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विकलांग, नेत्रहीन समेत हज़ारों लोगों को तैरना और डूबते को बचाना सिखाया है इस गोताखोर ने!

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टना 30 जुलाई, 2006 सुबह 9 बजे की है। 14 वर्षीय समीर पानी में डूब गया। एक ग़ोताखोर ने अपनी जान जोखिम में डालकर उसे पानी से बाहर निकाला। ‘फर्स्ट एड’ देने के बाद वह समीर को खुद की एम्बुलेंस में नजदीकी अस्पताल ले गया। इस दौरान समीर के घर वालों को भी सूचना करवा दी गई। एकाएक अस्पताल में डॉक्टर्स ने समीर को डूबने से ब्रेन डेमेज होने की बात कहते हुए मृत्यु की पुष्टि कर दी। उसे बचाने की रही सही उम्मीद भी उसके साथ ही डूब गई। अपने बेटे की मौत से बौखलाए परिजनों ने होश खो दिए।

इधर, वर्षों के अनुभव को साथ लेकर चलने वाले इस ग़ोताखोर का अनुभवी दिमाग इस बात से इन्कार कर रहा था, कि बच्चे की मौत हो गई है। उन्होंने अपनी टीम की मदद से समीर के पैर के तलवों में सिर की तरफ सरसों के तेल से दो घंटो तक मालिश की। तत्पश्चात उसके सिर में हल्के-हल्के झटके दिए, नाक के पास किसी नस को दबाया। समीर के मुंह से एक चीख निकली, वह बोला ‘माँ’! आज समीर उस घटना के 13 साल बाद भी उनके उपकार को भुला नहीं है। जोधपुर के घंटाघर के बाहर अपने पिता और अंकल के साथ जूते-चप्पलों की दुकान पर काम कर रहा है और अपने इस जीवनदाता को याद करता है।

 

इस ग़ोताखोर का नाम है दाऊलाल मालवीय। दाऊलाल को गोताख़ोरी अपने पिता विष्णुदास से विरासत में मिली। विष्णुदास उस समय के नामी ग़ोताखोर थे।

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लोगों को तैरना सिखाते दाऊलाल।

जोधपुर में 1910 में जन्मे विष्णुदास ने 1995 में दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन विष्णुदास ने अपनी ज़िंदगी में जो कार्य किए वो ऐतिहासिक थे। उन्होंने न केवल जोधपुर के बल्कि राज्यभर के कई जलाशयों से लगभग 800 लोगों के शवों को बाहर निकाला। 100 लोगों को तो जिंदा भी बचाया।

‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए दाऊलाल बताते हैं, ‘‘डूबतों को ज़िंदा बचाने और डूबकर मर गए अभागों के शवों को निकालने की यह कला मुझे विरासत में मिली। पिताजी की वो वसीयत जो लिखित में है, में जिक्र था कि मेरे बाद मेरे पुत्र इस काम को निस्वार्थ करे। बिना किसी लोभ-लालच के, किसी से बिना रुपए-पैसे लिए। तभी तो मैं अपनी संस्थान की एम्बुलेंस सेवा के लिए पीड़ित व्यक्ति से पेट्रोल का एक रुपया तक चार्ज नहीं लेता। एम्बुलेंस पर भी ‘निःशुल्क’ लिखवा रखा है, ताकि भूले से ड्राइवर भी बदमाशी न करे”

3 जनवरी,1957 को जन्मे दाऊलाल को दूसरों की जान बचाने में कई बार चोटें भी आई। आज से 27 साल पहले की बात है, 1992 में गुलाब सागर नामक जलाशय में दाऊलाल शव खोज रहे थे। किनारे पर लोगों की भीड़ थी। शव निकालकर जैसे ही वे बाहर लाए, शव को देखने के चक्कर में धक्का-मुक्की शुरू हो गई। इसी धक्का-मुक्की में जयसिंह नामक व्यक्ति जिसे तैरना नहीं आता था, गुलाब सागर में गिर गया और डूबने लगा।

दाऊलाल की सांसे नॉर्मल भी नहीं हुई थी कि उन्हें फिर से छलांग लगानी पड़ी। वे जहां कूदे, वहां जल विभाग ने एक बड़ा पाइप डाल रखा था, जिससे स्थानीय चिड़ियाघर को पानी जाता था। उनका घुटना उस पाइप से जा टकराया। वे दर्द से कराह उठे, देखा पानी लाल हो रहा है। यह उनका ही खून था। पाइप का कोई नुकीला हिस्सा उनकी पिंडली में जा धंसा, जो उनके लिए असहनीय था। इधर, जयसिंह उनके सामने ही डूब रहा था। किसी तरह खुद को संभालकर तैरते हुए वे जयसिंह के पास पहुंचे। जयसिंह ने उन्हें देखा तो लिपट गया। अब दाऊलाल भी उसके साथ तेजी से पानी में गहरे डूबने लगे…

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पानी के डूबे व्यक्ति को बाहर निकालते दाऊलाल व उनकी टीम।

तट पर खड़े उनके सहयोगियों ने अनहोनी की आशंका के चलते ऊपर से बिलाई फेंकी। जयसिंह को उन्होंने बिलाई पकड़वा दी और उन्हें ऊपर खींचने लगे।

इधर, दाऊलाल से तैरना तो दूर, खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। पांव सुन्न हो रहे थे, काफी खून बह गया था। पानी में कुछ भी करना दाऊलाल के लिए संभव नहीं था। साथियों ने फिर एक बिलाई फेंकी जिसे दाऊलाल ने लपक कर पकड़ा और जोर-जोर से हिलाने लगे। बार-बार बिलाई को हिलाना, उनके मुसीबत के समय इस्तेमाल किया जाने वाला कोडवर्ड था, जिसे साथियों ने समझ लिया। बिलाई की सहायता से उन्हें ऊपर खींचा गया, वे ऊपर आ गए लेकिन उन्हें कुछ भी होश नहीं था। दाऊलाल को सीधे अस्पताल पहुंचाया गया, जहाँ उन्हें कई टांके लगे।

उस घटना को याद कर सिहर उठने वाले दाऊलाल के सिर पर 5 से ज्यादा टांके लगे हैं, बाएं हाथ की हथेली में 6 हड्डियां टूटी हैं, पिण्डली की हड्डी भी टूटी हुई है। रीढ़ की हड्डी में भी क्रेक है, ज़ख्म अभी तक ताज़ा है। यह सब ज़ख्म डूबतों को बचाने, शव को निकालने के दौरान जलाशयों में मिले हैं। दाऊलाल लोगों को बचाने का यह काम निशुल्क करते हैं।

दाऊलाल और उनकी टीम अब तक करीब सौ से ज़्यादा लोगों को पानी से जिन्दा निकाल चुकी है। दाऊलाल को जोधपुर में कभी भी किसी परिचय की जरूरत नहीं पड़ी। बाढ़, आग, दुर्घटना से लेकर रक्तदान, जरूरतमंदों को चिकित्सा-सुविधा, गरीब-अपाहिज, बेसहारा लोगों के लिए रैन-बसेरा, भूखों के लिए मुफ्त भोजन-पानी, अभावग्रस्त इलाकों में टैंकर से पानी पहुंचाना, एंबुलेंस सेवा आदि में मालवीय बंधु सदैव आगे रहे हैं। दाऊलाल और उनकी टीम को जोधपुर में मालवीय बंधु के नाम से जाना जाता है। उनकी टीम में इसी खानदान के सुनील मालवीय, जितेंद्र मालवीय, भरत मालवीय, राघव मालवीय सहित रवि गोयल, कमलेश सैन, शैलेश मीणा, हरिसिंह इंदा, महेंद्र आदि शामिल है।

10 साल की उम्र से ग़ोताखोर का काम करने वाले दाऊलाल 12वीं तक पढ़े हैं और किसान है। वे राजस्थान पुलिस की कई मामलों में मदद भी कर चुके हैं।

वे अब तक करीब 30 हज़ार से भी ज्यादा लोगों को तैरना और डूबते हुए लोगों को बचाना सीखा चुके हैं। उनके शिष्यों में नेत्रहीन, विकलांग, आरपीटीसी (शस्त्र पुलिस), पीटीएस (पुलिस ट्रेनिंग सेंटर स्कूल के जवान), आरएसी (जवान), स्पेशल टास्क फोर्स कमाण्डो, आर्मी आदि के जवान भी शामिल है, जो नियमित रूप से जोधपुर में इनके निजी स्विमिंग पूल या कायलाना झील में प्रशिक्षण की बारीकियां सीखने आते रहते हैं।

दाऊलाल जी से फ़ेसबुक पर जुड़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। उनसे 09829027048 पर भी संपर्क किया जा सकता है।

संपादन – भगवती लाल तेली 


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इस गाँव को एक दिन बाद मिली थी आज़ादी की ख़बर, लोग झाँकिया लेकर पहुंचे थे ख़ुशी मनाने!

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क्याआप जानते हैं कि देश में एक जगह ऐसी भी है जहाँ स्वतंत्रता दिवस किसी पर्व, तीज, त्यौहार से कम नहीं है। जहाँ देश की आजादी का जश्न लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है। जहाँ का स्वतंत्रता दिवस देखने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। जिसे देश की दूसरी रक्षा पंक्ति के रूप में भी जाना जाता है। जहाँ के लोग न केवल सीमा के प्रहरी है बल्कि सदियों से देश के सांस्कृतिक विरासत को संजोये हुए भी है।

हम बात कर रहे हैं उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की रोंग्पा-नीति घाटी में बसे गमशाली के दम्फुधार की। यहाँ आजादी का जश्न आज भी उसी तरह से मनाया जाता है जिस तरह से 70 साल पहले मनाया गया था। 14 अगस्त 1947 को जैसे ही रेडियो पर आज़ादी की घोषणा का प्रसारण हुआ, देश ख़ुशी से झूम उठा। लेकिन सीमांत घाटी होने के कारण यहाँ के लोगों को इसकी सूचना अगले दिन 15 अगस्त 1947 की सुबह को मिली।

देश की आजादी की सूचना मिलते ही पूरी घाटी के लोग भी ख़ुशी से झूमने लगे। लोगों ने अपने घरों में आजादी के दीप जलाए। जिसके बाद सभी लोग गमशाली के दम्फुधार में अपने परम्परागत परिधानों को पहनकर एकत्रित होने लगे। आजादी के जश्न की ख़ुशी पर लोग एक-दूसरे को बधाई देने लगे और गले मिलकर ख़ुशी का इजहार किया। लोग झाँकिया लेकर पहुँचे। दम्फुधार में परम्परागत लोकनृत्य के जरिए ख़ुशी व्यक्त की गई।

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स्वतंत्रता दिवस पर खुशी मनाते लोग।

इस दौरान हर किसी के चेहरे पर आजादी की ख़ुशी साफ़ पढ़ी जा सकती थी। तब से लेकर आज 72 बरस बीत जाने को है, इस घाटी के लोगों का उत्साह अब भी उसी तरह से बरकरार है। आज भी इस दिन सम्पूर्ण घाटी के लोग परम्परागत वेशभूषा धारण कर घरों में आजादी के दीये जलाते, तरह-तरह के पकवान बनाते और परम्परागत नृत्यों में रम जाते हैं।

 

यह भी पढ़ें : 15 अगस्त पर खरीदिये ये बीजों वाले झंडे, देश के प्रति पौधा बनकर उपजेगा आपका प्रेम!

 

15 अगस्त की सुबह घाटी के नीति गाँव, गमशाली, फारकिया, बाम्पा सहित दर्जनों गांवों के लोग ढोलों की थापों के साथ आकर्षक झाँकियों के रूप में बारी- बारी से गमशाली गाँव के दम्फुधार में एकत्रित होते हैं। इस दौरान प्रत्येक गाँव की अपनी अलग वेशभूषा और झाँकी होती है, जिससे ये अपनी देशभक्ति को दर्शाते हैं। इस पर्व में प्रत्येक गाँव के नवयुवक मंगल दल, महिला मंगल दल सहित बुजुर्ग भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

 

जब सारे गाँव की झाँकियां दम्फुधार में पहुँचती जाती है तो वहां पर मुख्य अतिथि द्वारा झंडारोहण होता है। इसके बाद यहाँ प्रत्येक गाँव द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। इसके बाद पारितोषिक व मिठाई वितरण का कार्यक्रम होता है।

 

independence day celebration niti village
इस तरह मनाया जाता है यहां स्वतंत्रता दिवस।

रोंग्पा घाटी के ग्रामीण कहते हैं, ”दम्फुधार का 15 अगस्त हमारे लिए किसी त्यौहार से कम नहीं है। इस दिन का इंतजार हमें पूरे साल रहता है। हम इसे लोकपर्व के रूप में मनाते हैं जो पूरे देश में देश की आजादी की एक अनूठी मिसाल है।”

दरअसल, दम्फुधार में पहले एक प्राथमिक विद्यालय हुआ करता था, जहाँ पर घाटी के लोग शिक्षा ग्रहण किया करते थे। आज यह विद्यालय एक खंडहर में तब्दील हो गया है। इस विद्यालय से पढ़े कई लोग अधिकारी बन चुके हैं लेकिन इस गाँव और पर्व को मनाना नहीं भूलते। इन लोगों का सहयोग 15 अगस्त के अवसर पर हमेशा रहता है। पहले 15 अगस्त का आयोजन विद्यालय समिति करती थी। विद्यालय बंद हो जाने से यह आयोजन 15 अगस्त समिति के सहयोग से किया जाता है। इस आयोजन में महिलाओं का योगदान भी अहम होता है।

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स्वतंत्रता दिवस पर खुशी का इज़हार करते हुए।

वास्तव में, जिस तरह से देश के अंतिम गाँव की नीति घाटी में आजादी का जश्न यहाँ के लोगों द्वारा मनाया जाता है वैसा देश के किसी गाँव में शायद देखने को मिले। यहाँ का स्वतंत्रता दिवस का पर्व देशप्रेम की अनूठी मिसाल है।

संपादन – भगवतीलाल तेली 


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8वीं पास किसान इनोवेटर ने बनायीं सस्ती मशीने; ग्रामीणों को मिल रही अतिरिक्त आय!

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गुजरात के अहमदाबाद में रहने वाले परेश पांचाल न तो किसी IIT से पढ़े हैं और न ही किसी बड़ी मैकेनिकल कंपनी से उन्होंने ट्रेनिंग ली है। लेकिन फिर भी आज उनका नाम देश के प्रसिद्ध और प्रभावशाली आविष्कारकों की फ़ेहरिस्त में शामिल होता है।

सिर्फ़ आठवीं कक्षा तक पढ़ाई करने वाले परेश ने कभी भी नहीं सोचा था कि एक दिन उनकी बनाई मशीनों के ज़रिए वे ग्रामीण भारत में बदलाव का प्रतीक बन जाएंगे। लेकिन अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने साबित किया है कि इनोवेशन किसी डिग्री के चलते नहीं बल्कि ज़रूरत के चलते होता है। इसलिए उनके सभी इनोवेशन साधारण लोगों के लिए होते हैं, ताकि आम ग्रामीण लोगों के जीवन में परिवर्तन आ सके।

एक साधारण परिवार से संबंध रखने वाले परेश की ज़िंदगी उनके पिता के देहांत के बाद बिल्कुल ही बदल गई थी। वे 19-20 साल के थे जब उनके पिता की मृत्यु हुई और उसके बाद उनके ऊपर अपने पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई।

परेश पांचाल

द बेटर इंडिया से बात करते हुए परेश ने बताया, “उस वक़्त किसी बात की कोई चिंता नहीं थी। मुझे जो अच्छा लगता वो करता। लेकिन पापा के देहांत के बाद चीज़ें बदल गई । परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई और फिर मैंने पूरा ध्यान पापा की वर्कशॉप को आगे बढ़ाने पर लगा दिया।”

अपने पिता के वर्कशॉप पर काम करते हुए उन्होंने लोगों की ज़रूरत के हिसाब से मशीनों को मॉडिफाई करने का काम किया। वे ग्राहक की ज़रूरत के हिसाब से उसे मशीन बनाकर देते और इसी क्रम में एक बार उनसे किसी ने पतंग उड़ाने वाले मांझे की ऐसी ऑटोमेटिक चकरी बनाने के लिए कहा जिससे कि पतंग कटने के बाद धागे को ऑटोमेटिकली वापस चकरी में डाला जा सके।

परेश बताते हैं कि गुजरात में पतंग उड़ाने का जितना शौक है उतना ही बड़ा पतंग और मांझे का व्यापार भी है। इसलिए उन्हें भी लगा कि यदि वे ऐसा कुछ बनाने में कामयाब हो जाते हैं तो यह बहुत से लोगों को पसंद आएगा। उन्होंने इस मशीन पर काम करना शुरू किया और जब उनका ‘मोटराइज्ड थ्रेड-वाइन्डर’ बनकर तैयार हुआ तो हाथों-हाथ लोगों ने इसे खरीदा।

मोटराइज्ड थ्रेड-वाइन्डर

उनकी बनाई मोटराइज्ड चकरी में आपको बस एक बटन दबाना होता है और फिर पूरा का पूरा धागा ऑटोमेटिकली चकरी पर आ जाता है। इससे न तो मांझे में गांठ पड़ती है और न ही आपके हाथ में चोट आदि लगने का डर रहता है। वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें!

साल 2007 में उनके इस इनोवेशन को नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा सम्मानित किया गया। परेश ज्ञान संगठन के संपर्क में रहते हुए अलग-अलग और छोटे-बड़े इनोवेशन पर काम कर रहे हैं। परेश के काम को देखते हुए उदयपुर के वन विभाग अधिकारी ओपी शर्मा ने उन्हें राजस्थान के एक छोटे से आदिवासी गाँव में आमंत्रित किया।

“इस गाँव के लोग अगरबत्ती बनाकर अपना रोज़गार चलाते हैं। अगरबत्ती बनाने के सभी काम जिसमें बांस छीलना, अगरबत्ती के लिए बाकी सामग्री बनाना और फिर उसे अंतिम रूप देना आदि हाथों से करते थे। इससे एक तो ये दिन में बहुत ही कम संख्या में अगरबत्ती बना पाते और साथ ही, उनके हाथों में भी घाव आ जाते। इसलिए शर्मा जी चाहते थे कि मैं इन गाँव के लोगों के लिए कुछ बनाऊं जिससे इनका काम सरल हो जाए और आमदनी भी बढ़ जाए,” परेश ने बताया।

अगरबत्ती

मशीन की ज़रूरत गाँव वालों को थी और इसलिए परेश ने उन्हीं से पूछा कि उन्हें कैसी मशीन चाहिए। इस सवाल के जवाब में सभी ने एक ही उत्तर दिया कि ऐसा कुछ जिससे कि एक हैंडल मारने पर ही बांस की स्टिक बन जाए और फिर एक हैंडल से अगरबत्ती तैयार हो जाए। परेश ने उन गाँव वालों की बात सुनी और फिर वापस अहमदाबाद लौट आए।

इसके कुछ समय बाद परेश इन गाँव वालों के मन मुताबिक मशीन बनाकर उनके पास पहुंचे। वहां के सभी वन अधिकारियों के बीच उन्होंने अपने मशीन का प्रदर्शन किया और उन्हें बताया कि मशीन को बिना बिजली के सिर्फ़ एक हैंडल से चलाया जा सकता है।

उन्होंने दो मशीन ‘बैम्बू स्पलिंट मेकिंग मशीन’ यानी बांस की स्ट्रिप बनाने वाली मशीन और ‘इन्सेंस स्टिक मेकिंग मशीन’ यानी अगरबत्ती बनाने वाली मशीन बनाई। इन मशीनों की मदद से एक दिन में 3500 से लेकर 4000 अगरबत्तियां बनाई जा सकती है। साथ ही, इनमें बिजली का भी कोई खर्च नहीं है और किसी को चोट लगने का भी कोई डर नहीं रहता।

(बाएं) बैम्बू स्पलिंट मेकिंग मशीन, (दाएं) इन्सेंस स्टिक मेकिंग मशीन

“जब मैंने ये मशीन उन गाँव वालों को दी तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। उनके चेहरों पर जो राहत के भाव थे, उसे देखकर मेरे मन को जो संतोष मिला, वो मुझे करोड़ों कमाकर भी नहीं मिलता शायद। उसी वक़्त मुझे वन विभाग ने 100 मशीन बनाने का ऑर्डर दिया ताकि पूरे गाँव में मशीनें दी जा सके,” परेश ने बताया।

उनकी इस मशीन की कीमत 15, 600 रुपये है। अपने इस इनोवेशन के लिए भी उन्हें राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया। उनका यह इनोवेशन ग्रामीण स्तर पर काफ़ी कामयाब है क्योंकि इसकी मदद से ग्रामीण लोगों के लिए रोज़गार का एक अच्छा साधन खड़ा किया जा सकता है।

अगरबत्ती बनाने की मशीन के बाद उन्होंने एक और ग्रासरूट्स इनोवेटर गोपाल सिंह के साथ मिलकर ‘गोबर के गमले बनाने की मशीन‘ पर काम किया। उनकी यह मशीन भी ग्रामीण भारत में रोज़गार के साधन उत्पन्न करने के नज़रिए से बहुत कामयाब हुई। इस मशीन के बारे में ज़्यादा जानकारी प्राप्त करने के लिए आप यहाँ क्लिक करें!

परेश को उनके इन आविष्कारों के लिए देश के चार राष्ट्रपति, एपीजे अब्दुल कलाम, प्रतिभा पाटिल, प्रणव मुखर्जी और रामनाथ कोविंद द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें सबसे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की है कि उनकी मशीनों को न सिर्फ़ गांवों में बल्कि कई जेल अधिकारियों द्वारा कैदियों के उत्थान के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है।

सबसे पहले उनकी अगरबत्ती बनाने वाली मशीन को कोलकाता के अलीपुर महिला जेल द्वारा ख़रीदा गया ताकि वहां की महिला कैदियों को रोज़गार के कुछ गुर सिखाए जा सके। कोलकाता के बाद गुरुग्राम जेल और उत्तर-प्रदेश के दसना जेल में भी उनकी मशीनों को ख़रीदा गया। यहाँ पर उन्होंने जेल के अधिकारियों और कैदियों के लिए ट्रेनिंग वर्कशॉप भी की है।

चारों राष्ट्रपति ने किया सम्मानित

आज परेश Dolphin Engimech Innovative Pvt Ltd कंपनी के मालिक है और उनकी कंपनी का टर्नओवर एक करोड़ रुपए से भी ऊपर है। लेकिन उन्हें यह नाम और शोहरत आसानी से नहीं मिली है। अपने इस सफर में उन्होंने बहुत-सी मुश्किलों का सामना किया है और सबसे बड़ी चुनौती थी उनके 15 वर्षीय बेटे की मौत। लगभग एक साल पहले एक दुर्लभ बीमारी के चलते उन्होंने अपने बेटे को खो दिया।

परेश की जगह अगर कोई और होता तो शायद अपने बेटे के गम में सब कुछ त्याग कर बैठ जाता, लेकिन परेश ने ऐसा नहीं किया और अपने जीवन का लक्ष्य बदल दिया।

वे कहते हैं, “उसके जाने के बाद मुझे लगा कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम अपने जीवन में किसी का भला करे। हम कितना भी पैसा कमा ले, उसे अपने साथ नहीं ले जा सकते हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम किसी की दुआएं अपने साथ लेकर चलें।”

अब परेश का उद्देश्य गाँव के लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से उनके लिए मशीन बनाना है। वे किसी बड़ी कंपनी या फिर बड़े ब्रांड के लिए आविष्कार करने की बजाय साधारण लोगों के लिए कुछ करना चाहते हैं। उनकी सोच है कि वे अपने हुनर के ज़रिए ग्रामीण भारत को बेहतर बनाए।

अपने संदेश में वे सिर्फ़ इतना कहते हैं, “यदि आपके पास कोई भी आइडिया है जो किसी भी तरह से गाँव के लोगों की ज़िंदगी बदल सकता है तो मुझे बताए। मैं उससे आविष्कार/मशीन आपको बनाकर दूंगा और जिस भी तरह से मदद हो पाएगी, मैं करूँगा। मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए, मैं बस गरीब और ज़रूरतमंद लोगों के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहता हूँ। यही मेरे लिए सबसे बड़ा संतोष है।”

अगर आपको परेश पांचाल की कहानी से प्रेरणा मिली है और आप उनकी बनाई मशीन खरीदना चाहते हैं या फिर आपके पास कोई ऐसा आइडिया है जो ग्रामीण लोगों के लिए हितकर हो सकता है, तो परेश पांचाल से 09429389162 पर संपर्क करें!

अगरबत्ती बनाने वाली मशीन कैसे करती है काम


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अच्छी ख़बरों का ज़माना –एक नृत्य नाटिका

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क नट और नटनी मंच पर नृत्य करते हुए प्रवेश करते हैं. पार्श्वसंगीत में ‘जॉनी मेरा नाम’ फ़िल्म का देव आनंद और हेमा मालिनी पर फ़िल्माया प्रसिद्ध गाना बज रहा है:
“हीरे से जड़े तेरे नैन बड़े
जिस दिन से लड़े नहीं चैन पड़े
सुन कर तेरी नहींsss नहीं
जाँss अपनी निकल जाए न कहीं

 

पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले – झूठा ही सही”

 

नट-नटनी के लटके-झटके अपने उरूज़ पर हैं. आख़िरी पंक्ति आते आते नटनी नट का हाथ इस ज़ोर से झटकती है कि वो मंच के एक कोने में जा गिरता है. संगीत अचानक रुक जाता है. नट की नाटकीय कराहें सुनाई देती हैं जब वह उठने का प्रयत्न कर रहा है. नटनी उसके घुटनों के पीछे एक लात मारती है वह फिर से गिर जाता है.

 

नटनी: आय हाय हाय हाय.. बड़ा आया कहने वाला ‘हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही’
तेरे जैसे प्रकृति के नमूने से प्रेम करूँ??
इतना सस्ता है न प्रेम?
और झूठ क्यों बोलूँ?
बता न, झूठ बोलूँ और अपने लिए नरक का दरवाज़ा खोलूँ?
कड़वा लगे तो लगे, झूठ मैं बोलती नहीं
नीम दवा है तो है, उसमें गुड़ घोलती नहीं
चुप सहती रहूँ – होता नहीं
दिल की चमड़ी तुम जैसों ने मोटी की है – दिल मेरा अब रोता नहीं

 

नट अब तक उठ कर खड़ा हो गया है. एक चाय का कप उठाता है, चाय के ठन्डे और कसैले होने पर मुँह बनाता है. उसे एक गमले में उड़ेल कर खीज कर कहता है:
“यार वैसे ही टेंशन बहुत है
चिल्लाओ मत
ट्रैफ़िक की कड़ाही से निकले
तो ऑफ़िस-पॉलिटिक्स की आग में घिरे
आधे सप्लायर्स ठग
ऊपर से ग्राहक सिरफ़िरे
फिर अख़बार टीवी की वहशी आवाज़ें
न्यूज़ एंकरों की हौलनाक परवाज़ें..
यार, तुस्सी ऐसे तो न थे
– यूँ डराओ मत
हमें मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
तुम चिढ़ाओ मत..”

 

नटनी: हाँ हाँ.. मैं ठहरी कर्कशा,
यूँ ही शोर करती हूँ
इमोशन के तमाशों से शबे-फ़ुर्कत को भरती हूँ
रोज़गार-ए-डोज़-ए-इमोशन काम है मेरा
चिड़चिड़ी-सिरफ़िरी-मैना नाम है मेरा

 

नट:अरी???
अर अर अरीss..
मेरी परीss..
पर पर परी
तू क्या बात करती है?
सावित्री तेरी सीरत
श्रीदेवी तेरी सूरत
तू सबसे मोहिनी है
कामिनी है
सोहनी है
तू ही है मीर की तबियत
तू है फ़ैज़ की सोहबत
निराला की हिमाकत
तू ग़ालिब की फ़िज़ाँ की डोमनी है
तुझीसे मेरी बरकत है
तू रूठे तो क़यामत है
क्यों ईरान समझ अमेरिका सी कोसती है
चीनी माल सी झूठी सही एक पल तो चमक ले
सच्चाई को ट्विस्ट करके एक शाम तो चहक ले
पॉज़िटिव अफ़रमेशन भी कोई चीज़ है
मुस्कुराहट के साथ बासी रोटी भी लज़ीज़ है

 

..दो पल के लिए कोई हमें प्यार कर ले

 

नटी: हाँ हाँ मैं तो निगेटिव नटी हूँ
झूठे वादों से घायल हूँ
तुम्हारी गुहार के झाँसों में
तुम्हारे इक़रार की फ़ाँसों में
जानकर तुम्हारे छलावे
न जाने क्यों डटी हूँ
मैं निगेटिव नटी हूँ

 

इसी वक़्त बहुत से लोग झण्डे लिए मंच पर प्रवेश करते हैं और नटी के पीछे नाचने लगते हैं. इन्हीं का कोरस बनेगा.

 

नटी: जीडीपी का क्या होगा?
नट: तुम्हारा मंदिर मैं बनवाऊँगा
गाँव को लंगर खिलाऊँगा
पल भर के लिए तू ही मुझे प्यार कर ले – झूठा ही सही

 

कोरस: तुम्हारे खोखले नारे
ये सपने लफ़्ज़ हैं सारे
तुम्हारे खोखले नारे

 

नटी : मुझे नौकरी चाहिए!
नट: यहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा
तू नौकरी की बात करती है?
ज़रा इतिहास पढ़ ले
अतीत महान था, भविष्य महान होगा
वर्तमान पर क्यों बिगड़ती है..

 

कोरस: तुम्हारे खोखले नारे
ये सपने लफ़्ज़ हैं सारे
तुम्हारे खोखले नारे

 

नटी: तू फ़रेबी है लेकिन बातों का धनी है
नट: तू आगे देख क़िस्मत में मनी मनी है
नटी: तेरी पीआर तेरे काम के आगे चली है
नट: जलवा-ए-यार देख हरसू खलबली है
नटी: तेरी बातों में फिर फिर आऊँ मैं क्यों?
नट: मेरा क्या मैं फ़कीर – तेरी सेवा में हूँ
तू न हो तो मैं ये पहाड़ सर पर उठाऊँ क्यों?

 

नटी सोच में पड़ जाती है: मैं राज़ी होऊँ कैसे
ये हक़ीक़त गले न उतरे
मैं सपने खाऊँ कैसे
भूख अंतड़ियों को जब जकड़े..

 

जो भीड़ मंच पर आयी थी वह अब थकेहाल हो कर मंच पर गिरी हुई है. सिर्फ़ नटी और नट खड़े हैं. नटी सोच की मुद्रा में है. पार्श्व में रौशनियाँ जगमगाने लगी हैं, प्रतीत होता है कि कोई उत्सव हो जैसे. नटी शायद मानने वाली है. नट ज़्यादा मुस्कुरा कर शब्दों में माखन घोल कर कहता है.

 

नट: अरी यूँ निगेटिव न बन
थोड़ी सी पॉज़ीटिविटी अपना लो न
सुनहली शाम के दो चार गीत गा लो न
(गुदगुदाते हुए) थोड़ा लड़िया लो न
गार्डनिंग करो,
हाँ गार्डनिंग करो! भला लगेगा
कोरस: भला लगेगा भला लगेगा
नट: मास्क पहन, सुब्ह सैर को जाना – (कोरस थकी आवाज़ों में) भला लगेगा भला लगेगा
पब्लिक ट्रांसपोर्ट में अपनी जेब बचाना – भला लगेगा भला लगेगा
काँवड़ियों के डीजे की पश्चिमी बीट पर
ठुमके लगाना – (कोरस) भला लगेगा भला लगेगा भला लगेगा

 

नट: नेटफ़्लिक्स, फ़ेसबुक, व्हाट्सएप्प से
काम चला लो न
सुनहली शाम के गीत गा लो न

 

कोरस: भला लगेगा भला लगेगा भला लगेगा
गाना गालो – भला लगेगा
कुछ लड़िया लो – भला लगेगा
इतनी भी उज्जड्ड न बनो
गाना गा लो – भला लगेगा

 

नटी : क्या मैं इतनी निगेटिव हूँ
कि अपनी जान लेती हूँ?
अगर तुम फिर से कहते हो
तो कहना मान लेती हूँ
लेकिन इस गुस्से को कैसे छोड़ूँ?
कैसे मुँह सच्चाई से मोडूँ?

 

नट: सच्चाई.. हाय सच्चाई
क्यों तेरे पल्ले आई??
(बड़बड़ाते हुए) पहले से ही कहा था मत कर इतनी पढाई..
कोरस: क्यों की तूने पढ़ाई, क्यों अपनी समझ बढ़ाई..
क्यों की तूने पढ़ाई, हाय, क्यों की तूने पढ़ाई..

 

नट: अब प्रदूषण से रूठोगी?
कोरस: तो कहाँ जाओगी?
नदी प्रदूषित, जंगल दूषित
हवा है काली, दमे की जाली (रिपीट)

 

नट: मिलावट से रूठोगी?
कोरस: तो क्या खाओगी?
दूध कैमिकल, लौकी नकली
अण्डे, टिन्डे या हो मछली (रिपीट)

 

नट: किस किस से रूठोगी
किस किस पे रोओगी
किसी का क्या बिगड़ना है
ख़ुदी का चैन खोओगी
कहो किस किस से रूठोगी?
कहो किस किस पे रोओगी
एकता के मंच से?
सरकारी प्रपंच से?
दानिशमंदों की दानाई से?
लाचारों की रुसवाई से?
औरतों का दर्द मारेगा
कलेजा चीर डालेगा
मज़दूरों की मत सोचो
वो प्रारब्ध है उनका
भू के माफ़िया की जय
हर खित्ते पे हक़ उनका
डॉक्टर लूट लेते हैं,
मगर गोली तो देते हैं
टीचर ट्यूट करता है
दरोगा क्यूट बनता है
आईएएस हमारा जँवाई है
अफ़सरशाही हमारी पुण्यों की कमाई है..

 

कोरस: पुण्यों की कमाई है. पुण्यों की कमाई है
ये हमको रास आई है, सभी के काम आई है..

 

नट: क्या तू तैयार है इस तारणा के लिए?
सच्चाई की यूज़लैस धारणा के लिए
गर्व से कहो – (कोरस) हम सच्चे हैं
ताल ठोक कर – (कोरस) हम अच्छे हैं
एक बार फिर – (कोरस) हम सच्चे हैं
ज़ोर लगा कर – (कोरस) हम अच्छे हैं

 

‘हम सच्चे हैं – हम अच्छे हैं’ गाते गाते लोग स्टेज से चले जाते हैं. नट कमर पर हाथ रख कर बाँकी नज़र से नटी को देख रहा है. पार्श्व से गाने की आवाज़ धीरे धीरे ज़ोर पकड़ती है.. नटी मुस्कुरा कर नट की बाहों में बाँह डालती है और दोनों मिल कर साथ में गाने लगते हैं.. झूठा ही सही, झूठा ही सही..

 

अँधेरा बढ़ता है और पर्दा खिंचने लगता है.. दर्शको, आप ताली बजायेंगे न?

आज की शनिवार की चाय में दो अज़ीम शाहकार हैं. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और नसीरुद्दीन शाह:

 


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बुजुर्गों की माधुरी माँ, जो बच्चों की तरह करती हैं उनकी देखभाल!

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‘रिश्ता’ एक ऐसा शब्द है जिसके बिना जिंदगी अधूरी है। उम्र के आखिरी पड़ाव में जब सब कुछ तेजी से भागता नज़र आता है, तब रिश्ते ही ठहराव का काम करते हैं। भोपाल के ‘अपना घर’ में उन लोगों की ‘अधूरी जिंदगी’ में फिर से रिश्तों के रंग भरे जा रहे हैं, जिन्हें उनके अपने ही अपने हाल पर छोड़ गए। ‘अपना घर’ 25 बेसहारा बुजुर्गों का आशियाना है। एक ऐसा आशियाना, जहां प्यार है, तकरार है, अपनापन है और सम्मान भी।

सम्मान उस शख्सियत के प्रति जिसने अपना पूरा जीवन ईंट-पत्थर के मकान को ‘घर’ बनाने में लगा दिया। वो घर जहां कल के अजनबी, आज एक परिवार की तरह रहते हैं। 53 वर्षीय माधुरी मिश्रा इस परिवार की मुखिया हैं। उन्होंने 2012 में ‘अपना घर’ वृद्धाश्रम की शुरुआत की।

 

माधुरी उन लोगों में से हैं, जिन्हें दूसरों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने में ही ख़ुशी मिलती है, फिर भले ही इसके लिए खुद परेशानी क्यों न उठानी पड़े।

माधुरी मिश्रा और अपना घर के एक सदस्य.

उम्र के इस पड़ाव पर जब लोग आराम से जिंदगी गुजारना चाहते हैं, माधुरी की चाहत अपने हम उम्र के बच्चों (वृद्धाश्रम में रहने वाले बुजुर्गों को वह अपने बच्चे मानती हैं) के हर उस सपने को पूरा करने की है, जो उन्होंने कभी देखा था।

इस बारे में वह कहती हैं ”हर इंसान सपने देखता है, कुछ वह जवानी में पूरा कर लेता है और कुछ को बुढ़ापे के लिए बचाकर रखता है। मैं बस यही चाहती हूँ कि इनके अधूरे सपनों को पूरा कर पाऊं, इसलिए जब उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ का आयोजन हुआ तो हम सभी वहां गए। हालांकि, इतने बुजुर्गों को साथ लेकर जाना आसान नहीं था, (हँसते हुए वैसे मैं भी बुजुर्ग ही हूँ) लेकिन सबकुछ बहुत अच्छे से हुआ। अपना घर में हम गणेशोत्सव से लेकर दुर्गापूजा तक हर त्यौहार धूम-धाम से मनाते हैं, हाल ही में हमने तीज भी मनाया था”।

 

‘अपना घर’ केवल नाम का ही ‘अपना’ नहीं है। यहाँ रहने वाले बुजुर्गों को हर वो आज़ादी है, जो शायद कभी उन्होंने अपने घर में महसूस की होगी।

 

कोलार इलाके के सर्वधर्म बी सेक्टर की एक तीन मंजिला इमारत से यह वृद्धाश्रम संचालित होता है। जब माधुरी ने ‘अपना घर’ की शुरुआत की तब इस इमारत का किराया 25 हजार था, जो आज 40 हजार पहुँच गया है। लगातार बढ़ता किराया और महंगाई से माधुरी परेशान तो होती हैं, लेकिन यह विश्वास जाताना भी नहीं भूलती कि अच्छा करने वालों को मदद मिल ही जाती है।

माधुरी से ‘माधुरी मां’ बनने की शुरुआत भले ही 30 साल पहले हुई हो, लेकिन इसका बीज तभी फूट गया था जब वह महज 17 साल की थी। इस बारे में वह बताती हैं, ”मेरे पिता मध्य प्रदेश पुलिस में डीएसपी थे और माँ गृहणी। एक बार हमारे पड़ोस में किसी की मौत हो गई थी, तब माँ ने मेरे नवजात भाई को मेरे हवाले छोड़कर जिस तरह से दुःख की घड़ी में उनकी सहायता की, उससे मैं काफी प्रभावित हुई। हमारे आस-पड़ोस में जब भी किसी को कोई परेशानी होती, वो सबसे पहले माँ के पास आता। उन्हें इस तरह लोगों की मदद करते देख मुझे बहुत ख़ुशी होती थी और उसी ख़ुशी को मैंने अपना जीवन बना लिया है।”

बुजुर्गों की लाठी बनने से पहले माधुरी ने गरीब, अनाथ बच्चों में शिक्षा की अलख जगाई। उन्होंने भोपाल की झुग्गी बस्तियों में घूम-घूमकर बच्चों को न केवल पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि इसमें उनकी हर संभव सहायता भी की। इतना ही नहीं, उन्होंने कई विधवा महिलाओं का पुन: विवाह भी करवाया। आज भी वे महिलाएं हर तीज-त्यौहार पर अपनी मुंह बोली ‘माँ’ का आशीर्वाद लेना नहीं भूलती।

‘अपना घर’ अस्तित्व में आने से पूर्व माधुरी मिश्रा बुजुर्गों के लिए काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन से जुड़ी हुई थी, जब उन्होंने उसका दामन छोड़ा तो कुछ बुजुर्ग भी उनके साथ आ गए।

अपने प्रति बेसहारा बुजुर्गों के इस प्यार को देखकर माधुरी अभिभूत तो हुई, लेकिन चुनौती थी उनके लिए एक नया आशियाना खोजने की और यह काम बिल्कुल भी आसान नहीं था। कुछ दिन उन्होंने सभी को अपने घर में रखा और फिर परिवार के सहयोग से कोलार में एक तीन मंजिला मकान किराए पर ले लिया। माधुरी के लिए बुजुर्गों को अकेला छोड़ना मुमकिन नहीं था, इसलिए खुद भी उनके साथ रहने के लिए पूरे परिवार सहित जवाहर चौक से कोलार आ गई। वृद्धाश्रम का नाम ‘अपना घर’ रखने के पीछे कोई खास वजह ?

इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं ”जो सुकून और आराम आपको अपने घर में मिलता है वो कहीं और नहीं मिल सकता। हमने कभी इस वृद्धाश्रम और यहाँ रहने वालों को अजनबी नहीं माना, हम सभी एक परिवार की तरह यहाँ रहते हैं। इसलिए इसका नाम ‘अपना घर’ रहा गया है।”

माधुरी के पति राजेंद्र मिश्रा आयुर्वेदिक चिकित्सक है, बड़ी बेटी पढ़ाई पूरी कर चुकी है और छोटी कॉलेज में पढ़ रही है। सभी के लिए ‘अपना घर’ और उसमें रहने वाले सबसे ज्यादा अहमियत रखते हैं। माधुरी अपनी बेटियों को खुश नसीब मानती हैं कि उन्हें इतने दादा-दादी का प्यार और आशीर्वाद मिल रहा है।

जब आप समाज के लिए कुछ करते हैं, तो आपको समाज के ही विरोध और आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, क्या आपसे साथ भी ऐसा हुआ?

इस बारे में वह कहती हैं, ”जिस तरह जीने के लिए ऑक्सीजन ज़रूरी है, वैसे ही मेरे लिए समाज सेवा। मैं बचपन से ही दूसरों के लिए कुछ करना चाहती थी, उनके चेहरे पर मुस्कान बिखेरना चाहती थी। उम्र के साथ-साथ यह भावना और बढ़ती गई, मैं कई एनजीओ से जुड़ी। अपने स्तर पर भी काफी कुछ किया। मेरे माता-पिता ने मुझे कभी नहीं रोका, लेकिन शादी के कुछ सालों बाद हालात बदल गए। मेरी शादी टीकमगढ़ के रसूखदार खानदान में हुई थी और ससुरालवाले चाहते थे कि मैं समाजसेवा से दूर रहूँ, जो मेरे लिए मुमकिन नहीं था। इसलिए मैं ससुराल छोड़कर भोपाल आ गई, इस फैसले में मेरे पति भी मेरे साथ थे और आज भी वह मेरे सपने को अपना सपना मानकर जी रहे हैं।”

40 हजार रुपए किराया सहित ‘अपना घर’ के संचालन में हर महीने भारी-भरकम खर्चा होता है। इसका खर्च पहले तो माधुरी जी के पिता की पेंशन से होता था लेकिन पिता के देहांत के बाद पेंशन आधी हो गई। हालाँकि माधुरी की माँ वह आधी पेंशन भी उन्हें दे देती है।

अपना घर

इसके अलावा, उनके दोनों भाई और कई अन्य लोग भी मदद करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो समय-समय पर अपना घर के सदस्यों के लिए खाने-पीने का सामान लेकर आते हैं और उन्हें अपने हाथों से परोसने का सुख प्राप्त करते हैं।

‘अपना घर’ में रहने वाले बुजुर्गों को देखकर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता कि वे अब भी उस दर्द से पीड़ित हैं, जो उनके अपनों ने उन्हें दिए थे। वह हँसते हैं, मुस्कुराते हैं और गाने भी सुनाते हैं। फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया (एफसीआई) से जुड़े रहे रमेश चंद्र दुबे अपने अतीत के बारे में ज्यादा कुछ बताना नहीं चाहते। वह वर्तमान में खुश है और इसी ख़ुशी में उन्होंने ‘अजी रूठकर अब कहाँ जाइएगा’ गाना भी सुनाया। रमेश की तरह सुधीर भी संगीत के शौक़ीन है। उन्होंने ‘एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल’ सुनाकर ‘अपना घर’ में मिल रही खुशियों को बयां किया।

इस वृद्धाश्रम की एक और खास बात यह है कि यहाँ ‘दादी-दादी की चौपाल’ लगती है, जिसमें बच्चों से लेकर युवा तक शिरकत करते हैं। इस चौपाल को शुरू करने के पीछे उनके दो उद्देश्य थे। पहला, बच्चे बुजुर्गों से मिलेंगे, उनके अनुभव और ज्ञान से कुछ सीखेंगे। बुजुर्गों को भी उनका साथ अच्छा लगेगा, उनका खालीपन कम होगा और दूसरा एवं सबसे महत्वपूर्ण यह कि बच्चों में संयुक्त परिवार की धारणा को मजबूत किया जा सकेगा।

माधुरी मिश्रा केवल बेसहारा बुजुर्गों की लाठी ही नहीं बनती बल्कि उन्हें बेसहारा करने वालों के दिल में फिर से उनके प्रति प्यार जगाने का प्रयास भी करती हैं।

इस बारे में उन्होंने कहा, ”अपनों से अलगाव का दर्द शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता, इसलिए मेरी कोशिश रहती है कि बेसहारा किए गए बुजुर्गों के परिवार से बात करके उनके बीच की कड़वाहट को दूर कर सकूँ, हालांकि ये बहुत मुश्किल होता है।”

माधुरी आमिर खान के चर्चित शो ‘सत्यमेव जयते’ में भी अपनी बात रख चुकी है। समाज के लिए उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें अब तक मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी समाज सेवा सहित अनगिनत पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

‘द बेटर इंडिया’ के माध्यम से माधुरी मिश्रा बस इतना ही कहना चाहती हैं कि उन लोगों को बेसहारा न छोड़े, जो ताउम्र आपका सहारा बने रहे। यदि आप भी ‘अपना घर’ या माधुरी मिश्रा के अभियान में सहयोगी बनना चाहते हैं तो आप उनसे 098935 98376 पर संपर्क कर सकते हैं।


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पढ़िए 76 साल की इस दादी की कहानी जिसने 56 की उम्र में की बीएड, खोला खुद का स्कूल!

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काला अक्षर भैंस बराबर! यह कहावत तो आपने जरुर सुनी होगी! आपके और हमारे लिए तो बस यह एक कहावत है, लेकिन जोधपुर में रहने वाली 76 वर्षीय अयोध्याकुमारी गौड़ के जीवन की सच्चाई रही है।

‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए वह अपने जीवन के रोचक खुलासे करती है। वह कहती हैं, “जब मैंने अपना 15वां जन्मदिन मनाया, तब तक काग़ज़ों या कहीं पर भी लिखे शब्दों को पढ़ या समझ नहीं पाती थी। मेरे लिए काले अक्षर भैंस के बराबर ही थे। लिखे को समझ पाना मेरे बूते की बात नहीं थी। लेकिन आज हालात बदल गए है। मैंने अपने जुनून के बल पर अज्ञानता के दौर से निजात पा ली है। आज मैं सैंकड़ों बच्चों की ज़िंदगी में शिक्षा का उजियारा लाने का कार्य कर रही हूँ।”

जोधपुर के प्रतापनगर में 8वीं तक के बच्चों के लिए स्कूल चलाकर उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने वाली अयोध्याकुमारी जब छोटी थी, तब उनकी माँ का निधन हो गया। परिवार की स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि घर की बच्चियों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजा जा सके।

ayodhya kumari jodhpur
अपने पिता और पुत्री के साथ आयोध्याकुमारी।

पिता जगदीश नारायण शर्मा जयपुर में अपने निजी मंदिर में पुजारी का काम करते हुए परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। अयोध्या अपनी बहनों के साथ घर का कामकाज संभालने में पिता को मदद कर रही थी। वक़्त ने करवट ली। जब वे 15 साल की हुई तो उनके लिए वर की तलाश की जाने लगी। पड़ोस की एक महिला ने उनके पिताजी को जो समझाया, उसने अयोध्या के भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।

महिला ने अयोध्या के पिता को कहा कि, “शादी के बाद यदि ससुराल वाले आपकी बेटी को परेशान करे तो आपको अपनी बेटियों को इस लायक तो बनाना ही चाहिए कि वे अपनी व्यथा को एक पोस्टकार्ड पर लिखकर पीहर तक भेज सके।” इस बात ने उनके पिताजी को भीतर तक झकझोर दिया और अयोध्या को शिक्षा हासिल करने के लिए विद्यालय भेजा गया।

वे बताती हैं, “मैं साड़ी पहनकर पहली बार उन छोटी बच्चियों के बीच शिशुशाला में पढ़ने के लिए गई। यहीं मुझे पहली बार अक्षरज्ञान हुआ।”

बड़ी मुश्किलों से शुरु हुई इस शिक्षा यात्रा में पहला व्यवधान उस समय आया, जब 1962 में उनकी शादी एक रूढ़िवादी परिवार में कर दी गई। 18 की उम्र में उनकी पढ़ाई थोड़ी आगे बढ़ी ही थी कि शादी के बाद उनका आगे पढ़ना-लिखना भी बंद करवा दिया गया।

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स्कूल में बच्चों के साथ आयोध्याकुमारी।

पहले माँ का निधन और अब शादी,  उनकी जिंदगी अलग ढर्रे पर चल पड़ी। भले ही उनकी उम्र कम थी, लेकिन जो सबक उनको मिल रहे थे, बेहद कड़वे थे। अयोध्याकुमारी के मन में अभी भी आगे पढ़ने की इच्छा हिलोरें मार रही थी। उनका कोई भी प्रयास रंग लाता नजर नहीं आ रहा था, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और प्रयास करती रही।

कहते हैं न ईश्वर भी उनकी मदद करते हैं, जो खुद अपनी मदद करना चाहते हैं। आखिरकार उन्हें अपने मकान मालिक के बेटों से सहयोग मिला, जिन्होंने उन्हें सुझाया कि यदि वे घर बैठे ही प्राइवेट स्टूडेंट की हैसियत से पढ़ाई करे और 10वीं कक्षा की परीक्षा दे तो कैसा रहे?

कई सालों तक छुपते-छिपाते, छिपाकर रखी गई किताबों के सहारे देर रातों को जागकर उन्होंने अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाया। 1976 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा तब दी, जब उनके बच्चे स्कूल जाने लायक हो चुके थे।

उनके परीक्षा देने की बात जब ससुराल वालों को पता चली, जोरदार विरोध हुआ। कई बार तो बात इतनी बढ़ जाया करती कि वे घर वालों को भरोसा दिलाने के लिए, मांग कर लाई गई पुस्तकों तक को फाड़ देती थी।

अयोध्या कुमारी को घर वालों के विरोध के बावजूद पति का भरपूर सहयोग मिला। जब उनके पति बीकानेर में पोस्टेड थे तब उन्हीं के कहने पर अयोध्या कुमारी ने जोधपुर से 70 किलोमीटर दूर ओसियां गाँव से दसवीं का फॉर्म भरा था। इम्तिहान के दिनों में वे बच्चों से 15 दिन दूर भी रही थी। (यह बात कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं )

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अपने स्कूल के ओपनिंग के समय आयोध्याकुमारी।

 

अड़चनों का दौर अनवरत चलता रहा। भारी विरोधों और बार-बार के अंतराल के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। 1979 में 12वीं, 1983 बीए की डिग्री हासिल की। सरकार द्वारा प्रौढ़ शिक्षा के लिए चयनित कुछ शिक्षिकाओं में वे भी शामिल रही और साल भर तक 30 से 35 साल की प्रौढ़ महिलाओं को पढ़ाया भी ।

उन दिनों को याद करते हुए वे कहती हैं, “इतना सब हो जाने के बाद मेरे पति रामप्रसाद गौड़, जो नायब तहसीलदार थे, उन्होंने कहा, यदि मेरी मंशा नौकरी करने की नहीं है तो मुझे अपनी पढ़ाई को रोक देना चाहिए।”

लेकिन एक बार फिर मैंने अपनी पढ़ाई को आगे ले जाने की इच्छा जताई और बेटी संगीता, जो उस वक्त बीएड में प्रवेश की तैयारी कर रही थी, के साथ मिलकर 1990 में बीएड की डिग्री भी हासिल कर ली।”

कुछ सालों तक घर के पास ही चल रही शिव बालिका माध्यमिक विद्यालय में शिक्षिका के रूप में सेवाएं देने के बाद उन्होंने तय किया कि वह अब उन बच्चों को शिक्षित करने का काम करेगी, जो अपने परिवार की आर्थिक या अन्य स्थितियों के कारण पढ़ाई नहीं कर पाते हैं।

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क्लास में बच्चों को पढ़ाते हुए अयोध्याकुमारी।

इसी लक्ष्य के साथ उन्होंने 2001 में अपने घर में ही खुद का ‛महर्षि पब्लिक स्कूल’ शुरू किया, जहां आज वे न्यूनतम (250 से 400 रुपये) फीस में सम्पूर्ण सुविधाओं के साथ प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर के बच्चों को पढ़ा रही है। साथ ही जिन विद्यार्थियों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर है, वह उनकी किताबों, फीस और यूनिफॉर्म की व्यवस्था स्थानीय दानदाताओं से करवाती है।

हालातों से लड़कर शिक्षिका के रूप में पहचान बनाने वाली अयोध्याकुमारी को कई बड़े मान-सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें दैनिक भास्कर का ‛वुमन प्राइड ऑफ द ईयर- 2015’ प्रमुख है।

अयोध्याकुमारी अपनी स्कूल में सचिव है और कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को हिंदी पढ़ाती है। आज दादी-नानी हो चुकी है।अपने खुशहाल परिवार के साथ जीवनयापन के बीच में से अभी भी खाली समय निकालकर प्रतापनगर क्षेत्र की कच्ची बस्तियों में घूम-फिरकर अभिभावकों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए जागरूक करती रहती है।

आयोध्याकुमारी के स्कूल में आप किसी तरह का सहयोग करना चाहते हैं या उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो 09414127786 पर बात कर सकते हैं।

 

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घर पर उगाते हैं सब्जियां, बरसात का पीते हैं पानी, इनके रहने का अलग ही है अंदाज!

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लोगों के लिए घर वह होता है जहाँ उनकी भावनाएं जुड़ी हुई होती है। लेकिन 62 वर्षीया भावना शाह के लिए, घर सिर्फ वो नहीं जहाँ सिर्फ भावनाएं बस्ती हो, बल्कि वो भी है जहां अच्छा स्वास्थ्य हो। अहमदाबाद के थलतेज शिलाज रोड स्थित शांत वातावरण में रहने वाली भावना की अपनी अलग ही दुनिया है, जहां वह हर दिन आदर्श जीवनशैली को बनाए रखने की कोशिश करती हैं।

भावना और उनके पति नितिन ने अपना अधिकांश जीवन मुंबई की भीड़ और प्रदूषण में बिताया, जिससे वे थक चुके थे।अब उन्हें एक शांत जगह चाहिए थी जहां वे शोरगुल से दूर, अपने हिसाब से रह पाए और यह खोज इन्हें 8 साल पहले वापस अपने शहर अहमदाबाद खींच लाई। अहमदाबाद आकर उन्होंने अपने सपने के घर को ऐसा बनाने का सोचा जो सबसे अलग हो और पर्यावरण के अनुकूल हो।

आज उनके घर में किचन गार्डन, बारिश के जल को संग्रहण करने सहित विभिन्न सुविधाएं मौजूद है, लेकिन सब चीज़ प्रकृति के अनुकूल और स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर।

Bhawna shah
किचन गार्डन में काम करती भावना।

भावना कहती हैं, “एक स्वस्थ जीवन के लिए पहला कदम है स्वस्थ खान-पान। इसलिए हमने करीब 2000 वर्गफूट की जगह को किचन गार्डन बनाने के लिए प्रयोग किया है, जहां मैं 20 से अधिक प्रकार की सब्जियाँ, जड़ी-बूटियाँ और फल जैविक विधि से उगा रही हूँ। इससे हर रोज़ मेरे पास ताज़ी सब्जियां पकाने के लिए रहती है।”

भावना मौसम के अनुसार पौधे लगाती हैं। वह सिर्फ देसी किस्म के फल और सब्जियां ही उगाती हैं ताकि मिट्टी पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। वह रसोई के कचरे से खाद बनाती हैं और उसका उपयोग सब्जियां उगाने के लिए करती हैं। साथ ही मिट्टी को आराम देने के लिए वह साल में एक बार मिट्टी को खोदकर बिना कुछ बोए धूप में खुला छोड़ देती हैं ताकि मिट्टी की उत्पादन क्षमता बढ़ सके। हालाँकि, कई बार कुछ सब्जियां जो उनके गार्डन में नहीं उग सकती, उन्हें बाहर से खरीदनी पड़ती हैं।

bhawna shah
मिट्टी की खुदाई के बाद उसे खुला छोड़ा गया।

जब कभी भी उनको बाहर से फल और सब्जियाँ खरीदनी पड़ती हैं, तो वे सब्जियों की गुणवत्ता जांचने के लिए नींबू और संतरे के छीलकों को पानी और गुड़ में मिला कर ‘बायो-एंजाइम’ बनाती हैं। इसके बाद इन फलों और सब्जियों को प्रयोग करने के पहले करीब 20 मिनट तक भिगो कर रखती हैं। इससे इन सब्जियों के सभी विषाक्त पदार्थ धूल जाते हैं।

 

भावना और नितिन के घर को एकदम हटके बनाने का काफी हद तक श्रेय घरेलू कचरे के सही प्रयोग को जाता है। उनके यहाँ वर्मीकम्पोस्ट और किचन-कम्पोस्ट दोनों ही गीले कचरे से बनाए जाते हैं। यही कारण है कि पिछले आठ सालों में गीले कचरे को एक बार भी घर के बाहर नहीं फेंका गया। 

bhawna shah
किचन गार्डन में उगाई गई सब्जियां।

किचन गार्डन के अलावा, घर में वर्षा जल संग्रहण की भी व्यवस्था है, जिसका उपयोग बागवानी, कपड़े धोने, नहाने जैसे घरेलू काम के अलावा पीने तक के लिए हो रहा है।

वे बताती हैं , “एक बार छत पर पानी जमा कर लिया जाता है, फिर इसे फ़िल्टर में भेजने के बाद, 10 हज़ार लीटर की क्षमता वाले टैंक में भेज दिया जाता है। यह टैंक एक हैंडपंप से जुड़ा है और जब भी पानी की ज़रूरत पड़ती है, हम वहाँ से निकाल लेते हैं। टैंक का ढक्कन पारदर्शी है, जिससे इसके अंदर का पानी धूप व गंदगी से बचा रहता है साथ ही हम बाहर से इस पर नज़र भी रख पाते हैं।”

 

सिर्फ इतना ही नहीं उनके घर पर खाना भी सौर ऊर्जा से चलने वाले कूकर में पकाया जाता है और घर में बिजली भी छत पर लगे 12 सोलर पैनल से मिलती है।

Bhawna Shah organic
भावना शाह।

उनका मकसद प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बगैर अधिक से अधिक संसाधनों का प्रयोग करना है। उनके यहाँ सब्जी धोने वाला पानी भी बाद में बगीचे में प्रयोग कर लिया जाता है।

भावना ‘शॉर्टकट’ में विश्वास नहीं करती, इसलिए इस सपनों के घर को बनाने से पहले कई क्षेत्रों में ट्रेनिंग ली। उन्होंने वर्मीकम्पोस्ट,  किचन गार्डनिंग, वेस्ट मैनेजमेंट की कई वर्कशॉप्स में हिस्सा लिया। मिट्टी की जटिलता समझने के लिए वह किसानों से भी मिलीं। उनका घर अब आस-पास के क्षेत्रों में एक उदाहरण बन चुका है। इनकी बेटी, जो कैलिफोर्निया में रहती है, वह भी अपने घर पर जैविक खेती करती हैं। भावना उम्मीद करती हैं कि यह व्यवस्था न सिर्फ उनका परिवार बल्कि अन्य लोग भी अपनायें।

अंत में वे कहती हैं, “मेरे लिए, घर वो है जहां सेहत है। मैं घर में मौजूद सभी ज़हरीली चीज़ों से छुटकारा चाहती थी। चाहे वो खाना हो या बिजली और पानी। इन सभी का योगदान हमें बीमार करने के लिए नहीं बल्कि हमें और हमारे पर्यावरण को स्वस्थ बनाने के लिए होना चाहिए।”

मूल लेख – अनन्या बरुआ 

संपादन – भगवती लाल तेली


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कभी नहीं गये स्कूल; कचरे से चलने वाला इंजन बनाकर इस किसान ने खड़ा किया करोड़ों का कारोबार!

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जिस उम्र में बच्चे स्कूल जाते हैं, उस उम्र में रायसिंह खेतों में अपने माता-पिता की मदद करते थे। घर में छोटे-बड़े काम संभालने से लेकर, भेड़-बकरियां चराने तक, किसी भी काम में वे पीछे नहीं हटे। रायसिंह का बचपन भले ही कितनी भी ग़रीबी में बीता हो पर वे ज़िंदगी से कभी मायूस नहीं हुए। उन्होंने सिर्फ़ मेहनत की और आज उसी मेहनत का नतीजा है कि वे एक कंपनी के मालिक हैं और देश-विदेशों में उनकी पहचान एक आविष्कारक के तौर पर है।

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में थालडका गाँव के रहने वाले रायसिंह बताते हैं, “मैं कभी खुद तो स्कूल नहीं जा पाया लेकिन छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई जारी रखवाई। मुझे पढ़ने का शौक था तो मैं अपने भाई से ही पढ़ लिया करता था। फिर खेतों में काम करते वक़्त टीलों पर मिट्टी से क, ख, ग… लिखता, गुणा-भाग करता। मैंने दसवीं के पेपर देने की भी सोची पर वो वक़्त ही ऐसा था कि कुछ हो नहीं पाया।”

रायसिंह को हर दिन कुछ न कुछ नया सीखने का चाव था। उनके गाँव में पहली बार जब बस चली तो उन्होंने मिट्टी से ही उस बस का मॉडल बना लिया। ऐसे ही जब उन्होंने पहली बार मोटरसाइकिल देखी तो उनके मन में सबसे पहले ख्याल आया कि यह कैसे बनी होगी?

 

इनोवेशन के प्रति उनकी दिलचस्पी मिट्टी के खिलौनों से शुरू होकर, धीरे-धीरे लोहे के औजार और फिर मशीनों की वर्कशॉप तक पहुँच गई।

इनोवेटर राय सिंह दहिया

साल 1979 में जब उनके यहाँ पहली बार इंजन आया तो उसे देखकर रायसिंह बहुत ही उत्साहित हो गए। अपने काम के साथ-साथ हर दिन वे कुछ वक़्त इंजन के अलग-अलग पार्ट्स के बारे में जानने में लगाते। लगभग एक साल में ही वे इंजन के एक्सपर्ट हो गए और न सिर्फ़ इंजन के बल्कि वे तो ट्रेक्टर के काम करने के लॉजिक और इंजन में आई कमी को दूर करने के तरीके भी खुद ही देखकर सीख गए।

“इसी तरह मैंने ट्रेक्टर भी ठीक करना सीख लिया। हमें अपने घर या खेत में किसी भी चीज़ की मरम्मत कराने के लिए बाहर से किसी मिस्त्री या मैकेनिक को बुलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। मैं खुद ही ये सब काम देख लेता था। इस तरह जब गाँव में दूसरे लोगों ने देखा तो वे भी अपने इंजन और ट्रेक्टर सही करवाने के लिए मेरे पास आने लगे। मैं आपको इतना कह सकता हूँ कि मुझे इंजन की भाषा समझ में आती है। मैं इंजन की आवाज़ से ही पता लगा लेता हूँ कि उसके किस पार्ट में खराबी है,” रायसिंह ने हंसते हुए कहा।

रायसिंह न सिर्फ़ खेती और मशीनों से जुड़े काम करते थे बल्कि उन्होंने तो अपना घर बनाने के लिए ईंटें भी खुद ही बना ली थीं। वे बताते हैं कि उस वक़्त खेतों पर ही उन्होंने कच्चा घर बनाया हुआ था। बारिश के मौसम में उनके घर की छत टपकने लगती और उन्हें त्रिपाल लगाकर रहना पड़ता था।

 

ऐसे में, उन्होंने सोचा कि क्यों न वे अपने खेतों में फसल के बाद बचने वाले वेस्ट को यूँ ही जलाने की बजाय अपने घर के लिए ईंटें पकाने में इस्तेमाल करें।

जैविक कचरे से चलता है यह गैसीफायर

साल 1982 में उन्होंने ईंटें बनाने के लिए चिमनी लगाई और इस चिमनी में उन्होंने खेती से निकलने वाले कचरे जैसे कि लकड़ी, भूसा और किचनवेस्ट आदि का इस्तमाल किया। इस चिमनी में उन्होंने देखा कि लकड़ियों को अन्य ईंधन के साथ जलाने पर एक गैस निकल रही है और जब वह गैस बहुत तेजी से आग पकड़ रही थी। हालांकि, उस समय उन्होंने इस पर बहुत ध्यान नहीं दिया। लेकिन बाद में यहीं गैस उनके जीवन के सबसे बड़े इनोवेशन का आधार बनी।

ईंटें बनाने के बाद रायसिंह ने अपना घर बनाया, साथ ही दुकाने भी बनाईं। उन्होंने साल 1991 के आस-पास ट्रेक्टर, जीप, इंजन आदि सही करने के लिए अपनी ‘दहिया वर्कशॉप’ शुरू की। उस समय डीज़ल इंजन की बढ़ती मांग को देखकर उन्होंने इसे एलपीजी इंजन में तब्दील करना शुरू किया क्योंकि डीज़ल काफ़ी महंगा हो रहा था। उनका यह एक्सपेरिमेंट सफल रहा।

उन्होंने आगे बताया, “एलपीजी इंजन बनाने के बाद मुझे लगा कि क्या हम लकड़ी जलने पर निकलने वाली गैस से इंजन चला सकते हैं? मैंने ऐसी मशीन बनाने पर काम किया जो कि लकड़ी के वेस्ट को (बायोमास) को गैस में तब्दील कर सकती है। इस मशीन को बनाने के बाद मुझे पता चला कि ऐसी मशीन को ‘गैसीफायर’ कहते हैं। मुझे एक सफल बायोमास गैसीफायर बनाने के लिए कई बार एक्सपेरिमेंट करने पड़े।”

इसके बाद उन्होंने डीज़ल इंजन को मॉडिफाई करके इस गैसीफायर के सहारे चलाने की कोशिश की। लेकिन इससे इंजन सिर्फ़ कुछ समय के लिए ही चल पा रहा था। मशीन पर और काम करने से रायसिंह को अंदाजा लगा कि इंजन गैस में मौजूद अशुद्धियों के चलते नहीं काम कर रहा है। इसके बाद उन्होंने इसमें फ़िल्टर लगाए जो कि गैस को फ़िल्टर करके इंजन को चलाने में मदद करे।

 

उन्होंने कई बार एक्सपेरिमेंट करके एक फाइनल गैसीफायर सिस्टम तैयार किया जिससे कि इंजन को बिना किसी परेशानी के 100-150 घंटे तक चलाया जा सकता है। आपको बार-बार फ़िल्टर खोलकर साफ़ करने की भी ज़रूरत नहीं है।

बहुत ही कम लागत पर आपको मिलती है उर्जा

 

रायसिंह बताते हैं कि, उन्होंने 1 सितंबर 2001 को अपना पहला ‘बायोमास गैसीफायर’ से संचालित इंजन सफलतापूर्वक चलाया। शुरू में अपने गाँव में ही बायोमास गैसीफायर लगाया और लोगों को अपने घरों और खेतों से निकलने वाले बायो-वेस्ट को इसमें डालने के लिए कहा। इस बायो-वेस्ट को जलाने पर जितनी भी गैस उत्पन्न होती उससे हम खेतों में इंजन चला लिया करते थे।

उनका यह इनोवेशन जब उनके अपने गाँव में काफी सफल रहा तो उन्हें बाहर से लोगों ने सम्पर्क करना शुरू किया। इस तरह उनके इस इनोवेशन की चर्चा नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन तक पहुँच गई। नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की टीम ने उनके बायोमास गैसीफायर को न सिर्फ सम्मानित किया बल्कि उसे और भी अच्छे स्तर पर मॉडिफाई करने के लिए रायसिंह की मदद भी की।

नेशनल अवॉर्ड मिलने के बाद उन्हें भारत के बाहर, जर्मनी, केन्या, घाना, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी इस बायोमास गैसीफायर बनाने के मौके मिलने लगे। इतना ही नहीं, उन्हें राष्ट्रपति भवन में पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम के सामने भी अपने इस अविष्कार को दिखाने का मौका मिला।

पूर्व राष्ट्रपति कलाम से मिलते हुए राय सिंह

“मुझे कई जगह से ऑर्डर मिलने लगे और फिर IIT, इंजीनियरिंग कॉलेज, ITI आदि के छात्र भी वर्कशॉप के लिए मेरे पास आने लगे। ऐसे में, गाँव में ही रहकर काम करना थोड़ा मुश्किल था। इसलिए मेरी बेटी ने मुझे सलाह दी कि हमें जयपुर शिफ्ट करना चाहिए ताकि किसी भी सुविधा की कमी के चलते मेरा यह काम न रुके।”

साल 2010 में रायसिंह अपने परिवार के साथ जयपुर आकर बस गए। यहाँ आकर उन्होंने Enersol Biopower Pvt Ltd. के नाम से अपनी कंपनी शुरू की। इस कंपनी को आज उनके तीनों बच्चे, दो बेटियाँ और एक बेटा मिलकर संभाल रहे हैं।

उनकी बेटी डॉ. राज दहिया खुद को बहुत खुशनसीब मानती हैं कि उनके पिता का आविष्कार न सिर्फ़ समाज के लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी उपयोगी है। वे कहती हैं, “पापा के साथ काम करके मुझे बहुत कुछ नया सीखने को मिला। आज मैं कोई साधारण नौकरी नहीं कर रही, मैं बहुत खुश हूँ कि पापा की वजह से मैं हमारे समाज, पर्यावरण और देश के लिए कुछ अच्छा कर पा रही हूँ।”

 

आज उनकी कंपनी का सालाना टर्नओवर  करोड़ रुपए से ऊपर है। उन्होंने अब तक पूरी दुनिया में 225 से ज़्यादा मशीनें बेची हैं और अभी भी उन्हें लगातार ऑर्डर मिल रहे हैं।

इस एक मशीन से आप न सिर्फ़ अपने खेतों में ट्यूबवेल चला सकते हैं बल्कि अपने घर में बिजली ला सकते हैं, वाटर पंप, आटा चक्की, आरा मिल आदि भी चला सकते हैं। इस मशीन में 1 किलोग्राम बायोवेस्ट डालने पर 1 किलोवाट उर्जा उत्पन्न होती है जिससे आप एक घंटे तक इंजन चला सकते हैं।

इस मशीन को इस्तेमाल करने से एक तो बायो-वेस्ट अर्थात खेतों से निकलने वाला कचरे, सब्ज़ी-मंडी में निकलने वाले कचरे और रसोई से निकलने वाले कचरे का सही तरीके से दुबारा इस्तेमाल हो रहा है। दूसरा, इससे हमें अन्य ईंधन जैसे कि डीज़ल, पेट्रोल पर ज़्यादा निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं है और साथ ही, यह आर्थिक रूप से किफ़ायती भी है।

आगे बात करते हुए डॉ. राज कहती हैं कि बायोमास गैसीफायर के आलावा अब वे बायोमास कुक स्टोव, बर्नर, पैलेट मशीन आदि भी बना रहे हैं। उनका उद्देश्य कम से कम लागत में आम लोगों के लिए ऐसे इनोवेशन तैयार करना है जिससे कि पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके।

अंत में वह सिर्फ़ इतना ही कहती हैं कि यदि आपके आस-पास कोई बच्चा कुछ अलग सोचता है, कुछ अलग करने की कोशिश करता है तो उसे प्रोत्साहित करें। उसका सहयोग दें क्योंकि हो सकता है कि एक दिन वह भी अच्छे इनोवेटर के रूप में उभरे।

राय सिंह दहिया की मशीन का मूल्य उर्जा की क्षमता के आधार पर है। यदि आप इस मशीन के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं या फिर इसे खरीदना चाहते हैं तो रायसिंह दहिया से 9460188117 पर संपर्क कर सकते हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली


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हर रविवार, हजारों बेघर-बेसहारा लोगों को मुफ़्त खाना खिलाता है यह ऑटो-ड्राईवर!

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“अगर चीजें वैसे हुई होती जैसा कि मैंने सोचा था, तो आज मैं जिंदा नहीं होता, ” यह कहना है 45 वर्षीय बी मुरुगन का।

साल 1992 में मुरुगन ने 10वीं की परीक्षा दी और वे फेल हो गए। इस बात से आहत होकर उन्होंने आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। आज उस घटना के 27 साल बाद वे बेघर और गरीब लोगों को खाना खिलाने के लिए एक संगठन चला रहे हैं और अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ खुश है। ‘द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए मुरुगन उस दिन को याद करते हैं जिसने उनकी ज़िन्दगी की दिशा ही बदल दी।

“मेरी जीतोड़ मेहनत के बावजूद मैं फेल हो गया था और मैं इस बात को झेल नहीं पाया। मैं घर से 300 रुपये लेकर भाग गया और तय किया कि जहां भी ये बस मुझे ले जाएगी वहीं पर मैं अपनी ज़िंदगी खत्म कर दूंगा।”

मुरुगन अवॉर्ड लेते हुए (साभार: नीलल मैयम/फेसबुक)

वह बस उन्हें उनके शहर चेन्नई से 500 किलोमीटर दूर कोयम्बटूर के सिरुमुगाई शहर ले गई और इस पूरे सफर में वे बस अपनी असफलता के बारे में सोचते रहे।

“मुझे लग रहा था कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। सुबह के दो बजे सिरुमुगाई पहुंचकर मैं फुटपाथ पर बैठ गया। वहां मेरी मुलाकात एक बूढ़े मोची से हुई, जिसने मुझे रात के लिए छत दी। मैंने बहुत से बदकिस्मत लोगों को अपने आसपास देखा, वे फुटपाथ पर सो रहे थे। उस समय मुझे अहसास हुआ कि आत्महत्या करना बहुत गलत है, जब मैं अपनी ज़िन्दगी दूसरों की मदद करते हुए गुजार सकता हूँ।”

इस सोच ने मुरुगन की ज़िंदगी बदल दी।

“मैं कभी भी वो रात और वो बूढ़े आदमी को नहीं भूल सकता जिन्होंने बिना कुछ कहे मेरी ज़िन्दगी बचाई, ” मुरुगन ने कहा।

अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताते हुए मुरुगन कहते हैं कि सिरुमुगाई बस स्टैंड पर भीख मांगने वाले सभी भिखारियों ने उनके चेन्नई वापस लौटने के लिए पैसे भी इकट्ठा किये थे। लेकिन उन्होंने वे पैसे भिखारियों को वापस लौटा दिए और वहीं रहकर कुछ अच्छा करने का फैसला किया।

उन्होंने नौकरी ढूंढी तो सबसे पहली नौकरी उन्हें पास के एक होटल में मिली जहां वे मेज साफ़ करते थे। उन्हें वहां तीन वक़्त का खाना मिल रहा था इसलिए वे वहां काम करने लगे। हर सुबह 4 बजे उठना, फिर पास के तालाब में जाकर नहाना और फिर काम पर लग जाना। मुरुगन ने 6 महीने तक यहां काम किया और इसके बाद उन्होंने अखबार बेचने का काम ले लिया। उन्हें जो भी छोटी-बड़ी नौकरी मिलती वे करते रहे।

फिर साल 2006 में उन्होंने ड्राइविंग लाइसेंस के लिए अप्लाई किया। मुरुगन कहते हैं, “जो भी पैसा मैंने ऑटो चलाकर कमाया, वह सभी बेघरों को खाना खिलाने में खर्च किया।”

मुरुगन महीने के लगभग 3000 रूपये कमा पाते थे और इन पैसे में से वे सब्ज़ी, चावल आदि खरीदकर खाना बनाते और फिर पास के स्कूल में दिव्यांग बच्चों को खिलाते। उन्होंने जैसी भी छोटी-बड़ी नौकरी की, लेकिन कभी भी ज़रूरतमंद की मदद करने से पीछे नहीं हटे।

उनके काम से प्रेरित होकर, उनके छह और दोस्तों ने उनका साथ देना शुरू किया। साल 2008 में मुरुगन ने ‘नीलल मैयम’ के नाम से अपना संगठन शुरू किया। इसका मतलब होता है ‘बेघर को छांव’!

काम करते हुए (साभार: नीलल मैयम/फेसबुक)

धीरे-धीरे उनके इस संगठन से और भी लोग जुड़ने लगे। आज यह संगठन हर रविवार को 1300 से भी ज़्यादा लोगों को सांभर चावल खिला रहा है और वह भी बिल्कुल मुफ्त। सोमवार से शुक्रवार तक ये लोग खूब मेहनत करके पैसा कमाते हैं। इसके बाद ये वीकेंड पर खाना पकाते हैं और लगभग 25 शेल्टर होम में रहने वाले लोगों को बांटते हैं। शनिवार रात से ही खाना बनाने की सारी तैयारी हो जाती है और रविवार को खाना बांटा जाता है।

मुरुगन के इस काम में उनकी पत्नी और दोनों बच्चे पूरा साथ देते हैं। इसके अलावा उन्हें बाहर से भी समृद्ध लोग मदद करते हैं। अपने एक पुराने मालिक शब्बीर इमानी का भी नाम मुरुगन इन लोगों की फेहरिस्त में जोड़ते हैं जो हर महीने इस काम के लिए कुछ न कुछ दान करते हैं। इस नेक काम में मुरुगन हर हफ्ते लगभग 20 हज़ार रुपये खर्च करते हैं। जो पहल सिर्फ एक आदमी से शुरू हुई थी, आज उसमें 50 से अधिक स्वयंसेवक जुड़ चुके हैं।

मुरुगन अंत में सिर्फ इतना ही कहते हैं कि हम सबकी जिंदगी में एक वक़्त आता है जब हमें अहसास होता है कि हम बहुत कुछ कर सकते हैं। हमें बस वक़्त के साथ चलना है। हमारे लिए भले ही यह सिर्फ एक वक़्त का खाना हो लेकिन बहुत से लोगों के लिए पूरे एक हफ्ते में सिर्फ यही एक बार पेट भर कर खाना होता है।

अगर आप मुरुगन की मदद करना चाहते हैं तो उन्हें 9865093251 पर संपर्क करें और उन्हें फेसबुक पर भी संपर्क कर सकते हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: विद्या राजा


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ईंट-सीमेंट पर खर्च किये बिना, हज़ारों किलो स्टील रीसायकल कर, कुछ ऐसे बनाया इस परिवार ने अपना घर!

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लोकल ट्रेन में लोगों की भीड़ और घर से बाहर फेंका जाने वाला कई टन भर कूड़ा! ‘सपनों का शहर- मुंबई’ का स्वरूप आज कुछ ऐसा ही हो चला है।

प्रदूषण का बढ़ता स्तर, पानी की किल्लत, कभी न खत्म होने वाले जाम, तपती गर्मी और शहर को रोक देने वाली बारिश! इस वजह से शायद हर मुंबईकर एक न एक बार इस शहर से निकलने का ज़रूर सोचता है। परदीवाला परिवार भी इससे अलग नहीं था, उन्होंने भी ऐसा ही सोचा।

हालांकि यह परिवार शहर के आलीशान इलाके कफे परेड में रह रहा था, लेकिन इन्हें ऐसी जीवनशैली की तलाश थी जो साफ हवा, पानी और शुद्ध भोजन दे सके।

ऐसे में उन्होंने शहर से 90 किमी दूर अलीबाग में अपनी एक एकड़ ज़मीन पर आरामदायक, सुंदर और सबसे ज्यादा जरुरी पर्यावरण अनुकूल ‘वेकेशन हाउस’ बनाने का फैसला किया।

घर के दो सबसे छोटे सदस्यों मिशल व मिखाइल ने इस काम को अपने हाथ में लिया।

orange house alibaug mumbai
मिशल और मिखाइल।

 

पर्यावरण में उनकी रुचि तब जगी जब 2016 में उन्होंने अपनी नौकरी को छोड़ “ट्री वेयर“ नाम की कंपनी खोली, जो पर्यावरण अनुकूल सामान बनाती है।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए मिशल बताते हैं, ”अलीबाग में एक इको फ्रेंडली घर बनाने का विचार  हमारे मन में तभी से था, जब यह कंपनी शुरू हुई थी और आखिरकार, 2018 में, हमने इस पर काम करना भी शुरू कर दिया।”

‘वेकेशन हाउस’ बनाने के लिए वे एक खास चीज़ की तलाश में थे जो पर्यावरण के अनुकूल हो। वे घर के निर्माण के लिए मलबे का विकल्प देख रहे थे। उनके पास इसके लिए और विकल्प भी थे, लेकिन उन्होंने शिपिंग कंटेनर का चुनाव किया। उन्होंने पनवेल यार्ड से 6 शिपिंग कंटेनर खरीदें। हर कंटेनर की लम्बाई 40 फीट और चौड़ाई 8 फीट थी। सभी शिपिंग कंटेनर को हाइड्रो क्रेन की मदद से अलीबाग पहुँचाया गया।

मिशल कहते हैं, ”अन्य रीसाइकल की हुई या पर्यावरण के अनुकूल सामग्रियों की तुलना में, शिपिंग कंटेनर अधिक टिकाऊ व मज़बूत होते हैं। जब भी एक कंटेनर को रीसाइकल किया जाता है, हजारों किलो स्टील का पुनःउपयोग होता है। सबसे अच्छी बात यह है कि कंटेनर का प्रयोग करने से ईंट व सीमेंट जैसी अन्य निर्माण सामग्रियों की आवश्यकता नहीं पड़ती, जिससे कार्बन फुटप्रिंट कम हो जाता है।”

 

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ऑरेंज हाउस, अलीबाग।

मलबे का विकल्प मिल जाने के बाद उन्होंने आर्किटेक्ट से संपर्क किया और शिपिंग कंटेनर से इको फ्रैंडली ”वेकेशन हाउस” बनवाने का काम दे दिया। वेकेशन हाउस में तीन बेडरूम, 1500 वर्ग फीट की छत और बीचो-बीच एक आँगन बनाया गया। अलीबाग में लाल मिट्टी और आम के बगीचे होने के चलते इस घर का नाम ‘ऑरेंज बॉक्स’ रखा गया। ‘ऑरेंज बॉक्स’ में खेलकूद के लिए पर्याप्त जगह होने के साथ ही बड़ा खुला आँगन भी है, जो बारिश के पानी को संरक्षित करने के काम आता है।

‘ऑरेंज बॉक्स’ जहाँ पर बना है वहां पानी की कमी है, इसलिए यहाँ बारिश का पानी आँगन में स्थित छोटे तालाब में जमा किया जाएगा। इसके अलावा तालाब से कुछ पानी ग्राउंड वॉटर के लिए पास के बोरवेल में भी भेजने की योजना है।

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अन्दर से ऐसा दिखता है ऑरेंज हाउस।

मिशल इस घर में एक-दो महीने बिताकर देखेंगे कि मौसम का बदलाव घर के बाहर व अंदर के वातावरण को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है। इनका विचार इसे एक ऐसी जगह के रूप में विकसित करना है, जहां लोग आ कर छुट्टियाँ मना सके। साथ ही वे लोगों के लिए योग, पौधारोपण आदि के लिए वर्कशॉप करने की भी योजना बना रहे हैं।

मूल लेख : गोपी

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कार्डबोर्ड से बना 10 रुपये का यह स्कूल बैग बन जाता है डेस्क भी!

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र सुबह, एक हाथ में प्लास्टिक में लिपटे हुए बड़े करीने से व्यवस्थित किताबों और दूसरे हाथ में एक छाता लिए हुए  आठ साल के गणेश सनस महाराष्ट्र के सातारा में अपने स्कूल तक पहुँचने के लिए बारिश की बौछारों को मात देते हुए रोज लगभग तीन किलोमीटर पैदल चलते हैं। एक बार स्कूल के अंदर जाने के बाद वह कक्षा में घूमते हैं और अपने पैरो से फर्श को छू कर अपनी किताबों को रखने और बैठने के लिए एक सूखे कोने की तलाश करते हैं। कभी-कभी वह सबसे अच्छा स्थान पाने के लिए जल्दी भी आ जाते हैं।

गणेश के साथ भारत के ग्रामीण हिस्सों में हजारों बच्चों के लिए डेस्क पर किताबों के साथ एक कुर्सी पर बैठ कर पढ़ाई करना किसी सपने से कम नहीं है। जबकि आप और हमारे लिए यह आसानी से उपलब्ध होने वाली चीज है।

कार्डबोर्ड से बना यह 10 रुपये का स्कूल बैग ग्रामीण बच्चों के लिए एक डेस्क के रूप में भी काम करता है!

Source: Marji Lang/Flickr   

ग्रामीण भारत के ज़रूरतमंद स्कूली बच्चों के इस दर्द को शोभा मूर्ति ने समझा। शोभा ने ‘आरम्भ’ नाम का एक एनजीओ शुरू ​किया। जिसके जरिये वह इन स्कूली बच्चों को हेल्प डेस्क उपलब्ध करा रही है। यह हेल्प डेस्क रीसाइकल किये हुए कार्डबोर्ड से बनी एक पोर्टेबल मल्टी-फंक्शनल डेस्क है। इसे लिखने की डेस्क और स्कूल के बैग दोनों ही तरह उपयोग किया जा सकता है।

शोभा कहती हैं, चीजें जो हम नज़रअंदाज़ करते हैं। वह अक्सर सबसे महत्वपूर्ण होती हैं। डेस्क, कुर्सी या ब्लैक बोर्ड किसी भी स्कूल की सबसे बेसिक ज़रूरत होती है। लेकिन इसके बावजूद ग्रामीण भारत के सैकड़ों स्कूलों में यह सुविधा नहीं है। इस छोटी सी परेशानी को दूर करने और एक स्थायी समाधान लाने के लिए यह हमारा प्रयास है जो मात्र 10 रुपये के डेस्क से मुमकिन हो रहा है।

शोभा पिछले 22 वर्षों से शिक्षा क्षेत्र में काम कर रही है। उनका फोकस विशेष रूप से ग्रामीण भारत के सैकड़ों वंचित स्कूलों पर है। शोभा के प्रयासों के चलते शहरी झुग्गी, बस्तियों और महाराष्ट्र के दूर-दराज़ क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर सुधरा है। ज़रूरतमंद बच्चों को स्कूल में सुविधाएँ मिलने लगी है। हेल्प डेस्क इसी कड़ी में उनका नया प्रयास है जो कारगर सिद्ध हो रहा है।

कार्डबोर्ड से बना यह 10 रुपये का स्कूल बैग ग्रामीण बच्चों के लिए एक डेस्क के रूप में भी काम करता है!

 

शोभा बताती हैं कि, फर्श पर बैठ कर लम्बे समय तक लिखने से बच्चों को परेशानी होती है। उनको झुकने के साथ ही आँखों पर दबाव भी डालना पड़ता है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ऐसे में बच्चों की इस परेशानी को दूर करने के लिए इसका एक स्थायी समाधान खोजने की आवश्यकता थी। ऐसे में उन्होंने हेल्प डेस्क के रूप में इसका समाधान ढूंढा।

कार्ड बोर्ड के बक्सों से बनाए गए डेस्क

यह इनोवेटिव हेल्प डेस्क 2017 में महाराष्ट्र के सातारा जिले के कई स्कूलों में लॉन्च किए गए। यह रेफ्रिजरेटर के बक्सों  और कार के स्पेयर-पार्ट्स से बने हुए थे। इसको बनाने के लिए स्टैंसिल डिजाइन के आधार पर कार्डबोर्ड कटआउट बनाए गए और बाद में उसे स्कूल डेस्क की तरह बदला गया।

इस प्रक्रिया को और सरल बनाने के लिए एक लेज़र कटिंग मशीन का उपयोग किया गया। रीसाइकल्ड कार्डबोर्ड से एक डेस्क बनाने में 10 से 12 रुपए के बीच खर्च आता है। ऐसे में एनजीओ उन्हें मुफ्त में वितरित करने में सक्षम होते हैं। डेस्क के उपयोग का नतीजा यह था कि बच्चे आराम से बैठ सकते थे और लम्बे समय तक स्कूल में पढ़ सकते थे।

 

कार्डबोर्ड से बना यह 10 रुपये का स्कूल बैग ग्रामीण बच्चों के लिए एक डेस्क के रूप में भी काम करता है!
Source: Ricardo França/Flickr

आरंभ का बनाया हेल्प डेस्क न केवल एक सस्ता विकल्प है बल्कि वजन में हल्का और पोर्टेबल भी है। कक्षा खत्म होने पर बच्चे उन्हें एक कॉम्पेक्ट ब्रीफकेस या ज़रूरत पड़ने पर बैग की तरह पैक कर रख सकते हैं। अब तक आरम्भ पश्चिमी महाराष्ट्र में इस डेस्क की मदद से 2 हजार बच्चों के जीवन को बदलने में सफल हो चुका है।

शोभा कहती है, “हमें उम्मीद नहीं थी कि यह इतना हिट होगा। अब कई और स्कूल भी इसके लिए पूछ रहे हैं। अब यह न केवल महाराष्ट्र में बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बना चुका है। आरम्भ की कोशिश है कि इसे वॉटरप्रूफ और  मजबूत बनाया जाए ताकि बारिश के दिनों में भी इसका उपयोग हो सके। आरंभ इस प्रोजेक्ट को रोज़गार के साधन के रूप में विस्तारित करने की योजना बना रहा है। ग्रामीणों को हेल्प डेस्क बनाने और उससे कमाई के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसके लिए परिवहन लागत, मशीनरी और प्रोजक्ट के लिए करीब 14 लाख रुपए की आवश्यकता पड़ेगी। हमारे पास अब तक 6 लाख रुपए फंड इकट्ठा हो चुका है।”

कार्डबोर्ड से बना यह 10 रुपये का स्कूल बैग ग्रामीण बच्चों के लिए एक डेस्क के रूप में भी काम करता है!
Source: Aarambh

आरंभ का हेल्प डेस्क एक ऐसा प्रोजेक्ट है,जो बड़े पैमाने पर लोगों की आजीविका और बच्चों की पढ़ाई पर अच्छा प्रभाव ला सकता है। यह उन बच्चों की पढ़ाई के स्तर को बढ़ा सकता है जिन्हें स्कूल में डेस्क जैसी सुविधाएँ नहीं मिल पाती हैं। आप अधिक जानकारी के लिए और आरम्भ की इस क्रांति में मदद करने के लिए उनके फेसबुक पेज या ऑफिशियल वेबसाइट पर संपर्क करें।


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‘उल्टा छाता’ : सौर उर्जा के साथ बारिश का पानी इकट्ठा करने वाला भारत का पहला रेलवे स्टेशन!

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क्षिण केन्द्रीय रेलवे ने आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले के गुंतकल रेलवे स्टेशन पर सौर उर्जा और वर्षा जल संचयन के लिए ‘उल्टा छाता’ कैनोपी लगाकर सस्टेनेबिलिटी की तरफ एक अहम कदम उठाया है।

उन्होंने रेलवे स्टेशन के पास छह कैनोपी लगाई है, जो कि उलटे छाते के आकार में है। इन कैनोपी के ऊपर की तरफ सोलर पैनल लगाए गए हैं और नीचे की ओर बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए चैम्बर है। प्रत्येक कैनोपी का साइज़ 5×5 मीटर और वजन लगभग 120 किलो है। एक कैनोपी में 60 हज़ार लीटर पानी स्टोर करने की क्षमता है।

दक्षिण केन्द्रीय रेलवे के चीफ पब्लिक रिलेशन्स ऑफिसर राकेश ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया, “दक्षिण केन्द्रीय रेलवे हमेशा से ही इस तरह के ग्रीन इनिशिएटिव लेने के लिए आगे रहता है। यह भी रेलवे द्वारा की गई सबसे अलग पहल है और इससे हमारे जल-संरक्षण पर चल रहे प्रोजेक्ट्स में तो मदद मिल ही रही है, साथ ही हमारे स्टेशन की खूबसूरती भी बढ़ रही है।”

वे आगे बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट पर दक्षिण केन्द्रीय रेलवे ने लगभग 14 लाख रुपए की राशि खर्च की है। हर एक कैनोपी पर 40 वाट का एलईडी लैंप लगाया गया है, जिसमें लिथियम-आयन बैटरी है। साथ ही, इनमें ऑटोमेटेड सेंसर कंट्रोल और एक मोनोक्रिस्टेलाइन फ्लेक्सिबल पैनल लगाए हैं।

ये हल्के वजन के पैनल सौर उर्जा से चलने वाली बैटरी को चार्ज करते हैं, जिनका इस्तेमाल आपातकालीन स्थिति में किया जा सकता है। इन सभी यूनिट्स में पहले से ही इन्वर्टर लगाया हुआ है।

इसके अलावा इन कैनोपी में जो भी वर्षा जल इकट्ठा होता है, उसमें से कुछ को एक टैंक में स्टोर किया जाता है और बाकी पानी का इस्तेमाल भूजल का स्तर बढ़ाने के लिए होता है। राकेश कहते हैं कि टैंक में स्टोर पानी को साफ़-सफाई और बागवानी के काम में लिया जाता है।

‘उल्टा छाता’ तकनीक को एक ग्रीन टेक्नोलॉजी स्टार्टअप, ‘थिंकफाई’ ने इजाद किया है, जिसकी शुरुआत सुमित चोकसी और उनकी पत्नी प्रिया वकील चोकसी ने की है।

गुंतकल भारत का पहला रेलवे स्टेशन है जहाँ पर ‘उल्टा छाता’ तकनीक को इंस्टॉल किया गया है। बारिश के मौसम में जहाँ ये कैनोपी वर्षा-जल संरक्षण करेंगी, वहीं धूप में सौर पैनल बिजली उत्पादित करेंगे। ‘स्वच्छ रेल, स्वच्छ भारत’ अभियान के तहत प्लास्टिक पर बैन और स्टेशन परिसर में प्लास्टिक बोतल क्रशर लगाने से लेकर गीले कचरे से खाद बनाना और वर्टीकल गार्डन लगाने तक, दक्षिण केद्रीय रेलवे बहुत से हरित कदम उठा रहा है।

उनके ऐसे ही प्रयासों के चलते साल 2017 में सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन को इंडियन ग्रीन बिल्डिंग काउंसिल- कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडस्ट्री (IGBC-CII) ने भारत का पहला ‘ग्रीन रेलवे स्टेशन’ होने का टैग दिया। इस स्टेशन परिसर में जैवक खाद का इस्तेमाल करके 408 किस्म के पेड़-पौधे लगाए गए हैं।

स्टेशन पर एक सोलर पॉवर प्लांट भी है जिससे दिन की 2500 यूनिट उर्जा उत्पन्न होती है और इससे स्टेशन की 37% बिजली की मांग की आपूर्ति होती है। इसके अलावा, स्टेशन पर प्लास्टिक बोतल क्रशिंग मशीन, बायो-टॉयलेट्स, रेनवाटर हार्वेस्टिंग पिट और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट भी है।

इसी तरह, हैदराबाद के काचेगुडा रेलवे स्टेशन पर भी कम्पोस्ट मशीन और बोतल क्रशिंग मशीन लगाई गई है। कम्पोस्ट मशीन से हर दिन 125 किलो वेस्ट प्रोसेस किया जाता है और क्रशिंग मशीन से 2-3 किलो वेस्ट प्लास्टिक बोतल को क्रश किया जाता है।

बेशक, दक्षिण केन्द्रीय रेलवे की इन पहलों से अन्य रेलवे विभागों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए और पर्यावरण के अनुकूल इस तरह के अच्छे कदम उठाने चाहिए!

संपादन: भगवती लाल तेली 
(Inputs from Gopi Karelia)


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MNC की नौकरी ठुकरा, उड़ीसा-बिहार के किसानों की ज़िंदगी बदलने में जुटा है यह IIT ग्रेजुएट!

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मान ​लीजिए कि आपने IIT खड़गपुर से इंजीनियरिंग की है। घर वाले आपकी किसी बड़ी कम्पनी में नौकरी लगने का इंतजार कर रहे हैं। इधर, आप प्लेसमेंट के लिए न बैठकर अपने दोस्त के साथ भविष्य में कुछ अलग करने का सपना देख रहे हैं। ग्रेजुएशन के बाद घर आकर एक दिन आप बोलते हैं कि आप नौकरी न करके खुद का कुछ करेंगे। मच जाएगा न घर में कोहराम। शुरू हो जाएगा न इमोशन ब्लैकमेलिंग का सिलसिला।

ऐसा ही कुछ मनीष कुमार के साथ भी हुआ। मनीष भले ही अपनी माँ का दिल रखने के लिए आईबीएम के इंटरव्यू के लिए बैठे, सलेक्शन भी हो गया। लेकिन उन्होंने कभी कंपनी को जॉइन नहीं किया।

जब मनीष के घरवालों को इस बात का पता चला, तो उनके घर में परेशानियां खड़ी हो गई। 2011 में उनके पिता रिटायर होने वाले थे और बड़े भाई एक छोटे-से स्कूल में टीचर थे जहां से सिर्फ गुज़ारे लायक आमदनी थी। बहन की शादी भी उन्हें करनी थी। जब हर कोई उनके इस फैसले के खिलाफ़ था तो उनके पिता ने उनका साथ दिया। उनके पिता ने कहा, “सिर्फ़ पैसे के लिए कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि जिसमें तुम्हारा दिल है वो करो।”

घरवालों को नहीं पता था क्या होता है IIT

क्लर्क पिता की संतान मनीष बताते हैं कि जब उनका आईआईटी के लिए चयन हुआ। उस वक्त तक भी उनके घर में किसी को नहीं पता था कि आईआईटी क्या होता है ? कैसी पढ़ाई होती है ? जब उनके पिता को शहर के एसडीओ ने खुद फ़ोन करके उनके दाखिले की बधाई दी। तब उन्हें पता चला कि IIT में एडमिशन होना कितनी बड़ी बात है।

2005 में मनीष IIT खड़गपुर पढ़ने चले गए। यहीं पर पढ़ाई के दौरान उनके सामाजिक जीवन की शुरूआत हुई। हालांकि, इस चीज का श्रेय वे अपने एक दोस्त को देते हैं, जो कि रांची के पास एक आदिवासी गाँव में जाकर वहां बच्चों को पढ़ाता था।

मनीष कुमार

“तब तक मुझे लगता था कि सभी दिक्कतें हमारे साथ ही है। जब मैं उसके साथ वहां गया तो देखा कि उन बच्चों के पास पहनने के लिए कपड़े और खाने के लिए अच्छा खाना भी नहीं था। ऐसे में मुझे लगा कि हमें तो फिर भी इतना कुछ मिला है कि हमारी ज़िंदगी आराम से बसर हो जाए।”

बस उसी दिन से उन्होंने समस्याओं से परेशान होना या फिर किस्मत को दोष देना छोड़ दिया। बल्कि उन्होंने अपने लाइफस्टाइल को ही ऐसा रखा कि कभी कोई कमी लगी ही नहीं। अपने कॉलेज के दिनों में उन्होंने पास के गाँव में जाकर बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। अपने साथ और साथियों को भी जोड़ा व अपने ग्रुप को ‘संभव’ नाम दिया। इतना ही नहीं वे कॉलेज और हॉस्टल से पुराने अखबार ले जाते और वहां कि महिलाओं से पेपर बैग बनवाकर बाज़ार में बेच देते। इससे गाँव की औरतों के हाथों में छोटा ही सही पर अच्छा रोज़गार हो गया था ।

बिहार बाढ़ में भी भेजी थी मदद

साल 2009 में जब बिहार में बाढ़ आई, तब भी मनीष ने एक हॉस्टलमेट के साथ मिलकर मात्र 10-15 दिनों में करीब 2 लाख रुपए इकट्ठा किए और बिहार के लोगों की मदद के लिए भेजे थे।

वह कहते हैं, “जब हमने फंड इकट्ठा किया तो सबसे यही अपील थी कि 10 रुपये से लेकर 1000 तक, जिसकी जितनी इच्छा हो, वह उतना दे सकता है। तब हमने जाना कि किसी को दान देने के लिए लोगों का अमीर व गरीब होना मायने नहीं रखता है। बात बड़े घर की नहीं बल्कि बड़े दिल की होती है। जो लोग मौज मस्ती में हजारों रुपए यूं ही खर्च कर देते थे उनसे हमें कुछ खास मदद नहीं मिली लेकिन जिन लोगों के लिए घर चलाना मुश्किल था उन्होंने हर संभव मदद की

दोस्त के साथ शुरू किया ‘फार्म्स एंड फार्मर्स’ नाम से पहला स्टार्ट-अप

अब मनीष अपने इस सपने को पूरा करने में लग गए। उन्होंने अपने दोस्त शशांक के साथ मिलकर एक स्टार्ट-अप शुरू करने की सोची । हालांकि यह शशांक का आइडिया था। वे एक ऐसा स्टार्ट-अप शुरू करना चाहते थे जो किसानों के लिए काम करेगा। जो गांवों में किसानों को बताए कि पारम्परिक फसलों के अलावा वे और कौन-सी व्यवसायिक फसलें उगा सकते हैं। उनके लिए एक्सपर्ट्स और कृषि वैज्ञानिकों द्वारा वर्कशॉप करवाए। उन्नत बीज, खाद, सिंचाई के तरीके और कृषि के लिए नई-नई तकनीकों को किसानों तक पहुँचाया।

किसानों के उत्थान को बना लिया जीवन का लक्ष्य

मनीष कहते हैं “तब तक मुझे लगता था कि स्टार्ट-अप बड़े लोगों की चीज़ होती है। शशांक से बात करके लगा कि शायद यही वह काम है जिसे करने में हमें ख़ुशी होगी।”

इसके बाद उन्होंने अपने आख़िरी सेमेस्टर से ही इस पर काम शुरू कर दिया। उन्होंने अपने स्टार्ट-अप का नाम ‘फार्म्स एंड फार्मर्स’ रखा। शशांक ने दिल्ली में रहकर बाज़ार का सर्वे किया ताकि वे फंडिंग जुटा सके और पहले ही फसलों को बेचने के लिए खरीददार तैयार कर ले। मनीष ने अपने और आस-पास के गाँवों में जाकर किसानों से बात करना व उन्हें समझाना शुरू किया।

“यह काम जितना आसान लगा था, उतना था नहीं। क्योंकि कोई भी किसान अपनी पारंपरिक खेती छोड़कर कोई और फसल उगाने का रिस्क क्यों ही लेता और वह भी कॉलेज में पढ़े 21-22 साल के लड़के के कहने पर।”

शुरू में बहुत ही कम किसान हुए राजमा की खेती के लिए तैयार

अक्टूबर 2010 में मनीष ने ग्रामीण स्तर पर काम करना शुरू कर दिया। घर-घर जाकर किसानों से मिले, फिर कृषि अनुसन्धान संस्थानों में जाकर साइंटिस्ट, एक्सपर्ट्स से मिले। उस समय बिहार में बारिश काफी कम हुई थी तो उन्होंने एक्सपर्ट्स की राय पर किसानों को गेंहू की जगह राजमा, मंगरैला या फिर सूरजमुखी की खेती करने का सुझाव दिया। लेकिन बहुत ही कम किसान उनके कहने पर राजमा की खेती के लिए तैयार हुए।

पूरे गाँव में सिर्फ 3 एकड़ ज़मीन पर ही राजमा की खेती हुई। मनीष के लगातार प्रयासों से किसानों को हर तरीके से मदद मिली। अप्रैल, 2011 में कटाई हुई तो किसानों को बाजार में फसल बेचने पर काफी मुनाफा हुआ क्योंकि उनके लिए खरीददार भी मनीष और उनकी टीम ने पहले ही फिक्स किए हुए थे।

इसके बाद उन्होंने गांवों में ऐसे सेंटर खोलने पर ध्यान दिया, जहां पर किसानों की हर एक मुश्किल का हल हो सके। उन्नत किस्म के बीज-खाद, एक्सपर्ट्स की सलाह, मौसम की जानकारी, अलग-अलग फसल उगाने की ट्रेनिंग आदि सभी एक ही सेंटर पर मिले। सबसे पहले उन्होंने वैशाली गाँव में यह सेंटर शुरू किया और नाम रखा ‘देहात’!

आज इस नाम से 100 से भी ऊपर सेंटर हैं। एक और बेहतर काम, जो मनीष ने किया, वह था कि इन सेंटर्स को चलाने की ज़िम्मेदारी गाँव के ही किसी किसान को दी गई। किसान खुद अपने गाँव में यह सेंटर चलाए, ताकि अन्य किसानों को कहीं दूर जगह जाकर मदद न लेनी पड़े। साथ ही इससे किसान की अतिरिक्त आय भी मिले ।

फिर ज़ीरो से शुरू किया अपना ‘बैक टू विलेज’

मनीष ने साल 2015 तक फार्म्स एंड फार्मर्स के साथ काम किया। लेकिन विचारों में भिन्नता और कुछ निजी मतभेद के चलते उन्होंने संगठन से अलग होने का फैसला किया। उन्होंने अलग होने पर भी इस संगठन से कोई हिस्सा या शेयर नहीं माँगा। साल 2014 के अंत से ही मनीष ने संगठन से अलग होने का मन बना लिया था। तब तक उन्हें नहीं पता था कि वे इसके बाद क्या करेंगे। ऐसे में एक बार फिर किस्मत ने उनका रास्ता तय किया।

मनीष बताते हैं, “इस क्षेत्र में लोगों के लिए काम करने की भावना इतनी प्रबल है शायद इसीलिए मुझे एक बार फिर मेरी राह मिल गई। क्योंकि इसी समय मेरी बात मेरी एक और पुरानी बैचमेट पूजा भारती से हुई, जो उस वक़्त केन्द्र सरकार के साथ कार्यरत थी।”

पूजा भारती, मनीष की दोस्त और बैक टू विलेज की को-फाउंडर

पूजा काफी वक़्त से मनीष के काम को फॉलो कर रही थी और उन्होंने मन बना लिया था कि वे अपनी नौकरी छोड़कर उनके साथ किसानों के लिए काम करेंगी । इसलिए जब मनीष ने फार्म्स एंड फार्मर्स छोड़ने का मन बनाया तो पूजा भी वड़ोदरा से अपनी नौकरी छोड़कर कुछ वक़्त के लिए असम चली गई। वहां उन्होंने ‘अमृत खेती’ की ट्रेनिंग ली और खेती से सम्बंधित और भी कई चीजों को सीखा।

“मैंने और पूजा ने प्लान किया कि हम अपना ऐसा संगठन शुरू करेंगे जो जैविक खेती को बढ़ावा दे। लेकिन हम बिहार से शुरू नहीं कर सकते थे क्योंकि यहां सबके लिए फार्म्स एंड फार्मर्स का मतलब था मनीष। इसलिए हमने उड़ीसा के आदिवासी इलाकों से शुरुआत करने का फैसला किया,” मनीष ने कहा।

लगभग 1 साल के ग्राउंड वर्क के बाद पूजा और मनीष ने अप्रैल, 2016 में उड़ीसा के मयूरभंज जिले से ‘बैक टू विलेज’ को लॉन्च किया। उन्होंने इस जिले के पांच गांवों को चुना और किसानों के साथ मिलकर जैविक खेती पर काम शुरू किया। यहां उन्हें काफी अच्छा रिस्पांस मिला। वे आदिवासी किसानों के लिए एक्सपर्ट्स द्वारा ट्रेनिंग करवाते, अलग-अलग तरह के देसी बीज के लिए बाजार उपलब्ध करवाते और उन्हें जैविक खाद आदि बनाने की ट्रेनिंग भी देते थे।

‘बैक टू विलेज’ संगठन

“यहां भी हमारा मकसद हर एक गाँव में ऐसा ही एक सेंटर तैयार करना था, जहां किसानों को सभी जानकारी मिल सके। इस बार हम जैविक खेती पर काम कर रहे थे और जैविक खेती के लिए किसानों को तैयार करना आसान नहीं होता। इसलिए हमने निश्चित किया कि हम हर एक सेंटर के साथ छोटा-सा ऑर्गेनिक फार्म भी तैयार करेंगे, जहां पर किसी भी सरकारी वैज्ञानिक को बुलाकर किसानों को ट्रेनिंग करवाई जा सके। साथ ही उनके लिए एक जैविक फार्म का उदाहरण भी रहे।”

इसके लिए उन्होंने 3 एकड़ की ज़मीन लेकर काम शुरू किया। अपने इस ऑर्गनिक फार्म सेंटर पर उन्होंने एक छोटा-सा तालाब बनाया। पेड़-पौधे लगाए। जैविक खाद तैयार करने के लिए एक-दो गाय – भैंस भी खरीदी । फार्म पर एक-दो व्यक्तियों के रहने के लिए कमरा भी बनाया। इस ऑर्गेनिक फार्म सेंटर का काम अभी भी चल रहा है।

बैक टू विलेज के साथ 5000 किसान हुए रजिस्टर्ड

‘बैक टू विलेज’ के साथ अब तक 5000 किसान रजिस्टर्ड हो चुके हैं। उनके काम को देखते हुए इस साल उन्हें ONGC कंपनी ने सीएसआर फंडिंग दी है। उन्हें उड़ीसा के तीन जिलों, मयूरभंज, बालेश्वर और पुरी में 10 आर्गेनिक फार्म सेंटर बनाने का प्रोजेक्ट मिला है।

“इन सेंटर्स के साथ-साथ हम किसानों के लिए इन्फॉर्मेशन कियोस्क तैयार करने पर भी काम कर रहे हैं। इन कियोस्क पर किसानों को सरकारी योजनाओं, नवीन तकनीकी, बाज़ार के भाव और मौसम के बारे में जानकारी दी जाएगी। साथ ही हर फसल के मौसम में कम से कम 3 ट्रेनिंग सेशन किसानों के लिए होंगे।

वह आगे बताते हैं कि उन्होंने अपने इस संगठन के लिए कोई भी निजी फंडिंग नहीं ली है ताकि उनका संगठन नॉन-प्रॉफिट ही रहे। लेकिन वे ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे एनजीओ के साथ टाई-अप कर रहे हैं, जिससे वे पिछड़े से पिछड़े गाँवों में भी किसानों तक पहुँच पाएं।

वे किसानों के लिए एक भरोसेमंद और पारदर्शी बाजार तैयार करना चाहते हैं, जहां किसानों को उनकी लागत और मेहनत के अनुसार फसल की कीमत मिले। अंत में वे सिर्फ इतना ही कहते हैं,

“मैं नहीं समझता कि मैं किसी और के लिए कुछ कर रहा हूँ। इसलिए ‘वेलफेयर’ या फिर ‘फेवर’ जैसे भारी शब्दों के जाल से हम बचते हैं। क्योंकि मैं और मेरी टीम, यहां जो कुछ भी कर रही है, वह अपनी ख़ुशी से, अपनी आत्म-संतुष्टि के लिए कर रही है। इस काम को करके मुझे सुकून मिल रहा है। मुझे तो इन किसानों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि वे अपने साथ काम करने का मौका देकर मुझे यह ख़ुशी और सुकून दे रहे हैं।”

यदि आप भी मनीष कुमार की इस पहल से जुड़ना चाहते हैं तो 7682930645 पर संपर्क कर सकते हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली


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इस किसान की बदौलत शिमला ही नहीं, अब राजस्थान में भी उगते हैं सेब!

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कुछ कर गुजरने का जज़्बा हो तो देर-सवेर आपको सफलता मिल ही जाती है। सफलता की यह कहानी भी कुछ ऐसा ही इशारा करती है।

हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की घुमारवीं तहसील के पन्याला (कोठी) के रहने वाले हौसले के धनी किसान हरिमन शर्मा अपने गाँव से 150 किलोमीटर दूर सेब की लहलहाती फसलों की सफलता की कहानियां सुनते हुए बड़े हुए। उनके मन में शुरू से ही चाह रही कि उनके यहां भी सेब उग जाए।

‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए वे बताते हैं, “मैंने सुन रखा था कि सेब उगाने के लिए आपके आसपास बर्फ और ठंडा मौसम होना जरूरी होता है। मैंने स्कूल की किताबों में भी पढ़ा था कि हिमाचल में नीचे के इलाकों में सेब नहीं उग सकता। शुरू से ही मेरी ख़्वाहिश थी कि मेरे खेतों में भी सेब उग आए तो कितना अच्छा हो!”

वे हमेशा सेब खाने के बाद उसके बीजों को अपने आंगन में बिखेर देते और रोज़ निहारते कि काश सेब का पेड़ उग आए, उस में से सेब निकल आए। बचपन में अक्सर उनके दिन इसी तरह गुज़रते। फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ, जिसने उनकी ज़िंदगी बदलकर रख दी। 1999 में उन्होंने अपने बगीचे में फेंके गए पुराने बीजों से उगी हुई सेब की पौध देखी। हरिमन को बरसों से इसी दिन का इंतज़ार था। उन्होंने तुरंत इस पर काम करना शुरू कर दिया।

 

2001 में उन्होंने जब पहली बार एक पौधे में छोटे आकार के सेब लगे देखे तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। 

Hariman sharma Apple variety
हरिमन 99 एप्पल।

इसे उन्नत करने के लिए इन्होंने इनकी कई तरह से कलम की। दूसरे साल में कुछ कलमे सफल हुई और सेब के फलों की गुणवत्ता में सुधार करने की उनकी आशा और बढ़ गई।

2003 से 2005 तक उन्होंने शिमला से कुछ नए रूट स्टॉक के पौधे लाकर उस पर ग्राफ्टिंग की और अपने शोध को जारी रखा। उन्होंने सेब के पेड़ो का एक छोटा सा बगीचा लगाया, जो आज तक फल दे रहा है। इस बगिया को दूसरे शब्दों में हरिमन शर्मा के संघर्ष और शोध का जीता जागता प्रत्यक्षदर्शी उदाहरण कहा जा सकता है।

समतल इलाकों में सेब की खेती के लिए प्रजाति व उसकी उपयुक्त प्रणाली विकसित करने के लिए हरिमन शर्मा ने अपने शोध को 2 चरणों में पूरा किया। सबसे पहले उन्होंने उपलब्ध सेबों में से प्राप्त बीजों को निचले क्षेत्र में जांचा, जिसका मुख्य आधार अंकुरण और विकास शक्ति था। दूसरे चरण में उन्होंने बेहतर किस्म को उपलब्ध रुट-स्टॉक्स के साथ ग्राफ्ट करके ऐसी पौध सुनिश्चित करने पर बल दिया जो बेहतर गुणवत्ता के फल दे सके।

अंततः उन्हें सेब की एक ऐसी उन्नत किस्म विकसित करने में सफलता मिल गई जो मैदानी, उष्ण कटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में बड़ी आसानी से विकसित हो सकती थी । इस किस्म को पनपने, फूल और फल आने के लिए कड़ी ठंड की आवश्यकता नहीं थी ।

 

जहां गर्मियों में तापमान 40 से 48 डिग्री तक रहता है, वहां भी यह किस्म बड़ी आसानी से पनप सकती है। इस उन्नत किस्म में स्व-परागण पाया जाता है। आप अपने आंगन या बगीचे में इसका एक पौधा भी लगा सकते हैं।

hariman sharma apple variety 99
उनकी विकसित की हरिमन 99 किस्म के पौधे पर लगे सेब।

2007 से 2012 के दौरान उन्होंने अपने शोध यानी सेब की इस उन्नत प्रजाति को लोगों तक पहुंचाने के लिए बहुत संघर्ष किया। मदद के लिए उन्होंने राज्य के विश्वविद्यालय और कृषि विभाग से भी संपर्क किया, लेकिन ज़्यादातर ने उनके शोध को सिरे से नकारते हुए, उन्हें हतोत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पर वे भी एक अलग मिट्टी के बने हुए थे, हार कैसे मान लेते?

कुछ वैज्ञानिकों ने उन्हें यह भी तर्क दिए कि सेब की कुछ ऐसी प्रजातियां भी होती हैं, जो ज़्यादा तापमान में फल दे सकती हैं। इस पर उन्होंने कहा कि यदि इस प्रकार की प्रजातियां होती हैं, तो फिर क्यों उन्हें अब तक किसानों तक नहीं पहुंचाया गया?

वे अपने अनुसंधान और प्रसार के लिए किसी भी तरह की मदद पाने में विफल ही रहे। ऐसे में सबसे पहले सेवानिवृत्त बागवानी विशेषज्ञ डॉ. चिरंजीत परमार ने भारत में कम चिलिंग वाले सेब की खेती की दिशा में उठाए गए अद्वितीय और अभिनव कदम के लिए उन पर एक लेख लिखा। इसके बाद 2013 में ‛पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण’ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. पीएल गौतम ने उनके द्वारा सेब पर किए जा रहे कार्य के मूल्यांकन और संवर्धन के लिए राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान  (एनआईएफ) को सूचित किया।

 

hariman sharma Apple variety
मणीपुर में उगे हुए सेब।

साल 2014 में सबसे पहले हिमाचल प्रदेश के निचले क्षेत्र में उनके द्वारा विकसित सेब की प्रजाति का मूल्यांकन किया गया। मूल्यांकन में यह बात सिद्ध हो गई कि वास्तव में यह प्रजाति निचले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त सिद्ध हो सकती है। राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान ने इस किस्म को ‘एचआरएमएन-99’ (HRMN-99, HRMN= हरिमन, 99= वर्ष 1999) नाम दिया और पंजीयन के लिए ‛पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण’ को आवेदन किया। इतना ही नहीं, इस किस्म की जांच के लिए एक नर्सरी की स्थापना करने और पौध तैयार करने के लिए 2.5 लाख रुपये का सहयोग भी प्रदान किया।

2014-15 से राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान ने सेब की इस किस्म की जांच व प्रसार के लिए मल्टी लोकेशन ट्रायल शुरू किए। राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान ने 2014 से 2019 के बीच देश के 29 राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों के 1500 किसानों और 25 संस्थाओं में इस किस्म के लगभग 20,000 पौधे लगवाएं।

 

अब तक 23 राज्यों क्रमशः बिहार, झारखंड, मणिपुर, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दादरा और नगर हवेली, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, जम्मू और कश्मीर, पंजाब, केरल, उत्तराखंड, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, पांडिचेरी, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में फ्रुटिंग शुरू हो गई है।

Hariman Sharma Apple Variety
राजस्थान में भी हो रही सेब की खेती।

एनआईएफ की ओर से इस किस्म पर शोध कर रहे रिसर्च एसोसिएट डॉ. नौशाद परवेज़ कहते हैं, “निचले और समतल क्षेत्रों में इस किस्म के सेब की खेती संभव है, पौधे पर सेब का लगना और सेब की खेती शुरू होना दो अलग-अलग बातें हैं। नए क्षेत्रों में सेब की खेती शुरू करने के लिए काफी जानकारियां जुटाने की आवश्यकता है। हालांकि कुछ क्षेत्रों में अध्ययन के उत्साहजनक परिणाम देखने को मिले हैं।”

‘एचआरएमएन-99’ सेब की किस्म में सफलता मिलने के बाद अन्य सेबों की दूसरी विदेशी क़िस्मों पर भी जांच शुरू हो गई है, जो निचले इलाकों में फल दे सकती है। इसमें ‛अन्ना’ और ‛डोर्सेट गोल्डन’ में तो फल भी आना शुरू हो गए हैं। राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान ने इन प्रजातियों के फलों की गुणवत्ता की जांच और आणविक रूपरेखा (Molecular Profiling) की है। 2017-18 की जांच में पाया गया है कि 3 से 5 वर्ष की आयु वाले ‘एचआरएमएन-99’ पौधे निचले हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और मणिपुर के चार जिलों में प्रति पौधा 5 से 75 किलोग्राम फल प्रति वर्ष उत्पादन कर रहे थे।

‘एचआरएमएन-99’ का फल मध्यम  पीला, लाल, छीट लिए हुए, खट्टे मीठे स्वाद जैसी विशिष्ट विशेषताओं के साथ था। तीनों किस्में ग्राफ्टिंग से तैयार करके विभिन्न क्षेत्रों में लगाई गई थी, ‘एचआरएमएन-99’ का फल नरम और रसदार गूदे के साथ पाया गया। परिपक्वता के दौरान त्वचा का रंग पीले से अधिक लाल हो गया था। आणविक जांच में यह पाया गया कि ‘एचआरएमएन-99’ और ‛अन्ना’ में कम विभिन्नताएं थी, जबकि ‛डोर्सेट गोल्डन’ ‘एचआरएमएन-99’ से बिल्कुल अलग था।

Hariman sharma Apple variety 99

हरिमन 99 सेब को विभिन्न स्तरों पर मापा व परखा भी गया है।

समतल और निचले क्षेत्रों में सेब की खेती के लिए शोध के अथक प्रयास और ‘एचआरएमएन-99’ सेब की प्रजाति के लिए किए गए कार्यों के लिए हरिमन को राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान द्वारा मार्च 2017 के महोत्सव में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया।

उम्मीद है की आने वाले दिनों में सेब की फसले भारत के गर्म क्षेत्रों में नए परिणाम और आशा के साथ पैदा होंगी। हालांकि सेब की फसल बहुत संवेदनशील और सालाना जलवायु पर निर्भर करने वाली है, लेकिन सही मिट्टी व फसल प्रबंधन के साथ खेती की जाए तो ‘एचआरएमएन-99’ निश्चित रूप से बेहतर प्रदर्शन करेगी।

राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान के निदेशक डॉ. विपिन कुमार कहते हैं, ‘एचआरएमएन-99’ सेब की किस्म, ज़मीनी स्तर पर नवाचार और नवीन कृषि पद्धतियों में भारतीय किसानों के योगदान का एक आदर्श उदाहरण है।”

हरिमन शर्मा से फेसबुक पर इस लिंक से जुड़ा जा सकता है। आप इन नम्बर्स 09418867209, 09817284251 पर उनसे बात भी कर सकते हैं।


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24 वर्षीया पायल ने बदल दिया ढर्रा, कच्ची बस्ती के बच्चों को जोड़ा स्कूल से!

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 शिक्षा हम सभी के जीवन का एक अभिन्न अंग है। शिक्षा के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है। इसके बावजूद समाज का एक वर्ग है, जिसे आसानी से शिक्षा प्राप्त नहीं होती और यदि हो भी पा रही हो तो सामाजिक पिछड़ापन उन्हें रोक देता है। ऐसे ही पिछड़े तबके के कुछ छोटे बच्चों के जीवन में एक रौशनी का दीपक बन कर उभरी है ‘धूमा’ की पायल रॉय।

एक 24 वर्षीय युवा के मन में क्या आता होगा? एक अच्छी नौकरी हो, कुछ पैसे कमाए जाए और जीवन का भरपूर आनंद लिया जाए इत्यादि। ऐसे ही कुछ सपने पायल के मन में भी है, लेकिन इन सपनों की संकल्पनाएँ अलग है। उसके लिए बस्ती के बच्चों को शिक्षित करना सबसे अच्छा काम है, उसने बच्चों की पायल दीदी बन कर कई रिश्ते कमाए हैं और इन बच्चों को अपने ‘शिक्षा’ अभियान के माध्यम से शिक्षित कर वह जीवन का भरपूर आनंद ले रही हैं।

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ज़रूरतमंद बच्चों को पढ़ाते हुए।

पायल का बचपन मध्यप्रदेश के जबलपुर-नागपुर मार्ग पर बसे ‘धूमा’ गाँव में गुजरा है। बचपन से ही इस गाँव में सुविधाओं की कमी थी। घर तो होते थे, लेकिन सामाजिक दबाव के चलते घरों में शौचालय नहीं होते थे। शौच के लिए बारिश में ढाई किमी दूर पैदल चलकर जाना पड़ता था। शिक्षा ग्रहण करना भी आसान नहीं था। पायल ने गाँव की इन परेशानियों और शिक्षा से दूर होते बच्चों को करीब से देखा था। दसवीं कक्षा में विज्ञान के शिक्षक न होने के कारण ‘हड़ताल’ करने वाली पायल ने तभी से अपने नेतृत्व गुणों का परिचय दे दिया था। बायोटेक्नोलॉजी में बैचलर और जूलॉजी में एमएससी करने वाली पायल फ़िलहाल पीएचडी की तैयारी कर रही हैं।

यह सब करते वक्त पायल के मन में हमेशा से एक चाहत थी, कि जो भी समस्याएँ उसे और उसके जैसे बच्चों को झेलनी पड़ रही है, वह आने वाली पीढ़ी को नहीं झेलनी पड़े। इसलिए ऐसा कुछ करना है, जिससे समाज में बदलाव आए। ‘शिक्षा’ अभियान पायल के मन में शायद तभी से घर कर गया था।

12वीं तक धूमा में शिक्षा लेने के बाद पायल जबलपुर पढ़ने आ गयीं और यहीं से उन्हें उनके सपनों को पूरा करने का रास्ता मिलता गया। एक बार ग्वारीघाट पर ठंड में ठिठुरते, बोरा ओढ़े व्यक्ति को देख पायल की संवेदनाएँ जागी और समाज के लिए कुछ करने का जज़्बा बोल उठा। अपने दोस्तों के साथ मिलकर पायल ने ठंड में ठिठुरते लोगों के लिए जनसहभागिता से कपड़े इकट्ठा कर बांटना प्रारम्भ किया।

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बरसाना बस्ती के बच्चे।

एक दिन उसे एक गर्ल्स हॉस्टल में कुछ ज़रूरतमंद छात्राओं को पढ़ाने का अवसर मिला तो उसके मन में इससे भी कुछ बड़ा करने की इच्छा जागी। एक मित्र के माध्यम से उन्हें जबलपुर के एक बड़े महाविद्यालय में अपने काम के बारे में बताने का मौका मिला, जिससे अवसरों के दरवाजे खुलने शुरू हो गए और फिर गाड़ी आगे बढ़कर जा पहुंची ‘बरसाना’ की बस्ती में।

बरसाना बस्ती के बच्चों में नशा करना और पढ़ने की उम्र में मज़दूरी का प्रचलन था। पायल यह चित्र बदलना चाहती थी। लेकिन उस ढर्रे को बदलना आसान नहीं था जो लम्बे समय से चला आ रहा था। पायल ने पहले सामान्य तौर पर बच्चों को शिक्षा से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन इसमें कामयाबी नहीं मिली। उसे समझ आ गया कि यदि बच्चों को सही रास्ते पर लाना है तो उसे बच्चों के साथ घुलना-मिलना होगा और उनके साथ उन्हीं का बन के रहना होगा।

 

अभिभावकों को विश्वास दिलाना होगा कि वह जो भी कर रही है, बच्चों के भविष्य के लिए कर रहीं हैं। पायल ने इसके लिए उन बच्चों के साथ वक्त बिताना शुरू किया, उनके अभिभावकों को समझाया और वह इसमें सफल रहीं।

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शिक्षा संस्थान के स्कूल में प्रार्थना करते बच्चे।

पायल कहती है, “शुरुआत में काम करना बहुत मुश्किल था। खासकर लोगों को यह समझाना कि उन्हें अपने बच्चों को क्यों पढ़ने भेजना चाहिए? यह क्यों आवश्यक है? बहुत ही कठिन काम था। इसका कारण था सालों पीछे छूट चुकी मानसिकता।”

पायल ने 2016 में बरसाना बस्ती से ‘शिक्षा’ अभियान की शुरुआत की थी। बरसाना बस्ती में 30 बच्चों के साथ शुरू हुई पायल के ”शिक्षा” अभियान की क्लास आज 122 बच्चों तक पहुँच चुकी है। पायल को हँसते-खेलते पढ़ाने में और बच्चों को ऐसे पढ़ने में आनंद आता है। पायल उन्हें बहुत सारी कहानियाँ सुनाती हैं, कहानियों और खेलों के माध्यम से बच्चों को पढ़ाती हैं। पायल और उनके जैसे कई लोगों की मदद से बच्चे पिकनिक पर जाते हैं, उन्हें जन्मदिन पर या खास मौके पर ट्रीट भी दी जाती है।

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सर्टिफिकेट के साथ बस्ती के बच्चे।

महज़ तीन साल में ही सोशल मीडिया के माध्यम से उनके इस अभियान से कई लोग जुड़ चुके हैं। फेसबुक पर ‘‘शिक्षा : एक उज्ज्वल भविष्य की ओर’‘ पेज ने पायल के काम को दुनिया तक पहुँचाया है। पायल के नेतृत्व में कुछ दोस्तों के साथ चालू किया गया यह अभियान आज कई बच्चों की जिंदगी बदल रहा है।

जबलपुर में अपने काम से पहचान बनाने के बाद पायल ने वापस ‘धूमा’ जाने का निर्णय लिया, जहां से वह आई थी। पायल अपने गाँव के जरूरतमंद बच्चों के लिए भी कुछ करना चाहती थी। बरसाना बस्ती में अब ”शिक्षा” से जुड़े युवा बच्चों को पढ़ाते हैं। हालाँकि पायल भी हफ्तीते के तीन दिन बरसाना में रहती हैं।

वह कहती है, “अभी नहीं तो कब? और तुम नहीं तो कौन? यह प्रश्न हमेशा मेरे मन में आते थे। धूमा में अभिभावक बच्चों को पढ़ने भेजने के लिए तैयार तो थे लेकिन सुविधाओं का अभाव था। आज धीरे-धीरे वहाँ तक भी सुविधाएँ पहुँच रही है। ‘शिक्षा’ अभियान की एक बच्ची माधवी परसे का चयन ‘स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ में हुआ है। आज ”शिक्षा” के माध्यम से बरसाना का एक-एक बच्चा पाठशाला जाता है।”

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शिक्षा अभियान के तहत कक्षा में बैठे बच्चे।

पायल चाहती हैं कि, यह श्रृंखला यूँ ही आगे भी कायम रहे। जिस प्रकार वह ज़रूरतमंद बच्चों को पढ़ा रही हैं, वैसे ही ये बच्चे भी बड़े होकर पढ़ाने का यह अमूल्य और सराहनीय काम करते रहे।

‘शिक्षा’ किसी से भी नगद में डोनेशन नहीं लेता। इस अभियान का एक उसूल है कि जो भी इन बच्चों की मदद करना चाहते हैं वह इन बच्चों को समय दें या फिर जरूरत का सामान लाकर दे, ऐसा इसलिए ताकि पारदर्शिता बनी रहे।

आज के समय में जहाँ एक ओर युवा अपना घर, गाँव, शहर छोड़ उँचे पगार की नौकरी करने बड़े शहर जा रहे हैं। वही पायल जैसे कुछ युवा अपने ही गांवों में लौटकर वहाँ की नींव मजबूत करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ी को बेहतर शिक्षा मिले। पायल आज की युवा पीढ़ी के लिए एक उदाहरण है।

 

लेखिका – निहारिका पोल सर्वटे

 

अगर आप पायल के इस नेक काम में किसी तरह की मदद करना चाहते हैं या उनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो शिक्षा के फेसबुक लिंक पर सम्पर्क कर सकते हैं।

 

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लखनऊ: मानसिक रोग की पीड़ा झेल चुके लोगों का सहारा है चाय की ‘केतली’!

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मेंटल हेल्थकेयर बिल 2016 के मुताबिक, भारत में मानसिक रोग के पीड़ितों को बेहतर इलाज और देख-रेख प्राप्त करने का अधिकार है और साथ ही, इन लोगों को बिना किसी भेदभाव और हिंसा के अपना जीवन पूरे सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी है।

लेकिन इस बिल के बाहर, हमारे समाज की तस्वीर कुछ और ही है। आज भी हमारे यहाँ मानसिक रोग से जूझने वाले लोगों को एक अलग ही दृष्टिकोण से देखा जाता है। सामान्य जनजीवन में उन्हें शामिल करने में बहुत हिचकिचाहट होती है, बाहर वाले तो क्या, अपने परिवार के सदस्य भी उन्हें कोई ज़िम्मेदारी देने में झिझकते हैं। ऐसे में, ये लोग ठीक होकर भी समाज से कटे रह जाते हैं।

इसी मुद्दे को केंद्र में रखकर, अम्बरीन अब्दुल्लाह कहती हैं कि, ”मानसिक रोग के दर्दियों को किसी सामान्य इंसान की तरह नहीं बल्कि एक ऑब्जेक्ट की तरह देखा जाता है। इन लोगों से व्यवहार का हमारा तरीका बहुत ही क्लिनिकल है। हम कभी भी सीधा उनसे नहीं पूछते कि वे कैसे हैं, क्या चाहते हैं? बल्कि हमेशा उनके बारे में उनके परिवार या दोस्तों से जानते हैं, और यहीं पर हम गलत हैं।”

उत्तर प्रदेश के लखनऊ में रहने वाली अम्बरीन एक मेंटल हेल्थ सोशल वर्कर हैं। उन्होंने मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से ‘सोशल वर्क इन मेंटल हेल्थ’ में मास्टर्स की डिग्री ली है। इसके बाद उन्होंने इंडियन लॉ सोसाइटी के लिए अहमदाबाद में दो साल मेंटल असायलम्स के साथ काम किया।

अम्बरीन अब्दुल्लाह

अम्बरीन बताती हैं कि यहाँ काम करते हुए उन्होंने समझा कि क्लिनिकल लेवल पर तो हर तरह से हम मानसिक रोग के पीड़ितों को सुविधाएँ दे रहे हैं। इससे ये लोग साजा भी होने लगते हैं (मतलब कि ठीक होने लगते हैं), लेकिन फिर भी इनके मन में समाज से, समुदायों से जुड़ने में एक हिचक रहती है। इसके अलावा, हमारा समाज इन्हें खुले दिल से नहीं अपना पा रहा है।

शायद यही गैप बहुत बड़ी वजह है कि मानसिक रोगों के बारे में, पीड़ितों के बारे में तरह-तरह के मिथक फैले हुए हैं। न तो इन्हें पता है कि कैसे ये लोग अपने लिए मौके बनाये और न ही हम, एक समुदाय की तरह इनके लिए किसी तरह के मौके बना रहे हैं।

इस गैप को, इस भेदभाव को समझने के बाद, अम्बरीन ने इस पर काम करने की ठानी। वे चाहतीं तो आराम से कहीं भी काउंसलर के तौर पर या फिर किसी मेंटल हेल्थ प्रोजेक्ट पर काम कर सकती थीं। लेकिन अम्बरीन सिर्फ़ मानसिक रोग के दर्दियों को समाज के लिए नहीं, बल्कि समाज को भी इन लोगों के लिए तैयार करना चाहती थीं।

अगर हम इन सभी लोगों को व्यक्तिगत, पारिवारिक और फिर सामुदायिक स्तर पर प्रोत्साहित करें, इनका साथ दें तो ये लोग भी आपकी और हमारी तरह बिना किसी पर बोझ बनें एक बेहतर ज़िंदगी गुजार सकते हैं। हम बिना सोचे-समझे इन्हें मानसिक तौर पर डिसेबल्ड करार दे देते हैं, जबकि यह सिर्फ़ हमारी सोच है।

इसी सोच पर काम करते हुए उन्होंने अपने शहर लखनऊ में अपने पार्टनर और अब पति, फ़हाद अज़ीम के साथ मिलकर एक सामाजिक संगठन ‘केतली फाउंडेशन’ की नींव रखी।

‘केतली’ का स्टॉल

नवंबर 2016 में शुरू हुए इस संगठन का उद्देश्य मानसिक रोग की पीड़ा झेल चुके लोगों को अलग-अलग तरह की ट्रेनिंग देकर, उनके खोये आत्मविश्वास को वापस लाना और फिर उन्हें रोज़गार के अवसर प्रदान करना है। इसके साथ ही, यह संगठन समाज में मानसिक रोग के पीड़ितों के प्रति जागरूकता फैलाने का काम भी कर रहा है।

“हमने सबसे पहले शहर में जो भी मेंटल हेल्थ क्लिनिक या अस्पताल है, वहाँ से ऐसे लोगों का डाटा लिया जो कि अब साजा (ठीक) हो चुके हैं। फिर ऐसे बहुत से लोगों से जुड़ने के बाद, हमने इनके लिए एक प्रोग्राम डिजाईन किया ताकि हम इन लोगों को आत्मनिर्भर बना सकें और इन्हें खुद के पैरों पर खड़ा कर सकें,” अम्बरीन ने बताया।

केतली फाउंडेशन के अंतर्गत अम्बरीन और उनकी टीम ने हर एक व्यक्ति के लिए एक साल का कोर्स डिजाईन किया हुआ है। जिसमें इन लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हर एक कदम पर ट्रेनिंग सेशन होते हैं ताकि इस कोर्स के अंत तक इन लोगों के पास कमाई का एक साधन हो।

‘केतली’ की टीम छह भागों में काम करती है- वोकेशनल ट्रेनिंग, साइको-सोशल सपोर्ट, काउंसलिंग, स्किल डेवलपमेंट, अवेयरनेस प्रोग्राम और एडवोकेसी।

वह आगे बताती हैं कि जो भी लोग उनसे जुड़ते हैं, उन्हें सबसे पहले खुद पर निर्भर होने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, जैसे कि अकेले यात्रा करना, अपना कमरा खुद साफ़ रखना, अपने रोज़मर्रा के काम खुद करना आदि। फिर धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व के विकास पर काम होता है।

वोकेशनल ट्रेनिंग के तहत वे लोगों को ‘चायखाना’ से जोड़ते हैं। ‘चायखाना’, केतली का ही एक इंडोर सेट-अप है जिसमें उन्होंने चाय की एक स्टॉल लगाई हुई है। यहाँ पर इन लोगों एक-एक करके चाय बनाने से लेकर, अकाउंट संभालने और मार्केटिंग तक की ट्रेनिंग दी जाती है। फिर समय-समय पर जानने-पहचानने वाले लोगों, दोस्तों, रिश्तेदारों को चाय-नाश्ते के लिए आमंत्रित किया जाता है।

“इन जानकार लोगों को बुलाने का उद्देश्य है कि हम किसी सामान्य बाज़ार की चाय टपरी का माहौल बना सके। यह एक तरह से मॉक एक्ट है। इससे हमारी टीम के लिए इन लोगों को प्रशिक्षित करना आसान होता है। उन्हें समझाया जाता है कि कैसे ग्राहकों को संभालना है,” अम्बरीन ने आगे कहा।

इस बेसिक ट्रेनिंग के बाद इन लोगों को केतली की कमर्शियल एंटरप्राइज पर काम करने का मौका दिया जाता है। इस पूरे प्रोग्राम के दौरान, स्वयंसेवक इनकी डेवलपमेंट नोटिस करते हैं और फिर एक रिपोर्ट तैयार की जाती है कि कौन व्यक्ति किस काम में अच्छा है। किसी को चाय बनाना पसंद है, तो किसी को पैसे गिनना तो किसी को ग्राहकों को संभालना।

सबसे पहले ये लोग हर दिन 2 घंटे चाय की स्टॉल पर काम करने से शुरू करते हैं। फिर धीरे-धीरे ये टाइम 4 घंटे होता है, फिर 6 और फिर 8 घंटों के लिए ये लोग यहाँ काम करते हैं। जिन भी मानसिक रोग के दर्दियों को केतली टीम रोज़गार के लिए तैयार करती हैं, उन्हें एक साल के इस प्रोग्राम के दौरान भी कुछ सैलरी दी जाती है।

एक-डेढ़ साल की ट्रेनिंग के बाद, केतली की टीम इन लोगों के एग्जिट प्लान पर भी काम करती है। वे इनसे पूछते हैं कि उन्हें अब आगे क्या करना है?

“जिन भी लोगों को हम ट्रेनिंग देते हैं, उनकी सबसे अच्छी स्किल के हिसाब से हम उनके लिए करियर प्लान तैयार करते हैं। हमसे ट्रेनिंग लेने वाले कई लोग आज हमारे साथ ही जुड़े हुए हैं और अपने जैसे अन्य लोगों की मदद कर रहे हैं।” अम्बरीन ने कहा।

इस कड़ी में अम्बरीन ने द बेटर इंडिया के साथ अभिषेक मिश्रा और गुरप्रीत सिंह की कहानी साझा की। साहित्य से मास्टर्स करने वाले अभिषेक मिश्रा कभी सायकोसिस और ओसीडी के शिकार थे। ट्रीटमेंट के बाद भी वे समाज का सामान्य हिस्सा नहीं बन पाए, लेकिन ‘केतली’ की कोशिशों के चलते आज वे सम्मान से अपना जीवन जी रहे हैं।

एक वक़्त था जब अभिषेक अपनी बीमारी को स्वीकार भी नहीं कर पा रहे थे लेकिन आज वे खुलकर इस पर बात करते हैं। लिखने के शौक़ीन अभिषेक, केतली के सोशल मीडिया पेज के लिए लिखते हैं। साथ ही, मानसिक रोग का दंश झेल रहे लोगों का सहारा भी बन रहे हैं।

ग्राहक से बात करते हुए अभिषेक(दायें) और गुरप्रीत सिंह (बाएं)

अभिषेक से थोड़ी अलग और थोड़ी समान सी कहानी गुरप्रीत की भी है। एक आम परिवार से आने वाले गुरप्रीत को सिजोफ्रेनिया था। जब उन्होंने केतली में ट्रेनिंग शुरू की तो वे गैस जलाने तक से डरते थे। लेकिन आज चाय बनाने से लेकर अकाउंट संभालने तक, सभी काम अकेले कर लेते हैं।

अम्बरीन मानती हैं कि जिन भी लोगों को वो प्रशिक्षित कर रही हैं, उनके बारे में उन्हें विश्वास है कि आज चाय के ठेले पर काम करने वाले ये लोग कल दफ्तरों में भी काम करते हुए मिल सकते हैं। बस ज़रूरत है तो उन्हें वो अनुकूल माहौल देने की। उनका उद्देश्य समाज के वर्किंग कल्चर में बदलाव लाना है ताकि किसी भी संगठन में काम करने वाले लोग एक-दूसरे के दर्द को समझते हुए, एक-दूसरे की मदद करते हुए काम करे और आगे बढ़े।

समाज के अन्य लोगों में जागरूकता लाने के लिए ‘केतली’ की टीम शहर भर में होने वाले छोटे-बड़े सभी इवेंट्स के साथ भागीदारी करती है। स्कूल-कॉलेज, मॉल आदि में जाकर मेंटल हेल्थ से संबंधित अलग-अलग थीम पर बात करती है। जैसे सनदकथा इवेंट में उनकी थीम ‘वर्णमाला’ थी तो अवध क्वीर परेड में ‘सेक्सुअलिटी’ और इन सभी थीम्स पर मेंटल हेल्थ के संबंध में चर्चा की जाती है।

फंड्स के बारे में बात करते हुए वे कहती हैं कि कुछ दोस्तों और परिवार की मदद के अलावा अब उन्हें बाहर से भी फंड्स मिल रहे हैं। इसके अलावा, इस क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ नया और अच्छा सीखने के लिए वे अलग-अलग फैलोशिप के लिए अप्लाई करती हैं। चेंजलूम फैलोशिप के बाद अब वे The School for Social Entrepreneurs India की फैलोशिप का हिस्सा हैं।

‘केतली’ के ही बैनर तले अब अम्बरीन ने एक दूसरा प्रोजेक्ट, ‘डोर’ शुरू किया है। इस प्रोजेक्ट के तहत वे इन लोगों को क्रोशिया की बुनाई से हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स बनाने के लिए ट्रेनिंग दिलवा रही हैं। साथ ही, उनके बनाए प्रोडक्ट्स को मार्केट तक पहुँचाने के लिए भी काम कर रही हैं।

अंत में अम्बरीन सिर्फ़ यही कहती हैं कि ये वो लोग हैं जिनसे अगर दस रुपए भी कहीं गिर जाएं तो उन्हें फिर पैसे नहीं दिए जाते। ऐसे लोग आज खुद अपने पैरों पर खड़े होकर कमा रहे हैं, इससे बड़ी बात क्या होगी? यही सबसे बड़ा बदलाव है, जिसके ज़रिए हम समाज का और इनका खुद का नज़रिया मानसिक रोग के प्रति बदल सकते हैं।

इसलिए हमें चाहिए कि हम लोगों की किसी भी ऐसी कमी को नज़रअंदाज करके उनका सम्मान करें, क्योंकि उन्हें पूरा हक़ है इज्ज़त और सम्मान से जीने का। साथ ही, द बेटर इंडिया के पाठकों से वे सिर्फ़ यही अपील करती हैं कि अगर आपके यहाँ कोई इवेंट है तो बेझिझक ‘केतली’ टी-स्टॉल को बुलाए।”

अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहकर्मियों और मेहमानों को गिफ्ट देने के लिए ‘डोर’ के बनाए प्रोडक्ट्स खरीदकर, आप भी बदलाव की इस मुहिम में अपना योगदान दे सकते हैं। उनसे संपर्क करने के लिए 08896786783 पर डायल करें!


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पिता किसान, पैरों से दिव्यांग पर भारत के लिए ले आयें क्रिकेट वर्ल्ड कप!

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“मैं अपने आप को खुशनसीब समझता हूँ कि मुझे मैन ऑफ़ द मैच का ख़िताब दिया गया। इससे ज्यादा ख़ुशी मुझे इस बात की है कि मेरे देश को जिताने के लिए मैं भी कुछ कर पाया,” 25 वर्षीय कुणाल फणसे ने इंग्लैंड के खिलाफ भारत की ऐतिहासिक जीत के बाद लिखा!

यह कोई साधारण मैच नहीं था। कुणाल फिजिकल डिसेबिलिटी क्रिकेट वर्ल्ड सीरीज टी20 में भारत की टीम के लिए खेल रहे थे। 13 अगस्त 2019 को लन्दन से 200 किमी दूर वोर्सस्टर के न्यू रोड स्टेडियम में हो रहे इस फाइनल मैच में भारत ने मेज़बान इंग्लैंड को 36 रनों से हराया था। एक बेहतरीन ऑल राउंडर की भूमिका निभाते हुए भारत को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले कुणाल को मैन ऑफ़ द मैच चुना गया।

 

पर कुणाल के लिए यहाँ तक का सफर इतना आसान नहीं था। महाराष्ट्र के जेजुरी शहर के पास बसे एक छोटे से गाँव नाज़रे सुपे से आने वाले कुणाल ने 2011 में पहली बार क्रिकेट की गेंद देखी थी। इससे पहले अपने गाँव में वह बच्चों की गेंद से ही क्रिकेट खेलते आ रहे थे।

इंग्लैंड में ‘मैन ऑफ़ द मैच’ की ट्राफी लेते हुए कुणाल

कुणाल के पिता, दत्तात्रेय फणसे एक किसान हैं और माँ, उषा फणसे भी घर के साथ-साथ खेतों में उनकी मदद करतीं हैं। तीन बड़ी बहनों के सबसे छोटे भाई कुणाल को बचपन से ही क्रिकेट का शौक था। पर बचपन में एक ऐसा हादसा हुआ कि उनके दायें पैर का ऑपरेशन करना पड़ा और वह बाएं पैर के मुकाबले छोटा रह गया। फिर भी कुणाल ने खेलना नहीं छोड़ा। अक्सर स्कूल के बाद वे अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते नज़र आते।

 

पर किसान पिता के लिए उनकी शिक्षा सबसे ज्यादा ज़रूरी थी, इसलिए अपने खेल की वजह से उन्हें अक्सर डांट पड़ती।

जीत के बाद अपने गाँव लौटकर कुणाल अपने माता-पिता के साथ

“मेरे पिताजी को पढ़ने का बहुत मन था, पर घर के हालातों की वजह से वे पढ़ नहीं पायें। इसलिए उनका सपना था कि मैं और मेरी बहने पढ़ लिखकर खूब आगे बढ़े। गाँव में रहते हुए भी उनकी सोच बहुत ऊँची थी।” द बेटर इंडिया से बात करते हुए कुणाल ने कहा।

कुणाल के पिता की 5 एकड़ ज़मीन है और महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में अक्सर सूखा पड़ता है। ऐसे में, सीमित आय होते हुए भी उन्होंने लोन ले लेकर अपने बच्चों को पढ़ाया। सभी बेटियों को होस्टल में रखकर उच्च शिक्षा दी और कुणाल को भी दसवीं के बाद पढ़ने के लिए पुणे भेज दिया।

“मेरी सबसे बड़ी बहन टीचर हैं, दूसरी इंजीनियर और तीसरी ने एम.कॉम किया है। मेरे लिए भी मेरे माता-पिता ने यही सोचा था कि मुझे खूब पढ़ाएंगे, इसलिए मेरे खेल-कूद से अक्सर उन्हें नाराज़गी रहती थी। पर वे अपनी जगह सही थे। हमारे देश में खेल-कूद में भविष्य बनाना इतना आसान तो नहीं है न,” कुणाल कहते हैं।

कुणाल अपनी तीन बड़ी बहनों के साथ

कुणाल ने भी कभी नहीं सोचा था कि वे खेल को कभी अपना करियर बना पाएंगे। पर यह सोच तब बदली जब उन्होंने 2011 में पुणे के ‘आबासाहेब गरवारे कॉलेज’ में 11वीं में दाख़िला लिया। यहाँ कुणाल कॉलेज में हो रहे छोटे-मोटे मैचस में हिस्सा लेने लगे और एक साल के भीतर ही उन्हें एक अच्छे खिलाड़ी के तौर पर जाना जाने लगा।

यहीं पर उन्हें फिजिकली चैलेंज्ड क्रिकेट के बारे में भी पता चला और 2012 से उन्होंने उसमें भाग लेना शुरू कर दिया।
अपने माता-पिता के सपने को सबसे ऊपर रखने वाले कुणाल के लिए पढ़ाई अब भी सबसे ज्यादा ज़रूरी थी। इसलिए बारहवीं के बाद उन्होंने पुणे के ही ‘वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया। इस दौरान भी उनका खेल जारी रहा और उन्हें पहले इंटर कॉलेज और फिर राज्य स्तर पर खेलने का मौका मिला।

 

पर कुणाल अपने खेल की ज़रूरतों का खर्च अपने माता-पिता के कंधे पर नहीं डालना चाहते थे, इसलिए उन्होंने थोड़े समय के लिए कॉल सेंटर में नौकरी कर ली। इन पैसों से उन्होंने अपने क्रिकेट का सामान लिया और उनके रोज़मर्रा के ख़र्चों का भी इंतज़ाम हो गया।


जैसे-जैसे क्रिकेट में उन्हें सफलता मिलती जा रही थी, वैसे-वैसे इस खेल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए खेलने की उनकी इच्छा तीव्र होती जा रही थी।

आखिर साल 2015 में उनकी यह इच्छा पूरी हुई। कुणाल को बांग्लादेश में हो रहे फाइव नेशन्स क्रिकेट टूर्नामेंट में खेलने के लिए भारत की टीम में चुना गया। इस मैच के बाद कुणाल ने दोबारा मुड़कर नहीं देखा। घरवालों ने भी अब कुणाल का साथ देना शुरू कर दिया था और उनके फैन्स का प्यार तो उनके साथ था ही।

2018 के ओडीआई सीरिज़ में कुणाल अफगानिस्तान के खिलाफ खेलते हुए बेस्ट बैट्समैन का ख़िताब मिला और अब 2019 में वर्ल्ड क्रिकेट सीरिज़ में वे ‘मैन ऑफ़ द मैच’ चुने गए।

“मेरे लिए यह वर्ल्ड कप हमेशा सबसे ख़ास रहेगा। अपने देश के लिए खेलना और उसकी जीत में योगदान देने में जो ख़ुशी है, वो शायद किसी और बात में नहीं,” कुणाल ने भावुक होते हुए कहा।

 

पर क्या सिर्फ देश के लिए खेलना काफी है? वह क्या है जिसकी कमी आज भी उन्हें महसूस होती है?

इस सवाल का जवाब देते हुए कुणाल ने कई ऐसे तथ्य उजागर किये, जो इस खेल के दूसरे पहलू को उजागर करती है।

“वर्ल्ड सीरिज़ में जितने भी टीम आयें थे, वो सभी वहां के राष्ट्रीय क्रिकेट बोर्ड से पारित थे, फिर चाहे वो इंग्लैंड हो, बांग्लादेश या पाकिस्तान. बस भारत ही एक ऐसी टीम थी जिसे बीसीसीआई की मान्यता नहीं थी,” कुणाल ने बताया.

भारत में पहले दिव्यांगो के लिए क्रिकेट का कोई टूर्नामेंट नहीं हुआ करता था। यह पूर्व क्रिकेटर अजित वाडेकर ही थे, जिन्हें 1971 की ऐतिहासिक जीत के बाद भारत लौटने पर इस बात का ख्याल आया।

 

1988 में वाडेकर ने ऑल इंडिया क्रिकेट एसोसिएशन फॉर फिजिकली चैलेंज्ड (AICAPC) की नींव रखी।

स्वर्गीय अजित वाडेकर के साथ कुणाल

वाडेकर ने कई कोशिशें की, कि इसे बीसीसीआई की मान्यता मिल जाए पर ऐसा कभी नहीं हो पाया। उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक खुद फंड इकट्ठा कर इस एसोसिएशन को बनाए रखा और दिव्यांगो को क्रिकेट खेलने के लिए प्रोत्साहित करते रहें, जिनमें से एक कुणाल भी थे।

“अब तक हमें कोई भी आर्थिक मदद नहीं मिलती थी। फिटनेस के लिए भी हम खिलाड़ियों से जितना हो पाता वही हम करते। कोचिंग, डायट या बाकी सुविधाएँ जैसी भारतीय क्रिकेट टीम को मिलती हैं, वैसी हमें नहीं मिलती थीं। एक मैच खेलने पर हमें ज्यादा से ज्यादा 500-1000 रूपये ही मिलते थे। पर इस वर्ल्ड सिरीज़ में सब कुछ बेहतर था। हमें नए किट मिलें, बेहतरीन कोच से कोचिंग मिली और हमारी हर ज़रूरत का ध्यान रखा गया। और देखिये इसका नतीजा आपके सामने ही है कि हम वर्ल्ड कप जीत गए,” कुणाल कहते हैं।

इस बदलाव का श्रेय कुणाल स्वर्गीय अजीत वाडेकर को तो देते ही है, साथ ही उनका कहना है कि AICAPC के जनरल सेक्रेटरी रवि चौहान का इस जीत में बहुत बड़ा योगदान रहा। उनके मुताबिक अजित वाडेकर के दोस्त अनिल जोगलेकर के सहयोग के बिना भी यह जीत असंभव थी, जिन्होंने इस इस टीम को फंड किया था।

कुणाल ने जब से क्रिकेट खेलना शुरू किया था, तब से अब तक वे एक ही नी पैड (knee pad) इस्तेमाल कर रहे थे। यहाँ तक कि जब उन्हें पहली बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने बांग्लादेश जाना था, तब भी उन्होंने अपने इस सफ़ेद पैड को नीला पेंट लगाकर पहना था। पर इस बार की सिरीज़ में उन्हें नया किट दिया गया और उन्होंने 7 सालों में पहली बार नया पैड पहनकर खेला।

“चीज़ें अब बदल रहीं हैं। ज्यादा से ज्यादा लोगों को अब फिजिकली चैलेंज्ड क्रिकेट के बारे में पता चल रहा है। और अब बीसीसीआई भी इस पर ध्यान देने लगा है। मुझे पूरी उम्मीद है कि अब दिव्यांगों के लिए भी क्रिकेट एक करियर बन पायेगा,” एक बेहतर कल की उम्मीद लिए कुणाल हमसे विदा लेते हैं।

कुणाल को बधाई देने के लिए और उनका हौसला बढ़ाने के लिए आप उनसे फेसबुक पर संपर्क कर सकते हैं!


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मिट्टी, गोबर और बीजों से बनी मूर्तियाँ खरीदकर पारम्परिक तरीकों से मनाये गणपति!

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र साल देश भर में गणपति उत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। लोग गणपति की बड़ी-बड़ी मूर्तियां लाते हैं। पंडाल को सजाने के लिए विभिन्न चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कभी सोचा है कि यह चीजें प्रकृति को कितना नुकसान पहुंचा सकती है। क्योंकि हम सब को मालूम हैं कि उत्सव में गणपति मूर्ति से लेकर पंडाल तक की चीज़ें किन पदार्थों से बनी होती है, अगर नहीं मालूम हो तो हम बता देते हैं।

गणपति की मूर्ति POP (प्लास्टर ऑफ़ पेरिस) से और पंडाल सजावट की चीजें थर्मोकोल, प्लास्टिक और अन्य हानिकारक पदार्थों से बनी होती है, जो कि प्रकृति के लिए बहुत नुकसानदायक है। ऐसे में क्यों न हम कोई ऐसा तरीका अपनाए जिससे त्यौहार भी अच्छे मन जाए और प्रकृति की भी रक्षा हो जाए।


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इसलिए ज़रूरी है कि हम प्रकृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझे और अपने त्यौहारों को पारम्परिक तरीकों से मनाएं। हम ऐसे कदम उठाए जिससे कि हमारी श्रद्धा और आस्था का भी मान रहे और साथ ही, हमारी प्रकृति भी संरक्षित हो।

बाज़ारों में भले ही आज इस गणपति उत्सव को मनाने के लिए हज़ारों तरीके उपलब्ध हैं, लेकिन इस त्यौहार को आप आसानी से घर में मौजूद पारम्परिक चीज़ों से भी मना सकते हैं। यह पर्यावरण के लिए हानिकारक भी नहीं है।

आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए ऐसे ही कुछ पर्यावरण अनुकूल तरीकों और प्रोडक्ट्स के बारे में…

1. मिट्टी से बनी गणपति की मूर्ति

साभार: Ecoexist/ Facebook

इस साल आप हानिकारक रंगों से रंगी प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से बनी मूर्ति खरीदने की बजाय मिट्टी से बने गणपति खरीद सकते हैं। दस दिन के उत्सव के बाद आप इस मूर्ति को अपने घर के बगीचे या फिर किसी भी पार्क में जाकर विसर्जित कर सकते हैं।

यदि आप अपने गणपति को किसी नदी या तालाब में भी विसर्जित करना चाहते हैं तब भी बिना किसी झिझक के आप मिट्टी की मूर्ति का विसर्जन कर सकते हैं। क्योंकि इस मूर्ति में कोई भी हानिकारक तत्व नहीं होता जो कि पानी या पेड़ों के लिए प्रदुषण का कारण बने।

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2. प्लांटेबल गणपति

साभार: द बेटर इंडिया-शॉप

आप इस उत्सव में प्लांटेबल गणपति की मूर्ति भी उपयोग कर सकते हैं। जी हाँ, सीड पेपर इंडिया ने इस बार गणपति की प्लांटेबल मूर्तियाँ बनायी हैं, जिनमें उन्होंने तुलसी के बीज लगाए हैं। उनकी सीड गणेश किट में आपको मिट्टी और बीजों से बनी एक गणपति की मूर्ति, एक कोको पीट जैविक उर्वरक, एक जूट का बना गमला, एक प्लेट, दिशा-निर्देश के लिए कार्ड और दो सीड बम मिलते हैं। इस मूर्ति को पानी में विसर्जित करने से भी अच्छा तरीका है कि इसे बो दिया जाए।

उत्सव खत्म होने के बाद इस मूर्ति को आप गमले में लगा दे, मूर्ति के बीज पौधा बनकर आपके घर की हरियाली बढ़ाएंगे।

सीड पेपर इंडिया ने इससे पहले प्लांटेबल झंडे और सीड राखी जैसे प्रोडक्ट्स बनाए थे, जो काफ़ी सफल रहे। यह एक ऐसा संगठन है जो कि सीड पेपर से प्रोडक्ट्स बनाने के लिए जाना जाता है।

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3. गोबर से बने गणपति

साभार: : Ecoexist/ Facebook 

हम सबको पता है कि गोबर पेड़-पौधों और मिट्टी के लिए बेहतरीन खाद का काम करता है, इसलिए इसे कई रूपों में प्रयोग किया जाता है। पर्यावरण प्रेमी इसे बहुत से प्रोडक्ट्स के लिए प्लास्टिक के विकल्प के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं जैसे कि गोबर के गमले आदि।

इसी राह पर चलते हुए इको-एक्सिस्ट नामक संगठन ने गोबर के गणपति बनाना शुरू किया है ताकि दस दिनों के उत्सव के बाद जब इस मूर्ति का विसर्जन हो तो लोगों की ख़ुशी के साथ-साथ पर्यावरण को भी खुश रखा जा सके।

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4. हर साल एक ही मूर्ति से मनाए त्यौहार

साभार: द बेटर इंडिया-शॉप

कौन कहता है कि गणपति उत्सव को हर साल नई मूर्ति के साथ ही मनाया जा सकता है? किसी भी त्यौहार को बड़े पंडाल या फिर बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बड़ा नहीं बनाती, बल्कि लोगों की श्रद्धा, उत्साह और एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर मनाने से त्यौहार बड़ा बनता है।

इसलिए आप अपने घर के पूजा स्थल में पहले से ही विराजित गणपति की मूर्ति को भी त्सव के लिए स्थापित कर सकते हैं या फिर आप कोई भी ब्रास की बनी नई मूर्ति भी खरीद सकते हैं।

अगर आपको चिंता है कि फिर विसर्जन की विधि कैसे होगी तो यह भी बहुत आसान है। आप अपने घर के आँगन में ही एक बाल्टी या टब में पानी लें और फिर इसमें पूरे विधि-विधान से मूर्ति का विसर्जन करें। फर्क बस इतना है कि दो-चार दिन बाद आप इस मूर्ति को फिर अभिषेक करके अपने घर में ही आस्था के साथ वापस रख ले और अगले साल उत्सव में फिर इसी मूर्ति का इस्तेमाल करें।

यदि आप ब्रास से बनी गणपति की हैंडीक्राफ्ट मूर्ति खरीदना चाहते हैं तो यहाँ पर क्लिक करें, यह मूर्ति खरीदकर आप दक्षिण भारत के उन कारीगरों की मदद भी करेंगे, जो दिन रात मेहनत करके ब्रास से ये मूर्तियाँ बनाते हैं!

5. खुद बनाए अपने गणपति

साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

इसके अलावा, इस बार आप खुद भी अपने गणपति बनाने की कोशिश करें। इस प्रक्रिया में आप अपने दोस्तों, परिवार और आसपास के लोगों को भी शामिल कर सकते हैं। आप मिट्टी की मूर्ति बनाएं या फिर पुरानी चीज़ों को अपसाइकल कर पुराने कपड़ों का इस्तेमाल करके या फिर नारियल के खौल और जूट से भी मूर्ति बना सकते हैं।

बप्पा के अलावा उत्सव में पंडाल और फिर पूजा-विधि के लिए भी ख़ास इंतजाम किए जाते हैं। लेकिन इस बार आप अपने गणपति उत्सव को पूरी तरह से इको-फ्रेंडली बना सकते हैं। रेग्युलर अगरबत्ती इस्तेमाल करने की बजाय आप फूलों को प्रोसेस करके बनाई गई ऑर्गेनिक अगरबत्ती इस्तेमाल करें। साथ ही, प्लास्टिक की सजावट की जगह बायोडिग्रेडेबल चीज़ों से सजावट करें।

पूजा के लिए फूलों को रीसायकल करके बनाई गयी अगरबत्ती खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

पूजा में चढ़ाए गए फूलों को यूँ ही कहीं फेंकने की बजाय आप उन्हें खाद बनाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

तो फिर इंतज़ार किस बात का? इस गणपति उत्सव उठाइए ये छोटे-छोटे कदम और इस त्यौहार को न सिर्फ़ अपने लिए बल्कि प्रकृति के लिए भी बनाइए उमंगपूर्ण!

गणपति बप्पा मोरया!

संपादन: भगवती लाल तेली
(Inputs from Tanvi Patel)


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औरंगाबाद की लुप्त होती कला को इस इंजीनियर ने पहुंचाया अमेरिका तक!

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किसी भी देश की पहचान उस देश के लोगों, वहां के खानपान और पहनावे से होती है। हमारे देश के हर प्रान्त के पास कुछ ऐसा नायाब तोहफा मौजूद है जिसे सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी न सिर्फ संजो कर रखा गया है बल्कि हर पीढ़ी ने उस रिवायत की खिदमत भी की है। सोचिये, अगर अपनी धरोहर को सहेजने वाले यह पैरोकार न हो तो हमारी पहचान धीरे-धीरे कहीं पीछे ही छूट जाएगी।

अगर कश्मीर की पहचान पश्मीना है, तो उत्तर प्रदेश की बनारसी साड़ी, दक्षिण में कांजीवरम का जलवा है, तो गुजरात की पटोला की अपनी धमक है, वहीं महाराष्ट्र की शादी पैठनी साड़ी के बिना अधूरी मानी जाती है।

आज भले ही फैशन के इस दौर में सब कुछ सिमट कर शोपिंग मॉल की जगमगाती ब्रांडेड शॉप्स में कैद हो गया हो। लेकिन आज भी कुछ लोग परंपरागत पहनावे के कद्रदान हैं और इन हेरिटेज फेब्रिक को अपनी वार्डरोब का हिस्सा बनाना अपनी शान समझते हैं।

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हिमरू फैब्रिक्स।

अपनी यात्राओं के दौरान मैंने देश के हर हिस्से में जाकर वहां के परंपरागत बुनकरों के साथ वक़्त गुज़ारा है। धागों की इस सजीली दुनिया में विचरण करते हुए किसी धागे के सिरे को थाम उस कला के इतिहास में झाँकने की कोशिश की है। जहाँ धागों से जादू बुनने वाले इन बुनकरों ने मुझे अपनी कला से हमेशा विस्मित किया है, वहीं इनकी दयनीय स्थिति ने मुझे अन्दर तक विचलित भी किया है।

अपनी कला के लुप्त होने का दुःख मैंने लगभग सभी बुनकरों में एक समान देखा है। एक ऐसी पीड़ा जिसका कोई माक़ूल इलाज नहीं। ऐसे में अगर कोई नौजवान ऐसा नज़र आए जो इस कला को न सिर्फ संरक्षित करने का काम करे, बल्कि इसे विदेशों तक ले जाए तो फिर कहने ही क्या हैं?

मेरी औरंगाबाद, महाराष्ट्र की यात्रा में मुझे ऐसे ही ज़िम्मेदार नौजवान फैसल क़ुरैशी से मिलने का मौक़ा मिला। फैसल ने अपने दादा की विरासत को आगे बढ़ाया है। फैसल हिमरू और मशरु फेब्रिक को रिवाईव कर उसे नई पहचान दिलवाने की कोशिश में लगे हुए हैं। फैसल के खानदान में हिमरू और मशरु बनाने की कला 6 पीढ़ियों से चली आ रही है।

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हिमरू फैब्रिक स्टोर में फैसल।

कहते हैं, यह बुनकर मुहम्मद तुगलक के समय में पर्शिया से भारत आए थे और जब मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली से अपनी राजधानी दौलताबाद शिफ्ट की तो बुनकरों का पूरा टोला यहाँ महाराष्ट्र में आ कर बस गया। बस तभी से यह कला यहाँ की होकर रह गई। बाद में मुगलों के समय में यह कला बहुत फली-फूली।

फैसल कुरैशी के दादा हज़रत बशीर अहमद क़ुरैशी ने 1891 में औरंगाबाद के एक पुराने इलाके ज़फर गेट पर बशीर सिल्क फैक्ट्री की शुरुआत की। इसी फैक्ट्री से हिमरू की बुनकारी की शुरुआत हुई थी।

इस फैब्रिक के कद्रदान तो हैदराबाद के निज़ाम भी हुआ करते थे। वह अपने लिए ख़ास तौर पर फैब्रिक बनवाने यहाँ आते थे। महाराष्ट्र की पहचान मानी जाने वाली बुनकारी की कला हिमरू और मशरु खानदानी लोगों में बहुत पसंद की जाती थी।

 

लेकिन धीरे-धीरे बदलते समय के साथ लोगों में पारंपरिक पहनावे को लेकर उदासीनता आने लगी।

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हिमरू फैब्रिक्स से बने उत्पाद। Source – facebook

कहते हैं एक गलत फैसला पता नहीं कितनों की ज़िन्दगी पर असर डालता है इसका सबसे बड़ा उदाहरण यहाँ औरंगाबाद में देखने को मिलता है। औरंगाबाद में आने वाले विदेशी टूरिस्ट पैठनी, हिमरू और मशरु बहुत पसंद करते थे। जिससे यहाँ के बुनकरों की रोज़ी-रोटी अच्छी तरह चलती थी लेकिन औरंगाबाद तक जाने वाली कुछ फ्लाइट्स के बंद होने से यहाँ पर टूरिस्ट का आना भी कम हो गया, जिसका सीधा असर यहाँ के बुनकरों पर पड़ा।

बुनकर युसूफ खान जो कि 3 दशक से इस कला के साथ जुड़े हैं, उस गुज़रे वक़्त के वापस आने के इंतज़ार में बैठे हैं जब विदेशी सैलानी औरंगाबाद फिर से आएंगे और उनके बनाए फैब्रिक को खरीदेंगे।

पहले जहाँ पैठनी, हिमरू और मशरु के अच्छे दाम मिल जाया करते थे वहीं अब बुनकरों को अपना उत्पाद बेचने के लिए कोई ग्राहक उपलब्ध न था। ऐसे में इस कला का पिछड़ना तो लाज़मी था। लोग धीरे-धीरे किसी अन्य काम की तरफ मुड़ने लगे।

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अमेरिका में प्रदर्शनी के दौरान हिमरू फैब्रिक की टीम।

ऐसे में इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर आए एक युवा नौजवान फैसल क़ुरैशी ने बीड़ा उठाया कि इस पारंपरिक बुनकारी की कला को मरने नहीं देना है और उन्होंने अपने खानदान की रिवायत को आगे बढ़ाने का फैसला किया।

फैसल बताते हैं, ”मेरे लिए यह काम आसान नहीं था। जो लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में किसी और काम को करने लगे थे उन्हें वापस लूम शुरू करवाने में बहुत मशक्क़त करनी पड़ी। उसके बाद इस कला को कंटेम्पररी बनाना भी एक चुनौती थी। बदलते वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है लेकिन ट्रेडिशन को बचाते हुए ऐसा करना बहुत मुश्किल। मैंने इन वीवर्स के साथ मिलकर डिज़ाइन को आधुनिक रंगों के साथ एक नया कलेवर देने की कोशिश की जिसे बहुत पसंद किया गया। हमारी मेहनत सफल हुई।”

फैसल के लिए अब अगली मुश्किल इसे बेचने की थी। पैठनी, हिमरू और मशरु कभी भी आम लोगों के लिए बनने वाला फैब्रिक नहीं रहा, इसे हमेशा ख़ास लोगों ने पहना है। ऐसे में उन ख़ास लोगों तक इस फैब्रिक को पहुँचाना एक बड़ा काम था। इसके लिए उन्होंने देश-विदेश में एग्जिबिशन लगाई। जिसका बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला।

 

आज उनके फैब्रिक आप अमेरिका के कैलिफोर्निया, डैलस, सैन फ्रांसिस्को, लॉस एंजेलिस, टेक्सस और ऑस्टिन से भी ख़रीद सकते हैं। 

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अमेरिका में प्रदर्शनी के दौरान हिमरू फैब्रिक की शॉप।

पहले बुनकरों को अपना माल बिचौलियों को बेचना पड़ता था जिससे उनकी मेहनत का सही फल उन्हें नहीं मिलता था। फैसल और टीम ने बीच से बिचौलियों को हटा दिया। आज वे बुनकरों को डिजाइनिंग से लेकर अच्छी क्वालिटी के रॉ मटेरियल और सेल में भी हर संभव मदद करते हैं। पहले उनके पास सिर्फ 4 सीटर लूम थे, जो आज बढ़कर 20 हो गए हैं।

फैसल ने अपनी पहचान खो चुके बुनकरों और उनके लूम्स को जगाने का काम किया है। आज लगभग 150 बुनकर परिवार इस लुप्त होती कला को फिर से जिंदा करने में न सिर्फ़ योगदान दे रहे हैं बल्कि अपना जीवन यापन भी अच्छी तरह से कर रहे हैं।

यहाँ पर काम करने वाले बुनकर विजय शंकर राव खोड़े बताते हैं, ”1500 से 2500 धागों के काउंट्स में डिजाईन बनाना महीन काम है। पैठनी के डिजाईन ग्राफ़ पर बनाए जाते हैं। हम फैसल के नेतृत्व में इस कला को नित नए आयाम देने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे पसंद करें।”

फैसल लम्बे समय से इस कला को अपने स्तर पर बचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं लेकिन सरकार की ओर से सहयोग नहीं मिलता। वह चाहते हैं कि सरकार इस धरोहर के संरक्षण के लिए इन बुनकरों की मदद करे ताकि इस कला को लुप्त होने से बचाया जा सके। फैसल और उनके साथ जुड़े सभी बुनकर चाहते हैं कि महाराष्ट्र की पहचान माने जाने वाले पारंपरिक हेंडलूम पैठनी, हिमरू और मशरु को पर्यटन से जोड़ा जाए, जिससे महाराष्ट्र में पर्यटन के साथ-साथ उनका भी विकास हो।

 

फैसल ने औरंगाबाद में हेरिटेज स्टोर की भी शुरुआत की है, जहाँ से पारंपरिक फेब्रिक ख़रीदे जा सकते हैं। यहाँ साड़ी, दुपट्टे, स्टॉल, शॉल, कुशन आदि का बड़ा कलेक्शन मौजूद है।

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हिमरू फैब्रिक्स की स्टोर।

 

इस कला की जड़ें भले ही पर्शिया से जुड़ी हो लेकिन आज यह कला पूरी तरह से भारतीय रंगों में रंग चुकी है, इसकी गवाही देते हैं इसके डिज़ाइन, जिनमें भारतीय फूल, पक्षी यहाँ तक के पशुओं की आकृतियों ने अपनी जगह बना ली है।

हिमरू शब्द फारसी के दो शब्दों से मिलकर बना है। हम + रूह = यानी दोनों ओर से समान दिखने वाला। हिमरू सोने-चांदी से बनने वाले आला क़िस्म के फैब्रिक कमख़्वाब की नक़ल माना जाता है। कमख़्वाब कपड़ा राजा-महाराजा पहना करते थे।

अगर आप फैसल क़ुरैशी से संपर्क करना चाहते हैं तो हिमरू फैब्रिक्स स्टोर को himroofabrics1891@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं। आप उनसे 9923365025 पर बात भी कर सकते हैं।

संपादन – भगवती लाल तेली


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आज़ादी से अब तक के हर चुनाव के रोचक किस्‍सों की बानगी दिखाता, देश का पहला ‘इलेक्‍शन म्‍युजि़यम’

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संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग होने जा रहा था। यह अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 का दौर था। इससे पहले चुनाव आयोग एक अजब परेशानी से जूझ रहा था। मतदाता सूची में दर्ज सैंकड़ों-हजारों नहीं बल्कि लाखों महिला वोटरों की पहचान ही नहीं हो पा रही थी। सूची में मतदाताओं के कॉलम में कुछ इस तरह का ब्योरा दर्ज था – ”छज्जू की मां, नफे सिंह की पत्नी, बलदेव की पत्नी, चंदरमोहन नेगी की सुपुत्री” … वगैरह, वगैरह।

 

यह आज़ाद हिंदुस्तान की उन महिला वोटरों की कहानी थी जो वोटर सूची बनाने उनके घर पहुंचे चुनाव कर्मियों को अपना नाम नहीं बताना चाहती थी। किसी अजनबी के सामने अपना नाम उद्घाटित न करने के अपने ऊसूल पर कायम रही स्‍वतंत्र भारत की पहली पीढ़ी की महिला वोटरों की इस अजब दास्तान से जूझते चुनाव आयोग को आखिरकार निर्देश जारी करना पड़ा कि अपनी सही पहचान बताने वाली महिलाएं ही मतदाता रह सकती हैं। इसके बाद एक बार फिर से उन महिलाओं का नाम वोटर सूची में जोड़ने की कवायद शुरू हुई, जो रजिस्टर्ड वोटर होते हुए भी मतदान करने की हकदार नहीं थी। ऐसी ज्यादातर महिलाएं बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और विंध्य प्रदेश से थीं।

 

मतदाता सूची में संशोधन किए गए और 8 करोड़ महिला वोटरों में से करीब 80 लाख महिलाएं अपनी पहचान ज़ाहिर न करने के चक्कर में देश में लोकतंत्र के उस पहले पर्व का हिस्सा बनने से चूक गई थीं।

इलेक्‍शन एजुकेशन सेंटर-कम-म्‍युज़‍ियम

 

 

देश में अपनी तरह के इकलौते इलेक्‍शन एजुकेशन सेंटर-कम-म्‍युज़‍ियम (चुनाव शिक्षा केंद्र-सह-संग्रहालय) में ऐसे कितने ही किस्‍से करीने से संवार कर रखे गए हैं। यह इलेक्‍शन म्‍युजि़यम राजधानी दिल्‍ली के कश्‍मीरी गेट इलाके में 1890 में बनी उस इमारत में खोला गया है जिसमें 1940 तक सेंट स्‍टीफंस कॉलेज चलता रहा था। 1915 में कॉलेज में गाँधीजी भी आए थे और इमारत को उनके जीवन से जुड़े महत्‍वपूर्ण स्‍थलों में गिना जाता है।

आज इसी इमारत में दिल्‍ली चुनाव आयोग का दफ्तर है।

इंडो-इस्‍लामिक शैली में 1890 में बनी इसी इमारत में कई वर्षों तक रहा था सेंट स्‍टीफंस कॉलेज

 

आज़ादी के आंदोलन में गाँधीजी की भूमिका को प्रदर्शित करने वाली एक गांधी गैलरी इस इलेक्‍शन म्‍युजि़यम का हिस्‍सा है। म्‍युज़‍ियम में एक आर्ट गैलरी भी है जिसमें स्‍कूल-कॉलेज के छात्र इलेक्‍शन थीम पर पेंटिंग्‍स, कार्टून, कैरीकैचर के जरिए अपने मन की बात कह सकते हैं।

इलेक्‍शन म्‍युजि़यम की इस आर्ट गैलरी में स्‍कूल-कॉलेज के छात्र दर्ज कर सकते हैं अपने मन की बात – कला के माध्‍यम से

 

म्‍युज़‍ियम की निर्वाचन दीर्घा (इलेक्‍शन गैलरी) में ठिठकना बनता है। एक नहीं कई-कई जगह। लाल किले की बैकड्रॉप वाला वो ब्‍लैक एंड व्‍हाइट फोटोग्राफ आपको ज़रूर उलझाएगा जिसमें आम चुनाव के नतीजे देखने के लिए भीड़ जमा है।

यह तस्‍वीर आपको उस दौर में ले जाएगी जब एक-एक वोट हाथों से गिना जाता था और रफ्ता-रफ्ता नतीजे सामने आया करते थे।

मतगणना का ताज़ा हाल कुछ यों बताया जाता था

एक-एक बैलट पेपर को खोलना, गिनना कोई मखौल नहीं था, बल्कि यह प्रक्रिया घंटों और दिनों तक जारी रहती थी। वैसे कभी सोचा है आपने कि इस धीमी रफ्तार का धीमापन कितना हो सकता था? इलेक्‍शन म्‍युजि़यम की निर्वाचन दीर्घा में ही आपको यह जानकारी भी मिल जाएगी।

यह भी पहले आम चुनावों का ही किस्‍सा है जब उत्‍तर प्रदेश में कुल जमा दो सदस्‍यों वाली संसदीय सीट के लिए मतगणना में पूरे बीस दिन लग गए थे!

मतगणना 1971 का आम चुनाव

और भी बहुत कुछ है इस निर्वाचन दीर्घा यानी इलेक्‍शन गैलरी में। मसलन, बैंगनी रंग की उस स्‍याही की कहानी जो हर वोटर के बाएं हाथ की तर्जनी पर वोट डालने के बाद लगायी जाती है। वोटिंग में फर्जीवाड़े को रोकने के लिए 1951 में सीएसआईआर के वैज्ञानिकों ने ईजाद की थी यह नायाब स्‍याही जिसे बनाने का लाइसेंस 1962 से कर्नाटक स्थित मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड के पास है।

और हां, सिर्फ भारत के चुनावों तक ही सीमित नहीं है इस अमिट स्‍याही (इनडेलिबल इंक) का प्रयोग बल्कि कनाडा, घाना, नाइजीरिया, मंगोलिया, तुर्की, नेपाल, मालदीव समेत दुनिया के 25 और देशों को भी हम इसका निर्यात करते हैं।

 

दिल्‍ली अभिलेखागार, भारत के निर्वाचन आयोग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय तथा फोटो डिवीज़न एवं फिल्‍म डिवीज़न अभिलेखागारों से जुटायी दुर्लभ तस्‍वीरों, कतरनों, पत्रों वगैरह से तैयार हुआ है भारत का अनूठा इलेक्‍शन म्‍युजि़यम। पहले आम चुनाव के बैलेट बॉक्‍स से लेकर अस्‍सी के दशक में इस्‍तेमाल हुई कनस्‍तरनुमा मतपेटियों, मतपत्रों, चुनाव चिह्नों को देखकर आप निश्चित ही हैरत में पड़ जाएंगे।

हैरानगी का सबब वो बाबा आदम के ज़माने की मतपेटियां हैं जिन्‍हें देखकर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि चुनाव जैसी जटिल और नाजुक प्रक्रिया को अंजाम देने वाले तंत्र में इनका भी रोल हुआ करता था।

 

वैसे इलेक्‍शन म्‍युजि़यम में ही इन बैलेट बॉक्‍सों का पूरा अतीत दर्ज है, कि कैसे आज़ादी के बाद पहले चुनाव के लिए गोदरेज समेत कुल पांच कंपनियों के स्‍टील के बैलेट बॉक्‍सों को चुना गया था और कुल 25,84,945 मतपेटियों का इस्‍तेमाल उस ऐतिहासिक चुनावी प्रक्रिया में किया गया था। और तो और, वो भीमकाय मतपेटी भी यहां प्रदर्शित है जिसे अब तक के सबसे बड़े बैलेट बॉक्‍स का दर्जा हासिल है। यह 1996 के चुनाव में बाहरी दिल्‍ली चुनाव क्षेत्र के लिए इस्‍तेमाल की गई थी जहां से दस-बीस नहीं बल्कि 87 उम्‍मीदवार चुनाव मैदान में थे!

और बात जब उम्‍मीदवारों की चली है तो हम आपको यह भी बताते चलें कि देश में एक चुनाव ऐसा भी था जिसने चुनाव आयोग के सामने बहुत बड़ी आफत खड़ी कर दी थी। यह 1996 के तमिलनाडु विधानसभा चुनाव की कहानी है।

चेन्‍नई में मोदाकुरिचि विधानसभा क्षेत्र से उस दफे चुनावी दौड़ में उतरे प्रत्‍याशियों की गिनती हज़ार का आंकड़ा पार कर गई थी और तब आयोग को मतपत्र छपवाने के लिए बाकायदा किताबें छपवनी पड़ी थी।

 

आखिर ऐसा क्‍या हुआ कि एक सीट से एक साथ इतने ढेर उम्‍मीदवार चुनाव लड़ने चले आए थे? दरअसल, किसानों की समस्‍याओं की तरफ से आंखे मूंदे पड़े स्‍थानीय प्रशासन के रवैये पर विरोध दर्ज कराने के लिए 1033 किसानों ने पर्चे भर दिए थे। और भी दिलचस्‍प वाकया तो तब सामने आया जब नतीजे घोषित हुए और पता चला कि 88 उम्‍मीदवारों के पक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा था। यानी उन्‍होंने खुद भी खुद को वोट नहीं दिया था!

ऐसे कितने ही रोचक किस्‍सों की बानगी दिखाता है इलेक्‍शन म्‍युजि़यम। स्‍टील की मतपेटियों से वोटिंग मशीन (ईवीएम) तक के दिलचस्‍प सफर पर भी ले जाता है।

देश में 68 साल पहले संपन्‍न चुनावों की दुर्लभ फुटेज दिखाने वाली फिल्‍म ”द ग्रेट एक्‍सपेरीमेंट” भी यहां दिखायी जाती है।

और तो सब ठीक है, बस तकलीफ का सबब यही है कि इतनी विविधता वाले देश में, अभी जुम्‍मा-जुम्‍मा दो साल पहले खुले इस आधुनिक संग्रहालय में व्‍हीलचेयर यूज़र का कोई ख्‍याल नहीं रखा गया है और न ही मूक-बधिरों, नेत्रहीनों या अन्‍य शारीरिक सीमाओं से जूझने वाले आगंतुकों को यहां लाने की कोई नीयत दिखायी देती है।

प्रवेश के लिए दिल्‍ली चुनाव आयोग की वेबसाइट पर बुकिंग करवाएं।

वेबसाइट- https://ceodelhi.gov.in/electionmuseum/
ईमेल- ceomuseum.delhi@gov.in
फेसबुक- https://www.facebook.com/ceodelhioffice/
फोन- 011-23946414/ 011-23946416
समय- सवेरे 11 बजे से शाम 4 तक (सोमवार से शुक्रवार/ केवल कार्यदिवसरों पर)
प्रवेश मुफ्त


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