बहुत से लोगों का विश्वास है कि इंसानियत और मानवता किसी भी व्यक्तिगत विचार और धार्मिक आस्था से बढ़कर है। पर जब समय पड़ने पर कोई ऐसा करता है, तो वह बहुत से लोगों के लिए एक मिसाल कायम करता है। ऐसा ही कुछ कश्मीर में एक 20-वर्षीय सिख लड़के ने किया, जब उसने एक महिला की जान बचाने के लिए बिना एक पल भी सोचे अपनी पगड़ी उतार दी।
जम्मू कश्मीर में त्राल तहसील के देवर गाँव के निवासी, मंजीत सिंह ने एक सड़क दुर्घटना में खून से लथपथ एक महिला की जान बचाने के लिए अपनी पगड़ी उतारकर, उसे पट्टी की तरह इस्तेमाल किया ताकि उस औरत का खून और ज़्यादा न बहे।
ख़बरों के मुताबिक, अवंतीपोरा में तेज रफ़्तार से आ रहे एक ट्रक ने एक 45-वर्षीय औरत को टक्कर मार दी। जब मंजीत ने उसे देखा तो वह औरत खून से लथपथ घायल अवस्था में सड़क पर पड़ी थी। मंजीत ने तुरंत सूझ-बूझ से काम लेते हुए उस महिला की मदद की।
महिला के पैर में गहरी चोट आई थी, जिस वजह से काफ़ी खून बह रहा था। जब कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं बढ़ा, तो मंजीत ने तुरंत अपनी पगड़ी खोली और उसके घाव पर बाँध दी।
मंजीत ने बताया, “मैंने उसे सड़क पर पड़े देखा, उसके पैर से लगातार खून बह रहा था। मैं अपनी पगड़ी उतारकर उसके पैर में बाँधने से खुद को बस रोक नहीं पाया।”
सिखों में दस्तार या फिर पगड़ी पहनना अनिवार्य होता है। यह उनके विश्वास और आस्था के साथ-साथ उनके आत्म-सम्मान, साहस और पवित्रता का भी प्रतीक है।
लेकिन इस तरह की स्थिति में, मंजीत ने अपने व्यक्तिगत विचारों और मान्यताओं से पहले इंसानियत को रखा और एक दूसरे इंसान की जान बचायी। कश्मीर की ‘शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी’ में दिहाड़ी-मजदूरी का काम करने वाले मंजीत ने कहा कि उन्होंने वही किया जो कोई और उनकी जगह होता तो करता।
अपने पिता की मृत्यु के बाद, मंजीत परिवार में अकेले कमाने वाले है और उन पर एक दिव्यांग माँ, बहन और भाई की ज़िम्मेदारी है। अपने जीवन में हर कदम पर संघर्ष करने वाले मंजीत को बिल्कुल भी नहीं लगता कि उन्होंने कुछ अलग और असाधारण काम किया है। और शायद, मंजीत की यही सोच हमारे देश में धार्मिक भाईचारे और मानवता की मिसाल है।
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तीस का दशक सारे विश्व में युद्ध की तबाही लेकर आया था। लोग भय, पराधीनता और जंग के बीच शारीरिक से ज्यादा मानसिक प्रताड़नाओं से जूझ रहे थे। ऐसे में ‘सिनेमा’ ने लोगों को काल्पनिक नायक और रक्षक, ख़ासकर सुपर हीरो दिए। असल ज़िन्दगी की मुश्किलों और परेशानियों से दूर ये एक ऐसी दुनिया थी, जहाँ उन्हें कुछ पल का सुकून मिल जाता था। यहाँ के सुपर हीरो उन्हें कल्पना में ही सही पर हर मुश्किल से बचाते थे।
उसी दौर में जन्में सुपरमैन (1938 में डेब्यू), बैटमैन (1939 में डेब्यू) और वंडर वुमन (1941 में डेब्यू) जैसे सुपर हीरो हमारी दुनिया में ऐसे रच-बस गए कि आज भी वे हमारे साथ हैं।
उसी समय, भारत में भी सिनेमा के पर्दे पर एक लड़की को उतारा गया, जो कभी एक राजकुमारी बनी,तो कभी एक नकाबपोश नायिका, जो बिना डरे खुद तलवार और बन्दुक चलाती, और दुश्मनों से लड़ते हुए उन्हें पछाड़ देती।
यह साल था 1935 और वह लड़की थी, भारत की स्टंट क्वीन, फीयरलेस नादिया!
गोरी-चिट्टी, नीली आँखों वाली एक लड़की, जिसने अपनी पहली फ़िल्म में ही दर्शकों का दिल जीत लिया और फिर 40 के दशक में बॉलीवुड पर राज किया। अक्सर नादिया को सिनेमा के इतिहासकारों ने नज़रअंदाज किया है, क्योंकि वह स्टंट और एक्शन वाले किरदार निभाती थी। बहुत ही कम लोग इस दमदार नायिका के बारे में जानते होंगे।
8 जनवरी, 1908 को मैरी एन इवांस के रूप में नादिया का जन्म ऑस्ट्रेलिया के पर्थ में हुआ। उनके पिता स्कॉटिश थे और माँ ग्रीक। मैरी बहुत छोटी थीं, जब वे भारत आयी। उनके पिता, हर्बर्ट इवांस ब्रिटिश सेना के स्वयंसेवक थे और इसलिए मैरी का बचपन भारत में बीता।
बहुत कम उम्र से ही मैरी ने ठान लिया था कि वह एक अच्छी गायिका और डांसर बनेंगी। उन्होंने अपने पिता से स्कॉटिश डांस सीखा तो माँ से ग्रीक गाने। बचपन में मैरी बाकी बच्चों के साथ चर्च में प्रार्थना गीत भी गातीं थी। फिर भी उसमें कुछ ऐसा था, जो सबसे अलग था।
बचपन में जब बाकी बच्चे खिलौने से खेलते तब मैरी ने अपना ज्यादातर समय एक छोटे घोड़े के साथ खेलकर बिताया जो बाद में उनका सबसे अच्छा दोस्त बन गया था। उन्होंने मछली पकड़ना, शिकार करना, और घुड़सवारी आदि करना भी सीखा। उस समय लड़कियों के लिए ऐसा करना बहुत बड़ी बात समझी जाती थी।
प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान जब मैरी के पिता की मृत्यु हो गयी, तो वह अपनी माँ के साथ बॉम्बे (अब मुंबई) जाकर बस गयी। यहाँ, उन्होंने मैडम एस्ट्रोवा (एक रुसी डांसर) द्वारा संचालित एक बैले डांस स्कूल में दाखिला लिया। मैडम एस्ट्रोवा ने कहीं न कहीं मैरी की प्रतिभा को पहचान लिया था और इसलिए उन्होंने उसे अपनी यात्रा मंडली का हिस्सा बनाया।
इस मंडली के साथ मैरी ने बहुत-सी जगह यात्राएं की और इसी दौरान उनकी मुलाकात एक अमेरिकी ज्योतिषी से हुई। इस ज्योतिषी ने उन्हें सुझाव दिया कि मैरी को अपना नाम बदलकर ‘न’ अक्षर से रखना चाहिए। और ऐसे, मैरी एन इवांस बन गयी ‘नादिया’!
यात्रा मंडली के साथ डांस के अलावा, नादिया ने कई अन्य नौकरियों में भी अपना हाथ आजमाया। सचिवालय की नौकरी से लेकर एक थिएटर आर्टिस्ट और सर्कस में एक ट्रेपेज़ कलाकार के तौर पर काम करने तक, सभी कुछ नादिया ने किया। नादिया ने खुद को एक बेहतर जिमनास्ट के तौर पर भी तैयार किया। लोग उनके साहसी कारनामे और स्टंट देखकर हैरान हो जाते थे।
पर अपने डांस के शौक को पूरा करने के लिए, नादिया ने ज़र्को सर्कस की नौकरी छोड़ दी और खुद को पूरी तरह से डांस के लिए समर्पित कर दिया। इस बार वे बॉलीवुड के गानों में डांस करने वाली थीं। लाहौर के एक सिनेमा मालिक इरुच कंगा ने जब उनकी परफॉरमेंस देखी तो वे तुरंत उससे प्रभावित हो गये। कंगा ने ही नादिया की मुलाकात ‘वाडिया मूवीटोन’ प्रोडक्शन हाउस के मालिक जे. बी. एच वाडिया और होमी वाडिया से करवाई।
नादिया की खुबसूरती और निडर स्वाभाव से प्रभावित होकर वाडिया ने उन्हें एक मौका देने का फैसला किया। इसके लिए शर्त थी कि नादिया को हिंदी बोलना सीखना होगा। वाडिया प्रोडक्शन हाउस की दो फ़िल्मों, देश दीपक और नूर-ए-यमन में नादिया को छोटी भूमिकाओं के लिए कास्ट किया गया। देश दीपक में नादिया ने एक गुलाम का किरदार निभाया तो नूर-ए-यमन में एक राजकुमारी का। दोनों ही फ़िल्मों में नादिया का किरदार दर्शकों के दिल में घर कर गया।
इसके बाद वाडिया प्रोडक्शन हाउस को नादिया की काबिलियत पर भरोसा हो गया और नादिया के करियर ने सबसे महत्वपूर्ण मोड़ लिया। वाडिया प्रोडक्शन हाउस ने नादिया को ‘हंटरवाली’ फिल्म में मुख्य नायिका के तौर पर बड़े परदे पर उतारने का फैसला किया।
फिल्म में नादिया की निडर भूमिका और उनके स्टंट, दर्शकों के बीच हिट रहे। लोगों ने नादिया को शोहरत के साथ-साथ बेइंतिहा मोहब्बत भी दी। इसकी शायद एक और वजह यह भी थी कि नादिया यूरोपियन होने के बावजूद सही और गलत के बीच में सही के लिए लड़ रही थीं। यह वह समय था जब सभी के दिलोंदिमाग में भारत को आज़ादी दिलाने की धुन सवार थीं। ऐसे में कहीं न कहीं नादिया की भूमिका उनकी भावनाओं के साथ सटीक बैठ रही थी।
अगले एक दशक में, नादिया ने लगभग 50 फ़िल्मों में मुख्य भूमिका निभाई और सभी में उन्होंने खुद ही सारे स्टंट किये। झूमर से झूलने, पहाड़ों से कूदने से लेकर चलती ट्रेन पर लड़ना और शेर-चीतों से दोस्ती, यह सब नादिया ने बहुत ही आसानी किया। जबकि उस समय पुरुष कलाकार भी इस तरह के स्टंट नहीं कर पाते थे।
अपने काम के दौरान उन्होंने कई बार अपनी जान जोखिम में डाली। एक बार, एक फाइट सीन की शूटिंग के दौरान, वह काफ़ी ऊंचाई से अपने चेहरे के बल गिरीं, तो एक बार पानी के तेज बहाव में बह जाने से मुश्किल से बचीं। अपने हर एक किरदार में नादिया ने सच और न्याय की लड़ाई लड़ी और साथ ही उनके खतरनाक स्टंट और विदेशी कॉस्टयूम ने भारतीय दर्शकों को प्रभावित किया।
उस समय नादिया को इतना स्टारडम मिला कि वे एक वक़्त पर हिंदी फ़िल्मों की सबसे महंगी हीरोइन थीं। वे इतनी मशहूर थीं, कि उस समय के बेल्ट, बैग, जूते और कपड़े के कई ब्रांड के साथ उनके उपनाम ‘हंटरवाली’ का इस्तेमाल किया जाता।
उस समय भारतीय महिला धीरे-धीरे एक्टिंग को एक पेशे के रूप में अपना रहीं थीं और ऐसे में नादिया उनके लिए एक प्रेरणा के तौर पर उभरीं। उन्होंने पुरुषवादी समाज को अपने शब्दों में चुनौती दी,
“इस गलतफ़हमी में बिल्कुल मत रहना कि तुम आज की औरत के ऊपर राज कर सकते हो। यदि इस राष्ट्र को स्वतंत्रता चाहिए तो सबसे पहले यहाँ की औरतों को आज़ादी देनी होगी।”
एक शूटिंग के दौरान नादिया एक स्टूडियो सेट की छत से कूद गई थीं और इसके बाद होमी वाडिया ने उन्हें ‘फीयरलेस नादिया’ नाम दिया। साल 1961 में नादिया ने होमी वाडिया से शादी की।
साल 1968 में, 60 वर्ष की उम्र में नादिया ने होमी वाडिया की फिल्म ‘खिलाड़ी’ में एक जासूस की भूमिका निभाई। लेकिन जैसे-जैसे वक़्त बीता, इस दमदार नायिका की विरासत कहीं धुंधली पड़ गयी। साल 1993 में ‘फीयरलेस: द हंटरवाली स्टोरी’ डॉक्युमेंट्री के जरिये एक बार फिर हंटरवाली पर्दे पर दिखी।
जे. बी. एच वाडिया के पोते और रॉय वाडिया के भाई, रियाद ने इस डॉक्युमेंट्री को बनाया है और इसे कई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म उत्सवों में दिखाया गया, जिससे भारत के साथ-साथ उनके जन्म-स्थान ऑस्ट्रेलिया में भी लोगों को उनके बारे में पता चला।
आज एक तरफ नादिया की विरासत को भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में शायद ही याद किया जाता है, तो दूसरी तरफ उनके काम को कई देशों के सिनेमा विशेषज्ञों द्वारा फ़िल्म-स्टडीज़ के छात्रों को पढ़ाया जाता है। इन संस्थानों में ब्रिटेन का स्कूल ऑफ ओरिएंटल और अफ्रीकन स्टडीज़ भी शामिल है।
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हर साल 15 जनवरी को ‘थल सेना दिवस’ यानी कि ‘आर्मी डे’ मनाया जाता है। इसी दिन, साल 1949 में फील्ड मार्शल केएम करियप्पा ने जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान ली थी। करियप्पा भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ बने।
हर साल आर्मी डे पर जवानों के दस्ते और अलग-अलग रेजिमेंट की परेड होती है और झांकियाँ निकाली जाती हैं।
इस साल भारतीय सेना अपना 71वां ‘थल सेना दिवस’ माना रही है। इस मौके पर ‘आर्मी सर्विस कोर’ पूरे 23 साल बाद फिर से आर्मी डे की परेड में शामिल होने जा रहा है। साथ ही पहली बार इस मौके पर आर्मी परेड का नेतृत्व एक महिला अफ़सर करेंगी। यह महिला अफ़सर हैं लेफ्टिनेंट भावना कस्तूरी।
लेफ्टिनेंट कस्तूरी ‘आर्मी सर्विस कोर’ के 144 जवानों का नेतृत्व करेंगी।
लेफ्टिनेंट कस्तूरी ने बताया, “पहली बार एक महिला अफ़सर किसी सैन्य दल को परेड के लिए लीड कर रही है। एक लेडी अफ़सर कमांड दे रही है और 144 जवान उस कमांड पर आगे बढ़ रहे हैं तो यह बहुत गर्व की बात है।”
यह साल सिर्फ़ लेफ्टिनेंट कस्तूरी के लिए ही नहीं बल्कि और भी दो महिला अफ़सरों के लिए ख़ास होने वाला है। दरअसल, पहली बार आर्मी की डेयरडेविल्स टीम (बाइकर्स टीम) में भी एक लेडी अफ़सर ने जगह बनाई है। कैप्टेन शिखा सुरभि पहली महिला अफ़सर हैं, जो गणतंत्र दिवस की परेड में मशहूर डेयरडेविल्स टीम के पुरुष अफ़सरों के साथ बाइक पर स्टंट करते दिखेंगी।
कैप्टेन शिखा सुरभि
आर्मी की इस डेयरडेविल्स टीम ने अब तक 24 विश्व रिकॉर्ड बनाए हैं। इस टीम का हिस्सा बनने पर कैप्टेन शिखा का हौंसला बुलंदी पर है।
कैप्टेन भावना स्याल के लिए भी आर्मी डे महत्वपूर्ण होगा। कैप्टन स्याल आर्मी की सिगनल्स कोर से हैं और वह ट्रांसपोर्टेबल सैटलाइट टर्मिनल के साथ परेड पर भारतीय सेना की ताकत दिखाएंगी। कैप्टन भावना कहती हैं कि यह मशीन डिफेंस कम्युनिकेशन नेटवर्क का हिस्सा है। यह आर्मी को ही नहीं बल्कि तीनों सर्विस (आर्मी, नेवी, एयरफोर्स) को जोड़ने का भी काम करता है और वॉइस डेटा और विडियो कॉन्फ्रेंसिंग फैसिलिटी देता है।
लेफ्टिनेंट कस्तूरी कहती हैं कि जब उन्हें परेड कमांड करने के लिए चुना गया, तो इंस्ट्रक्टर से लेकर सभी अफ़सर और जवान भी बेहद गर्व महसूस कर रहे थे।
( संपादन – मानबी कटोच )
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लगभग एक दशक पहले, महाराष्ट्र के रंगोली गाँव में जब अमोल ने क्रिकेट मैच जीता था, तो हर कोई उनकी वाहवाही कर रहा था। लेकिन जब उन्होंने मैच के बाद अपने जूते उतारे तो सभी लोग उनके पैर देखकर हैरान रह गए।
27 वर्षीय अमोल संखन्ना के लिए लोगों की यह हैरानी अब कोई नई बात नहीं है। दरअसल, बचपन में हुई एक सड़क दुर्घटना में अमोल के दाहिने पैर की पाँचों उंगलियाँ चली गयी और अब वे लगभग 40% विकलांग हैं।
अमोल एक एथलीट, क्रिकेटर और एक स्पोर्ट्स टीचर हैं। आज वे महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के रंगोली गाँव के लिए आशा की किरण बन गए हैं। अमोल के लिए 2 साल की उम्र में ही उनकी दुनिया बदल गयी थी।
अमोल ने बताया, “हमारा घर, गाँव की मुख्य सड़क पर था। एक दिन खेलते-खेलते मैं कब रोड पर पहुँच गया, पता ही नहीं चला। तभी एक बस मेरे पैर के ऊपर से चढ़कर निकल गयी और इस दुर्घटना में मैंने अपने दाएं पैर की पाँचों उंगलियाँ खो दी।”
लेकिन यह बात कभी भी उनको रोक नहीं पाई और वे हमेशा अपने गाँव की क्रिकेट टीम का हिस्सा रहे।
“सातवीं कक्षा तक मैं कभी भी खेलने के लिए अपने गाँव से बाहर नहीं गया था,” उन्होंने कहा।
एक बार कुम्भोज गाँव के उनके एक दिव्यांग दोस्त ने उन्हें क्रिकेट खेलने के लिए मुंबई चलने को कहा और अमोल तुरंत इसके लिए तैयार हो गये। इस अनुभव ने उन्हें खेलों में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
अमोल संखन्ना
उन्होंने फिजिकल एजुकेशन में ग्रेजुएशन और पोस्ट-ग्रेजुएशन किया और अपने गाँव रंगोली से 30 किमी दूर मिनचे गाँव में एक माध्यमिक विद्यालय और जूनियर कॉलेज में स्पोर्ट्स टीचर के तौर पर नौकरी शुरू की। एथलेटिक्स में भाग लेने के बारे में अमोल ने कभी भी नहीं सोचा था।
“एक बार, मेरे क्रिकेट कोच अतुल धनवड़े ने मुझे एथलेटिक्स में कोशिश करने के लिए कहा। शुरू में, यह मुश्किल लगा, लेकिन मुझे दौड़ना बहुत पसंद था,” अमोल ने हँसते हुए कहा।
अपने लगभग एक दशक के करियर में अमोल ने राष्ट्रीय स्तर पर 100 मीटर, 200 मीटर, 4*100 मीटर दौड़ और 4*400 मीटर रिले में पांच पदक जीते हैं।
राज्य स्तर पर, अमोल ने 20 से भी ज्यादा मेडल जीते हैं, जिनमें से 10 स्वर्ण पदक एथलेटिक्स और लॉन्ग जम्प में हैं। साल 2013 में, उनकी टीम ने मुंबई में आयोजित राज्य स्तरीय क्रिकेट चैम्पियनशिप जीती।
अमोल के जीते हुए कुछ मेडल और सर्टिफिकेट
हालांकि, अमोल का यहाँ तक का सफ़र मुश्किलों से भरा हुआ रहा।
वे बताते हैं, “गांवों में खेलों को बहुत महत्व नहीं दिया जाता है, और पैरा-स्पोर्ट्स के बारे में तो कोई बात भी नहीं करता है। कहीं से भी हमें प्रतियोगिता-स्थल तक जाने के लिए किराये की भी मदद नहीं मिलती है। अगले महीने, मुझे हरियाणा और तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए जाना है, लेकिन आने-जाने का किराया मुझे अपनी बचत के पैसे से ही निकालना होगा।”
यहाँ एक और बहुत बड़ी कमी है और वह है मार्गदर्शन की।
“अधिकांश ग्रामीण एथलीटों को सही मार्गदर्शन नहीं मिलता है, यही कारण है कि वे अपने गांवों तक ही सीमित हैं। सभी को जानकारी मिलनी चाहिए क्योंकि जागरूकता की कमी हमारे लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। 12वीं कक्षा में मुझे पैरा-ओलंपिक्स के बारे में पता चला, वह भी तब, जब मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया,” अमोल ने कहा।
अमोल हर रोज़ 80 से भी ज्यादा छात्रों को पढ़ाते हैं। इसके साथ ही एथलेटिक्स और बैडमिंटन, दोनों खेलों का प्रशिक्षण देते हैं। उनका प्रशिक्षण सुबह 4 बजे शुरू होता है; वे दो घंटे की प्रैक्टिस करवाते हैं और फिर शाम में 5 बजे से प्रैक्टिस शुरू होती है। स्कूल और जूनियर कॉलेज में उनके शिक्षण के तीन वर्षों से भी कम समय में, उनके छात्रों ने सात राष्ट्रीय पदक और 10 राज्य-स्तरीय पदक जीते हैं।
हर हफ्ते, अमोल कोल्हापुर जाकर 30 दिव्यांग बच्चों को भी क्रिकेट का प्रशिक्षण देते हैं।
फ़िलहाल, अमोल के पास एथलेटिक्स के लिए कोई स्पेशल कोच नहीं है और वे अपने सभी नए गुर इन्टरनेट से सीखते हैं। वे गर्व से बताते हैं कि चेन्नई में साल 2014 में आयोजित एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उन्होंने 100 मीटर की दौड़ को 11.75 सेकंड में पूरा किया था और यह अब तक का उनका सर्वश्रेष्ठ रिकॉर्ड है।
उनके पिता अप्पासो, एक किसान थे और उन्होंने हमेशा अमोल को खेलने के लिए प्रेरित किया। उचित आहार और सुविधाएँ न होने के बावजूद भी अमोल ने कभी हार नहीं मानी।
उनका सपना पैरा-ओलंपिक में पदक जीतने का है और वे कहते हैं, “हर किसी को कड़ी प्रैक्टिस करनी चाहिए और फिर कुछ भी नामुमकिन नहीं है।”
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आज हमारे देश में किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौतियां क्या हैं?
1. बेमौसम बरसात या सूखा
2. खेती योग्य भूमि की कमी
3. और वर्षों से रसायनों के भारी उपयोग से बंजर हुई ज़मीन
पर क्या हो अगर हम इन सबसे लड़ने के लिए आधुनिक तकनीक की मदद लें? कैसा हो अगर मौसम को बदलना किसान के हाथ में हो? क्या हो अगर खेती के लिए मिट्टी की ज़रूरत ही न हो?
जी हाँ, यह सब हाइड्रोपोनिक्स के माध्यम से संभव है, यह खेती मिट्टी के बिना एक पॉलीहाउस में की जाती है!
आज हम एक ऐसे किसान के बारे में आपको बताएंगें, जिन्होंने इस तकनीक का इस्तेमाल करके, फ़सल उगाई है। और आज वे खेती से अपनी आईटी की नौकरी से भी ज्यादा कमा रहे हैं।
हरियाणा के सैयदपुर गाँव में एक किसान के परिवार में पैदा हुए, विपिन राव यादव ने कभी भी किसान बनने के बारे में नहीं सोचा था। उनके पिता एक पारंपरिक किसान थे जो खेती के घाटे से भली-भांति परिचित थे। इसलिए उन्होंने विपिन को पढ़ाई के लिए गुरुग्राम भेज दिया।
विपिन ने बताया, “मेरे पापा हमेशा से चाहते थे कि हम अच्छी नौकरी करें। इसलिए मेरे भाई ने बी. टेक किया और मुझे भी कंप्यूटर साइंस पढ़ने के लिए कहा गया।”
2015 में बीएससी कंप्यूटर्स में डिग्री प्राप्त करने के बाद, विपिन को एक कंपनी में नौकरी मिली लेकिन आय इतनी नहीं थी कि गुरुग्राम जैसे महंगे शहर में आराम से जीवन-यापन कर पाएं। इसलिए वे रोज़गार के दूसरे विकल्प खोजने लगे। तब उन्हें उनके एक दोस्त ने पास के कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) में जाने का सुझाव दिया, जहां फूलों की सुरक्षात्मक खेती में प्रशिक्षण के लिए इंटरव्यू चल रहे थे।
यहीं से उनकी ज़िन्दगी में सबसे बड़ा बदलाव आया।
“भारतीय कृषि कौशल परिषद ये इंटरव्यू ले रही थी। मैं बचपन में अपने पापा की खेतों में मदद करता था इसलिए मैंने उनके ज्यादातर सवालों के जबाब दे दिए और मेरा चयन हो गया,” विपिन ने बताया।
एक महीने में 200 घंटे के इस प्रशिक्षण ने विपिन की आँखें खोल दी। इन सभी चुने हुए प्रतिभागियों को आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) और अन्य कृषि अनुसंधान केंद्रों में ले जाया गया। उन्होंने देश भर के कुछ सबसे सफ़ल किसानों से भी मुलाकात की।
विपिन ने हाइड्रोपोनिक्स और अन्य नई तकनीको के बारे में सीखा, जो खेती में चमत्कार कर सकती थी। प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने फ़ैसला किया कि वह सुनिश्चित करेंगे कि उनके गाँव के किसानों को इस तकनीक के बारे में पता चले और वे इसे इस्तेमाल कर सकें।
मार्च 2016 में विपिन ने अपनी प्रोग्रामर की नौकरी छोड़ दी और किसान बनने के लिए अपना प्रशिक्षण पूरा किया।
उनका अगला कदम सैयदपुर में अपने पिता के 8 एकड़ के खेत में 100 वर्गफुट क्षेत्र में एक पॉलीहाउस बनाना था। उसके बाद उन्होंने 50 ग्रो ट्रे (हाइड्रोपोनिक खेती के लिए उपयोग की जाने वाली) और फूलों के बीज खरीदे।
“मैंने शुरू में अपनी नौकरी के दौरान की गयी बचत के लगभग डेढ़-दो लाख रूपये का निवेश किया। सभी ने मेरा मज़ाक उड़ाया, क्योंकि उन्होंने कभी भी बिना मिट्टी के खेती के बारे में सुना ही नहीं था। मेरे पिता ने भी नहीं सुना था, इसलिए उन्हें लगा कि किसी ने मुझे बहका दिया है,” विपिन कहते हैं।
हालांकि, मात्र एक महीने के भीतर विपिन ने हर एक ग्रो ट्रे में करीब 102 फूलों की खेती करके सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। विपिन के अनुसार, हाइड्रोपोनिक्स फलों, सब्जियों और फूलों को विकसित करने का सबसे स्वच्छ तरीका है।
क्योंकि,
1. ग्रो ट्रे में केवल कोको-पिट, वर्मीक्युलाइट और परलाइट का उपयोग किया जाता है। बीज दिए गए छेद में बोए जाते हैं और अंकुरित होने तक पानी दिया जाता है। इसका मतलब है कि मिट्टी के जैसे आम कीट यहां नहीं होते हैं।
2. तापमान विशेष फूल, फल या सब्जी की आवश्यकताओं के अनुसार बनाया जाता है, तो उतरते-चढ़ते तापमान के कारण कोई कीट पेड़ों को ख़राब नहीं करता है।
3. ग्रो ट्रे में मिश्रण का अनुपात हमेशा पोषक तत्वों के अनुसार बदला जा सकता है।
विपिन का दावा है कि ये फल और सब्जियां बहुत पौष्टिक हैं, क्योंकि पौधे के विकास के लिए हाल ही में खोजे गये कोबाल्ट समेत सभी 17 पोषक तत्व, उन्हें विकसित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले मिश्रण में मौजूद हैं। इसके अलावा, कोई भी पॉलीहाउस में तापमान को नियंत्रित कर सकता है और बिना मौसम वाली फसल भी उगा सकता है।
हालांकि, विपिन को अपनी पहली उपज प्राप्त करने के लिए कई परेशानियाँ झेलनी पड़ीं और उन्होंने अधिक लाभ भी नहीं कमाया, लेकिन वह कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों के आभारी हैं, जिन्होंने उनके खेत का दौरा किया और उन्हें अगली फसल के लिए उचित निर्देश दिए।
वह हँसते हुए कहते हैं, “मुझे खेती करते हुए कुछ ही वक़्त हुआ था और मेरे दिमाग में तो पूरी प्रोग्रामिंग भरी थी।”
“मैंने शुरुआत में कई गलतियां की, लेकिन फिर उचित मार्गदर्शन और इंटरनेट पर रिसर्च ने मुझे सफल होने में मदद की। मैं सभी किसानों को कम से कम एक बार अपने पास के केवीके जाने और खेती में उपयोग की जाने वाली नई तकनीकों के बारे में जानने की सलाह दूंगा। मेरे पास किसान परिवारों से आये युवाओं के लिए केवल एक संदेश है, जो आज ‘आउट ऑफ़ द बॉक्स’ वाली नौकरियों के पीछे दौड़ रहे हैं। खेती सिर्फ एक व्यवसाय नहीं है, लेकिन यह एक लाभदायक व्यवसाय हो सकता है यदि आप इसे बुद्धिमानी से करते हैं,” विपिन ने कहा।
एक साल के भीतर, विपिन ने गुरूग्राम में 1800 वर्गफुट किराए पर लिया व एक और पॉलीहाउस बनाया है। अब वह 2500 ग्रो ट्रे के मालिक हैं और हर महीने में लगभग 2.5 लाख फूल उगाते हैं।
फूलों को पास की नर्सरी में 6 इंच के गमले और गुरूग्राम के डीएलएफ फेज़ 1 और फेज़ 4 के बाजारों में फूलों की दुकानों पर बेचा जाता है। साइबर पार्क में भी दुकानों के साथ उनका बिजनेस है।
मात्र 21 साल की उम्र में खेती को एक नयी दिशा दिखाने वाले विपिन आख़िर में कहते है, “मैं अब हर महीने 40,000-50,000 रुपये कमा रहा हूँ। आजकल समाचार चैनल भी इसके बारे में और जानने के लिए मेरे खेत में आते हैं। मुझे खुशी है कि मेरे गाँव में युवा अब मेरी तरफ सम्मान से देख रहे हैं और इस तकनीक के बारे में जानने के लिए मुझसे संपर्क करते हैं। और जब भी कोई मेरी कहानी लिखता है, तो मेरे पिता गर्व से कहते हैं कि यह मेरा बेटा है, और ये एक किसान है।”
विपिन लोगों को प्रशिक्षित भी करते हैं। आप 9991706588 पर उससे संपर्क कर सकते हैं।
संपादन व मूल लेख – मानबी कटोच
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बच्चों के स्कूल बैग (वजन पर सीमा) बिल, 2006 के मुताबिक बच्चों के स्कूल बैग का वजन उनके शरीर के वजन के दस प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। साथ ही, राज्य सरकारों को यह निर्देशित किया गया है कि वे सुनिश्चित करें कि स्कूल बच्चों को भारी किताबें रखने के लिए लॉकर की सुविधा प्रदान करते हैं और बैग के माप के लिए मानकों का पालन करते हैं।
हालांकि, ये दिशा-निर्देश आज भी सिर्फ़ कागजों पर हैं और बच्चे अभी भी भारी-भरकम बैग के साथ स्कूल आते-जाते हैं ,
गुजरात के अहमदाबाद में भागड़ी सरकारी प्राथमिक स्कूल के 41-वर्षीय प्रिंसिपल आनंद कुमार खलस की एक अनोखी पहल से स्कूल बैग के वजन को काफ़ी कम किया जा सकता है।
प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को हर दिन सभी विषयों की किताबें और कॉपी बैग में लानी पड़ती हैं। इससे उनके स्कूल बैग का वजन काफ़ी बढ़ जाता है। इसे कम करने के लिए आनंद कुमार ने सभी विषयों के पाठ्यक्रम को सिर्फ़ 10 किताबों में व्यवस्थित किया है। सभी विषयों के एक महीने के सिलेबस को एक ही किताब में लगाया है।
हर एक किताब में एक-एक महीने का सिलेबस है। इसके चलते अब बच्चों को सभी किताबें लाने की ज़रूरत नहीं है। अब उन्हें महीने में सिर्फ़ वही किताब लानी होगी जिसमें उस महीने का सिलेबस है।
“इस पहल को एजुकेशन इनोवेशन फेयर में गुजरात काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (GCERT) ने एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर अपनाया है और इसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है।”
आनंद कुमार द्वारा बनवाई गयी किताबें (साभार: टाइम्स ऑफ़ इंडिया)
आनंद कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि जब उन्होंने हर रोज अपनी बेटी को इतना भारी स्कूल बैग ले जाते देखा तो उन्होंने इस विषय में कुछ करने की ठानी। उन्होंने अन्य कुछ शिक्षकों से इस बारे में बात की और सभी किताबों को अलग-अलग करने का फ़ैसला किया। उन्होंने हर एक विषय की किताब से सिलेबस का वह हिस्सा लिया, जो एक महीने के दौरान पढ़ाया जायेगा और उन पन्नों को साथ में जोड़कर एक किताब बनायी। सिलेबस के बाद कुछ खाली पन्ने भी क्लास-वर्क के लिए रखे गये हैं।
अब बच्चे हर महीने सिर्फ़ एक किताब के साथ स्कूल आ सकते हैं। इस पहल से 2-5 किलोग्राम का वजन अब मात्र 500-750 ग्राम रह गया है।
संपादन – मानबी कटोच
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आजकल एटीएम फ्रॉड के मामले कोई नई बात नहीं है। कितनी ही बार फ़ोन पर या फिर एटीएम के बाहर ही लोगों को ठगा जाता है। और इन ठगों के पकड़े जाने की भी कोई ख़ास ख़बर हमें नहीं मिलती है। पर मुंबई की इस महिला ने ऐसे मामले में जो किया वह वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, मुंबई की रहने वाली 35 वर्षीय रेहाना शेख़ ने 18 दिसम्बर 2018 को दफ़्तर जाते समय बांद्रा के एक एटीएम में पैसे निकालने के लिए रुकी। पर किसी टेक्निकल समस्या के चलते वे पैसे नहीं निकाल पा रही थीं। ऐसे में एटीएम के ही बाहर खड़े 36 वर्षीय भूपेन्द्र मिश्रा ने उन्हें मदद ऑफर की।
लेकिन शेख़ कोई पैसे नहीं निकाल पायीं। पर इसी सब में मिश्रा ने उनके डेबिट कार्ड की सभी जानकारी ले ली। शेख़ जब तक अपने दफ्तर पहुंची तो उन्हें फ़ोन पर मैसेज आया कि उनके अकाउंट से 10,000 रूपये निकाले गये हैं। यह पढ़कर वे चौंक गयीं और तुरंत एटीएम पहुंची लेकिन उन्हें वह आदमी नहीं मिला।
हालाँकि, इस घटना के बाद शेख़ हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठी। उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई और खुद भी लगातार उसी एटीएम पर जाकर देखती रही कि वह आदमी फिर वहां आया है या नहीं। शेख़ लगातार 17 दिनों तक एटीएम पर गयी और आखिरकार एक दिन उन्हें वह आदमी दिखा।
4 जनवरी 2018 को शेख़ ने उस ठग को पकड़ा और तुरंत पुलिस को खबर की। जब पुलिस ने छानबीन की तो उन्हें पता चला कि मिश्रा के खिलाफ़ इस तरह के फ्रॉड के 7 केस दर्ज हैं और उसे पहले भी ऐसे मामलों में पुलिस ने पकड़ा है।
बेशक, रेहाना शेख़ की सूझ-बुझ और हिम्मत बहुत से लोगों के लिए प्रेरक है, जो इस तरह की घटना के बाद पुलिस में शिकायत भी दर्ज नहीं करवाते हैं। पुलिस इस तरह के अपराधियों पर नियंत्रण रख पाए, इसके लिए आम लोगों को भी उनकी मदद के लिए आगे आना होगा।
संपादन – मानबी कटोच
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“इस काम में, मैं सब तरह के लोगों से मिलता हूँ- कोई बहुत रुखा व्यवहार करता है तो कोई बहुत ही प्यार से बात करता है, कोई खूब बातूनी होता है तो कोई सबसे अलग। कुछ देर बाद हम इन लोगों को भूल जाते हैं, लेकिन कुछ साल पहले मैं एक यात्री से मिला जिसे मैं आज तक नहीं भुला पाया हूँ- वो एक बुजूर्ग अंकल थे, शायद 80 साल के होंगे। मैं सड़क के दूसरी तरफ खड़ा था और मैंने देखा कि कई ऑटो वालों ने उनको ले जाने से मना कर दिया। उन्होंने 10 मिनट तक ट्राई किया और मैंने देखा कि वे बार-बार थक जा रहे थे, इसलिए मैंने सड़क पार की और उनके पास पहुंचकर कहा कि मैं उन्हें छोड़ दूंगा। उन्होंने बताया कि वे उस जगह से कुछ मिनट की दुरी पर ही रहते हैं इसलिए कोई भी उन्हें ले जाने के लिए तैयार नहीं था। उन्होंने मुझे बताया कि वे घर का कुछ सामान लेने के लिए आये थे, पर वे घर वापिस चलकर नहीं जा पायेंगें।
वे मेरे इतने आभारी थे कि उन्होंने मुझे घर के अंदर बुलाया और चाय भी पिलाई। पहले मैंने मना किया पर उन्होंने कई बार कहा तो मैं मान गया- हमारी अच्छी बन गयी थी, वे बहुत इंटेलीजेंट थे और उन्होंने मुझे जीवन के बारे में कई सलाह दीं। वे अपनी पत्नी के साथ अकेले रहते थे और उन्होंने कहा कि मैंने उन्हें उनके बेटे की याद दिला दी जो अमेरिका में काम करता है। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारे अंदर जो अच्छाई है उसे कभी मत खोना और उन्हें मुझ पर गर्व है कि मैंने उस दिन पैसे से पहले अच्छाई को रखा। उस दिन के बाद मैं फिर कभी उन अंकल से नहीं मिला, लेकिन आज भी, कभी मुझे लगता है कि दुनिया से अच्छाई खत्म हो रही है, तो मैं उस दिन को याद कर लेता हूँ और खुद को समझाता हूँ कि दूसरों के व्यवहार से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अच्छाई तुमसे शुरू होती है।”
“In this line of work, I meet all kinds of people – some are rude, some are kind, some are very talkative and some are…
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जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो
(सच में, ज़ोर से पढ़ें मन में नहीं)
सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहाँ पर सयाना हो,
नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो
तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो
नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो
तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,
हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो
हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,
जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो
सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें, सुन्दर लोग,
‘मीर’, ‘नज़ीर’, ‘कबीर’, और ‘इन्शा’ सब का एक घराना हो
वैसे आप आसानी से बात मानने वाले नहीं लगते, लेकिन अगर आज अच्छा बच्चा बन कर ज़ोर से पढ़ ली है, तो आप इब्ने इंशा जी की हिन्दी ग़ज़ल की लज़्ज़त में सरोबार हो गए होंगे. पाकिस्तानी अवाम इसे ही उर्दू कहती है. हिन्दी और उर्दू में अंतर करना हमारी पुरानी पीढ़ियों का अभिशाप है, जिसे आज तक हम लोग भुगत रहे हैं.
बहरहाल, आज की शनिवार की चाय का मकसद आपके साथ इब्ने इंशा के लिए उमड़े प्यार को साझा करना है. ‘मीठी बातें – सुन्दर लोगों’ में अपने आपको गिन लेने वाले इंशा जी को पढ़ना-सुनना आपके मन में सुनहला, सुगन्धित, नशीला धुआँ भर देता है. आपकी आँखें शुगर-रश से भारी हो जाती हैं. एक तो बेहद शीरीं ज़ुबान तिस पर चुटीली भी और उन्हीं के शब्दों में ‘सीधे मन को आन दबोचें’ ऐसी बातें भी. पिछले कुछ दिनों से इब्ने-इंशा के वीडियो बनाने की कवायद चल रही है और शायरों-कवियों की भीड़ में उनका नाम आसमान में बड़े बड़े हर्फों में लिखा दिख पड़ता है. क्योंकि बात महज़ बात कहने की नहीं होती, भाषा शिल्प की भी होती है.. आसानी से कठिन बातें कह जाने की भी होती है.
उदाहरण के तौर पर एक छोटी सी नज़्म पेश करता हूँ उनकी. इसे भी ज़ोर से पढ़ें ताकि महसूस कर सकें कि कितना आसान है इसे पढ़ना, कितनी रूमानियत है शब्दों में, किस सरलता से आपको आपके बचपन में ले जाया जाता है और जीवन का सारा निचोड़ झलक जाता है नज़्म के ख़त्म होते होते. आप इसे पढ़ें फिर बताएँ कि क्या यह आपकी-मेरी, सबकी कहानी नहीं है?
एक छोटा-सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुँचा हुमकता हुआ
जी मचलता था एक-एक शै पर मगर
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैकड़ों
एक छोटा-सा लड़का था मै जिन दिनों
खै़र महरूमियों के वो दिन तो गए
आज मेला लगा है इसी शान से
आज चाहूँ तो इक-इक दुकाँ मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
नारसाई का है जी में धड़का कहाँ?
पर वो छोटा-सा अल्हड़-सा लड़का कहाँ?
कई बार कहता हूँ कि हिंदी कविता – उर्दू स्टूडियो प्रोजेक्ट फूलों का धंधा है. इतने ख़ूबसूरत लोगों से मिलना होता है, उनके साथ काम करना होता है. ये लोग जो शायर हैं, ये लोग जो प्रस्तुतीकरण करते हैं, ये लोग अपने भीतर के लावण्य से हमारे जीवन में नमक घोल देते हैं. इसी तरह इंशा जी से मिलना एक पुरानी गली में गुज़री एक रूमानी शाम के मानिंद है. जो इनके काम से परिचित नहीं, उन्हें बता दूँ कि ‘कल चौदहवीं की रात थी, शब् भर रहा चर्चा तेरा’ इन्हीं की क़लम से है जिसे ग़ुलाम अली ने गा कर अमर कर दिया. जगजीत सिंह ने भी गाया है इन्हें, ख़ासतौर पर ‘हुज़ूर आपका भी एहतराम करता चलूँ / इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूँ’ मेरी प्लेलिस्ट में हमेशा रहता है.
आज आपके लिए इनकी एक रचना पेश है जो हमारे सबसे शरारती वीडियोज़ में से एक है:)
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लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.
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हाल ही में, आनंद महिंद्रा ने ट्विटर पर एक बुजूर्ग दंपत्ति की विडियो शेयर करते हुए लिखा, “ये लोग बेशक फ़ोर्ब्स के सबसे अमीर लोगों की लिस्ट में शामिल नहीं हैं, लेकिन मेरे लिए ये लोग भारत के सबसे अमीर लोग हैं। इनकी अमीरी इनका जीवन के प्रति नजरिया है।”
They may not figure in the Forbes Rich list but in my view, they are amongst the richest people in our country.Their wealth is their attitude to life. The next time I’m in their town I am definitely dropping by for tea & a tour of their exhibits.. pic.twitter.com/PPePvwtRQs
इस बुजुर्ग दंपत्ति की विडियो काफ़ी दिनों से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। ये दंपत्ति है, केरल के विजयन और उनकी पत्नी मोहना। उनकी केरल में एक छोटी सी चाय की दुकान है। इन दोनों के लिए ज़िंदगी का मतलब है दुनिया की यात्रा करना और अपनी हर एक यात्रा के अनुभव से कुछ सीखना।
अब तक, इन दोनों ने साथ में 23 देशों की यात्रा की है। केरल में एर्नाकुलम के एक चाय विक्रेता, विजयन कहते हैं,
“मुझे दुनिया देखनी है। यही मेरी इच्छा है। मेरी एकमात्र इच्छा”
विजयन का यात्रा करने का जुनून कुछ इस कदर था कि बचपन में वे अपने घर से अनाज चोरी करके बेच दिया करते थे। वे जैसे भी हो पैसे बचाते और फिर नई-नई जगह घुमने के लिए भाग जाते थे। आज इस आदमी के इस जुनून का ही कमाल है कि इन्होंने अपनी पत्नी मोहना के साथ 23 देशों की यात्रा की है।
विजयन का मानना है कि हम कहीं भी जाएँ, हमारी ज़िंदगी यात्राओं के भरी हुई है और इसलिए हर दिन, वे कड़ी मेहनत करते हैं ताकि अपने अगले पड़ाव, किसी और नए देश में जाने के लिए पैसे बचा सकें।
द न्यूज मिनट की एक रिपोर्ट के अनुसार, जैसे ही उनके पास कुछ पैसे इकट्ठे होते हैं, वे बैंक से लोन लेते हैं और निकल पड़ते हैं एक नए देश की यात्रा पर। फिर वापिस आकर, दो-तीन साल कड़ी मेहनत करके बैंक का लोन चूका देते हैं।
उन्होंने कहा, “मुझे भगवान ने हमेशा ही मेरी औकात, मेरे सपनों या फिर मेरी इच्छा से ज्यादा ही दिया है।” अब तक विजयन अपनी यात्राओं पर लगभग 15 लाख रूपये खर्च कर चुके हैं। लेकिन उनके लिए ये पैसे उस अनुभव के सामने कुछ भी नहीं जो उन्होंने अपनी यात्राओं से पाया है।
और जब लोग उसे पागल कहते हैं, तो वे कहते हैं – “हाँ, मैं पागल हूँ। हर किसी का अपना पागलपन होता है।”
और अब उनके इसी पागलपन से प्रभावित होकर आनंद महिंद्रा ने लिखा है कि वे इनकी सालगिरह की तारीख पता कर इनके लिए तोहफे के तौर पर इनकी अगली यात्रा स्पोंसर करना चाहते हैं। महिंद्रा ने यह भी लिखा कि वे जब भी कभी कोच्ची जायेंगे तो इनके यहाँ चाय पीना बिलकुल पसंद करेंगे।
विजयन और मोहना की प्रेरणात्मक कहानी को हरी एम. मोहनन ने एक डॉक्युमेंट्री के माध्यम से लोगों को बताया है। आप विडियो यहाँ देख सकते हैं
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साल 1968 में, भारतीय मूल के एक बायोकेमिस्ट को मार्शल डब्ल्यू निरेनबर्ग और रॉबर्ट डब्ल्यू होले के साथ ‘जेनेटिक कोड’ पर उनके काम के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के क्षेत्र में यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इस वैज्ञानिक का नाम था हरगोविंद खुराना!
हरगोविंद खुराना का जन्म ब्रिटिश भारत में 9 जनवरी, 1922 को पंजाब के छोटे से गाँव रायपुर (अब पूर्वी पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता, गणपत राय खुराना पटवारी का काम करते थे और उनकी माँ कृष्णा देवी खुराना एक गृहणी थीं। पाँच भाई-बहनों में से एक हरगोविंद की प्रतिभा को उनके माता-पिता ने बचपन में ही पहचान लिया था। इसलिए आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न होने के बावजूद उनके माता-पिता ने उन्हें पाकिस्तान के मुल्तान में डीएवी हाई स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा।
नोबल पुरस्कार जीतने के बाद डॉ. खुराना ने अपनी आत्मकथा में लिखा था,
“गरीब होते हुए भी मेरे पिता अपने बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित थे और 100 लोगों के गाँव में एकमात्र हमारा ही परिवार था, जो शिक्षित था।”
हरगोविंद खुराना (साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)
अपनी शुरुआती शिक्षा उन्होंने गाँव के स्कूल से ही की। पर पढ़ाई में अच्छा होने की वजह से उन्हें कई छात्रवृत्तियाँ मिली। इन्हीं छात्रवृत्तियों के सहारे उन्होंने 1945 में पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री) में स्नातक और मास्टर डिग्री हासिल की। इसके बाद विज्ञान में उनकी असाधारण प्रतिभा को देखते हुए, स्थानीय ब्रिटिश प्रशासन ने उन्हें यूनाइटेड किंगडम में यूनिवर्सिटी ऑफ लिवरपूल से पीएचडी फेलोशिप प्रदान की।
साल 1948 में अपनी पीएचडी के बाद खुराना ने एक साल तक स्विट्जरलैंड के ईटीएच ज्यूरिख में एक पोस्ट-डॉक्टरल पद पर काम करते हुए क्षारीय रसायन क्षेत्र (alkaloid chemistry) में अपना योगदान दिया। इसके बाद वे अपने वतन लौटे।
लेकिन उस वक़्त भारत विज्ञान के क्षेत्र में इतना आगे नहीं बढ़ा था और इसीलिए खुराना को यहाँ उनकी योग्यता अनुसार कोई नौकरी नहीं मिली।
साभार: ट्विटर
खुराना रासायनिक विज्ञान के क्षेत्र में बहुत कुछ करना चाहते थे और इसलिए न चाहते हुए भी वे वापिस ब्रिटेन चले गये। यहाँ उन्होंने साल 1952 तक एलेक्जेंडर आर. टोड और जॉर्ज वालेस केनर के साथ ‘पेप्टाइड्स और न्यूक्लियोटाइड्स’ पर काम किया। इसके बाद वे अपने परिवार के साथ कनाडा चले गये और यहाँ उन्हें ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय में नौकरी मिली।
कुछ वर्षों बाद, खुराना ने बायोकेमिस्ट्री में पहले सिंथेटिक जीन का निर्माण किया। विज्ञान के क्षेत्र में यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। खुराना के इस शोध ने भविष्य के वैज्ञानिकों को भी अनुवांशिकी विज्ञान के क्षेत्र में काम करने का एक केंद्रबिंदु दे दिया। उनके द्वारा किये गए इस अनुवांशिकी शोध की चर्चा पूरे विश्व में होने लगी और उन्हें कई पुरस्कार व सम्मानों से भी नवाज़ा गया।
साल 1960 में डॉ. खुराना को कैनेडियन पब्लिक सर्विस ने उनके काम के लिए गोल्ड मैडल दिया।
1960 में ही वे कनाडा से अमेरिका चले गये। यहाँ उन्होंने विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ एन्ज़ाइम रिसर्च में एक प्रोफ़ेसर की नौकरी की और साल 1966 में उन्हें अमेरिकी नागरिकता मिल गयी।
डॉ. खुराना ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर डी.एन.ए. अणु की संरचना को स्पष्ट किया था और यह भी बताया था कि डी.एन.ए. प्रोटीन्स का संश्लेषण किस प्रकार करता है। जीन का निर्माण कई प्रकार के अम्लों (acid) से होता है। खोज के दौरान उन्होंने पाया कि जीन, डी.एन.ए. और आर.एन.ए. के संयोग से बनते हैं। अतः इन्हें जीवन की मूल इकाई माना जाता है। इन अम्लों में ही आनुवंशिकता (heredity) का मूल रहस्य छिपा हुआ है।
उनके इस शोध कार्य ने ही ‘जीन इंजीनियरिंग’ यानी कि ‘बायोटेक्नोलॉजी’ की नींव रखी और इसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार मिला।
इस शोध कार्य के बाद उन्हें साल 1971 में विश्व के प्रसिद्द संस्थान मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) के साथ काम करने का मौका मिला।
नोबल पुरस्कार के अलावा भी डॉ. खुराना को बहुत से सम्मान मिले, जिनमें डैनी हैंनमेन अवार्ड, लॉसकर फेडरेशन पुरस्कार, लूसिया ग्रास हारी विट्ज पुरस्कार आदि शामिल हैं। भारत सरकार ने भी डॉ. खुराना को पद्मभूषण से सम्मानित किया था। इन सम्मानों के आलावा उन्हें सम्मानित करने के लिए वोस्कोंसिन-मेडिसिन यूनिवर्सिटी, इंडो-यूएस साइंस एंड टेकनोंलॉजी और भारत सरकार ने साथ मिलकर साल 2007 में खुराना प्रोग्राम की शुरुआत की।
साल 2011 में 9 नवंबर को 89 साल की उम्र में डॉ. खुराना ने अपनी आखिरी सांस ली। डॉ. खुराना तो चले गये लेकिन अपने पीछे एक महान विरासत छोड़ गये, जिसे आज उनके छात्र आगे बढ़ा रहे हैं। उनके शोध कार्यों की भूमिका पर आज भी रसायन विज्ञान में महत्वपूर्ण शोध हो रहे हैं।
भारत के इस अनमोल रत्न को हमारा नमन!
(संपादन – मानबी कटोच)
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।
“मैंने बस अनुभव के लिए इस बार परीक्षा दी थी। मुझे नहीं लगा था कि मैं इसे पास कर लुंगी, क्योंकि न तो मैंने इसके लिए कोई कोचिंग ली थी और न ही खुद ढंग से तैयारी कर पाई थी। पर इस उपलब्धि ने मेरी ज़िन्दगी में कई बदलाव ला दिए। जिन लोगों को पहले मेरा पढ़ना-लिखना व्यर्थ लगता था, आज उनकी भी उम्मीदें मुझसे बंध गयी हैं,” यह कहना है उड़ीसा सिविल सर्विस परीक्षा 2018 में 91वीं रैंक प्राप्त करने वाली संध्या समरत का।
रावेनशॉ यूनिवर्सिटी, कटक से भूगोल में पीएचडी कर रहीं संध्या समरत, उड़ीसा के मलकानगिरी जिले के एक छोटे से गाँव सालिमी से हैं। मलकानगिरी के इस आदिवासी गाँव से राज्य की प्रशासनिक सेवा में शामिल होने तक का संध्या का सफर बिल्कुल भी आसान नहीं था। पर संध्या ने कभी भी हार नहीं मानी बल्कि आगे बढ़ने के लिए उन्होंने शिक्षा को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया।
मलकानगिरी में संध्या के गाँव की सीमा छत्तीसगढ़ के बस्तर को छूती है। एक दूरगामी आदिवासी इलाका और नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने के कारण विकास की कोई भी योजना बहुत मुश्किल से गाँव तक पहुंचती है।
इस गाँव में न तो कोई अच्छा स्कूल है और न ही कॉलेज, जहाँ बच्चे आगे की पढ़ाई कर सकें।
संध्या समरत
गाँव के लोग भी ज्यादातर कृषि पर निर्भर हैं, इसलिए बहुत बार बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना उनके लिए मुमकिन नहीं हो पाता है।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए संध्या ने बताया, “मेरा पूरा परिवार खेती से जुड़ा हुआ है। मुझे बचपन में कभी भी नहीं लगा था, कि मैं इतना आगे तक आ पाऊँगी। मेरे परिवार और शायद मेरे गाँव से भी मैं पहली लड़की हूँ, जो आज ऐसे बाहर पढ़-लिख रही है।”
आज संध्या अपने गाँव में ही नहीं बल्कि पूरे देश की लड़कियों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। पर एक वक़्त था जब उन्हें अपनी आगे की पढ़ाई के लिए हर कदम पर संघर्ष करना पड़ा।
“गाँव में बस एक सरकारी प्राथमिक स्कूल था और वहाँ भी कोई ख़ास सुविधा नहीं थी। क्योंकि इतने पिछड़े गांवों में टीचर भी आना पसंद नहीं करते हैं। पर मुझे हमेशा से पढ़ना था, इसलिए मैंने हर मुमकिन कोशिश कर, अपनी पढ़ाई जारी रखी।”
पाँचवी कक्षा तक जैसे-तैसे गाँव के स्कूल से पढ़ने के बाद संध्या ने जवाहर नवोदय स्कूल की परीक्षा पास कर स्कॉलरशिप हासिल की। इसके बाद उन्होंने अपनी 12वीं तक की पढ़ाई मलकानगिरी में जवाहर नवोदय स्कूल से की। स्कूल के दौरान वे हमेशा अपनी क्लास में टोपर रहीं और साथ ही अन्य गतिविधियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेतीं।
एक बार एक डिबेट कम्पटीशन जीतने पर उन्हें मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित किया गया था, जिसके बाद पूरे जिले में लोगों को संध्या के बारे में पता चला।
वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुख्यमंत्री ने किया था संध्या को सम्मानित (फोटो साभार: संध्या समरत)
उनकी इसी उपलब्धि ने उनके लिए आगे की राह बनाई। संध्या कहती हैं, “बारहवीं कक्षा तक तो स्कॉलरशिप पर पढ़ाई हो गयी। लेकिन आगे की पढ़ाई को लेकर मैं बहुत चिंता में थी क्योंकि उसके लिए भुवनेश्वर जाकर पढ़ना था। पहले तो लगा ही नहीं कि घरवाले मानेंगे और अगर मान भी गये, तो आगे की पढ़ाई का खर्चा कैसे आएगा,” संध्या ने बताया।
शुरू में उनके परिवार के मन में डर था, क्योंकि गाँव से कोई लड़की इस तरह बाहर नहीं गयी थी। लेकिन संध्या के परिवार को उन पर यकीन भी था कि जब संध्या अपनी मेहनत के दम पर यहाँ तक पहुंची है, तो आगे भी जाएँगी। उनके परिवार ने उनसे कहा कि तुम्हें अपना रास्ता खुद तय करना है और अगर तुम्हें लगता है कि तुम भुवनेश्वर जैसे शहर में जाकर पढ़ सकती हो, तो ठीक है। यह सुन कर संध्या के सपनों को तो जैसे पर मिल गये थे।
संध्या के लिए एक छोटे से गाँव से निकलकर भुवनेश्वर जाकर रहना आसान नहीं था। वहाँ कॉलेज में उन्हें एडमिशन तो मिल गया, लेकिन कॉलेज का हॉस्टल न होने के कारण उन्हें काफ़ी दिक्कतें झेलनी पड़ीं। ऐसे में जिला प्रशासन ने उनकी मदद की, क्योंकि संध्या का रिकॉर्ड उनके स्कूल में काफ़ी अच्छा था।
संध्या के माता-पिता (फोटो साभार: संध्या समरत)
संध्या कहती हैं, “एक साथ इतनी परेशानियां खड़ी हो जाती थीं, कि मैं बहुत टूट जाती थी। लगता था कि अब आगे नहीं हो पायेगा। पर मैं यह भी जानती थी कि हार मानना मेरे लिए कोई विकल्प नहीं है। मैं बचपन से ही बहुत आशावादी रही। मैं हमेशा सकारात्मक ही सोचती, कि सब कुछ ठीक हो जायेगा।”
संध्या हमेशा अपने कॉलेज में अव्वल आतीं और इसीलिए उन्हें कॉलेज से व सरकार से भी स्कॉलरशिप मिलती रहीं, जिससे उनकी पढ़ाई का खर्च निकलता। अपनी मास्टर्स डिग्री के दौरान ही उन्होंने यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन के अंतर्गत राष्ट्रीय योग्यता परीक्षा (NET) और जूनियर रिसर्च फ़ेलोशिप (JRF) की परीक्षा पास की।
उनके परिवार का साथ भी उन्हें हर कदम पर मिला। आज उनके भाई-बहन भी अच्छी जगह पर पढ़ रहे हैं। हालाँकि, गाँव में हालात अभी भी नहीं बदले थे। बहुत बार गाँव के लोग उनके माता-पिता को कहते कि अपनी बेटी को इतना पढ़ा-लिखा कर उन्हें कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि बेटियाँ तो पराया धन होती हैं। पर संध्या के पिता को अपनी बेटी की मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा था और संध्या हर कदम पर उनके भरोसे पर खरी उतरी।
सिविल सर्विस के बारे में पूछने पर संध्या ने बताया, “जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ी और बाहर निकली, तो मैंने समझा कि अगर मुझे अपने गाँव और अपने लोगों के लिए कुछ करना है, तो प्रशासन में रहकर ही कर सकती हूँ। आज भी हमारे गाँव में मूलभूत सुविधाओं के लिए लोगों को संघर्ष करना पड़ता है। बिजली, साफ़ पानी, पक्की सड़कें, बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा, इन सब ज़रूरी मुद्दों पर कभी काम नहीं हुआ। इसलिए मैंने अपनी पढ़ाई के साथ सिविल सर्विस की परीक्षा देने का निर्णय किया।”
उनके यह परीक्षा पास करने के बाद उनके जिले और ख़ासकर, उनके गाँव के लोगों में एक उम्मीद जगी है। संध्या कहती हैं, कि अब उनके गाँववालों को विश्वास है कि उनका कोई अपना प्रशासन में होगा तो उनकी सुध लेगा। परीक्षा का परिणाम आने के बाद जब वे गाँव गयी, तो उनके परिवार के साथ अन्य गाँववालों ने भी उनका जोरदार स्वागत किया।
सालिमी गाँव के बारे में शायद ही किसी ने सुना हो, पर अपनी कड़ी मेहनत और मजबूत इरादों के दम पर आज संध्या समरत ने इस गाँव को एक पहचान दे दी है। कुछ वक़्त में संध्या की बाकी सभी चुने गये प्रतिभागियों के साथ ट्रेनिंग शुरू हो जाएगी और ट्रेनिंग के बाद उन्हें पोस्टिंग मिलेगी। पर संध्या चाहती हैं कि उन्हें मलकानगिरी में ही कहीं पोस्टिंग मिले ताकि वे इस जिले के विकास के लिए काम कर सकें।
(संपादन – मानबी कटोच)
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छत्तीसगढ़ के रहता गाँव की निवासी पूनम कुमारी, प्रीति, और शांति को अपने स्कूल पहुँचने के लिए हर रोज़ एक चुनौती का सामना करना पड़ता था। दरअसल, इनका स्कूल एक दूसरे गाँव अरजपुरी में है और इस गाँव तक पहुँचने के लिए उन्हें खरखरा डैम के रिज़रवायर को पार करना पड़ता है।
नाव आदि की कोई ख़ास सुविधा न होने के कारण न सिर्फ़ इन बच्चियों को बल्कि अन्य गाँववालों को भी काफ़ी परेशानीयों से गुजरना पड़ता था। कभी वे खाली तेल के टिन, कभी रस्सियों और कभी लकड़ी के टुकड़ों से पतवार बनाकर जैसे-तैसे इसे पार कर दूसरी ओर पहुंचते थे।
लेकिन अब इन सबकी परेशानी दूर हो चुकी है और इसका श्रेय जाता है बालोद जिले की कलेक्टर किरण कौशल को। कौशल को जब गाँववालों की इस परेशानी के बारे में पता चला तो उन्होंने तुरंत इसे हल करने के लिए काम शुरू किया।
फ़लस्वरूप, 8 जनवरी को जब ये तीनों छात्राएँ स्कूल जाने के लिए नदी किनारे पहुँची तो दंग रह गयीं। दरअसल, कौशल ने इनकी परेशानी दूर करने के लिए एक मोटरबोट, लाइफ-जैकेट्स और दो होम गार्ड्स का इंतज़ाम करवाया है।
टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए, कौशल ने कहा, “मैं सोमवार (7 जनवरी 2019) को गाँव के निवासियों की शिकायतों को सुनने के लिए अपनी टीम के साथ गाँव गई। वहाँ गाँववालों ने बताया कि उन्हें किराने और अन्य दैनिक जरूरतों का सामान लेने के लिए अरजपुरी गाँव तक पहुँचने के लिए तेल के डिब्बे से बनी नावों पर जाना पड़ता है। इसलिए हमने मोटरबोट लगवाई और दो होम गार्ड नियुक्त किये हैं, जो गाँववालों और इन लड़कियों को सुरक्षित रहता गाँव से अरजपूरी गाँव तक आने-जाने में मदद करेंगें। उन्हें लाइफ-जैकेट भी दी गयी हैं।”
प्रतीकात्मक तस्वीर, इनसेट में आईएएस किरण कौशल
हर दिन की मुश्किल हल होने पर इन बच्चियों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था और उन्होंने बस इतना कहा, “हमें कभी भी इतना अच्छा नहीं लगा।”
हालांकि, इन गाँववालों ने इस आईएएस अफ़सर से एक छोटी-सी गुज़ारिश की है। गाँववाले इस मोटरबोट का रख-रखाव करने में सक्षम नहीं है, इसलिए उन्होंने कलेक्टर कौशल से अपील की है कि इस मोटरबोट की जगह उन्हें चप्पू वाली नाव ही दे दी जाये।
इस अपील के जबाव में कौशल ने भी उनसे वादा किया कि जल्द ही वे उनके लिए अच्छी नाव का इंतजाम करवाएंगी।
बेशक, यह काम बहुत सराहनीय है। पर फिर भी हम उम्मीद करेंगे कि गाँव वालों के लिए कोई स्थायी समाधान हो जैसे कि पुल बनवा दिया जाये या फिर और ज्यादा से ज्यादा नाव प्रदान की जाएँ। पर कहते हैं न कि एक अच्छा काम ही दूसरे अच्छे काम की नींव बनाता है, तो हमें आशा है कि गाँव के विकास की और भी अच्छी ख़बरें हमें मिलेंगी।
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तमिलनाडु सरकार ने छह महीने पहले ही राज्य में प्लास्टिक बैन की घोषणा कर दी थी, लेकिन 1 जनवरी 2019 से इस फैसले को प्रभाव में लाया जा रहा है। प्लास्टिक बैन के फैसले का राज्य के लोगों ने पूरे दिल से स्वागत किया है और अब इसलिए बहुत से लोग दैनिक जरूरतों के लिए प्लास्टिक की जगह पारम्परिक और इको-फ्रेंडली तरीके ढूंढ रहे हैं।
बहुत से स्थानीय दुकानदारों ने खाने और सामान की पैकिंग के लिए केले और सुपारी के पत्तों से बनी प्लेटों का इस्तेमाल करना शुरू किया है तो वहीं नारियल-पानी विक्रेताओं ने भी प्लास्टिक के स्ट्रॉ की जगह पपीते और बांस की स्ट्रॉ को दे दी है।
मदुरै के निवासी और एक जैविक किसान, थंगम पांडियन को ख़ुशी हुई जब मारवांकुलम बस स्टॉप पर उन्होंने एक नारियल-पानी विक्रेता को प्लास्टिक स्ट्रॉ की जगह पपीते के डंठल को इस्तेमाल करते हुए देखा। थंगम ने कहा कि बहुत से पपीता फार्म से ये डंठल आसानी से इकट्ठे किये जा सकते हैं और साथ ही, धूप में थोड़ा सुखाने के बाद ये डंठल प्लास्टिक स्ट्रॉ के जैसे आसानी से मुड़ते भी नहीं है।
इस नारियल पानी विक्रेता की ही तरह तिरुनेलवेली जिले के तेनकासी शहर में भी एक विक्रेता ने ग्राहकों को नरियल पानी पीने के लिए बांस की स्ट्रॉ देना शुरू किया है।
बांस के तने की बनी स्ट्रॉ (बाएं) और पपीते के डंठल की स्ट्रॉ (दाएं)
तेनकासी के रहने वाले जे. शनमुगा नाथन ने तेनकासी और इदैकल के बीच एस्सार पेट्रोल पंप के पास एक प्रसिद्ध नारियल-पानी विक्रेता के बारे में बताया। नाथन ने कहा, “सड़क के दूसरी तरफ उसे बहुत से बांस के तने पड़े मिले, जिनसे उसने स्ट्रॉ बनाने की सोची। एक बांस से वह लगभग 6 से 10 स्ट्रॉ बना सकता है।”
नारियल पानी को बांस की स्ट्रॉ से पीने पर एक अलग ही स्वाद आता है। नाथन को इस नारियल पानी विक्रेता की इस सोच ने काफ़ी प्रभावित किया। हालांकि, उनका मानना है कि सरकार का यह कदम तभी सार्थक होगा जब बड़ी कॉर्पोरेट कंपनी और ब्रांड्स भी इसमें अपना योगदान दें।
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महाराष्ट्र के पुणे शहर में दिन-प्रतिदिन बढ़ रही ट्रैफिक की समस्या को ध्यान में रखते हुए प्रशासन ने ट्रैफिक पुलिस की मदद के लिए एक रोबोट, ‘रोडीओ’ लॉन्च करने का फैसला किया है।
यह रोबोट एक ट्रैफिक पुलिस अफ़सर के जैसे ही काम करेगा और यात्रियों को ट्रैफिक नियमों के बारे में आगाह करेगा। पूरे देश में किसी भी ट्रैफिक डिपार्टमेंट द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला यह पहला रोबोट है। अगर पुणे का यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हो जाता है तो इस रोबोट के और भी प्रोटोटाइप तैयार किये जायेंगें।
यह आईडिया शहर के एसपी रोबोटिक्स मेकर लैब के डेवलपर्स के दिमाग की उपज है। इस लैब में लोगों को रोबोटिक्स के बारे में पढ़ाया जाता है और साथ ही, ये लोग टेक्नोलॉजी पर खुद भी काम करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस रोबोट को लैब में रोबोटिक्स सीखने वाले छह बच्चों की एक टीम ने बनाया है।
इस टीम में शामिल है, आदि कंचंकर, पार्थ कुलकर्णी, रचित जैन, शौर्य सिंह, श्रुतेन पांडे और विनायक कृष्णा। इस रोबोट को बनाने के पीछे का उद्देश्य ट्रैफिक पुलिस की मदद करना और शहर में लोगों को ट्रैफिक नियमों के प्रति जागरूक करना है।
एसपी रोबोटिक्स मेकर लैब के हेड, संदीप गौतम ने बताया, “यह रोबोट पिछले साल कुछ महीनों में इन बच्चों ने बनाया है। ये सभी बच्चे सातवीं और आठवीं कक्षा के छात्र हैं। इन्होंने चेन्नई की एक टीम के साथ इस प्रोजेक्ट पर अच्छा काम किया है। यह एक मल्टी-फंक्शनल रोबोट है जिसे हमारी टीम ने ट्रैफिक डिपार्टमेंट को गिफ्ट किया है।”
इस रोबोट में 16 इंच की एक एलईडी डिस्प्ले लगाई गई है, जिस पर ट्रैफिक नियम और अन्य महत्वपूर्ण सन्देश आप पढ़ पायेंगें। रोबोट के हाथों को इस तरह से बनाया गया है कि वे वाहनों को दिशा-निर्देश दे सकते हैं और रोक सकते हैं। इस सबके आलावा इस रोबोट में एक साईरन और पहिये भी लगाये गये हैं।
शहर की डीसीपी तेजस्वी सातपुते ने बताया कि ये रोबोट 15 जनवरी 2019 से लॉन्च होगा और शहर के मुख्य चौक पर आप इसे देख पायेंगें।
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जापान के टोक्यो में स्थित यासुकुनी तीर्थस्थान में युद्ध के दौरान मारे गये जापानी नागरिकों के स्मारकों के अलावा एक और स्मारक है, जो जापान और भारत के रिश्तों को बहुत ख़ास बना देता है। यह स्मारक समर्पित है भारतीय न्यायधीश राधाबिनोद पाल को!
भारत में भले ही बहुत कम लोगों ने राधाबिनोद पाल का नाम सुना हो, लेकिन जापान में आज भी उनका नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है। साल 2007 में जब जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे भारत के दौरे पर आये, तो उन्होंने संसद में अपने भाषण के दौरान पाल को श्रद्धांजलि दी। प्रधानमंत्री शिंजो राधाबिनोद पाल के परिवार से मिलने कोलकाता भी गये।
पर क्या आप जानते हैं कि एक भारतीय न्यायधीश को जापान में इतना आदर और सम्मान क्यूँ मिलता है?
यह कहानी है न्यायधीश राधाबिनोद पाल की, जिन्होंने बेहिचक पूरे विश्व को बताया कि “किसी भी युद्ध में कोई ‘सही पक्ष’ नहीं होता”!
दूसरे विश्व युद्ध के समय साल 1945 में जापान को भारी तबाही का सामना करना पड़ा। इस युद्ध के ख़त्म होने के बाद , संयक्त राष्ट्र अमेरिका, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने जर्मनी और जापान के नेताओं और कुछ अन्य युद्ध-अपराधियों को सज़ा देना चाहते थे। इसलिए इन देशों ने युद्ध की समाप्ति के बाद ‘क्लास ए वार क्राइम्स’ नामक एक नया कानून बनाया, जिसके अन्तर्गत आक्रमण करने वाले को मानवता तथा शान्ति के विरुद्ध अपराधी माना गया।
इसे लागू करने के लिए जापान में ‘इंटरनेशनल मिलिट्री ट्रिब्यूनल फॉर द फार ईस्ट’ (आईएमएफटीई) ने संयुक्त राष्ट्रों से 11 न्यायधीशों की एक टीम बनाई, जिन्हें इन अपराधियों की सज़ा तय करने के लिए टोक्यो लाया गया। और फिर शुरू हुआ ‘टोक्यो ट्रायल्स’। वही जर्मनी में इसी तर्ज़ पर में ‘नूर्नबर्ग ट्रायल्स’ शुरू हुआ।
यह ट्रायल 3 मई 1946 को शुरू हुआ और लगभग ढाई साल चला। 28 आरोपियों के ख़िलाफ़ यह मुकदमा चला, जिनमें से अधिकांश जापानी प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो के युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य थे। इन 28 आरिपियों में से एक को मानसिक रूप से अस्वस्थ्य घोषित किया गया था और ट्रायल के दौरान दो की मौत हो गई थी।
12 नवंबर, 1948 को बाकी बचे 25 आरोपियों को क्लास-ए (शांति के ख़िलाफ़ अपराधों) के 55 मामलों में दोषी ठहराया गया और उन्हें मौत की सज़ा सुनाई गई। एक के बाद एक सभी न्यायधीश उन्हें ‘दोषी’ करार देते जा रहे थे कि अचानक एक आवाज़ आई – “दोषी नहीं हैं”। इस एक आवाज़ को सुन कर पूरी अदालत में सन्नाटा छा गया।
असहमति की यह आवाज़ कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रतिष्ठित न्यायाधीश और कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति राधाबिनोद पाल की थी।
युद्ध न्यायाधिकरण में पाल की भागीदारी, गिरजा शंकर बाजपेयी के अथक प्रयासों का परिणाम थी, जो वाशिंगटन डीसी में भारत के एजेंट जनरल थे (वह बाद में स्वतंत्र भारत के विदेश मंत्रालय में पहले महासचिव बने)।
वैसे तो शुरूआती योजना यह थी कि जिन देशों ने जापान के आत्मसमर्पण पर हस्ताक्षर किए थे, वे ही अपने यहाँ से न्यायाधीशों को भेजेंगे। लेकिन गिरजा शंकर बाजपेयी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत को अपना न्यायधीश भेजने का मौका मिलना चाहिए क्योंकि भारतीय सैनिकों की भी इस युद्ध में भागीदारी रही और वे मारे भी गये।
बाजपेयी और अमेरिकी विदेश विभाग के बीच लंबी बहस के बाद यह सहमति बनी कि भारत,युद्ध-न्यायाधिकरण में अपना भी एक न्यायाधीश भेजेगा। बाजपेयी ने बाद में कहा कि उन्होंने ‘भारत के लिए समानता का दावा’ स्थापित करने के लिए यह फ़ैसला लिया था। उस समय जब ब्रिटिश सरकार ने भारत के उच्च न्यायलयों को इस बारे में सम्पर्क किया तो कोलकाता से राधाबिनोद पाल का जबाव सबसे पहले आया और उन्हें इस ट्रायल के लिए टोक्यो भेजा गया।
इस मुकदमे की शुरुआत से ही ट्रायल के बारे में न्यायधीश पाल ने अपना कानूनी दृष्टिकोण रखा। मुकदमें में कई पहलुओं को देखने का उनका नज़रिया बाकी न्यायधीशों से अलग था। क्योंकि वे एक राष्ट्रवादी थे और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का भी समर्थन करते थे।
आईएमएफटीई के न्यायाधीश, टोक्यो, जापान, 1946-1948. पिछली कतार (बाएं से दाएं): राधाबिनोद पाल-भारत, बी.वी.ए. रोलिंग-नीदरलैंड, एडवर्ड स्टुअर्ट मैकडॉगल-कनाडा, हेनरी बर्नार्ड-फ्रांस, हार्वे नॉर्थक्रॉफ्ट-न्यूजीलैंड और डेल्फिन जरनिला-फिलीपींस। अगली कतार (बाएं से दाएं): लॉर्ड पैट्रिक-यूके, एमजी क्रैमर-यू.एस. (जुलाई 1946 में इन्हें अमेरिकी न्यायाधीश जॉन पी हिगिंस के स्थान पर बुलाया गया था), सर विलियम वेब-ऑस्ट्रेलिया, जू-एओ मेई-चीन और एमजी आई. एम. ज़ार्यानोव-सोवियत संघ (रूस)।
उनका मानना था कि इस ट्रायल के ज़रिये अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्याय के नाम पर संयुक्त राष्ट्र खुद को सही और जापान को ग़लत साबित कर, यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उन्होंने ‘दुष्टों’ पर धार्मिक विजय प्राप्त की है। साथ ही, कहीं न कहीं वे एशिया पर अपना अधिपत्य जमाने की कोशिश में थे।
इस सबसे असंतुष्ट पाल ने लिखा था कि मानवता और शांति के खिलाफ़ इन्हें आरोपी साबित करने की यह कानूनी प्रक्रिया मात्र एक दिखावा है। इसके साथ ही उन्होंने जापान की क्रूरता को भी नहीं नकारा, बल्कि उन्होंने युद्ध के दौरान जापान के अत्याचारों (जैसे नानजिंग नरसंहार) को अमानवीय बताते हुए कहा कि इन सभी आरोपियों को क्लास बी (युद्ध अपराध) और क्लास-सी (मानवता के विरुद्ध) के अंतर्गत दोषी मानना चाहिए।
पाल ने संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु बम विस्फोटों की भी स्पष्ट रूप से आलोचना की और उनकी तुलना नाज़ी अपराधों से की।
न्यायधीश पाल की असहमति जापान का साथ देने के लिए नहीं थी, बल्कि इसलिए थी कि वे मानते थे इस ट्रायल में कई कमियां हैं और इससे कभी भी उचित न्याय नहीं हो पायेगा।
राधाबिनोद पाल का जन्म साल 1886 में ब्रिटिश भारत के बंगाल में हुआ था। साल 1905 का बंगाल विभाजन हो या फिर साल 1919 का जलियाँवाला बाग हत्याकांड, पाल ने हमेशा ही ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध किया। बाकी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह वे भी भारतीय स्वतंत्रता के लिए हमेशा तत्पर रहे।
टोक्यो ट्रायल में पाल के फ़ैसले को विवादस्पद माना गया। उनके विरोधियों ने उनकी इस फ़ैसले पर आलोचना की तो बहुत से लोगों ने उनके फ़ैसले को साहसिक और निष्पक्ष माना। न्यूयॉर्क टाइम्स को एक साक्षात्कार देते हुए जापान-इंडिया गुडविल एसोसिएशन के अध्यक्ष, हिदैके कासे ने कहा,
“हम न्यायधीश पाल की उपस्थिति के लिए बहुत आभारी थे- कोई अन्य विदेशी नहीं था, जिसने स्पष्ट रूप से कहा कि जापान एकमात्र ऐसा देश नहीं है, जिसने ग़लत किया था।”
इस ट्रायल के बाद पाल को संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय कानून आयोग के लिए चुना गया, जहाँ उन्होंने 1952 से 1966 तक अपनी सेवा दी।
80 वर्ष की उम्र में 10 जनवरी 1967 को उनका निधन हो गया। आज भले ही भारत में उनकी विरासत के बारे में लोगों को ज्यादा नहीं पता, लेकिन जापान में उनकी प्रशंसा और सम्मान में कई पुस्तकें प्रकाशित हुई। साल 2007 में, एनएचके (जापानी पब्लिक ब्रॉडकास्टर) ने उनके जीवन पर आधारित 55 मिनट की एक डॉक्युमेंट्री भी जारी की थी।
इतना ही नहीं, साल 1966 में उन्हें जापान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया। उनका नाम हमेशा ही भारत और जापान के बीच रिश्ते की सबसे मजबूत कड़ी रहा है। समय-समय पर दोनों ही देश पाल के सम्मान में और भारत-जापान के रिश्ते पर चर्चा करते रहे हैं।
जो लोग राधाबिनोद पाल के बारे में अधिक जानना चाहते हैं, वे 16 एफ, डोवर लेन, दक्षिण कोलकाता में पाल के परिवारिक निवास-स्थान पर जा सकते हैं। इसे अब एक संग्रहालय में बदल दिया गया है, जिसमें पाल द्वारा लिखित दस्तावेज़, लेख, तस्वीरें और पत्रिकाएं आज भी संभाल कर रखी गयी हैं।
इसके अलावा नेटफ्लिक्स पर चार पार्ट की एक मिनीसीरीज़ भी जारी की गयी है, जो कि टोक्यो ट्रायल पर आधारित है। इस सीरीज़ में राधाबिनोद पाल की भूमिका मशहूर अभिनेता इरफ़ान खान ने निभाई है और इसका नाम भी ‘टोक्यो ट्रायल’ रखा गया है।
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अर्जुन मेनन के पिता भारतीय सेना के एविएशन विभाग के साथ एक हेलीकॉप्टर पायलट थे और वे अर्जुन के लिए किसी हीरो से कम नहीं थे।
“कल्पना करें कि एक दम ख़राब मौसम में आपको एक भारी मेटल की मशीन को उड़ाना है,” अर्जुन ने उन पहाड़ों, जंगलों और रेगिस्तानों का उदाहरण देते हुए कहा, जहाँ उनके पिता ने कॉम्बैट और पैराट्रूपर का प्रशिक्षण लिया था।
“बचपन से ही ‘जीआई जो’ मेरा पसंदीदा कार्टून हुआ करता था। लेकिन मैं हमेशा सोचता था कि मेरे पापा हर दिन ये सब करते हैं, वो भी इसे कोई बड़ी बात समझे बिना,” अर्जुन ने द बेटर इंडिया से कहा।
सोलह साल पहले, अर्जुन ने एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में अपने हीरो को खो दिया।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
अर्जुन अब एक ट्रेवल फोटोग्राफर हैं और वे हमेशा से अपने पिता के सम्मान में कुछ करना चाहते थे। सिर्फ़ इतना ही नहीं बल्कि वे भारतीय सेना के अफ़सरों की ज़िंदगी को आम लोगों तक लाना चाहते थे – वे जिन भी परिस्थितियों से गुज़रते हैं, जैसे इलाकों में रहते हैं और इस दौरान वे जो भी मुश्किलें झेलते हैं, पर फिर भी हर चुनौती को पार कर वे जीतते हैं।
“भारतीय सेना दुनिया के सबसे ज्यादा बहुमुखी सशस्त्र बलों में से एक है और मैं अपने प्रोजेक्ट के द्वारा यह बताना चाहता था कि आख़िर वो क्या बातें हैं, जो भारतीय सेना में शामिल हर एक पुरुष, महिलाओं या फिर मशीनों को असाधारण बनाती हैं,” अर्जुन ने बताया।
इस प्रकार, भारतीय सेना पर आधारित यह फोटो सीरीज़, ‘द एक्स्ट्राऑर्डिनरी’ (असाधारण) बनी।
कॉन्डे नास्ट ट्रैवलर से बात करते हुए, अर्जुन ने कहा कि शुरू में सेना के अधिकारी इस प्रोजेक्ट को लेकर निश्चिन्त नहीं थे। उनके मन में संदेह था।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
“मैं इसमें उनको गलत नहीं मानता। क्योंकि मैं बस एक फोटोग्राफर था जो उनसे कहा रहा था कि मुझे फोटो लेने के लिए वे अपने गुप्त ठिकानों और बेस पर भेज दें। उन्हें इस प्रोजेक्ट पर बात करने में कुछ समय लगा लेकिन उन्होंने मुझे उत्तर दिया। फिर, अपने इस प्रोजेक्ट पर और विचार-विमर्श करने के लिए मैं कई बार दिल्ली गया। फिर जब उन्हें लग गया कि मैं वाकई भारतीय सेना के लिए कुछ करना चाहता हूँ तो उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया और हर संभव तरीके से मेरी मदद की। पैराट्रूपिंग सेशन से लेकर हेलीकॉप्टर रेस्क्यू ड्रिल की व्यवस्था करने तक, उन्होंने इस प्रोजेक्ट में उतनी ही सिद्दत दिखाई जितनी मुझमें थी।”
अर्जुन ने इस प्रोजेक्ट पर अकेले काम किया और इसकी फंडिंग भी उन्होंने खुद की। इस प्रोजेक्ट के लिए अर्जुन ने भारतीय सेना के अफ़सरों और सैनिकों की बहुत जीवंत फोटो खींचीं हैं।
इस फोटो-सीरीज़ की कुछ तस्वीरें आप आगे देख सकते हैं।
1. हम आम नागरिकों के लिए भले ही आर्मी का जीवन बहुत आकर्षक हो लेकिन उनकी ज़िंदगी के ऐसे बहुत से पहलू हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते हैं। एक आर्मी अफ़सर के लिए हमारे दिल में गर्व और सम्मान की भावना आती है, लेकिन हम सब उनकी नौकरी के बारे में कितने अच्छे तरीके से जानते हैं?
अर्जुन ने अपनी इस फोटो-सीरीज़ के जरिये इन सब सवालों का जबाव तलाशने की कोशिश की है।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
2. “कहीं न कहीं मैं इस बात पर ध्यान लाना चाहता था कि आर्मी में इन लोगों के लिए ज़िंदगी क्या है। मैं ऐसा कुछ बनाना चाहता था जो कि आर्मी के दिल और उर्जा का प्रतिनिधित्व करे,” अर्जुन ने कहा।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
3. “भारतीय सेना में हमेशा ही अफ़सर और सैनिकों की भर्ती में कमी रही है। यहाँ तक कि, साल 2018 तक, भारतीय सेना में 52,000 से अधिक सैनिकों की कमी है। सेना में अकेले अधिकारियों के 7600 से अधिक पद खाली पड़े हैं,” अर्जुन ने बताया और उन्होंने आगे कहा कि मुझे उम्मीद है कि मैं अपने लेंस के माध्यम से लोगों को भारतीय सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित कर सकूँ।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
4. सीएन ट्रैवलर से बात करते हुए अर्जुन ने कहा कि वह इन सब जगहों के नाम नहीं बता सकते लेकिन उन्होंने भारत के पहाड़ी, रेगिस्तान और बहुत दूरगामी इलाकों में शूटिंग की है। सही स्थान का चयन करने के लिए टीम ने बहुत मेहनत की ताकि सभी तस्वीरें ठीक आयें।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
5. रेस्क्यू ड्रिल और छद्म/झूठी युद्ध स्थितियों को फिर से बनाना आसान नहीं था, और इस सबमें सबसे ज्यादा दबाव अर्जुन पर था। लेकिन उन्होंने ठान रखा था कि हर मुश्किल को पार कर उन्हें एक दम मुग्ध कर देने वाली तस्वीरें खींचनी हैं।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
6. इस फोटो को कैसे क्लिक किया गया, यह याद करते हुए इस बेहतरीन फोटोग्राफर ने बताया, “हमारे पास हवा में तीन हेलीकॉप्टर थे, और जमीन पर दो दर्जन से अधिक सैनिक और अधिकारी थे। इसलिए, गलती करना तो कोई विकल्प ही नहीं था। लेकिन वहां चारों तरफ बहुत धूल और हवा थी और इसलिए मैं संदेह में था कि शूट एकदम परफेक्ट हुआ है या नहीं। जब मैंने तस्वीरें देखना शुरू किया तो मेरे हाथ कांप रहे थे क्योंकि कोई भी फोटो एकदम सही नहीं आई थी।
क्या मैंने एक अच्छे अवसर को यूँ ही गंवा दिया? लेकिन फिर, मुझे यह तस्वीर मिली जो बिल्कुल मेरे मन मुताबिक आई थी।”
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
7. मानव और तकनीकी उपकरण, दोनों ही फ़ोर्स इस फोटो-सीरीज़ का हिस्सा हैं।
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
8. और कभी, कुछ हल्के और प्यारे लम्हे भी….
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
9. अपने प्रोजेक्ट को इस वक़्त लॉन्च करने पर अर्जुन ने कहा, “जैसा कि हम गणतंत्र दिवस के करीब आ रहे हैं और मुझे लगा कि इस खास प्रोजेक्ट को लॉन्च करने का इससे अच्छा समय और कोई नहीं हो सकता। यह प्रोजेक्ट बड़े पैमाने पर लोगों के लिए है और इससे बेहतर समय और कोई नहीं हो सकता था।”
फोटो साभार: अर्जुन मेनन
10. अर्जुन मेनन की यह फोटो सीरीज़ आपको आर्मी अफ़सरों के जीवन की एक झलक दिखाती है और सही मायनों में उनकी उर्जा और भावना को दर्शाया गया है।
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महाराष्ट्र के पुणे में ट्रैफिक की बढ़ती समस्या को देखते हुए ट्रैफिक पुलिस विभाग ने दुपहिया वाहन चलाते समय हेलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया है और जो भी बिना हेलमेट के वाहन पर होगा, उसे जुर्माना देना होगा। लेकिन पुणे के पास के शहर जैसे पिंपरी-चिंचवाड़ में परिस्थितियाँ एकदम विपरीत हैं।
दरअसल, पिंपरी या फिर पुणे के पास के ऐसे इलाके, जहाँ अभी भी यह हेलमेट कानून लागू नहीं हुआ है, वहाँ के निवासियों ने इस समस्या का एक अलग ही हल निकाला है। इन जगहों के निवासियों को अगर पुणे शहर किसी काम से दुपहिया वाहन पर जाना है, तो इनके लिए हेलमेट पहनना जरूरी हो जाता है।
लेकिन इन लोगों में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनके पास हेलमेट खरीदने के पर्याप्त साधन नहीं होते। इन्हें पुणे भी कभी-कभी ही जाना होता है। अपनी सुरक्षा के प्रति जागरूकता न होने के कारण, सिर्फ़ एक-दो बार के लिए हेलमेट खरीदना ये लोग ज़रूरी नहीं समझते। पर इस समस्या को हल करने की एक बेहतरीन तरकीब यहाँ पर लगाई गयी है।
पिंपरी से पुणे जाने वाले रास्ते में आपको कई दुकानें ऐसी दिखेंगी, जहाँ से आप एक दिन या फिर चंद घंटों के लिए हेलमेट किराये पर ले सकते हैं। दापोड़ी में राहुल राज टूर्स एंड ट्रेवल्स के मालिक राहुल अन्घोलकर ने ऐसी ही सुविधा शुरू की है। उन्होंने अलग-अलग तरीके के बहुत सारे हेलमेट खरीदकर, उन्हें अपनी दुकान के बाहर एक रैक में लगा दिया है। यहाँ से दुपहिया वाहन चालक अपनी सुविधानुसार हेलमेट किराये पर ले सकते हैं।
ग्राहक यहाँ पर 10 रूपये या फिर 20 रूपये के हिसाब से हेलमेट किराए पर लेते हैं और फिर लौटते समय इन्हें वापिस कर देते हैं। इन ग्राहकों को 200 रूपये या फिर 500 रूपये एडवांस में सिक्यूरिटी मनी के तौर पर जमा करना पड़ता है। लेकिन यह उनके लिए ठीक है, क्योंकि किराये के हेलमेट के चलते वे जुर्माना भरने से बच जाते हैं।
राहुल अन्घोलकर का कहना है कि लगभग 60 लोग हर रोज़ उनके यहाँ से हेलमेट किराये पर लेते हैं। उनके ज़्यादातर करते हैं, या फिर ऐसे लोग जो अपने रिश्तेदारों से मिलने या फिर किसी बीमारी के चलते अस्पताल जा रहे होते हैं।
हालांकि, यह सुविधा ग्राहकों के कोई खास पैसे नहीं बचा रही है लेकिन यह उन लोगों के लिए है जो सिर्फ़ एक-दो बार के लिए हेलमेट नहीं खरीद सकते हैं।
ऐसा ही एक स्टॉल खडकी में मनोहर शिंदे का है। शिंदे के यहाँ से लोग नए हेलमेट खरीदते हैं तो कुछ लोग किराये पर भी लेते हैं। दुकानदारों के अलावा ग्राहकों का भी इस विषय में अपना एक मत है। दपोड़ी के एक सुनार, श्याम बरमेडा कहते हैं कि हमारे इलाके में हेलमेट पर कोई कानून नहीं है तो हम इस पर खर्च क्यों करें। कभी-कभी की जरूरत के लिए किराये पर लिया जा सकता है।
वहीं दूसरी तरफ पिंपरी की एक छात्रा का कहना है कि पुणे में उसकी क्लास हफ्ते में सिर्फ़ दो दिन होती है। इसलिए हेलमेट खरीदने से बेहतर है कि उन दो दिनों के लिए हेलमेट किराये पर ले लिया।
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महाराष्ट्र में पुणे के बारामती शहर की निवासी, 16 वर्षीय मयूरी पोपट यादव ने अपने दिव्यांग भाई के लिए एक ख़ास साइकिल बनाई है। यह एक व्हीलचेयर-कम-साइकिल है, जिसकी मदद से अब उसके भाई को स्कूल आने-जाने में तकलीफ़ नहीं होगी।
मयूरी, आनंद विद्यालय में दसवीं कक्षा की छात्रा है। मयूरी का छोटा भाई निखिल पैरों से दिव्यांग है और इसलिए, जब कभी भी उनके पिता घर पर न हो, तो उसके स्कूल जाना मुश्किल हो जाता है और अक्सर निखिल को क्लास छोड़नी पड़ती है।
इस परेशानी को ख़त्म करने के लिए मयूरी ने अपने स्कूल के शिक्षकों व प्रिंसिपल से विचार-विमर्श कर एक व्हीलचेयर-कम-साइकिल बनाई है, जिससे वह आसानी से निखिल को अपने साथ स्कूल ले जा सकती है। आनंद विद्यालय के प्रिंसिपल ए. एस अतर ने कहा,
“मयूरी का भाई निखिल पढ़ाई में बहुत अच्छा है, लेकिन जब भी उसके पिता घर पर नहीं होते तो वह स्कूल नहीं आ पाता। इसलिए मयूरी इस नेक विचार के साथ मेरे पास आई। शुरुआत में, हम झिझक रहे थे, क्योंकि हमें लगा कि यह संभव नहीं है, लेकिन बाद में विज्ञान के शिक्षक जयराम पवार और वासीकर और हमारे स्कूल की तकनीकी टीम के साथ विचार-विमर्श करके इस पर काम शुरू किया।”
हाल ही में नसरपुर में आयोजित जिला स्तरीय विज्ञान प्रदर्शनी में इस अनोखे साइकिल का प्रदर्शन किया गया था, जहाँ इसे राज्य स्तरीय प्रतियोगिता के लिए भी चुन लिया गया है।
“मेरा भाई अब बड़ा हो रहा है। ऐसे में पापा के लिए भी उसे गोद में उठाकर स्कूटर पर बिठाना और फिर स्कूल छोड़ कर आना, बहुत बार मुमकिन नहीं हो पाता। और फिर जब पापा नहीं होते हैं तो वह स्कूल नहीं जा पाता। इसलिए मैंने इस पर विचार किया और सोचा कि मैं उसे अपने साथ ही स्कूल ले जा सकती हूँ। मैंने अपने शिक्षकों और प्रिंसिपल के साथ इस पर चर्चा की और सभी ने खुशी-खुशी मेरा समर्थन किया।”
इस व्हीलचेयर-कम-साइकिल को बनाने के लिए वेल्डिंग द्वारा व्हीलचेयर को साइकिल से जोड़ दिया गया है। साथ ही, साइकिल में और भी कुछ बदलाव किये गये हैं ताकि यह निखिल के लिए पुर्णतः सुरक्षित हो।
साइकिल और व्हीलचेयर के पहियों में भी कुछ बदलाव किये गये, जैसे कि साइकिल के ब्रेक सिस्टम को अच्छी तरह से व्हीलचेयर के पहियों से जोड़ा गया है। साथ ही, एक बेल्ट भी लगाई गयी है ताकि निखिल आसानी से व्हीलचेयर पर बैठ पाए।
निखिल ने कहा, “मुझे बहुत ख़ुशी है कि मेरी बहन ने मेरे लिए यह साइकिल बनाई। मुझे लगता है कि दिव्यांगों की बुनियादी सुविधाओं के लिए इस तरह के और ज़्यादा इन्वेंशन होने चाहिए ताकि उन्हें हर किसी की तरह समान अवसर मिले।”
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भारत में आइस हॉकी खेल के लिए अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है। ऐसे में अगर हम बात करें इस खेल में महिला टीम की, तो उनके लिए तो सुविधाएँ जैसे न के बराबर हैं। लेकिन फिर भी भारतीय महिला आइस हॉकी टीम के चर्चे आज पूरे विश्व में हो रहे हैं।
भारतीय महिला आइस हॉकी टीम के सभी सदस्य लद्दाख़ से हैं। ये सभी खिलाड़ी प्राकृतिक जमे हुए तालाबों पर प्रशिक्षण करते हैं, जो ज़्यादा से ज़्यादा दो महीने तक ही चल पाता है। यह प्राकृतिक रिंक किसी भी मामले में विश्व स्तरीय रिंक की बराबरी नहीं कर पाते। भारत का एकमात्र पूर्ण आकर का कृत्रिम अंतर्राष्ट्रीय रिंक देहरादून में है और वह भी राज्य प्रशासन की अनदेखी के चलते बंद पड़ा है।
ऐसे में खिलाड़ियों को प्रैक्टिस के लिए भी किर्गिज़स्तान, मलेशिया या यूएई जैसे देशों में जाना पड़ता हैं, जहाँ पर सभी सुविधाओं के साथ ये रिंक उपलब्ध हैं। लेकिन यह भी तभी संभव हो पाता है, जब खिलाड़ी ट्रेनिंग का खर्च उठा सकें या फिर उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की जाये।
ऐसे में, भारतीय महिला टीम की ज़्यादातर खिलाड़ियों ने जैसे-तैसे बिना किसी वित्तीय सहायता के अपनी प्रैक्टिस की है। और इसलिए जब साल 2017 में इस टीम ने एशिया के सबसे हाई-प्रोफाइल आइस हॉकी टूर्नामेंट में दो मैच जीते और प्रतिस्पर्धा की भावना को बनाए रखा तो सब हैरान थे।
छोटे-छोटे कस्बों से निकलकर इन लड़कियों का बिना किसी ख़ास प्रोफेशनल ट्रेनिंग के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान बनाना यकीनन काबिल-ए-तारीफ़ है।
आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए भारतीय महिला आइस हॉकी टीम के सफ़र की असाधारण कहानी!
भारतीय महिला आइस हॉकी टीम
जब लद्दाख में सर्दियाँ शुरू होती हैं, तो आइस हॉकी एकमात्र ऐसा खेल होता है, जिसे यहाँ के बच्चे खेल सकते हैं। क्योंकि उस समय ये लोग फुटबॉल या क्रिकेट नहीं खेल सकते। इसके बजाय वे लेह शहर या कारज़ू के बाहर गुपुक्स जैसी जगहों पर आइस हॉकी खेलते हैं, जहां तालाब सर्दियों में जम जाते हैं।
लद्दाख विंटर स्पोर्ट्स क्लब के अनुसार, लगभग 10,000-12,000 लद्दाखी युवा हैं, जो किसी न किसी रूप में आइस हॉकी खेलते हैं।
साल 1970 में पहली बार आइस हॉकी ने लद्दाख़ में कदम रखा। धीरे-धीरे यहाँ पर लोगों की दिलचस्पी इस खेल में इतनी बढ़ी कि आज यहीं के खिलाड़ी इस खेल में भारत का प्रतिनिधत्व कर रहे हैं।
लद्दाख महिला आइस हॉकी फाउंडेशन द्वारा एचएचएआई के सहयोग से ‘लर्न टू प्ले और लर्न टू स्केट’ प्रशिक्षण कार्यक्रम के पहले दिन बच्चे
शुरुआत में ये खिलाड़ी, प्रोफेशनल आइस हॉकी के उपकरणों या नियमों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते थे। बहुत बार गोलकीपर क्रिकेट वाले पैड पहनकर ही गोल बचाते। पर साल 2006 से स्थानीय अधिकारियों ने इन खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिए, इनका प्रोफेशनल हेड-गियर और पैड पहनना अनिवार्य कर दिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में ग्रेजुएट डिस्केट अंग्मो, भारतीय महिला टीम के लिए डिफेन्स करती हैं और साथ ही टीम की आधिकारिक प्रवक्ता भी हैं।
डिस्केट का कहना है कि टीम की ज़्यादातर खिलाड़ियों ने स्केटिंग से ही शुरुआत की थी और फिर धीरे-धीरे आइस स्केटिंग में हाथ आज़माना शुरू किया। भारतीय आइस हॉकी पुरुष टीम के अधिकांश सदस्य लद्दाख़ से हैं, जिन्हें देखकर ये लड़कियाँ भी भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहती थीं।
यह इन लड़कियों का जुनून ही था, जिसने स्थानीय लद्दाख़ विंटर स्पोर्ट्स क्लब को 2008 से महिलाओं को स्थानीय प्रतियोगिताओं में शामिल करने के लिए प्रभावित किया। इसके कई साल बाद साल 2013 में आइस हॉकी एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने महिलाओं के लिए पहली राष्ट्रीय चैंपियनशिप आयोजित की।
2016 IHAI राष्ट्रीय आइस हॉकी चैम्पियनशिप में खेलते हुए महिला खिलाड़ी। (स्रोत: IHAI)
डिस्केट ने द बेटर इंडिया को बताया कि जैसे-जैसे टीम में खिलाड़ी बढ़े, वैसे-वैसे आइस हॉकी एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने महिलाओं की इस टीम में दिलचस्पी दिखाई और साल 2016 में चीन के ताइपे में एशिया के चैलेंज कप के लिए महिला टीम को भेजने का फ़ैसला किया।
ताइपे में एशिया के आइस हॉकी फेडरेशन (IIHF) के चैलेंज कप के लिए इन खिलाड़ियों का प्रशिक्षण गुड़गांव के एंबियंस मॉल के छोटे से आइस रिंक इस्केट में हुआ। यह रिंक अंतर्राष्ट्रीय रिंक का सिर्फ़ एक-चौथाई है। इसलिए ये खिलाड़ी यहाँ पर अपनी बेसिक स्किल ही ठीक कर पाए।
इसके अलावा एक दूसरी चुनौती थी, कि ज़्यादातर खिलाड़ी देश के दूरगामी इलाकों से थे और उनके पास पासपोर्ट तक नहीं थे, इसलिए सिर्फ़ कुछ ही खिलाड़ी ताइपे जा सकते थे।
ये खिलाड़ी इस टूर्नामेंट में जा सकें, इसके लिए आइस हॉकी एसोसिएशन ऑफ इंडिया के महासचिव हरजिंदर सिंह ने दिल्ली में न जाने कितने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे थे। भारतीय महिला आइस हॉकी टीम पहली बार किसी अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए जा रही थी और ऐसे में उन्हें इस खेल के प्रोफेशनल नियमों का भी ज़्यादा ज्ञान नहीं था। ऐसे में अनुभव और सुविधा की कमी के कारण वे इस टूर्नामेंट में अपनी छाप नहीं छोड़ पायीं।
“हम में से किसी ने भी नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी हमें भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलेगा। लेकिन इस टूर्नामेंट के अनुभव ने जीतने के लिए हमारे जुनून को और बढ़ा दिया। हमें समझ आया, कि हमें अच्छे उपकरण और ज़्यादा से ज़्यादा प्रैक्टिस करने की जरूरत थी,” डिस्केट ने कहा।
पर वक़्त बदलते देर न लगी। टीम की मेहनत को देखते हुए, लोगों ने उनकी आर्थिक मदद के लिए क्राउडफंडिंग अभियान चलाये। सबके साथ और समर्थन से एक बार फिर साल 2017 में एशिया के सात-राष्ट्र चैलेंज कप टूर्नामेंट में भारतीय महिला आइस हॉकी टीम पहुँची। इस बार टीम ने फिलीपींस के साथ अपने दूसरे मैच में 4-3 से जीत हासिल कर ली!
यह एक अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भारतीय आइस हॉकी महिला टीम की पहली जीत थी!
जब रेफरी ने आख़िरी सीटी दी, तो पूरी टीम की आँखों में ख़ुशी के आँसू थे। यहाँ तक कि रेफरी और अधिकारियों की आँखों में भी आँसू थे। इस टूर्नामेंट में अगले तीन मैच में हार के बाद, आख़िरी दिन, टीम ने फिर एक और मैच जीता।
“हम सब बहुत भावुक थे और काफ़ी रोये भी। जब हमारा राष्ट्रगान वहां चलाया गया, तो सभी की आँखें नम हो गयी और हमें लगा कि हमने अपने देश का सिर गर्व से ऊँचा किया है।”
एशिया के सबसे बड़े आइस-हॉकी टूर्नामेंट में भारतीय टीम की इस सफ़लता की कहानी ने विश्व मीडिया का ध्यान भी खींचा। यहां तक कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो फरवरी 2018 में भारत की राजकीय यात्रा के दौरान, दिल्ली में टीम से मिले।
इस ऐतिहासिक जीत के बाद पहली बार भारतीय टीम को कनाडा में हो रहे ‘वेंकिसेज़र महिला वर्ल्ड हॉकी फेस्टिवल’ के लिए आमंत्रित किया गया।
कनाडाई पीएम जस्टिन ट्रूडो और दिग्गज खिलाड़ी हेले वेंकीशेसर के साथ भारतीय टीम। (स्रोत: फेसबुक)
डिस्केट भावुक होते हुए बताती है,
“यह हमारे लिए बहुत बड़ा अवसर था। हमारी मेहनत और लगन ने हमें खुद पर विश्वास करना सिखाया है। भारत के दूरगामी इलाके से एक टीम जिसका शयद ही किसी ने नाम सुना हो, वह विश्व महिला हॉकी महोत्सव के लिए कनाडा गयी।
लोग कहते हैं कि ‘जुनून की कोई सीमा नहीं होती’ और हम इस कहावत पर खरे उतरे हैं।”
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