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खुद नहीं बन पाई खिलाड़ी, बिहार की 3 हज़ार लड़कियों को सीखा दिया फुटबॉल खेलना!

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सुबह के सात बज रहे थे। बिहार की राजधानी पटना से 14 किलोमीटर दूर फुलवारी ब्लॉक के शोरामपुर हाई स्कूल के मैदान में 16 साल की एक किशोरी, खिलाड़ी की वेश भूषा में मैदान के चक्कर लगा रही थी। पास में कुछ महिलाएं और पुरुष खेतों में काम कर रहे थे। वैसे तो ये एक सामान्य दृश्य लगता है लेकिन इस इलाके के लिए यह सामान्य नहीं है। इस क्षेत्र में बिहार के महादलित कहे जाने वाले समुदायों के लोग रहते हैं। जिनमें अधिकांश लड़कियों की शादी 14 साल की उम्र तक कर दी जाती है। ऐसे में किसी लड़की का इस तरह हाफ पैंट और टी-शर्ट पहनकर खेल के मैदान पर आना यहां किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

खैर, कहानी को आगे बढ़ाते हैं। लगभग आधे घंटे में 15 लड़कियां अपनी-अपनी साइकिल से खिलाडियों के ड्रेस में मैदान पहुँचती हैं। एक लड़की निशा जो दूसरे कपड़ों में आती है, स्कूल के पास वाले घर में जाकर खेलने के लिए तैयार होती है। तभी पुनती उर्फ़ पूनम सीटी बजाती है और फुटबॉल का मैच शुरू होता है। लेकिन यह सिर्फ एक मैच नहीं होता है। यह जिद है अपनी मर्जी से जीने की, बाल विवाह से बचने की। मैच है बराबरी का, आत्मसम्मान का, सपनों का, स्वतंत्रता का और गरिमा का।

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फुटबॉल खेलती लड़कियां।

 

पूनम टीम की कप्तान  है। पूनम की कहानी भी ऐसी ही एक जिद पर आधारित है। वह भी उसी बाल विवाह की शिकार बनने वाली थी, जो कि उसके समुदाय में आम है। लेकिन फुटबॉल ने उसे बचा लिया। फुटबॉल में उसकी प्रतिभा पर विधायक से मिले सम्मान ने उसके परिवार वालों की धारणा बदल दी। अब वे उसे उसकी मर्जी से जीने और खेलने देते हैं। पूनम न सिर्फ खुद खेलती है बल्कि उसने और उसकी साथी खिलाड़ी रंजू ने मिलकर 5 स्कूल की 75 लड़कियों को फुटबॉल खेलना सिखाया है।

बिहार के पटना जिले के पुनपुन ब्लॉक के सकरैचा गाँव की रहने वाली सुबेदार पासवान और लखपति देवी की तीसरी संतान पूनम कुमारी कक्षा 11 की छात्रा है। उनके माता-पिता दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं।

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पूनम कुमारी।

 

पूनम को समाज की बंदिशों से निकालकर स्कूल के मैदान तक पहुंचाने में उस लड़की का हाथ है जो खुद तो खिलाड़ी नहीं बन पाई। लेकिन फुटबॉल से उन सैकड़ों बच्चियों की जिंदगी संवारने का काम कर रही है जो कम उम्र में ही शादी के बंधन में बांध दी जाती हैं। इनका नाम प्रतिमा कुमारी है। पूनम भी प्रतिमा के जरिये ही फुटबॉल से जुड़ी।

पूनम कहती हैं, “2 साल पहले जब मैंने प्रतिमा दीदी के कहने पर फुटबॉल क्लब में आना शुरू किया तो गाँव में यह बात चली कि यह पढ़ने के बहाने लड़के से मिलने जाती है। मेरे गाँव के सभी लोग तरह-तरह की बातें बनाते थे। कहते थे कि यह घर से भाग जाएगी किसी के साथ। लोगों की बातें सुनकर मेरे पिता ने कहा, ‘हम पूनम की शादी कर देते हैं।’
इसके बाद मैंने अपने भैया से बात की और कहा कि आप देखिए मैं कैसे खेलती हूँ। एक बार एक मैच के बाद विधायक ने मुझे इनाम दिया। इस बात की काफी चर्चा हुई और मेरे घर में सभी का व्यवहार बदल गया। मेरे भाईयों ने कहा कि कोई कुछ भी कहे , हम हमारी बहन को जानते हैं। वो ठीक है और उसकी शादी उसकी मर्जी से होगी।

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फुटबॉल प्लेयर्स के साथ प्रतिमा।

 

गौरव ग्रामीण महिला मंच की संस्थापक प्रतिमा ने पूनम जैसी कई लड़कियों को बाल विवाह से बचाया है। वह फुटबॉल के माध्यम से “बाल-विवाह” के खिलाफ लड़ती हैं। उन्होंने 3 साल में पटना के फुलवारी शरीफ ब्लॉक के सकरैचा, ढिबर, गोनपुरा, परसा और शोरमपुर पंचायतों के 15 से ज्यादा गाँवों में अब तक 3000 से ज्यादा लड़कियों को फुटबॉल खेलना सिखाया है।

सकरैचा पंचायत के टड़वा गाँव की कक्षा 11वीं की छात्रा रंजू की भी कहानी पूनम जैसी ही है। रंजू कहती है कि “पूनम की तरह ही मेरे घर में भी शादी के लिए बहुत दबाव था। जब भी कोई रिश्तेदार घर आते, तो मेरी शादी को लेकर चर्चा शुरू हो जाती थी। घरवालों को लगता था कैसे भी, जितनी जल्दी हो सके, इसकी शादी करवा दी जाए। जब मैंने खेलना शुरू किया तो घर से बहुत विरोध हुआ। लेकिन धीरे-धीरे मेरे खेलने के बाद उनको लगने लगा कि हमारी बेटी भी लड़कों की तरह खेल सकती है। मेरी माँ ने इसमें मेरा साथ दिया।”

 

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अपनी दोस्त रूपा के साथ फुटबॉल खेलती निशा कुमारी।

 

प्र​तिमा का भी हो गया था बाल विवाह

प्रतिमा कहती हैं, मेरी शादी 16 साल की उम्र में ही हो गई थी। मैंने उस दर्द को मह्सूस किया है जो एक लड़की को बालिका वधू होने पर होता है। बाल विवाह उनको उनके मूलभूत अधिकारों से दूर करता है। मैं गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच के जरिये 2013 से इस काम में जुटी हूँ। हमारी इस पहल का उद्देश्य दलित एवं वंचित समुदाय की बेटियों को खेल के माध्यम से सशक्त और सबल बनाना है। इनमें से कई लड़कियों ने दूसरे राज्यों में जाकर भी खेला है।

ग्रामीण गौरव संस्था मंच की इस पहल में 10 लोग फुटबॉल का प्रशिक्षण देते हैं। इनमें 2 कोच और 8 सीनियर खिलाड़ी शामिल है। प्रतिमा यह काम खुद की कमाई व चंदा इकट्ठा करके करती हैं। इसके अलावा, युनिसेफ जैसी संस्थाएं भी इसमें मदद करती हैं।

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फुटबॉल ट्रेनिंग करती लड़कियां।

 

यूनिसेफ, बिहार की संचार विशेषज्ञ निपुण गुप्ता कहती हैं कि खेल के माध्यम से लड़कियां समानता के अधिकार को प्राप्त कर सकती हैं ताकि उन्हें भी समाज में वहीं दर्जा मिले, जो लड़कों को या अन्य समुदाय की लड़कियों को प्राप्त है। यह लड़कियां दूसरी अन्य लड़कियों के लिए रोल मॉडल हैं। ये अपने परिवार की पहली जनरेशन की लड़कियां हैं, जो बाहर निकल रही हैं, जो अपने आप में बड़ी बात है।

महादलित समुदाय के लिए काम करने वाली संस्था “नारी गुंजन” की संस्थापक पद्म श्री सुधा वर्गीज कहती हैं, “यह खेल के माध्यम से लड़कियों को सशक्त बनाने की पहल है। अगर लड़कियां खेलों से जुड़ेंगी तो उनकी पढ़ाई-लिखाई भी जारी रहेगी। उन्हें बाल-विवाह से बचाया जा सकेगा। बाल विवाह समाज की समस्या है। इसका समाधान भी समाज को ही निकालना होगा।

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लड़कियों की फुटबॉल टीम।

 

जिन सामाजिक बुराइयों के साथ जीने की लोगों ने आदत डाल ली हो, ऐसे मुद्दों पर लोगों को झकझोर कर जगाने, जागरूक करने और समाज सुधार की लड़ाई के इस नए लड़ाकों का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर आप भी प्रतिमा के इस काम में मदद करना चाहते हैं, या उनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो उनके नम्बर 8210081820 पर बात कर सकते हैं।


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15 अगस्त पर खरीदिये ये बीजों वाले झंडे, देश के प्रति पौधा बनकर उपजेगा आपका प्रेम!

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ब तक आपने कपड़े, प्लास्टिक से बने तिरंगे झंडे देखे होंगे लेकिन क्या आपने कभी बीजों से बना तिरंगा देखा है। शायद नहीं!

अब आप सोचेंगे कि बीजों से झंडा कैसे बन सकता है? लेकिन यह सच है। देश में कुछ लोग बीजों से भी तिरंगा बना रहे हैं। इसे बनाने की प्रमुख वजह गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस मनाने के बाद प्लास्टिक के झंडों का विभिन्न स्थलों पर बिखरा पड़ा होना है। इस दिन देशभर के सरकारी और निजी संस्थानों में झंडा फहराया जाता है। सभी लोग अपने-अपने ढंग से देश के प्रति अपने प्यार और आदर को व्यक्त करते हैं। बड़ी संख्या में छोटे-बड़े तिरंगे ख़रीदे जाते हैं। लेकिन फिर दूसरे दिन ही आपको ये तिरंगे यहां वहां बिखरे पड़े मिलते हैं। ऐसे में न सिर्फ तिरंगे के स्वाभिमान को आघात पहुंचता है बल्कि यह पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह है।

फ्लैग कोड यानी भारतीय ध्वज संहिता, 2002 के मुताबिक ऐसे बिखरे पड़े झंडों को पूरे आदर व सम्मान के साथ या तो मिट्टी में दबाया जाता है या फिर एकांत में जाकर कहीं नष्ट किया जाता है। लेकिन प्लास्टिक से बने झंडों को मिट्टी में दबाना या अन्य तरीके से नष्ट करना जैसे भी हो पर्यावरण के लिए बहुत हानिकारक है। ऐसे में इसका अन्य विकल्प ऐसा झंडा ही हो सकता था जो प्रकृति के अनुकूल ​हो और उसके सम्मान को भी ठेस नहीं पहुंचाए।

प्लास्टिक से बने झंडे

ऐसे में प्लास्टिक के झंडों के विकल्प की तलाश ‘सीड फ्लैग’ पर जाकर खत्म होती है। सीड फ्लैग यानी बीज से बना झंडा। इस झंडे को सीड पेपर से बनाया जाता है। सीड पेपर एक बायोडिग्रेडेबल पेपर होता है जिसमें अलग-अलग किस्म के बीज होते हैं। इस पेपर को मशीन की बजाय हाथों से बनाया जाता है। पेपर को मिट्टी में दबाने पर ये बीज अंकुरित हो जाते हैं और कुछ दिनों में ये पौधे बनने लगते हैं।

आप यहाँ पर सीड पेपर से बने यह प्लांटेबल झंडे खरीद सकते हैं!

पिछले दो सालों से इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल स्टेशनरी उत्पाद जैसे अख़बार से बनी पेंसिल, प्लांटेबल पेंसिल, पेपर स्ट्रॉ, बम्बू टूथब्रश आदि बनाने वाली कंपनी पेपा ने इस साल प्लांटेबल झंडे बनाना भी शुरू किया है।

कंपनी के फाउंडर विष्णु कहते हैं कि अब ज़्यादातर लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हो रहे हैं। पर्यावरण के लिए हानिकारक प्लास्टिक या फिर अन्य उत्पादों की जगह लोग पर्यावरण के अनुकूल उत्पाद चाहते हैं।

प्लांटेबल सीड फ्लैग

“ऐसे में हमने भी सोचा कि क्यों न हम झंडों के लिए भी लोगों को अच्छा विकल्प दे। इस झंडे को आप ‘फ्लैग कोड’ के अनुसार मिट्टी में ही दबाते हैं। लेकिन इससे उगने वाला पौधा देश के प्रति आपके आदर और सम्मान का प्रतीक बन जाता है।” उन्होंने आगे कहा।

पेपा कंपनी अपने झंडों में तुलसी के बीजों का इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने इसी साल गणतंत्र दिवस से कुछ दिन पहले प्लांटेबल झंडे लॉन्च किए थे। उस समय वे लगभग 75 हजार झंडे बेचने में कामयाब रहे थे। इस वर्ष 15 अगस्त 2019 से पहले तक वे 5 लाख झंडो की बिक्री कर चुके हैं।

आप पेपा के प्लांटेबल झंडे आप यहाँ से खरीद सकते हैं!

पेपा की ही तरह एक और संगठन ‘सीड पेपर इंडिया’ भी इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल उत्पाद बनाता और बेचता है। फाउंडर रोशन राय ने बताया कि उनके यहाँ बनने वाले झंडों के लिए वे ऑर्गेनिक रंग इस्तेमाल करते हैं। उनके झंडे 4 तरह की वैरायटी में उपलब्ध हैं। इनमें तुलसी, मोर्निंग ग्लोरी, डेज़ी वाइट और वाइल्ड फ्लावर्स शामिल हैं।

सीड पेपर इंडिया के बनाए झंडे को आप 3 से 4 दिन तक पानी में भिगो कर रखें। उसके बाद मिट्टी में बो कर हर रोज पानी दें। ऐसा करने पर 4 से 6 हफ्तों में इनसे पौधे अंकुरित हो जाएंगे।

रोशन के अनुसार हर स्वतंत्रता दिवस पर लगभग 50 टन प्लास्टिक के झंडे या तो लैंडफिल में जाते हैं या फिर जलाए जाते हैं। इसलिए हमें अब अपनी आदतों में सुधार लाना होगा। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों के लिए इको-फ्रेंडली विकल्प तलाशने होंगे।

आप सीड पेपर इंडिया के सीड फ्लैग यहाँ पर खरीद सकते हैं!

आईए, इस स्वतंत्रता दिवस पर अपने पर्यावरण को प्लास्टिक से आज़ाद करे और भारत को बेहतर बनाने की दिशा में एक कदम उठाए।


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गाँव से 5 किमी दूर पैदल जाया करते थे पढ़ने, अब अमेरिका में बने नामी वैज्ञानिक!

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राजस्थान के जोधपुर जिले के भोपालगढ़ तहसील में एक छोटा सा गाँव है खारिया खंगार। इस गाँव के लोगों ने शायद ही कभी सोचा हो कि यहां के किसान का बेटा अमेरिका की वॉशिंगटन यूनि​वर्सिटी तक पहुंचेगा। लेकिन बेटे ने कर दिखाया। वह न सिर्फ वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी पहुंचा बल्कि वहां पर नैनो टैक्नोलॉजी में आज जाना पहचाना नाम भी है।

सफलता की यह कहानी डॉ. रमेश रलिया की है। किसान परिवार में जन्मे रलिया का बचपन एक आम भारतीय बच्चे की तरह ही गुजरा है। इनके पिता सुखराम रलिया एक किसान है और आज भी खेती-बाड़ी का काम करते हैं। रलिया 10वीं कक्षा तक गाँव के ही सरकारी माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने पैदल जाया करते थे जो उनके घर से करीब पांच किलोमीटर दूर था। विज्ञान विषय से 12वीं भी पास के ही रतकुड़िया गाँव के चौधरी गुल्लाराम सरकारी स्कूल से पास की। गाँव के पथरीले रास्तों के बीच से होते हुए सरकारी स्कूल में पढ़ने जाने वाले इस किसान पुत्र ने इस दौरान ही एक सपनों की दुनिया बसा ली थी। कुछ खास करना है, यह तय कर लिया था।

Dr ramesh Ralia
डॉ रमेश रलिया।

रमेश ने स्कूली शिक्षा के बाद जोधपुर के जय नारायण विश्वविद्यालय से B.Sc. की और फिर Biotechnology में M.Sc. की। बीएससी फर्स्ट ईयर में आने पर पहली बार साइकिल मिली।

‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए उन्होंने रोचक किस्से सुनाए। वे बताते हैं, “मैं अपनी क्लास में कभी भी फर्स्ट नहीं आया। हालांकि मुख्य परीक्षाओं में हमेशा 60 से 73 प्रतिशत तक अंक प्राप्त किए। कम्प्युटर का प्रयोग भी पहली बार B.Sc. सेकंड ईयर में किया। 2006 तक तो कृषि वैज्ञानिक बनने की सोची तक नहीं थी।

वे बताते हैं, “मन में सपना जरूर था कि खेतों में जान झोंकने वाले किसानों के जीवन स्तर में सुधार लाया जाए। इसके दो ऑप्शन थे। सिविल सर्विस में जाऊं या फिर एग्रीकल्चर में कुछ करके किसानों के जीवन स्तर को सुधारने में मददगार बनू। तब मैंने एग्रीकल्चर में कुछ करने की सोची। मेरे ज्ञान का फायदा मेरे परिवार के किसानों सहित देश-विदेश के सभी किसानों तक पहुंचे व उनका जीवन स्तर बदल जाए, तभी मैं खुद के कृषि वैज्ञानिक होने को सफल मानूंगा।

 

काजरी में चयन से बदली ज़िंदगी

2009 में उनका चयन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की शाखा काजरी, जोधपुर में कृषि नैनो टेक्नोलॉजी के पहले प्रोजेक्ट में रिसर्च एसोसिएट के रूप में हुआ। वे कहते हैं, उस समय के मेरे सुपरवाइजर डॉ. जेसी तरफ़दा व वहां मेरे निदेशक रहे डॉ. केपीआर विट्ठल व डॉ. एमएम रॉय का आभारी हूँ । जिस लैब में मैंने काम किया, वहां उन्होंने काम करने की पूरी आज़ादी दी। इसी वजह से 4 साल में मैंने 4 पेटेंट फाइल किए व नैनो टेक्नोलॉजी पर करीब 20 पब्लिकेशन और एक किताब भी पब्लिश की।

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डॉ. रमेश रलिया की लैब।

अमेरिका से बुलावा आना बड़ी उपलब्धि

पीएचडी के दौरान वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी, अमेरिका की डिपार्टमेंट हेड मेरी कैरी ने जब उनकी लैब विजिट कर रिसर्च वर्क देखा तो कहने लगी, “यदि वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी जॉइन करना चाहो तो पद मिल सकता है।” रलिया ने उन्हें पीएचडी पूरी करने और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल की परीक्षा देकर आने की बात कही,  जिसे वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी ने मान लिया। परीक्षा के दो चरण पास करने के बाद इंटरव्यू देकर वे अमेरिका चले गए।

नैनो खाद का आविष्कार

अमेरिका जाने के बाद वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी की एयरोसोल एवं एयर क्वालिटी रिसर्च लैब में वैज्ञानिक बने डॉ. रमेश ने किसानों के लिए नैनो टेक्नोलॉजी के माध्यम से ऐसी खाद विकसित की जो मात्र कुछ मिलीग्राम देने से खेत की पैदावार कई गुना बढ़ा सकती है। इसमें 80 किग्रा डीएपी की जगह मात्र 640 मिग्रा नैनो फॉस्फेट से ही काम चल जाएगा। इस खाद की विशेषता यह है की यह सीधी पौधे के अंदर जाती है और मिट्टी के लिए हानिकारक नहीं होती ।

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डॉ रमेश रलिया की बनाई नैनो टेक्नोलॉजी से बनाई खाद।

बढ़ता है पैदावार

डॉ. रमेश बताते हैं कि,  नैनो खाद फसल की पैदावार तीन गुना तक बढ़ा देती है। 50 किलो के एक फ़र्टिलाइज़र बैग की कीमत सब्सिडी के बाद करीब 1200 रुपए तक होती है। यह खाद करीब एक हैक्टर में डाली जाती है। अब यदि एक उत्पाद जो नैनो टेक्नोलॉजी से बनाया गया है, जिसका भार करीब 4-5 किलो है और जिसकी कीमत भी 1200 रुपए ही है। उसे भी आप एक हैक्टर खेत में प्रयोग करते हैं। लेकिन जब फसल की हार्वेस्टिंग करते हैं, तो पाते हैं कि जिसमें 4-5 किलो नैनो टेक्नोलॉजी वाला खाद इस्तेमाल किया था वहां फसल 50 किलो वाली खाद की तुलना में करीब तीन गुना तक ज्यादा हुई है। यही नैनो टेक्नोलॉजी का कॉन्सेप्ट है।

वे कहते हैं,“भारत की बहुत सी प्रयोगशालाओं, संस्थाओं में बेहतरीन काम हो रहे हैं। इसे प्रशासनिक और नीतिगत तौर पर और अधिक समन्वय के साथ अवसर को पहचान कर उसको उपयोग करने की जरूरत है। नागरिक हो या नौकरीदार, सभी को अपने काम के प्रति जवाबदेही एवं ज़िम्मेदारी को बहुत अधिक बढ़ाना होगा।

”मैं अब तक करीब 60 से अधिक देशों एवं संस्थानों के अधिकारियों के साथ विभिन्न स्तरों पर कार्य कर चुका हूँ । भारत के लोग बहुत मेहनती हैं, बशर्ते उन्हें उनकी मेहनत का सही मूल्य दिया जाए। विश्व में किसी भी सेक्टर की किसी भी कंपनी के सीनियर मैनेजमेंट को देखिए, उसमें भारतीय ही मिलेंगे। जब सुंदर पिचाई गूगल को और सत्य नडेला माइक्रोसॉफ्ट को अमेरिका में लीड कर सकते हैं तो भारत में क्यों नहीं?”

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एक कार्यक्रम में वक्तव्य देते डॉ. रमेश रलिया।

एक सवाल का जवाब देते हुए वे कहते हैं, “खेती करने वाले प्रमुख देशों में किसानों की संख्या लगातार घटती जा रही है। यह एक चिंतनीय विषय है। ऐसे ज्यादातर देशों में खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता है। इसके प्रमुख कारणों में मशीनीकरण, वैज्ञानिक सोच एवं वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग है। भारत की दृष्टि से कहूं तो यहां अभी भी जमीन की उपलब्धता के हिसाब से पर्याप्त संख्या में किसान मौजूद है। लेकिन भारत में अधिकतर किसान कम या बिल्कुल पढ़े लिखे नहीं हैं। किसान आज भी उसी तरीके से खेती करते हैं, जिससे उनके पूर्वज किया करते थे ।

आज की परिस्थितियों में वैज्ञानिक, पारिस्थितिक एवं पर्यावरणीय अंतर आया है। मिट्टी की क्षमता और पानी की उपलब्धता दर बदल चुकी है। सरकार को चाहिए कि वे युवाओं को खेती करने के लिए आकर्षित करे, जैसा अमेरिका एवं यूरोप में होता है।

”सरकार को इसके लिए कुछ नीतिगत बदलाव करने पड़ेंगे। युवाओं को महसूस करवाना होगा कि खेती सिक्योर फ्यूचर एवं रेस्पेक्ट वाला बिजनेस है। युवा खेती से पलायन कर रहे हैं, वो खेती की बजाय फैक्ट्री के मजदूर बनना पसंद कर रहे हैं। इस मानसिकता को अवसर पैदा करते हुए बदलने की जरूरत है।”

 

यह होती है नैनो टेक्नालॉजी

नैनो टेक्नोलॉजी विज्ञान की एक वह शाखा है, जिसमें ऐसे इंजीनियर्ड अणुओं का अध्ययन किया जाता है, जिनकी आकार संरचना किसी एक स्केल पर एक से सौ नैनोमीटर के मध्य होती है। एक मीटर का एक अरबवां हिस्सा एक नैनोपार्टिकल होता है। एक नैनोमीटर तक के छोटे पार्टिकल्स को देखने के लिए इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की जरूरत होती है। कुछ नेचुरल नैनोपार्टिकल्स भी होते हैं, जिन्हें वायरस, डस्ट, सॉल्ट के कुछ पार्टिकल्स एवं कोशिकाओं में पाई जानी वाली सरंचनाओं के नाम से भी जाना जाता हैं।

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डॉ रमेश रलिया

 

वरदान साबित होगी नैनो टेक्नोलॉजी

डॉ. रलिया के अनुसार अभी नए शोध में इसका उपयोग फलों एव खाद्य पदार्थों में पैथोजन, डीएनए एवं केमिकल को डिटेक्ट करने के सेंसर एवं न्यूट्रिशन बढ़ाने के लिए हो रहा है। इन सेंसर से आम कस्टमर बड़ी आसानी  से जेनेटिकली मॉडिफाइड और केमिकल फ़र्टिलाइज़र पेस्टिसाइड एवं नूट्रिएशन की मात्रा को जांच सकते हैं। वे बताते हैं कि, ”हमारी लैब में इन विषयों में से कुछ के आरम्भिक स्तर के एवं नैनो बेस्ड फ़र्टिलाइज़र व पेस्टीसाइड्स के एडवांस फील्ड ट्रायल एक्सपेरिमेंट पूरे हो चुके हैं। जिसके बेहतरीन परिणाम मिले हैं जो आने वाले समय में दैनिक जीवन के लिए बेहद उपयोगी साबित होंगे।

भारत में बड़ी उदासीनता

डॉ. रलिया कहते हैं, “नैनो फ़र्टिलाइज़र की शुरुआत मैंने भारत से की लेकिन इसकी एडवांस प्रोसेसिंग टेक्नोलॉजी को अमेरिका में आकर डवलप किया। भारत में इसको लागू करवाने में अभी तक असमर्थ हूँ । उम्मीद करता हूँ किसी दिन हमारी लैब रिसर्च का उपयोग हरेक किसान अपने खेत में कर पाएगा। उससे खेती-पर्यावरण हमेशा के लिए लाभकारी बने रह सकेंगे।

”मैंने भारत सरकार से वादा किया है कि यदि हमारी तकनीक से बने खाद को सरकार लागत मूल्य से आधे पर किसान को उपलब्ध करवाती है तो हम तकनीक का लाइसेंस उनको बिना किसी शुल्क लिए प्रदान करने का प्रयास करेंगे।”

वे कहते हैं, ” सरकार से मंजूरी मिले तो एक साल में प्रोडक्शन शुरू हो सकता है। यदि सरकार इसको नहीं करती तो हम इंटरनेशनल एंटरप्रेन्योरशिप प्रोग्राम के तहत विभिन्न कंपनियों के माध्यम से इसे किसानों को कम से कम लाभ पर देने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हम प्रोडक्शन को स्केलअप एवं फील्ड उपयोग करने का फेसबिलिटी टेस्ट कर रहे हैं।”

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नैनो टेक्नोलॉजी से बनी फर्टिलाइजर।

”मैंने सरकार को दिए सुझाव में यही कहा है कि हर कृषि विज्ञान केंद्र में ऑर्गेनिक तरीके से नैनो फ़र्टिलाइज़र एवं नैनो पेस्टिसाइड यूनिट लगनी चाहिए । किसानों को इसकी ट्रेनिंग दी जाए। इससे न केवल लोकल स्तर पर लोगों को रोजगार मिलेंगे बल्कि खाद इम्पोर्ट करने का लाखों करोड़ रुपए का खर्च भी बच जाएगा। इससे खेती योग्य सस्ता एवं बेहतरीन खाद बनाया जा सकेगा,  फलस्वरुप फसल उत्पादन में कई गुना वृद्धि होगी।’

इस माध्यम से न केवल रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग से मुक्ति मिलेगी बल्कि जमीन की उर्वरा शक्ति, जमीन के अंदर एवं बाहर जैव विविधता भी बढ़ेगी। जो फ़ॉर्मूलेशन्स हमने तैयार किए हैं उनको न केवल जीवाणुओं पर बल्कि मधुमखियों, तितलियों, टिड्डी, पक्षियों आदि पर भी प्रभाव परीक्षण किया है। किसान वैज्ञानिक तरीके से सस्टेनेबल नैनो टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हैं तो खेती के लिए यह बेहतर तकनीक साबित होगी।

 

मिले हैं कई मान सम्मान

डॉ. रलिया को ग्लोबल इम्पेक्ट अवार्ड, ग्लोबल बायोटेक्नोलॉजी अवार्ड, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम गोल्ड मैडल, लीप इन्वेंटर चैलेंज अवार्ड, गॉर्डोन रिसर्च कॉन्फ्रेंस चेयर अवार्ड, एग्रीकल्चरल रिसर्च सर्विस,  एग्रीकल्चरल बायोटेक्नोलॉजी, भारत ज्योति अवार्ड एंड सर्टिफिकेट ऑफ एक्सीलेंस, आनरेरी फेलो सहित कई पुरस्कार मिल चुके हैं।

किसान और यंग एंटरप्रेन्योर उनसे फ़ेसबुक पर संपर्क कर अधिक जानकारी ले सकते हैं। या फिर उन्हें rameshraliya@wustl.edu पर ईमेल भी कर सकते हैं।

संपादन – भगवतीलाल तेली 


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बीमार-ज़रूरतमंद लोगों को अपने ऑटो से मुफ़्त में अस्पताल पहुंचता है यह ऑटो वाला!

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रूरी नहीं कि हर एक सुपर हीरो के पास अद्भुत शक्तियां ही हों। असल ज़िंदगी में लोग अपनी हिम्मत, जज़्बे और नेक कामों की वजह से सुपर हीरो बनते हैं। मुंबई में ऑटो चलाकर अपना निर्वाह कर रहे सुनील मिश्रा भी ऐसे ही सुपर हीरो हैं।

हमारे और आपके लिए भले ही वो एक साधारण ऑटो वाले हों जो कि अपनी रोज़ी-रोटी के लिए दिन रात मेहनत करते हैं। लेकिन जब भी किसी दुर्घटनाग्रस्त या बीमार व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाने के लिए वे अपने ऑटो को मुफ़्त में एम्बुलेंस बना लेते हैं तो उन लोगों के लिए वे किसी मसीहा से कम नहीं।

मूल रूप से उत्तर-प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में एक छोटे-से गाँव के रहने वाले सुनील रोज़गार की तलाश में सालों पहले मुंबई आये थे और अंबुजवाड़ी स्लम में रहने लगे। नौवीं-दसवीं तक पढ़े सुनील ने किस्तों पर ऑटो-रिक्शा खरीदकर चलाना शुरू किया।

सुनील मिश्रा (साभार: यूट्यूब)

“ऑटो-रिक्शा चलाने से जो भी कमाई होती है, ज़्यादातर घर के खर्च और बच्चों की पढ़ाई में चला जाता है। हमारे ऊपर हमारे माता-पिता, दो भाई, और हमारे बीवी-बच्चों की ज़िम्मेदारी है। पहले तो घर वाले यहीं साथ रहते थे पर फिर  मुंबई जैसे शहर में इतने लोगों का खर्च कैसे चलता इसलिए सबको गाँव शिफ्ट कर दिया। बच्चे भी वहीं गाँव में पढ़ रहे हैं,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए सुनील ने बताया।

अपने जीवन में इतनी कठिनाइयाँ होने के बावजूद सुनील कभी भी किसी ज़रूरतमंद की मदद करने से पीछे नहीं हटते हैं। अंबुजवाड़ी स्लम में एम्बुलेंस या फिर बड़ी गाड़ियाँ आना सम्भव नहीं और ऐसे में, सुनील यह सुनिश्चित करते हैं कि यहाँ पर रहने वाले किसी भी इंसान को ज़रूरत के समय अस्पताल पहुँचने में देरी न हो।

सुनील बताते हैं कि वे अपने ऑटो को ऑटो-कम-एम्बुलेंस के जैसे इस्तेमाल करते हैं। इस स्लम में रहने वाले सभी लोग जैसे-तैसे अपना गुज़ारा कर रहे हैं। इसलिए बीमार होने पर या फिर कोई दुर्घटना होने पर, वे किसी प्राइवेट वाहन में अस्पताल तक जाने का खर्च नहीं उठा सकते। साथ ही, इस इलाके में एम्बुलेंस भी नहीं आती है। इसलिए सुनील बिना कोई पैसे लिए ज़रूरत पड़ने पर इन गरीब लोगों को तुरंत अस्पताल पहुंचाते हैं।

साभार: यूट्यूब

सुनील ने साल 2007 के बाद से यह काम शुरू किया। उन्होंने बताया कि एक बार गाँव में उनकी माँ भी दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थीं। किस्मत से उन्हें उस वक़्त समय रहते मदद मिल गयी और उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया गया। इस घटना ने सुनील को काफ़ी प्रभावित किया। उन्हें लगा कि अगर उस समय उनकी माँ की किसी ने मदद न की होती तो शायद परिणाम कुछ और होता।

“बस उसी दिन से मैंने ठान लिया कि मुझसे जितना भी बन पड़ेगा मैं अपने स्तर पर मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करूँगा। इसलिए मैं सिर्फ़ अपने स्लम के लिए ही नहीं, बल्कि बाहर भी अगर किसी को ज़रूरत हो तो हमेशा मदद करने की कोशिश करता हूँ,” उन्होंने आगे बताया।

सिर्फ़ इतना ही नहीं, सुनील अपने ऑटो में दिव्यांग और गरीब लोगों को 1.5 किलोमीटर तक मुफ़्त में सवारी देते हैं। वे कहते हैं, “अगर मुझे कोई दिव्यांग व्यक्ति दिखता है रोड पर तो मैं उन्हें पूछ लेता हूँ कि अगर मैं उन्हें कहीं आस-पास छोड़ सकता हूँ या फिर कोई बहुत गरीब जो बहुत बार पैसे नहीं दे सकते तो उन्हें भी मैं उनकी मंजिल तक पहुंचने की कोशिश करता हूँ।”

एक साधारण-से ऑटो-ड्राईवर होकर भी सुनील इंसानियत के नाते समाज के लिए इतना कुछ कर रहे हैं। अपने इन नेक कार्यों के बदले वे किसी से अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते। हां पर, उनकी इच्छा है कि देश में सामाजिक कार्यों से जुड़ी बड़ी संस्थाएं या फिर बड़े लोग, अगर ऐसे झुग्गी-झोपड़ियों के लिए एम्बुलेंस या फिर मेडिकल कैंप जैसी फल शुरू कर सकें तो बहुत बदलाव आ जायेगा।

“मुझे अपने लिए किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। मेरे को भगवान ने इस काबिल बनाया है कि मैं मेहनत करके कमाकर अपना और अपनों का पेट भर सकता हूँ। लेकिन हम सबको मिलकर, थोड़ा-थोड़ा ही सही पर ऐसे लोगों के लिए कुछ करना चाहिए जिन्हें वाकई मदद की ज़रूरत है,” उन्होंने अंत में कहा।

बेशक, सुनील मिश्रा जैसे लोगों के चलते ही आज भी इंसानियत पर विश्वास कायम है। द बेटर इंडिया सुनील की सोच और जज़्बे को सलाम करता है।

यदि आपको यह कहानी पढ़कर प्रेरणा मिली है और आप किसी भी तरह से सुनील की मदद करना चाहते हैं तो आप उन्हें 8291434731 या 9702723627 पर फ़ोन कर सकते हैं!


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Hither hither, Love

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वो डूब रही थी.
चमकदार लेकिन कड़वी शाम
टेबल पर इतने सारे लोग
बने ठने. और इतनी सारी काम की बातें।
परिपक्व, ज़िम्मेदार गहरी बातें

 

वो डूब रही थी उनमें
वो भी डूब रहा था
बातें तो करता था
लेकिन अपने ख़यालों में उतरा रहा
कोलेस्ट्रॉल.. घुटने का दर्द
बच्चों की पढाई का लोन
बीवी का अफ़ेयर है क्या राकेश से?
भई ये बेस्ट फ़्रैंड क्या होता है..
और उधर नीना की कमर..

 

इतना पॉल्यूशन बढ़ गया है आजकल
दिल्ली में साँस लेना –
जैसे एक दिन में तीन सिगरेट पीना
‘अरे नहीं भाई इतना आसान विश्लेषण नहीं है’ कोई झुँझलाया
‘सिगरेट में सिर्फ़ टार होता है, इनमें तो..
साँस की कौन सी बीमारी नहीं है खोमचे वालों को
और बेचारे ऑटोवाले..’

 

‘हुँह! और पुलिसवाले?
ट्रैफ़िक पुलिसवालों का दर्द कौन समझेगा?’
‘ग़रीबों का रोना रोना –
सिंगल मॉल्ट के साथ सबसे शानदार चखना’

 

तड़प के उत्तर आया –
‘कुछ कहो तो मौक़ापरस्ती
और वो क्या.. क्या कहते हैं यार..
वो किसी के दुःख की रोटी सेकना।
चुप रहो तो सेंसिटिविटी की एक बूँद भी नहीं है’

 

‘हाथी के दाँत दिखाने के और..
इनके ख़ुद के सारे कॉलम झूठे हैं’ जलन-उत्प्रेरित त्वरित समर्थन

 

उसे लगा उसके फ़ेफ़डे
अंदर से सड़ चुके होंगे अब तक.
पेट भी शायद
कौन सा दूध असली है
कौन से सब्ज़ी बिना ऑक्सीटोसिन के उगी है
उबकाई आई और दिल फिर से डूबने लगा
पेट में मरोड़ उठी
फिर ध्यान आया कि हर बीमारी साइकोसोमैटिक है –
मन की उपज
तनाव का फल
‘फल क्यों? फूल क्यों नहीं?
तनाव का फूल..
वाह, तनाव का फूल..’
स्वयं की सृजनशीलता देख चेहरे पर मुस्कान फूटी
मरोड़ भाग गई
दिल उबर कर साँस लेने सतह तक आया
उसने भीड़ के बीच उसको देखा

 

उसका दिल उड़ा उछला
सालों बाद अटारी की सफ़ाई हुई हो जैसे
डीयू में पढ़ाती हैं अंग्रेज़ी
सोशल मीडिया ने उन्हें बता रखा है कि वे एक बेबाक
सोशली, मोरली, एनवायरनमेंटली जाग्रत महिला हैं

 

‘महिला नहीं, इंसान!
आई कैंट टॉलरेट फेमिनिज़्म. दैट्स सो 2015’
इनकी साड़ी मधुबनी से आई है
चमड़े के बैग पर हाथ की कढ़ाई है
आज सारे विमर्श इन्हें बोर लग रहे हैं
सब खोखले, बातों के चोर लग रहे हैं
जैसे अचानक एक दिन
एक फ़ैशनट्रेंड पुराना लगने लगता हैं
वैसे ही बातों और इरादों का खोखलापन आज उभर आया था

 

‘जिनलिवेट आजकल देसी व्हिस्की जैसी हो गई है’
‘आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ के जा रहे हो?’
‘बुद्धिस्ट चैंट करने हमारे घर आना’
‘सितम्बर में पेरिस स्वर्ग से सुन्दर है’
‘ऑर्गनिक किनुआ..’

 

पति का मैसेज
‘देर हो जाएगी यार’
उसने चैन की साँस ली
खिड़की के बाहर देखा
फिर काँच में प्रतिबिम्ब दिखा
उसने मुड़ के एक बार इस तरफ़ फिर से देखा था

 

उसकी उम्र बीस साल कम हो गई

 

जॉन कीट्स की पंक्तियाँ
Hither hither, love—
‘Tis a shady mead—
Hither, hither, love!
Let us feed and feed!

 

बेटी का मैसेज:
माँ कहाँ हो यार? कुछ बताना है
हो सकता है कि मुझे प्यार हो गया है

 

उसने सोचा कैसे पल में मौसम बदलता है
अभी कुछ देर पहले ही तो मैं डूब रही थी

 

काँच में परछाईं
वो इस तरफ़ आ रहा है
एक कबूतर खिड़की पे आ बैठा
और कुछ गाने लगा
एक हवाईजहाज
सर के बहुत करीब से गुज़रा
शाम के रंग गहरा आए
और कीट्स की पंक्तियाँ
बाक़ायदा होठों पर बज उठीं

 

Hither, hither, dear
By the breath of life,
Hither, hither, dear!—
Be the summer’s wife!

 

Though one moment’s pleasure
In one moment flies—
Though the passion’s treasure
In one moment dies;—

 

Yet it has not passed—
Think how near, how near!—
And while it doth last,
Think how dear, how dear!

 

Hither, hither, hither
Love its boon has sent—
If I die and wither
I shall die content!

 

आज की शनिवार की चाय अचानक खिल उठने वाले फूलों और अचानक बरस जाने वाले प्यार के नाम. अगर यह मीठा, सौंधा लोकगीत पूरा समझ नहीं आये तो कमेंट सेक्शन खंगालें 🙂


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रिक्शा चालक ने एक इनोवेशन से खड़ा किया अपना अंतरराष्ट्रीय कारोबार!

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रियाणा के यमुनानगर जिले में दामला गाँव के रहने वाले धर्मबीर कम्बोज ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन उनकी बनाई मशीन की मांग भारत से आगे दक्षिण अफ्रीका, केन्या और जापान जैसे देश में भी होगी। उनके परिवार, दोस्त-रिश्तेदारों को भी अंदाजा नहीं था कि स्कूल में कई बार फेल होकर जैसे-तैसे दसवीं पास करने वाले धर्मबीर का नाम आविष्कार करने वालों की फ़ेहरिस्त में शामिल होगा।

पर कहते हैं न, ‘जहाँ चाह, वहां राह’ और ऐसा ही कुछ उनके साथ भी हुआ। घर की आर्थिक तंगी और बड़े परिवार की ज़िम्मेदारी ने कभी भी धर्मबीर को यह सोचने का वक़्त ही नहीं दिया कि वे जीवन में कुछ कर नहीं सकते। बल्कि वह तो स्कूल में पढ़ते हुए भी पैसे कमाने का कोई न कोई जुगाड़ निकाल लेते थे।

कभी आटा पीसने का काम किया तो कभी सरसों का तेल बेचने का। घर चलाने की यह जद्दोजहद उन्हें दिल्ली ले गई। धर्मबीर बताते हैं कि उनकी बेटी सिर्फ़ 3 दिन की थी, जब वे दिल्ली के लिए निकले। आर्थिक तंगी इतनी थी कि गाँव से दिल्ली जाते वक़्त उनकी जेब में सिर्फ़ 70 रुपये थे, जिसमें से 35 रुपये किराए में खर्च हो गए। “मैंने दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते ही काम की तलाश शुरू कर दी थी। कड़ाके की ठंड थी, न रहने का ठिकाना था और न ही खाने-पीने का। स्टेशन से बाहर निकल वहां लोगों से पूछा कि कोई काम मिलेगा क्या? तो किसी ने रिक्शा किराए पर लेकर चलाने की सलाह दी तो मैंने उसके बताए पते पर जाकर रिक्शा किराए पर ले लिया और चलाने लगा।”

यहाँ धर्मबीर ने न जाने कितने दिन भूखे रहकर काटे तो ज्यादा कमाई के लिए कई रातें बिना सोये निकाली। कभी रात में काम न मिलता तो 3 रुपये की रजाई किराए पर लेकर वहीं फूटपाथ पर सो जाते थे। मुश्किल के इस वक़्त में न तो उनके अपने साथ थे और न ही इस शहर में उनका कोई अपना था।

अपनी ‘मल्टी-प्रोसेसर’ मशीन के साथ धर्मबीर कम्बोज

 

“मैं यह कहूँगा कि मुझे जीना दिल्ली ने सिखाया। दिल्ली के अलग-अलग, नए-पुराने इलाकों में मैंने छोटी-बड़ी चीज़ें बनती देखी। यहाँ पता चला कि आप आम, नींबू से ज़्यादा उसकी प्रोसेसिंग से बने प्रोडक्ट से कमाते हैं। बस यूँ लगा लो कि दिल्ली के इन इलाकों ने मुझे भी अपने बिज़नेस के ख़्वाब दिखाए,” धर्मबीर ने हंसते हुए कहा।

एक दिन काम के दौरान उनका एक्सीडेंट हो गया और इसके बाद उन्होंने अपने गाँव वापस लौटने का फ़ैसला कर लिया। क्योंकि उन्हें लगा कि अगर उन्हें कुछ हो जाता तो शायद उनके परिवार को इसका पता भी नहीं चलता। गाँव लौटकर उन्होंने खेती शुरू कर दी। लेकिन इस बार उन्होंने पारम्परिक अनाज की खेती न करके सब्ज़ियाँ उगाई।

“पहले-पहले कुछ मुश्किल हुई, लेकिन फिर खेती में भी मुनाफ़ा होने लगा। एक वक़्त आया जब मैंने 70 हज़ार प्रति एकड़ टमाटर बेचा। मैंने मशरूम, स्ट्रॉबेरी की खेती भी की। खेती में जो कुछ मुनाफ़ा हुआ उससे पहले के कुछ कर्ज़ चुका दिए। मैंने अपना पूरा ध्यान खेती पर ही लगाया क्योंकि मुझे लगता था कि इसी से मुझे मेरी राह मिलेगी,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए धर्मबीर ने कहा।

एक बार किसानों के एक समूह के साथ उन्हें राजस्थान के पुष्कर जाने का मौका मिला। यहाँ उन्होंने देखा कि सेल्फ-हेल्प ग्रुप से जुड़ी महिलाएँ खुद गुलाबजल बना रही हैं। वहां उन्होंने आंवले के लड्डू भी बनाते देखे। यहाँ पर उन्हें समझ आया कि कोई भी सब्ज़ी, फल, फूल आदि की खेती में फायदा तब है जब किसान अपनी उपज को सीधे बाज़ार में बेचने की बजाय उसकी प्रोसेसिंग करके और प्रोडक्ट्स बनाकर बेचे।

राजस्थान से लौटने पर उन्हें गुलाबजल बनाने के लिए 25 हज़ार रुपए की सब्सिडी मिली। ये वो मौका था जब धर्मबीर के मन में पहली बार अपनी मशीन का ख्याल आया। “मैं बचपन में भले ही पढ़ाई में बढ़िया नहीं था लेकिन जुगाड़ से छोटी-मोटी मशीन बनाने का शौक हमेशा रहा। गाँव में बहुत बार हीटर बनाकर बेचे और फिर बिना देखे किसी भी मशीन का चित्र मैं मिट्टी पर बना लिया करता था। उस दिन से पहले मेरे दिल में कभी ऐसा ख्याल नहीं आया कि मैं कोई मशीन बनाऊं या फिर कोई इनोवेशन करूँ।” उन्होंने कहा।

गुलाबजल बनाने के लिए जब धर्मबीर पीतल के बर्तन लेने दुकान पर गए तो अचानक उनके मन में एक ख्याल आया और वे दुकान से वापस आ गए। उन्होंने घर आकर अपनी पत्नी से बात की और हमेशा की तरह उनकी पत्नी ने इस काम में उनका हौसला बढ़ाया। उन्होंने एक-दो दिन लगाकर अपनी ज़रूरत के हिसाब से एक मशीन का स्कैच तैयार किया और पहुँच गए एक लोकल मैकेनिक के पास।

उस मैकेनिक ने उनसे मशीन बनाने के 35 हज़ार रुपए मांगे तो धर्मबीर ने जैसे-तैसे 20 हज़ार रुपए उसे देकर मशीन का काम शुरू करवाया। इस मशीन को बनाने में उन्हें 8-9 महीने का समय लगा। उन्होंने अपनी मशीन को ‘मल्टी-प्रोसेसिंग मशीन’ नाम दिया।

मल्टी-प्रोसेसर मशीन

यह नाम उन्होंने इसलिए दिया क्योंकि इस मशीन में आप न सिर्फ़ गुलाब बल्कि किसी भी चीज़ जैसे कि एलोवेरा, आंवला, तुलसी, आम, अमरुद आदि को प्रोसेस कर सकते हैं। आपको अलग-अलग प्रोडक्ट बनाने के लिए अलग-अलग मशीन की ज़रूरत नहीं है। आप किसी भी चीज़ का जैल, ज्यूस, तेल, शैम्पू, अर्क आदि इस एक मशीन में ही बना सकते हैं।

धर्मबीर बताते हैं कि इस मशीन में 400 लीटर का ड्रम है जिसमें आप 1 घंटे में 200 लीटर एलोवेरा प्रोसेस कर सकते है। साथ ही इसी मशीन में आप कच्चे मटेरियल को गर्म भी कर सकते हैं। इस मशीन की एक ख़ासियत यह भी है कि इसे आसानी से कहीं भी लाया-ले जाया सकता है। यह मशीन सिंगल फेज मोटर पर चलती है और इसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है।

धर्मबीर ने इस मशीन को अपने खेत पर रखकर फार्म फ्रेश प्रोडक्ट बनाना शुरू किया। उन्होंने अपने खेत में उगने वाले एलोवेरा और अन्य कुछ सब्ज़ियों को सीधा प्रोसेस करके, उनके जैल, ज्यूस, कैंडी, जैम आदि प्रोडक्ट बनाकर बेचना शुरू किया। अख़बार में छपी एक छोटी-सी खबर से गुजरात के हनी बी नेटवर्क और ज्ञान फाउंडेशन को उनके इस काम के बारे में पता चला।

ज्ञान फाउंडेशन से कुछ लोगों ने जाकर धर्मबीर की मशीन और उनके कार्य को देखा। “ज्ञान फाउंडेशन और अनिल गुप्ता के संपर्क में आने से मुझे बहुत सहायता मिली। उन्होंने मुझे अपने प्रोडक्ट्स के लिए FSSAI सर्टिफिकेट अप्लाई करने के लिए कहा। उन्होंने मेरी मशीन के लिए सेल टैक्स नंबर भी लिया और उनकी मदद से मुझे मशीन पर अपना पेटेंट भी मिला,” उन्होंने बताया।

अपनी मशीन पर ट्रेनिंग देते हुए धर्मबीर

साल 2009 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने उनको सम्मानित किया। इसके बाद उनके बारे में जब कई अख़बारों में छपा तो उन्हें मशीन के लिए पूरे देश से ऑर्डर आने शुरू हो गए।

हनी बी नेटवर्क की मदद से धर्मबीर ने अपनी मशीन को और थोड़ा मॉडिफाई किया और अलग-अलग साइज़ के पाँच मॉडल बनाए। इनमें सबसे बड़े साइज़ की मशीन का मूल्य 1 लाख 80 हज़ार रुपए है तो सबसे छोटी साइज़ वाली मशीन 45 हज़ार रुपए की है। इसके अलावा बाकी तीन मॉडल की कीमत क्रमश: 1 लाख 25 हज़ार, 80 हज़ार और 55 हज़ार रुपए है।

मशीन बेचने के अलावा धर्मबीर किसानों और महिलाओं के सेल्फ-हेल्प ग्रुप्स को इस मशीन पर अलग-अलग तरह प्रोडक्ट्स बनाने की ट्रेनिंग भी देते हैं। उन्होंने कई राज्यों में किसानों और महिलाओं को छोटे-छोटे स्तर पर खेती से ही अपना कारोबार शुरू करने में मदद की है। उनके इन सभी कार्यों के लिए उन्हें 2012 में फार्मर साइंटिस्ट अवॉर्ड भी मिला।

आज उनकी मशीन देश के बाहर जापान, दक्षिण अफ्रीका, केन्या, नेपाल और नाईज़ीरिया जैसे देशों तक भी पहुँच चुकी है। उनके प्रोडक्ट्स भी उनके बेटे के नाम पर प्रिंस ब्रांड से देशभर के बाज़ारों में जा रहे हैं। आज वे एलोवेरा जैल, तुलसी का तेल, सोयाबीन का दूध, हल्दी का अर्क, गुलाब जल, जीरे का तेल, पपीता और जामुन का जैम आदि बना रहे हैं। उनके इस काम से उनके गाँव की महिलाओं को रोज़गार भी मिल रहा है।

आज उनकी मशीन केन्या, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में भी काफ़ी प्रसिद्द है

उन्होंने अपने यहाँ एक सामुदायिक वर्कशॉप भी शुरू की है। जिसका उद्देश्य स्थानीय छोटे-छोटे इनोवेटर्स को उनके आविष्कार बनाने के लिए मदद करना है। साथ ही, वे हनी बी नेटवर्क और ज्ञान फाउंडेशन के साथ काफ़ी सक्रिय है। हर साल वे उनके साथ शोधयात्रा में भाग लेते हैं।

इस मशीन के बाद उन्होंने सोलर पॉवर से चलने वाली एक झाड़ू भी बनाई है। उनके इस इनोवेशन पर वे अभी और काम कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि उनका यह इनोवेशन भी ग्रामीण लोगों के लिए हितकर साबित होगा। अंत में धर्मबीर किसानों के लिए सिर्फ़ यही संदेश देते हैं, “किसानों को ऐसी फसल उगानी चाहिए जिसे वे प्रोसेस करके प्रोडक्ट बना सके। इससे ही उन्हें फायदा होगा और गाँव में रोज़गार भी आएगा। साथ ही, नए प्रोडक्ट्स बनाने की कोशिश करे जो कोई और नहीं कर रहा हो। क्योंकि कोशिश करोगे तभी सफल हो पाओगे।”

यदि आपको इस कहानी ने प्रेरित किया है या फिर आप यह मशीन खरीदना चाहते हैं तो धर्मबीर कम्बोज से 9896054925 या फिर kissandharambir@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। आप उन्हें अपने यहाँ किसानों, महिलाओं या फिर छात्रों की ट्रेनिंग के लिए भी बुला सकते हैं।

उनकी मशीन कैसे काम करती है यह आप इस विडियो में देख सकते हैं


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मिलिए पक्षियों के दोस्त से, कईयों की बचाई जान, पकड़वाया 110 शिकारियों को !

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पि छले साल फोटोग्राफर मनोज नायर द्वारा 7 जून को खींची गई एक मादा कृष्णग्रीव सारस की तस्वीर काफी वायरल हो गयी। इस तस्वीर में एक मादा कृष्णग्रीव सारस की चोंच, एक प्लास्टिक की टूटी बोतल के ढक्कन से बंद हो गयी थी। बोलना तो दूर वह कुछ खा भी नहीं सकती थी। ढक्कन कुछ इस कदर फंसा हुआ था कि वह अपना मुंह किसी भी हालत में नहीं खोल पा रही थी। तस्वीर को देखकर लोग परेशां थे कि शायद यह बेजुबान जल्द ही भूख प्यास से मर जाएगी।

इसके ठीक छह दिन बाद यानी 13 जून 2018 को खबर आई कि राकेश अहलावत नाम  के शख्स और उनके कुछ अन्य साथियों ने उस मादा सारस को प्लास्टिक के ढक्कन से निजात दिला दिया है।

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सारस की चोंच से ढक्कन निकालते राकेश अहलावत व साथी।

मादा कृष्णग्रीव सारस / सारस (स्टोर्क) सबसे ज्यादा भारत में ही पाई जाती हैं, जिसकी विभिन्न प्रजातियाँ होती हैं। क्रौंच के नाम से भी पहचाना जाने वाला यह जीव दुनिया का सबसे विशाल उड़ने वाला पक्षी है।

हरियाणा के झज्जर जिले के डीघल गाँव के रहने वाले राकेश और उनके साथियों ने पहले भी ऐसे अनेक पक्षियों की जान बचाई है, जो इंसानी लापरवाही के चलते मौत के मुंह में चले जाते थे।

राकेश ने कई बार प्लास्टिक के नेट और पतंग की डोरियों में फंसे पक्षियों को बचाया है। करीब तीन साल पहले उन्होंने सर्दियों में एक स्पॉट बिल डक (देसी नाम – गुगरल) को एक मछली पकड़ने के जाल से निकालकर बचाया था।

 

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प्लास्टिक नेट में फंसे पक्षी को बचाते हुए राकेश अहलावत

वह कहते हैं, “आज इंसान ने पक्षियों के लिए कोई भी जगह नहीं छोड़ी है। तालाबों और वेटलैंड्स के किनारे उगे पेड़ों को काटा जा रहा है। वेटलैंड्स को कॉलोनियों से बदल दिया गया है। प्रवासी पक्षी और सारस जैसे स्थानीय पक्षियों को अब बमुश्किल ही जगह मिल रही है। तालाबों पर बंधे मछली पकड़ने वाले महीन जाल में उलझकर पक्षी दम तोड़ रहे हैं। बसंत के मौसम में पतंग की डोरियां और हमारे द्वारा बाहर फेंका गया प्लास्टिक पक्षियों के लिए खतरा पैदा कर रहा है। ऐसे में हमें इन बेजुबान पक्षियों के लिए सोचना होगा।।”

 

राकेश पक्षियों और वन्य जीव संरक्षण के लिए पिछले 8 साल से काम कर रहे हैं। वे हर सुबह अपनी हरे रंग की मोटरसाइकिल पर पक्षियों को देखने निकल पड़ते हैं और शाम होते-होते घर पहुंचते हैं।

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पक्षियों के पैर से पतंग की डोर निकालते राकेश

राकेश बताते हैं, “मैंने अपने इस काम की शुरूआत 2011 से की। मैंने दूरबीन व पक्षियों से जुड़ी एक किताब खरीदी और गाँव में ही पक्षियों को खोजना शुरू किया। बहुत जल्द ही मुझे पक्षियों के नाम याद हो गए थे। मैं तब से अब तक मेरे गाँव में ही पक्षियों की तीन सौ प्रजातियां खोज चुका हूँ। उस समय गाँव और उसके आसपास के इलाकों में पक्षियों व अन्य जानवरों का शिकार किया जाता था। मैंने शिकारियों को पकड़वाना और वाइल्ड लाइफ डिपार्टमेंट से जुर्माना लगवाना शुरू किया। आज मेरे आसपास के इलाके में एक भी शिकारी नहीं है।”

राकेश अब तक 110 के करीब शिकारियों को पकड़वा चुके हैं। कई बार तो वह अकेले होते हैं और शिकारी ज्यादा। लेकिन राकेश डरते नहीं और उन्हें पकड़वाकर उन पर कानूनी कार्रवाई करवाते हैं।

राकेश शिकारियों के साथ हुई तकरार का एक किस्सा याद करते हैं, “मैं एक बार अपने गाँव से अगले गाँव पक्षी देखने जा रहा था। रास्ते में मुझे करीब दस शिकारी नील गाय का शिकार करते दिखे। वे उसका ​सिर धड़ से अलग कर बोरियों में बांधकर ले जा रहे थे। मैंने उन्हें रोका तो वे धमकाने लगे। उनमें से एक तो मारने के लिए भी दौड़ा, लेकिन मैं बच गया। इतने में गाँव के मेरे कई दोस्त भी मौके पर पहुंच गए। मैंने तुरंत वाइल्ड लाइफ के अधिकारियों को फोन किया और शिकारियों को पकड़वाया। जब तक अधिकारी नहीं आए तब तक वे मुझे लगातार मारने की धमकी देते रहे और धक्का-मुक्की करते रहे। मैं कभी भी शिकारियों के डर से पीछे नहीं हटा हूँ। अगर हम आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा।”

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राकेश के प्रयासों के चलते पकड़े गए शिकारी।

राकेश 2015 से दक्षिण भारत के एक एनजीओ से भी जुड़े हुए हैं जो वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कार्य करता है। राकेश पक्षियों के साथ-साथ यहां के देसी पेड़ों के लिए भी काम कर रहे हैं। वह बताते हैं, “आज देसी पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। इतना ही नहीं कई प्रजातियों के पेड़ तो विलुप्त होने की कगार पर है। हम स्थानीय पेड़ लगाने की बजाय सजावटी बाहरी पेड़ लगा रहे हैं। स्थानीय पेड़ों का संरक्षण इसलिए जरूरी है क्योंकि पक्षी अपना घोंसला स्थानीय पेड़ों पर बनाते हैं। अगर स्थानीय पेड़ नहीं होंगे तो पक्षी न तो अपना घोंसला बना सकेंगे और न ही प्रजनन क्रिया ठीक से कर पाएंगे।”

राकेश प्लास्टिक, रबड़, पतंग की डोरों को पक्षियों का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। वे कहते हैं, “हमें जितना हो सके प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करना चाहिए और खुले में तो बिल्कुल नहीं फेंकना चाहिए। हमें नदी, तालाबों और झीलों को प्रदूषित नहीं करना चाहिए। बस इतना भी इंसान कर दे तो कई पक्षियों की जान अपने आप बच जाएगी।”

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राकेश अहलावत।

राकेश जैसे लोग वाकई अनमोल है जो अपना हर दिन पक्षियों के साथ बिता रहे हैं। राकेश का कार्य देखने में रोमांचित बेशक लगता हो, लेकिन उतना ही मुश्किल है। एक घायल पक्षी को पकड़ने में कई बार उन्हें चार से पांच दिन भी लग जाते हैं।

राकेश की लगातार मेहनत के बाद आज उनका गाँव डीघल पक्षियों और पक्षी प्रेमियों की पसंदीदा जगह है। उनके गाँव में अब तक पक्षियों की 300 से ज्यादा प्रजातियां देखी जा चुकी हैं। उनके गाँव में देश-विदेश से अनेक टीमें पक्षी देखने आती हैं। सीमित संसाधनों के साथ राकेश जो कार्य कर रहे हैं वह वाकई काबिले तारीफ है।

 

अगर आप राकेश को किसी भी प्रकार की मदद या उनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो 9817797273 पर बात कर सकते हैं।

 

संपादन – भगवतीलाल तेली 


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कलेक्टर की पहल : पथरीले रास्तों से गुज़र, हर घर तक पहुँच सकती है अब बाइ​क एम्बुलेंस!

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स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के चलते देश में हर साल बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो जाती है। सुदूर क्षेत्र में रहने वाली आबादी को भी समय पर इलाज नहीं मिल पाता है। इसकी मुख्य वजह क्षेत्र में चिकित्सा सुविधा नहीं होने के साथ-साथ यातायात सुविधा का भी अभाव होना है। कई बार यातायात सुविधा होने के बावजूद भी टूटी व उबड़-खाबड़ सड़कों की वजह से इन इलाकों में एम्बुलेंस नहीं पहुँच पाती है। छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा जिले के लोगों की भी ऐसी ही कुछ समस्या थी। पहाड़ से घिरे इस जिले के जंगली इलाकों में संकरे एवं उबड़-खाबड़ रास्ते हैं जिसके कारण चार पहिया वाहन नहीं पहुंच पाते थे। ऐसे में प्रसव या फिर कोई गंभीर घटना होने पर मरीजों को घरेलू उपचार या झाड़-फूँक से ही काम चलाना पड़ता था। लेकिन अप्रैल 2018 से यहां के हालात बदल गए हैं। अब लोगों को बैगा या फिर झाड़-फूँक से इलाज नहीं करवाना पड़ेगा। क्योंकि अब इस इलाके में संगी एक्सप्रेस नाम से बाइक एम्बुलेंस सेवा शुरू हो गई है। जिसमें मरीजों के घर के बाहर तक एम्बुलेंस पहुँच रही है।

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मरीज को अस्पताल लेकर पहुंची संगी एक्सप्रेस बाइक एम्बुलेंस।

मीलों चलने के बाद भी नहीं होता था इलाज

बाइक एम्बुलेंस सेवा शुरू होने से पहले यहाँ की स्थिति बहुत ख़राब थी क्योंकि जिले के कुछ अंदरूनी क्षेत्रों में रास्ते ऐसे हैं कि वहाँ कोई भी चार पहिया वाहन नहीं पहुँच सकता था। बेहद साधारण स्वास्थ्य सुविधा के लिए भी गाँव के लोगों को मीलों चलना पड़ता था। गाँव वाले सुबह से शाम पैदल चलकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचते थे तब जाकर उनका इलाज होता था। तपती धूप और मूसलाधार बारिश में तो जिले के चिरपानी, बोकरखार, कुकदूर, दलदली और झलमला गाँव में समस्या और भी गंभीर हो जाती थी। इन गाँवों से कई ऐसे मामले भी सामने आते थे जिनमें गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को होने वाली प्रसव पीड़ा पर अस्पताल ले जाने के लिए कोई साधन नहीं मिलता था और बात उनकी जान पर बन आती थी।

 

क्या है बाइक एम्बुलेंस संगी एक्सप्रेस

यहाँ के लोगों को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए जिला कलेक्टर अवनीश शरण की एक पहल है। कलेक्टर ने अप्रैल 2018 को संगी एक्सप्रेस नाम से बाइक एम्बुलेंस लॉन्च की। इस एम्बुलेंस की खास बात यही है कि यह पहाड़ी इलाकों में भी बखूबी चलती है और जल्द से जल्द मरीज को अस्पताल पहुंचा देती है। यह एम्बुलेंस शुरुआत में जिले के तीन स्वास्थ्य सेक्टर्स में चलाई गई लेकिन बाद में लोगों की मांग को देखते हुए पांच बड़े वनांचल क्षेत्र दलदली, बोक्करखार, झलमला, कुकदूरऔर छिरपानी में चलाई जा रही है।

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संगी बाइक एम्बुलेंस के ड्राइवर वाहन के साथ।

दरवाज़े तक आती है संगी एक्सप्रेस

सेवा शुरू होने के बाद इन सभी गाँवों में लोगों को मोबाइल एम्बुलेंस के ड्राइवर का नम्बर दिया गया। पंचायत की बैठकों में लोगों को जागरूक करने का भी काम किया गया। गाँव वालों को बताया गया कि प्रसव पीड़ा या किसी भी प्रकार की आपातकाल स्थिति के दौरान वे गाड़ी के ड्राइवर या आशा वर्कर को कॉल करके बाइक बुला सकते हैं। कॉल करने के बाद ड्राइवर संगी एक्सप्रेस को मरीज के दरवाजे तक लेकर जाता है, फिर मरीज को घर से पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर पहुंचाता है। संगी एक्सप्रेस की इस सेवा को लेकर क्षेत्र के लोग काफी खुश नज़र आते हैं।

कोयलारी गाँव की कनिहारिन बाई कहती है कि 7 अक्टूबर 2018 को प्रसव पीड़ा के दौरान उन्होंने संगी एक्सप्रेस के ड्राइवर को फोन करके बुलाया और अपनी माँ के साथ 12 किलोमीटर दूर स्थित दलदली प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंच गई और रात 11:20 बजे मैंने एक नए जीवन को जन्म दिया। बाइक एम्बुलेंस से अस्पताल पहुंचना, सब कुछ आसानी से हो जाना किसी चमत्कार से कम नहीं लगता क्योंकि मैंने अपने रिश्तेदारों को प्रसव पीड़ा के दौरान तड़पते देखा है।

 

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बाइक एम्बुलेंस के साथ महिलाएं।

संगी एक्सप्रेस पहल के यह हैं चार प्रमुख उद्देश्य

1) गोल्डन आवर (प्रसव पीड़ा के दौरान ज़रूरी घंटे) के भीतर आपातकालीन देखभाल की आवश्यकता वाले लोगों को कम करके मातृ, शिशु और बाल मृत्यु दर को कम करना।

2) दुर्घटना पीड़ितों और अन्य आघात के मामलों से पीड़ित लोगों को आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवा (ईआरएस) सुविधा प्रदान करना।

3) स्वास्थ्य सेवाओं की मांग के लिए अन्य जिलों और संबंधित राज्यों में ग्रामीणों के प्रवासन को कम करने और संबंधित क्षेत्रों में स्वास्थ्य लाभ देना।

4) जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) के तहत गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों के लिए प्रसवपूर्व और प्रसवोत्तर देखभाल को मजबूत करना।

कलेक्टर शरण कहते हैं , ”अब जब गाँव जाता हूँ तो लोग ख़ुशी-ख़ुशी बताते हैं कि अब हमारा इलाज हो गया है। नवजात शिशु को मेरे पास लेकर आते हैं और कहते हैं कि कैसे संगी एक्सप्रेस के माध्यम से उनके जीवन में बदलाव आया है। मैं इन गाँव वालों के चेहरों पर खुशी देखता हूँ तो लगता है कि बाइक एम्बुलेंस शुरू करना सबसे बेहतर कदम था।”

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कलेक्टर

जिले के बैगा आदिवासी बाहुल्य सुदूर और दुर्गम वनांचल में रहने वाली दशरी बाई सहित जिले की हजारों गर्भवती महिलाओं के लिए बाइक एम्बुलेंस वरदान साबित हो रही है।

दशरी बाई कहती है कि जंगल क्षेत्र के सभी गांवों के लिए बाइक एम्बुलेंस जीवन रक्षक के रूप में वरदान है। वह बाइक एम्बुलेंस के माध्यम से कुकदूर के स्वास्थ्य केन्द्र में पहुंच कर अपना नियमित रूप से स्वास्थ्य परीक्षण भी कराती है।

 

अब बैगा से नहीं, डॉक्टर से कराते हैं इलाज

दशरी बाई कहती है कि पहले यहां के लोग स्थानीय बैगाओं के पास पहुंचकर अपना इलाज कराते थे। वनांचल ग्रामों में किसी को सांप-बिच्छू के काटने पर झाड़-फूंक कराते थे। लेकिन अब बाइक एम्बुलेंस की सेवाएं मिलने से वनांचल गांवों में जागरूकता बढ़ी है। अब लोग झाड़-फूक जैसे अंधविश्वास और गाँव -घर में ही जचकी करने जैसी सामाजिक कुरीतियों में विश्वास नहीं करते हैं।

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बाइक एम्बुलेंस के साथ महिलाएं।

अब तक 2 हज़ार से ज्यादा मरीजों को मिला लाभ

जिले में पांच बड़े वनांचल केन्द्र दलदली, बोक्करखार, झलमला, कुकूदर और छिरपानी में बाइक एम्बूलेस की सेवाएं मिलने से अब तक 2,268 मरीजों को इस सुविधा का लाभ मिला है। इस सेवा के तहत 332 गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए स्वास्थ्य केन्द्र और 346 शिशुवती माताओं को प्रसव के बाद सुरक्षित घर पहुंचाया गया। 1,120 गर्भवती माताओं को नियमित स्वास्थ्य परीक्षण के लिए स्वास्थ्य केन्द्र लाया गया। 293 बच्चों को टीकाकरण एवं मौसमी बीमारियों के उपचार के लिए अस्पताल पहुंचाया गया। 166 मरीजों को आपातकालीन में स्वास्थ्य केन्द्र पहुंचाकर उन्हें बचाया गया।

”यह आंकड़े  गाँव वालों के जीवन में मुस्कान की एक वजह है। यह आंकड़े तमाम चुनौतियों के बाद भी समाधान कैसे किया जाए इसका जवाब है। स्वास्थ्य को लेकर अब लोगों में जागरूकता बढ़ने लगी है। संगी एक्सप्रेस से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को मदद मिले हमारा यही प्रयास होता है,” कलेक्टर अवनीश शरण ने कहा।

अगर इच्छाशक्ति हो तो किसी भी बड़ी समस्या का समाधान संभव है। बाइक एम्बुलेंस की शुरुआत और गाँव – गाँव में दौड़ती बाइक एम्बुलेंस आज हज़ारों गाँव वालों के लिए वरदान साबित हो रही है। एक नेक सोच और पहल से कई जीवन बचाए जा रहे हैं। इससे पलायन रुका है। अन्धविश्वास पर विराम लग रहा है। निश्चित ही कलेक्टर अवनीश शरण की यह पहल सराहनीय है, ऐसी पहल को ज़्यादा से ज़्यादा ज़िलों में लागू किया जाना चाहिए।

संपादन – भगवतीलाल तेली 


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बेंगलुरु: शहर के बीचो-बीच रेंट पर खेत लेकर उगाए अपनी मनपसंद और हेल्दी सब्जियां!

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चपन में हर साल गर्मियों की छुट्टियां हो, कोई त्यौहार या फिर शादी-ब्याह, सभी मौकों पर हम गाँव जाते थे। वहां का माहौल शहर से एकदम अलग था। सारा दिन खेत-खलिहानों में खेलना, जिद करके दादी-बुआ के साथ जाकर क्यारियों में सब्ज़ियां लगाना, मिट्टी के छोटे-बड़े घड़े लेकर कुएं पर पहुंच जाना और भी न जाने क्या-क्या?

मुझे अभी भी याद है जब मेरी नानी घर के आँगन में मिट्टी के चूल्हे पर रोटी बनाती थी तो हम सारे बच्चे अपनी-अपनी थाली लेकर घेरा करके बैठ जाते और बारी-बारी से अपनी रोटी का इन्तजार करते। फिर जैसे-जैसे वक़्त बीता और पढ़ाई-नौकरी की ज़िम्मेदारी बढ़ी, ज़िंदगी किसी दूसरे शहर के एक छोटे से फ्लैट में सिमटकर रह गई।

आज भी गाँव की वो सादगी मैं अपने आस-पास शहर की चीज़ों में तलाशती हूँ। मेरे जैसे और भी बहुत से लोग हैं, जो आज टेक्नोलॉजी से लबरेज़ शहरों में देसीपन ढूंढते हैं।

ऐसे ही लोगों के लिए, बेंगलुरू की अनामिका बिष्ट ने ‘विलेज स्टोरी’ संगठन की शुरुआत की है। स्टील सिटी बोकारो में पली-बढ़ीं अनामिका ने लगभग दो दशक तक कॉर्पोरेट सेक्टर में काम किया।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने पैशन को करियर बनाया और अब कैसे वे अपने इस स्टार्टअप को आगे बढ़ा रही हैं।

अनामिका बिष्ट

अनामिका बताती हैं कि उन्होंने बचपन में अपने दादा-दादी के साथ छुट्टियों में जो वक़्त बिताया, उसी से प्रेरित होकर ‘विलेज स्टोरी’ की नींव रखी। वह फिर से कबड्डी-पिट्ठू के खेल, पतंग उड़ाना और भी दूसरी चीज़ों को लोगों की ज़िंदगी का हिस्सा बनाना चाहती है।

उनका यह स्टार्टअप सिर्फ़ मौज-मस्ती तक सीमित नहीं है बल्कि ‘विलेज स्टोरी’ को शुरू करने के पीछे उनका बड़ा उद्देश्य है।

क्या है ‘विलेज स्टोरी’?

विलेज स्टोरी

झारखंड में जन्मी अनामिका ने मुंबई के कॉलेज से साहित्य में ग्रेजुएशन की और फिर NIIFT, दिल्ली से गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग में मास्टर्स की डिग्री ली। पढ़ाई के बाद शुरू हुई करियर की दौड़-भाग ने उन्हें एक वक़्त के बाद इतना थका दिया कि उन्होंने अपनी इस लाइफ-स्टाइल से एक ब्रेक ले लिया।

“मुझे अच्छे से समझ आ गया था कि अब मैं अपनी ज़िंदगी में कॉर्पोरेट करियर नहीं चाहती और इसी समय के आस-पास मेरे एक दोस्त ने मुझसे संपर्क किया। उसने मुझे बेंगलुरू के जक्कुर में उसकी खाली पड़ी एक जगह देखने के लिए कहा। इस जगह पर कुछ अलग करने की योजना थी,” अनामिका ने बताया।

अनामिका हमेशा से ऐसा कुछ करना चाहती थी जो उन्हें शहर की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी से एक ब्रेक दे और इस जगह को देखते ही उन्हें समझ आ गया कि क्या करना है। उन्होंने यहां पर काफ़ी समय बिताया ताकि वे इस जगह से एक रिश्ता बना सके।

“मैंने यहां सब्ज़ियां उगाना शुरू किया और फिर जब उपज आ गई तो सब्ज़ियों को सभी दोस्त-रिश्तेदारों में बांटा गया। बस यहीं से मेरे दिमाग में विलेज स्टोरी के तहत सामुदायिक खेती का आइडिया आया,” अनामिका ने उत्साह के साथ कहा।

15 अगस्त 2017 को अनामिका ने शहर में रहने वाले व्यस्त लोगों के लिए एक सब्सक्रिप्शन फार्मिंग की शुरुआत की, जिसे उन्होंने ‘स्क्वायर फुट फार्मिंग’ नाम दिया।

आप यहाँ अपनी एक क्यारी किराए पर लेकर खेती कर सकते हैं

इस कॉन्सेप्ट को समझाते हुए अनामिका ने बताया कि कोई भी जो स्वस्थ भोजन खाना चाहता है और जो खुद अपनी सब्ज़ियां उगाना चाहते है, उनका यहां स्वागत है। आप इस जगह में 7×7 फीट की एक क्यारी ले सकते हैं, जिसमें आप अपने हिसाब से कुछ भी उगा सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में अनामिका और उनकी टीम आपकी मदद करेंगे।

यहां उनकी टीम आपको अपना खुद का खाना उगाने के प्राकृतिक और जैविक तरीके सिखाती है। इसके बाद, विलेज स्टोरी की टीम आपके फार्म की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी लेती है। किसानी के लिए आपको जो कुछ भी चाहिए जैसे ज़मीन, मिट्टी, बीज, सैपलिंग, खाद, कॉकोपीट आदि सभी चीज़ों का यहां ख्याल रखा जाता है। आप यहां पर 2000 रुपए प्रति महीने के हिसाब से कम से कम तीन महीनों के लिए ज़मीन का टुकड़ा किराए पर ले सकते हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो एक साल के लिए भी आप यहां ज़मीन किराए पर ले सकते हैं।

यहां पर पालक, मेथी, धनिया, अजवायन, गोभी, हरा प्याज, लेट्स, लहसुन, सौंफ, चौलाई आदि के अलावा नीम, मोरिंगा (सहजन फल्ली) के पत्ते, हल्दी, तुलसी, एलोवेरा और फूल उगाए जाते हैं।

यहां सबसे ज़्यादा लोग इस बात से खुश होते हैं कि वे अपना खाना खुद उगा रहे हैं। ऐसा कुछ जो उन्हें उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से निकाल कर एक अलग अनुभव कराता है। इसके अलावा लोग यहाँ आकर खुद को ज़मीन और पर्यावरण से जुड़ा हुआ भी महसूस करते हैं।

फार्म-टूरिज्म की भी है व्यवस्था

स्कूल के बच्चों के लिए टूरिज्म

अनामिका कहती हैं कि आज के समय में माता-पिता अपने बच्चों को कुछ ज़्यादा ही तकनीकी दुनिया में पाल रहे हैं, जो कि शायद सही नहीं है।

“आज अगर हम दादा-दादी से भी मिले, तो लगेगा कि वो भी मॉडर्न हो गए हैं। यह वैसा नहीं है जैसा हमारे समय पर हुआ करता था। इसलिए, विलेज स्टोरी का उद्देश्य फिर से उसी मैजिक को लाना है जो मैंने अपने बचपन में महसूस किया। हम चाहते हैं कि सभी माता-पिता और बच्चे अपने हाथ गंदे करे, खुद सब्जियां उगाए, फिर उन्हें इकट्ठा करे और इस सब में बहुत-कुछ सीखे।”

इस फार्म में किसानी के अनुभव के अलावा भी अनामिका ने पूरे दिन के लिए अलग-अलग चीज़ें डिजाईन की हैं जो कि यहां आने वाले लोग अनुभव कर सकते हैं।

“हम बच्चों और उनके माता-पिता को यहां आकर खुद मिट्टी के चूल्हे पर अपना खाना बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके अलावा मिट्टी के बर्तन बनाने, कठपुतली बनाने, कहानी सुनाने, मंडाला और भित्ति-चित्र कला पर वर्कशॉप भी होती हैं।”

यह सब करना अनामिका के लिए इतना आसान नहीं था। वे कहती हैं कि इस तरह का स्टार्टअप शुरू कर लोगों को उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से बाहर लाना और उन्हें खेती करने के लिए मनाना मुश्किल काम है। एक महिला होने के नाते उन्हें काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। वे आज भी इस कॉन्सेप्ट के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए प्रयासरत हैं।

आगे की योजना के बारे में वे कहती हैं, “हम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इस समुदाय से जोड़ना चाहते हैं। जितने ज़्यादा लोग हमसे जुडेंगे, उतनी ही ज़्यादा लोगों में पर्यावरण और किसानी के प्रति समझ बढ़ेगी।”

यदि कोई भी अपने परिवार, दोस्तों या फिर सहयोगियों के साथ ‘विलेज स्टोरी’ फार्म का दौरा करना चाहते हैं तो द बेटर इंडिया-शॉप पर संपर्क कर सकते हैं!

संपादन: भगवतीलाल तेली
मूल लेख: विद्या राजा 


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“मैंने अपनी हीरो को खो दिया”- सुषमा की मदद से मिली थी इन लोगों को नयी राह!

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“मैं कभी नहीं भूलूंगी कि कैसे सुषमा स्वराज ने मेरी मदद की थी जब मैं जर्मनी में बिना पासपोर्ट और पैसों के फंस गयी थी। उन्होंने मेरी खैरियत जानने के लिए खुद फ़ोन किया। और उन्होंने ऐसे ही और हजारों लोगों की मदद की…. यह खबर बहुत दुखद है…”

ट्विटर यूजर अग्रता ने भारत की पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यह ट्वीट किया।

साल 2015 में अग्रता बर्लिन में फंस गयी थीं। उनके पास न तो उनका पासपोर्ट था और न ही पैसे। ऐसे में उन्होंने भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मदद की गुहार लगाई। स्वराज ने बिना किसी देरी के अग्रता की मदद की।

6 अगस्त 2019, मंगलवार को दिल का दौरा पड़ने से सुषमा स्वराज का निधन हो गया। 67 वर्षीया स्वराज का तीन साल पहले किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था और पिछले कुछ दिनों से उनकी तबीयत काफ़ी नाजुक चल रही थी।

नौ बार संसद की सदस्या रहने वाली, दिल्ली की पहली महिला मुख्य मंत्री सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल के लिए हमेशा याद रखा जायेगा। विदेश मंत्री की ज़िम्मेदारियाँ बखूबी निभाते हुए उन्होंने कई बार साबित किया कि वह आम लोगों की नेता हैं और साधारण से साधारण व्यक्ति भी उनके पास अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जा सकता है।

ट्विटर पर हमेशा तत्पर रहने वाली सुषमा स्वराज ने सोशल मीडिया को अग्रता जैसे कई आम नागरिकों की मदद करने का सशक्त माध्यम बनाया।

आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए ऐसे ही कुछ वाकयों के बारे में जब सुषमा स्वराज ने ट्विटर पर न सिर्फ़ भारतीयों को, बल्कि दूसरे देशों के लोगों के भी दिल जीते!

 

1. जब वाशिंगटन में छुट्टी वाले दिन भी खुली इंडियन एम्बेसी

11 अक्टूबर 2016 को करनाल की निवासी सरिता तकरू ने सुषमा स्वराज और विदेश मंत्रालय को ट्विटर पर टैग करते हुए लिखा कि उनके पति का देहांत हो गया है और उनका इकलौता बेटा अभय कौल अमेरिका में है। अभय को अपने पिता के अंतिम संस्कार पर पहुँचने के लिए वीज़ा नहीं मिल पा रहा था। क्योंकि उस समय दशहरा की छुट्टी होने की वजह से इंडियन एम्बेसी बंद थी।

तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस ट्वीट पर तुरंत प्रतिक्रिया करते हुए अमेरिका में भारतीय अफ़सरों को एम्बेसी खोलकर अभय को तुरंत वीज़ा देने के निर्देश दिए। सुषमा स्वराज की इस तुरंत कार्यवाही के चलते अभय समय पर अपने घर पहुँचकर अपने पिता का अंतिम संस्कार कर पाए।

 

2. जब भारतीय बॉक्सर को मिला एक दिन में पासपोर्ट

पिछले साल नवंबर में भारत की जूनियर बॉक्सर झलक को युक्रेन के अंतरराष्ट्रीय बॉक्सिंग टूर्नामेंट ‘वलेरिया देम्यनोवा मेमोरियल’ के लिए चुना गया था। लेकिन परेशानी थी कि झलक के पास पासपोर्ट नहीं था और इस वजह से उन्होंने सभी उम्मीदें छोड़ दीं थीं।

पर झलक की उम्मीदों को सुषमा स्वराज ने नहीं टूटने दिया। जब एक ट्विटर यूजर अदिति शर्मा ने झलक की परेशानी के बारे में ट्वीट किया, तो इस ट्वीट के एक दिन बाद ही ग़ाज़ियाबाद रीजनल पासपोर्ट ऑफिस से झलक को उनका पासपोर्ट मिल गया।

झलक

यह सब संभव हुए सुषमा स्वराज की तुरंत किये गए हस्कीतक्षेप की वजह से। इस बारे में ट्वीट करते हुए उन्होंने लिखा था, “झलक- मैंने दिए हुए नंबर पर बात की है। तुम्हें सुबह तक तुम्हारा पासपोर्ट मिल जायेगा, और अब तुम्हें देश के लिए मेडल जीतना है।”

साभार: ट्विटर

 

3. जब पाकिस्तानी बच्चे को मिला मेडिकल वीज़ा

भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के माहौल में भी सुषमा स्वराज ने अपने पद की गरिमा को बनाये रखते हुए बहुत बार  इंसानियत का संदेश दिया।

31 मई 2017 को एक पाकिस्तानी नागरिक ने सुषमा स्वराज को टैग करते हुए ट्वीट किया कि उनके बेटे के दिल के इलाज के लिए उन्हें भारत आना है। लेकिन तनाव के चलते उन्हें मेडिकल वीज़ा नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा कि भारत और पाकिस्तान के मुद्दों के बारे में उनका तीन महीने का बेटा नहीं जानता है… तो उसे मेडिकल ट्रीटमेंट क्यों न मिले?

सुषमा स्वराज ने तुरंत इस पाकिस्तानी नागरिक की मदद करते हुए उन्हें मेडिकल वीज़ा दिलवाया। उनके इस मददगार कदम के चलते उस बच्चे का इलाज सही समय पर हो पाया। सुषमा की इस नेकदिली के लिए उन्हें भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों से सराहना मिली।

 

 

4. दुबई से सही-सलामत घर पहुंची भारतीय लड़की

दुबई में मानव तस्करों के चंगुल में फंसी एक भारतीय लड़की को भी सुषमा स्वराज ने सही-सलामत घर वापस पहुँचाया था। साल 2015 में देव तम्बोली नामक एक ट्विटर यूजर ने ट्वीट किया कि उनकी बहन नौकरी के लिए दुबई गयी थी, पर अब उसे एक कमरे में बंद कर दिया गया है।

देव के ट्वीट पर तुरंत कार्यवाही करते हुए सुषमा स्वराज ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बहन सही-सलामत घर लौटे।

 

5. मूक-बधीर गीता लौटी अपने देश

साल 2015 में गीता नामक एक मूक-बधिर भारतीय लड़की को सुषमा स्वराज के प्रयत्नों से पाकिस्तान से वापस देश लाया गया था। स्वराज के निधन पर गीता ने भी उनके लिए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि दी है, आप इस विडियो में देख सकते हैं,

ऐसे और भी कई मौके थे जब सुषमा स्वराज और उनकी टीम ने लोगों की मदद की। अपनी इस उदार छवि के लिए सुषमा स्वराज हमेशा याद की जाएँगी।

संपादन – मानबी कटोच 


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65 वर्ष की उम्र में पारंपरिक खेती छोड़, अपनाई औषधीय खेती; लाखों में है अब मुनाफ़ा!

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मेंथा और केले की खेती के गढ़ उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में अब औषधीय यानी जड़ी बूटियों की खेती भी होने लगी है। यहाँ के किसान अब खेती में नए प्रयोग कर ज्यादा मुनाफा कमा रहे हैं। ऐसे ही एक किसान है सूरतगंज ब्लॉक में टांड़पुर (तुरकौली) गाँव के राम सांवले शुक्ला। पैंसठ साल के राम सांवले शुक्ला ने ज्यादा पढ़ाई लिखाई तो नहीं की है लेकिन इस बुजुर्ग किसान ने अपने खेतों में जो प्रयोग किए हैं, उन्हें अब दूसरे किसान भी अपना रहे हैं। राम सांवले अपने खेतों में पीली आर्टीमीशिया, सतावरी, सहजन, अदरक और कौंच उगाते हैं। इन फसलों को बेचने के लिए उन्होंने दिल्ली और मध्य प्रदेश की कई औषधीय कंपनियों से अनुबंध भी किया है। वह किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए शुरू किए गए एरोमा मिशन से भी जुड़े हैं।

राम सांवले बताते हैं, “धान-गेहूं में जितने पैसे लगाता, फसल कटाई के बाद उतनी ही कमाई होती थी। पारंपरिक खेती में कोई खास मुनाफा नहीं होता था। ऐसे में मैंने कुछ साल पहले सीमैप (केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान) के माध्यम से औषधीय पौधों की खेती करनी शुरू की। सबसे पहले मलेरिया की दवा आर्टीमीशिया के लिए मध्य प्रदेश की कंपनी से करार किया और अब नोएडा की एक बड़ी दवा कंपनी से करार कर सहजन और कौंच की खेती कर रहा हूँ। इसमें एक बार लागत थोड़ी ज्यादा आती है लेकिन फसल होने पर बेचने का झंझट नहीं रहता। कंपनी फसल खरीद लेती है और पैसा सीधे खाते में आ जाता है।”

 

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सहजन की फसल की देखभाल करते हुए।

 

लोगों ने सोचा था मेरी बर्बादी के दिन आ गए हैं

राम सांवले बताते हैं, “जब मैंने पहली बार एक एकड़ में पीली सतावरी लगाई, तो आस-पास के लोगों ने कहा, ‘पंडित जी क्या झाड़ियां उगा रहे हो?’ कई लोगों को लगा मेरी बर्बादी के दिन आ गए हैं। लेकिन जब फसल कटी तो करीब चार लाख रुपए की कमाई हुई। बाकी फसलों के मुकाबले ये रकम कई गुना ज्यादा थी। सतावरी की प्रोसेसिंग में हमने सैकड़ों लोगों को रोजगार भी दिया था। पीली सतावरी में एक एकड़ में लागत करीब 70 से 80 हजार आती है लेकिन मुनाफा 4 से 5 लाख तक होता है। हालांकि ये उस समय चल रही मार्केट रेट पर निर्भर करता है। एक एकड़ में 15 से 20 क्विंटल उपज होती है और 30 से 70 हजार रुपए प्रति क्विंटल की रेट से बिक्री होती है।

 

ऐसे होती है आर्टीमीशिया की खेती  

आर्टीमीशिया फसल की बुवाई का समय मार्च से जून तक का होता है। अगर बुवाई फरवरी में करनी है तो दिसम्बर अंतिम सप्ताह तक नर्सरी में पौधे तैयार करके रखने पड़ते हैं, जिन्हें फरवरी में खेत में लगाया जाता है। आर्टीमीशिया की खेती करने से पहले मिट्टी की जांच करवानी पड़ती है। अगर हमें एक हैक्टेयर में इसकी खेती करनी है तो 500 वर्ग मीटर में नर्सरी तैयार करनी होगी। इसमें अनुमानित 66 हजार पौधे तैयार होते हैं। अगर आप इसकी खेती करना चाहते हैं तो इसके बीजों के लिए नजदीकी सीमैप के कार्यालय पर सम्पर्क कर सकते हैं। इसके अलावा, सीमैप की वेबसाइट से भी ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

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फसल की प्रोसेसिंग करते रामसांवले।

 

दूसरे किसान भी ले रहे हैं सीख

राम सांवले के खेत में मुनाफा देखकर दो साल पहले दूसरे किसानों ने भी इसकी खेती शुरू कर दी। इन  किसानों को सतावरी की नर्सरी के लिए भागदौड़ न करनी पड़े इसलिए राम ने इस बार अपने खेतों में ही नर्सरी तैयार की है। इन पौधों को खरीदने के लिए मध्यप्रदेश से लेकर झारखंड के धनबाद तक से लोग इन्हें फोन करके पूछते हैं।

इस बार राम ने 3 एकड़ से ज्यादा सहजन (मोरिंगा) लगाया है। उनके मुताबिक आस-पास के तमाम गांवों में वे सहजन की खेती करने वाले पहले किसान है। एक बार बो कर 4 से 5 साल तक चलने वाली इस फसल को लेकर वे काफी उत्साहित नज़र आते हैं।

वे बताते हैं, “मेरा एक बेटा जो लखनऊ में प्राइवेट नौकरी करता था वह भी अब खेती कर रहा है और नौकरी से ज्यादा पैसे कमा रहा है।”

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औषधीय पौधों के बारे में जानकारी लेते हुए।घर पर ही बनाते हैं केंचुआ खाद

खेती की लागत कम करने के लिए राम घर पर ही केंचुआ खाद बनाते हैं। खाद बनाने के लिए वह वेस्ट डींकपोजर का उपयोग करते हैं। वेस्ट डीकंपोजर एक तरल पदार्थ है जिसकी खोज गाजियाबाद स्थित जैविक कृषि केंद्र ने की थी। डींकपोजर की 20 रुपए की एक शीशी से कई ड्रम जैविक तरल खाद बनती है, जिसे वह फसल में पानी के साथ छिड़काव करते हैं।

 

यूरिया की जगह  केंचुआ खाद का इस्तेमाल

खेती से कमाई का अपना सूत्र बताते हुए वह कहते हैं, “किसान का ज्यादातर पैसा खाद-बीज और कीटनाशकों को खरीदने में लगता है। इसलिए किसानों को ऐसी खेती करनी चाहिए जिसमें लेबर कम लगे। डीएपी यूरिया का पैसा बचाने के लिए घर पर ही केंचुआ और फसलों के अवशेष की कंपोस्ट खाद बनानी चाहिए।”

साथ ही, वह किसानों को सलाह देते है कि उन्हें अपने खेत के एक हिस्से में ऐसी खेती जरूर करनी चाहिए जिसमें एक बार बुआई या रोपाई करने पर कई साल तक मुनाफा हो। उनके मुताबिक सजहन एक ऐसी ही फसल है।

 

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तैयार केंचुआ खाद को इकट्ठा करके ड्रम में रखा गया है।

अपने खेतों में कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करने वाले राम का कहना है कि सीमैप जैसी संस्थाओं की मदद से उन्हें खेती के नए तरीके सीखने को मिलते हैं। इसके अलावा, वह इन्टरनेट से भी खेती की नई विधियां सीखते रहते हैं। इसी के चलते उन्हें किसानों के बीच सम्मानित भी किया जा चुका है।

 

कृषि विभाग भी कर रहा है जागरूक

बाराबंकी के उद्यान अधिकारी महेन्द्र कुमार का कहना है कि वे अपने जिले के किसानों को परंपरागत फसलों के अलावा औषधीय फसलों की खेती करने के लिए जागरूक करते हैं, जिससे वे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा सके।

इसके बारे में आगे बात करते हुए वह बताते हैं, “खेती में मुनाफा कम होने के कारण कई किसान खेती छोड़ देते थे, जो कि कृषि के लिए अच्छी खबर नहीं थी। इसलिए विभाग ने किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए जागरुकता कार्यक्रम चलाए। क्षेत्र में सतावर, सहजन और तुलसी की खेती भी बड़े पैमाने पर हो रही है और इन्हें बेचने के लिए किसानों को भटकना भी नहीं पड़ता है। कई किसानों ने इसकी शुरुआत की है। इसमें मुनाफा ज्यादा है और कीट व रोग भी नहीं लगते हैं।”

किसी भी किसान को औषधीय खेती से संबधित जानकारी चाहिए होती है, तो विभाग पूरी मदद करता है। साथ ही, तकनीकी जानकारी के साथ रख-रखाव और बाजार की भी पूरी जानकारी यहाँ दी जाती है। किसानों के लिए अब परंपरागत खेती के अलावा ये एक अच्छा विकल्प बन रहा है। बाजार में इसका रेट भी अच्छा है और बिक्री में भी दिक्कत नहीं आती है।

इस तरह की पहल यदि पूरे देश में हो, तो निःसंदेह किसान और किसानी का भविष्य उज्जवल होगा!

अगर आप भी औषधीय फसलों की खेती से संबधित कोई जानकारी चाहते हैं तो राम सांवले जी से 8896542401 पर संपर्क कर सकते हैं।


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अंडमान: IFS अफ़सर की इको-फ्रेंडली पहल, प्लास्टिक की जगह बांस का इस्तेमाल!

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पिछले साल गुजरात वन विभाग ने इको-फ्रेंडली कदम उठाते हुए अपने यहां नर्सरी में पौधों के सैपलिंग उगाने के लिए प्लास्टिक की जगह नारियल के खोल का इस्तेमाल करना शुरू किया था। उनकी इस पहल की पूरे देश में सराहना हुई और बहुत से आम नागरिकों ने भी उनकी इस पहल का अनुसरण किया।

आप गुजरात वन विभाग की पहल के बारे में यहाँ पर पढ़ सकते हैं

नारियल के खोल में सैपलिंग उगाने के तरीके से प्रभावित होकर अंडमान द्वीप में एक IFS अफसर ने भी नर्सरी में सैपलिंग लगाने के लिए इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल तरीका ढूंढ़ा।

मई, 2018 से दक्षिणी अंडमान डिवीज़न में उप-संरक्षक के पद पर कार्यरत IFS अफ़सर विपुल पांडे ने अपने डिवीज़न में पर्यावरण के अनुकूल तरीके अपनाने की शुरुआत की है। पिछले कुछ समय से विपुल अपने डिवीज़न के तहत आने वाले एक गाँव, जिर्कातंग की एक नर्सरी में सैपलिंग उगाने के लिए प्लास्टिक की जगह बांस के गमलों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

आईएफएस अफसर विपुल पांडे

विपुल ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया, “हमारे चारों तरह बहुत प्लास्टिक है। यह नर्सरी में हजारों पौधों के साथ शुरू होता है और फिर समुन्द्र तक पहुँच जाता है। जब मैंने इस मुद्दे पर बात की तो मेरा स्टाफ भी मुझसे सहमत था और उन्होंने मुझे बताया कि वे भी प्लास्टिक से निजात पाना चाहते हैं। उन्हें बस यह पता नहीं था कि कैसे?”

गुजरात वन विभाग से प्रेरित होकर विपुल ने पहले नारियल के खोल के साथ एक्सपेरिमेंट किया, लेकिन असफल रहे। क्योंकि जो पौधे उस गाँव में होते हैं, वे नारियल के खोल में अच्छे से नहीं पनप सकते। ऐसे में इस अफ़सर ने कुछ और इस्तेमाल करने की सोची।

उन्होंने अगले सात महीनों में इसको लेकर अलग-अलग एक्सपेरिमेंट किए, ताकि वे यह समझ सके कि यहाँ पर क्या चीज़ ऐसी है जो पौधों को उगाने के लिए बेस्ट है? कैसे इन सैप्लिंग्स को फिर से ज़मीन में लगाया जा सकता है? पर्यावरण पर इसका क्या और कैसा प्रभाव पड़ेगा? ऐसे कई सवालों के हल तलाशने की उन्होंने कोशिश की। आखिकार, उनकी तलाश बांस के गमलों पर आकर खत्म हुई।

विपुल ने सबसे पहले जो गमले बनाए उसके लिए उन्हें ऐसे करीब 500 बांस मिल गए जो तने से काटकर फेंक दिए गए थे। यह उनके लिए अच्छी शुरुआत साबित हुई।

वन विभाग के अफसर नर्सरी में (साभार: विपुल पांडे)

पौधे लगाने से पहले उन्होंने इन बांस के गमलों का अच्छे से परीक्षण किया और फॉरेस्ट गार्ड तनवीर के साथ मिलकर 500 सैपलिंग बांस के गमलों में लगाई । अभी भी उनके पास इतने बांस हैं कि वे सैपलिंग के नंबर को 20 हजार तक ले जा सकते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें और कुछ महीनों का समय चाहिए।  बांस में पौधे लगाने के एक साल के बाद, ये गमले अंदर से खुद ही खुलने लगते हैं ताकि जड़ों को फैलने के लिए जगह मिल सके। इसके बाद ही नर्सरी इन पौधों को बेचना शुरू करती है।

इन सैपलिंग्स को अपने घर या फार्म में लगाते समय आपको गमले के तले पर थाप देनी होगी ताकि पौधे बिना किसी परेशानी के बाहर आ जाए और आप इन्हें ज़मीन में लगा सके। सबसे अच्छी बात यह है कि आप इन बांस के गमलों को फिर से इस्तेमाल कर सकते हैं। पौधों को निकालते समय इनमें से कोई गमला टूट भी जाए तब भी ये आसानी से डीकम्पोज हो जाते हैं।

विपुल और उनकी टीम बांस के अलावा और भी कई तरह की घास के साथ एक्सपेरिमेंट कर रही है ताकि वे पूर्ण रूप से प्लास्टिक फ्री हो सके।

साभार: विपुल पांडे (ट्विटर)

विपुल न सिर्फ अपने विभाग में बल्कि निजी ज़िन्दगी में भी प्लास्टिक फ्री पहल पर काम कर रहे हैं। ट्विटर के ज़रिए वे नागरिकों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करते रहते हैं। उन्होंने जून में आईएएस जतिन यादव की पहल ‘प्लास्टिक पॉल्यूशन चैलेंज’ लिया था और री-ट्वीट करके अन्य लोगों को भी इस मुहिम में जुड़ने के लिए प्रेरित किया।

नर्सरी में पौधे उगाने के लिए गोबर के गमलों का प्रयोग भी किया जा सकता है। गोबर के गमले न सिर्फ़ प्रकृति के अनुकूल है बल्कि पौधों के लिए जैविक खाद का काम भी करते हैं। गुजरात के एक किसान द्वारा बनाए जा रहे गोबर के गमलों के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करें!

यकीनन, भारतीय वन विभाग का यह अफसर काबिल ए तारीफ़ है। हम उम्मीद करते हैं कि सभी सरकारी विभाग इस तरह की पर्यावरण अनुकूल पहलों की शुरुआत करके आम नागरिकों के लिए उदाहरण स्थापित करे।

संपादन: भगवती लाल तेली 
मूल लेख: तन्वी पटेल 


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माता-पिता न बनने का लिया फ़ैसला ताकि पंद्रह ज़रूरतमंद बच्चों को दे सके बेहतर ज़िन्दगी!

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पने बच्चों को अच्छे से अच्छा बचपन देना, उनकी ज़रूरतों को पूरा करना हर माँ बाप का सपना होता है। यूँ कहें कि बच्चे के आ जाने से परिवार की प्राथमिकताएं ही बदल जाती है। जहाँ युवा-अवस्था में हर इंसान अपने शौक़ पूरा करने में पैसे दोनों हाथों से उड़ाता है, वहीं एक नन्हीं सी जान के आ जाने से उनके शौक पीछे छूट जाते हैं। तब बच्चों की ज़रूरतें, उनके लिए आराम की वस्तुएं जुटाना ही प्राथमिकता हो जाती है। हम सब कहीं न कहीं अपनी सारी शक्ति अपने बच्चों को एक आरामदायक ज़िन्दगी देने में ही लगा देते हैं। फिर भी महंगाई के इस दौर में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी पूरा नहीं कर पाते हैं।

इस दौर में जहां अपने बच्चों की ज़रूरतों की पूर्ति करना ही एक बड़ा सवाल है, ऐसे में किसी दूसरे के बच्चे का भविष्य सँवारने की कौन सोचता है। हमारा तो पूरा जीवन सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों की ज़रूरतों और उनके बेहतर भविष्य के निर्माण की कोशिशों में ही गुजर जाता है।

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हॉस्टल में रहने वाले बच्चे।

 

लेकिन हमारे बीच कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने उन बच्चों के बारे में सोचा जिनके बारे में कोई सोचने वाला नहीं था। उन्होंने खुद अपनी संतान पैदा न करके उन बच्चों के लिए कुछ करने की सोची जिन्हें बेहतर जीवन नहीं मिल पा रहा था। मैं बात कर रही हूँ इंदौर में रहने वाली धरा पाण्डेय और उनके पति निखिल दवे की। इस दंपत्ति की अपनी कोई संतान नहीं है लेकिन यह 15 बच्चों के माँ-पिता होने का फ़र्ज़ बड़े प्रेम से निभा रहे हैं।

”लोग माता-पिता बनने की तो सोचते हैं लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के बारे में नहीं सोचते। अक्सर अच्छी परवरिश से हम समझ लेते हैं महंगा स्कूल, महंगी चीजें आदि , लेकिन ऐसा नहीं है। परवरिश बहुत मुश्किल काम है, हम बच्चों को बेहतर दिल-दिमाग नहीं दे पा रहे हैं। समाज में तेरा-मेरा हो गया है जबकि होना ये चाहिए कि हम सब बच्चों को अपना ही समझें । सब मिलकर इन जरूरतमंद बच्चों को पालें और उनको बेहतर जीवन दें, ” धरा और निखिल ने कहा।

 

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बच्चे स्कूल जाते हुए।

धरा पेशे से प्रोफ़ेसर हैं व उनके पति निखिल व्यवसाय करते हैं और दोनों ही मृत्युंजय भारत ट्रस्ट के माध्यम से सामाजिक सरोकार के कार्यों से भी जुड़े हैं। इस ट्रस्ट की स्थापना उन्होंने 2001 में की थी। ट्रस्ट एक्टिविटीज के चलते वे अक्सर अपने आस-पास के ग्रामीण इलाके में जाते रहते थे। इसी बहाने धरा को मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके के लोगों को नजदीक से देखने का भी मौका मिला, जहाँ भीषण गरीबी थी। धरा ने वहां के आदिवासी बच्चों में गज़ब की प्रतिभा देखी तो सोचा कि अगर यह पढ़ लिख जाए तो कितना अच्छा हो। लेकिन जिन लोगों के पास अपने बच्चों को खिलाने-पिलाने का अभाव था वह शिक्षा पर कहाँ से खर्च करते।

 

सन् 2014 में धरा और निखिल ने इन बच्चों को गोद लेने की सोची और पंद्रह बच्चों को गोद ले लिया या यूँ कहें कि उनकी जिम्मेदारियों को गोद लिया। 

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गार्डन में खेलते बच्चे।

उन्होंने इसके लिए सबसे पहले बच्चों के अभिभावकों को समझाया और फिर बच्चों को भी अपने साथ चलने के लिए तैयार कर दिया।

निखिल कहते हैं, ”बच्चों के माता-पिता को इसके लिए तैयार करने में हमें कोई खास परेशानी नहीं हुई , क्योंकि वे लोग पहले से ही हमें जानते थे। हम उनके गाँवों में एक्टिवटीज करते रहते हैं। शुरुआत में हम इन्हीं गाँवों से कुछ बच्चों को अपने साथ लाए। इसके बाद तो बच्चे खुद ही दूसरे जरूरतमंद बच्चों को अपने साथ ले आए।”

निखिल और धरा ने शहर आकर बच्चों के रहने व पढ़ने-लिखने का इंतज़ाम किया और नाम दिया ‘क्राफ्टिंग फ्यूचर‘। लेकिन पंद्रह बच्चों को बिना किसी सरकारी मदद के पालना आसान काम नहीं था। इसके लिए उन्होंने अपने दोस्तों से मदद ली। दोस्तों ने भी उनके इस काम में पूरा साथ दिया और एक-एक कर सभी ने आपस में जिम्मेदारियां बांट ली। किसी ने राशन भरवा दिया तो किसी ने दूध का इंतज़ाम कर दिया।

 

कोई स्कूल में एडमिशन करवा गया तो किसी ने पुस्तकों की व्यवस्था कर दी और हो गई क्राफ्टिंग फ्यूचर की शुरुआत।

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स्कूल ड्रेस में बच्चे।

निखिल के मित्रों की इस टीम में अर्पणा साबू का नाम प्रमुख है। निखिल और धरा उन्हें बच्चों की अन्नपूर्णा कह कर पुकारते हैं। अर्पणा के पास सेंटर पर आकर बच्चों के पास बैठने का समय चाहे न मिलता हो लेकिन वह बच्चों के लिए राशन पानी की व्यवस्था खुद ही संभालती हैं। अर्पणा ने मित्रों के साथ मिलकर एक समूह भी बनाया है, जो बच्चों के लिए हर माह राशन भेज देता है। सिर्फ राशन ही नहीं, बच्चों के लिए दूध भी इन्हीं के प्रयासों से पहुंच रहा है।

 

धरा और निखिल के प्रयासों से इन बच्चों को ट्यूशन सुविधा भी मिल रही है। फ्री टाइम में शहर के कुछ युवा इन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने भी आते हैं।

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बच्चों को ट्यूशन कराते बाहर से आए छात्र।

ओजीत जो त्रिपुरा के शरणार्थी शिविर का रहने वाला बच्चा है, कहता है, “मैं उधर नहीं जाऊँगा क्योंकि उधर कुछ भी नहीं है, न पढ़ने को, न खाने को। आप बड़ा हॉस्टल बना लो भैया, मैं आपके साथ ही रहूँगा और सब बच्चों की देखभाल भी करूँगा।”

त्रिपुरा से आए बच्चे (सोमलुहा, प्रीतिक, देबजोति, खोरगोजय, नवनीत, अमित, ओजयराम) ओजीत की तरह ही शरणार्थी शिविरों के रहने वाले  बच्चे हैं। ग़रीबी बहुत है, घर वालों के पास काम नहीं इसलिए यहीं रहने के इच्छुक हैं। बच्चे हैं, घर की याद तो आती ही होगी लेकिन अभाव ने इन्हें इतना समझदार बना दिया है कि घर नहीं जाना चाहते।

इन ज़्यादातर बच्चों के घर वाले दूसरों के खेतों पर मजदूरी करते हैं। उत्तर-पूर्व के बच्चे गरीब परिवार से आते हैं और शरणार्थी शिविर में रहने वाली ब्रू जनजाति से ताल्लुक रखते हैं, जिसे मिज़ोरम से निकाला गया था। इस जनजाति के ज़्यादातर लोगों के पास रोज़गार नहीं है और रोज़ी-रोटी के लिए जंगलों पर निर्भर है। बच्चे बताते हैं कि सरकार की तरफ़ से दिन के 5 रुपए और आधा किलो चावल मिलता है, लेकिन इससे एक परिवार का पेट नहीं भर सकता।

”शुरुआत में जब बच्चे आए थे तो उनके पास स्कूल की मार्कशीट ही थी। ज़्यादातर बच्चे खुद का नाम भी नहीं लिख पाते थे। अब इस स्थिति में सुधार आया है। बच्चे पढाई-लिखाई में बेहतर हुए हैं। हालाँकि यह बहुत आउटस्टैंडिंग रिजल्ट नहीं है और इसके लिए हम उनको जोर भी नहीं देते। सबसे बड़ी बात इन बच्चों में कॉन्फिडेंस आया है। वे पहले किसी से भी बात करने में झिझकते थे, सामने आने में घबराते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है,” निखिल ने कहा।

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नए कपड़े मिलने की ख़ुशी।

निखिल कहते हैं कि, देश से अशिक्षा का अंधकार मिटाने की ज़िम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं हैं। हम अगर समाज के ऐसे संपन्न वर्ग से आते हैं, जिसे ईश्वर ने संसाधनों से नवाज़ा है तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम समाज के जरूरतमंद तबके के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ ज़रूर करे।

निखिल ने जहाँ संसाधन जुटाने की ज़िम्मेदारी ले रखी है वहीं धरा के जिम्मे इन बच्चों की माँ की भूमिका है, ताकि अपने परिवार से दूर रह कर पढ़ाई करने वाले इन मासूमों को कभी माँ की कमी महसूस न हो। धरा कॉलेज के बाद का पूरा समय इन बच्चों के साथ ही गुजारती है। यह बच्चे इंदौर स्थित साकेत नगर के तीन कमरों के एक फ्लैट में सभी सुविधाओं के साथ एक स्वस्थ वातावरण में रहते हैं। जहाँ इनकी देखरेख के लिए एक केयर टेकर और कुक मौजूद रहते हैं।

धरा कहती है, ”जो बच्चे आस-पास के रहने वाले हैं वे तो छुट्टी में अपने परिवार से मिलने घर चले जाते हैं। लेकिन जो बच्चे उत्तर-पूर्वी राज्यों जैसे मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर से आए हैं उनके लिए घर जाना संभव नहीं हो पाता है। ऐसे में हम इन बच्चों को भी अन्य बच्चों के साथ यहीं घुमाने ले जाते हैं, ताकि बच्चे निराशा के भाव से बचे और ख़ुशी-ख़ुशी अपनी पढ़ाई में दिल लगाए।”

”मुझे सबसे अधिक ख़ुशी तब होती है जब यह बच्चे अपनी छोटी से छोटी समस्या मेरे पास हक से लेकर आते हैं, तब मुझे लगता है कि मैं सही मायनों में अपना फ़र्ज़ निभा पा रही हूँ।”

अगर आप भी इन बच्चों का भविष्य संवारने में अपना कुछ योगदान देना चाहते हैं, तो धरा और निखिल के बसाए इस छोटे से परिवार में आपका बहुत-बहुत स्वागत है। धरा पाण्डेय से आप उनके मोबाइल नंबर 9425949007 पर संपर्क कर सकते हैं।


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कैसे छत्तीसगढ़ का यह एक जिला बना रहा है 28 हज़ार महिलाओं और बच्चों को कुपोषण-मुक्त!

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‘यह आर्टिकल छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा स्पोंसर किया गया है!’

22 जून को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ब्लॉक में स्थित गंजेनर गाँव के स्थानीय बाज़ार में सामान्य दिनों से कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी। इसका कारण था- फ्री हेल्थ चेकअप।

मसालों , बर्तनों, कपड़ों और खिलौनों की दुकानों से गुज़रते हुए कई महिलाएं और बच्चे एक बूथ के आगे कतार में खड़े हो गए और अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे।

चेकअप के दौरान कई ज़रूरी मेडिकल टेस्ट जैसे कि खून की जाँच, हीमोग्लोबिन के स्तर की जाँच, वजन, प्रतिरोधक क्षमता आदि किये गये। इन मेडिकल टेस्ट के आधार पर सभी को अलग-अलग केटेगरी में रखा गया और जो भी लोग कुपोषण की केटेगरी में आये, उन्हें एक ख़ास न्यूट्रीशन प्रोग्राम के लिए रजिस्टर किया गया।

उस दिन से गंजेनर गाँव के स्थानीय बाज़ार में आने वाले लोगों की संख्या कई गुना बढ़ गयी। यह पहल सिर्फ़ इस एक गाँव में ही नहीं, बल्कि पूरे जिले में देखने को मिल रही है।

मुख्यमंत्री भुपेश बघेल के संरक्षण में राज्य सरकार दंतेवाडा में बच्चों और महिलाओं को कुपोषण-मुक्त करने के लिए और साथ ही, समग्र शिशु मृत्यु दर (IMR) और मातृ मृत्यु दर (MMR) को कम करने के लिए दो खास अभियान- ‘हाट बाज़ार हेल्थ चेकअप’ और ‘सुपोषण अभियान’ चला रही है।

 

इस प्रोग्राम के अंतर्गत लगभग 28, 000 लोगों की जांच की जाएगी।

Source: Flickr

अगले छह महीने तक इन सभी औरतों, बच्चों और युवतियों को इस कार्यक्रम के अंतर्गत पोषण से भरपूर डायट दी जाएगी। जिसमें अंकुरित अनाज, प्रोटीन के लिए सोयाबीन और मूंगफली, बी12 विटामिन के लिए अंडे, और आयरन की कमी के लिए गुड़, हरी सब्जियां और अचार आदि शामिल है।

इस प्रोग्राम के अंत में फिर से इन सभी कुपोषित महिलाओं और बच्चों का टेस्ट किया जायेगा और फिर पहले टेस्ट के साथ समीक्षा की जाएगी। और उसी हिसाब से आगे की योजना पर काम होगा।

ये सभी पहल राज्य में कुपोषण के बढ़ते स्तर से लड़ने के लिए उठाये जा रहे हैं ताकि छत्तीसगढ़ को ‘कुपोषण मुक्त’ गाँव बनाया जा सके।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NHFS-4) के आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ के हर जिले में 15 प्रतिशत लोगों का वजन, लम्बाई के अनुपात में कम है। और अगर दंतेवाड़ा की बात की जाये, तो अधिकारिक रिपोर्ट्स के अनुसार यहाँ की 36% जनसंख्या कुपोषण का शिकार है।

जिला पंचायत के सीईओ सचिदानंद आलोक ने इन चिंताजनक आंकड़ों के पीछे के कारणों के बारे में द बेटर इंडिया से बात की।

“जिले में लगभग 95 फीसदी आबादी आदिवासी है, जिनमें से ज़्यादातर लोग किसान या फिर दिहाड़ी-मज़दूर हैं, जो इस बात पर बहुत कम ध्यान देते हैं कि उनके बच्चे क्या खा रहे हैं। उनके खाने की आदतों में भी काफ़ी कमियाँ हैं जैसे कि ये लोग सिर्फ़ चावल खाते हैं, इसलिए गेंहू और दूसरे उत्पादों की उपेक्षा करते हैं, जो कि पोषण के लिए बेहद ज़रूरी हैं।”

दूसरी बड़ी वजह इस इलाके की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति में छुपी है। यह एक नक्सल-प्रभावित जिला है और इस वजह से लोग डॉक्टर के पास जाने से भी कतराते हैं। इनमें से कई समुदाय ऐसे भी हैं जो किसी भी बीमारी के इलाज के तौर पर दवाइयों की जगह पारंपरिक तरीकों को अहमियत देते हैं।

सिर्फ़ ऐसे खुले बाज़ारों में ही बहुत ज़्यादा संख्या में ये लोग अपने यहाँ से बाहर आते हैं। इसलिए जिला अधिकारियों ने इन स्थानीय बाज़ारों में ही हेल्थ-चेकअप करने की योजना बनाई और यह काम भी कर गयी।

“गर्भवती महिलाएँ, स्तनपान कराने वाली माताएं, 1-3 की उम्र के बच्चे और स्कूल से ड्राप आउट युवतियां पर ज्यादा ध्यान देते हैं, क्योंकि वे गंभीर रूप से आयरन की कमी और एनीमिया से पीड़ित हैं। इस पहल को बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है क्योंकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस प्रोग्राम के लिए रजिस्टर कर रहे हैं,” आलोक ने बताया।

लोगों के स्वास्थ्य-कल्याण के अलावा ये दो पहल उनकी आर्थिक स्थिति सुधारने में भी सहायक हैं। उदाहरण के तौर पर – सरकार स्वयं सहायता समूह और आंगनवाड़ी कर्मचारियों को खाना पकाने के लिए काम पर रखकर, इन आदिवासी महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसर दे रही है।

स्थानीय रूप से अनाज, सब्जियों और अंडों की खरीद के लिए, सरकार अनाज के उत्पादन और घरों में ही मुर्गी-पालन करने को प्रोत्साहित कर रही है।

“हमने किसानों के लिए अपने घरों में ही सब्ज़ी उगाना अनिवार्य कर दिया है और इसके लिए उन्हें बीज भी बांटे गये हैं।”

सरकार की योजना के बारे में आगे बताते हुए उन्होंने कहा कि उनका अगला लक्ष्य उन लड़कियों पर ध्यान केन्द्रित करना है, जिन्होंने कुछ कारणों के चलते स्कूल जाना छोड़ दिया है। अब इन लड़कियों की काउंसलिंग की जाएगी ताकि वे फिर से पढ़ाई शुरू कर सकें।

 

कैसे ये राज्य-स्तरीय कार्यक्रम ला रहे हैं बदलाव

राज्य में हेल्थ-केयर सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए सरकार ने पहले भी कई पहल की हैं और आशा प्रोग्राम ने भी स्थिति में काफ़ी सुधार किये हैं।

आशा प्रोग्राम में महिला कम्युनिटी हेल्थ वर्कर्स (महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं) को राज्य के स्वास्थ्य सिस्टम और साधारण लोगों के बीच एक सेतु की तरह काम करने के लिए प्रशिक्षण सिया गया। वर्तमान में चल रहे इस प्रोग्राम में 70, 000 महिला कार्यकर्ता सक्रिय रूप से लोगों की स्वास्थ्य स्थिति में सुधार लाने की दिशा में काम कर रही हैं।

इसके अलावा एक और प्रोग्राम ‘चिरायु योजना’ बच्चों के स्वास्थ्य पर ध्यान देती है। इसके तहत, 18 साल की उम्र तक, सभी बच्चों के लिए आंगनवाड़ी और सरकारी स्कूलों में नियमित चेकअप करवाना अनिवार्य है।

इन नियमित जांचों से हृदय रोगों सहित गंभीर बीमारियों वाले बच्चों की पहचान करने में मदद मिली है। और फिर इन बच्चों का मुख्यमंत्री बाल हृदय सुरक्षा योजना के तहत मुफ्त सर्जरी और उपचार किया जाता है।

राज्य सरकार ने स्वास्थ्य हेल्पलाइन, महतारी एक्सप्रेस और मुक्तांजलि जैसी सुविधाएं भी शुरू की हैं, जिससे कि स्वास्थ्य सुविधाएँ राज्य के सबसे दुर्गम और पिछड़े इलाकों में भी पहुँच सकें। पूरे राज्य के लिए टोल-फ्री नंबर 104 एक हेल्पलाइन नंबर है, जिसका उपयोग तत्काल चिकित्सा के लिए किया जा सकता है।

जबकि, महतारी एक्सप्रेस गर्भवती महिलाओं के लिए एक मुफ़्त एम्बुलेंस सेवा है। इस योजना के तहत राज्य-भर में 360 वाहन चल रहे हैं।

ऐसे कई स्वास्थ्य प्रावधानों के चलते राज्य में शिशु मृत्यु दर (IMR) और मातृ मृत्यु दर (MMR) कम हो रहां है।

छत्तीसगढ़ धीरे-धीरे लेकिन स्थिरता से कुपोषण के मुद्दे को हल कर रहा है और झारखंड, राजस्थान, असम और ओडिशा जैसे अन्य राज्य, बेशक इससे सीख लेकर अपने यहाँ भी इस तरह की योजनायें और कार्यक्रम शुरू कर सकते हैं।

Featured Image Source: Flickr

(संपादन – मानबी कटोच )

 


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डेनमार्क के प्राइमरी स्कूलों में दिया जाता है राजस्थान के इस गाँव का उदाहरण!

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गर मैं आपको राजस्थान के किसी एक गाँव की कल्पना करने को कहूं तो शायद आपके दिमाग में ऐसा गाँव उभर कर आएगा जहां रेगिस्तान है, हरियाली नहीं है, पानी का अभाव है, वगैरह वगैरह! लेकिन उदयपुर से 71 किमी दूर एक गाँव ऐसा है जो ठीक इसके उलट है और कई मामलों में देश के तमाम गांवों के लिए एक मिसाल भी है।

राजसमंद जिले में बसे पिपलांत्री नाम के इस गाँव को ‘आदर्श ग्राम’, ‘निर्मल गाँव’, ‘पर्यटन ग्राम’, ‘जल ग्राम’, ‛वृक्ष ग्राम’, ‛कन्या ग्राम’, ‛राखी ग्राम’ जैसे विविध उपमाओं के साथ देशभर में पहचाना जाता है। इस गाँव पर सैकड़ों डॉक्यूमेंट्रीज बनी हैं।

 

राजस्थान के कक्षा सात व आठ की सरकारी पुस्तकों में पिपलांत्री को पाठ के रूप में पढ़ाया जा रहा है तो डेनमार्क के प्राइमरी स्कूलों में इसके उदाहरण दिए जाते हैं।

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वृक्षारोपण के बाद पिपलांत्री।

करीब दो हजार की आबादी वाले इस गाँव के बदलाव की कहानी 2005 के बाद से शुरू होती है जब श्याम सुन्दर पालीवाल यहां के सरपंच बने। हालांकि पिपलांत्री पहले भी खूबसूरत हुआ करता था लेकिन मार्बल खनन क्षेत्र में बसे होने के चलते यहाँ की पहाड़ियां खोद दी गई, पानी पाताल में चला गया और प्रकृति के नाम पर कुछ भी नहीं बचा। ऐसे में श्याम सुन्दर ने अपने गाँव की वन संपदाओं को नष्ट होते देख मुंह फेरकर निकल जाने की बजाय इन पहाड़ियों पर हरियाली की चादर ओढ़ाने की कसम खाई। उनके इसी संकल्प के चलते आज 15 साल बाद पिपलांत्री देश के उन चुनिंदा गाँवों की सूची में सबसे अव्वल नंबर पर आता है, जहाँ कुछ नया हुआ है।

जल को जगदीश मानने वाले श्याम सुंदर ने दूर-दराज की ढाणियों, खेड़ों में बसे गांवों के अधिकतर खेतिहर व मार्बल खान मजदूरों और अशिक्षित ग्रामीणों की समस्याओं के निवारण के लिए वाटरशैड योजना को सही ढंग से लागू किया। जिससे पहाड़ी नालों के कारण होने वाले उपजाऊ मिट्टी के कटाव को रोकने में मदद मिली।

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पिपलांत्री में जल संरक्षण के लिए बना एनिकट।

‘द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए वे बताते हैं, “मैं पिपलांत्री ग्राम पंचायत का पूर्व सरपंच (2005-2010) और वर्तमान में ‛जलग्रहण विकास कमेटी’ का अध्यक्ष हूँ। इस पंचायत में 7 राजस्व गाँव के अलावा 17 ढाणियां और खेड़ें भी हैं। एक वक्त था जब हमारे गाँव की पहाड़ियां हरियाली और सुंदरता में कश्मीर की वादियों जैसी थी। आमजन के लालच, अंधाधुंध वनौषधियों के संग्रहण, वनों द्वारा प्राप्त उपज के अतिदोहन, इमारती लकड़ी की कटाई और बेतरतीब ढंग से मार्बल खानों की खुदाई, अनियंत्रित पशु चराई के कारण यह पहाड़ियां खाली होती चली गई। मैं सोचता हूँ कि कड़े से कड़े कानून भी इस तरह के प्राकृतिक विनाश को रोकने में कारगर साबित नहीं हो सकते।”

श्याम सुन्दर ने ग्राम पंचायत स्तर पर जनजागृति के माध्यम से जल संरक्षण, मृदा संरक्षण, ग्राम स्वच्छता, बालिका शिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा जैसे मुद्दों के साथ ही हर साल पौधारोपण करवाते हुए ग्रामीणों की भावनात्मक प्रतिबद्धता के साथ पौधों की सुरक्षा के भी पुख़्ता इंतजाम किए।

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पिपलांत्री मार्ग पर लगे पेड़।

”मुझे पहली बार सरपंच चुनाव में सफलता नहीं मिली, इसके बावजूद मैंने सरकारी योजनाओं की पूरी जानकारी जुटाकर एक-एक ढाणी के विकास के लिए कोशिशें जारी रखी। शुरुआती दौर में कुछ स्वार्थी तत्वों ने मेरी बातों का मज़ाक बनाया, मुझे नीचा दिखाने की कोशिश की लेकिन गाँव के चंद मुट्ठीभर मौजीज लोगों में राजकीय माध्यमिक विद्यालय, पिपलांत्री के पूर्व प्रधानाध्यापक ओंकारलाल श्रीमाली, पटवारी कमरदान चारण और एक आयुर्वेद अधिकारी ने बदलाव की इस पहल में मेरा साथ दिया,”  श्याम सुंदर पालीवाल ने कहा।

 

वर्ष 2005 में पिपलांत्री के सरपंच बने पालीवाल का मानना है कि ग्रामीण विकास के तमाम रास्ते जलसंरक्षण से होकर गुजरते हैं। 

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पिपलांत्री में पेयजल की भी पूर्ण व्यवस्था की गई है।

गाँव में खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति से भारी नुकसान होते हैं। गंदा पानी सार्वजनिक जलस्त्रोतों में मिलकर तमाम रोगों का कारण बनता है।
उन्होंने जल संरक्षण के निमित्त हर छोटी से छोटी बात का भी पूरा ध्यान रखा। वाटरशेड योजना में गाँव वालों से 5 से 10 फीसदी तक अंशदान लिया, ताकि परिसंपत्ति में उनका भी जुड़ाव बना रहे। उनकी नवाचारी पहल के चलते नरेगा जैसी योजना में भी उत्साहीजनों ने श्रमदान किया।

जलसंरक्षण के निमित्त कलस्टर मद में उपलब्ध फंड को चौगुना लाभदायक बनाने में ग्राम सभा के जरिये दूरदर्शी निर्णय लेकर उन्होंने चारागाह विकास, नर्सरी आदि में बाउण्ड्री निर्माण, सड़क निर्माण, पौधारोपण, एनीकट बंधाई जैसे कामों की लम्बी सीरीज तैयार की और इन कामों को धरातल पर उतारा।

”संपूर्ण स्वच्छता अभियान के बजट को गाँव की स्कूलों से लेकर घर-घर तक प्रभावी क्रियान्वयन करने के लिए पिपलांत्री को 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम से ‘निर्मल ग्राम पंचायत सम्मान’ मिला, तो 2008 में गणतंत्र दिवस पर भी ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ मिला। गत वर्ष ‛न्यू इंडिया कॉन्क्लेव’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिपलांत्री को सम्मानित किया।”

गाँव-ढाणियों में यातायात की सुगम व्यवस्था के लिए श्याम सुंदर ने नरेगा बजट को आम सहमति व प्रभावी ढंग से लागू कर 7 गांवों सहित 17 ढाणियों में रास्ते चौड़े करवाकर सड़कें बनवाईं। गाँव के मेहनतकश लोगों ने सरकारी योजनाओं के बेहतर प्रबंधन में उनका हमेशा सहयोग किया। इसी के चलते वे विभिन्न योजनाओं के बजट को समन्वित, संतुलित और एकीकृत रूप से काम में ले पाए।

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गाँव की बालिकाओं के साथ श्याम सुन्दर पालीवाल।

पहाड़ी ढलानों, एनीकटों पर उन्होंने यह नवाचार किया कि थांवलों में ग्वारपाठा और केले के पौधे लगाए। केला बरसाती पानी को भीतर सोखकर गर्मी के दिनों में थांवले में रोपे गए साथी पौधे को जीवनदान देता है। पिपलांत्री के चारागाह क्षेत्र में करीब 400 से ज्यादा केले के पेड़ हैं। पूरी ग्राम पंचायत में अब तक 5 लाख से अधिक पौधे, पेड़ बन चुके हैं। इतना ही नहीं, करीब 35 लाख से ज्यादा एलोवेरा के पौधे लगे हैं। एलोवेरा तीव्र ढलानों पर मिट्टी को थामे रखता है, कड़ी गर्मी में मुरझाने के बावजूद पूरी तरह सूखता नहीं और बरसात में वापस पनप जाता है।

पालीवाल बताते हैं, “निर्मल ग्राम पंचायत के रूप में हमें पांच लाख रुपए मिले। इस राशि से एलोवेरा ज्यूस, जैल , क्रीम बनाने की मशीन खरीदी। अब जब भी ज़रूरत पड़ती है तब नरेगा और स्वयं सहायता समूह की मदद से एलोवेरा की ताजी रसभरी पत्तियां काटकर ज्यूस, क्रीम, जैल तैयार कर पिपलांत्री ब्रांड के नाम से बेचा जाता है। इससे गाँव की गरीब और बुजुर्ग महिलाओं को रोज़गार मिला है।”

 

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ऐलोवेरा ज्यूस निकालने के लिए खरीदी गई मशीन।

पिपलांत्री में पिछले कुछ सालों की मेहनत से अब तलहटी के खुले कुओं में भूजल स्तर 10-20 फीट आ गया है। छोटे-छोटे पहाड़ी खेतों में प्रगतिशील किसान अब फलदार बगीचे लगा रहे हैं। सरकारी जमीन, पहाड़, चारागाह, नर्सरी में स्थित नलकूप से गर्मी में भी नए पौधे रोपे जा रहे हैं। यहां की नर्सरी में सालभर पौधे तैयार करने का काम चलता रहता है। गाँव वालों की आपसी एकजुटता और सामंजस्यपूर्ण सद्भावना का ही परिणाम है कि गाँव में खुली चराई बिलकुल नहीं होती।

पिपलांत्री में बेटियों के जन्म पर 111 पौधे और उनके नाम पर 18-20 साल के लिए 31 हज़ार की एफडी करवाई जाती है। इन कन्याओं ने अब तक 93 हज़ार पौधे लगा ‛कन्या उपवन’ तैयार कर दिया है।

 

यह भी पढ़ें: सरपंच ने गाँव वालों से लगवाए 5 लाख पौधे, अब गाँव की हर बेटी के नाम है लाखों की एफडी!

 

पिपलांत्री में रहने वाली निकिता पालीवाल 12 वर्ष की है और उसके 7 वें जन्मदिन पर 111 पौधे लगाए गए थे। वह कहती है, ”आज जब मैं इन पौधों को पेड़ बनते और बड़े होते देखती हूँ तो बहुत खुशी महसूस करती हूँ । मुझे जब भी समय मिलता है इनकी सार संभाल और निगरानी के लिए इनके पास चली आती हूँ । इस तरह से पौधारोपण यदि पूरे देश के हर गाँव में हो जाए तो आनंद ही आ जाए।”

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निकिता पालीवाल।

पिपलांत्री ग्राम पंचायत ऐसी पंचायत है जिसमें आज भी ‘स्वजल धारा योजना’ में हर घर में जनसहयोग से पेयजल उपलब्ध करवाया जा रहा है, इससे सरकारी बजट पर कोई बोझ नहीं पड़ता। गाँव में रात्रिकालीन रौशनी की व्यवस्था भी ग्रामीणों ने खुद ही की है। यहाँ गली, मोहल्लों में लोगों ने खुद के बिजली खर्च से स्ट्रीट लाइट्स लगवा रखी है।

गाँव में प्रयास किए गए हैं कि वनसंरक्षण और वन विकास में गाँव के हर बच्चे, हर परिवार का योगदान रहे। इसके चलते सक्षम परिवारों से ट्रीगार्ड उपहार स्वरूप लगवाए गए हैं । स्थानीय ‘दिलीप उप स्वास्थ्य केंद्र भवन’ के लिए भूरेलाल जैन ने 7 लाख 51 हज़ार रुपए की राशि दान की। गाँव के किसी भी व्यक्ति के स्वर्गवास होने पर उनकी स्मृति में न्यूनतम 11 पौधे लगवाए जाते हैं। कुछ परिवारों ने 500 पौधे रोपकर नियमित सिंचाई और सुरक्षा की व्यवस्था तक संभाल रखी है।

 

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दिवंगत की स्मृति में किया गया पौधारोपण।

पिपलांत्री में इस तरह के बदलाव के बाद रक्षाबंधन का त्यौहार गाँव की बेटियों के लिए और भी खास हो गया है। क्योंकि अब बेटियां अपने भाई के अलावा यहां लगे पेड़ों को भी राखी बांधती हैं। इसके लिए यहां राखी से एक दिन पूर्व बड़ा आयोजन होता है।

”राखी का त्यौहार हम बहन बेटियों के लिए सच में यादगार बन जाता है जब गाँव की सारी सखियां मिलकर पेड़ों को राखी बांध कर उनके सरंक्षण का जिम्मा लेती हैं। चूंकि हम इन पेड़ों को राखी बांधती हैं, इस नाते यह पेड़ हमारे भाई है। हमारे लिए अगले दिन राखी और भी यादगार हो जाती है जब सगे भाई की कलाई पर राखी बांधी जाती है। सच में इस गाँव की बेटियों के कितने सारे भाई हैं।” प्रिया कुमारी ने कहा।

पिपलांत्री के राजस्व रिकॉर्ड के पटवार क्षेत्र में एक भी तालाब नहीं है लेकिन अब यहां दो बड़े एनीकट और दर्जनों छोटे – बड़े चैकडेम बनाए जा चुके हैं।

 

भीषण अकाल के दिनों में जब यहां पहाड़ी चोटियों पर पानी का नामोनिशान नहीं बचता था, भूजल स्तर चार सौ फीट गहरा चला गया था, उन्हीं स्थानों पर अब पानी बहुत कम गहराई पर मिलने लगा है।

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पिपलांत्री गाँव में जल संरक्षण के ​लिए बना एनिकेट।

 

अगर आप भी अपने गाँव में इस तरह का बदलाव चाहते हैं और श्यामसुन्दर जी से किसी तरह की मदद चाहते हैं तो उनसे 09680260111 पर बात कर सकते हैं। फेसबुक पर पिपलांत्री के पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करे।

 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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11 साल, 40 हज़ार पेड़ और एक ‘पागल’हीरो: मिलिए चित्रकूट के ट्री-मैन से!

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ह कहानी है चित्रकूट के ‘वृक्ष पुरुष’ कहे जाने वाले बाबा भैयाराम यादव की। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के भरतपुर गाँव के रहने वाले भैयाराम ने साल 2007 में शपथ ली थी कि वे सिर्फ़ पेड़ों के लिए जियेंगे। आज, लगभग 11 साल बाद वे अपने लगाए हुए 40 हज़ार पेड़ों की अपने बच्चों की तरह देखभाल कर रहे हैं।

उनके इस फ़ैसले के पीछे की वजह उनके जीवन में घटी एक दुर्घटना है। वह बताते हैं, “पहले मेरी ज़िंदगी का कोई उद्देश्य नहीं था। मेरी शादी हो गई और एक बेटा भी हुआ। लेकिन 2001 में मेरी पत्नी बेटे को जन्म देते वक्त चल बसी, उसके सात साल बाद 2007 में मेरा बेटा भी बीमारी के चलते गुजर गया और मैं अकेला रह गया। तब मैंने तय किया कि अब मैं दूसरों के लिए जियूँगा न कि खुद के लिए।”

पत्नी और पुत्र वियोग में भैयाराम चित्रकूट में भटकने लगे, इसी दौरान उन्होंने वन विभाग का स्लोगन ‘एक वृक्ष 100 पुत्र समान’ पढ़ा। भैयाराम उसी वक्त अपने गाँव भरतपुर लौट पड़े। उन्होंने गाँव के बाहर जंगल में जाकर झोपड़ी बनाई और वहीं बस गए। वहां वन विभाग की खाली पड़ी ज़मीन पर पौधे लगाए और अपने गाँव से 3 किलोमीटर दूर से जंगल में पानी ले जाकर पौधों को पानी पिलाने लगे। लोगों को लगा कि भैयाराम पागल हो चुके हैं।

भैयाराम जी

“मेरे पिता की इच्छा थी कि मैं मरने से पहले अपने जीवन में 5 महुआ के पेड़ लगाऊं। वे मुझे स्कूल तो नहीं भेज सकते थे लेकिन उन्होंने मुझे पेड़ लगाना और फिर उनकी देखभाल करना ज़रूर सिखाया। मैं ये पेड़ अपनी ज़मीन में नहीं लगा सकता था क्योंकि मुझे डर था कि भविष्य में अगर किसी ने इन पेड़ों को काट दिया तो,” भैयाराम जी ने आगे बताया।

वक़्त के साथ भैयाराम यादव के 5 पौधे, 40 हज़ार पेड़ों में तब्दील हो गए। लेकिन उन्हें अपने इस अभियान में काफ़ी समस्याओं का सामना करना पड़ा। गाँव के बाहर पानी का कोई स्त्रोत नहीं था। इसलिए वे हर रोज़ अपने कंधे पर एक पतली-सी रस्सी के सहारे 20-20 किलोग्राम के दो डिब्बों में गाँव से पानी भरकर लाते और पौधों को पिलाते, ऐसा वे दिन में चार बार करते थे।

भैयाराम यादव की कड़ी मेहनत और विश्वास ने बुंदेलखंड की 50 एकड़ भूमि पर आज एक घना जंगल उपजा दिया है, वरना बुंदेलखंड को सूखाग्रस्त क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि यहाँ बारिश बहुत ही कम होती है। इस जंगल को इतना घना और बड़ा बनाने के लिए उनकी 11 साल की मेहनत लगी।

वक़्त के साथ उन्होंने इन पेड़ों की देखभाल करना ही अपनी ज़िंदगी का मकसद बना लिया। इस वजह से उनका संपर्क बाकी गांवों और दुनिया से मानों खत्म ही हो गया। जंगल में रहते हुए, वे एक छोटी सी जगह में अनाज और सब्ज़ियाँ भी उगाते हैं जिससे उनका भरण-पोषण हो सके। इसके अलावा उनके पास आय का कोई साधन नहीं है। उनके लगाए गए फल के पेड़ जैसे महुआ, औरा, इमली, बेल, अनार आदि पक्षियों को काफ़ी आकर्षित करते हैं और इन वृक्षों के फलों को ये पक्षी ही खाते हैं।


अपने इस काम में उन्हें सरकार से सिर्फ़ इतनी ही मदद चाहिए कि सरकार उनके जंगल में बोरवेल लगवा दे ताकि पानी की आपूर्ति होने से पेड़ों की देखभाल करना आसान हो जाए। इस बारे में उन्होंने कई बार सरकारी अधिकारियों से गुजारिश भी की, लेकिन अब तक उन्हें कोई मदद नहीं मिली है।

इस अनदेखी पर भैयाराम का कहना है, “पर्यावरण दिवस पर सरकार हर एक जिले में पौधारोपण अभियान में लाखों रुपए खर्च करती है। लेकिन, इस दिन के बाद फिर कोई भी इन पौधों की तरफ पलटकर नहीं देखता और मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। जब हमारे यहाँ ऐसे लोग हैं जो अपना समय और साधन खर्च करके पेड़ों की देखभाल और पर्यावरण संरक्षण का काम कर रहे हैं, ऐसे में सरकार की तरफ से कोई तवज्जो नहीं मिलती है तो मनोबल टूटता है।”

और जहाँ तक पौधरोपण की बात है तो वे कहते हैं, “लगाने वाले बहुत है, बचाने वाले नहीं।”

अब तक भले ही उन्होंने 40 हज़ार पेड़ लगाए हैं, लेकिन उनके इरादे इससे भी बड़े हैं। वे अधिकारियों का साथ और पानी की अच्छी सप्लाई चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि पेड़ों की संख्या 40 लाख तक पहुंच जाए। पेड़ उनकी ज़िंदगी है और अपनी आख़िरी सांस तक इनकी देखभाल करना चाहते हैं।

अपने काम के ज़रिए वे लोगों को पेड़ बचाने का संदेश देते हैं। बहुत से लोग उनके पेड़ों को काटने और टिम्बर चोरी करने की भी कोशिश करते हैं, इसलिए भैयाराम को हमेशा अलर्ट रहना पड़ता है। सवाल यह है कि उनके जाने के बाद इन पेड़ों का ख्याल कौन रखेगा ?

इस पर वे अंत में सिर्फ़ इतना कहते हैं, “फ़िलहाल, यह ज़िम्मेदारी मेरी है और मेरी मौत के बाद, दूसरे इसे उठा सकते हैं। अब लोग इनकी देखभाल करें या फिर इन्हें काटे, किसी को क्या पता ? लेकिन जब तक मैं हूँ, इन्हें कोई नहीं काट सकता।”

संपादन: भगवती लाल तेली
(साभार: खबर लहरिया और नवभारत टाइम्स)


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पॉकेट मनी से शुरू किया स्कूल, कूड़ा बीनने वाले बच्चों को शिक्षा से जोड़ा!

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“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसे आप दुनिया बदलने के लिए उपयोग कर सकते हैं।” – नेल्सन मंडेला

नेल्सन मंडेला के इस कथन के महत्व को समझते हुए भारत सरकार ने 2001-02 में सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत की और 2009-10 में संसद में “शिक्षा का अधिकार अधिनियम” पारित किया। इस अधिनियम के अन्तर्गत यह कहा गया कि शिक्षा प्रत्येक बच्चे का अधिकार है और सरकारी विद्यालय में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा सुनिश्चित की गई।

सरकार की इन कोशिशों के बाद भी हर बच्चे तक शिक्षा पहुँचाना एक मुश्किल काम है। देश के अधिकांश क्षेत्रों में आज भी लोगों में पढ़ाई को लेकर कोई खास जागरूकता नहीं है।

 

ऐसे में समाज का एक वर्ग जब ऐसे अशिक्षित लोगों की मूलभूत ज़रूरतों को समझता है तो शुरुआत होती है “आरोहण” जैसी संस्थाओं की।

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आरोहण संस्था के सदस्य बच्चों को पढ़ाते हुए।

प्रयागराज स्थित इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र सौरभ सिंह परिहार की यह सोच कि समाज के शोषित और गरीब परिवार के बच्चों को भी शिक्षा पाने का पूरा अधिकार है, आरोहण संस्था की स्थापना की नींव बनी। अपनी इस सोच को उन्होंने अपने भाई गौरव सिंह परिहार और साथियों रुपाली सिंह, सान्या सिंह, आशीष कुमार पाण्डेय व जितेन्द्र पाण्डेय के साथ साझा किया। सभी लोगों ने सहमत होकर गरीब बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी लेने का फैसला किया और इसके लिए उन्होंने अपने मोहल्ले तेलियरगंज की एक गरीब बस्ती को चुना।

 

तेलियरगंज के गरीब बच्चों को देखकर ही ”आरोहण” की सोच का अंकुर फूटा था। सौरभ ने इस बस्ती के बच्चों को पैसों के लिए कूड़ा बीनते, कूड़े वाली गाड़ी पर काम करते देखा था और यहीं से उनके मन में इन बच्चों के लिए कुछ खास करने का ख्याल आया।

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बस्ती के ज़रूरतमंद बच्चे।

सौरभ बताते हैं कि, “इस काम को शुरू करने के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी उस बस्ती में रहने वाले बच्चों व उनके माता-पिता को इसके लिए तैयार करना और शिक्षा के प्रति उनके मन में जागरूकता पैदा करना। क्योंकि यह बच्चे अपने अभिभावकों को आर्थिक सहायता देने के लिए कुछ न कुछ काम करते थे। इनमें कुछ बच्चे कूड़ा बीनकर, तो कुछ कूड़ा उठाने वाली गाड़ी पर काम करके पैसे कमाते थे।”

सौरभ के लिए इन बच्चों को स्कूल से जोड़ना आसान काम नहीं था। ऐसे में सौरभ और टीम के सदस्य इन बच्चों के माता-पिता से मिले और उन्हें शिक्षा का महत्व समझाते हुए बच्चों को पढ़ाई करने देने के लिए तैयार किया।

आरोहण के सदस्यों ने अपने जेब खर्च से पैसे इकट्ठे करके व्हाइट बोर्ड, मार्कर और त्रिपाल खरीदी और कच्ची बस्ती के घरों के बाहर खुले में कक्षा लगाने की व्यवस्था की। इन कक्षाओं में सरकारी स्कूल के सिलेबस के अनुसार कक्षा एक से दसवीं तक के करीब 30 बच्चों को पढ़ाया जाता है। कुछ ऐसे छात्र जिन्हें बिल्कुल भी अक्षर ज्ञान नहीं है, उन्हें तीन अध्यापक प्रतिदिन विशेष रूप से पढ़ाते हैं।

 

इनका कार्य प्राइमरी स्तर पर बच्चों को अक्षर ज्ञान कराना और लिखना सिखाना होता है। यहाँ गर्मियों में शाम 4 से 6 बजे तक और सर्दियों में 3 से 5 बजे तक कक्षाएं लगती हैं।

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कच्ची बस्ती के बच्चे पढाई करते हुए।

20 अप्रैल, 2018 को आरोहण का ”आरोहण फाउंडेशन” के नाम से रजिस्ट्रेशन करवाया गया। इस नेक काम को करने के लिए आरोहण के सदस्यों को ज्यादा मदद की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने फेसबुक पर आरोहण फाउंडेशन नाम से एक पेज बनाया। इस पेज के माध्यम से लोगों से अपील की, कि अगर कोई इन बच्चों की मदद करना चाहता है तो उनके लिए पुरानी किताबें और स्टेशनरी उपलब्ध करवा सकता है। आरोहण के पेज को देखकर लोग उनकी मदद के लिए आगे आए और आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई।

 

अब आरोहण के पास स्थाई कक्षाएं चलाने के लिए पुरानी इमारत की भी व्यवस्था हो गई है, जिसे रंग-रोगन करवा के कक्षाओं के अनुरूप व्यवस्थित कर दिया गया है। 

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कक्षा का संचालन आरोहण की महिला सदस्य।

आरोहण की एक शाखा प्रयागराज के ही सोरांव क्षेत्र में स्थित मल्हुआ गाँव में स्थापित की गई है, जहां गाँव की नेहा पाण्डेय और तीन अन्य लड़कियां कक्षाओं का संचालन करती हैं। आरोहण परिवार बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए भी कोशिश करता रहता है। इसके लिए समय-समय पर खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। 15 अगस्त और 26 जनवरी को सांस्कृतिक कार्यक्रम, 5 जून – पर्यावरण दिवस पर पौधारोपण और 21 जून – विश्व योग दिवस पर योग कराया जाता है। इसके अलावा बस्ती में रहने वाली महिलाओं व लड़कियों के शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर आरोहण की महिला सदस्य उन्हें मासिक धर्म के दौरान साफ-सफाई रखने के लिए भी जागरूक करती है और पैड भी उपलब्ध कराती है। बस्ती की महिलाओं को आर्थिक रूप से मज़बूत बनाने के लिए यहाँ पार्लर वर्कशॉप भी होती है।

आरोहण परिवार की यह हरसंभव कोशिश है कि समाज का कोई भी इंसान पीछे न रह जाए और इसीलिए इसका नाम भी “आरोहण” रखा गया है। आरोहण का मतलब है, आगे बढ़ना। अपने नाम के मुताबिक आरोहण गरीब बच्चों को आगे बढ़ाने के अपने काम में पूरे मन से लगा हुआ है

अगर आप ”आरोहण” को किसी तरह से मदद करना चाहते हैं तो संस्थापक सौरभ सिंह परिहार से 8687955095 पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – भगवती लाल तेली 


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वकालत छोड़, ग़रीब किसानों के लिए उगाने लगे बीज; बनाया उत्तर-प्रदेश का पहला बीज-गोदाम!

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ज देश की कृषि व्यवस्था अजीब दौर से गुज़र रही है। किसानों पर कर्ज के पहाड़ है। पानी, बिजली की समस्या से अन्नदाता परेशान है और आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। लेकिन इस अंधेरे में भी उजाले की एक किरण है जो इतना सब कुछ हो जाने पर भी खेती से किसानों को जोड़े हुए है, आज भी हमारे किसान साथियों का खेती से पूरी तरह मोह भंग नहीं हुआ है। इसके पीछे उन प्रगतिशील किसानों की मेहनत छिपी है जो खुद कामयाब होने के बाद अपनी कामयाबी के मंत्र दूसरे किसान भाइयों को बांट रहे हैं।

ऐसे ही एक किसान है सुधीर अग्रवाल, जो उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले के भूरेका गाँव के रहने वाले हैं। उन्हें देशभर में अग्रणी बीज उत्पादक किसान के रूप में जाना जाता है। उत्तर प्रदेश में पहला ग्रामीण बीज गोदाम बनाने और फसल बीमा के क्षेत्र में मथुरा को मॉडल जिले का गौरव दिलाने में सुधीर की खासी भूमिका रही है।

 

उनके द्वारा तैयार किए गए बीज आसपास के राज्यों में भी अनेक किसानों को फायदा पहुंचा रहे हैं।

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कृषि विज्ञान मेले में किसानों को संबोधित करते सुधीर।

बीज उत्पादन शुरू करने के पीछे की कहानी याद करते हुए सुधीर कहते हैं, ”यह 1990 की बात है, जब हम बीज लेने जाते थे तो लाइन लगती थी। काफी देर खड़े रहने के बाद भी 200 ग्राम ही बीज मिलता था। कई बार हमें पंतनगर, दिल्ली तक जाना पड़ता था, वहां भी मेले में बीज खरीदना पड़ता था। आम किसानों के लिए तो यह भी मुश्किल था। हमारे इलाके में खेती के लिए उन्नत बीज नहीं थे। ऐस में मैंने सोचा की क्यों न मैं बीज तैयार करूँ। इससे कुछ वैल्यू एडिशन भी हो जाएगा और नई प्रजाति का बीज भी मिल जाएगा। इसलिए मैंने बीज उत्पादन के लिए प्रयास शुरू कर दिए।”

बीज उत्पादन के लिए सुधीर ने कानपुर, दिल्ली के कृषि शिक्षण संस्थाओं के कृषि वैज्ञानिकों से परामर्श लिया। वैज्ञानिकों ने सुधीर को बीज उत्पादन की पूरी तकनीक सिखाने का भरोसा दिलाया। सुधीर ने 2001 में जबलपुर के कृषि वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में बीज उत्पादन शुरू किया। पहले साल 40 हेक्टेयर में बीज उत्पादन किया। शुरुआत में किसानों ने उनके साथ काम करने से मना कर दिया क्योंकि किसानों को भरोसा नहीं था कि वे बीज उत्पादन में सफल होंगे, लेकिन जब परिणाम उनके अनुकूल आए तो पहले साल 10 किसान उनके सहयोगी बने। आज उनके साथ 800 किसान बीज उत्पादन कर रहे हैं।

वे कहते हैं, ” जिन संस्थाओं के बाहर हमें बीज खरीदने के लिए लाइन में लगना पड़ता था। आज वे संस्थाएं हमसे बीज खरीद रही है। मैं इन संस्थाओं को ससम्मान बीज उपलब्ध कराता हूँ।”

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सुधीर अग्रवाल।

28 जुलाई, 1956 को वृंदावन में जन्मे सुधीर ने दर्शनशास्त्र में एमए करने के बाद एलएलबी की, लेकिन सरकारी नौकरी या वकालत करने की बजाय खेती को ही अपना रोज़गार बनाया और उसी में अपना करिअर भी। आज उनके बेटे अंकित भी इसी फील्ड में पिता की देखा देखी भविष्य बनाने उतर चुके हैं।

उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी खेती की ओर रुख करने वाले सुधीर अपने फूफा और मथुरा कोर्ट में वकील रहे दयालकिशन जी के साथ रहकर 5-6 महीनों तक वकालत भी कर चुके हैं। लेकिन बहुत कम समय में ही उनका वकालत से मन उठा गया।

”मुझे अल्प समय में ही ग्लानि होने लग गई कि इस मुकदमेबाज़ी के कार्य में तो गरीब आदमी का बहुत शोषण होता है। तब विचार आया कि झूठ बोलने का धंधा है, गरीब आदमी का शोषण है, इसलिए अपने खेतीबाड़ी के काम को करो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने आज़ादी के इतने सालों बाद भी बीज की कमी को देखते हुए आधार-बीज उत्पादन शुरू किया। आज खुश हूँ कि इस काम की वजह से देशभर में पहचान मिली है, ढेरों सम्मान मिले हैं। वकील की नौकरी करता तो आज कौन जानता मुझे?,” सुधीर ने कहा।

अनुभवों के साथ ही कृषि वैज्ञानिकों एवं नाबार्ड के सहयोग से एक मामूली किसान से उठकर आज वह राष्ट्रीय स्तर के प्रगतिशील किसान के रूप में मशहूर हो चुके हैं। सुधीर ने वकालत की डिग्री के बाद खुद पहल करके चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर से खेती की नवीनतम तकनीकों का प्रशिक्षण लिया। पंतनगर से संकर धान बीज उत्पादन (पंत संकर धान-1) की विधि पर प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।

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कृषि अधिकारियों के साथ सुधीर। (बाएं से दूसरे)

सुधीर कहते हैं, “इसके बाद मैंने सफेद मूसली, औषधीय बीज उत्पादन, नील हरित शैवाल उत्पादन तकनीक सहित कृषि एवं पशुपालन से संबंधित करीब दो दर्जन से ज्यादा प्रशिक्षण कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर जो कुछ भी सीखा, उसे खेतों में प्रयोग करते हुए सफलता प्राप्त की। इस बात में कोई शक नहीं कि मैं आज भी जिज्ञासु प्रशिक्षणार्थी की तरह सोच रखते हुए हर पल कुछ नया सीखते रहने की ललक रखता हूँ।”

वैसे तो सुधीर 1979 से खेती करते आ रहे हैं, लेकिन 1999 में नाबार्ड के तत्कालीन महाप्रबन्धक ओमप्रकाशजी के संपर्क में आने पर उन्होंने सरल ब्याज दर पर कृषि ऋण लेने के महत्व को समझा और धीरे-धीरे ग्रामीण गोदाम योजना पर ध्यान देते हुए साथी किसानों को भी नाबार्ड से जोड़ा। कुछ प्रगतिशील किसानों का समूह बनाकर उन्होंने बीज उत्पादन का काम शुरू किया। बाद में पशुपालन में नयेपन के साथ-साथ वर्मीकम्पोस्ट का काम भी शुरू किया।

सुधीर ने पहले अपने खेतों में कृषि वैज्ञानिकों की बताई तकनीक अपनाई और भरपूर उत्पादन लिया, खेतों में प्रदर्शनी भी रखवाई। उनकी सफलता के किस्से सुनकर पड़ोसी गांवों से भी किसानों ने आधार-बीज उत्पादन कार्यक्रम में रूचि दिखाई।

 

आज करीबी इलाकों के 450 से अधिक किसानों ने बीज उत्पादन में सुधीर को सहयोग किया है और पुरानी आय के अलावा प्रति हैक्टेयर 15 हजार रुपए से अधिक की कमाई कर रहें हैं।

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उन्नत बीज की फसल।

वे कहते हैं, “शुरूआती दौर में 2001 के आसपास जब मैंने और मेरे कुछ साथियों ने ‛बीज गाँव’ के रूप में आधार-बीज का काम शुरू किया तो हमें विश्वास नहीं था कि हम इतनी जल्दी सफल हो जाएंगे। जब हमने बीज तैयार किए, उस समय खरीफ, रबी और जायद फसलों के आधार-बीज किसानों को आसानी से और सस्ती दरों पर उपलब्ध नहीं होते थे। ”

उन्होंने खास तौर पर गेहूं, सरसों, मटर, चना, मूंग, अरहर, धान, बाजरा, ग्लेडियोलस, बरसीम, जई आदि के आधार-बीज तैयार करने में कामयाबी हासिल की है। उन्होंने नेशनल सीड कॉरपोरेशन, तराई बीज विकास निगम, कृभको आदि के सहयोग से गेहूं और धान की ऐसी किस्में तैयार की है जो बाज़ार में पहले से उपलब्ध नहीं थी। उनके द्वारा तैयार किए गए बीजों के बारे में आप इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं।

 

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सुधीर अग्रवाल।

 

आधारीय बीज या आधार बीज का उत्पादन प्रजनक बीज से किया जाता है। यह बीज उन फसलों के लिए काम आता है जिनकी प्रजनन क्षमता कम होती है। इन फसलों को पौधों या कलमों से दुबारा बोना मुश्किल होता है। ऐसे में किसान को हर साल यह बीज खरीदने पड़ते हैं। पर अब सुधीर की देखा-देखी उनका पूरा गाँव ही बीज उत्पादन में लग गया है। गाँव के बड़े किसान ही नहीं, छोटे और मझोले किसानों को भी इसका फायदा मिल रहा है।

“हमने ‘भवानी सीड्स एन्ड बायोटेक’ के नाम से बिक्री भी शुरू कर दी है। इससे पहले हमने नैनी इंस्टीट्यूट के साथ उत्तरप्रदेश बीज विकास निगम को भी बीज दिया और फिर तो कई केंद्रों से भी बीज की मांग आने लगी। आज हम इलाहाबाद कृषि संस्थान और उत्तरप्रदेश कृषि विभाग को भी बीज सप्लाई कर रहे हैं,” सुधीर ने बताया।

उनके द्वारा गठित प्रबंध सहायता समूहों की तर्ज पर पड़ोसी गांवों में भी किसान क्लब बन रहे हैं। किसान क्लबों के गठन के बाद फसल ऋण की साख सीमा दो हजार प्रति एकड़ की बजाय बैंकों ने बढ़ाकर दस हजार कर दी है। क्लबों द्वारा किसानों की समस्या निस्तारण हेतु त्वरित कार्यवाही भी की जाने लगी है। जागरूकता बढ़ने के साथ ही मथुरा में देश का पहला ग्रामीण बीज गोदाम भी बना है। इतना ही नहीं, फसली बीमा के क्षेत्र में देश का मॉडल जिले का ख़िताब भी मथुरा के नाम ही है।

सुधीर देशी-विदेशी गायों, भैंसों के साथ बकरी, मुर्गी और बतख पालन भी कर रहे हैं। इनसे सीख लेकर पड़ोसी किसानों ने भी मल्टी हायर एग्रो-एनिमल हसबेंडरी शुरू की है। सुधीर ने ग्लेडियोलस और रजनीगंधा के फूलों की खेती भी शुरू की, लेकिन उन्हें फूलों को बेचने के लिए दिल्ली तक जाना पड़ता है। वह मानते हैं कि अभी भी हमारे किसान भाई औषधीय खेती के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हुए हैं, फिर भी गाँव में सवा दर्जन किसान फूलों की खेती कर रहे हैं।

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खेत में लहराती फसल।

सुधीर ने 2001 से ही खेतों में सालाना करीब 400 क्विंटल केंचुआ खाद तैयार करना शुरू कर दिया था, जिसके चलते इनको अधिक उत्पादन भी मिला और उपज का बाजार भाव भी बेहतर मिलने लगा। यह सिलसिला आज दिन तक जारी है। 1989 से 1995 तक ग्राम प्रधान रह चुके सुधीर ने अपने कार्यकाल में सबसे ज्यादा ध्यान कृषि सुधार पर ही दिया। नहर दुरूस्तीकरण, सड़क निर्माण, पुलिया, रपट, कृषि कनेक्शन, गोदाम, मेड़बंदी, चारागाह विकास जैसे कार्य उन्होंने करवाए।

वे किसान क्रेडिट कार्ड प्रणाली को विकास का महत्वपूर्ण कदम मानते हैं, बशर्ते लिए गए ऋण का पैसा समुचित कृषि उद्देश्य पर ही खर्च किया जाए। इसमें साहूकारी ब्याज की तरह कोई झंझट नहीं होता। वह यह भी मानते हैं कि किसानों को प्रगतिशील किसानों के खेत में जाकर प्रत्यक्ष सीख लेनी चाहिए। वे देशभर के प्रगतिशील किसानों से अपील भी करते हैं कि वे अपने पिछड़े साथियों को उन्नत खेती करना सिखाए।

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सम्मान प्राप्त करते सुधीर।

बीज उत्पादन के क्षेत्र में उन्नत कार्य करने के लिए उन्हें अब तक कई सम्मान मिल चुके हैं। नरेन्द्र-359 का अधिक उत्पादन करने पर जिले के अग्रणी किसान का सम्मान भी उन्हें मिला। गन्ना विकास विभाग की ओर से गन्ने की अधिक उपज लेने पर भी वे सम्मानित हुए। ग्रामीण भारत में उद्यमिता विकास के लिए वर्ष 2003-04 का सर्वश्रेष्ठ मोबिलाइजर, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की ओर से 2005 में तकनीकी हस्तांतरण के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ योगदान सम्मान सहित कई कृषि संस्थाओं से वे सम्मानित हो चुके हैं।

अगर आप भी सुधीर अग्रवाल से खेती से जुड़ी कोई जानकारी चाहते हैं तो उनसे 09675371805 पर बात कर सकते हैं।


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फ्लाईओवर के नीचे हर दिन 200 से भी ज़्यादा बच्चों को मुफ़्त में पढ़ाता है यह छात्र!

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पूर्वी दिल्ली के यमुना खादर का झुग्गी कैंप उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड से रोज़गार की तलाश में आने वाले बहुत से लोगों के लिए उनका घर है। इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग या तो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं या फिर आस-पास खाली पड़ी ज़मीन पर सब्ज़ियां उगाते हैं और इन्हें बेचकर अपना गुज़ारा करते हैं।

इस स्लम का हाल बिल्कुल वैसा है ही जैसा कि आप और हम अक्सर टेलीविज़न की कहानियों में देखते हैं। बेतरतीब तरीके से बनाई गई झोपड़ियाँ, खुले नाले, और बेपरवाही में इधर-उधर खेलते बच्चे, जिनका सरकारी स्कूलों में नाम तो लिखा गया है पर वे स्कूल जाते नहीं हैं। इन बच्चों के माता-पिता के पास भी इतना समय नहीं है कि वे इनकी पढ़ाई पर ध्यान दे सके।

लेकिन फिर भी आपको इस स्लम में हर रोज़ ‘क से कबूतर,’ ‘ख से खरगोश’ या फिर ‘दो दूनी चार, दो तिया छह: ….” की एक स्वर में ऊँची आवाज़ सुनाई देगी। इस आवाज़ का पीछा करेंगे तो आप एक खाली-सी जगह में फ्लाईओवर के निर्माण के लिए रखी गई कुछ पत्थर की स्लैब्स की बीच पहुंचेंगे और इन्हीं स्लैब्स में से एक स्लैब के नीचे आपको इस आवाज़ का स्त्रोत दिखेगा।

एक फ्लाईओवर स्लैब, जिसके नीचे कुछ बच्चे आपको अपनी स्लेट पर लिखते और फिर अपने टीचर के साथ ऊँची आवाज़ में उसे दोहराते हुए दिखेंगे।

ये सभी बच्चे यमुना खादर झुग्गी कैंप के रहने वाले हैं और इनके टीचर, सत्येन्द्र पाल भी इसी झुग्गी कैंप के निवासी है। 23 वर्षीय सत्येन्द्र बीएससी फाइनल ईयर में है और अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वे यहाँ इस फ्लाईओवर स्लैब के नीचे पहली से लेकर दसवीं कक्षा तक के लगभग 200 बच्चों को पढ़ाते हैं।

हर रोज़ लगभग 500 बच्चे अलग-अलग समय पर यहां पढ़ने आते हैं

द बेटर इंडिया से बात करते हुए सत्येन्द्र ने बताया, “साल 2015 से मैं इन बच्चों को पढ़ा रहा हूँ। सिर्फ़ पांच बच्चों के साथ मैंने शुरुआत की थी और आज 200 बच्चे हैं। मेरे साथ इन चार सालों में दो और साथी, पन्नालाल और कंचन भी जुड़े हैं, वे भी इन बच्चों को पढ़ाते हैं।”

सत्येन्द्र उत्तर प्रदेश के बदायूँ जिले के रहने वाले हैं और 2010 में बेहतर ज़िंदगी की तलाश में अपने परिवार के साथ दिल्ली शिफ्ट हो गए थे । उनका परिवार खेती-बाड़ी से जुड़ा हुआ है। यूपी बोर्ड से बारहवीं की परीक्षा पास करने वाले सत्येन्द्र को परिवार की आर्थिक तंगी और फिर पलायन की वजह से दो-तीन साल के लिए बीच में पढ़ाई भी छोडनी पड़ी। शिक्षा को ही सब-कुछ मानने वाले सत्येन्द्र ने हार नहीं मानी और फिर दिल्ली आकर उन्हें जैसे ही मौका मिला, आगरा यूनिवर्सिटी में डिस्टेंस से ग्रेजुएशन में दाखिला ले लिया।

“मैंने यहाँ पर देखा कि ज़्यादातर परिवारों के बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं। एक वजह है कि सरकारी स्कूल यहाँ से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है तो छोटे बच्चों को स्कूल छोड़ना और फिर उन्हें लेकर आना, माता-पिता के लिए आसान नहीं। इसके अलावा जो बच्चे बड़ी कक्षाओं में हैं वे भी माहौल और परिस्थिति के चलते आठवीं-नौवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं। यह सब देखकर मुझे बड़ा दुःख होता था,” सत्येन्द्र ने कहा।

उन्होंने अपने आस-पास खेलने वाले बच्चों को धीरे-धीरे इकट्ठा करके पढ़ाना शुरू किया। सत्येन्द्र की यह लगन देखकर बहुत से परिवारों ने उनकी सराहना की और फिर अपने बच्चों को उनके पास पढ़ने के लिए भेजने लगे। देखते ही देखते इस फ्लाईओवर स्लैब के नीचे ही सत्येन्द्र का छोटा-सा स्कूल शुरू हो गया।

यहाँ पर आने वाले बच्चों को मुफ़्त में शिक्षा दी जाती है

उन्होंने अपनी इस पहल को ‘पंचशील शिक्षण संस्थान’ नाम दिया है। उनका यह संस्थान अभी तक पंजीकृत नहीं है लेकिन फ़िलहाल उनका उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि यहाँ पर बच्चों की क्लास इसी तरह चलती रहे। बच्चों को पढ़ाने के एवज में सत्येन्द्र किसी भी माता-पिता से कोई फीस नहीं लेते हैं। वे इन बच्चों को अपनी ख़ुशी से पढ़ा रहे हैं। वे सुबह 5 से 11 बजे तक पहली से लेकर पांचवीं कक्षा और दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक छठी से दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं।

सत्येन्द्र बताते हैं कि, ”उनके पास आने वाले बच्चों में कईयों का दाखिला अब सरकारी स्कूल में हो गया है और जो बच्चे पहले स्कूल नहीं जाते थे, वे अब रोज़ स्कूल जाते हैं।”

“सबसे अच्छी बात यह हुई है कि इस बार यमुना खादर के 7 बच्चों ने बारहवीं की परीक्षा पास की है, वरना यहाँ के ज़्यादातर बच्चे इससे पहले ही पढ़ाई छोड़ देते थे। इसलिए इन बच्चों की उपलब्धि हमारे लिए बहुत बड़ी है। इसके अलावा, बाकी जो भी बच्चे यहाँ पढ़ रहे हैं उनका स्तर स्कूल में काफ़ी बढ़ा है। स्कूल की कई गतिविधियों में उन्हें प्राइज भी मिल रहे हैं। इसलिए संतुष्टि है कि हमारी इन कक्षाओं से इन बच्चों के जीवन में कुछ बदलाव आ रहा है,” उन्होंने आगे बताया।

बच्चों के लिए अलग-अलग कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं

सत्येन्द्र की इस पहल को न सिर्फ़ यमुना खादर के लोगों से बल्कि बाहर के लोगों से भी सराहना मिल रही है। जो भी व्यक्ति यहाँ पर ऐसी जगह में इन बच्चों को पढ़ते हुए देखता है, वह दंग रह जाता है। कई नेकदिल लोगों ने इन बच्चों के लिए स्टेशनरी, किताबें, बोर्ड आदि की भी व्यवस्था करवाई है।

लेकिन सबसे ज़्यादा फ़िलहाल जिस चीज़ की इन बच्चों को ज़रूरत है, वह है पढ़ाई करने के लिए एक अच्छी जगह, अच्छी क्लास की। उनके पास अपना कोई स्पेस नहीं है जिसे वे अपने तरीके से अपनी पढ़ाई के लिए ढाल सके। ग्रेजुएशन के बाद बीएड करने की इच्छा रखने वाले सत्येन्द्र इन बच्चों के पढ़ने के लिए बस एक अच्छी जगह चाहते हैं।

यदि आपको सत्येन्द्र पाल की कहानी से प्रेरणा मिली है और आप किसी भी तरह से उनकी मदद करना चाहते हैं तो उन्हें 9411460272 नंबर पर संपर्क कर सकते हैं।


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IIT की दो छात्राओं ने बनाया कपड़े के पैड को साफ़ करने के लिए सस्ता डिवाइस!

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लोग अक्सर इनोवेशन को इंजीनियरिंग से जोड़ते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, बल्कि यह किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। जब भी हम इनोवेशन की बात करते हैं तो साथ में उससे होने वाले इम्पैक्ट की बात भी करते हैं। इनोवेशन तो कुछ भी, कहीं से भी हो सकता है लेकिन अहम है कि आपका इनोवेशन किस उद्देश्य को पूरा कर रहा है।

यह सोच है एक युवा इनोवेटर ऐश्वर्या अग्रवाल की, जिनके एक इनोवेशन से अनगिनत लोगों की ज़िंदगी में बदलाव लाया जा सकता है। IIT बॉम्बे में पढ़ रही ऐश्वर्या ने IIT गोवा की एक छात्रा देवयानी मलादकर के साथ मिलकर ऐसी तकनीक पर काम किया है जिससे कि सैनेटरी नैपकिन का डिस्पोजल आसानी से हो सके।

आज के समय में लड़कियों और महिलाओं को माहवारी के समय नियमित रूप से सैनिटरी पैड, टेम्पोन आदि इस्तमाल करने के लिए जागरूक किया जाता है। लेकिन इसके साथ ही हमें पर्यावरण का भी ध्यान रखना होगा। इन छात्राओं का यह इनोवेशन इसी सोच पर आधारित है।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए ऐश्वर्या बताती है, ”हमारे देश में अभी भी महिलाएं माहवारी के दिनों में सैनिटरी नैपकिन की जगह कपड़ा इस्तमाल करती है। ऐसे में, उनका सैनिटरी नैपकिन इस्तमाल करना ही बहुत बड़ी बात है। लेकिन सिर्फ़ इसी एक चीज़ से हम बहुत लंबे समय के लिए उनके जीवन में बदलाव नहीं ला सकते क्योंकि यह पर्यावरण के लिए हानिकारक भी है।”

ऐश्वर्या और देवयानी ने अपना प्रोजेक्ट मई, 2019 में IIT गाँधीनगर के डेढ़ महीने के समर प्रोग्राम Invent@IITGN के दौरान शुरू किया था। उनके प्रोजेक्ट का उद्देश्य ऐसी किसी सामाजिक समस्या पर काम करना था जिसका प्रभाव बड़े स्तर पर हो। ऐसे में उन्होंने सैनिटरी नैपकिन को डिस्पोज करने की तकनीक पर काम करने की सोची।

(बाएं से दाएं) प्रोटोटाइप के साथ ऐश्वर्या और देवयानी

उनके अनुसार एक सैनिटरी नैपकिन को डिस्पोज होने में 500 से 800 साल का समय लग जाता है। एक महिला अपने जीवन में माहवारी के वर्षों के दौरान लगभग 125 किलोग्राम नॉन-बायोडिग्रेडेबल वेस्ट उत्पन्न करती है। अपने इनोवेशन के ज़रिए वे इसका हल निकालना चाहती थी । उन्हें इस प्रोजेक्ट के लिए 50 हज़ार रुपए की सहयोग राशि मिली।

”पिछले कुछ समय में औरतों में माहवारी के समय सैनिटरी पैड इस्तेमाल करने की जागरूकता तो आई है, पर अभी भी अगर बात री-यूजेबल पैड इस्तेमाल करने की हो तो महिलाओं के मन में एक संकोच है। इसके अलावा, इन री-यूजेबल पैड को साफ़ करने का तरीका भी सही नहीं है। साथ ही, बहुत सी महिलाएँ और लड़कियाँ सैनिटरी पैड को हाथ से धोने में हिचकती है और यदि वे धोए तब भी ये पैड पूरी तरह से साफ़ नहीं होते। आप वॉशिंग मशीन में धुले पैड को भी सुरक्षित नहीं कह सकते हैं,” ऐश्वर्या ने कहा।

इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने ‘क्लीन्स राइट’ नाम से एक डिवाइस बनाया, जिससे री-यूजेबल सैनिटरी पैड को आसानी से साफ़ किया जा सकता है और इसमें बायोमेडिकल वेस्ट भी कम लगता है। यह डिवाइस अभी अपनी प्रोटोटाइप स्टेज में है और इसके लिए इन दोनों छात्राओं ने पेटेंट के लिए अप्लाई किया है।

इस बारे में देवयानी कहती हैं, “इस मुद्दे पर काम करने के लिए हमें निजी और सामाजिक, दोनों ही तरह के अनुभवों ने प्रेरित किया। हमने एक लड़की के केस के बारे में पढ़ा, जिसमें उसकी मौत माहवारी में गंदा कपड़ा इस्तमाल करने के चलते हुई बीमारी टॉक्सिक शॉक सिंड्रोम की वजह से हो गई। वैसे तो यह कपड़े के पैड ग्रामीण इलाकों में इस्तमाल करने के बाद धोए जाते हैं लेकिन इससे भी इनमें से कीटाणु पूरी तरह नहीं जाते हैं।”

साभार: Invent at IITGN/Facebook

इन छात्राओं का बनाया यह डिवाइस महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी है क्योंकि इससे आप पैड को धो सकते हैं और स्टरलाइज भी कर सकते हैं। इसे इस्तमाल करने के लिए इलेक्ट्रिसिटी की ज़रूरत नहीं है, बल्कि इसमें एक पैडल लगा होता है और इसकी मदद से आप सैनिटरी नैपकिन को धो सकते हैं। इसके बाद इन्हें पानी में से निकाला जाता है और फिर स्पिन-ड्राई किया जाता है।

फ़िलहाल, ऐश्वर्या और देवयानी इसमें सोलर उर्जा से चलने वाले यू.वी. लैंप पर भी काम कर रही है जिससे कि सैनिटरी पैड को धोने के बाद स्टरलाइजेशन किया जा सके। इससे नैपकिन में से सभी हानिकारक जीवाणु-कीटाणु मर जाते हैं। इसके अलावा, वे अपने डिवाइस में और भी अन्य कई तरह के संशोधन कर रही हैं जिससे कि यह महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी साबित हो। इस डिवाइस को अंडर-गारमेंट्स धोने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। पूरी तरह से बनने के बाद इसकी कीमत लगभग 1500 रुपए रहेगी।

बेशक, इस डिवाइस में समाज में बड़ा बदलाव लाने की क्षमता है। अंत में ऐश्वर्या सिर्फ़ इतना कहती है, “यह सिर्फ़ इंजीनियरिंग नहीं है, बल्कि समाज में बदलाव लाने की चाह है। हर कोई अपने क्षेत्र के ज्ञान का इस्तमाल करके यह कर सकता है। हम सिर्फ़ अपने ज्ञान का इस्तमाल कर रहे हैं।”

संपादन: भगवती लाल तेली 
मूल लेख: अनन्या बरुआ 


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