14-15 जनवरी में जहाँ पुरे देश में लोगों के बीच मकर-सक्रांति की धूम रही तो वहीं पतंग के मांझों से उलझकर पक्षियों के घायल होने की खबरों ने बहुत उदास किया। लेकिन ऐसे में, 16 जनवरी 2019 को महाराष्ट्र के मुंबई से एक दिल छू जाने वाला वाकया सामने आया।
द टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक मुंबई के गोरेगांव रेलवे स्टेशन पर सुबह के समय रेलवे सर्विस लगभग 5 मिनट स्थगित की गयी। सुबह-सुबह दफ़्तर जाने वाले लोगों के लिए ये 5 मिनट भी बहुत ज्यादा थे। पर इस असुविधा के पीछे की वजह जानना बहुत जरूरी है।
दरअसल, सुबह 10 बजे रेलवे स्टेशन पर डिप्टी स्टेशन मास्टर को किसी यात्री ने सूचित किया की स्टेशन के उत्तरी छोर पर ट्रेन के ऊपर बिजली के तारों में मांझे की वजह से एक कबूतर फंसा हुआ है। डिप्टी स्टेशन मास्टर ने तुरंत इस बारे में तकनीकी स्टाफ और फायर ब्रिगेड को बताया।
इसके बाद स्टेशन पर बिजली की सप्लाई बंद की गयी और उस कबूतर को सुरक्षित उतारा गया। पश्चिमी रेलवे के चीफ पब्लिक रिलेशन अफ़सर रविंदर भाकड़ ने बताया, “सुबह के 10:28 बजे से लेकर 10:33 बजे तक बिजली की सप्लाई काट दी गयी और इसी बीच फायर ब्रिगेड ने पहुंचकर उस पक्षी को बचा लिया।”
इस बचाव कार्य में गोरेगांव स्थित संकित ग्रुप ने मदद की। यह समूह पक्षियों के रख-रखाव पर काम करता है।
पश्चिमी रेलवे का यह कदम सराहनीय था कि उन्होंने एक बेजुबान जीव के बारे में सोचा और इंसानियत की मिसाल कायम की।
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अगर कोई बच्चा पढ़ाई में अच्छा न हो तो अक्सर हम कहते हैं ‘जाकर खेती कर’। भारत में खेती को हमेशा से ही अनपढ़ और देहाती लोगों का पेशा माना गया है। पर महाराष्ट्र के पुणे में बारामती से ताल्लुक रखने वाले एक किसान कपिल जाचक इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि किसान बनने के लिए और खेती में आगे बढ़ने के लिए भी आपका समझदार और पढ़ा-लिखा होना बेहद ज़रूरी है।
भारत के आधुनिक किसानों की फ़ेहरिस्त में शामिल होने वाले कपिल जाचक ने माइक्रोबायोलॉजी में ग्रेजुएशन की है। वे हमेशा से ही खेती के प्रति काफ़ी तत्पर रहे हैं। बातचीत के दौरान जाचक ने द बेटर इंडिया को बताया,
“मैं पिछले 18 साल से खेती से जुड़ा हुआ हूँ। मुझे हमेशा से ही फसल की पैदावार और गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाना पसंद था। इसलिए मैं हमेशा खेती से जुड़ी नई और आधुनिक तकनीकों के बारे में जानने की कोशिश करता रहता।”
कपिल जाचक
जाचक को उनके परिवार का पूरा साथ मिला और उनके पिता ने उन्हें खेती के लिए कोई भी आधुनिक तकनीक अपनाने से नहीं रोका। वे बताते हैं कि उनके यहाँ केले, अनार और गन्ने की खेती भरपूर मात्रा में होती है। वे खुद अपनी 40 एकड़ जमीन में से 12 एकड़ जमीन पर केले की खेती करते हैं।
जाचक को आज एक सफ़ल आधुनिक केला किसान के तौर पर जाना जा रहा है। उनके द्वारा केले की खेती करने का तरीका पारम्परिक तरीकों से काफ़ी अलग, नया और किफ़ायती है। उनके तरीके से आज महाराष्ट्र में बहुत से किसान केले की खेती कर रहे हैं और अच्छा मुनाफ़ा कमा रहे हैं। इसलिए उनके इस तरीके को लोग ‘जाचक पैटर्न’ के नाम से जानने लगे हैं।
‘जाचक पैटर्न’ से हुआ लाखों का मुनाफ़ा
भारत के ज्यादातर हिस्सों में ‘सिंगल रो पैटर्न’ से ही केले की खेती की जाती है, जिसमें ज़्यादा लागत लगती है। सिंगल रो पैटर्न में किसान को केले के एक बीज से 3 पौधे मिलते हैं, जिन्हें फलने में 36 महीने लग जाते हैं। इस पैटर्न में पौधों को काफ़ी दूरी पर लगाया जाता है, जिसकी वजह से जब केले की पैदावार आती है, तो किसानों को अलग से हर एक पेड़ के साथ बाँस लगाना पड़ता है ताकि केले के उस भारी गुच्छे को सहारा रहे। इस सब में किसान को अलग से 25-30 हज़ार रूपये खर्च करने पड़ते हैं। साथ ही पेड़ एक दूसरे दूर होने के कारण सिंचाई के लिए मजदूरों की ज़रूरत पड़ती है।
इन सभी समस्याओं को देखते हुए जाचक ने अलग-अलग तरीके ढूँढना शुरू किया, जिससे उनकी लागत कम हो और पैदावार ज़्यादा। ऐसे में उन्हें फिलीपींस में इस्तेमाल किये जाने वाले ‘पेयर रो सिस्टम’ के बारे में पता चला। जाचक ने इस सिस्टम को धीरे-धीरे अपने खेतों में आज़माना शुरू किया।
इस तरह की खेती में केले के पेड़ों को बहुत कम दूरी पर दो कतारों में लगाया जाता है और दो पेड़ों के बीच का फ़ासला भी कम रखा जाता है। ऐसा करने से किसान कम जगह में ज़्यादा पेड़ लगा पाते हैं और साथ ही वे इसमें सिंचाई के लिए ‘ड्रिप इरीगेशन’ याने की तकनिकी रूप से सिंचाई का सहारा ले सकते हैं। इस तरह मजदूर का खर्च भी बच जाता है। पेड़ों को एक दूसरे का सहारा मिलने की वजह से केले के गुच्छों के लिए अलग से बांस लगाने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। इस तरह इस तरीके से फ़सल उगाने में कम से कम लागत में काम बन जाता है।
कपिल के मुताबिक पेयर रो सिस्टम में सिंगल रो सिस्टम के मुकाबले तीन गुना फ़सल लगायी जा सकती है, साथ ही 36 की जगह 25 से 26 महीनों में ही ये पेड़ तैयार हो जाते हैं।
पिछले कई सालों से जाचक इसी पैटर्न से सफल खेती कर रहे हैं। उनका कहना है कि केले की खेती में प्रति एकड़ जहाँ उनकी लागत ज़्यादा से ज़्यादा एक लाख रूपये आती है, वहीं वे हर एकड़ से लगभग 4 लाख रूपये कमा लेते हैं। सारी खेती से उनका साल का टर्नओवर 60 लाख रूपये है, जिसमें से लगभग 30 लाख रूपये की कमाई सिर्फ़ केले की खेती से आती है।
विदेश भी जाते हैं जाचक के जैविक फल
केले के आलावा कपिल जाचक अनार और गन्ना भी उगाते हैं
आधुनिक खेती के आलावा उन्होंने फलों के बाज़ार में भी अपनी पहचान बनाई है। वे लगातार बाज़ार में केला विक्रेताओं के सम्पर्क में रहते हैं और साथ ही, पिछले कई सालों से वे भारत के बाहर भी फल भेज रहे हैं। विदेशों में फल एक्सपोर्ट करने के लिए फलों की गुणवत्ता पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता है। इसी बात को समझते हुए जाचक अब पूरी तरह से जैविक खेती की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वे अपने खेत में खुद अपना खाद बनाते हैं और साथ ही अन्य लोगों तक भी इसकी जानकारी पहुंचाते हैं। उनके जैविक फलों की पहुँच आज यूरोप के साथ-साथ अरब देशों में भी है। जाचक केले की खेती के आलावा अनार और गन्ने की खेती करते हैं।
अन्य किसानों की भी कर रहे हैं मदद
जाचक की इस कामयाबी से आज और भी किसान प्रेरित हो रहे हैं और अब जाचक अलग-अलग जगह जाकर इन किसानों को वर्कशॉप के ज़रिये यह तरीका सिखाते है। देश भर में आज जाचक की पहचान केले की खेती के लिए सलाहकार के तौर पर भी है। जाचक न सिर्फ़ खुद आगे बढ़ रहे हैं, बल्कि और भी किसानों को आगे बढ़ा रहे हैं।
वे बताते हैं,
“छोटे किसानों को भी हम अपने साथ जोड़ रहे हैं। ये वो किसान हैं, जिनके पास बहुत कम जमीन है और उन्हें फसल के तुरंत बाद अगली फसल के लिए पैसा चाहिए होता है। इसलिए इन सभी किसानों को मैंने अपने फार्म से जोड़ा हुआ है, ताकि इन्हें इनकी फसलों का सही मूल्य सही समय पर मिल सके।”
अगली पीढ़ी के लिए ‘एग्रो-टूरिज्म’
“आजकल अगर आप शहरों में बच्चों से पूछे कि फल कहाँ से आते हैं, तो वे कहेंगे कि दुकान से या फिर सुपरमार्किट से। लेकिन मेरी कोशिश सिर्फ़ इतनी सी है कि ये बच्चे जाने कि उनके घरों में आने वाले फल और सब्जी किसान की मेहनत और लगन का नतीजा है,” जाचक ने कहा।
इस दिशा में काम करते हुए कपिल जाचक ने अपनी पत्नी राधिका जाचक के साथ मिलकर एग्रो-टूरिज्म पहल शुरू की है। इसके ज़रिये वे स्कूल, कॉलेज आदि के बच्चों को अपने खेत में सैर के लिए आमंत्रित करते हैं और उन्हें खेती-किसानी के बारे में बताते हैं।
“हम सभी बच्चों और शहर से आने वाले लोगों को हमारे खेतों में घुमाते हैं। उन्हें हर एक फल और पेड़ के बारे में जानकारी देते हैं। साथ ही, उन्हें आधुनिक खेती के प्रति जागरूक किया जाता है। और बाद में, हम इन्हें बैलगाड़ी में बिठाकर सैर करवाते हैं,” जाचक ने बताया।एग्रो-टूरिज्म का ज्यादातर काम राधिका जाचक सम्भालती हैं। राधिका ने भी माइक्रोबायोलॉजी में ग्रेजुएशन की है और साथ ही, पैथोलॉजी का कोर्स किया है। अपने पति के काम में वे हर तरीके से उनका साथ देती हैं। राधिका ही सभी स्कूल, कॉलेज आदि से सम्पर्क कर, उन्हें अपने छात्रों को उनके खेत के दौरे पर भेजने के लिए कहती हैं।
अपनी पत्नी राधिका जाचक के साथ कपिल जाचक
परेशानियाँ और हल
कृषि से जुड़ी परेशानियों के बारे में बात करते हुए जाचक कहते हैं कि हमारे देश में सबसे बड़ी समस्या है कि जो भी कृषि संस्थान किसानों के लिए बने हैं, उन तक कभी किसान पहुंच ही नहीं पाते हैं। जो भी शोध या कोई आविष्कार कृषि वैज्ञानिक करते हैं, वह बहुत कम ही गाँव के खेतों तक आ पाते हैं।
जाचक का कहना है, “कभी भी आम किसान कृषि वैज्ञानिकों तक सीधे नहीं पहुंच पाते हैं। यहाँ तक कि किसानों के लिए जो साधन बनाये जाते हैं उनकी भाषा ज्यादातर अंग्रेजी या फिर मानक हिंदी होती है। पर अब इन संस्थानों को समझना होगा कि अगर वे चाहते है कि उनके किसी भी शोध का फायदा देश के आम किसानों को हो, तो उन्हें आम बोलचाल की भाषा में इसे किसानों तक लाना होगा।”
केले की खेती पर भारत में ज्यादा काम नहीं हुआ है। इसलिए किस-किस तरह की बीमारी इस फसल में लग सकती है या फिर उसे कैसे दूर किया जाये, इस सब पर काम होना बाकी है। पर जाचक ने फिलीपींस और कोस्टा रिका जैसे देशों के कृषि वैज्ञानिकों के साथ काम करते हुए, इस क्षेत्र में काफ़ी जानकारी इकट्ठी की है।
कपिल जाचक ने केले की खेती में अपनी थ्योरी और प्रैक्टिकल, दोनों ही अनुभव के आधार पर मराठी में एक किताब लिखना शुरू किया है। वे इस किताब को स्थानीय भाषा में लिख रहे हैं ताकि कोई बच्चा भी इसे आसानी से पढ़ पाए। अगर यह किताब मराठी में सफ़ल होगी तो जाचक इस किताब को हिंदी और इंग्लिश में भी अनुवादित करवाएंगे।
उपलब्धियाँ
कपिल जाचक के नाम अब तक का सबसे ज्यादा वजन, 92 किलोग्राम का केले का गुच्छा उगाने का रिकॉर्ड है।
उन्हें उनके नवीनतम तरीकों के लिए साल 2008 में कृषि विज्ञान केंद्र ने ‘बेस्ट यूथ फार्मर’ का अवॉर्ड दिया था। इसके बाद साल 2016 में महाराष्ट्र सरकार ने भी उन्हें सम्मानित किया है। उन्हें महाराष्ट्र सरकार द्वारा किसानी के और नई-नई तकनीक सीखने के लिए यूरोप भी भेजा गया था।
द बेटर इंडिया के माध्यम से कपिल जाचक एक सन्देश देते हैं,
“आने वाली पीढ़ी और शहर के युवाओं को यह समझाना है कि खेती करना कोई मामूली बात नहीं है और न ही यह पेशा सिर्फ़ अनपढ़-देहाती लोगों के लिए है। खेती में भी अब पढ़े-लिखे लोगों की ज़रूरत है। आज कोई भी कृषि को बाकी पेशों की तरह अपनाकर यदि कड़ी मेहनत करें तो वह यकीनन भारत में किसानी की तस्वीर बदल सकता है।”
खेती से संबंधित किसी भी जानकारी और सलाह के लिए आप कपिल जाचक से 9422205661 पर सम्पर्क कर सकते हैं।
(संपादन – मानबी कटोच)
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हमारे देश में लता मंगेशकर को सुर-साम्राज्ञी कहा जाता है, तो मोहम्मद रफ़ी साहब और किशोर साहब बहुत से लोगों के लिए सुरों के जादूगर हैं। भारतीय सिनेमा में ऐसे बहुत से गायक और कलाकार हुए हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ भारतीयों के दिलों पर बल्कि पूरे विश्व में अपनी छाप छोड़ी है।
ऐसे ही एक कलाकार थे के. एल. सहगल, जिन्हें हिंदी सिनेमा का पहला सुपरस्टार कहा जाता है। पूरा नाम था कुंदन लाल सहगल और लोग इन्हें ‘शहंशाह-ए-संगीत’ और ‘ग़ज़ल किंग’ के तौर पर भी जानते हैं। भारतीय सिनेमा का वह गायक, जिसके दौर का वह इकलौता मालिक था। उनके दौर को अगर ‘सहगल युग’ भी कह दें, तो शायद गलत नहीं होगा।
सहगल का पब्लिसिटी फोटो
साल 1932 से 1946 तक सिनेमा को सहगल युग कहा जाता है। इस दौरान सहगल ने ग़ज़ल, खयाल, ठुमरी, चैती, दादरा आदि सब गाया। उन्होंने हिंदी और बंगाली, दोनों ही फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनायी। कहा जाता है कि सहगल वो पहले गायक थे, जो बंगाली नहीं थे पर फिर भी रबीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अपने लिखे हुए गीत गाने की इजाज़त दी थी। टैगोर ने जब उन्हें सुना, तो वे भी सहगल के गायन के मुरीद हो गये।
4 अप्रैल 1904 को जन्में के. एल. सहगल जम्मू-कश्मीर से थे। यहाँ उनके पिता अमरचंद सहगल राज-दरबार में तहसीलदार थे और उनकी माँ केसर बाई सहगल एक धार्मिक महिला थीं। उनकी माँ का संगीत से बहुत लगाव था और इसी का असर सहगल पर पड़ा। अपने पिता की नामंजूरी के बावजूद वे भजन, गीत आदि गाते ही रहते थे।
पर एक वक़्त था जब सहगल ने गाना तो क्या बोलना भी बंद कर दिया था!
दरअसल, 13 साल की उम्र में सहगल को लगा कि उनकी आवाज़ फट रही है। उम्र के इस दौर में ऐसा होना शायद स्वाभाविक था। पर सहगल इस बदलाव को नहीं समझ पा रहे थे और उन्होंने गाना तो क्या, बोलना भी छोड़ दिया। कुछ महीनों तक जब वे नहीं बोले तो घरवालों को फ़िक्र हुई।
जब हर तरह का जतन करके उनका परिवार थक गया, तो किसी की सलाह पर उन्हें किसी फ़कीर के पास ले गए। वे बाबा कहीं न कहीं उनकी परेशानी समझ गये थे और उन्होंने सहगल से सिर्फ़ रियाज़ करते रहने के लिए कहा। सहगल ने फिर से गाना शुरू किया और इसके बाद उनकी गायकी कभी नहीं रुकी।
संगीत की दुनिया का जाना-माना नाम बनने से पहले सहगल ने सेल्समैन के तौर पर काम किया और पंजाब रेलवे में टाइम कीपर की नौकरी भी की। उनके लिए उस वक़्त संगीत एक शौक था और इसलिए जब भी उनके दोस्तों की महफ़िल जमती तो वे अपनी गायकी से माहौल जमा देते थे।
एक बार सहगल ऐसे ही एक महफ़िल में अपने दोस्तों के लिए गा रहे थे और तभी हिंदुस्तान रिकॉर्ड कंपनी में काम करने वाले एक शख्स ने उन्हें सुना। इसके बाद तो जैसे सहगल की दुनिया ही बदल गई। शुरूआती दौर में, उनका देव गांधार राग में ‘झुलाना झुलाओं’ गाना काफ़ी मशहूर हुआ। धीरे-धीरे सिनेमा जगत में उनके नाम के चर्चे होने लगे।
गायिकी में उनका सितारा जितना चमका, उतना ही एक्टिंग के लिए भी लोगों ने उन्हें सराहा। साल 1935 में उन्होंने ‘देवदास’ फिल्म के हिंदी रीमेक में देवदास की भूमिका निभाई। यह फिल्म सुपरहिट हुई और इस तरह सहगल बन गये हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार।
सहगल की गायिकी के अंदाज़ को अपना आदर्श मानते हुए बहुत से उम्दा गायकों ने हिंदी सिनेमा में कदम रखा। हर किसी को बस सहगल जैसे गाना था। मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, हर किसीने उनकी गायन-शैली को अपनाया। पर जैसे-जैसे इंडस्ट्री और तकनीक आगे बढ़ी सबका अपना अलग स्टाइल बन गया।
कहते हैं कि गायक मुकेश एक वक़्त पर बिल्कुल सहगल की तरह गाते थे। मुकेश ने ‘दिल जलता है, तो जलने दे’ गाना इस तरह गाया था कि लोगों ने इसे सहगल का गाना समझ लिया। पर कला और कलाकार के प्रशंसक रहे सहगल ने जब यह गाना सुना तो मुकेश को खुश होकर अपना हार्मोनियम दे दिया।
बंगाली और हिंदी के अलावा उर्दू, पंजाबी और तमिल जैसी भाषाओं में भी सहगल ने गया। साल 1947 में 18 जनवरी को सिनेमा जगत के इस चमकते सितारे ने सिर्फ़ 42 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा ली। मात्र 15 सालों के करियर में सहगल ने सिनेमा जगत को वो विरासत दी, जिसकी गाथाएं सदियों तक गाई जाएँगी।
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हिंदी साहित्य के प्रसिद्द लेखक, कवि, आलोचक और संपादक रहे दूधनाथ सिंह को साठोत्तरी कहानी आंदोलन का सूत्रपात माना जाता है। साठोत्तरी हिंदी साहित्य से तात्पर्य साल 1960 की पीढ़ी द्वारा रचित साहित्य से है, जिसमें विद्रोह एवं अराजकता का स्वर प्रधान था। दूधनाथ सिंह उन हिंदी लेखकों में से हैं, जिन्होंने इस युग के साहित्य को नया आयाम दिया।
दूधनाथ सिंह का जन्म 17 अक्टूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सोबंथा गाँव में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम. ए. करने के पश्चात्, उन्होंने कुछ दिनों तक कलकत्ता (अब कोलकाता) में अध्यापन किया। यहाँ उन्होंने ‘ज्ञानोदय पत्रिका’ का संपादन भी किया।
लेखन का चाव ऐसा चढ़ा कि उनका लिखा, कालजयी साहित्यकारों को भाने लगा। उनके प्रशंसकों में सुमित्रानंद पंत का नाम भी शुमार होता है, जिन्होंने उन्हें फिर से इलाहबाद विश्वविद्यालय बुलवा लिया।
दूधनाथ सिंह जी
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा के भी प्रिय रहे दूधनाथ सिंह ने ‘आख़िरी कलाम’, ‘लौट आ ओ धार’, ‘निराला : आत्महंता आस्था’, ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’, ‘यमगाथा’ तथा ‘धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्र’ जैसी महान कृतियों की रचना की। उनकी गिनती हिन्दी के चोटी के लेखकों और चिंतकों में होती थी। वहीं, उनके तीन कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए- ‘एक और भी आदमी है,’ ‘अगली शताब्दी के नाम’ और ‘युवा खुशबु’!
‘हिन्दी के चार यार’ के नाम से विख्यात ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में हिन्दी लेखन को नई धारा प्रदान की। दूधनाथ सिंह को उनके कार्यों के लिए भारतेंदु सम्मान, शरद जोशी स्मृति सम्मान, कथाक्रम सम्मान और साहित्य भूषण सम्मान से नवाज़ा गया।
साल 2018 में 11 जनवरी को 81 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। पर उनकी रचनाएँ आज भी न सिर्फ़ हिंदी साहित्य के छात्रों के लिए बल्कि साहित्य प्रेमियों और पाठकों के लिए भी अमूल्य हैं।
‘साहित्य के पन्नों से में’ आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िए दूधनाथ सिंह द्वारा लिखी गयी एक लघु कथा, जो हमारे दोगले और असभ्य समाज पर न सिर्फ़ एक तंज है, बल्कि हर उस व्यक्ति की सोच पर तमाचा है, जो स्त्री को केवल एक वस्तु समझता है।
‘नपनी’
कार स्टार्ट होते ही पिता जी ने पुत्र को आदेश दिया कि वह ट्रांजिस्टर बंद कर दे – `ये सब रद्द फद्द सुनने की क्या ज़रूरत है? कोई समाचार है। वे लोग क्या कर रहे हैं और कौन क्या बक रहा है, इससे हमें क्या मतलब? बेफालतू।’ उन्होंने भुनभुना कर कहा।
लड़के ने उनके चढ़े हुए तेवर देखे तो ट्रांजिस्टर बंद कर दिया। ‘वैसे मैं गाना सुनने जा रहा था।’ उसने सफाई दी।
‘गाना फाना खाने को दे देगा?’ पिता जी ने घुड़की दी। उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा। उनकी पत्नी, बेटी और बड़े बेटे के दो बच्चे। बच्चों ने बाबा को घूरते देखा, तो वे सिटपिटा गये।
‘और वो नपनी कहाँ है?’ पिता जी ने पूछा।
लड़के ने बताया कि नपनी और अधिकारी जी और चपरासी पीछे वाली कार में हैं।
‘भागलपुर कितने मील है?’ पिता जी ने पूछा।
उनको बताया गया कि भागलपुर कितनी दूर है।
पिता जी ने जेब से एक मैला कुचैला पर्स निकाला, खोल कर देखा और दस-दस रुपये के नोट गिने।
‘गुंडा टैक्स कितनी जगह देना पड़ेगा?’ पिता जी ने ड्राइवर से पूछा।
‘जहाँ-जहाँ ईंट पत्थर, बाँस बल्ली का अड़ार लगा होगा, वहाँ वहाँ।’ ड्राइवर ने आगे सड़क देखते हुए कहा।
‘और कितना कितना?’ पिता जी ने पूछा।
‘जितना बड़ा गुंडा उतना ज्यादा टैक्स।’ ड्राइवर बोला।
पता चला, कोई हिसाब नहीं है।
‘लेकिन हमें तो हिसाब रखना पड़ेगा। लड़की के पिता से वसूलना होगा। हम क्यों भुगतें?’ पिता जी ने कहा।
‘वो तो है साहब।’ ड्राइवर ने कहा।
‘और बाकी सब कैसे होगा, सब याद है न?’ पिता जी ने अपने बेटे से पूछा।
बेटे ने नत और आज्ञाकारी पुत्र की तरह हामी भरी।
‘तुम अब एक अफ़सर हो। तुम्हारी पोजिशन है। तुम्हारा अब एक मोल है। जब तक झख मारते रहे और उन हरामजादे परीक्षकों और मेंबरों की दया पर रहे तब तक बात और थी। अब और है। और इस समाज से बदला लेने का यही समय है। ये नहीं कि लड़की देखते ही लट्टू हो जाओ और लार टपकाने लगो। तुम्हारी आदतें पहले भी अच्छी नहीं थीं, लेकिन अब तुम एक अफ़सर हो। और मैं किसी भभके में नहीं आने का। ये सब बड़े चीटर काक होते हैं। फूँक फूँक कर कदम रखना और ही ही ही ही मत करने लगना। और कोई पोलिटिकल बहस नहीं। ये पोलिटिक्स का खेल मैं खूब समझाता हूँ। सब अपना घर भरे बैठे हैं और दूसरों को रामराज्य का उपदेश देते हैं। अपना अपना गाल चमकाना दुनिया की रसम है। अभी तुम नहीं जानते। जब सीझोगे तो जानोगे। अभी तुम्हारी चमड़ी पतली है, चरपरायेगी। अभी तुमसे यही डर है कि मौके पर दुम दबा लोगे। संकोच और लिहाज तुम्हारे चेहरे पर चढ़ बैठेगा। और लड़की का बाप एक छोटा-मोटा नेता है, कम्युनिस्ट पार्टी का एम.एल.ए. है। तो दूर की हाँकेगा ज़रूर। सादगी दिखायेगा। अति विनम्र बनेगा। हमें बातों में फँसायेगा। ये सब चाल होगी। सारी बड़ी बातें इस दुनिया में चालबाजी के लिए होती हैं। इन्हीं बातों में फँसा कर वह लड़की पर से ध्यान हटाने की कोशिश करेगा। बना छना के लायेगा। पोता पाती काफी होगी। उसके भरम में नहीं फँसना होगा – समझे कि नहीं?’ पिता जी ने गर्दन टेढ़ी करके अपने अफ़सर पुत्र को देखा। पुत्र ने कनखियों से देख कर हामी भरी।
‘जब हम फँसे थे तब कोई पसीजा? वो प्रेमलता का ससुर साला! कुंडली माँगी। कुंडली दी तो तीन महीने दौड़ाता रहा। थाह लेता रहा जब उसे लगा कि जोग नहीं बैठेगा तो कहता है, लड़की की कुंडली में संतान योग ही नहीं है। और जब उसके मुँह पर कड़क नोट मारा मैंने, जब उसके भगंदर में पाँच लाख ठोंसा तो संतान योग हो गया। अब कहाँ से प्रेमलता चार-चार संतानों की जनमदात्री हो गयी। मर-मर के कमाया था मैंने। दो-दो रुपये तक पकड़ता था। सारा फंड निकल गया। खुंख्ख हो गया मैं। …तो अब मेरे को भी भगंदर है। मैं भी बदला लूँगा। तुम समाज हो तो जैसा मेरे साथ सलूक करते हो वैसा मैं भी करूँगा। सठे साठ्यं… या जो भी कहते हैं।’ पिता जी ने ड्राइवर की ओर देखा।
‘अभी गुंडे लोग नहीं आये?’ उन्होंने ड्राइवर से पूछा।
‘आयेंगे साहब।’ ड्राइवर ने कहा।
‘और एक बात और…।’ पिता जी ने अपने पुत्र को देखा।
पुत्र जी चुप!
‘अगर बिलरंखी होगी तो रिजेक्ट।’ पिता जी ने कहा।
‘क्यों?’ लड़के ने साहस किया।
‘बिलरंखी पोस नहीं मानती।’ पिता जी ने कहा।
‘क्या मतलब?’
‘कुछ भी मतलब नहीं।’ पिता जी चिढ़े।
‘अब चुप भी रहो।’ पीछे से पत्नी ने कहा।
‘और रंग भी गौर से देखना होगा।’ पिता जी ने कहा।
‘तो तुम तो हो ही।’ पत्नी बोलीं।
‘अरे भाई, उसमें बड़ा छल प्रपंच होता है। सुना है कि ऐसे-ऐसे नाऊ हैं, कि ऐसा पोत-पात देंगे कि आपको असली कलर का पते नहीं चलेगा।’ पिता जी ने कहा।
इस पर पीछे जवानी की ओर बढ़ती उनकी लड़की हँसी।
‘ए बुचिया, तुम तो पहचान लोगी?’ पिता जी ने पूछा
‘हाँ पिता जी।’ लड़की ने कहा।
‘और दुल्हन की लंबाई कितनी है बायोडाटा में?’ पिता जी ने पूछा।
‘पाँच फीट छह इंच।’ उनकी लड़की ने कहा।
‘और नपनी कितनी है?’ पिता जी ने फिर पूछा।
‘पाँच फीट तीन इंच।’ उनकी बेटी बोली।
‘तो अंदाजा रखना होगा कि जब नपनी के बराबर खड़ी हो, तो दुल्हन तीन इंच ऊपर लगे।’ पिता जी ने कहा।
‘और एकाध खाना कम हुई तो साहेब!’ ड्राइवर ने मजा लिया।
‘कम कैसे हो जायेगी?’ पिता जी ने अचंभा प्रकट किया।
‘हाँ साहेब, पहले ही देख भाल लेना ठीक होता है।’ ड्राइवर फिर शामिल हुआ।
‘और कोई बक झक नहीं। वो उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा है, हमें क्या मतलब? हम घरबारी लोग हैं। किसी तरह जान बचा कर जिंदा हैं। हमें पोलिटिक्स की डिमक डिम पर कमर नहीं मचकानी।’ पिता जी चुप हो गये।
सड़क पर पेड़ की एक लंबी हरी डाल आड़ा तिरछा करके रखी थी और चार लोग गाड़ी रोकने के लिए हाथों से इशारा कर रहे थे। पिता जी ने फट से पर्स निकाला। उसमें से दस रुपये का एक नोट अलग मुट्ठी में। और कुछ दस-दस रुपये के और नोट दूसरी जेब में। फिर पर्स अंदर चोरिका जेब में। ‘और जगह देना पड़ेगा तो बार-बार पर्स निकालना ठीक नहीं रहेगा। कहीं पर्सवे झपट लिये सारे तब?’ पिता जी ने सोचा। दोनों गाड़ियाँ आगे पीछे खड़ी हो गयीं। पिता जी फाटक खोल कर बाहर निकले।
‘कहिए?’ पिता जी ने दस रुपये का नोट मुट्ठी में दबाये हुए पूछा।
‘टैक्स।’ उनमें से एक ने कहा।
‘टैक्स?’ पिता जी ने अचंभा व्यक्त किया।
‘चंदा।’ उनमें से किसी और ने कहा।
‘किस पार्टी का चंदा?’ पिता जी ने पूछा।
‘कांग्रेस, कम्युनिस्ट, बी.जे.पी… जो भी समझो।’ किसी ने कहा
‘ओ… तो आप लोग पोलिटिक्स खेलते हैं।’ पिता जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘पागल है का जी?’ एक लड़का बोला।
पिता जी ने दस रुपये का नोट उसके हाथ पर रख दिया। लड़के ने घूर कर देखा। नोट को चोंगिआया, उसमें थूका और पिता जी को वापस पकड़ाने लगा।
‘ये क्या है?’ पिता जी सहमे।
‘तुम्हारा माल अपने माल के साथ तर करके वापस। …साले घूसखोर, कितना हजम किया है?’
लड़के ने थूक सहित नोट पिता जी के चेहरे को लक्ष्य करके फेंका।
पिता जी तिरछे हो कर बचे।
‘कहाँ घर है?’ एक दूसरे लड़के ने पूछा।
‘डुमरांव।’ पिता जी ने झटपट जवाब दिया।
‘राजा का बुढ़वा झरेला है साला!’ दो लड़के आपस में हँसे।
‘आज का दिन ही असगुनी है।’ पिता जी बोले।
‘क्या बोला?’
‘आप लोगों को नहीं।’ पिता जी ने झट से बात बदल दी।
‘छछंद करता है! लूटता है साले… सरकार को और जनता को! माल जमा करता है! दो-दो ठो गाड़ी ले कर चलेगा और फिलासफी झाड़ेगा?’
पिता जी हाँ ना में मुस्किया दिये।
‘ये हरी डाल देखता है, नीचे से डाल कर ब्रह्मांड से निकाल देंगे।’ एक लड़का बोला।
‘नहीं भइया, मैं तो आप लोगों को देख कर खुश हुआ।’
‘खुस हुए?’
पिता जी फिर हाँ ना में मुस्कुराये।
‘अबे, फट जायेगी, पैसे निकाल।’ उस लड़के ने डपटा
‘कितने साहब?’ ड्राइवर ने बाहर निकल कर पूछा।
‘दो गाड़ियों का सत्तर।’
ड्राइवर ने अपनी जेब से पैसे निकाल कर पकड़ा दिये।
‘वो नोट उठा लो पंडित जी, और अपने त्रिपुंड कर चिपका लो।’ लड़का पीछे खड़ी दूसरी गाड़ियों की ओर बढ़ गया।
इस तरह चार पाँच जगहों पर टैक्स चुकाते पिता जी एंड पार्टी भागलपुर पहुँची। हिसाब रखना – पिता जी ने ड्राइवर से कहा और कार से नीचे उतरे। होटल चिकना चुपड़ा था और सड़क गुलज़ार थी। पता लगा, उनके होने वाले समधी साहब ने क्षमा माँगी है। वे एक जुलूस में हैं और इसीलिए अगवानी को नहीं आ सके। अभी आते ही होंगे। कमरों में सामान और बाल बच्चों को पटकते हुए पिता जी भुनभुनाये, ‘सब समझता हूँ, सब। तो करो, जो मन में आये। भुगतोगे। अब हम आ रहे थे, ये तो पता था? तब जुलूस में जाना ज़्यादा जरूरी था कि हम? शुरू में ही ये खेला है तो आगे तो पूरी नौटंकी होगी। तुम देश का भाग्य पलट दोगे? कम्यूनिस्टों का पुराना मुगालता है। चार ठो चने के बराबर हैं और पुक्का फुलाते हैं कि हम ही पूरा कंट्री हैं। अरे, तुम्हारी चाँद निकल आयी, मुँह सुखंडी हो गया लीडरी करते, जिंदगी गारत हो गयी, कै ठो रिभोलूशन हुआ? एक ठो टेल्ही पड़ी है घर में बिन बियाहे और तुम लाल झंडे को सलामी देने गये। दस ठो साले चोर चिकारों से बचते बचाते, जान पर खेल कर पहुँचे हियाँ तक और लीडर लाल गायब तो हम भी गायब हो जायेंगे। गायब हो जायेंगे हम भी…।’ पिता जी ने हाथ से गायब होने का इशारा किया।
‘ए नपनी, इधर सुन तो।’ उन्होंने जोर से आवाज दी।
नपनी पास आकर खड़ी हुई – एक साँवली सी, दुबली सी, मरी-मरी लड़की।
‘तुम्हें भइआ ने फीते से ठीक से नापा था न?’ पिता जी ने पूछा।
नपनी ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया।
‘नापते वक्त ऊँची हील तो नहीं पहनी थी?’
‘नहीं।’ नपनी ने सिर नीचा किये किये कहा।
‘अभी तो पहनी हो।’ पिता जी ने नपनी के पैरों की ओर देखा।
नपनी कुछ नहीं बोली।
‘उपधिया जी खाना वाना नहीं देते क्या?’ पिता जी ने नपनी की कृश काया पर एक नज़र डाली।
नपनी फिर भी चुप रही।
‘जरा ऊपर आँख कर तो।’ पिता जी एकाएक चौकन्ने हुए।
नपनी ने आँखें ऊपर उठायीं।
‘सीधे मेरी ओर देख।’ पिता जी ने कहा।
नपनी ने देखा।
‘ये तो बिलरंखी है ए भाई।’ पिता जी उठ कर टहलने लगे।
‘ओके हैरान करे से फायदा?’ पिता जी की पत्नी ने अंततः कहा।
‘हैरान?’ पिता जी ने तरेर कर देखा।
‘अउर का! तब से नपनी नपनी! जाओ बेटी!’ पिता जी की पत्नी ने नपनी से कहा।
नपनी तेजी से दूसरे कमरे में भाग गयी और पिता जी की बेटी के कंधों से लग कर रोने लगी।
‘इसी से कहता हूँ, इसी से’, पिता जी चिड़चिड़ाये, ‘औरतों के कपार में बुद्धी नहीं होती। ब्रह्मा ने दिया ही नहीं। आचमनी भर होती है, बस। एक तो बिलरंखी, ऊपर से रोयेगी। इसीलिए लुटते आये रास्ते भर।’ पिता जी सोफे में धँस गये।
‘एक तो उपधिया जी ने लड़की को भेजा, दूसरे रास्ते भर ‘ए नपनी, ए नपनी’। जिसको देखो वही।’ पत्नी उठ कर वाश बेसिन की ओर चली गयीं।
थोड़ी देर में दीक्षित जी अपने ‘अमले फैले’ के साथ पधारे। यह शब्द बालकनी से झाँकते हुए पिता जी का था। दीक्षित जी ने साथियों को नीचे से विदा किया और लिफ्ट से ऊपर आये। उन्होंने पिता जी को हाथ जोड़े। पिता जी ने जवाब में हल्का-सा सिर हिलाया।
‘माफी चाहता हूँ पंडित जी, दरअसल एक जुलूस में था।’ दीक्षित जी ने कहा।
‘आज ही जरूरी था?’ पिता जी ने कहा।
‘आज का मसला था तो आज ही प्रोटेस्ट होना चाहिए न।’ दीक्षित जी बोले।
‘प्रोटेस्ट… हंहू।’ पिता जी ने मूड़ी झटकी।
‘ठीक से पहुँच गये थे न?’ दीक्षित जी ने पूछा।
‘ठीक से? अरे ये कहिए, जान बच गयी।’
‘ओह… तो वह तो ड्राइवरों को मालूम था।’ दीक्षित जी बोले।
‘यानी आप जानते हैं? और नेता हैं?’ पिता जी की भौहें तन गयीं।
‘गरीबी… बेरोजगारी… और अनिश्चित भविष्य, साथी… बहुत सारे कारण हैं।’ दीक्षित जी ने क्षमा प्रार्थना के भाव से कहा।
‘साथी कौन?’ पिता जी बोले।
‘वह ‘आदतन।’ मुझे ‘पंडित जी’ कहना चाहिए था। अब क्या करूँ, पनरह साल की उमर से पार्टी में हूँ। संस्कार बन गया है।’ दीक्षित जी बोले।
‘क्या होगा ऐसी पार्टी में रह कर?’ पिता जी ने कहा।
‘क्या होगा, माने?’ दीक्षित जी चौंके।
‘क्या होगा माने क्या होगा।’ पिता जी हँसे।
‘दरअसल हमारे विचार मेल नहीं खाते।’ दीक्षित जी बोले।
‘विचारों के नाम पर कुछ लोग जिंदगी भर गुमराह रहते हैं दीक्षित जी।’ पिता जी ने ब्रह्म वाक्य फेंका।
‘और विचारों के बिना भी।’ दीक्षित जी बोले।
‘दोनों ही चोर हैं।’ पिता जी ने कहा।
दीक्षित जी हँसे, क्योंकि वे केवल हँस ही सकते थे। लेकिन पिता जी भी हँसे।
‘सुना आपकी तरफ दूल्हों की चोरी बहुत होती है?’ एकाएक पिता जी ने पूछा।
‘चोरी?’ दीक्षित जी कुछ समझे नहीं।
‘अगर कोई लड़का अफसर हुआ तो उसकी जान खतरे में है। सुना है लिस्ट लिए रहते हैं। टोह में रहते हैं। और ये रणवीर सेनावाले उनकी मदद भी करते हैं। जैसी पोस्ट वैसा मेहनताना। कलक्टर हो तो पाँच लाख – सुनते हैं। यह तो उठाने का। और माँ बाप एतराज करें तो मार दो। और यह भी तो हो सकता है कि किसी लूली लँगड़ी से ब्याह दें। ब्याह दें तो हो चुकी सुहागरात…।’ पिता जी इस बखान के बाद चुप हो गये।
‘आप बहुत सीधे हैं पंडित जी।’ दीक्षित जी ने हँसते हुए कहा।
‘वह तो मैं हूँ ही। मैंने इसलिए बात उठायी कि हम लोग निशाने पर तो नहीं हैं?’ पिता जी ने कहा।
‘अगर आपको इस तरह का ऊलजुलूल संदेह था तो मुझे बुला लेते।’ दीक्षित जी थोड़ा व्यथित हुए।
‘मेरा भी बेटा अफसर है।’ पिता जी ने लड़के की तरफ देखते हुए कहा।
‘हमारे तो पाहुन हैं पंडित जी।’ दीक्षित जी ने लड़के पर एक नजर डाली।
‘और ई लंका पर टाँग दिये हैं न, इसी से शक हुआ। उतर के भागेंगे भी कहाँ।’ पिता जी ने कहा।
दीक्षित जी कहना चाहते थे ‘ओफ्!’, लेकिन बोले, ‘अच्छा चलता हूँ।’ और लड़की और पत्नी को भेज देता हूँ। वैसे तो घर ही पर ठीक रहता, लेकिन जब आप होटल में ही चाहते थे तो…। मेरी एक मीटिंग है। आगे आपकी दया पर है।’ दीक्षित जी ने हाथ जोड़े।
‘आपकी कोई जरूरत भी नहीं। आप रहेंगे तो बेटी शर्मायेगी।’ पिता जी ने कहा।
दीक्षित जी ने विदा ली।
करीब घंटे भर बाद दीक्षित जी की पत्नी अपनी बेटी और उसकी सहेली के साथ आयीं। पिता जी की पत्नी ने डरते डरते, शक की नजर डालते हुए उनका स्वागत किया। दुल्हन ने प्रणाम किया तो पिता जी ने छिः छिः भाव से जैसे कहा, ‘ठीक है, ठीक है।’ लड़की एक कुर्सी पर स्थापित कर दी गयी। उसकी सहेली उसके पीछे कुर्सी पकड़ कर खड़ी हो गयी। दोनों महिलाएँ एक सोफे पर। अफसर वर और उसकी बहन और दोनों छोटे बच्चे एक लंबे सोफे पर दुल्हन के आमने सामने। दोनों बच्चे दुल्हन को टुकुर टुकुर। पिता जी का ध्यान सबसे पहले दुल्हन के पैरों यानी उसके सैंडिल पर गया। उनका सिर षड्यंत्र को सूँघता हुआ हिला और उन्होंने बारी बारी से अपने पुत्र और पत्नी को देखा और इशारा किया।
‘इस बार कितने में तय हुआ?’ अधिकारी जी पिता जी के कानों में फुसफुसाये।
‘छह लाख, एक गाड़ी और ब्याह का सारा खर्चा वर्चा।’ पिता जी भी उसी तरह अधिकारी जी के कानों में फुसफुसाये।
‘कामरेड है, देगा कहाँ से?’ अधिकारी जी
‘कामरेड है तो भक्खर में जाये।’ पिता जी।
‘तय करने के पहले सोचते।’ अधिकारी जी।
‘यह काम उसका था। और जो ट्रेड यूनियन का चंदा वसूलता है वह?’ पिता जी।
‘कम्युनिस्ट लोग ऐसे नहीं हैं।’ अधिकारी जी।
‘तुम साले गधे हो।’ पिता जी।
‘खच्चर से ही तो गधे की दोस्ती होगी।’ अधिकारी जी।’
पिता जी ने खुश हो कर अधिकारी जी का हाथ पकड़ लिया। मुँह फाड़ कर हँसने का अवसर नहीं था। बेटा दुल्हन का ‘साक्षात्कार’ ले रहा था और वह लजा रही थी। जब भी वह शरमा कर चुप होती और सिर नीचा कर लेती तो अफसर जी थोड़ा चटखारे के साथ मेहरा कर बोलते, ‘इरे, जरा सीधे ताकिये न।’ इस पर लड़की और शरमा जाती। तब पीछे खड़ी उसकी सहेली उसके कंधों को छू कर बार बार दिलासा देती। …लेकिन पिता जी अधिकारी जी के साथ बैठे हुए एक आँख और एक कान से यह भी ताड़ रहे थे कि उनका बेटा कहीं लस तो नहीं रहा है।
‘नपनी कहाँ है?’ पिता जी ने एकाएक पूछते हुए अपनी पत्नी की ओर देखा, ‘उसका नाम क्या है?’ पिता जी को पहली बार ध्यान आया कि उसका कोई और नाम भी होगा।
‘पारमिता।’ पिता जी की पत्नी ने कहा।
‘उपधिया ससुर।’ पिता जी ने ठसका लगाया, ‘घर में भूजी भाँग नहीं और नाम रखा है पारमिता! है कहाँ?’ पिता जी ने अपनी पत्नी को देखा।
‘उस कमरे में।’
पारमिता सिर नीचा किये कमरे में आयी, जैसे उसी को दिखाया जा रहा हो। दुल्हन की माँ पिता जी को लगभग घूर कर देख रही थीं, किस तरह ‘नपनी’ का नाम जानने के बाद उन्होंने उसके बाप के लिए अपमानजनक शब्दों का व्यवहार किया। पिता जी ने अपनी होनेवाली समधिन की टेढ़ी आँख भाँप ली।
‘अइसे जानिए’ पिता जी समधिन की ओर मुखातिब हुए, ‘कि नपनी बोलने की हमें कइसे आदत पड़ी। इसके पिता जी जो हैं न, तो एक सेर उसिना चाउर का भात सुबहे सुबह खाते हैं। तो जब यह लड़की छोटी थी तभी से धइली में से अँजुरी अँजुरी चाउर निकालती थी। इसकी अम्मा को इसकी अँजुरी से ही अंदाजा हो गया था। आठ अँजुरी। तो उपधिया जी कहते थे, ये मेरी नपनी है। मेरे भोजन का चाउर नापती हैं और कोई नापता है तो घट बढ़ जाता है। …तो हमको भी इसीलिए नपनी नपनी बुलाने की आदत पड़ गयी।’ पिता जी ने अपने उजले दाँत दिखा दिये।
नपनी ने क्रोध से आगबूबला होते हुए पिता जी को देखा।
उनकी पत्नी भी कथन की इस शैली और पिता जी की कल्पना शक्ति यानी झूठ बोलने की अनायास क्षमता पर हैरान रह गयीं। अधिकारी जी को लगा कि उनका दोस्त तो किसी को भी पदा सकता है।
‘बंद करो बेटे, आवाज सुन तो ली। और क्या इंटरव्यू लेना है। और हटो वहाँ से।’ पिता जी ने कहा।
अफसर बेटा उठा और दूसरी ओर जा कर एक सोफे पर बैठ गया।
‘बेटी, अपनी सैंडिल उतार दो तो।’ पिता जी ने दुल्हान से कहा।
लड़की ने कुछ यों देखा, जैसे समझी न हो।
‘सैंडिल।’ अफ़सर बेटे या पति होने को आतुर नौजवान ने लड़की से उतारने का इशारा किया।
लड़की का साँवला चेहरा ताँबई हो गया। वह लगभग काँपती हुई सैंडिल उतारने लगी।
‘और तुम कुर्सी के पीछे से हटो तो।’ पिता जी ने दुल्हन की सहेली को सख्त लहजे में इशारा किया।
‘क्यों?’ अधिकारी जी ने पिता जी के कानों में फुसफुस किया।
‘देख नहीं रहे हो बैकग्राउंड में एक करिया भुचंग को खड़ा कर दिया है जिससे नेता जी की लड़की कुछ कम काली लगे। खड्यंत्र समझता हूँ मैं।’ पिता जी ने फुसफुस किया।
दुल्हन की सहेली पीछे से हट कर दीक्षित जी की पत्नी के बगल में बैठ गयी।
‘खड़ी हो जा बिटिया!’ पिता जी ने दुल्हन से कहा। लड़की खड़ी हो गयी।
‘नपनी, बगल में जाओ तो।’ पिता जी बोले। नपनी जा कर दुल्हन के बगल में खड़ी हो गयी।
‘बराबर से।’ पिता जी किसी बढ़ई की तरह बोले जो सूत से सूत मिला रहा हो।
सबने देखा। पिता जी ने अपनी पत्नी, पुत्री और अधिकारी जी को।
अधिकारी जी भी मापनेवाली नजरों से दखते रहे।
‘झुट्ठा।’ पिता जी ने अधिकारी जी के कान में कहा, ‘नपनी के बराबर है।’
‘पारमिता बेटी, वाश बेशिन पर बिटिया को ले जाओ और मुँह धो दो।’ पिता जी ने कहा।
‘अब क्या करोगे?’ अधिकारी जी पिता जी के कान से लगे।
‘धोखा।’ पिता जी बोले।
‘अरे, धोखा तो है लेकिन मना कैसे करोगे?’
‘कर देंगे।’ पिता जी फुसफुसाये।
‘कैसे?
‘कई बार जैसे करे हैं।’
अधिकारी जी थोड़ा चिढ़ से अपने दोस्त को देखने लगे।
‘कह देंगे, आपकी बेटी की कुंडली में संतान योग ही नहीं है।’ पिता जी फुसफुसाये।
अधिकारी जी ने पिता जी को भयग्रस्त नज़रों से देखा।
पिता जी ने अधिकारी जी के कंधों पर एक धौल जमाया।
पारमिता (यानी नपनी) ने दुल्हन का हाथ पकड़ा और उसे बाथरूम की ओर वाश बेसिन पर ले गयी।
‘मैं धो लूँगी।’ लड़की ने मुँह पर छींटे मारते हुए कहा।
वह अपना आँसू और अपना गुस्सा साथ-साथ धो रही थी। तौलिये से मुँह पोंछने पर भी उसके आँसू थम नहीं रहे थे। आँखें एकदम सुर्ख थीं। उसने पारमिता की ओर देखा जो पास ही खड़ी थी।
‘तुम अब पहले से ज्यादा सुंदर दिख रही हो।’ पारमिता ने कहा।
लड़की आँसुओं में मुस्कुरायी। फिर सकपका गयी। उसने देखा, पारमिता भी रो रही थी।
‘तुम क्यों रो रही हो?’ दुल्हन ने कहा।
‘तुम इस आदमी के मुँह पर एक तमाचा जड़ नहीं सकती?’ पारमिता ने कहा।
‘सच!’ दुल्हन पास आ गयी। परमिता ने सिर हिलाया, जैसे वही दुल्हन हो।
लड़की फिर शीशे के सामने चली गयी। उसने अपने जूड़े से पिन निकाले और बाल बिखरा दिये। दुपट्टे को लापरवाही से कंधे पर इधर उधर फेंका, बाथरूम से बाहर आयी। सभी लोग उसे हैरान परेशान देखते रहे। परमिता एक कोने में दुबक गयी। लड़की की माँ उठ कर खड़ी हो गयीं। ‘यू आर एन ईडियट।’ लड़की ने पिता जी के गाल पर एक जोर का तमाचा जड़ा और धड़धड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतर गयी।
‘बिलरंखी थी।’ पिता जी ने लौटते हुए कार में अधिकारी जी से कहा।
‘शायद।’ अधिकारी जी हँसे।
कहानी साभार: गद्य कोष
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कुछ अच्छा करने के लिए जरूरी नहीं है कि आपको हमेशा कुछ बड़ा ही करना होता है। कभी-कभी बहुत छोटी-छोटी बातें भी एक बड़े बदलाव की सीढ़ी बन सकती हैं। ऐसा ही एक छोटा पर मदद और ज़िम्मेदारी भरा कदम उठा कर भारतीय रेलवे ने साबित किया कि हम एक बेहतर भारत की ओर बढ़ रहे हैं।
15 जनवरी 2019 यानी कि सोमवार को ट्विटर पर भारतीय रेलवे से एक पुरुष यात्री ने मदद मांगी कि उसकी दोस्त को ट्रेन में अचानक पीरियड्स शुरू हो गये हैं। ऐसे में अगर रेलवे पैड्स और दर्द की दवाई उपलब्ध करवाकर उसकी मदद कर सकता है, तो अच्छा रहेगा।
इस ट्वीट पर भारतीय रेलवे के अधिकारियों ने तुरंत प्रतिक्रिया दी और कुछ समय पश्चात् लड़की को जिन भी चीज़ों की जरूरत थी वे उस तक पहुंचाई गयीं।
हालांकि, इस केस में स्थिति कोई जानलेवा या गंभीर नहीं थी। पर फिर भी कहीं न कहीं यह घटना, बदलते हुए भारत की तस्वीर है। सबसे पहली अच्छी बात यह है कि विशाल खानापूरे ने एक लड़का होते हुए भी एक लड़की की परेशानी को समझा और खुद ट्वीट किया। दूसरा यह कि रेलवे अधिकारियों ने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ इस पर प्रतिक्रिया दी।
द टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, विशाल अपनी एक दोस्त के साथ बेंगलुरु-बल्लारी-होसपेट पैसेंजर ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। ट्रेन में बैठने के कुछ समय बाद ही विशाल की दोस्त को पीरियड्स शुरू हो गये और उस वक़्त उसके पास पैड्स या फिर कोई दवा नहीं थी। ऐसे में उसने विशाल को अपनी परेशानी बताई।
यह ट्रेन बेंगलुरु से रात में 10.15 बजे रवाना होती है और अगले दिन सुबह 9.40 बजे बल्लारी पहुंचती है।
विशाल ने अपनी दोस्त की परेशानी को समझा और सूझ-बूझ से काम लेते हुए ट्विटर पर रात को लगभग 11 बजे भारतीय रेलवे और रेल मंत्री पीयूष गोयल को टैग करते हुए ट्वीट किया, “यहाँ एक इमरजेंसी है…. मेरी एक दोस्त होसपेट पैसेंजर में यात्रा कर रही है… (सीट का विवरण)… उसे पैड्स और मेफ्टल स्पास टैबलेट की ज़रूरत है। कृपया उसकी मदद करें।”
रेलवे ने इस ट्वीट पर तुरंत ध्यान दिया। विशाल ने बताया कि रात के लगभग 11:06 बजे एक अफ़सर ने उनकी दोस्त से बात करके जानकारी ली कि उसे किन-किन चीजों की ज़रूरत है और उसका पीएनआर नंबर और मोबाइल नंबर आदि लिया। लगभग 2 बजे जब ट्रेन अरासीकेरे स्टेशन पर पहुंची, तो मैसूरु डिवीजन के अधिकारी उन सभी चीजों के साथ तैयार थे, जो उसने मांगी थीं।
एक रेलवे अधिकारी ने प्रकाशन को बताया, “इस तरह के अनुरोध अक्सर ट्वीट्स के माध्यम से या 138 पर किए जाते हैं। हम यात्रियों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।”
विशाल के ट्वीट और भारतीय रेलवे के इस कदम ने यह साबित कर दिया कि अब माहवारी के बारे में बात करना कोई शर्म का मुद्दा नहीं है। बल्कि अब महिलाएँ खुले तौर पर इस बारे में बता सकती हैं।
इसके साथ ही हमें उम्मीद है कि रेलवे व अन्य परिवहन प्रबंधन इस मुद्दे पर गौर करें और ट्रेन, बस आदि में महिलाओं के लिए माहवारी किट की सुविधा उपलब्ध करवाई जाएँ।
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भगवत रावत की एक कविता है ‘सत्तावन बरस का आदमी’ जो इस तरह है:
सत्तावन बरस के आदमी से कोई नहीं पूछता
उसके प्रेम के बारे में
कोई नहीं पूछता
रगों में दौड़ती फिरती उसकी इच्छाओं के बारे में
यहाँ तक कि सत्तावन बरस के दो आदमी जब मिलते हैं
एक दूसरे से तरह-तरह से बस
यही पूछते रहते हैं, अब कितने दिन और हैं..
इसके आगे कविता बताती है कि सत्तावन बरस का आदमी किसी जवान कंधे पर हाथ रख बतियाना चाहता है. उम्र के इस पड़ाव में उसके पास सुनाने के लिए सच्ची कहानी, सुन्दर कविता और मधुर गीत भी होता है. और कैसे वह उम्र की पवित्रता (?) में छूटी चीज़ों को नए सिरे से पाना तो चाहता है लेकिन उसे साठ के पार की फैंसिंग दिखा दी जाती है हर जगह.
बीते सप्ताह मैंने पचास की उम्र छू ली. अब इस कविता तो पढ़ कर लगता है कि शायद यह किन्हीं बीते ज़मानों की कविता है. क्योंकि पचास में अभी तो पता ही नहीं चलता कि कोई उम्र है. मैं जन्मदिन के दिन किसी से मिलना अमूमन पसंद नहीं करता, कोई समारोह तो शायद ही पिछले तीस वर्षों में हुआ हो. इस बार भी सुबह से अकेले ही पड़ोसी की साइकिल ले कर निकल गया था. पड़ोसी की इसलिए कि तीन साइकिलें हमारी चोरी हो गयीं पिछले महीने. फ़्लोरिडा में भी इसी साल तीन साइकिलें चोरी हुई हैं इसी साल. लेकिन इस वक़्त जेब मैं पैसे नहीं हैं तो जो, जैसा, जहाँ से मिल जाए काम चल जाता है. और साइकिल पर भटकते हुए दिन बिताना पुराना शगल रहा है. जब नव-भारत टाइम्स के लिए स्तम्भ लिखना आरम्भ किया था, तो शायद दूसरे अंक में ही लेख में साइकिल के मज़े उठाने के बात की थी. मजमून का सार यह था कि यूरोप में जो भी घूमने जाता है, वह किराये की साइकिल ले कर घूमता ही है. वही लुत्फ़ साउथ मुंबई में भी आ सकता है, बिना लाखों रुपए खर्च किये. उसके बाद कई लोगों ने कहा भी था कि उन्होंने साइकिल ख़रीदी है.
बात हो रही थी ‘सत्तावन बरस का आदमी’ की इस कविता को हमने राजीव वर्मा जी के साथ शूट किया है. सत्तर के करीब हैं राजीव जी और आजकल भोपाल में रहते हैं. मुंबई की फ़िल्मी दुनिया से जुड़े तो हैं लेकिन कम कर दिया है काम आजकल. उनसे उम्र की बात चली तो कहने लगे कि ‘यार, मुंबई में उम्र का पता ही नहीं चलता. भोपाल में आता हूँ तो हर ओर से जता दिया जाता है कि अब मैं ‘बड़ा’ हूँ और वैसे ही व्यवहार की अपेक्षाएँ रखी जाती हैं.
ये बात भी शायद सही है – जैसे जैसे आप छोटी जगह जाते हैं. उम्र आप पर लाद दी जाती है. उम्र कोई बुरी चीज़ नहीं है लेकिन अपने आपको उम्रदराज़ मान अपने पंखों को कतरना नासमझी है. बात जवान दिखने की नहीं है. न ही बंदरों की तरह उछलने की है. पचपन-साठ के आसपास विधवा/ विदुर हुए लोगों की शादी आज 2019 में भी दुर्लभ है. अब जब बच्चों का घर बस चुका है, या बसने वाला है अकेले माँ या बाप की शादी की बात एक पाप की तरह लगती है. माँ के लिए रोया जाता है कि हाय कैसे रहेगी अब बेचारी लेकिन उनका भी नया घर बसे यह नहीं सोचा जाता. एक समय आएगा जब समाज मुड़ कर देखेगा कि कितने मूर्ख थे हम लोग कि अपने पचासवें और साठवें दशक के माँ-पापा को अकेले ही रहने देते थे. एक अनकही उम्र क़ैद में. सोच में परिवर्तन चाहिए – बच्चे समझें कि ये लोग सेक्सुअल भी हैं और ज़िन्दगी की वो हर शय चाहते हैं जो बच्चों को चाहिए. और मूर्ख अकेले बुज़ुर्गों – सियापा और बेवकूफ़ी मत करो – पढ़े लिखे हो, समझदार हो – अपनी शादी के बारे में सोचो – आपकी ही तरह एक और अकेले के बाग़ में भी बहार आएगी. सोचो. सोचो!!!
डरो मत.
शरमाओ मत. सोचो. अकेले रह कर तुम कोई समझदारी नहीं कर रहे हो.
बहरहाल, पचास के साथ साथ डाइबिटीज़ होने की ख़बर आई, तो शराब कम कर दी, जिम शुरू कर दिया. हाथ-पाँव में जान लगी. दिनभर धूप में साइकिल पर घूमने में मज़ा आया. ऑटो वालों से रेस लगाई. आर्ट गैलरी में पेंटर साहिबा से जीवन के गुर सीखे. बच्चों के साथ क्रिकेट खेला और शाम को एक मोहतरमा के किसी और के साथ डेट पर चले जाने पर मुँह बनाया. कॉलेज के चार छात्रों को पानी-पूरी खिलाई, और एक दो दफ़ा कोई हसीना मुस्कुराई..
पचास के बाद भी मुझे जीवन चाहिए. उतना ही चाहिए. और अधिक चाहिए.
और प्रेम भी चाहिए, पहाड़ भी चाहिए, खुला भी चाहिए, किवाड़ भी चाहिए.
मर जाऊँ जूनून में ऐसा प्रेम हो फिर से.
चलो फ़्रिज में रखे सम्बन्ध में नया तड़का लगाएँ
या दूरदराज़ की अंदर-बाहर की गलियों में घूम आएँ.
छोटा सा जीवन है साला –
ज़िम्मेवारी और समझदारी के चार लबादे और फेंकता हूँ चूल्हे में.
ओ’ चेतनाओं!
ओ’ चेतना पारिखों!!
कैसी हो??
आओ एक कविता सुनानी है:)
आज ज्ञानेन्द्रपति की यह कविता फिर से :
—–
लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.
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साल 1987 में पहली बार किसी गैर-हिन्दुस्तानी को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा। भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्राप्त करने वाले यह शख़्स थे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जिन्हें बच्चा ख़ान के नाम से भी जाना जाता है। बच्चा ख़ान पाकिस्तानी नागरिक थे पर भी उन्हें भारत रत्न दिया गया, आखिर क्यूँ?
द बेटर इंडिया के साथ पढ़िए, ‘सरहदी गाँधी’ के नाम से जाने जाने वाले ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के बारे में, जिन्हें दस्तावेजों में आज भले ही गैर-हिंदुस्तानी कहा जाता हो पर वे अपनी आख़िरी सांस तक हिंदुस्तानी थे!
ख़ान का जन्म 6 फरवरी 1890 को पेशावर (अब पाकिस्तान में है) में हुआ। पठानों के खानदान से ताल्लुक रखने वाले ख़ान ने आज़ादी का महत्व और अपने वतन पर जान तक कुर्बान करने का जज़्बा अपने दादा-परदादाओं से पाया था। उनकी शिक्षा भले ही एक मिशनरी स्कूल में हुई पर देशभक्ति की भावना उनके दिल में पूरी थी।
पठानों को हमेशा से ही लड़ाका स्वाभाव का बताया जाता है। उनमें दुश्मनी का रिवाज़ कुछ इस कदर है कि वे अपना बदला लिए बगैर शांत नहीं होता फिर चाहे उस बैर में पीढियां की पीढियां ही क्यों ना बलि चढ़ जाएँ। पर ख़ान ने एक पठान होते हुए भी जिस तरह से अपने जीवन में अहिंसा को उतारा; उसका कोई सानी नहीं है।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान
अक्सर लोग कहते हैं कि ख़ान ने अहिंसा का पाठ गाँधी जी से पाया। लेकिन सच तो यह है कि गाँधी जी से मिलने से बहुत पहले ही उन्होंने कुरान पढ़ते हुए उसकी आध्यात्मिक गहराइयों में अहिंसा का दर्शन ढूंढ़ निकाला था। हर समय आपस में लड़ते रहने वाले हिंसा पसंद पठानों के बीच अहिंसा के बीज उन्होंने ही बोये थे। ख़ान की इसी खूबी ने गाँधी जी को बहुत प्रभावित किया और ताउम्र के लिए उनके बीच कभी भी ना टूटने वाली एक डोर बंध गयी।
अहिंसा और समाज सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाने वाले ख़ान साहब ने अविभाजित भारत के पख़्तून (पठान) इलाकों को संवारने का बीड़ा उठाया। मात्र 20 साल की उम्र में उन्होंने पेशावर के पास एक स्कूल खोला। उन्होंने सभी पठानों को एकजुट करने के लिए लगभग 500 गाँवों की यात्रा की। उनके इसी नेक और साहसिक काम के चलते आम पख़्तून लोगों के लिए वे उनके बादशाह बन गये। इसके बाद से ही उन्हें ‘बादशाह ख़ान’ बुलाया जाने लगा।
साल 1928 में उनकी मुलाक़ात गाँधी जी से हुई। ख़ान और गाँधी, दोनों ही इस कदर एक-दुसरे के विचारों से प्रभावित थे कि उनके बीच मैत्री और सम्मान का रिश्ता मरते दम तक खत्म नहीं हुआ। ख़ान, महात्मा गाँधी के आंदोलन से जुड़ने लगे और यह बात अंग्रेज़ों को खटकती थी। क्योंकि अब ख़ान के चलते पठान लोग भी गाँधी जी के समर्थन में उतर आये थे।
एक समारोह के दौरान गाँधी जी और बादशाह ख़ान
ख़ान के बढ़ते रुतबे को देख अंग्रेज़ों ने उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा कर जेल भेजने की साजिशें भी रची। लेकिन वे ख़ान के खिलाफ़ कोर्ट में एक गवाह तक पेश ना कर पाते।
साल 1929 में, ख़ान ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘खुदाई खिदमतगार’ नाम से एक संगठन शुरू किया। इस संगठन का मतलब था ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक। इस संगठन से जुड़े सभी लोग अहिंसात्मक रूप से भारतीय स्वतंत्रता और एकता के लिए प्रयत्नरत थे।
कहते हैं कि अंग्रेज़ों को जितना भय हिंसात्मक आंदोलनों का नहीं था, उससे ज्यादा वे बादशाह ख़ान के इस अहिंसात्मक संगठन से डरते थे। इसलिए जब गाँधी जी के नमक सत्याग्रह में ख़ान साहब ने हिस्सा लिया तो उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। ख़ान की गिरफ्तारी के बाद खुदाई खिदमतगार के समर्थन में बहुत से लोग पेशावर के क़िस्सा ख्वानी बाज़ार में इकट्ठे हो गये।
बादशाह ख़ान के ‘खुदाई खिदमतगार’
लोगों के इस जुलूस को बढ़ता देखकर अंग्रेज़ी अफ़सरों ने बिना किसी चेतावनी के इन निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलवा दीं। इस नरसंहार में लगभग 250 लोगों की जान गयी, पर फिर भी इन खुदा के बंदों ने अपने हथियार ना उठाने के उसूल को नहीं तोड़ा। बताया जाता है कि चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में उस समय गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट की पलटन भी वहाँ मौजूद थी। पर उन्होंने अंग्रेज़ों के इस हुकूम को मानने से इंकार कर दिया। जिसके चलते बाद में पूरी पलटन पर कानूनी कार्यवाही हुई।
बाद में ख़ान साहब ने कहा, “ब्रिटिश सरकार को हिंसात्मक पख़्तून से ज्यादा डर अहिंसात्मक पख़्तून से है। उन्होंने जो भी अत्याचार हम पर किये, उसके पीछे सिर्फ़ एक ही वजह थी कि वे हमें उकसा सकें और हम अपने उसूल भूलकर हिंसा करें।”
पर अंग्रेज़ों का यह मंसूबा कभी कामयाब नहीं हुआ और अपनी शख़्सियत के दम पर बादशाह खान ने पूरे सीमाप्रान्ती पख़्तूनों को उनके खिलाफ़ खड़ा कर दिया। और शायद इसलिए लोग उन्हें ‘सीमांत गाँधी’ या ‘सरहदी गाँधी’ कहने लगे।
गाँधी जी ने साल 1938 में जब उत्तर-पश्चिमी सीमा पर पठान इलाकों का दौरा किया तो वहां खुदाई खिदमतगारों का काम देख वे गद्गद हो गये थे। उन्होंने इस पर 19 नवंबर, 1938 के ‘हरिजन’ अख़बार के लिए एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था ‘खुदाई खिदमतगार और बादशाह ख़ान’!
इस लेख में गाँधी जी ने लिखा था, “ख़ुदाई ख़िदमतगार चाहे जैसे हों और अंततः जैसे साबित हों, लेकिन उनके नेता के बारे में, जिन्हें वे उल्लास से बादशाह ख़ान कहते हैं, किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं है। वे निस्संदेह खुदा के बंदे हैं….अपने काम में उन्होंने अपनी संपूर्ण आत्मा उड़ेल दी है। परिणाम क्या होगा इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं। बस इतना उन्होंने समझ लिया है कि अहिंसा को पूर्ण रूप से स्वीकार किए बिना पठानों की मुक्ति नहीं है…”
पर फिर भी ब्रिटिश सरकार को हमेशा ही ख़ान के इरादों पर शक रहता। ऐसे में साल 1939 में म्यूरियल लेस्टर नाम की एक ब्रिटिश शांतिवादी ने इन सीमाप्रांतों का दौरा किया। इस यात्रा के दौरान वे ख़ान के अहिंसक स्वाभाव और उनके विचारों से काफ़ी प्रभावित हुईं और उन्होंने इस संदर्भ में गाँधी जी को एक पत्र में लिखा,
“ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को अब भली-भांति जान लेने के बाद मैं ऐसा महसूस करती हूँ कि जहां तक दुनिया भर में अद्भुत व्यक्तियों से मिलने का सवाल है, इस तरह का सौभाग्य मुझे अपने जीवन में शायद कोई और नहीं मिलने वाला है..”
भारत की स्वतंत्रता तक ख़ान साहब ने गाँधी जी की परछाई बनकर उनके साथ काम किया। बिहार के दंगों के दौरान गाँधी जी और ख़ान ने गलियों में घूम-घूमकर लोगों को शांत किया। 12 मार्च, 1947 को पटना में एक सभा में गांधी ने ख़ान साहब की ओर इशारा करते हुए कहा, “बादशाह ख़ान मेरे पीछे बैठे हैं। वे तबीयत से फकीर हैं, लेकिन लोग उन्हें मुहब्बत से बादशाह कहते हैं, क्योंकि वे सरहद के लोगों के दिलों पर अपनी मुहब्बत से हुकूमत करते हैं।”
बादशाह ख़ान, बापू और बा के साथ
स्वतंत्रता के बाद बादशाह ख़ान बिल्कुल भी बँटवारे के पक्ष में नहीं थे। पर फिर भी बँटवारा हुआ और पख़्तूनों को पाकिस्तान का हिस्सा बनना पड़ा। मुल्क भले ही नया था पर ख़ान ने अन्याय के खिलाफ़ अपनी आवाज हमेशा बुलंद रखी। कई बार स्वतंत्र पाकिस्तान में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया, क्योंकि वे यहाँ भी दबे हुए लोगों के मसीहा बने रहे।
साल 1970 में भारत आये और पूरे देशभर में घूमे। इसके बाद वे 1985 के ‘कांग्रेस शताब्दी समारोह’ में भी शामिल हुए। साल 1988 में 20 जनवरी को पाकिस्तान में उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली। उस वक़्त भी पाकिस्तान सरकार ने उन्हें नज़रबंदी में रखा हुआ था।
आज जब हर तरफ हिंसा और तनाव का माहौल है तो बादशाह ख़ान जैसे लोगों को याद करना बेहद जरूरी है। क्योंकि कहीं न कहीं हम उनकी धरोहर को बचाकर ही अपना आज और आने वाला कल शांति में जी सकते हैं।
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“मैं हमेशा से ही बहुत आत्म-विश्वासी रही हूँ। मुझे तैयार होना, दोस्तों के साथ बाहर जाना बहुत पसंद है और ख़ासकर, गाना और डांस करना। मैंने अंग्रेजी-माध्यम से दसवीं की कक्षा पास की और जब मैं 19 साल की थी तो मेरी सगाई हो गयी। लेकिन जिनसे मेरी सगाई हुई, वह बहुत अच्छे इंसान थे। हमारी सगाई के बाद के दो साल बहुत यादगार रहे! वो अक्सर कॉलेज बंक करके मेरे साथ फिल्म या नाटक देखने आ जाते। शादी के बाद भी हमने ज़िंदगी को भरपूर जिया। मैंने उनके घर को अपना बना लिया। मैं एक संपन्न परिवार से थी, जहाँ हमारे पास कई कारें थीं। पर जब मेरे पिता ने मुझसे पूछा कि क्या मुझे यहाँ कार की ज़रूरत है? तो मैंने कहा, ‘आप चिंता न करें, मेरे पति ने मुझे बस की सारी रूट समझा दी हैं।’
हमने साथ एक बेहतरीन ज़िंदगी जी, हम शानदार पार्टियाँ देने के लिए मशहूर थे! ये उन दिनों की बात है जब मिक्सर या माइक्रोवेव नहीं हुआ करते थे। सब कुछ खुद ही करना पड़ता था! तैयार होना, खाना, पीना, डांस करना… वो दिन ही कुछ और थे!
और हम बहुत घूमते भी थे– लेकिन 1984 में जब हम पहली बार मेरी बहन के यहाँ अमेरिका गये, तो मेरा एक्सीडेंट हो गया। एक कार ने मुझे टक्कर मारी और मैं उड़कर रोड पर जा गिरी और फिर वह कार मुझे रोंदते हुए आगे बढ़ गयी। मेरी टाँगे टूट गयी थीं। मैं बहुत दर्द में थी… मुझे नहीं पता था कि मैं दोबारा चल भी पाऊँगी या नहीं।
जब हम अस्पताल गये तो डॉक्टर ने कहा कि हम किस्मत वाले हैं, जो मैं बच गयी। मैं तीन महीने तक अस्पताल में रही और इसके बाद हम अपने ट्रिप को छोड़कर घर वापिस आ गये। फिर भी, पता है मैं ऐसी थी कि कभी भी शांत नहीं बैठ सकती थी। यह चमत्कार था कि मैं बच गयी तो क्यों इसे व्यर्थ जाने दूँ?- इसलिए मैं फिर से अपने पैरों पर खड़ी हुई, काम करने के लिए, हमारी पार्टियों के लिए और अपने प्यार (पति) के साथ यह दुनिया घुमने के लिए!
साल 2007 में मेरे पति का निधन हो गया, पर उससे पहले मैंने उनके साथ ज़िंदगी के खुबसूरत 60 साल बिताए। पर हम हमेशा कहते थे कि पार्टी चलती रहनी चाहिए– इसलिए मैं अपना मंगलसूत्र पहनकर, तैयार होकर हम दोनों के लिए बाहर जाती हूँ। ये सच है कि मैं उन्हें बहुत याद करती हूँ पर मैं उनके लिए जीती हूँ और यही मेरा उद्देश्य है!
फोटो साभार: humans of bombay
तो मैं आज भी पार्टी शुरू करने वालों में से हूँ! चाहे फिर मेरे पैर दुखने ही क्यों ना लग जाएँ पर मैं जाती हूँ– और मेरा फेवरेट होली है!
कुछ दिनों पहले, सिंगापूर में एक कॉकटेल पार्टी में– ये सभी युवा बच्चे बहुत बोर हो रहे थे– वहां भी सबसे पहले मैंने डांस शुरू किया! अपने 90वें जन्मदिन पर मैंने शैम्पेन की बोतल खोली! तो अब तक ये ‘मज्जा नी’ ज़िंदगी रही– अगर मैं अभी मर भी जाऊं तो मुझे कोई पछतावा नहीं रहेगा! इसलिए मैंने अपने बच्चों को कहा है कि अगर कभी ऐसा हो तो– रोना मत! म्यूजिक चलाना और क्या पता? मैं शायद उठ जाऊं और फिर से डांस करने लगूं!
“I was always a naturally confident person. I loved dressing up, going out with friends and I especially loved to sing…
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पिछले साल से ही भारतीय रेलवे ने यात्रियों की सुविधा के लिए कई अहम फ़ैसले लिए हैं। साथ ही, सोशल मीडिया के ज़रिये भी रेलवे अधिकारी यात्रियों की मदद करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए रेलवे मंत्रालय ने एक और फ़ैसला लिया है।
जल्द ही आपको बनारस और राय बरेली के स्टेशनों पर चाय, कॉफ़ी या फिर सूप आदि सब प्लास्टिक या पेपर कप की जगह मिट्टी के कुल्हड़ों में पीने को मिलेगा। इन रेलवे स्टेशनों पर चाय की चुस्कियों के लिए कुल्हड़ों की जल्द वापसी होने वाली है। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद ने 15 साल पहले रेलवे स्टेशनों पर ‘कुल्हड़’ की शुरुआत की थी, लेकिन प्लास्टिक और पेपर के कपों ने कुल्हड़ की जगह ले ली।
उत्तर रेलवे एवं उत्तर-पूर्व रेलवे के मुख्य वाणिज्यिक प्रबंधक बोर्ड की ओर से जारी परिपत्र के अनुसार रेल मंत्री पीयूष गोयल ने वाराणसी और रायबरेली स्टेशनों पर खान-पान का प्रबंध करने वालों को टेराकोटा या मिट्टी से बने कुल्हड़ों, ग्लास और प्लेट के इस्तेमाल का निर्देश दिया है।
रेलवे अधिकारियों का कहना है कि, एक तरह से अगर यह कदम इको-फ्रेंडली है, तो दूसरी तरह यह एक पहल भी है, स्थानीय कुम्हारों के लिए एक बड़ा बाज़ार तैयार करने की। इस फ़ैसले के अनुसार ज़ोनल रेलवे और आईआरसीटीसी को सलाह दी गयी है, कि वे तत्काल प्रभाव से वाराणसी और रायबरेली रेलवे स्टेशनों पर विक्रेताओं को यह निर्देश दें कि यात्रियों को भोजन या पेय पदार्थ परोसने के लिये स्थानीय तौर पर निर्मित उत्पादों, पर्यावरण के अनुकूल टेराकोटा या पक्की मिट्टी के कुल्हड़ों, ग्लास और प्लेटों का इस्तेमाल करें ताकि। इस तरह से स्थानीय कुम्हार आसानी से अपने उत्पाद बेच सकेंगे।
दरअसल, खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी) के अध्यक्ष पिछले साल दिसंबर में यह प्रस्ताव लेकर आए थे। उन्होंने गोयल को पत्र लिखकर यह सुझाव दिया था, कि इन दोनों स्टेशनों का इस्तेमाल इलाके के आस-पास के कुम्हारों को रोज़गार देने के लिये किया जाना चाहिए।
केवीआईसी अध्यक्ष वी.के. सक्सेना ने बताया, “हम कुम्हारों को बिजली से चलने वाले चाक दे रहे हैं, जिससे उनकी उत्पादकता 100 कुल्हड़ प्रतिदिन से 600 कुल्हड़ प्रतिदिन हो गयी है। इसलिए यह भी ज़रुरी है कि उन्हें बाज़ार दिया जाये, ताकि ये कुम्हार यहाँ अपने उत्पाद बेचकर कमाई कर सकें। हमारे प्रस्ताव पर रेलवे के सहमत होने से लाखों कुम्हारों को अब तैयार बाज़ार मिल गया है।”
कुम्हार सशक्तिकरण योजना के तहत सरकार भी कुम्हारों को बिजली से चलने वाले चाक वितरित कर रही है। वाराणसी में करीब 300 बिजली से चलने वाले चाक दिए गए हैं और 1,000 और ऐसे चाक वितरित किये जायेंगें। रायबरेली में अब तक 100 चाक वितरित किए गए हैं और 700 का वितरण शेष है। सक्सेना ने कहा कि केवीआईसी भी इस साल बिजली से चलने वाले करीब 6,000 चाक पूरे देशभर में कुम्हारों को वितरित करेगी।
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मणिपुर के तामेंगलोंग जिले के जिला कलेक्टर आर्मस्ट्रोंग पामे हमेशा से अपने किसी न किसी अच्छी पहल या फिर नेक काम के लिए ख़बरों में रहते हैं।
साल 2012 में उन्होंने मणिपुर, नागालैंड और असम को जोड़ते हुए 100 किलोमीटर लंबे रोड का निर्माण करवाया था। इस रोड को ‘पीपल्स रोड‘ के नाम से जाना जाता है और इस के निर्माण के लिए उन्होंने सरकार से कोई वित्तीय मदद नहीं ली थी।
साल 2017 में उन्होंने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को हर शुक्रवार अपने घर रात में खाने पर निमंत्रित करने की पहल शुरू की। इस पहल के पीछे उनका उद्देश्य बच्चों से बात कर, उनके सपनों और उनके विचारों को जानना है कि आने वाले समय में वे अपने जिले को किसा तरह का देखना चाहते हैं। उनकी इन्हीं सब अनोखी पहलों के कारण वे यहाँ ‘मिरेकल मैन’ के नाम से मशहूर हैं।
एक बार फिर मिज़ोरम के एक 11 साल के एक बच्चे की मदद करने के लिए यह आईएएस अफ़सर सुर्ख़ियों में है।
मिज़ोरम के लुंगलेई जिले में चुनावों के दौरान पामे की नियुक्ति हुई थी। यहाँ पर उनकी मुलाक़ात 11 वर्षीय लालरिंडीका से हुई, जिसके होंठों में क्लेफ्ट (कटा हुआ होंठ) था। विकृत होंठ या फिर पलैट (तालू) को क्लेफ्ट कहते हैं, जिसकी वजह से यहाँ की मांसपेशियां पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाती हैं और बोलने में व खाने में समस्या हो सकती है।
लालरिंडीका, मिज़ोरम में एक बहुत ही दूर-दराज के ज़ेहतात गाँव से है और उसके परिवार की भी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं है। इसलिए उसके परिवार के लिए उसके क्लेफ्ट की सर्जरी करवाना मुमकिन नहीं था।
लेकिन जब पामे को यह पता चला तो उन्होंने अपने खर्चे पर इस बच्चे की सर्जरी करवाने का फैसला किया। सर्जरी इम्फाल में होनी थी, पर लड़के के माता-पिता इम्फाल तक जाने का पूरा खर्च नहीं उठा सकते थे। इसलिए पामे ने उनकी लुंगलेई तक आने की व्यवस्था करवाई, जहाँ वे खुद तैनात थे।
वहाँ से, लालरिंडीका और उनके पिता, जिला कलेक्टर की गाड़ी में इम्फाल गये। यहाँ पामे की टीम पहले से ही इन दोनों की मदद के लिए तैयार थी।
लालरिंडीका की सर्जरी सफ़ल रही, जिसके बाद उसके पिता ने कहा, “हम पूरी ज़िंदगी उनके (पामे) ऋणी रहेंगे। हमें लगता है कि भगवान ने उन्हें हमारे लिए भेजा है।”
सिविल सर्विस में उनकी शानदार पहल और काम के लिए, आर्मस्ट्रोंग पामे का नाम साल 2012 में सीएनएन-आईबीएन द्वारा पब्लिक सर्विस केटेगरी में ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ अवार्ड के लिए नामित किया गया था। साल 2015 में, उन्हें ‘भारत के सबसे प्रतिष्ठित आईएएस अधिकारी’ के रूप में सम्मानित किया गया था। साल 2018 में उन्होंने 100 सबसे प्रभावशाली ‘भविष्य के लीडर’ सूची में भी जगह बनाई।
अपनी नौकरी और व्यक्तिगत तौर पर, दोनों ही जगह उनके काम में निरंतरता इस बात का प्रमाण है कि आम लोगों से मिलने वाले सम्मान और प्यार के वे सही हकदार हैं।
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बीते शनिवार, 19 जनवरी 2019 को दिल्ली पुलिस ने देर रात को काफ़ी जद्दोज़हद के बाद मानव तस्करी के एक बड़े अपराधी, लोपसंग लामा को गिरफ्तार किया। वैसे तो लामा नेपाल से है लेकिन अब उसका परिवार अरुणाचल प्रदेश में रहता है।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, लामा अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर नेपाली लड़कियों को नौकरी दिलवाने के बहाने उनकी अरब देशों में तस्करी करता था। पिछले साल ही दिल्ली पुलिस ने दिल्ली महिला आयोग के साथ मिलकर 16 नेपाली लड़कियों की दिल्ली में मुनिरका के एक फ्लैट से बचाया था। तब से ही दिल्ली पुलिस इस मानव तस्करी के मास्टरमाइंड लामा की तलाश में थी।
आख़िरकार, शनिवार को दिल्ली पुलिस ने इसे पकड़ ही लिया। हालांकि, लामा को गिरफ्तार करना दिल्ली पुलिस के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं था। पर दिल्ली पुलिस के साहसी कांस्टेबल मनोज त्यागी ने इस कुख्यात को पकड़कर ही दम लिया।
दरअसल, पिछले साल दिल्ली पुलिस की नज़रों में आने के बाद से लामा अंडरग्राउंड हो गया था। कई बार उसे पकड़ने के दिल्ली पुलिस के प्रयास असफल रहे। लेकिन कुछ समय पहले ही एसीपी संजय दत्त की टीम को सुचना मिली कि लामा अपने किसी साथी से मिलने वज़ीराबाद आएगा। इसलिए पुलिस की टीम पहले से ही चौकन्नी थी।
पुलिस को जैसे ही पता चला कि लामा कश्मीरी गेट पर आ रहा है; तो इंस्पेक्टर दलीप कुमार और अतुल त्यागी अपनी टीम के साथ यहाँ पहुंच गये और उसे घेर लिया। हालांकि, चारों तरफ पुलिस को देखकर उसने यमुना में छलांग लगा दी। उसे लगा कि ऐसे वो फिर एक बार बचकर भाग जायेगा।
पर उसके छलांग लगाते ही दिल्ली पुलिस के एक कांस्टेबल मनोज त्यागी भी तुरंत उसके पीछे नदी में कूद गये। लगभग 400 मीटर तक लामा का पीछा करने के बाद उसे पकड़ लिया।
स्पेशल सेल के डीसीपी संजीव कुमार यादव ने बताया कि 33 वर्षीय लामा पर अंतर्राष्ट्रीय मानव तस्करी का मुकदमा है और उसकी गिरफ्तारी पर एक लाख रूपये का इनाम भी था। नेपाली लड़कियों को भारत के रास्ते अरब देशों तक पहुँचाने के कई मुकदमे उस पर हैं।
लामा एक बार फिर दिल्ली पुलिस की गिरफ्त से बच निकलता; अगर कांस्टेबल मनोज त्यागी ने बहादुरी ना दिखाई होती। वरना किसी के लिए भी खून जमा देने वाली सर्दी में बर्फ़-से ठंडे पानी में कूदना आसान बात नहीं है। बेशक, हम सबको कांस्टेबल त्यागी पर गर्व है।
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अक्सर हम किसी न किसी को कहते सुनते हैं कि अगर आप ध्यान से देखें, तो आपको भारत के हर गली-मोहल्ले में एक से एक बेहतर खिलाड़ी मिल जाए। हमारे देश में खेल-प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है और ये बात समय-समय पर हर एक खेल में हमारे खिलाड़ी साबित करते आ रहे हैं।
पिछले साल, सितंबर में एक ही गाँव से भारतीय खेल प्राधिकरण ने 12 बच्चों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तैराकी के लिए चुना था। ये सभी बच्चे 10 से 13 साल तक की उम्र के हैं और छत्तीसगढ़ के गाँव पुरई से ताल्लुक रखते हैं। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि इन 12 बच्चों में से 10 बच्चे एक ही खानदान से हैं।
एक ही गाँव से इतने बच्चों का तैराकी के लिए चयनित होना; देश के अन्य भागों के लोगों के लिए भले ही नई बात है। पर इस गाँव के लोगों को इस बात की कोई हैरानी नहीं है। क्योंकि छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में स्थित यह गाँव, पहले से ही भारत के खेल-गाँव के नाम से मशहूर है।
इस गाँव के हर एक घर में आपको कम से कम एक खिलाड़ी तो मिल ही जायेगा और इन खिलाड़ियों ने जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर अपने गाँव का नाम रौशन किया है। गाँव का एक खिलाड़ी तो इंटरनेशनल खो-खो मैच में भारत का प्रतिनिधित्व भी कर चुका है।
गाँव की इस प्रतिभा के बारे में साल 2017 में ‘हमर छत्तीसगढ़ योजना’ के दौरान पता चला था। दरअसल, इस योजना के तहत राज्य भर की सभी ग्राम पंचायतों के मुखिया व सरपंचो को रायपुर भ्रमण पर बुलाया गया था। उस समय पुरई गाँव के सरपंच सुखित यादव ने गाँव की इस ख़ासियत के बारे में लोगों को बताया।
उन्होंने बताया कि गाँव के हर घर में कम से कम एक खिलाड़ी है। खेलों की बदौलत ही आज गाँव के 40 से भी ज्यादा युवा पुलिस, सेना और व्यायाम शिक्षक की नौकरियों में हैं। इन खिलाड़ियों को अभ्यास में कोई समस्या न हो इसलिए गाँव में एक मिनी स्टेडियम भी बनवाया गया है।
पहले गाँव में खुला मैदान तो था, लेकिन अभ्यास के दौरान वहाँ आने-जाने वालों की वजह से असुविधा होती थी और खेल में व्यवधान भी पड़ता था। मिनी स्टेडियम बन जाने से खिलाड़ी अब अपना पूरा ध्यान खेल पर लगा सकते हैं। खिलाड़ियों को बेहतर सुविधा मुहैया कराने और उनका हुनर निखारने के लिए ही ‘ग्राम समग्र विकास योजना’ के तहत 31 लाख रुपए की लागत से यह मिनी स्टेडियम बनावाया गया।
यादव ने बताया कि खेलों के कारण गाँव में लोग स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति भी जागरूक हैं। इससे यहाँ स्वच्छ भारत मिशन के कार्यो को भी अच्छी गति मिली है। खेलों के साथ-साथ गाँव वाले शिक्षा और बच्चों के कौशल विकास को लेकर भी सजग रहते हैं।
गाँव के 12 बच्चों का एक साथ तैराकी के लिए चयन; किसी उपलब्धि से कम नहीं है। इन बच्चों को गुजरात के गाँधीनगर में स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण द्वारा ओलिम्पिक के लिए ट्रेनिंग दी जाएगी। बच्चों की प्रतिभा को निखारने का श्रेय उनके कोच और गाँव के ही एक निवासी ओम ओझा को जाता है, जिन्होंने बच्चों को एक छोटे-से तालाब में तैराकी के गुर सिखाकर उन्हें इस काबिल बनाया है।
उम्मीद है कि देश के इस खेल-गाँव से लगातार ऐसी प्रतिभाएँ आगे आती रहेंगी और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रौशन होता रहेगा।
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पिछले कुछ समय से ट्विटर पर जारी #ThingsDisabledPeopleKnow के जरिये दुनियाभर से दिव्यांग लोग खुद से जुड़े मुद्दों और सामान्य धारणाओं के ऊपर खुलकर चर्चा कर रहे हैं। ऐसे में, भारत में दिव्यांग लोगों के लिए एक बहुत ही सकारात्मक कदम उठाया गया है।
सार्वजानिक स्थानों पर सुविधाओं की कमी के चलते दिव्यांगों को होने वाली परेशानी को देखते हुए, दिल्ली सरकार ने राजधानी में दिव्यांग-अनुकूल बस चलवाने का फ़ैसला किया है। इस बस में चढ़ने और उतरने के लिए सामान्य दो दरवाजों की जगह तीन दरवाजे होंगे।
योजना के अनुसार, इस पहल की पायलट स्टडी के लिए मार्च के अंत तक 25 बसें शुरू होंगी और ऐसी कुल 1, 000 बसें अक्टूबर के महीने तक पूरे शहर भर में दौड़ने लगेंगी। दिव्यांगों के लिए इन 1, 000 बसों को मिलाकर, दिल्ली में 4, 000 नई बसें शुरू करने का निर्णय किया गया है।
आठ साल बाद; दिल्ली में बसों की संख्या बढ़ाने का कदम उठाया गया है। वर्तमान में, दिल्ली परिवहन निगम (DTC) के पास 5,443 सार्वजनिक बसें हैं, जबकि जरूरत के हिसाब से लगभग 11, 000 बसें होनी चाहिए। हालांकि, इनमें से केवल 3,750 बसें ही दिव्यांगों के लिए अनुकूल हैं; जो कि लो-फ्लोर सीएनजी बसें हैं।
यह देश की राजधानी में पहला इस तरह का निर्णय है; जो कि शहर को दिव्यांग-अनुकूल बनाने की दिशा में लिया गया है।
परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, “इन नई बसों में तीन दरवाजे होंगे- एक सामने, एक बीच में और दूसरा पीछे। और अन्य प्रकार की बसें, जिन्हें हमने आज मंजूरी दी है, वे सामान्य क्लस्टर की बसें होंगी, पर इनमें व्हीलचेयर को आसानी से चढ़ने के लिए हाइड्रोलिक लिफ्ट रहेंगीं।
सोमवार को हुई एक बैठक में दिव्यांगों के अनुकूल स्टैण्डर्ड-फ्लोर की बसों के दो प्रोटोटाइप को अंतिम रूप दिया गया। इन बसों को शुरू करने की योजना में तकनीकी समस्यायों के चलते काफ़ी देर हो रही थी। क्योंकि, बसों को स्टैण्डर्ड फ्लोर रखें या फिर लो-फ्लोर, इस पर बहुत चर्चा हुई। पर अब स्टैण्डर्ड फ्लोर बसों में हाइड्रोलिक लिफ्ट लगवाई जाएँगी। इन बसों का परिवहन विभाग द्वारा परीक्षण भी किया गया है।
बेशक, यह कदम बेहतर भारत की दिशा में है और इस तरह के फ़ैसले देश के ढांचे को दिव्यांगों के अनुकूल बनाने के लिए मददगार साबित होंगें।
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हमारे देश में साल के 365 दिनों में से लगभग 300 दिन सूरज निकलता है। इसे अगर ऊर्जा के संदर्भ में देखा जाये तो इतने दिनों में सिर्फ़ सूर्य की किरणों से भारत लगभग 5, 000 खरब किलोवाट ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है।
भारत में सौर ऊर्जा उत्पन्न करने और उसके इस्तेमाल की क्षमता को देखते हुए; पिछले कुछ सालों में सौर ऊर्जा के क्षेत्र में काफ़ी काम शुरू हुआ है। आज भारत के 15 राज्यों में सोलर ऊर्जा की पॉलिसी हैं। सबसे पहले साल 2009 में गुजरात ने अपनी सोलर पॉलिसी लॉन्च की थी।
गुजरात की सोलर पॉलिसी कई राज्यों के लिए मॉडल बनी और अब गुजरात का एक गाँव और यहाँ के किसान, देश के अन्य सभी गाँवों और किसानों के लिए सौर ऊर्जा के सही इस्तेमाल पर एक अनोखा मॉडल दे रहे हैं।
गुजरात के खेड़ा जिले में स्थित ढूंडी गाँव में विश्व की पहली ‘सौर सिंचाई सहकारी समिति’ का गठन किया गया है। इस समिति का नाम है ‘ढूंडी सौर ऊर्जा उत्पादक सहकारी मंडली’ (DSUUSM)!
फोटो साभार: प्रवीण परमार
“साल 2016 में ढूंडी गाँव के छह किसानों ने मिलकर इस मंडली का गठन किया और आज इस मंडली में 9 किसान हैं। इस सहकारी समिति को अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (IWMI) की मदद से शुरू किया गया,” एक किसान और इस सहकारी मंडली के सेक्रेटरी प्रवीण परमार ने बताया।
इन सभी 9 किसानों के खेतों में 8 किलोवाट से लेकर 10.8 किलोवाट तक के सोलर पैनल और पंप लगाये गये हैं। सोलर पंप की मदद से किसान समय पर अपने खेतों की सिंचाई कर पाते हैं और सिंचाई के बाद इन सोलर पैनल से जो भी ऊर्जा उत्पादित होती है; उसे मध्य गुजरात विज कंपनी लिमिटेड (बिजली वितरण कंपनी) इन किसानों से खरीदती है।
परमार ने बताया कि सोलर ऊर्जा के इस सही इस्तेमाल से अब किसानों को पहले से कहीं ज्यादा फायदा हो रहा है। इन किसानों को अब सिंचाई के लिए डीज़ल वाले पंप पर पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है। इससे खेती में लागत काफ़ी कम हो गयी है और साथ ही, कंपनी जो बिजली इनसे खरीदती है, उसके लिए किसानों को 7 रूपये प्रति यूनिट के हिसाब से हर महीने पैसा मिला रहा है। जिस वजह से अब किसानों की अतिरिक्त आय भी हो रही है।
साल 2016 में गुजरात के आनंद में स्थित ‘अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान’ ने यह प्रोजेक्ट शुरू किया था। इनका मुख्य सेंटर कोलंबो में है और भारत में इसके दो केंद्र हैं, एक दिल्ली और दूसरा आनंद। इनका मुख्य काम कृषि क्षेत्र में जल प्रबंधन और भू-जल (ग्राउंड वाटर) के घटते स्तर पर शोधकार्य करना है। शोध के बाद ऐसे प्रोजेक्ट और पॉलिसी तैयार करवाना, जिसमें पानी भी बचाया जा सके और जो किसानों के लिए भी हितकारी हो।
आईडब्ल्यूएमआई, आनंद में कार्यरत सलाहकार राहुल राठोड़ ने बताया कि अपने शोध कार्यों से उन्हें पता चला कि कृषि में किसान अक्सर जरूरत से ज्यादा भू-जल का उपयोग करते हैं। जहाँ उन्हें सिर्फ़ 3 घंटे पानी चलाना है, वहां वे 4-5 घंटे चलाते हैं। इसके चलते धीरे-धीरे भू-जल का स्तर काफ़ी कम होता जा रहा है।
इसके अलावा अगर कहीं सुखा पड़ जाये या फिर कहीं बाढ़ के चलते किसानों की फसल बर्बाद हो जाये, तो उनके पास कमाई का कोई और साधन नहीं होता। ऐसे में किसान बैंकों या साहूकारों के कर्ज तले दब जाते हैं। राठोड़ ने कहा,
“आईडब्ल्यूएमआई का उद्देश्य कुछ ऐसा करना था जिससे किसान अत्याधिक पानी भी ना बर्बाद करें और साथ ही, उनके लिए एक अतिरिक्त कमाई का भी साधन हो।”
फोटो साभार: प्रवीण परमार
इस विचार के साथ आईडब्ल्यूएमआई ने यह प्रोजेक्ट शुरू किया। अब इस प्रोजेक्ट के चलते किसान निर्धारित समय में ही पानी निकालते हैं और बाकी समय में उत्पादित होने वाली ऊर्जा से उनकी अतिरिक्त कमाई हो रही है। परमार कहते हैं कि गाँव में सहकारी मंडली शुरू हुए दो साल हुए हैं। लेकिन इन दो सालों में ही किसानों के जीवन में काफ़ी बदलाव आया है। ये सभी किसान आज अपने आप में सोलर उद्यमी बन गये हैं।
अपने फायदे के साथ-साथ ये सभी ‘सोलर किसान’ ऐसे किसानों की मदद भी कर रहे हैं; जो अपने खेतों में पंप नहीं लगवा सकते हैं। पहले ऐसे छोटे-गरीब किसानों को उन लोगों से सिंचाई के लिए पानी खरीदना पड़ता था जिनके यहाँ डीज़ल वाले पंप हैं। इसके लिए उन्हें प्रति घंटे के हिसाब से 450 से 500 रूपये देने पड़ते थे।
पर अब सोलर पंप से पानी खरीदने के लिए उन्हें 200 रूपये से 250 रूपये ही खर्च करने पड़ते हैं। साथ ही, अब वे दिन में कभी भी सिंचाई कर सकते हैं क्योंकि अब उन्हें पंप के इंजन में बार-बार डीज़ल भरवाने की समस्या नहीं है।
परमार ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया,
“गाँव के जिस भी किसान ने दो साल पहले सोलर पैनल, पंप और माइक्रो ग्रिड लगवाने के लिए लगभग 55, 000 रूपये खर्च किये थे, आज उन किसानों की वार्षिक आय में लगभग 30, 000 रूपये का इज़ाफा हुआ है। अब उन्हें खेतों की सिंचाई के लिए किसी अतिरिक्त साधन पर खर्च करने की जरूरत नहीं है।”
इस विषय पर परमार ‘टेड टॉक’ में भी बात कर चुके हैं
जब धीरे-धीरे इन किसानों को मुनाफ़ा होने लगा और इनके खेतों में काफ़ी सौर ऊर्जा उत्पादित होने लगी, तो अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान की मदद से सहकारी मंडली ने गुजरात में बिजली वितरण करने वाली कंपनी के साथ एक एग्रीमेंट किया।
ढूंडी गाँव के किसानों के इस सफल सोलर मॉडल के बारे में जानकर गुजरात के ऊर्जा मंत्री सौरभ पटेल भी ‘ढूंडी सौर ऊर्जा उत्पादक सहकारी मंडली’ के किसानों और सेक्रेटरी प्रवीण परमार से मिलने आये। उन्होंने इस पूरे मॉडल पर चर्चा की।
अब गुजरात सरकार ने ढूंडी गाँव के इस सफल प्रयास के आधार पर ‘सुर्यशक्ति किसान योजना’ शुरू की है। इस योजना के पायलट प्रोजेक्ट को अभी गुजरात के 33 जिलों में शुरू किया गया है। इस योजना के मुताबिक, इन जिलों में किसान अपने खेतों में सोलर ऊर्जा उत्पादित कर; उसे 7 रूपये प्रति यूनिट के हिसाब से सात साल तक सरकारी बिजली कंपनियों को बेच सकते हैं। इसके अंतर्गत लगभग 12, 500 किसानों को लाभ पहुँचाने का उद्देश्य है।
फोटो साभार: प्रवीण परमार
इस योजना का उद्देश्य न सिर्फ़ किसानों को सोलर उद्यमी बना कर उनकी सिंचाई संबंधित परेशानियों को दूर करना है। बल्कि उनके लिए एक अतिरिक्त आय का साधन भी प्रदान करना है। ढूंडी के बाद, आईडब्ल्यूएमआई ने गुजरात के ही एक दुसरे गाँव, मुजकुआ में भी 11 किसानों की सहकारी मंडली के साथ काम शुरू किया है।
राठोड़ ने बताया कि अगर सरकार पूरे देश में इस तरह छोटी-छोटी सहकारी मंडली बनाकर काम करे तो, हम यक़ीनन किसानों की आय दुगुनी करने में सफल रहेंगे। पूरे भारत में लगभग 21 मिलियन डीज़ल-पंप की जगह सोलर पंप लग सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो कृषि के लिए बिजली की सब्सिडी का बोझ हट जायेगा, किसानों की आय बढ़ेगी, देश में ऊर्जा उत्पादन ज्यादा होगा और साथ ही, भू-जल की खपत को नियंत्रित किया जा सकेगा।
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22 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश भर से चुने गये 26 बच्चों को ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ से नवाज़ा। दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में यह समारोह रखा गया था। इन बच्चों को इनके बहादुरी भरे कारनामों और समाज के प्रति अपने दायित्व निभाने के लिए समानित किया गया।
इन बच्चों में मध्य-प्रदेश के मुरैना जिले से अद्रिका गोयल और उनके भाई कार्तिक गोयल को भी सम्मानित किया गया। पिछले साल जब मुरैना में एससी-एसती एक्ट के खिलाफ़ हिंसा की आग भड़की और आंदोलनकारियों ने मुरैना स्टेशन से गुजरने वाली एक पैसेंजर ट्रेन को अपना निशाना बनाया। तब इस बहन-भाई की जोड़ी ने अपनी जान की परवाह किये बिना लोगों की मदद की।
2 अप्रैल 2018 को जब मुरैना में नफ़रत की आग फैली हुई थी, तो इन दोनों बहन-भाई ने अपने नेक काम से इंसानियत में लोगों के विश्वास को बनाये रखा। अद्रिका और कार्तिक ने उस समय जो समझदारी और बहादुरी दिखाई, वह दिखाना बड़ों के लिए भी आसान नहीं है।
मुरैना स्टेशन पर आन्दोलनकारियों ने एक पैसेंजर ट्रेन को घेर लिया और घंटों तक उसे अपने कब्ज़े में रखा। उन्होंने ट्रेन पर पत्थर बरसाए तो बीच-बीच में गोलियाँ भी चलाई गयी। ट्रेन में फंसे यात्रियों का बुरा हाल था और खासकर वे लोग; जिनके साथ बच्चे थे। डर के साथ-साथ भूख-प्यास से भी लोगों का हाल बहुत बुरा था।
अद्रिका और उनके भाई कार्तिक ने जब यह खबर टीवी पर देखी तो वे खुद को रोक नहीं पाए। उनके घर में खाने-पीने का जो भी सामान था, उस सबको डिब्बों और थैलों में भरकर; वे जैसे-तैसे ट्रेन तक पहुंच गये। यहाँ उन्होंने यात्रियों को खाना और पानी देना शुरू किया।
उनके पिता अक्षत गोयल ने बताया, “हमारे घर से मुरैना स्टेशन सिर्फ़ 200 मीटर दूर है। दोनों बच्चे इन यात्रियों के लिए कुछ करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक कोच से दूसरे कोच जाकर यात्रियों को पानी और खाने की चीजें दीं।”
भारत बंद (2 अप्रैल, 2018) की कुछ तस्वीरें
इन नन्हें बच्चों को देख लोग हैरान थे। जो इतनी नफ़रत के बीच भी नेकी और इंसानियत का पैगाम दे रहे थे। गोयल ने आगे कहा, “उस समय हमें भी नहीं पता था कि दोनों बच्चे इतने पथराव के बीच लोगों की मदद कर रहे हैं। पर जल्द ही इनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं। इनसे प्रेरित होकर और भी स्थानीय लोग ट्रेन के यात्रियों की मदद के लिए आगे आये।”
इस घटना के अलावा और भी बातें हैं; जो 10 वर्षीय अद्रिका को बहुत खास बनाती हैं। उनके पिता ने बताया कि चार साल पहले उनके घर में आग लग गयी थी। तब अद्रिका सिर्फ़ छह साल की थीं और उन्हें काफ़ी चोट आई थी। डॉक्टरों ने कहा दिया था कि अद्रिका शायद कभी ना चल पायें।
पर यह अद्रिका और उनके परिवार का विश्वास और हौंसला था कि आज अद्रिका ना सिर्फ़ चल पा रहीं हैं; बल्कि उन्होंने कई अवॉर्ड्स भी जीते हैं। अद्रिका ने कराटे की ट्रेनिंग ली और 8 साल की उम्र में ब्लैक बेल्ट भी जीती। आज वे 20, 000 से भी ज्यादा बच्चों को कराटे की ट्रेनिंग चुकी हैं। इसके अलावा इंटरनेशनल इंग्लिश ओलिंपियाड में उन्होंने गोल्ड मेडल जीता है। साथ ही, अद्रिका हमेशा अपनी क्लास में प्रथम आती है।
डिफेंस मिनिस्टर एन. सीताराम ने भी अद्रिका को सम्मानित किया है। अद्रिका की ही तरह उनके भाई कार्तिक भी अपने टैलेंट के दम पर आगे बढ़ रहे हैं। कार्तिक के नाम देश का सबसे युवा स्केचर होने का ख़िताब दर्ज है।
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साल 2017 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मशहूर हिंदी लेखिका, निबंधकार कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी 1925 को हुआ था। उनका जन्म गुजरात में चेनाब नदी के पास एक छोटे से कस्बे में हुआ था और अब यह हिस्सा पाकिस्तान में है।
भारत के विभाजन के बाद वे दिल्ली में आकर बस गयीं और तब से यहीं रहकर उन्होंने साहित्य-सेवा की। सोबती के बारे में कहा जाता है कि इन्होंने हिन्दी की कथा-भाषा को अपनी विलक्षण प्रतिभा से अप्रतिम ताज़गी़ और स्फूर्ति प्रदान की है। उन्होंने पचास के दशक से ही अपना लेखन कार्य प्रारम्भ कर दिया था। इनकी पहली कहानी ‘लामा’ थी, जो साल 1950 में प्रकाशित हुई थी।
सोबती का नाम अक्सर उन लेखक-लेखिकाओं की फ़ेहरिस्त में शामिल हुआ; जिन्होंने देश के विभाजन, धर्म-जाति और खासकर, स्त्री के अधिकारों के मुद्दों पर अपनी लेखनी चलाई। सोबती ने अपने रचनाकाल में उपन्यास, लम्बी कहानियाँ, लघु कथाएं, और निबन्ध लिखे। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं- ‘बादलों के घेरे’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘तीन पहाड़’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक’ आदि।
उनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को जिया है। बहुत बार उनकी रचनाएँ हमारे दोगले और स्वार्थी समाज की नींव को हिलाती हुई नज़र आती हैं। अपने उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ पाने वाली वे पहली महिला हिंदी लेखिका थीं। इसके बाद भी उन्हें कई सम्मानों से नवाज़ा गया।
सोबती को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया तो बहुत से प्रसिद्द लेखकों और साहित्य-प्रेमियों ने कहा कि यह पुरस्कार सोबती को बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था।
साल 2017 में ही, 92 वर्ष की उम्र में उनकी ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक’ रचना प्रकाशित हुई। जिसमें उन्होंने अपने बचपन की यादों और विभाजन के बाद अपने घर को छोड़ दिल्ली आकर बसने के दर्द को बयान किया है। बँटवारे की तड़प और कुछ न कर पाने की टीस, इस पहले भी सोबती की रचनाओं में झलकी है।
25 जनवरी 2019 को कृष्णा सोबती ने 94 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से विदा ली। और अपने पीछे छोड़ गयीं अपनी उम्रभर की विरासत- ऐसी विरासत; जिसका ना तो कोई मोल है और ना ही शायद कोई इस विरासत की बराबरी कर सकता है।
आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िए, कृष्णा सोबती की एक लघु कथा- ‘सिक्का बदल गया’! भारत के बँटवारे की पृष्ठभूमि पर बुनी गयी यह कहानी बहुत ही मार्मिक रूप से एक औरत के दर्द को झलकाती है, जिसे अपना घर-ज़मीन और अपने लोग, सब कुछ छोड़कर सिर्फ़ अपने स्वाभिमान के साथ दहलीज़ के इस ओर आना है। सोबती ने बहुत ही प्रभावी तरीके से एक बूढ़ी औरत के जज़्बातों और दिल के गुबार को शब्दों में उतारा है, जिसे अपनी पूरी ज़िंदगी और ज़िंदगी भर की कमाई पीछे छोड़ कर; एक नई कर्मभूमि बनानी है।
सिक्का बदल गया
खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और ‘श्रीराम, श्रीराम’ करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी!
चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द था, लहरें लहरों को चूम रही थीं। वह दूर सामने काश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अनगिनत पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी!
आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुल्हन बनकर उतरी थी। और आज…आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं, यह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका! शाहनी ने लम्बी सांस ली और ‘श्री राम, श्री राम’, करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते आंगनों पर से धुआं उठ रहा था। टन-टन, बैलों की घंटियां बज उठती हैं। फिर भी…फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है। ‘जम्मीवाला’ कुआं भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियां हैं। शाहनी ने नजर उठायी। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नई फसल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गांवों तक फैली हुई जमीनें, जमीनों में कुएं सब अपने हैं। साल में तीन फसल, जमीन तो सोना उगलती है। शाहनी कुएं की ओर बढ़ी, आवाज दी, ”शेरे, शेरे, हसैना हसैना…।”
शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा! अपनी मां जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गंडासा ‘शटाले’ के ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला ”ऐ हैसैना-सैना…।” शाहनी की आवांज उसे कैसे हिला गयी है! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊंची हवेली की अंधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूकचियां उठाकर…कि तभी ‘शेरे शेरे…। शेरा गुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोध? शाहनी पर! चीखकर बोला ”ऐ मर गयीं एं एब्ब तैनू मौत दे”
हसैना आटेवाली कनाली एक ओर रख, जल्दी-जल्दी बाहर निकल आयी। ”ऐ आयीं आं क्यों छावेले (सुबह-सुबह) तड़पना एं?”
अब तक शाहनी नजदीक पहुंच चुकी थी। शेरे की तेजी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, ”हसैना, यह वक्त लड़ने का है? वह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर।”
”जिगरा !” हसैना ने मान भरे स्वर में कहा ”शाहनी, लड़का आखिर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुंह अंधेरे ही क्यों गालियां बरसाई हैं इसने?” शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ फेरा, हंसकर बोली ”पगली मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है! शेरे”
”हां शाहनी!”
”मालूम होता है, रात को कुल्लूवाल के लोग आये हैं यहां?” शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।
शेरे ने जरा रुककर, घबराकर कहा, ”नहीं शाहनी…” शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी जरा चिन्तित स्वर से बोली, ”जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर…” शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गये, पर… पर आज कुछ पिघल रहा है शायद, पिछली स्मृतियां…आंसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हंस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आंखों में उतर आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखा नहीं- नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल कर चुका है पर वह ऐसा नीच नहीं…सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आंखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डांट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए ‘शेरे-शेरे, उठ, पी ले।’ शेरे ने शाहनी के झुर्रियां पड़े मुंह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। ‘आंखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को जरूर बचाएगा।’ लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोंज की बात! ‘सब कुछ ठीक हो जाएगा सामान बांट लिया जाएगा!’
”शाहनी चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊं!”
शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मजबूत कदम उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा इधर-उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?
”शाहनी!”
”हां शेरे।”
शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले खतरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कैसे कहे?”
”शाहनी”
शाहनी ने सिर ऊंचा किया। आसमान धुएं से भर गया था। ”शेरे”
शेरा जानता है यह आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते रिश्ते सब वहीं हैं…
हवेली आ गयी। शाहनी ने शून्य मन से डयोढ़ी में कदम रक्खा। शेरा कब लौट गया उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी देह और अकेली, बिना किसी सहारे के! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन…लेकिन नहीं, आज मोह नहीं हट रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े सांझ हो गयी, पर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवांज सुनकर चौंक उठी।
”शाहनी-शाहनी, सुनो ट्रकें आती हैं लेने?”
”ट्रके…?” शााहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया। बात की बात में खबर गांव भर में फैल गयी। बीबी ने अपने विकृत कण्ठ से कहा ”शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना। गजब हो गया, अंधेर पड़ गया।”
शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा ”शाहनी, हमने तो कभी न सोचा था!”
शाहनी क्या कहे कि उसी ने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी कि वक्त आन पहुंचा। मशीन की तरह नीचे उतरी, पर डयोढ़ी न लांघ सकी। किसी गहरी, बहुत गहरी आवांज से पूछा ”कौन? कौन हैं वहां?”
कौन नहीं है आज वहां? सारा गांव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियां हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?
बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से जरा गला सांफ करते हुए कहा ”शाहनी, रब्ब नू एही मंजूर सी।”
शाहनी के कदम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसे? बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है ‘क्या गुंजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है…’
शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी बात नहीं। गाँव का गाँव खड़ा है हवेली के दरवाजे से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। तब से लेकर आज तक सब फैसले, सब मशविरे यहीं होते रहे हैं। इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है…
देर हो रही थी। थानेदार दाऊद खां जरा अकड़कर आगे आया और डयोढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे खेमे लगवा दिया करते थे। यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिये थे मुंह दिखाई में। अभी उसी दिन जब वह ‘लीग’ के सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था ‘शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा!’ शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये दिये थे। और आज…?
”शाहनी!” डयोढ़ी के निकट जाकर बोला ”देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ बांध लिया है? सोना-चांदी”
शाहनी अस्फुट स्वर से बोली ”सोना-चांदी!” जरा ठहरकर सादगी से कहा ”सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा सोना तो एक-एक जमीन में बिछा है।”
दाऊद खां लज्जित-सा हो गया। ”शाहनी तुम अकेली हो, अपने पास कुछ होना जरूरी है। कुछ नकदी ही रख लो। वक्त का कुछ पता नहीं”
”वक्त?” शाहनी अपनी गीली आंखों से हंस पड़ी। ”दाऊद खां, इससे अच्छा वक्त देखने के लिए क्या मैं जिन्दा रहूंगी!” किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।
दाऊद खां निरुत्तर है। साहस कर बोला ”शाहनी कुछ नकदी जरूरी है।”
”नहीं बच्चा मुझे इस घर से” शाहनी का गला रुंध गया ”नकदी प्यारी नहीं। यहां की नकदी यहीं रहेगी।”
शेरा आन खड़ा गुजरा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। ”खां साहिब देर हो रही है”
शाहनी चौंक पड़ी। देर मेरे घर में मुझे देर ! आंसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए…नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक है देर हो रही है पर नहीं, शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आंखें पोछीं और डयोढ़ी से बाहर हो गयी। बडी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! खुदा ने सब कुछ दिया था, मगर दिन बदले, वक्त बदले…
शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढाँपकर अपनी धुंधली आंखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन था, यही अन्तिम प्रणाम था। शाहनी की आंखें फिर कभी इस ऊंची हवेली को न देखी पाएंगी। प्यार ने जोर मारा सोचा, एक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आयी मैं? जी छोटा हो रहा है, पर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है उनके सामने वह छोटी न होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चुका। सिर झुकाया। डयोढ़ी के आगे कुलवधू की आंखों से निकलकर कुछ बन्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दी ऊंचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद खां, शेरा, पटवारी, जैलदार और छोटे-बड़े, बच्चे, बूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।
ट्रकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे, खूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद खां ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवांजा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवाज से कहा ”शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!” और अपने साफे से आंखों का पानी पोछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, ”रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, खुशियां बक्शे…।”
वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। जरा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हम, हम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए, ”शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलट गया” शाहनी ने कांपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा ”तैनू भाग जगण चन्ना!” (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद खां ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियां शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।
अन्न-जल उठ गया। वह हवेली, नई बैठक, ऊंचा चौबारा, बड़ा ‘पसार’ एक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आंखों में! कुछ पता नहींट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है। आंखें बरस रही हैं। दाऊद खां विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहां जाएगी अब वह?
”शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वक़्त ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है…”
रात को शाहनी जब कैंप में पहुंचकर जमीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा ‘राज पलट गया है…सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी।…’
और शाहजी की शाहनी की आंखें और भी गीली हो गयीं!
आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गांवों में रात खून बरसा रही थी।
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मुंबई ऑटो रिक्शा चालकों ने एक बन्दर की जान बचायी। इस बन्दर को इलेक्ट्रिक शॉक लगने के कारण बहुत गहरी चोट आई थी। इस बेज़ुबान जीव को इतने दुःख और दर्द में देख, ये रिक्शा चालक खुद को उसकी मदद करने से रोक नहीं पाए और तुरंत अपना दिन भर का काम छोड़ कर बन्दर को जानवरों के डॉक्टर के पास लेकर गये।
मानखुर्द के निवासी, 23 वर्षीय ऑटो-ड्राईवर दिलीप राय ने बताया कि उन्होंने इस बन्दर को सबसे पहले इस इलाके में नवम्बर, 2018 में देखा था। ऑटो रिक्शा स्टैंड के पास एक साईं बाबा मंदिर है और वहीं एक पेड़ को उसने अपना ठिकाना बनाया हुआ था। बहुत बार ये लोग उसे फल भी खिलाते थे। तीन दिन पहले यह बन्दर कहीं गायब हो गया था। पर बीते मंगलवार की सुबह यह फिर से मंदिर के पास दिखा।
राय ने आगे बताया कि बन्दर को देखकर ही समझ आ गया कि वह बुरी तरह से जल गया है और वह चल भी नहीं पा रहा था। तब राय ने इसके बारे में अपने दोस्तों, शिराज़ खान, महेश गुप्ता और शभाजीत राय से बात की। इन चारों दोस्तों ने फ़ैसला किया कि वे इसे किसी जानवरों के डॉक्टर के पास ले जायेंगें।
इन्टरनेट पर तलाश करने पर उन्हें वन्यजीव पशु चिकित्सक डॉ. रीना देव का नंबर और पता मिला और वे तुरंत इस बन्दर को लेकर डॉक्टर के यहाँ पहुँचे। बन्दर को डॉक्टर के पास ले जाने के लिए ये लोग 14 किलोमीटर दूर बांद्रा गये और इसके लिए इन्होंने पूरे दिन के लिए अपने काम को छोड़ा। एक पूरा दिन काम न करना किसी भी ऑटो ड्राईवर के लिए बड़ी बात है; क्योंकि इससे उनकी कमाई पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है।
डॉ. देव इन चारों की इंसानियत देख काफ़ी प्रभावित हुईं। उन्होंने बताया कि चारों दोस्त अपना सारा काम छोड़ बन्दर को लेकर आये। वे उसे मेरे पास छोड़कर ही नहीं चले गये; जैसा कि ज़्यादातर मामलों में होता है। बल्कि, चारों ने उसका इलाज करने में मेरी काफ़ी मदद की।
अभी बन्दर की हालत में सुधार आ रहा है। राय और उसके दोस्त इस बन्दर को ठाणे के वन्यजीव वार्डन और मुलुंड में रेसकिंक एसोसिएशन फॉर वाइल्डलाइफ वेलफेयर (RAWW) के अध्यक्ष पवन शर्मा के पास भी लेकर गये। शर्मा ने कहा कि नागरिकों के इस तरह के कामों की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि यह जानवरों के लिए प्यार और करुणा भाव जागृत करने में मदद करता है।
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“बिहार में अपने गाँव में; मैं प्राथमिक स्कूल का टीचर था। मुझे मेरा एक विद्यार्थी अभी भी याद है- वह छोटा-सा लड़का बहुत गरीब परिवार से था। वह बहुत होशियार था और उसमें सीखने की चाह थी, पर उसके माता-पिता स्कूल की किसी भी चीज़ का खर्च नहीं उठा सकते थे– उसके पास किताब, कॉपी और पहनने के लिए वर्दी तक नहीं होती थी। मेरे दिल ने कहा कि मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए। मैंने निर्णय किया कि मैं अपनी सैलरी से उसकी किताब, कॉपी, पेन और वर्दी का खर्च दे दिया करूँगा। पर समय के साथ, जब उसके परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ती चली गयी और वह लड़का स्कूल छोड़ने की कगार पर था। तो मैंने उसकी स्कूल की फ़ीस भी भरना शुरू किया। ऐसा नहीं था कि मैं बहुत सम्पन्न था, पर मेरे पास इतना था कि मैं अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर सकूं। मुझे नहीं लगा कि मैं भविष्य के लिए बचत करूँ, जब मैं उस पैसे से किसी का आज संवार सकता हूँ… तो मैंने इस बारे में कभी नहीं सोचा!
स्कूल के बाद भी हम सम्पर्क में रहे। उसे उसकी कॉलेज की फ़ीस के लिए लोन मिल गया था… उसे हमेशा से पता था कि उसे डॉक्टर बनना है। जब भी वह मुझे फ़ोन करता तो मैं उसे कहता कि जब भी किसी चीज़ की जरूरत हो, तो मुझे याद करे। पर उसने यह सब मैनेज करने का तरीका ढूंढ लिया था– वह पढ़ाई के साथ-साथ कुछ काम करके अपनी पढ़ाई के लिए ज़रूरी सभी चीजें जुटा लेता था। आज वह एक डॉक्टर है… उसकी मेहनत रंग लायी और मेरा दिल गर्व से भर जाता है कि वह मेरा छात्र है। अब भी वह हर दूसरे हफ्ते मुझे फ़ोन करता है और गाँव में मुझसे मिलने भी आता है; जबकि उसे शहर में इतना काम है! मैंने उसे बड़े होते देखा है; स्कूल के एक गरीब लड़के से लेकर एक सफ़ल डॉक्टर बनने तक और उसके इस सफ़र का मैं भी हिस्सा रहा। बस यही बात मुझे महसूस कराती है कि मैंने ज़िंदगी को पूरी तरह से जिया है…. एक पूरी ज़िंदगी!”
“I used to be a primary school teacher in my village in Bihar. I remember one of my students in particular — a small…
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समाज एक सनातन प्रक्रिया है.
हम क्या थे, कहाँ से आ रहे हैं, क्या ठीक किया, क्या ग़लत हुआ. आज का देश और समाज भूतकाल की कुल घटनाओं का निष्कर्ष है. इतिहास पर एक दृष्टि और चिंतन ही हमारे आने वाले कल की कल्पना गढ़ता है.
इतिहास का हाथी कैसे बाँचा जाय?
किसी ने सूँड लिखी, किसी ने पूँछ. जिस राजा ने लिखवाई अपनी प्रशस्ति लिखवाई. जिसने नहीं लिखवाया कुछ वो गर्त में गया. समय ने दिखाया है कि वर्तमान में भी इतिहास का बेड़ा गर्क किया जा सकता है. जिसकी लाठी उसका इतिहास? जिसके हाथ में माइक – बस सुनेंगे उसकी बकवास? आजकल इतिहास हमें बदला लेना भी सिखा रहा है. चलो चार सौ साल पहले के दुष्कर्मों को आज ठीक करते हैं. पता कीजिये शायद आपके दादाजी को किसी ने गाली दी हो, चाँटा मारा हो.. जाइये अब उनके पोतों से उसका बदला लीजिये.
ये सब कहने का मतलब यह है कि इतिहास को समझने के लिए इंसान में विवेक भी हो, वरना जिसका जो जी चाहेगा इतिहास को घुमा फिरा कर अपना उल्लू सीधा करने निकल पड़ेगा।
26 जनवरी
26 जनवरी पहली बार 1930 में महत्त्वपूर्ण बनी. इससे लगभग एक महीने पहले 31 दिसंबर 1929 को कॉंग्रेस के लाहौर अधिवेशन में नेहरू जी की अध्यक्षता में पूर्ण स्वराज की माँग की गयी थी और इसी दिन रावी के किनारे पहली बार तिरंगा फहराया गया था. तब लोगों से अपील की गई कि 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाए.
हालाँकि आज़ादी मिलने में हमें अभी भी कोई सत्रह साल लगे लेकिन 26 जनवरी सभी के ज़हनों में एक महत्वपूर्ण तारीख़ बन चुकी थी. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान गढ़ने के लिए ‘संविधान सभा’ का गठन हुआ जिसके अध्यक्ष भीमराव रामजी अम्बेडकर थे. कई लोगों को ग़लतफ़हमी भी हो जाती है कि सिर्फ़ एक अकेले इंसान बाबासाहेब अम्बेडकर ने ही पूरा संविधान लिखा है. लेकिन सच है कि उनकी सदारत में संविधान सभा ने इस कार्य को अंजाम दिया था. जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के अन्य प्रमुख सदस्य रहे हैं.
आज़ादी के तकरीबन पाँच महीने बाद दिसंबर, 1947 में संविधान सभा ने औपचारिक तौर पर काम शुरू किया और तीन वर्षों से कुछ कम समय में (2 वर्ष, 11 माह, 18 दिनों में) 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पारित कर दिया गया. (इस दिन को संविधान दिवस घोषित किया गया है). अब इस दिन के बाद भी काट-छाँट चलती रही और लगभग दो महीने बाद
24 जनवरी 1950 को संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर सभा के 308 सदस्यों ने हस्ताक्षर किये. और इसके दो दिन पश्चात् 26 जनवरी, 1950 को लगभग 1,45,000 शब्दों का विश्व का सबसे लम्बा लिखित संविधान हमारे देश में लागू कर दिया गया.
हम सभी संविधान के मूल्यों को समझ सकें और उन पर कायम रह सकें, इस कामना के साथ. आज आपके लिए है एक ख़ास प्रस्तुति :
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लेखक – मनीष गुप्ता
हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.
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भारत के संविधान को बनाने में पूरे 2 साल, 11 महीने और 18 दिन का समय लगा। वैसे तो संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हुआ, पर लागू 26 जनवरी 1950 को हुआ। शायद इसी दिन भारत सही मायनों में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बना। इसलिए इस दिन को ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
इतने सालों में हमारे संविधान में समय-समय पर कई संशोधन भी होते आये हैं, पर अगर कुछ नहीं बदला है, तो वह है संविधान की ‘रूह,’ जो भारत देश के हर एक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, शिक्षा आदि जैसे मौलिक अधिकार देती है।
‘भारतीय संविधान के जनक’ बाबा साहेब आंबेडकर ने भारतीय संविधान को जिस अस्मिता और गरिमा से गढ़ा, उसे बनाये रखने के लिए हमारे देश में बहुत से न्यायधीश, वकील और न्यायविदों ने खुद को समर्पित किया है। ऐसे ही एक वकील और न्यायविद थे नानी पालकीवाला, जो भारत के आम लोगों की आवाज़ बने।
नानी पालकीवाला को आज भी न्यायालयों के गलियारों में भारत के संविधान और इसके नागरिकों के अधिकारों का रखवाला कहा जाता है।
आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए, आम नागरिकों के अधिकारों की पैरवी करने वाले विख्यात वकील नाना पालकीवाला की अनसुनी कहानी!
नानाभोय ‘नानी’ अर्देशिर पालकीवाला एक भारतीय वकील थे, जिन्होंने संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के महत्व के बारे में हमेशा चर्चा की। नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए किये गए उनके तर्कों ने सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक की दीवारें हिला दी थीं।
पालकीवाला का जन्म 16 जनवरी, 1920 को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक पारसी परिवार में हुआ था। हमेशा से ही पढ़ाई में दिलचस्पी रखने वाले पालकीवाला युवावस्था में हकलाते थे। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हकलाने वाला यह बच्चा एक दिन भारत के न्यायालयों में बिना रुके ऐसी-ऐसी दलीलें देगा कि बड़े-बड़ों की भी बोलती बंद हो जाएगी।
उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज से इंग्लिश में मास्टर्स की। इसके बाद उन्होंने लेक्चरर के पद के लिए बॉम्बे यूनिवर्सिटी में आवेदन किया था। हालांकि, वह नौकरी किसी और को मिली। ऐसे में निराश होने की बजाय पालकीवाला ने आगे और पढ़ने की सोची और बॉम्बे के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में कानून की पढ़ाई के लिए आवेदन दिया।
उन्होंने अपनी डिग्री पूरी की और साल 1946 में बार में शामिल हो गये। उन्होंने प्रसिद्ध जमशेदजी बेहरामजी कंगा के साथ काम करना शुरू किया। बतौर असिस्टेंट उनका पहला केस ‘नुसरवान जी बलसारा बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे’ था जिसमें बॉम्बे शराबबंदी कानून को चुनौती दी गयी थी। उन्होंने जमशेदजी के साथ मिलकर ‘द लॉ एंड प्रैक्टिस ऑफ इनकम टैक्स’ किताब का सह-लेखन भी किया।
साल 1950 तक उन्होंने खुद पैरवी करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे उनके मुकदमों के ज़रिये लोग उन्हें जानने लगे। हालांकि, अपने करियर का एक महत्वपूर्ण मुकदमा उन्होंने साल 1954 में लड़ा।
1954 में नानी पालकीवाला ने एंग्लो-इंडियन स्कूल बनाम महाराष्ट्र सरकार केस में पैरवी की थी। इस केस में बहस के दौरान उन्होंने संविधान की धारा 29 (2) और 30 का हवाला दिया, जिनके तहत अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा की गयी है। हाई कोर्ट से सरकार के ख़िलाफ़ आदेश पारित करवाकर पालकीवाला जीत गए। राज्य सरकार इस मसले को सुप्रीम कोर्ट तक ले गयी, लेकिन वे वहां भी जीत गए। कुछ ही सालों में वे इतने मशहूर हो गए उनकी दलील और पैरवी सुनने के लिए कोर्ट रुम में भीड़ जमा होती थी।
‘नानी पालकीवाला: ए रोल मॉडल’ के लेखक मेजर जनरल निलेन्द्र कुमार के अनुसार, पालकीवाला ने अपने करियर में 140 महत्वपूर्ण मुकदमे लड़े थे। टैक्स और कॉर्पोरेट मामलों में नानी पालकीवाला को महारत हासिल थी, पर वे हमेशा ही जनता की आवाज़ बने।
नानी पालकीवाला के लिए ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ केस शायद उनकी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण केस था। इस मुकदमे को भारतीय संविधान की रूह को अक्षुण रखने वाला सबसे महान मामला कहा जाता है।
संविधान के अपने पहले संशोधन के माध्यम से, संसद ने संविधान की नौवीं अनुसूची को जोड़ा था, जिसके तहत कुछ कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर थे। जवाहरलाल नेहरू सरकार ने इन्हें इसलिए संविधान में जोड़ा था ताकि न्यायपालिका उनके भूमि सुधारों में हस्तक्षेप न कर पाए।
पर उस समय भी ‘सम्पत्ति का अधिकार’ मौलिक अधिकार था और जब सरकार ‘भूमि सुधार’ अभियान पर काम कर रही थी, तो कई बार उन्हें न्यायालयों की चौखट पर आना पड़ा। और इन सभी मुकदमों में कोर्ट ने नागरिकों के पक्ष को ऊपर रखा।
हालांकि, इस बार मामला केरल के कासरगोड जिले में एक मठ चलाने वाले स्वामी केशवानंद और राज्य सरकार के बीच था, जो भूमि सुधार एक्ट के नाम पर उनकी ‘संपत्ति के प्रबंधन’ पर प्रतिबंध लगवाना चाहती थी। ताकि, स्वामी केशवानंद के पास उसकी सम्पत्ति का कोई अधिकार न रहे।
इस केस में पालकीवाला ने स्वामी का बचाव करते हुए, उन्हें आर्टिकल 26 के अंतर्गत मुकदमा दायर करने के लिए कहा क्योंकि कोई भी सरकार उनकी धार्मिक संपत्ति के सञ्चालन में अवरोध नहीं लगा सकती है। इस केस में सुप्रीम कोर्ट की स्पेशल बेंच ने फ़ैसला सुनाया, “अनुच्छेद 368 (जो संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार देता है) संसद को संविधान की मूल संरचना या रूपरेखा को बदलने का धिकार नहीं देता।”
इसी निर्णय ने “मूल संरचना” सिद्धांत को जन्म दिया, जिसके साथ अन्य प्रावधानों के साथ आम नागरिकों को संविधान जो “बुनियादी सुविधाएँ” देता है; वह हैं नागरिकों के मौलिक अधिकार।
फोटो साभार
इस ऐतिहासिक मुकदमे के लिए हमेशा पालकीवाला को याद किया जायेगा। लोग न सिर्फ़ मुकदमों में उनकी दलील या बहस सुनने जाते थे, बल्कि लोग बजट भी पालकीवाला से सुनना पसंद करते थे। कहा जाता था कि बजट पर दो ही भाषण सुने जाने चाहिए- एक वित्त मंत्री का बजट पेश करते हुए और दूसरा नानी पालकीवाला का उसकी व्याख्या करते हुए। उनके व्याख्यान इतने लोग सुनते कि मुंबई में स्टेडियम बुक किए जाते थे।
1970 के दशक में तत्कालीन कानून मंत्री पी गोविंद मेनन ने उनको अटॉर्नी जनरल बनने की पेशकश की थी। पर उन्होंने सरकार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि अगर वे इस पद पर बैठ गये तो आम लोगों की आवाज़ नहीं बन पायेंगें। कुछ इसी तरह जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनने का ऑफर आया तो उन्होंने तब भी विनम्रता से इसे अस्वीकार कर दिया।
साल 1977 से लेकर 1979 तक नानी पालकीवाला अमेरिका में भारतीय राजदूत रहे। यहाँ एक बार अपने भाषण में उन्होंने कहा था,
“भारत एक ग़रीब देश है, हमारी ग़रीबी भी एक ताक़त है जो हमारे राष्ट्रीय स्वप्न को पूरा करने में सक्षम है। इतिहास गवाह है कि अमीरी ने मुल्क तबाह किये हैं, कोई भी देश ग़रीबी में बर्बाद नहीं हुआ… हमारी सभ्यता 5000 साल पुरानी है। भारतीयों के जीन इस तरह के हैं जो उन्हें बड़े से बड़ा कार्य करने के काबिल बनाते हैं।”
वे अमेरिका में इतने लोकप्रिय हुए कि वहां के बड़े-बड़े विश्वविद्यालय उन्हें लेक्चर देने के लिए आमंत्रित करते थे।
अक्सर पालकीवाला के लिए कहा जाता है कि वे ‘राष्ट्र के अन्तःकरण’ को बनाए रखने वालों में से थे। साल 1998 में उन्हें ‘पद्मविभुषण’ से नवाज़ा गया।
साल 2002 में 82 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। पालकीवाला जैसे लोग विरले ही जन्म लेते हैं। वे सच्चे मायनों में भारत के ‘अनमोल रत्न’ थे। उनके जैसे महान व्यक्तित्व के लिए बस यही श्रद्धांजलि होगी कि हम अपने देश के संविधान को जाने-समझे और इसकी गरिमा बनाये रखें।
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