्छे से पुलिसकर्मियों को अपनी परेशानी बताएं, आईपीएस विनीता साहू सही मायनों में एक अच्छे प्रशासनिक अधिकारी का कर्तव्य निभा रही हैं।


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

The post ‘मोबाइल’ पुलिस स्टेशन: महाराष्ट्र की आईपीएस अफ़सर विनीता साहू की अनोखी पहल! appeared first on The Better India - Hindi.

Viewing all 3559 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>