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पुरुष-प्रधान सोच को चुनौती देती भारत की ‘ढोल गर्ल’, जहान गीत सिंह!

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“कुड़िये; कुट्ट के बजा, मुंडेया वांगु बजा”

पने उस्ताद की इस बात ने 14 साल की जहान को जैसे नींद से जगा दिया। ‘मुंडेया वांगु’ का मतलब होता है ‘लड़कों जैसे’। ये शब्द उसके दिल को ऐसे चुभे कि जहान ने दिल ही दिल कसम खाई कि, “मैं तो लड़कियों जैसे ही बजाऊँगी और अच्छा बजाऊँगी”!

आज 21 साल की जहान गीत सिंह को लोग भारत की ‘ढोल गर्ल’ के नाम से जानते हैं।

जहान गीत सिंह

चंडीगढ़ में रहने वाली जहान, फ़िलहाल पंजाब यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई कर रही हैं। अपनी पढ़ाई के साथ-साथ, जहान ढोल बजाने के अपने शौक और जुनून को भी आगे बढ़ा रही है।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए जहान ने कहा, “मेरा परिवार हमेशा से ही अपनी संस्कृति से बहुत जुड़ा हुआ था। मैंने हमेशा से ही अपने पापा से सुना था कि वे अपने कॉलेज में डांस या नाटक जैसी कल्चरल गतिविधियों में हिस्सा लेते थे। इसलिए मेरा भी हमेशा इन सब चीज़ों से लगाव रहा।”

पिछले 7 सालों से ढोल बजा रही जहान ने बताया कि जब उन्होंने तय किया कि उन्हें ढोल सीखना है , तब उन्हें बिल्कुल भी नहीं लगा था कि वे कुछ बहुत अलग कर रही हैं।

“एक बार स्कूल से लौटते समय मैंने रास्ते में कुछ लोगों को ढोल बजाते देखा था। उनके चेहरे पर कुछ अलग ही नूर था, जिसे देख कर मुझे लगा कि बस मुझे भी ढोल सीखना है,” जहान ने आगे कहा।

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जब ये बात उन्होंने अपने माता-पिता से कही, तो उन्हें बहुत हैरानी हुई। क्योंकि हमने हमेशा ढोल को सिर्फ़ पुरुषों के गले में लटका देखा है और शायद इसलिए कभी सोचा ही नहीं कि एक लड़की भी ढोल बजा सकती है।

पर जहान के इस एक सवाल ने सिर्फ़ उनकी ही ज़िंदगी का रुख नहीं बदला; बल्कि हमारे देश में लोगों की सोच को भी चुनौती दी।

फोटो साभार: जहान गीत सिंह

जहान को अपने इस शौक को पूरा करने के लिए परिवार का पूरा साथ मिला। उनके पापा ने दूसरे दिन से ही उनके लिए एक उस्ताद ढूँढना शुरू किया, जो उन्हें ढोल बजाना सिखा सके। पर उन्हें सब जगह ‘ना’ ही सुनने को मिली, क्योंकि कोई भी एक लड़की को ढोल बजाना नहीं सिखाना चाहता था। उन्होंने बताया,

“सिखाने के लिए मना करना तो एक बात थी, पर जब वे सुनते थे कि लड़की को ढोल बजाना सिखाना है तो उनके चेहरे पर मेरे लिए एक हीन भावना आ जाती थी। ऐसा लगता था कि ये लोग मुझसे सवाल कर रहे हो कि एक लड़की ऐसा सोच भी कैसे सकती है। कई बार तो मुझे भी लगने लगता कि मैंने ऐसा क्या मांग लिया? मैं तो बस ढोल बजाना सीखना चाहती हूँ, जैसे बहुत से लोग गिटार या सितार जैसी चीज़े सीखते हैं।”

ज्यादातर लोगों के लिए इस बात को पचाना ही बहुत मुश्किल था कि एक अच्छे-खासे परिवार की लड़की ढोल बजाना और सीखना चाहती है। इसका नतीजा यह था कि बहुत जगह कोशिश करने के बाद भी उनको ढोल सिखाने के लिए कोई तैयार नहीं हो रहा था। पर जहान के पापा ने हार नहीं मानी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छे उस्ताद की उनकी तलाश जारी रही।

बहुत मुश्किलों के बाद एक ढोली, सरदार करतार सिंह उन्हें ढोल सिखाने के लिए तैयार हो गये। उस वक़्त शायद करतार सिंह को भी लगा था कि ये जहान का दो-चार दिन का शौक है और जल्दी ही, वो खुद सीखने से मना कर देगी। जहान ने बताया,

“उस्ताद जी ने मुझे घर आकर सिखाना शुरू किया। जैसे-जैसे वक़्त जाने लगा, तो उन्हें समझ में आया कि ढोल सीखना सच में मेरा जुनून है। इसके बाद उन्होंने पूरे दिल से मुझे सिखाना शुरू किया। आज तक वही मेरे उस्ताद हैं। उन्होंने मुझे बहुत बारीकी से सिखाया कि ढोल कैसे बनता है, क्या-क्या बीट होते हैं, किस बीट का क्या महत्व है, आदि सब बातें पूरे विस्तार से और बहुत ही अच्छे से समझायी, ताकि ये सिर्फ़ मेरे लिए शौकिया न रहे बल्कि मुझे ढोल की समझ भी हो।”

14 साल की उम्र में जहान ने ढोल बजाना सीखना शुरू कर दिया। पर यह तो उनके संघर्ष की बस शुरुआत भर थी।

फोटो साभार: फेसबुक

उस उम्र में ढोल के वजन को संभालना भी जहान के लिए एक बड़ी चुनौती रही। क्योंकि ढोल को उठाकर उसे सिर्फ़ 5 मिनट बजाने के लिए भी बहुत ताकत और सहन-शक्ति की ज़रूरत होती है। इसके लिए उन्होंने अपने खाने-पीने पर खास ध्यान दिया। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी सहनशीलता पर काम किया। बहुत बार प्रैक्टिस करते समय उनके हाथों में छाले पड़ जाते थे और कई बार तो खून भी निकलने लगता। पर जहान को बस धुन सवार थी कि उन्हें भी बाकी ढोलियों की तरह घंटों तक ढोल बजाना है।

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कुछ वक़्त तक सीखने के बाद उन्होंने अपनी पहली पब्लिक परफॉरमेंस चंडीगढ़ के कलाग्राम में नॉर्थ ज़ोन कल्चर सेंटर में दी। जहान ने बताया,

“उस दिन वहां पर जितने भी लोग थे उनके लिए यह बहुत नया था। उन्होंने ऐसा कुछ देखा ही नहीं था। मेरी परफॉरमेंस के बाद कुछ पल के लिए सब खामोश थे, क्योंकि उन्हें लगा था कि शायद मैं सिर्फ़ ढोल को ऐसे ही लेकर स्टेज पर आई हूँ और उसे साइड में रखकर डांस या फिर कुछ और करुँगी। पर उन्होंने सोचा ही नहीं कि एक 14 साल की लड़की ढोल बजाएगी।”

वहां लोगों ने जहान को सराहा और उन्हें लोगों से काफ़ी तारीफ़ भी मिली। पर जब उन्होंने इस बारे में अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को बताया कि उन्होंने ढोल परफॉरमेंस दी है, तो उन्हें बहुत ही अलग प्रतिक्रिया मिली। उन्हें लोगों के ताने और दकियानूसी बातें सुनने को मिली।। बहुत से लोगों ने कहा कि शर्म नहीं आती, जो ढोल बजा रही है; कुछ अच्छा कर लेती। जहान ने बताया,

“लोगों को लगता है कि ढोल बजाना सिर्फ़ एक तबके या जाति के लोगों का काम है। जब मैं ढोल बजाने कहीं जाती थी तो लोगों को यही लगता कि मैं भी उसी तबके से आती हूँ और इसलिए मजबूरी में यह काम कर रही हूँ। कोई भी यह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि एक अच्छे-खासे घर की लड़की भी ढोल बजाना सीख सकती है।”

जहान जब भी कहीं परफॉर्म करने जाती, तो उन्हें बाकी ढोलियों से भी चुनौती मिलती कि क्या वह एक पुरुष-ढोली जितना अच्छा ढोल बजा सकती हैं। इतना ही नहीं, उनके उस्ताद को भी लोग ताने देते कि उन्होंने अपनी कला, अपना एक गुर, एक लड़की को दिया है। पर जहान की मेहनत और जुनून ने उन्हें कभी भी रुकने नहीं दिया।

धीरे-धीरे उनकी एक अलग पहचान बनना शुरू हुई। उन्होंने अपनी परफॉरमेंस के बाद स्टेज पर बात करना भी शुरू किया। उन्होंने लोगों को अपने बारे में बताया कि ढोल बजाना उनकी मजबूरी नहीं बल्कि उनका शौक है और वे अपनी संस्कृति की शान के प्रतीक ‘ढोल’ को और आगे बढ़ा कर एक नया मुकाम देना चाहती हैं।

पिछले 7 सालों में जहान ने 300 से भी ज़्यादा समारोह और इवेंट में ढोल बजाया है। सबसे पहले उनके बारे में साल 2011 में ब्रिटेन की एक मैगज़ीन ‘टॉम टॉम‘ ने लिखा था। जहान भारत की सबसे युवा लड़की ढोली हैं और अब यह उनकी पहचान का एक हिस्सा है।

‘टेड एक्स’ चंडीगढ़ में जहान गीत सिंह

इसके बाद जहान को कई स्थानीय टीवी चैनल जैसे पीटीसी पंजाब और रेडियो स्टेशन पर बुलाया जाने लगा। उन्हें जोश टॉक, टेड टॉक जैसे इवेंट में भी अपना अनुभव साझा करने का मौका मिला। उन्होंने नेशनल टीवी के रियलिटी शो, ‘एंटरटेनमेंट के लिए कुछ भी करेगा’ और ‘इंडियाज़ गोट टैलेंट’ में भी अपने ढोल की छाप छोड़ी है। बहुत से अवॉर्ड्स, पुरस्कार और सर्टिफिकेट्स से उन्हें नवाज़ा गया है।

जहान कहती हैं, “मैंने अपने भाषणों में लोगों को बताया कि मैं एक स्टूडेंट हूँ और अपनी पढ़ाई करते हुए अपने शौक और अपने जुनून को भी आगे बढ़ा रहीं हूँ। यह करने का हक़ हर किसी बच्चे को मिलना चाहिए। मैं हमेशा से एक वकील बनना चाहती थी, क्योंकि मेरे पापा भी उसी क्षेत्र में हैं और मेरी बचपन से ही वकालत में दिलचस्पी रही। बाकी ढोल बजाना मेरा शौक है और यह वक़्त के साथ मुझे पता चला कि मेरा यह कुछ अलग करना; आज बहुत-से लोगों को प्रेरणा दे रहा है।”

अगर हमारे समाज में सभी बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ उनकी पसंद से कुछ करने का मौका मिले, तो शायद हमारे समाज का नज़रिया काफ़ी बदल जाये। इसलिए जहान का मानना है कि अगर उन्हें स्टेज पर ढोल बजाते हुए देख; एक भी लड़की या फिर कोई एक इंसान भी प्रेरित होता है तो काफ़ी है। इस बारे में आगे बात करते हुए जहान ने एक बहुत ही दिल छू जाने वाला वाकया द बेटर इंडिया के साथ साझा किया। उन्होंने बताया,

“मैंने एक जगह परफॉर्म किया और उसके बाद, जब मैं वहाँ लोगों से बात कर रही थी, तो एक आंटी मेरे पास आयीं और मेरे गले लगकर रोने लगीं। उन्होंने मुझे कहा कि उनकी बेटी बहुत अच्छा भांगड़ा करती थी, पर लोगों की बातों और तानों के चलते उन्होंने उसे रोक दिया। लेकिन जब उन आंटी ने मुझे ढोल बजाते देखा तो उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने ग़लत किया। उस दिन उन्होंने मुझे कहा कि अब वे भी अपनी बेटी का सपना पूरा करने में उसका साथ देंगी।”

फोटो साभार: जहान गीत सिंह

लोगों की ज़िंदगी में बदलाव लाने के उद्देश्य से ही जहान अलग-अलग संगठनों और एनजीओ आदि के साथ काम कर रही हैं। वे ज्यादातर ऐसे इवेंट में परफॉर्म करती हैं, जो किसी नेक काम और किसी बदलाव के लिए रखा गया हो। यहाँ वे ढोल बजाती हैं और साथ ही, प्रेरणात्मक भाषण भी देती हैं। उनका कहना है कि उनका प्रोफेशन उनकी वकालत की पढ़ाई से बनेगा और ढोल के ज़रिये वे समाज में एक परिवर्तन लाना चाहती हैं।

जहान को पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री और अच्छे बैंड्स की तरफ से भी कई ऑफर मिले हैं कि वे उनके साथ काम करें। पर जहान का कहना है कि वे हमेशा आम लोगों से जुड़े रहना चाहती हैं, ताकि लोगों को हमेशा लगे कि वे भी उनमें से ही एक हैं। उन्हें देखकर बाकी लड़कियों को यही लगना चाहिए कि अगर ये कर सकती है तो हम भी कर सकते हैं। इसलिए जहान आम लोगों के बीच परफॉर्म कर उनके लिए एक प्रेरणा बनना चाहती हैं।

भारत की इस ढोल गर्ल से आप उसके फेसबुक पेज ‘जहान गीत’ पर सम्पर्क कर सकते हैं। जहान की ढोल परफॉरमेंस देखने और उनकी टेड टॉक सुनने के लिए विडियो देखें,

(संपादन – मानबी कटोच)


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इंदौर: आईएएस अफ़सर ने सिर्फ़ 6 महीनों में 100 एकड़ ज़मीन से कराया 13 लाख टन कचरे का प्रबंधन!

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साल 2014 में जब मध्य-प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर इंदौर को स्वच्छ सर्वेक्षण में बहुत ही निराशाजनक स्थान मिला, तो यहाँ के प्रशासन के साथ-साथ नागरिकों ने भी तय किया कि उन्हें मिलकर अपने शहर के लिए कुछ करना होगा।

उनकी कोशिशें सफ़ल रहीं और आज इंदौर भारत के सबसे स्वच्छ शहरों में से एक है। द बेटर इंडिया के साथ जानिये, महज़ 3 सालों में कैसे आया यह बदलाव!

स्त्रोत: नितिन सिंह/फेसबुक

प्रशासन और नागरिकों ने हर उस बात का ध्यान रखा, जो उनके शहर को गंदा बनाती थी। सड़कों पर कचरा न फेंकना, सार्वजनिक स्थानों पर डस्टबिन लगाना और सभी लोगों का घर से सूखा और गीला कचरा अलग-अलग करके सफ़ाई कर्मचारियों को देना।

लेकिन फिर भी, शहर के 100 एकड़ इलाके में सालों से जमा हो रहे कचरे का पहाड़ प्रशासन और लोगों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। ऐसा नहीं था कि नगर निगम इस पर काम नहीं कर रही थी, लेकिन यह काम बहुत ही धीमी गति से हो रहा था।

और फिर, साल 2018 में आईएएस अफ़सर आशीष सिंह को इंदौर नगर निगम का कमिश्नर नियुक्त किया गया।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए आईएएस सिंह ने कहा, “2018 में जब मैंने इंदौर नगर निगम (आईएमसी) ज्वाइन किया, तो 13 लाख मेट्रिक टन कचरा इस ज़मीन पर इकट्ठा हो रखा था। पिछले दो सालों में आईएमसी सिर्फ़ 2 लाख मेट्रिक टन कचरे का प्रबंधन करा पाई थी। इस कचरे के ढेर के आस-पास के रहवासी क्षेत्रों में लोगों के लिए रहना दूभर हो गया था। साथ ही, भविष्य में इस ज़मीन के उचित उपयोग के लिए इस कचरे का प्रबंधन अत्यंत आवश्यक था।”

आईएमसी ने साल 2016-17 में इस ज़मीन पर रिक्लेमेशन प्रोजेक्ट शुरू किया था और यह काम बाहर के एक ठेकेदार को दिया गया। इसी वर्ष सूखे और गीले कचरे को कहीं भी खुले में फेंकने पर रोक लगाई गयी थी।

इस काम को आउटसोर्स करने से दो बातें सामने आई, पहली यह कि काम बहुत धीमी गति से हो रहा था और दूसरी ये कि इसमें लागत बहुत ज़्यादा थी।

साभार: आशीष सिंह

बचपन से ही प्रशासनिक सेवाओं में शामिल होने का सपना देखने वाले सिंह ने यहाँ के हालातों को देखते हुए अपनी एक अलग ही रणनीति बनाई। उन्होंने इस काम को कम से कम समय में पूरा करने का फ़ैसला किया और वह भी नगर निगम द्वारा किसी भी अतिरिक्त खर्च के बिना।

उनका सुझाव था कि इस डंपसाईट को ख़ूबसूरत गोल्फ़-कोर्स में तब्दील किया जाए, जहाँ लोग घूमने-फिरने और खेलने आयें।

“बायो-रेमेडिएशन या बायो-माइनिंग, प्लास्टिक, धातु, कागज़, कपड़े और अन्य ठोस चीजों से इकट्ठे हुए कचरे को मिट्टी से अलग करके रीसायकल करने की इको-फ्रेंडली तकनीक है। इस पर अच्छी तरह से काम हुआ और 5 दिसंबर 2018 को इस 13 लाख मेट्रिक टन कचरे का बायो-रेमेडिएशन पूरा कर लिया गया।”

आगे बताते हुए, उन्होंने कहा कि इस तरह के लैंडफिल में सबसे ऊपरी परत आमतौर पर धूल भरी होती है और इसमें कई तरह के मटेरियल हो सकते हैं, जो सक्रिय जैविक अवस्था में हो। इसलिए सबसे पहले इस परत को जैविक या हर्बल सैनिटाइज़र का इस्तेमाल करके स्वस्थ और स्थिर किया जाता है।

इस परत में से प्लास्टिक, रबर, कपड़े आदि कचरे को निकालकर, अलग-अलग रीसायकल करने वालों को भेज दिया जाता है। 

आशीष सिंह (बाएं), कचरे को रीसायकल कर बनाई गयी मूर्ति (दाएं). साभार: आशीष सिंह

इस मिशन में सिंह का साथ दिया नगर-निगम के अतिरिक्त-आयुक्त रोहन सक्सेना और असद वारसी ने, जो शहरी विकास मंत्रालय के इको-प्रो पर्यावरण सर्विस के साथ काम करते हैं।

सिंह ने कहा, “पिछले पायलट प्रोजेक्ट्स के विपरीत, हमने किसी भी एजेंसी को यह काम आउटसोर्स नहीं किया। इस पूरे कचरे को साफ़ करने की लागत लगभग 65 करोड़ रुपये होती और यह हमारी वित्तीय क्षमता से परे था। चूंकि हमें बड़ी संख्या में भारी मशीनरी की आवश्यकता थी, इसलिए हमने मशीनरी किराये पर लेने का और अपने संसाधनों का उपयोग करके इसे संचालित करने का निर्णय लिया। हमने इस मशीनरी को दो शिफ्टों में संचालित किया और छह महीने में काम पूरा कर लिया। दिलचस्प बात यह है कि हमने इस पूरी प्रक्रिया में 10 करोड़ रुपये से भी कम खर्च किए!”

पहले सिर्फ़ 2 लाख मेट्रिक टन कचरे के प्रबंधन में दो साल लग गये। लेकिन यहाँ सिंह और उनकी टीम ने मात्र छह महीनों में 13 लाख मेट्रिक टन कचरे का प्रबंधन करवा दिया और नतीजा किसी चमत्कार से कम नहीं है।

कचरा-प्रबंधन के बाद (साभार: आशीष सिंह)

इस कचरे का प्रबंधन इको-फ्रेंडली तरीके से कैसे किया गया, इस पर बात करते हुए सिंह ने कहा, “बायोमाइनिंग प्रक्रिया से निकली दुबारा इस्तेमाल की जा सकने वाली सभी चीजों को रीसाइक्लिंग के लिए भेजा गया था। रिसाइकिल करने योग्य पॉलीथीन को सीमेंट फैक्ट्री और सड़क बनाने के लिए दे दिया गया। इस प्रक्रिया में जो मिट्टी इकट्ठा हुई, उसे फिर से उसी ज़मीन को भरने के लिए इस्तेमाल किया गया और अब यहाँ हरियाली लायी जा रही है। निर्माण और इमारतों के ढहने से इकठ्ठा हुए कचरे को फिर से निर्माण-योग्य बनाने के लिए भेजा गया है। और बाकी बचे 15% कचरे को एक सुरक्षित लैंडफिल में भेज दिया गया है।”

इस प्रोजेक्ट के बाद जो ज़मीन मिली है, उसकी कुल कीमत लगभग 400 करोड़ रूपये है और अब इसे एक गोल्फ़-कोर्स बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

इंदौर के इस उदाहरण ने यह साबित कर दिया है कि अगर सही संसाधनों का इस्तेमाल किया जाए और यदि प्रशासन इस पर गंभीरता से काम करें, तो इस तरह के लैंडफिल को हरी-भरी जगहों में तब्दील किया जा सकता है।

मूल लेख – तन्वी पटेल

(संपादन – मानबी कटोच)


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#नारी-शक्ति : भारत ही नहीं ‘ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी’ने भी माना यह है ‘वर्ड ऑफ़ द ईयर’!

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क्सफ़ोर्ड डिक्शनरीज़ ने ‘नारी-शक्ति’ शब्द को साल 2018 का ‘हिंदी शब्द’ चुना है। इसकी घोषणा शनिवार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में की गई। कई भाषा विशेषज्ञों की लंबी चर्चा के बाद इस शब्द को डिक्शनरी में शामिल कर लिया गया है।

इस शब्द का उद्भव संस्कृत भाषा से हुआ है। यह शब्द उन सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता है ‘जो अपनी ज़िंदगी की बागडोर खुद संभाल रही हैं।’

ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरीज़ ने कहा, “मार्च 2018 में जब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर भारत सरकार ने ‘नारी-शक्ति’ पुरस्कार का आयोजन किया था, तो इस शब्द पर काफ़ी चर्चा हुई और बहुत से लोगों का ध्यान इस शब्द पर गया था।”

इस शब्द का चयन ऑक्सफोर्ड डिक्शनरीज़ (भारत) ने भाषा विशेषज्ञों के एक सलाहकार पैनल की मदद से किया, जिसमें नमिता गोखले, रणधीर ठाकुर, कृतिका अग्रवाल और सौरभ द्विवेदी शामिल हैं।

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की डायरेक्टर नमिता गोखले ने कहा कि ‘नारी-शक्ति’ शब्द में इस समय हमारे सभी संघर्ष, चुनौतियाँ और इनसे लड़कर मिलने वाली जीत की भावना निहित है।

पिछले कुछ समय में, हमारे देश में तीन तलाक, सबरीमाला विवाद जैसे मुद्दों पर औरतों ने जिस तरह से आवाज़ उठाई है और जिस तरह निडर हो वे आगे बढ़ रहीं हैं, उसके बाद से यह शब्द बहुत प्रयोग में आया है। इस शब्द की महत्वता और बढ़ते प्रयोग को देखते हुए ही यह फैसला लिया गया।

इससे पहले ‘आधार’ को साल 2017 का हिंदी शब्द चुना गया था।


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देश का अपना सबसे पहला बैंक, जहाँ सबसे पहले खाता खोलने वाले व्यक्ति थे लाला लाजपत राय!

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भारत में बैंकिंग का इतिहास सदियों पुराना है। देश का सबसे पहला बैंक साल 1770 में ‘बैंक ऑफ़ हिंदुस्तान’ के नाम से शुरू हुआ था। हालांकि, यह बैंक साल 1832 में बंद हो गया था। पर उस समय शुरू हुए बहुत से बैंक आज भी भारत में काम कर रहे हैं। इन्हीं बैंकों में से एक प्रमुख बैंक है पंजाब नेशनल बैंक!

पंजाब नेशनल बैंक की जड़ें भारत के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ी हुई हैं। स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत लाला लाजपत राय जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष का परिणाम थी। आगे चलकर यही स्वदेशी आन्दोलन महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन का भी केन्द्र-बिन्दु बन गया। उन्होने इसे “स्वराज की आत्मा” कहा।

लाला लाजपत राय

एक भारतीय बैंक का सपना प्रसिद्द आर्य समाजी राय मूल राज ने देखा था और इस सपने को हकीक़त बनाया लाला लाजपत राय ने। वे भली-भांति जानते थे कि अंग्रेजों ने जो भी बैंक भारत में शुरू करवाए हैं, उनका पूरा फायदा सिर्फ़ इंग्लैंड को पहुंचता है। इसलिए लाला लाजपत राय ने एक ऐसा बैंक खोलने का सपना देखा, जो पूरी तरह से सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत और इसके आम नागरिकों को समर्पित हो।

उन्होंने कहा, “भारतीयों की पूंजी का इस्तेमाल अंग्रेजी बैंक चलाने में हो रहा है। उन्हें थोड़े ब्याज से ही संतुष्ट होना पड़ रहा है। भारतीयों का अपना राष्ट्रीय बैंक होना चाह‍िए।”

इसके लिए उन्होंने भारतीय संयुक्त स्टॉक बैंक के विचार को “स्वदेशी के पहले कदम” के तौर पर अपने कुछ दोस्तों के सामने रखा। इस विचार को तुरंत सभी ने मान लिया और फिर बना ‘पंजाब नेशनल बैंक!’

लाला लाजपत राय के साथ इस बैंक को शुरू करने वालों में शामिल थे- दयाल सिंह मजीठिया, एक पश्चिमी शिक्षित समाज सुधारक, ट्रिब्यून अखबार के संस्थापक और लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज के संस्थापक, ईसी जेसवाला (एक पारसी व्यापारी), बाबू काली प्रसूनो रॉय, जो 1900 में अपने लाहौर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे; लाहौर में एक सिविल वकील बख्शी जैशी राम; लाला हरकिशन लाल, एक उद्यमी जिन्होंने बाद में भारत बीमा कंपनी और पीपुल्स बैंक की स्थापना की; डीएवी कॉलेज के संस्थापकों में से एक लाला बुलाकी राम और लाला लाल चंद।

पीएनबी बैंक के फाउंडर– ऊपर की पंक्ति में (बाएं से दाएं): दयाल सिंह मजीठिया, लाला हरकिशन लाल, ई. सी. जसेवाला, राय बहादुर लाला लालचंद। नीचे की पंक्ति में (बाएं से दाएं): काली प्रसूनो रॉय, लाला प्रभु दयाल, बख्शी जैशी राम और लाला ढोलन दास।

इनमें से ज्यादातर लोगों को बैंक चलाने का कोई अनुभव नहीं था; पर अपना एक बैंक शुरू करने का जुनून इस कदर था कि इनमें से कभी भी किसी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 19 मई 1949 को लाहौर (अविभाजित भारत में) के अनारकली बाज़ार में बैंक की पहली ब्रांच रजिस्टर की गयी। उस वक़्त पीएनबी में 14 शेयरहोल्डर और 7 निदेशकों ने बैंक के कुछ ही हिस्से पर अपना नियन्त्रण रखा। क्योंकि उनका मानना था कि बैंक पर सर्वाधिक अधिकार आम लोगों का होना चाहिए।

बैसाखी के त्योहार से एक दिन पहले 12 अप्रैल, 1895 को पीएनबी को कारोबार के लिए शुरू किया गया। इस बैंक में सबसे पहला खाता खुला लाला लाजपत राय का। बैंक के लिए मई, 1895 में एक ऑडिटर नियुक्त किया गया। बैंक के स्पष्ट नियम, ग्राहकों के साथ पारदर्शिता और पासबुक- भारतीयों के लिए ये सब नई बातें थीं और इस सब ने लोगों का बैंक पर विश्वास बनाने में मदद की।

लाहौर में पीएनबी की पहली ब्रांच

देश के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और महात्मा गांधी ने भी इस बैंक में खाता खोला था। इसके अलावा जलियांवाला बाग कमेटी से जुड़े सदस्यों ने भी इस बैंक पर भरोसा जताया। धीरे-धीरे इसमें खाता खोलने वालों की संख्या और नाम भी बढ़ते गए। बैंक के शुरू होने के एक साल बाद, 30 जून, 1896 को बैंक की कुल जमा राशि 3,46,046 रूपये थी।

लाला लाजपत राय अपनी आखिरी सांस तक बैंक के प्रबंधन और कामकाज से जुड़े रहे। पीएनबी के बाद भी देश में बहुत से बैंक खुले। साथ ही, सहकारी समितियों को भी बढ़ावा मिला। साल 1946 तक आते-आते पीएनबी की लगभग 278 ब्रांच पूरे देश में फैली हुई थीं। उस वक़्त लाला योध राज बैंक के डायरेक्टर थे।

उस वक़्त देश आज़ाद होने की कगार पर था; पर लाला योध राज को कोई और ही चिंता सता रही थी। कहीं न कहीं आज़ादी के साथ आने वाले बँटवारे को भी उन्होंने भांप लिया था और इसलिए, भारत की स्वतंत्रता से कुछ दिन पहले उन्होंने पीएनबी के मुख कार्यालय को लाहौर से दिल्ली शिफ्ट करवा दिया।

भारत के विभाजन के समय हालत बहुत बुरे थे। बैंक की जो भी ब्रांच पाकिस्तान के हिस्से में गयीं, वे जल्द ही बंद कर दी गयीं। इससे देश की काफ़ी पूंजी बर्बाद हुई। लेकिन भारत में नागरिकों का विश्वास इस बैंक पर था और इसलिए बैंक के कर्मचारियों ने दिन-रात एक करके बैंक को चलाये रखा।

बताया जाता है कि विभाजन में बहुत से नागरिकों ने अपने बैंक के कागज़ात खो दिए थे। पर फिर भी बैंक ने हर एक नागरिक को उनके जमा किये हुए पैसे दिए। यह बैंक लाला लाजपत राय और उनके साथियों की दूरदृष्टि का ही परिणाम था। ये सभी लोग जानते थे कि आज़ादी के बाद भारत को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए ऐसे बैंकों की ही जरूरत होगी। आज इतने सालों बाद भी पंजाब नेशनल बैंक भारत के सबसे बड़े और ऊँचे बैंकों में से एक है।


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75 साल में बनी हाई-टेक; मिलिये सोलर पावर से भुट्टे सेंकने वाली सेल्वम्मा से!

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र्नाटक के बंगलुरु में भुट्टा बेचकर अपनी ज़िंदगी की गुज़र-बसर करने वाली 75 वर्षीय सेल्वम्मा पिछले कुछ दिनों से इंटरनेट पर छाई हुई हैं। वजह है उनका अनोखा और आधुनिक तकनीक वाला भुट्टे का ठेला!

पिछले दो दशकों से बंगलुरु विधान सभा के बाहर भुट्टा बेचकर अपनी आजीविका कमा रहीं सेल्वम्मा हमेशा से हाथ के पंखे से काम करती थीं। इससे उनकी मेहनत भी काफ़ी लगती थी और कोयला भी बहुत खर्च होता था। हर दिन के संघर्ष के बावजूद उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी और कभी किसी की मोहताज नहीं हुईं।

ऐसे में, उनकी मदद के लिए सेल्को फाउंडेशन एनजीओ आगे आया। यह एनजीओ सतत ऊर्जा के लिए समाधानों की दिशा में काम करता है। सेल्को ने जब सेल्वम्मा को हर दिन संघर्ष करते देखा, तो उन्होंने उनकी मदद करने का निर्णय किया।

सेल्को फाउंडेशन ने उन्हें एक सोलर-फैन याने सौर ऊर्जा से चलने वाला पंखा दिया है। इस सोलर-फैन ने सेल्वम्मा की ज़िंदगी काफ़ी आसान कर दी है। अब उन्हें दिनभर हाथ वाला पंखा चलाने की ज़रूरत नहीं है। यह सोलर-फैन सूरज छिपने के बाद भी कई घंटों तक काम करता है। साथ ही इसकी वजह से कोयले की खपत भी काफ़ी कम हो गयी है।

अगली बार कभी बंगलुरु जाएँ, तो इस हाई-टेक ठेले पर अम्मा के हाथ का भुट्टा खाना न भूलें।

स्त्रोत

(संपादन – मानबी कटोच)


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नेली सेनगुप्ता : एक ब्रिटिश महिला, जिसने आज़ादी की लड़ाई के दौरान घर-घर जाकर बेची थी खादी!

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नेली सेनगुप्ता उन प्रमुख़ ब्रिटिश महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने विदेशी होते हुए भी भारत को आज़ाद कराने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। नेली का जन्म इंग्लैंड में हुआ और वे वहीं पली-बढ़ी थीं। पर उन्होंने एक भारतीय वकील से शादी की, और फिर हमेशा के लिए भारत की हो गयीं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके महान योगदान के बावजूद, उनका नाम इतिहास के पन्नों से आज ओझल है। आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िये इस ब्रिटिश महिला की कहानी; जिसने आजीवन भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ी!

नेली सेनगुप्ता का जन्म 12 जनवरी, 1886 को कैंब्रिज में हुआ। उनका वास्तविक नाम ‘एडिथ एलेन ग्रे’ था। कॉलेज के दिनों में एडिथ की मुलाक़ात इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई कर रहे एक बंगाली युवक, जतिंद्र मोहन सेनगुप्ता से हुई। जतिंद्र, एक भारतीय वकील और बंगाल विधान परिषद के सदस्य, जात्रा मोहन सेनगुप्ता के बेटे थे और मूलतः चटगाँव (अब बांग्लादेश में है) से ताल्लुक रखते थे।

नेली सेनगुप्ता

एडिथ और जतिंद्र, दोनों ही अलग-अलग परिवेश से थे। लेकिन एडिथ को विश्वास था कि वे इस रिश्ते को निभा सकती हैं। इसलिए साल 1909 में उन्होंने अपने माता-पिता के खिलाफ़ जाकर जतिंद्र सेनगुप्ता से शादी कर, वे बन गयीं नेली सेनगुप्ता। शादी के बाद वे कोलकाता आयीं और यहाँ जतिंद्र के संयुक्त परिवार में रहीं। नेली और जतिंद्र को दो बेटे भी हुए- सिशिर और अनिल।

विदेश में कानून की पढ़ाई करने के बाद, जतिंद्र एक सफ़ल वकील बन गए। उन्होंने साल 1911 में फ़रीदपुर में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया।

जब गाँधी जी ने साल 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू किया, तो इसकी छाप नेली और जतिंद्र के जीवन पर भी पड़ी। इस आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ आम लोगों का सहयोग भी बढ़ने लगा तो गाँधी जी ने जतिंद्र को भी नौकरी छोड़कर आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा।

गाँधी जी के आह्वान पर जतिंद्र ने बिना एक पल भी सोचे अपनी अच्छी-ख़ासी वकालत की नौकरी छोड़ आंदोलन की राह पकड़ ली। जतिंद्र के साथ नेली ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उन्होंने न सिर्फ़ अपने पति का साथ दिया बल्कि वे स्वयं एक सच्ची स्वतंत्रता सेनानी बनकर उभरीं।

जतिंद्र, गाँधी जी के करीबी सहयोगियों में से एक थे और अंग्रेज़ी सरकार की नज़र उन पर हमेशा रहती थी। इसलिए जब जतिंद्र ने असम-बंगाल रेलवे कर्मचारियों की भूख-हड़ताल का नेतृत्व किया, तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।

अपने पति की गिरफ्तारी के बाद नेली ने खुद मोर्चा संभाला और जिला अधिकारियों के आदेश के विरोध में कई सभाएँ और बैठकें आयोजित की। इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के तमाम अत्याचारों के बावजूद, वे खादी बेचने के लिए घर-घर जाती रहीं। ये नेली और उनके जैसी अनगिनत साहसी महिलाओं की ही मेहनत थी कि इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया।

साल 1931 में नेली को दिल्ली विधानसभा में गैर-कानूनी तरीके से बोलने के लिए चार महीने की जेल हुई। इस दौरान उन्हें ब्रिटिश जेलों में भारतीय लोगों के साथ हो रही बदसुलूकी के बारे में पता चला। इससे उनके मन में विद्रोह की भावना और भी प्रबल हो गयी।

जतिंद्र को रांची के जेल में रखा गया था, जहाँ साल 1933 में उनकी मृत्यु हो गयी। जतिंद्र की मृत्यु के बाद बहुत से लोगों को लगा कि यह नेली के संग्राम का भी अंत है। क्योंकि शायद अब उनके लिए इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की कोई वजह नहीं बची।

जतिंद्र मोहन सेनगुप्ता की प्रतिमा (विकिपीडिया)

पर लोग इस बात से अनजान थे, कि नेली सिर्फ़ अपने पति की वजह से इस संग्राम का हिस्सा नहीं थीं। वे ग़लत के खिलाफ़ थीं; उन्हें पता था कि भारत पर ब्रिटिश सरकार के अत्याचार और जुल्मों का अंत होना ज़रूरी हैं। और इसलिए, जतिंद्र की मौत के बाद नेली ने भारत की स्वतंत्रता को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

नमक सत्याग्रह के दौरान कांग्रेस पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार किए जाने पर नेली को कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। वह इस पद पर चुनी जाने वाली तीसरी महिला थीं। उन्होंने साल 1940 में और 1946 में बंगाल विधान सभा के लिए भी अपनी सेवाएँ दीं।

साल 1947 में भारत को आज़ादी मिली और साथ ही, बँटवारा भी। विभाजन के समय, नेली ने अपने पति के पैतृक गाँव, चटगाँव (तब पूर्वी पाकिस्तान) में ही रहने का फ़ैसला किया।

फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

और वहाँ भी; एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और अल्पसंख्यक बोर्ड के सदस्य के रूप में, उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए काम करना जारी रखा।

स्वतंत्रता के लगभग दो दशक बाद, साल 1972 में नेली भारत आयीं। एक दुर्घटना के दौरान उनके कुल्हे की हड्डी टूट गयी थी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उनकी भारत लाकर इलाज करवाने की व्यवस्था करवाई। उस समय भी नेली का देश में बहुत ही भव्य स्वागत हुआ।

साल 1973 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया और उसी साल 23 अक्टूबर को उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली।

नेली की कहानी हमें उन सभी महिलाओं की याद दिलाती है, जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए खुद को कुर्बान किया। इस #अनमोल_इंडियन को शत-शत नमन!

कवर फोटो

(संपादन – मानबी कटोच)


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1 लाख रूपये की हार्ट सर्जरी को मुफ़्त में 30 ग़रीब मरीज़ों तक पहुँचा रहा है यह डॉक्टर!

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भारत में दिल की बीमारी लोगों की मृत्यु का एक मुख्य कारण है। अमेरिकन कॉलेज ऑफ कार्डियोलॉजी की जर्नल के एक शोध के मुताबिक, पिछले 26 वर्षों (1990 -2016) में इस दर में 34% की वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त, 2016 में लगभग  625 लाख भारतीयों को दिल से संबंधित बीमारियों के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी।

हमारे देश की यह विडम्बना है कि पैसे वाले घरों के मरीज़ ही ऐसी बीमारियों का इलाज या सर्जरी का खर्चा उठा पाते हैं, पर  ग़रीब तबके के लोगों के लिए सर्जरी तो दूर दवाईयों का खर्च उठाना भी मुश्किल हो जाता है। निराशाजनक बात यह है कि हमारे देश में इन सब बिमारियों के इलाज के लिए कोई ठोस स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं है।

पर इन आंकड़ों को सुधारने की जिम्मेदारी ली है, बंगलुरु के सेंट जॉन्स मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में कार्डियोलॉजी के प्रमुख, डॉ. किरण वर्गीज़ ने!

उनका उद्देश्य समाज में ग़रीब लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराना है और वह भी कम से कम खर्च पर।

डॉ. किरण वर्गीज़

इसलिए, उन्होंने 30 ग़रीब मरीजों की मुफ्त में एंजियोप्लास्टी कराने में मदद करने का फ़ैसला किया। 59 वर्षीय डॉ. वर्गीज़ ने आईएएनएस को बताया, “मैं ग़रीबों का इलाज मुफ़्त में करना चाहता हूँ, क्योंकि वे महँगी स्वास्थ्य सुविधाओं का खर्च नहीं उठा सकते हैं।”

इस नेक काम के लिए उन्होंने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों से मदद मांगी और इन सभी सर्जरीयों को करने के लिए पर्याप्त राशि इकट्ठा की।

किसी भी प्राइवेट अस्पताल में इस एक सर्जरी की लागत लगभग 2 लाख रूपये है। हालांकि, यह लागत सरकारी अस्पतालों में कम हो जाती है। लेकिन सरकारी अस्पतालों में सिमित संसाधन और सुविधाओं के चलते सभी लोग प्राइवेट अस्पताल जाना पसंद करते हैं।

ये मुफ़्त सर्जरीयां 19 फ़रवरी 2019 तक की जाएँगी। न्यू इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए डॉ. वर्गीज़ ने कहा, “जो भी राशि जमा हुई है उसमें कुछ लोगों की ही सर्जरी की जा सकती है। इसलिए हम उन मरीजों को प्राथमिकता देंगें जो युवा हैं और अपने घर में अकेले कमाने वाले हैं।”

प्रतीकात्मक तस्वीर

उनका लक्ष्य कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा सर्जरी करना है ताकि इस ऑपरेशन से मरीज़ों के आर्टरी ब्लॉक को साफ़ किया जा सके। आर्टरी ब्लॉक की समस्या ज्यादातर 40 से 60 वर्ष की उम्र के लोगों को होती है।

सिर्फ़ 30 मरीज़ों का इलाज भले ही इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। लेकिन यह उन लोगों के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव है, जिन को यह सुविधा मिल रही है। सबसे अच्छी बात यह है कि डॉ. वर्गीज़ अपनी इस पहल से दूसरे डॉक्टरों व अन्य लोगों के लिए एक उदहारण स्थापित कर रहे हैं।

(संपादन – मानबी कटोच)


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एक्सक्लूसिव : 9 साल तक लगातार बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतने वाली भारत की स्टार खिलाड़ी अपर्णा पोपट!

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“मेरे 17 साल के करियर में सबसे अच्छी बात यह थी कि मैंने अपने खेल में स्थिरता बनाये रखी। हर बार चैंपियनशिप में दबाव होता ही था, क्योंकि नंबर एक से नीचे आना मेरे लिए कोई विकल्प नहीं था। पर मैं जानती थी कि इसके लिए मुझे किसी और को नीचे खींचने की जरूरत नहीं है; बल्कि मुझे बस ज्यादा से ज्यादा सीखना है और कड़ी मेहनत करनी है,” अपर्णा पोपट ने द बेटर इंडिया के साथ बात करते हुए कहा।

अपर्णा पोपट, भारत की पूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी; जिन्हें अगर हम इस खेल में ‘अपराजिता’ भी कहें, तो शायद गलत नहीं होगा। अपने 17 साल के करियर में शायद ही ऐसा कोई टूर्नामेंट या चैंपियनशिप हो, जो उन्होंने नहीं जीता। अपर्णा के नाम लगातार 9 साल तक नेशनल चैंपियनशिप जीतने का ख़िताब दर्ज है। किसी भी खेल में इस तरह की स्थिरता विरले ही देखने को मिलती है।

द बेटर इंडिया के साथ खास बातचीत में अपर्णा ने कहा, “आज भारत में कोई भी खेल किसी लिंग-भेद या फिर जेंडर का मोहताज नहीं है। हर क्षेत्र में आपको बेहतर से बेहतर खिलाड़ी मिलेंगें फिर वो चाहे लड़के हों या लडकियाँ, पर सबसे पहले वो एक खिलाड़ी है। और आज के ज़माने की यह सबसे अच्छी बात है।”

एक गुजराती परिवार से ताल्लुक रखने वाली अपर्णा पोपट के लिए स्पोर्ट्स में करियर बनाना कभी भी आसान नहीं था। उन्हें हमेशा से खेलना पसंद था। अपर्णा ने बताया कि जब उन्होंने खेलना शुरू किया, तो यह आज के जैसे कोई ‘पैशन’ (जुनून) की बात नहीं थी। बल्कि उन्हें खेलना पसंद था क्योंकि इसकी वजह से वे घर से बाहर रहकर मस्ती कर सकती थीं।

“साथ ही, मैं स्पोर्ट्स के चलते बाहर रहती और घर में कम शरारत किया करती थी, तो मम्मी को भी थोड़ी शांति रहती थी। इसलिए ये मेरे और मम्मी, हम दोनों के लिए अच्छा था,” अपर्णा ने हंसते हुए कहा।

8 साल की उम्र में बैडमिंटन के साथ उनका रिश्ता जुड़ा और आज भी यह कायम है। अपर्णा ने जब बैडमिंटन खेलना शुरू किया, तब उन्हें प्रोफेशनल स्पोर्ट्स के बारे में कुछ ख़ास नहीं पता था। उस समय बैडमिंटन को नेशनल खेल के तौर पर बहुत से लोग जानते भी नहीं थे। साथ ही, इस खेल में प्रोफेशनल करियर बनाना तो बिल्कुल भी आम बात नहीं थी, क्योंकि बैडमिंटन काफ़ी महंगा स्पोर्ट्स है। रैकेट, शटल और भी बाकी ज़रूरी चीज़ें बहुत महँगी होती थी।

अपने कोच अनिल प्रधान के मार्गदर्शन में अपर्णा ने जब यह खेल खेलना शुरू किया, तो धीरे-धीरे वे इस खेल में और अच्छी होती गयीं। उनके कोच प्रधान को उनकी प्रतिभा पर पूरा भरोसा था और उन्हें यकीन था कि एक न एक दिन यह लड़की बैडमिंटन के वर्ल्ड मैप पर अपना नाम लिखेगी।

अपने कोच अनिल प्रधान और प्रकाश पादुकोण के साथ 11 वर्षीय अपर्णा पोपट

“मैंने अपना पहला नेशनल टूर्नामेंट साल 1989 में अंडर-12 केटेगरी में जीता। मैं पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर खेल रही थी और मुझे बिल्कुल भी नहीं लगा था कि मैं जीत जाऊँगी,” अपर्णा ने बताया।

“इसके बाद मेरे साथ-साथ मेरे परिवार का भी आत्म-विश्वास काफ़ी बढ़ा और मैंने इस खेल को और भी फोकस के साथ खेलना शुरू किया,” उन्होंने आगे कहा।

अपर्णा ने इस चैंपियनशिप के बाद अंडर-15 में दो बार नेशनल जीता और चार बार अंडर-19 चैंपियनशिप जीतीं। हालांकि, चुनौतियाँ उनके लिए कभी भी कम नहीं रहीं। उनके साथ-साथ उनके परिवार ने भी बहुत मेहनत की। उनके टूर्नामेंट के लिए उनकी मम्मी हर जगह उनके साथ जाती थीं। उनके पापा हर संभव कोशिश करते कि किसी भी परेशानी का असर अपर्णा के खेल पर न पड़े।

“आसान बिल्कुल भी नहीं था कि एक गुजराती लड़की बैडमिंटन में करियर बनाये। उस समय लोगों को प्रोफेशनल खेलों के बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं होती थी। इसके अलावा अगर आप मिडिल-क्लास फैमिली से हैं, तो आपको सरकारी स्कॉलरशिप और स्पोंसरशिप पर भी निर्भर होना पड़ता था। आज जिस तरह के मौके खिलाड़ियों के लिए हैं, वैसे उस समय पर नहीं हुआ करते थे,” अपर्णा ने कहा।

उनके लिए किसी एक जगह भी हारना कोई विकल्प नहीं था। किसी भी चैंपियनशिप से पहले उन पर काफ़ी दबाव होता था। न सिर्फ़ उनके परिवार, उनके कोच और साथी खिलाड़ियों की, बल्कि और भी लोगों की नज़रें उन पर होती थीं कि जो लड़की इतने सालों से सिर्फ़ जीत रही है, वह इस बार क्या करेगी। अपर्णा कहती हैं कि नंबर एक पर पहुंचना शायद आसान है, पर उस पर बने रहना, बहुत मुश्किल।

लेकिन उन्होंने अपनी इस नंबर एक पोजीशन को अपने करियर में बरक़रार रखा। उन्होंने हर तरीके के दबाव और परेशानी से उभरना सीख लिया था। अपने करियर में उतार-चढ़ाव के बारे में बात करते हुए अपर्णा ने द बेटर इंडिया को बताया, “जब मैंने साल 1996 में डेनमार्क में वर्ल्ड चैंपियनशिप टूर्नामेंट में सिल्वर मेडल जीता तो यह मेरे करियर का सबसे महत्वपूर्ण दौर था।”

इसके बाद अपर्णा ने कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट में भारत का नाम रौशन किया। साल 1998 में अपर्णा ने फ्रेंच ओपन ख़िताब जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनकर एक नया रिकॉर्ड बनाया। अपनी अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धियों के अलावा अपर्णा को जिस बात के लिए सबसे ज्यादा सराहा जाता है, वह है खेल में उनकी स्थिरता।

साल 1997 से लेकर साल 2006 तक लगातार 9 बार राष्ट्रीय सीनियर महिला बैडमिंटन खिताब जीतने का रिकॉर्ड भी अपर्णा पोपट के नाम दर्ज है।

साल 2006 के बाद अपर्णा ने खेल से संन्यास ले लिया। हालांकि, यह फैसला उनके लिए बहुत मुश्किल था। उनकी कलाई में चोट आ गयी थी और कोई भी डॉक्टर चोट का पता नहीं लगा पा रहा था। उन्होंने बताया, “मेरे करियर का आख़िरी एक-डेढ़ साल मेरे लिए बहुत तनाव भरा था। मेरी कलाई की चोट किसी भी मेडिकल टेस्ट में नहीं दिख रही थी, पर मैं दर्द में थी। जिस तरह के स्ट्रोक मैं कोर्ट में खेलती थी, वैसे खेल का आधा भी मैं नहीं कर पा रही थी। इस वजह से न सिर्फ़ फिजिकल, पर मुझे काफ़ी मानसिक तनाव भी था।”

एक तरफ अपर्णा जहाँ अपने करियर में इस तरह के तनाव से गुजर रहीं थीं, तो वहीं उन पर उनके परिवार की भी जिम्मेदारियाँ थीं। साल 2006 की नेशनल चैंपियनशिप में अपर्णा की चोट और तनाव को देखते हुए बहुत से लोगों को लगा था कि वे इस बार नहीं जीत पाएंगी।

“सब यही सोच रहे थे कि मैं नहीं जीत पाऊँगी। पर मेरे दिमाग में बस एक बात थी कि हो सकता है कि यह मेरा आख़िरी टूर्नामेंट हो, और इसलिए मैं इसे जीतकर ही जाऊँगी। जब टूर्नामेंट शुरू हुआ, तो मैं अपने गेम का 50% भी नहीं खेल पा रही थी। किसी भी खिलाड़ी के लिए यह सबसे ज्यादा निराशाजनक होता है कि उसे पता है वह अच्छे से अच्छा कर सकता है, लेकिन बस एक चोट उसका रास्ता रोक दे। लेकिन जब मैं टूर्नामेंट के फाइनल में पहुंच गयी, तो मुझे पता था कि अब कोई भी चोट मुझे यह जीतने से नहीं रोक सकती,” अपर्णा ने कहा।

साल 2006 की चैंपियनशिप की जीत अपर्णा पोपट के खाते में ही आई। उन्होंने अपने प्रोफेशनल खेल के इस आख़िरी टूर्नामेंट को पूरी गरिमा और आत्म-विश्वास के साथ खेला। और आज हम कह सकते हैं कि अपर्णा इस खेल में ‘अपराजिता’ रहीं।

प्रोफेशनल खेल से संन्यास लेने के बाद अपर्णा बैडमिंटन कोच के तौर पर खेल से जुड़ी रहीं हैं।

वर्तमान में, एक कोच होने के साथ-साथ अपर्णा एक बेहतरीन कमेंटेटर भी हैं और इसके अलावा वे इंडियन आयल कॉर्पोरेशन के साथ काम कर रही हैं।

आज के युवा खिलाड़ियों के लिए अपर्णा कहती हैं कि आज के समय में डिजिटल तकनीक और इंटरनेट के ज़रिये खिलाड़ियों के लिए अच्छे प्लेटफार्म और मौके हैं। इसलिए उन्हें हर एक मौके का सही इस्तेमाल करना चाहिए। सबसे जरुरी बात है खेल में प्रतिस्पर्धा की भावना रखते हुए, हर बार कुछ नया सीखने की ललक रखना।

“पहले से लेकर अब तक बहुत बदलाव आये हैं। आज जितने भी बैडमिंटन खिलाड़ी देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, वे सभी बहुत उम्दा हैं। उन्होंने हर बार खुद को साबित किया है और सबसे अच्छी बात है कि वे कुछ भी नया सीखने से पीछे नहीं हट रहे हैं। बाकी आगे बढ़ने के लिए कड़ी मेहनत के साथ-साथ होशियारी की भी जरूरत होती है। आपको दूसरों को नीचे नहीं गिराना है बल्कि खुद ऊपर उठना है।”

भारत में बैडमिंटन के इतिहास में अपर्णा पोपट ने अपनी एक अलग ही छाप छोड़ी है। जब भी बैडमिंटन के बारे में चर्चा होती है तो अपर्णा की इस खेल पर पकड़ और ख़ास तौर पर जिस स्थिरता और अनुभव के साथ वे खेलती थीं, उसके बारे में ज़रुर बात होती है। हो सकता है कि भारत के बहुत से आम लोगों को अपर्णा पोपट का नाम नहीं पता हो; लेकिन अपर्णा उन खिलाड़ियों में से रहीं, जिन्होंने देश में बैडमिंटन को एक मुकाम तक पहुँचने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये अपर्णा पोपट जैसे ही खिलाड़ियों की मेहनत है कि आज भारत में बैडमिंटन सबसे ज्यादा खेले और सराहे जाने वाले खेलों में से एक है।

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महाराष्ट्र: 7 किमी के घने जंगल को पैदल पार कर स्कूल जाने वाली निकिता को मिली इलेक्ट्रिक-साइकिल!

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हाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में रहने वाली एक नौवीं कक्षा की छात्रा, निकिता कृष्णा मोरे को अपने स्कूल जाने के लिए हर रोज़ 7 किलोमीटर लम्बा जंगल पार करना पड़ता है। उसका स्कूल पलछिल गांव में पड़ता है और घर मोरेवाडी गांव में है। दोनों गाँवों के बीच का यह घना जंगल भी इस छात्रा के हौंसलों को डिगा नहीं पाता है।

निकिता को हर रोज़ स्कूल जाने-आने में लगभग 14 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। इससे उनका काफ़ी समय भी जाता था और वह बहुत थक भी जाती थी। इसके आलावा, जंगल में से गुजरते वक़्त कोई अनहोनी होने की आशंका भी बराबर रहती थी।

पर अब निकिता की यह परेशानी खत्म हो चुकी है। दरअसल, कुछ समय पहले ही निकिता के बारे में कई अख़बारों में न्यूज़-रिपोर्ट आई थी। यह खबर पढ़कर और निकिता का पढ़ाई के प्रति लगाव और हौंसला देखकर, पुणे के एक बिज़नेसमैन ने उन्हें एक इलेक्ट्रिक-साइकिल गिफ्ट की है।

यह ई-साइकिल निबे मोटर्स की है और इसे 2 घंटे में पूरा चार्ज किया जा सकता है। यह साइकिल 25 किमी/घंटे की गति से 100 किलोमीटर तक चल सकती है। यह यूजर-फ्रेंडली साइकिल है, अगर इसे चार्ज ना भी किया जाये तो आप इसे नॉन-इलेक्ट्रिक यानी कि एक आम साइकिल के जैसे इस्तेमाल कर सकते हैं।

इस साइकिल की चाबी निकिता को सिटी कॉर्पोरेशन के एमडी अनिरुद्ध देशपांडे ने सौंपी। इस मौके पर निकिता की माँ और उनके स्कूल की प्रिंसिपल भी मौजूद थीं। निकिता, ‘स्वर्गीय शांताराम शंकर जाधव न्यू इंग्लिश स्कूल’ की छात्रा हैं और आगे चलकर डॉक्टर बनने का सपना देखती हैं।

अब इस साइकिल ने उनके सपनों को नई उड़ान दी है। निकिता ने कहा, “पहले मुझे स्कूल के टाइम से दो घंटे पहले घर से निकलना पड़ता था ताकि मैं स्कूल वक़्त पर पहुँच जाऊं। कई बार मैंने जंगल के रास्ते में भालू, सांप भी देखे। पर जब भी मुझे डर लगता तो साथ में, मेरी पढ़ाई और स्कूल का ख्याल भी आता था। इसलिए मैंने कभी भी स्कूल जाना नहीं छोड़ा।”

इस साइकिल की मदद से निकिता न सिर्फ़ सुरक्षित स्कूल जा सकती हैं, बल्कि अब उनका काफ़ी वक़्त भी बचेगा।


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पुणे: बदलते मौसम में धनिया बना किसानों का सहारा, हफ्ते भर में कराया लाखों का मुनाफ़ा!

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स बार पूरे भारत में मौसम में काफ़ी बदलाव रहे हैं। देश के जिन प्रांतों में ठंड ना के बराबर रहती है, वहां भी इस बार जमकर सर्दी रही है।

बदलते मौसम का सबसे ज्यादा प्रभाव देश के किसानों पर पड़ता है। द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृषि मंत्रालय ने संसद और सरकार को बताया है कि यदि मौसम के इन बदलावों के चलते कृषि में कुछ ठोस कदम नहीं उठाये गए, तो आने वाले समय में गेंहू, चावल की खेती के साथ-साथ सब्ज़ियों के उत्पादन पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा।

इसका असर महाराष्ट्र के कई जिलों में देखा जा सकता है। यहां सब्ज़ियों के उत्पादन पर सर्दी का काफ़ी प्रभाव पड़ा है। पर इस मुश्किल समय में, महाराष्ट्र के पुणे के जुन्नार तहसील के पिंपरी पेंढार गाँव में किसानों के लिए धनिया की खेती फायदेमंद साबित हुई है।

यह भी पढ़ें: गाँव में पानी न होने के चलते छोड़नी पड़ी थी खेती, आज किसानों के लिए बना रहे हैं कम लागत की मशीनें!

ये किसान धनिये की खेती से लाखों का मुनाफ़ा कमा रहे हैं। धनिया ख़ास तौर पर सब्ज़ियों में सजावट के लिए इस्तेमाल होता है और इसलिए सब्ज़ियों की खरीददारी, 5 रूपये के धनिया का एक गुच्छा लिए बगैर पूरी नहीं होती। पर यही छोटी-सी फ़सल आज पुणे के इन किसानों के लिए बहुत फायदेमंद रही।

पिंपरी पेंढार के एक किसान सावलेराम नाना कूटे ने बताया कि इस साल उन्होंने धनिया की खेती में 2 लाख रुपये का निवेश किया था और अब एक हफ्ते में इससे 13.5 लाख रुपये कमाए हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “पिछले एक दशक में, मुझे धनिया से कभी भी इतना अच्छा मुनाफ़ा नहीं मिला। पिछले दो सालों से, मैं तरबूज जैसे फलों के साथ टमाटर और पत्तेदार सब्ज़ियाँ भी उगा रहा हूँ, लेकिन बाजार में कम कीमतों के कारण कभी भी इतना पैसा नहीं मिला।”

कूटे के जैसे ही और भी धनिया-किसानों को मुनाफ़ा हुआ है और इसका सबसे बड़ा कारण है कम उत्पादन। महात्मा फुले कृषि विद्यापीठ (कृषि महाविद्यालय) के कुलपति राजाराम देशमुख मानते हैं कि धनिया का उत्पादन कम होने के कारण बाज़ार में पर्याप्त मात्रा में धनिया की सप्लाई नहीं हो रही है और ऐसे में मांग पूरी न होने से, धनिया का मूल्य बढ़ गया है।

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उन्होंने कहा कि तापमान 10 डिग्री से नीचे जाये, तो इसका सब्ज़ियों के उत्पादन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इस बार राज्य के कई इलाकों में रात को तापमान काफ़ी कम रहा है। जिससे कि सब्जी-उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इसी वजह से धनिया के मूल्य में बढ़ोत्तरी हुई है।

नारायणगाँव और पुणे की सब्ज़ी- मंडी की रिपोर्ट के अनुसार, जो धनिया पहले 5-10 रूपये प्रति गुच्छा बिकता था, वह अभी 30 से 50 रूपये प्रति गुच्छा बिक रहा है। और इसका सीधा फायदा किसानों को हुआ है।

फोटो साभार: जॉन टे/फेसबुक

पुणे के एक और धनिया किसान, कमलाकर वाजगे ने अपनी फसल से इस साल 2 लाख रुपये कमाए हैं। उनका कहना है, “बहुत से किसान पानी की कमी के चलते कई सब्ज़ियाँ नहीं उगा पाए हैं। इसकी वजह से बाज़ार में आपूर्ति और मांग में इतना अंतर आ गया है। जिसकी वजह से फसल की कीमतों में पहले से अब तक इतना बड़ा बदलाव आया है।”

मंडी की रिपोर्ट्स के अनुसार, पिछले साल तक उन्हें सर्दियों में जुन्नार, शिरूर, अम्बेगांव और खेड़ा तहसीलों से हर दिन धनिया के लगभग 2.5 लाख गुच्छे मिलते थे। लेकिन इस बार उत्पादन में भारी कमी के चलते सिर्फ़ 1.5 लाख गुच्छे प्रतिदिन मिल रहे हैं। ऐसे में, मांग की आपूर्ति कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा है।

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पर बाज़ार में इस साल यह आपूर्ति और मांग का अंतर किसानों के लिए लाभकारी साबित हुआ है। ओतूर के एक किसान, सतीश डोम्बले ने बताया, “मैंने 20 गुंठा (0.4 एकड़) ज़मीन पर धनिया उगाया था। इसके अलावा, पिछले साल मैंने जितनी भी सब्ज़ियाँ उगाईं थीं, मुझे सब में भारी नुकसान हुआ। लेकिन इस बार धनिया ने मुझे बचा लिया और अब यह पैसा मैं अगली फसल में लगा सकता हूँ।”

खेती में हो रहे नवीनीकरण, नवाचार और असामान्य फसलों में निवेश किसानों के लिए फायदेमंद सिद्ध हो रहा है। आप ऐसे बहुत से आर्गेनिक और इनोवेटिव किसानों की कहानी द बेटर इंडिया पर पढ़ सकते हैं।

मूल लेख – तन्वी पटेल

(संपादन – मानबी कटोच)


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वडोदरा: हर रोज़ लगभग 300 जरूरतमंद लोगों का पेट भरती हैं 83 वर्षीय नर्मदाबेन पटेल!

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गर दिल में कुछ अच्छा करने का जज़्बा हो और इरादे मजबूत, तो फिर चुनौती कोई भी हो, पर आपका रास्ता नहीं रोक सकती। बल्कि आप और भी ना जाने कितने लोगों के लिए प्रेरणा बन जाते हैं।

ऐसा ही एक प्रेरणात्मक नाम हैं गुजरात के वडोदरा की रहने वाली नर्मदाबेन पटेल। 83 साल की उम्र में भी उनका जरूरतमंद लोगों के लिए कुछ करने का जज़्बा और जुनून देखते ही बनता है। साल 1990 में अपने पति रामदास भगत के साथ मिलकर उन्होंने ‘राम भरोसे अन्नशेत्रा’ पहल की शुरुआत की थी।

इस पहल के जरिये उन्होंने शहर में जरुरतमंदों को मुफ़्त खाना खिलाना शुरू किया। नर्मदा बेन बताती हैं, “मेरे पति यह शुरू करना चाहते थे। पहले हम खाना बनाकर स्कूटर पर बांटने जाते थे। पर फिर खाने के लिए काफ़ी लोगों ने आना शुरू कर दिया और इसलिए हमने ऑटो-रिक्शा में जाना शुरू किया।”

धीरे-धीरे, आसपास के लोग भी उनके इस काम से प्रभावित हुए और इस नेक काम में सहयोग देना शुरू किया। इसके बाद नर्मदा बेन ने इस काम के लिए एक वैन ले ली। उनकी पहल का नाम ‘राम भरोसे’ है, पर आज तक कभी भी उन्हें इस काम के लिए किसी से कुछ माँगने की जरूरत नहीं पड़ी।

नर्मदा बेन हर रोज सुबह 6 बजे उठती हैं और खाना बनाने की तैयारी शुरू करती हैं। दाल, सब्ज़ी, रोटी आदि बनाकर, वे सारा खाना बड़े-बड़े डिब्बों में पैक करके, उन्हें वैन में रखकर सायाजी अस्पताल लेकर जाती हैं। यहाँ वे जरुरतमन्द मरीजों और उनके रिश्तेदारों को खाना खिलाती हैं। वे हर रोज लगभग 300 लोगों का पेट भरती हैं।

उनके घर में आपको दीवारों पर कई सारे सर्टिफिकेट्स और सम्मान दिखेंगे। उनके इस काम के लिए उन्हें पूर्व-राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने भी सम्मानित किया था।

“साल 2001 में मेरे पति अस्पताल में थे और वेंटीलेटर पर थे। डॉक्टर ने कहा कि वे ज्यादा नहीं जी सकते और इसलिए बेहतर है कि हम वेंटीलेटर हटा दें। पर उस समय, सबसे पहले मैं वैन में खाना रखकर जरुरतमंदों को खिलाने के लिए गयी, क्योंकि मुझे पता था कि सभी लोग मेरा इन्तजार कर रहे होंगे। इसलिए मैंने डॉक्टर से कहा कि मेरे आने तक का इन्तजार करें,” नर्मदा बेन ने बताया

उन्होंने कहा कि मेरे पति अगर सही होते तो वे भी मुझे यही करने के लिए कहते। अपने पति के जाने के बाद भी नर्मदा बेन इस काम को बाखूबी संभाल रही हैं। हर दिन ज्यादा से ज्यादा लोगों का पेट भरने के दृढ़-निश्चय के साथ वे उठती हैं। उनके चेहरे पर आपको हमेशा एक संतुष्टि-भारी मुस्कान मिलेगी, जो उन्हें यह काम करते हुए मिलती है।

यकीनन, नर्मदा बेन पटेल बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा हैं।


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वफ़ादारी की मिसाल : 16 साल पहले बचाए गए कुत्ते ने बचाई इस डॉक्टर की जान!

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हते है ‘कुत्ता इंसान का सबसे वफ़ादार साथी होता है’! हाल ही में पुणे में हुई एक घटना ने इस कहावत को सच साबित कर दिखाया है।

महाराष्ट्र में पुणे-निवासी डॉक्टर रमेश संचेती को 23 जनवरी 2019 को अचानक दिल का दौरा पड़ा और इस नाजुक स्थिति में उनकी पालतू, ब्राउनी ने उनकी जान बचायी।

लगभग 16 साल पहले डॉ. संचेती को उनकी हाउसिंग सोसाइटी में एक छोटा-सा, बेघर कुत्ते का बच्चा मिला था। उसे वे अपने घर ले आये। डॉ. संचेती अपने एक और पड़ोसी व दोस्त, अमित शाह के साथ मिलकर बचपन से लेकर अब तक ‘ब्राउनी’ का ख्याल रखते आ रहे हैं। इन दोनों ने ही उसे ‘ब्राउनी’ नाम दिया।

आज ब्राउनी भले ही बूढ़ी और कमजोर हो गयी है, पर उसकी इन्द्रियाँ अभी भी तेज़ हैं।

बीते बुधवार, जब 65 वर्षीय डॉ. संचेती को छोटा-सा दिल का दौरा पड़ा और साथ ही लकवा का दौरा भी आया, तब ब्राउनी की वजह से ही उनकी जान बच पाई।

डॉ. संचेती के दोस्त अमित शाह हर दिन लगभग 12:30 बजे ब्राउनी को खाना खिलाते हैं। पर बीते बुधवार, जब शाह उसे खाना खिलाने आये, तो वह बहुत ही बैचेन थी और रो रही थी। उसने खाना भी नहीं खाया, जबकि वह कभी खाना खाने से माना नहीं करती।

ब्राउनी के साथ अमित शाह

शाह ने बताया कि वह बार-बार डॉ. संचेती के कमरे की तरफ़ देख रही थी। इसलिए उन्होंने भी खिड़की से कमरे में देखा और पाया कि डॉ. संचेती ज़मीन पर बेसुध पड़े हैं। शाह ने तुरंत मदद के लिए आवाज़ लगायी और कमरे का दरवाज़ा तोड़कर डॉ. संचेती को बाहर निकाला गया।

डॉ. संचेती फ़िलहाल अस्पताल में हैं और खतरे से बाहर हैं। शाह ने कहा, “ब्राउनी ने डॉ. संचेती की भारी सांसों को महसूस कर लिया था और उसने उनके गिरने की आवाज़ भी सुनी होगी, इसलिए उसे समझ में आ गया कि कुछ गलत है। सारा श्रेय उसकी वफादारी को जाता है।”

डॉ. रमेश संचेती

डॉ. संचेती के परिवार से कोई भी उस समय घर पर नहीं था। उनका बेटा नौकरी के चलते उनके निवास-स्थान से 10 किलोमीटर दूर रहता है और उनकी पत्नी भी शहर से बाहर गयी हुई थी।

शाह नेत्रहीनों और विशेष रूप से दिव्यांग कुत्तों के लिए एक एनजीओ चलाते हैं। उन्होंने बताया कि डॉ. संचेती ने ब्राउनी को एक भयानक बीमारी से बचाया था, तब वह 14 साल की थी। “लगभग दो साल पहले, ब्राउनी को किडनी फेलियर हो गया था और ऐसे में डॉ. संचेती की वजह से ही उसकी जान बच पाई थी,” शाह ने कहा।

बेशक, इस घटना ने इंसानों और जानवरों के बीच के अनमोल रिश्ते के प्रति एक मिसाल कायम की है। हम उम्मीद करते हैं कि डॉ. संचेती जल्द से जल्द स्वस्थ हो जायेंगें।


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छायावाद युग का वह कवि, जिसकी रचनाएँ प्रकृति-प्रेम और देशप्रेम का संगम बनीं!

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हिंदी साहित्य के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी एक महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे।उनका नाम छायावाद की उन हस्तियों में से एक है जिनके कारण वह युग और भी विशेष हो गया। इस युग के कवि खुद को कुदरत और प्रकृति के करीब महसूस करते थे और इसी के ओत-प्रोत लिखते थे।

चतुर्वेदी की रचनाएँ भी आपको प्रकृति के करीब ले जाएँगी। हालांकि, उनकी रचनाएँ प्रकृति के साथ-साथ देशप्रेम और देशभक्ति की भावना से भी परिपूर्ण होती थीं। इसलिए उनका एक उपनाम ‘एक भारतीय आत्मा’ भी पड़ गया था। उन्होंने अपनी लेखनी को अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल  किया था।

उनका जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम नन्दलाल चतुर्वेदी था जो गाँव के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे। प्राइमरी शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी, गुजरती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।

16 साल की उम्र में उन्होंने स्कूल में शिक्षक के तौर पर काम शुरू किया। कुछ समय पश्चात् वे ‘प्रभा,’ ‘प्रताप’ और ‘कर्मवीर; जैसे राष्ट्रवादी समाचार पत्रों से जुड़ गये। उन्होंने शिक्षक की नौकरी छोड़ दी और खुद को पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दिया। अपने लेखों और रचनाओं की वजह से उन्हें कई बार ब्रिटिश सरकार के कोप का भी सामना करना पड़ा।

भारत की स्वतंत्रता के बाद भी उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोड़ी, बल्कि उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े रहने के लिए मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद ठुकरा दिया था। उनके प्रमुख कार्य हैं- ‘वेणु ले, गूंजे धरा,’ ‘हिम किरीटनी,’ ‘हिम तरंगिनी,’ ‘युग चरण,’ ‘साहित्य देवता,’ ‘दीप से दीप जले,’ ‘कैसा छन्द बना देती है,’ ‘पुष्प की अभिलाषा’ आदि हैं।

साल 1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ चतुर्वेदी को ‘हिम किरीटिनी’ के लिए दिया गया था। इस के बाद साल 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की स्थापना होने पर हिन्दी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार उनको ‘हिम तरंगिनी’ के लिए प्रदान किया गया था।

‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि को सागर विश्वविद्यालय ने 1959 में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया। साल 1963 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। इतना ही नहीं, साल 1965 में मध्यप्रदेश शासन की ओर से खंडवा में ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के नागरिक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।

साल 1968 में 78 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया से विदा ली। उनके सम्मान में भोपाल का माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। साथ ही, साल 1987 से हर साल किसी बेहतरीन कवि को ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’ से नवाज़ा जाता है।

आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िए उनकी कुछ प्रमुख कविताएँ!

1. ‘दीप से दीप जले’ कविता

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।


2. ‘सिपाही’ कविता

गिनो न मेरी श्वास,
छुए क्यों मुझे विपुल सम्मान?
भूलो ऐ इतिहास,
खरीदे हुए विश्व-ईमान !!
अरि-मुड़ों का दान,
रक्त-तर्पण भर का अभिमान,
लड़ने तक महमान,
एक पँजी है तीर-कमान!
मुझे भूलने में सुख पाती,
जग की काली स्याही,
दासो दूर, कठिन सौदा है
मैं हूँ एक सिपाही !

क्या वीणा की स्वर-लहरी का
सुनूँ मधुरतर नाद?
छि:! मेरी प्रत्यंचा भूले
अपना यह उन्माद!
झंकारों का कभी सुना है
भीषण वाद विवाद?
क्या तुमको है कुस्र्-क्षेत्र
हलदी-घाटी की याद!
सिर पर प्रलय, नेत्र में मस्ती,
मुट्ठी में मन-चाही,
लक्ष्य मात्र मेरा प्रियतम है,
मैं हूँ एक सिपाही !
खीचों राम-राज्य लाने को,
भू-मंडल पर त्रेता !
बनने दो आकाश छेदकर
उसको राष्ट्र-विजेता

जाने दो, मेरी किस
बूते कठिन परीक्षा लेता,
कोटि-कोटि `कंठों’ जय-जय है
आप कौन हैं, नेता?
सेना छिन्न, प्रयत्न खिन्न कर,
लाये न्योत तबाही,
कैसे पूजूँ गुमराही को
मैं हूँ एक सिपाही?

बोल अरे सेनापति मेरे!
मन की घुंडी खोल,
जल, थल, नभ, हिल-डुल जाने दे,
तू किंचित् मत डोल !
दे हथियार या कि मत दे तू
पर तू कर हुंकार,
ज्ञातों को मत, अज्ञातों को,
तू इस बार पुकार!
धीरज रोग, प्रतीक्षा चिन्ता,
सपने बनें तबाही,
कह `तैयार’! द्वार खुलने दे,
मैं हूँ एक सिपाही !

बदलें रोज बदलियाँ, मत कर
चिन्ता इसकी लेश,
गर्जन-तर्जन रहे, देख
अपना हरियाला देश!
खिलने से पहले टूटेंगी,
तोड़, बता मत भेद,
वनमाली, अनुशासन की
सूजी से अन्तर छेद!
श्रम-सीकर प्रहार पर जीकर,
बना लक्ष्य आराध्य
मैं हूँ एक सिपाही, बलि है
मेरा अन्तिम साध्य !

कोई नभ से आग उगलकर
किये शान्ति का दान,
कोई माँज रहा हथकड़ियाँ
छेड़ क्रांन्ति की तान!
कोई अधिकारों के चरणों
चढ़ा रहा ईमान,
`हरी घास शूली के पहले
की’-तेरा गुण गान!
आशा मिटी, कामना टूटी,
बिगुल बज पड़ी यार!
मैं हूँ एक सिपाही ! पथ दे,
खुला देख वह द्वार !!


3. ‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता

चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!


4. ‘ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें’ कविता

ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें
तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़ते
भू-स्वामी, निर्माता !
कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
गाता फिरे विश्व में भारत
तेरा ही नव-श्रम-यश !
तेरी एक मुस्कराहट पर
वीर पीढ़ियाँ फूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !
इन भुजदंडों पर अर्पित
सौ-सौ युग, सौ-सौ हिमगिरी
सौ-सौ भागीरथी निछावर
तेरे कोटि-कोटि शिर !
ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !
वायु तुम्हारी उज्ज्वल गाथा
सूर्य तुम्हारा रथ है,
बीहड़ काँटों भरा कीचमय
एक तुम्हारा पथ है ।
यह शासन, यह कला, तपस्या
तुझे कभी मत भूलें ।
ये अनाज की पूलें
तेरे काँधें झूलें !


5. ‘गंगा की विदाई’ कविता

शिखर शिखारियों मे मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे ? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,

अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,

भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,

तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

डेढ सहस मील मे इसने
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,

हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित ‘भू’
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,

इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय |
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |


6. ‘यह अमर निशानी किसकी है?’ कविता

यह अमर निशानी किसकी है?
बाहर से जी, जी से बाहर-
तक, आनी-जानी किसकी है?
दिल से, आँखों से, गालों तक-
यह तरल कहानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

रोते-रोते भी आँखें मुँद-
जाएँ, सूरत दिख जाती है,
मेरे आँसू में मुसक मिलाने
की नादानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

सूखी अस्थि, रक्त भी सूखा
सूखे दृग के झरने
तो भी जीवन हरा ! कहो
मधु भरी जवानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

रैन अँधेरी, बीहड़ पथ है,
यादें थकीं अकेली,
आँखें मूँदें जाती हैं
चरणों की बानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

आँखें झुकीं पसीना उतरा,
सूझे ओर न ओर न छोर,
तो भी बढ़ूँ, खून में यह
दमदार रवानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

मैंने कितनी धुन से साजे
मीठे सभी इरादे
किन्तु सभी गल गए, कि
आँखें पानी-पानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

जी पर, सिंहासन पर,
सूली पर, जिसके संकेत चढ़ूँ
आँखों में चुभती-भाती
सूरत मस्तानी किसकी है?
यह अमर निशानी किसकी है?

कविता साभार: कविता कोश


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सुरैया: भारत की ‘सुर-सम्राज्ञी,’जो बनी हिंदी सिनेमा की पहली ‘ग्लैमर गर्ल’!

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हते हैं कि मुंबई ‘सपनों का शहर’ है, जो किसी के लिए नहीं रुकता। लेकिन अगर कोई इस शहर के ट्रैफिक में फंस जाये, तो भागना तो क्या घंटों तक रेंगना पड़ जाता है। खैर, आज के ज़माने में इस ट्रैफिक की वजह है सड़कों पर बस, ऑटो-रिक्शा, दुपहिया और गाड़ियों की लम्बी-लम्बी कतारें।

पर कहते हैं कि एक वक़्त था, जब मुंबई, मुंबई नहीं बल्कि बॉम्बे हुआ करती थी, और उस वक़्त, बॉम्बे के मरीन ड्राइव रोड पर गाड़ियों की लम्बी कतारों के चलते नहीं, बल्कि एक लड़की की वजह से ट्रैफिक जाम लगता था। वह लड़की थी हिंदी सिनेमा जगत की सबसे मशहूर अभिनेत्री और गायिका, जिसकी एक झलक पाने के लिए उसके घर के बाहर लाखों की भीड़ जमा हो जाती थी।

अपने समय की सबसे महँगी कलाकार, सुरैया, जिन्हें मल्लिका-ए-हुस्न, मल्लिका-ए-तरन्नुम और मल्लिका-ए-अदाकारी जैसे नामों से नवाज़ा गया।

सुबह से लेकर शाम तक, मरीन ड्राइव में उनके घर ‘कृष्णा महल’ के बाहर उनके चाहने वालों की लाइन लगी रहती थी। कभी-कभी तो मामला यहाँ तक पहुँच जाता कि भीड़ को संभालने के लिए पुलिस को आना पड़ता था। सुरैया बहुत कम ही अपनी फ़िल्मों के प्रीमियर पर जाती थीं, क्योंकि यहाँ उनके कद्रदानों और चाहने वालों की भीड़ बेकाबू हो जाती थी। कई बार तो खुद सुरैया को चोट लगी और इसी के चलते वे बहुत कम ही पब्लिक इवेंट में जाती थीं।

यह भी पढ़ें: जिनकी आवाज़ के सब दीवाने थे, कभी उस ‘के. एल सहगल’ ने गाना तो क्या बोलना भी छोड़ दिया था!

सुरैया का पूरा नाम सुरैया जमाल शेख़ था। 15 जून 1929 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में जन्मीं सुरैया, अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। उनके जन्म के एक साल बाद ही उनका परिवार बॉम्बे आकर बस गया और यहाँ, उनके मामूजान, एम. ज़हूर फ़िल्मों में काम करने लगे। 30 के दशक के हिंदी सिनेमा के मशहूर खलनायकों में उनका नाम भी शुमार होता है। अपने मामा की वजह से ही सुरैया का रिश्ता हिंदी सिनेमा जगत से जुड़ा।

फोटो साभार

सुरैया में गायिकी और एक्टिंग का टैलेंट बचपन से ही था। अक्सर वे अपने मामा के साथ फिल्म के शूट पर जाया करती थीं और यहीं, साल 1941 में उन्हें नानूभाई वकील की ‘ताज महल’ फिल्म में युवा मुमताज महल का किरदार निभाने का मौका मिला। इस फिल्म के बाद उन्होंने कभी भी मुड़कर नहीं देखा। उन्हें एक के बाद एक फ़िल्में मिलने लगीं।

एक्टिंग के साथ-साथ उनकी गायिकी का सफ़र भी शुरू हो चूका था। सुरैया उस समय ऑल इंडिया रेडियो पर गाती थीं और यहीं पर एक रिकॉर्डिंग के दौरान नौशाद अली (संगीतकार) ने उन्हें सुना। वे सुरैया की आवाज़ से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी फ़िल्मों के लिए सुरैया को प्लेबैक सिंगर के तौर पर काम दिया।

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साल 1943 में आई फिल्म ‘इशारा’ ने उन्हें रातोंरात फिल्म स्टार बना दिया। इस फिल्म में सुरैया को अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के साथ बतौर लीड हीरोइन काम करने का मौका मिला। उस समय सुरैया सिर्फ़ 14 साल की थीं, जबकि पृथ्वीराज कपूर की उम्र 37 साल थी। इस फिल्म के दौरान पृथ्वीराज ने भी माना कि उनके लिए सुरैया के साथ काम करना आसान नहीं था, क्योंकि परदे पर वह उनकी हीरोइन थीं और जैसे ही कैमरा बंद होता तो वे उनके लिए उनकी बेटी की तरह थीं। पर पृथ्वीराज कपूर और सुरैया की इस फिल्म को बहुत सराहना मिली।

पृथ्वीराज कपूर के अलावा उन्होंने उस समय के बेहतरीन गायक और एक्टर के. एल सहगल के साथ भी काम किया था। सहगल ने एक बार उनकी आवाज़ सुनी और वे उनके कायल हो गये। उन्होंने साल 1945 में आई फिल्म ‘तदबीर’ के लिए डायरेक्टर से सुरैया को कास्ट करने के लिए सिफ़ारिश की। सुरैया ने जिन भी फ़िल्मों में एक्टिंग की, उन सभी में उन्होंने गायकी भी की।

जितना लोग उनकी अदाकारी के दीवाने थे, उतनी ही उनके आवाज़ के। सुरैया को ‘सुर सम्राज्ञी’ के साथ-साथ बॉलीवुड की ‘ग्लैमर गर्ल’ भी कहा जाने लगा।

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40 और 50 के दशक में बॉलीवुड की इस पहली ‘ग्लैमर गर्ल’ ने एक से बढ़कर एक फ़िल्में दीं, जिनमें शमा, मिर्ज़ा ग़ालिब, दो सितारे, खिलाड़ी, सनम, कमल के फूल, विद्या आदि शामिल हैं। उनकी फ़िल्मों के अलावा उनके गीत आज भी भुलाये नहीं भूलते। इन गीतों में, सोचा था क्या मैं दिल में दर्द बसा लाई, तेरे नैनों ने चोरी किया, ओ दूर जाने वाले, वो पास रहे या दूर रहे, तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी, मुरली वाले मुरली बजा आदि शामिल हैं।

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साल 1954 में आई ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फिल्म में उन्होंने नवाब जान का किरदार निभाया था, जो ग़ालिब से बेहद प्यार करती थीं। फिल्म में ग़ालिब की पांच ग़ज़लों को सुरैया ने अपनी आवाज दी। उनके गायन और अभिनय के चलते ये फिल्म, हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में शुमार होती है। इतना ही नहीं, इस फिल्म में उनके गायन के लिए उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी सराहा था।

नेहरु ने एक समारोह के दौरान सुरैया से कहा, “तुमने ग़ालिब की रूह को एक बार फिर ज़िन्दा कर दिया।” 

नरगिस और सुरैया के साथ जवाहर लाल नेहरु (फोटो साभार)

सुरैया के लिए नेहरु की यह सराहना किसी ऑस्कर से भी बढ़कर थी। यह फिल्म हिंदी सिनेमा की पहली फीचर फिल्म थी, जिसे ‘प्रेसिडेंट गोल्ड मेडल’ मिला।

साल 1936 से लेकर साल 1963 तक, सुरैया ने 67 फ़िल्मों में काम किया और लगभग 338 गानों में अपनी आवाज़ दी। सुरैया उस पीढ़ी की आख़िरी कड़ी में से एक थीं, जिन्हें अभिनय के साथ-साथ गायिकी में भी महारत हासिल थी। साल 2004 में 31 जनवरी को सुरों की इस मल्लिका ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

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सुरैया तो चली गईं और पीछे छोड़ गयीं अपने अभिनय और अपनी आवाज़ की एक ऐसी विरासत, जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता है। आज जब भी उनकी बात होती है तो मन कहीं न कहीं खुद ही उनका गीत गुनगुनाने लगता है कि ‘वो पास रहें या दूर रहें, नज़रों में समाये रहते हैं…’

भारत की इस अनमोल रत्न को शत-शत नमन!

(संपादन – मानबी कटोच)


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आयकर में छूट से लेकर किसानों के लिए रियायतों तक, जानिए बजट 2019 की बड़ी बातें!

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बीते शुक्रवार, 1 फरवरी 2019 को अंतरिम बजट पेश करते हुए, वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने कई महत्वपूर्ण घोषणाएँ की। हालांकि, ये सभी घोषणाएँ अंतरिम बजट में की गयीं, न कि आम बजट में।

अंतरिम बजट चुनावी साल में पेश होता है यानि जिस साल लोकसभा चुनाव होने हो, उसी साल अंतरिम बजट पेश किया जाता है। इसके मुताबिक, केंद्र सरकार पूरे वित्त वर्ष की बजाय कुछ महीनों तक के लिए यानी कि एक सिमित अवधि के लिए ही बजट पेश करती है और चुनाव होने के बाद नई गठित सरकार पूर्ण/आम बजट पेश करती है।

वित्त मंत्री गोयल ने यह अंतरिम बजट पेश किया और इसमें कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाये गये।

1. इस बजट की सबसे बड़ी घोषणा शायद यही है कि सरकार ने इनकम टैक्स (आयकर) के लिए व्यक्तिगत कमाई की सीमा 5 लाख रूपये कर दी है। टैक्स स्लैब में बदलाव करते हुए 5 लाख रुपए तक की सालाना सैलरी वालों को पूर्ण टैक्स छूट दे दी गयी है।

अभी तक सालाना 2.5 लाख रुपए तक की आय टैक्स फ्री थी। लेकिन अब इसे दोगुना कर दिया गया है।

2. मेगा पेंशन योजना: इस योजना के तहत, अनौपचारिक क्षेत्रों में काम कर रहे लगभग 10 करोड़ लोगों को हर महीने 3,000 रुपये की पेंशन का आश्वासन दिया गया है।

यदि कोई अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाला श्रमिक/मजदूर 18 वर्ष की उम्र में इस योजना से जुड़ना चाहते हैं, तो उन्हें हर महीने 55 रुपये का भुगतान करना होगा और 29 वर्ष की आयु वालों को 100 रुपये का भुगतान करना होगा।

जब वे 60 वर्ष की उम्र पर पहुँच जायेंगे, तो उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हो जाएगी।

3. बजट में घोषणा की गयी कि सरकार सभी 22 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य, फसल की लागत राशि से कम से कम 50% अधिक देगी।

किसानों के लिए, गोयल ने ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ (PM-KISAN) की घोषणा की है, इसके अंतर्गत 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों को हर साल 6, 000 रूपये की राशि दी जाएगी और यह राशि, सीधा उनके बैंक अकाउंट में ट्रांसफर होगी। किसानों को सालभर में दो- दो हजार रूपए की तीन किस्तों में यह राशि दी जाएगी।

लगभग 12 करोड़ किसानों को PM-KISAN से लाभ होने की संभावना है, जिसके लिए 75,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।

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4. इस बजट में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) प्रोग्राम की आवंटन राशि को 5,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर आने वाले वित्तीय वर्ष के लिए 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है।

5. पूर्वी-उत्तरी क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए दी गयी धनराशि में पिछले वर्ष के मुताबिक 21% तक की वृद्धि की गयी है। इस क्षेत्र को कॉमर्स का हब बनाने पर पूरा ध्यान केन्द्रित है, विशेष रूप से दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ और इस दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है।

इसके अलावा किसानों के लिए PM-KISAN योजना को 1 दिसंबर 2018 से लागू माना जायेगा। साथ ही, प्राकृतिक आपदा से जूझ रहे किसानों को ब्याज दर में 2% की छूट मिलेगी और समय पर कर्ज चुकाने पर 3% अतिरिक्त छूट मिलेगी। किसान क्रेडिट कार्ड स्कीम का लाभ मछली पालन में भी दिया जाएगा और 1.4 करोड़ मछुआरों के लिए अलग से फिशरीज डिपार्टमेंट बनाया जाएगा।


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सुरैया तैयबजी: राष्ट्रीय ध्वज के डिजाईन में इस महिला का था अहम योगदान!

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ब भी हम अपने देश के तिरंगे को देखते हैं तो हमारा दिल शान, गर्व और देशभक्ति से भर जाता है। तिरंगा न सिर्फ़ हमारे देश की एकता और अखंडता का प्रतीक है, बल्कि यह भारत की पहचान का प्रतीक है।

ज़्यादातर लोग जानते हैं, कि भारत का राष्ट्रीय ध्वज ‘पिंगली वेंकैया’ ने डिजाईन किया था। पर बहुत कम लोगों को यह पता है कि आज जिस डिजाईन को भारत के तिरंगे के लिए इस्तेमाल किया जाता है, वह एक महिला स्वतंत्रता सेनानी ने बनाया था।

एक अंग्रेज़ इतिहासकार ट्रेवर रोयेल ने अपनी किताब ‘द लास्ट डेज़ ऑफ़ राज’ में लिखा है कि भारत का अंतिम राष्ट्रीय ध्वज सुरैया तैयबजी ने बनाया था।

साल 1919 में हैदराबाद (आंध्र प्रदेश, अब तेलंगाना की राजधानी) में जन्मी सुरैया एक प्रतिष्ठित कलाकार थीं। उन्हें अक्सर समाज के प्रति अपने प्रगतिशील विचारों के लिए जाना जाता है। उनकी शादी बदरुद्दीन तैयबजी से हुई, जो एक भारतीय सिविल अधिकारी थे और बाद में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने।

सुरैया संविधान सभा के तहत विभिन्न समितियों की सदस्य थीं और उनमें से कई में प्रमुख भूमिकाएँ निभा चुकी हैं। वे काफ़ी कलात्मक और बहु-प्रतिभाशाली थीं।

बदरुद्दीन और सुरैया तैयबजी

सुरैया से पहले भी बहुत से लोगों ने समय-समय पर ध्वज के डिजाईन दिए थे। इन लोगों में भगिनी निवेदिता, मैडम कामा, एनी बेसेंट, लोकमान्य तिलक और पिंगली वेंकैया जैसे नाम शामिल हैं।

साल 1921 में पहली बार महात्मा गाँधी ने कांग्रेस के सम्मेलन में अपना एक ध्वज बनाने की बात उठाई थी। उसके बाद ही फ़ैसला हुआ कि भारत का अपना एक झंडा, एक ध्वज होगा, जो कि भारत का एक राष्ट्र के तौर पर प्रतिनिधित्व करेगा। उन्होंने कहा,

“यह हम सब भारतीयों (हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी, और वो सभी लोग जिनके लिए भारत उनका घर है) के लिए बहुत जरूरी है कि हमारा अपना एक ध्वज हो, जिसके लिए हम जिए और मर सकें।”

गाँधी जी के इस विचार से प्रभावित होकर बहुत से सेनानी और क्रांतिकारियों ने ध्वज के लिए डिजाईन विकल्प के तौर पर दिए। इनमें से गाँधी जी ने एक झंडे को स्वीकृति दी। इस झंडे को डिजाईन किया था आंध्र प्रदेश के पिंगली वेंकैया ने।

इस झंडे में दो रंग- लाल और हरा का इस्तेमाल हुआ था। हालांकि, गाँधी जी के सुझाव पर इसमें सफ़ेद रंग भी जोड़ा गया और साथ ही, चरखे का चिह्न भी इस्तेमाल हुआ।

पिंगली वेंकैया द्वारा समय-समय पर बनाये गये डिजाईन

हालांकि, बाद के वर्षों में इस में और भी बदलाव हुए। और आखिर में, जो तीन रंग का ध्वज जवाहर लाल नेहरु की कार पर लगाया गया, वह सुरैया ने बनाया था। द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बदरुद्दीन और सुरैया ने ही ध्वज में चरखे की जगह अशोक चक्र के चिह्न को इस्तेमाल करने का सुझाव दिया था। सुरैया ने ही इस ध्वज का ग्राफिक खाका तैयार किया।

यहाँ तक कि पहला तिरंगा सुरैया ने खुद अपनी देख-रेख में दर्जी से सिलवाया था और इस तिरंगे को नेहरु जी को भेंट किया गया। पहली बार प्रधानमंत्री की कार पर जो तिरंगा लहरा, वह सुरैया ने दिया था।

15 अगस्त 1947 को जब पहली बार जन-मानस के सामने तिरंगा फहराया गया

इस ध्वज को 22 जुलाई 1947 को मंजूरी मिली। हालांकि, उस समय संविधान सभा में  राष्ट्रीय ध्वज को लेकर जो प्रस्ताव पारित हुआ था, उसमें ना तो पिंगली वेंकैया के नाम का उल्लेख था और ना ही सुरैया तैयबजी का। सुरैया और उनके पति ने भी कभी यह दावा नहीं किया कि राष्ट्रीय ध्वज उन्होंने बनाया है। वे इस बात का पूरा सम्मान करते थे कि तिरंगे की मूल नींव वेंकैया ने रखी थी।

इसलिए आज भी ध्वज के निर्माणकर्ता के नाम पर संशय रहता है। लेकिन इस बात को कोई नहीं नकार सकता कि ये सुरैया का ध्वज को अंतिम रूप देने में कोई योगदान नहीं था।

पर भारत की और भी बहुत-सी महान महिलाओं की तरह इतिहास में सुरैया तैयबजी को भी कोई खास स्थान नहीं मिला। जबकि, कहीं न कहीं सुरैया एक कारण है कि आज केसरिया, सफ़ेद और हरा रंग हमें देशभक्ति की भावना से भर देता है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम भारत की इस बेटी को सम्मान और सराहना से नवाज़ें।

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95 साल के एक किसान की सालों की मेहनत और ‘द बेटर इंडिया’पर एक कहानी ने उन्हें दिलाया पद्म श्री!

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“मेरे पिता कभी भी गाजर की खेती करने के लिए तैयार नहीं हुए। लेकिन मुझे यह करना था- और कुछ समय के लिए सब कुछ बहुत अच्छा रहा। हम अपनी गाजरों के लिए इलाके में मशहूर थे। पर कुछ पारिवारिक मतभेदों के कारण मुझे मेरे पिता से अलग होना पड़ा और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं बचा।

कुछ समय के लिए, मैंने और मेरी पत्नी ने दूसरों के खेतों में मजदूरी की, ताकि हम अपने सात बच्चों का पेट भर सकें। जल्द ही, मेरी कड़ी मेहनत को देखते हुए, एक खेत के मालिक ने मुझे गाजर उगाने के लिए अपनी छह एकड़ ज़मीन लीज़ पर देने का प्रस्ताव रखा और कहा कि जब भी मुझसे हो पाए तब मैं उसे पैसे दे दूँ।

मैंने कड़ी मेहनत की, अपनी फसल उगाई और कुछ ही सालों में, गाजर की खेती से मुझे काफ़ी मुनाफ़ा हुआ। मैंने अपनी खुद की 40 एकड़ ज़मीन खरीदी। समय के साथ, मेरी बेटियों की शादी हो गयी, बड़े बेटे को नौकरी मिल गयी और मेरा छोटा बेटा, अरविन्द हमारी गाजर की खेती संभालने लगा। मेरे लिए यह एक खुशहाल बुढ़ापा था।

पर फिर, अरविन्द जब 20 साल का था, तो उसका एक्सीडेंट हो गया और उसके कुल्हे की हड्डी टूट गयी। मैं तब तक काफ़ी बूढ़ा हो चूका था और पूरे खेत की देखभाल नहीं कर सकता था। हर बीतते दिन के साथ हालात खराब होने लगे। इसलिए, बहुत दुखी मन से, मैंने अपनी दिन-रात की मेहनत से कमाई 10 एकड़ ज़मीन बेच दी।

लेकिन इस सबके बावजूद, मैंने गाजर उगाने के साथ-साथ गाजर के बीज़ और अलग-अलग किस्में विकसित करना नहीं छोड़ा। और इसी तरह मैंने ‘मधुवन गाजर’ बनाई और यहाँ तक पहुँचा।

इस पूरे समय में, मुझे कई बार ‘गुजरात के पहले गाजर किसान’ के तौर पर सम्मानित किया गया। पर मेरे बारे में बहुत कम लोग जानते थे। फिर जुलाई 2017 में एक दिन, मानबी कटोच नाम की किसी पत्रकार ने मेरे बारे में पूछने के लिए अरविन्द को फ़ोन किया। वो लगभग 2 घंटे तक मुझसे सवाल पूछती रही और अरविन्द ने हम दोनों के लिए अनुवादक का काम किया। कुछ दिनों के बाद, मेरी कहानी ‘द बेटर इंडिया’ पर आई! यह मुझ पर बनी कोई फ़िल्म देखने जैसा था।

जैसे ही कहानी प्रकाशित हुई, मुझे कॉल पर कॉल आना शुरू हो गये। उनमें से एक फ़ोन दिल्ली के एक बड़े होटल और खेत के मालिक का आया। वे खुद हमारे खेत पर आये और हमारे गाजर के बीज खरीदे। फिर जब वह दिल्ली वापिस गए, तो उन्होंने हमारे दिल्ली आने के लिए हवाई-जहाज की दो टिकटें भेजीं। मैं तो पहले कभी टैक्सी में भी नहीं बैठा था – हवाई जहाज में बैठना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी।

इसके बाद कई राज्यों से ऑर्डर आने शुरू हो गए और अब हम भारत के आठ अलग-अलग राज्यों में अपने गाजर और बीजों की सप्लाई करते हैं।

कल रात, 8:30 बजे, अरविंद को केंद्रीय मंत्रालय से फोन आया। उन्होंने कहा कि मुझे ‘पद्म श्री’ के लिए नामित किया गया था। पहले तो हमें विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन फिर मीडिया से फ़ोन आने लगे। उनमें से कुछ तो अभी भी यहीं हैं, जब मैं आपसे बात कर रहा हूँ (मुस्कुराते हुए)!

मैं 97 साल का हूँ। मैंने अपना जीवन पूरी तरह से जिया है। लेकिन आज सिर्फ़ एक कहानी ने मुझे कुछ ऐसा दिया जो कभी भी पैसा नहीं दे सकता था।

– वल्लभभाई वसरामभाई मारवानिया, गुजरात के जूनागढ़ जिले के ख़मधरोल गाँव के एक 97 वर्षीय उन्नत गाजर किसान हैं, जिन्हें ‘पद्म श्री’ से नवाज़ा गया है।

इस सच्चे हीरो और हमारे पाठकों को बधाई, जिन्होंने भारत को बेहतर बनाने में उनका साथ दिया।

उनकी पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें!


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अब पैकेजिंग होगी इको-फ्रेंडली; भारतीय वैज्ञानिकों ने कमल के तने, छाछ और ईसबगोल से किया यह कमाल!

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भारतीय शोधकर्ताओं ने कमल के तने के स्टार्च, दही के पानी के संकेंद्रित प्रोटीन और ईसबगोल को मिलाकर जैविक रूप से अपघटित होने में सक्षम झिल्ली विकसित की है। इस झिल्ली की संरचना मजबूत होने के साथ-साथ कम घुलनशील है। इसका उपयोग कई तरह के उत्पादों की पैकेजिंग में किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा स्टार्च को रूपांतरित करके उसके गुणों में सुधार किया जा सकता है। कमल के तने में उसके भार का 10-20 प्रतिशत स्टार्च होता है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ऑक्सीकरण और क्रॉस-लिंकिंग प्रक्रिया की मदद से कमल के तने को स्टार्च में बदलकर उसके गुणों में सुधार किया है। यह अध्ययन पंजाब के संत लोंगोवाल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।
शोधकर्ताओं में शामिल चरणजीत एस. रायर ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “पौधों से प्राप्त पॉलिमर से अपघटित होने लायक पैकेजिंग सामग्री बनाने के लिए काफी शोध किये जा रहे हैं। इन शोधों का उद्देश्य पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक का उपयोग कम करना है। स्टार्च कम लागत में आसानी से उपलब्ध हो सकता है और यह जालीनुमा संरचना बनाने में सक्षम है। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बहुलक (पॉलिमर) माना जाता है, जिसका उपयोग बार-बार कर सकते हैं। अकेले स्टार्च के उपयोग से बनी झिल्लियां कमजोर होती हैं और उनमें जलवाष्प भी अधिक मात्रा में होती है। ऐसे में इनका उपयोग बहुत कम हो पाता है।”
दही के पानी का प्रोटीन पनीर निर्माण का एक उप-उत्पाद होता है। प्रोटीन और स्टार्च के बीच बहुलक अंतरक्रिया से बेहतर गुणों वाली झिल्ली बनायी जा सकती है। ईसबगोल अत्यधिक पतला और चिपचिपा होता है, जिसका उपयोग झिल्ली बनाने की सामग्री में शामिल एक घटक के रूप में किया जा सकता है।

Biodegradable film developed from whey, isabgol and lotus stem starch
कमल के तने के स्टार्च से बनी झिल्ली

इस ईको-फ्रेंडली झिल्ली को दो चरणों में तैयार किया गया है। पहले ईसबगोल भूसी को 30 मिनट तक पानी भिगोया गया और फिर उसे 20 मिनट तक उबलते पानी में गर्म किया गया है। इस घोल को ठंडा करके उसमें दही के पानी के संकेंद्रित प्रोटीन, कमल के तने का स्टार्च और ग्लिसरॉल को मिलाया गया है। इसके बाद पूरे मिश्रण को 90 डिग्री सेल्सियस तापमान पर गर्म किया गया और फिर उसे टेफ्लॉन लेपित सांचों में डाल दिया गया। इसके बाद सांचों को गर्म किया गया और फिर उनमें बनी झिल्ली को उतारकर निकाल लिया गया। इस प्रकार बनी झिल्लियों को नमी से बचाने के लिए विशेष पात्रों में एकत्रित करके रखा जाता है।

डॉ चरणजीत सिंह रायर और डॉ साक्षी सुखीजा

शोधकर्ताओं ने जैविक रूप से अपघटित होने में सक्षम इन झिल्लियों के विभिन्न गुणों का आकलन किया है। किसी भी झिल्ली की मोटाई उसका सबसे महत्वपूर्ण गुण होती है क्योंकि इसी से उसकी मजबूती और अवरोधक क्षमता का पता चलता है। इस शोध में ऑक्सीकरण और क्रॉस-लिंकिंग प्रक्रियाओं द्वारा संशोधित स्टार्च से बनी झिल्लियों की मोटाई काफी अधिक थी और उनमें नमी की मात्रा और तन्यता क्षमता भी अधिक पायी गई है। इसके अलावा, गैर-संशोधित स्टार्च से बनायी गई झिल्लियों की तुलना में संशोधित-स्टार्च से बनी झिल्लियों की घुलनशीलता भी कम पायी गई है।
रायर के अनुसार, “ये झिल्लियां सफेद और पारदर्शी हैं और इनसे बनाए गए थैलों में रखी सामग्री देखी जा सकती है। इसलिए उपभोक्ताओं द्वारा बड़े पैमाने पर इसके उपयोग को बढ़ावा मिलेगा। इन झिल्लियों का उपयोग खाद्य पदाथों को ढंकने के लिए उनके ऊपर परत चढ़ाने, किसी सामान को बंद करके रखने, किसी सामग्री को सूक्ष्मजीवों से संक्रमित होने से बचाने के लिए उसे लपेटकर रखने, दवाओं के वितरण और कई तरह की खाद्य सामग्रियों की पैकिंग में किया जा सकता है।”
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में साक्षी सुखीजा, सुखचरन सिंह और चरणजीत एस रायर शामिल थे। अध्ययन के नतीजे जर्नल ऑफ द साइंस ऑफ फूड ऐंड एग्रीकल्चर में प्रकाशित किए गए हैं। (इंडिया साइंस वायर)

मूल लेख – डॉ पी. सूरत

भाषांतरण- शुभ्रता मिश्रा


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डॉक्टर और आइएएस अफ़सर विजयकार्तिकेयन की छात्रों को सलाह : ‘प्लान बी’हमेशा तैयार रखें!

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यूपीएससी की तैयारी करने वाले बहुत-से छात्र, अक्सर विकल्प के तौर पर कुछ न कुछ सोच कर रखते है। जैसे कि कोई कॉर्पोरेट जॉब या फिर कोई सरकारी प्रोजेक्ट, कुछ भी। जिससे अगर उनका चयन सिविल सर्विस के लिए ना भी हो, तो उनके पास कुछ तो रहे।

डॉ. विजयकार्तिकेयन के लिए भी उनका प्लान-बी था मेडिसिन, जबकि उनका सपना आईएएस अफ़सर बनने का था।

द बेटर इंडिया से बातचीत के दौरान, उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा दी, इस पूरे समय में किन चुनौतियों का सामना किया और अब कोयंबटूर सिटी म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन का कमिश्नर होने पर वे कैसा महसूस करते हैं!

शहर के सबसे युवा कमिश्नर के तौर पर, डॉ. विजयकार्तिकेयन ने अपने करियर के कुछ ही समय में अपार सफलता हासिल की है। उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं।

हाल ही में प्रकाशित हुई उनकी किताब, ‘वन्स अपॉन एन आइएएस एग्ज़ाम’ में उन्होंने विशी नाम के एक लड़के की ज़िंदगी के बारे में लिखा है।

डॉ. विजयकार्तिकेयन

पिता से मिली प्रेरणा

डॉ कार्तिकेयन के पिता भारतीय वन सेवा में कार्यरत थे और उन्हें देखकर ही, उन्होंने भी सिविल सर्विस ज्वाइन करने का फ़ैसला किया। उन्होंने कहा,

“मैंने हमेशा पापा को आदिवासियों के विकास और इको-टूरिज्म के क्षेत्र में काम करते हुए देखा है। इसलिए मुझे लगा कि प्रशासनिक सेवाओं के माध्यम से आप आम लोगों के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। पर मुझे हमेशा से यह भी पता था कि सिविल सेवा की परीक्षा बहुत कठिन होती है और इसलिए मुझे प्लान-बी की जरूरत थी। मेडिकल की पढ़ाई ने भी मुझे लोगों से मिलने और किसी तरह उनकी मदद करने के अवसर दिए।”

सिविल सेवा और प्लान बी

मेडिकल कॉलेज में पांच साल बिताने के बाद, कड़ी मेहनत और घंटों की पढ़ाई, विजयकार्तिकेयन के लिए कोई नई बात नहीं थी। मेडिकल कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद, उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा दी। पर बदकिस्मती से, उनका यह प्रयास विफल रहा।

पर कहते है ना कि असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी है। इसके बाद उन्होंने अपना आत्म-निरिक्षण किया और फिर से परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। हर रोज़, 7 से 8 घंटे उन्होंने पढ़ाई के लिए दिए।

उन्हें समझ में आया कि इस परीक्षा में हर विषय पर ज्ञान होना बहुत जरूरी है। इस बात का ध्यान रखना होगा कि आप सभी विषय पर सब कुछ नहीं जान सकते, पर आपको इन विषयों पर कुछ जानकारी तो होनी ही चाहिए। उन्होंने कहा,

“पांच साल की मेडिकल की पढ़ाई के अनुभव ने मेरी काफ़ी मदद की। इससे मुझे सिस्टेमेटिक तौर पर पढ़ने में मदद मिली। जैसे कि, अगर कोई चैप्टर 25 पन्नों का है, तो मैं इसके पूरे सिलेबस को पॉइंटर्स में लिखकर पढ़ सकता हूँ।”

‘पीपल्स स्किल’ का महत्व

मेडिकल की पढ़ाई के दौरान, डिबेट, क्विज़ आदि में भाग लेने के चलते उनके व्यक्तित्व में भी निखार आया। उन्होंने कहा,

“लोगों से कैसे बातचीत करनी है, यह सीखना बेहद जरूरी है। इसके लिए प्रतियोगिताओं में भाग लेना अच्छा है-क्विज़, भाषण प्रतियोगिता, वाद विवाद, रचनात्मक लेखन आदि सब बहुत महत्वपूर्ण है। एक प्रशासनिक अधिकारी अपने काम के दौरान विभिन्न प्रकार के लोगों से मिलता है और उन लोगों को समझने और उनसे घुलने-मिलने की क्षमता होना बहुत आवश्यक है। “

वन्स अपॉन एन आईएएस एग्जाम- किताब

यह किताब आपको इसके मुख्य किरदार, विशी की कहानी बताती है, जिसका सबसे बुरा सपना सच हो जाता है कि वह आईएएस की परीक्षा में फेल हो गया है। यह किताब आपको उसके डर, संदेह और असुरक्षा के अहसास के भावनात्मक सफ़र से रूबरू कराती है।

यह कहानी है कि कैसे एक 25 साल का युवा अपने भविष्य के बारे में अनिश्चितता और भ्रम को दूर करने की कोशिश करता है।

उनकी किताब का कवर फोटो

जब उनसे पूछा गया कि उन्हें सबसे ज्यादा किस बात ने प्रेरित किया, तो डॉ. कार्तिकेयन कहते हैं, “मेरे पहले प्रयास में, मैं सफल नहीं हुआ था, और यही असफलता मेरे लिए प्रेरणा बनी कि मुझे और भी बेहतर करना है। यह मेरे जीवन की पहली असफलता थी और इसलिए इससे मैंने बहुत-कुछ सीखा।

उन्होंने आगे कहा, “मुझे ऐसा लगा कि अपनी यह कहानी भावी प्रतिभागियों के साथ साझा करनी चाहिए, पर एक फिक्शन के तौर पर, जो किसी आत्मकथा और संस्मरण से ज्यादा अपील रखती है।”

अपनी किताब में, डॉ. विजयकार्तिकेयन ने आईएएस कोचिंग सेंटरों की भूमिका पर भी प्रकाश डाला है।

किताब का एक अंश…

कोचिंग सेंटर #1
‘फुल या पार्ट?’ रिसेप्शनिस्ट ने पूछा।
‘फुल-टाइम कोर्स,’ विशी ने कहा।
‘मैंने फीस के बारे में पूछा है- पूरी भरनी है या फिर आधी?’
‘पूरी फीस,’ विशी ने पूरे आत्म-विश्वास के साथ कहा, क्योंकि उसके जेब में पूरे 10, 000 हज़ार रूपये थे।
‘ठीक है, पूरी फीस आपको टैक्स आदि लगाकर 1,32,000 रुपये होगी।’
‘एक्सक्यूज़ मी, यह एक आईएएस कोचिंग सेंटर है, है ना?’
‘हाँ,’ रिसेप्शनिस्ट ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
‘आपको नहीं लगता कि इतनी फीस कुछ ज्यादा है।’
‘सर, वैकल्पिक विषय के लिए 50,000 रुपये, सामान्य अध्ययन के लिए 50,000 रुपये, टेस्ट सीरीज़ के लिए 20,000 रुपये है, और बाकी टैक्स है। अब तो नर्सरी-स्कूल में भी सीटों की कीमत 20,000 रुपये है, सर, आप तो आईएएस अधिकारी बनने जा रहे हैं, फिर क्या?’
’ठीक है, मैं बाद में आता हूँ!’
विशी जल्दी से पहले कोचिंग सेंटर से बाहर चला गया।

किताब के लॉन्च पर डॉ. विजयकार्तिकेयन

बहुत से बौद्धिक प्रतिभागी होते हैं, जो एक ही बार में परीक्षा पास कर लेते हैं, जबकि बहुत से लोग एक या दो बार प्रयास करने के बाद कुछ और विकल्प ढूंढते हैं।

डॉ. विजयकार्तिकेयन की यह किताब हमें उन लोगों की ज़िंदगी के बारे में बताती है, जो अपने युवा जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा सिविल सर्विस की तैयारी में लगाते हैं।

अगर आप यह किताब पढ़ना चाहते हैं, तो इस लिंक पर जाएँ।

मूल लेख: विद्या राजा

संपादन: निशा डागर


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अपने गाँव के 120 लोगों को इस कारोबारी ने पहली बार करवाई हवाई यात्रा!

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मिलनाडू के कोयंबटूर में देवरायमपलयम गाँव से ताल्लुक रखने वाले लगभग 120 लोगों ने सिटी एयरपोर्ट से चेन्नई के लिए हवाई यात्रा की। पर यह सिर्फ़ एक हवाई यात्रा नहीं थी, बल्कि यह इस गाँव के एक व्यक्ति का सपना था कि उसके गाँववाले हवाई जहाज में बैठे और वही अनुभव करें, जो उसने पहली बार हवाई जहाज में बैठने पर अनुभव किया था।

44 वर्षीय एम. रविकुमार का कपड़ों का कारोबार है। अब से पांच साल पहले, उन्होंने अपने काम के सिलसिले में हवाई यात्रा की थी। यह पहली बार था जब वे हवाई जहाज में बैठे थे।

इस यात्रा ने उन्हें काफ़ी प्रभावित किया। रविकुमार ने बताया, “एयरपोर्ट पर जाना, हवाई जहाज में बैठना, जहाज का उड़ान भरना, बादलों के बीच उड़ना और ऊपर से देखने पर नीचे की इमारतें एकदम खिलौनों के जैसे दिख रही थीं और फिर लैंडिंग, ये पूरा अनुभव बहुत ही अच्छा था।”

उसी दिन रविकुमार ने अपने करीबी लोगों और रिश्तेदारों को हवाई जहाज की यात्रा कराने के फ़ैसला किया। उनकी इस नेक पहल की वजह से, उनके गाँव के पूरे 120 लोगों ने शनिवार को अपनी ज़िंदगी की पहली हवाई यात्रा की। इन लोगों में उनके परिवार की छह पीढ़ियों के लोग शामिल थे, जिनकी उम्र 55 साल से 101 साल के बीच थी।

रिश्तेदारों के साथ-साथ उनके कुछ पड़ोसी भी इस यात्रा में शामिल थे। यह दिन उनके गाँव में किसी त्यौहार से कम नहीं था। गाँव से जब ये लोग अपनी यात्रा के लिए निकले, तो लगभग पूरा गाँव उन्हें विदा करने के लिए आया। इन यात्रियों ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के साथ अपना अनुभव साँझा किया।

57 वर्षीय वल्लिंमल में बताया, “तीन महीने पहले जब रवि ने हमें इस ट्रिप के बारे में बताया था, तो हम में से किसी को भी यकीन नहीं हुआ। हालांकि, उसने हमारे लिए बहुत कुछ किया है, पर यह हमने बिल्कुल भी नहीं सोचा था।”

“न तो मेरे पति हैं और न ही कोई बच्चे, जो मुझे इस तरह का कोई अनुभव करवाएं,” इस यात्रा में शामिल रविकुमार की एक पड़ोसी जमीला (50 वर्षीय) ने बताया। इस पूरी ट्रिप का खर्च लगभग 4 लाख रूपये आया। इसके लिए रविकुमार ने पांच साल पहले से ही तैयारी करना शुरू कर दिया था। उन्होंने बताया कि इस पूरी योजना के दौरान उन्होंने कई चुनौतियों का सामना किया।

इतने सारे लोगों के लिए एक साथ टिकट बुक करने के कारण टिकट का मूल्य भी बढ़ गया। पर फिर भी रविकुमार ने कोशिश नहीं छोड़ी और उनकी मेहनत रंग लायी। इस ट्रिप के दौरान ये सभी लोग कांचीपुरम, वेल्लौर और तिरुवन्नामलाई की यात्रा पर गये थे।

बेशक, अपने लोगों के लिए रविकुमार की यह पहल काबिल-ए-तारीफ़ है।


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