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12 साल के बच्चे ने बनाई 500 रु से भी कम की छननी, बिना किसी मेहनत के साफ़ कर सकते हैं अनाज!

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“एक बच्चे के लिए उसकी सबसे पहली शिक्षक माँ होती है। अगर माँ चाहे तो अपने बच्चों के दिल में बचपन से ही नेकी और अच्छे कार्यों के बीज बो सकती हैं और ये बीज समय के साथ आपको मीठे फल देंगें। इसलिए मैं अभी से अपने बेटे को सामाजिक कार्यों से जोड़ रही हूँ ताकि वह आगे चलकर लाखों लोगों की ज़िंदगी में बदलाव का कारण बने।”

ह कहना है महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में स्थित भोस गाँव की रहने वाली एक गृहिणी अमृता खंडेराव का। गाँव में पली-बढ़ी अमृता ने ग्रामीण जीवन को बहुत करीब से जाना है। इसलिए वे हमेशा से गाँव के लोगों के लिए और ख़ासकर ग्रामीण महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थीं।

अमृता कहती हैं कि वे अचानक से किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं करती बल्कि हर दिन छोटे-छोटे काम करके परिवर्तन की बड़ी तस्वीर बनाना चाहती हैं। अमृता की इस उम्दा सोच को अपनी प्रेरणा बनाकर बदलाव की कहानी गढ़ रहा है उनका 12 वर्षीय बेटा बोधिसत्व गणेश खंडेराव!

सातवीं कक्षा में पढ़ रहा बोधिसत्व बहुत ही होनहार छात्र है। पढ़ाई-लिखाई में हमेशा अव्वल आने वाला यह बच्चा अपने आसपास के वातावरण को लेकर भी काफ़ी सजग है। बचपन से ही अपनी माँ के विचारों से प्रभावित बोधिसत्व छह साल की उम्र से समाज और पर्यावरण के लिए कार्य कर रहे हैं।

पिता गणेश खंडेराव और माँ अमृता के साथ बोधिसत्व

जिस गाँव में बोधिसत्व का परिवार रहता है, वहां आसपास घना जंगल है। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह जंगल धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है, क्योंकि प्रकृति की परवाह किये बिना लोग पेड़-पौधों को काट रहे हैं। यहाँ जिस स्तर पर वृक्षों की कटाई हो रही है, उसे देखते हुए फिर से लोगों द्वारा पौधारोपण की उम्मीद कम ही नज़र आती है।

“हम घर में हमेशा इस विषय में बात करते थे तो बोधि भी बड़े ध्यान से सुनता था। कुदरत की मेहरबानी है कि मेरे बच्चे का दिमाग बहुत तेज है और इसलिए वो अपनी उम्र के बाकी बच्चों से काफ़ी आगे की सोचता है। इसलिए जब भी हम उसे कोई समस्या बताते हैं तो वो खुद सोचकर, कहीं-कहीं से पढ़कर उस समस्या का हल ढूंढता है,” अमृता ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए कहा।

बोधिसत्व ने अपने आस-पास के जंगल को कम होते देखा तो उसने इसका समाधान ढूँढना शुरू किया। तब बोधि सिर्फ़ पहली कक्षा में थे जब उन्होंने ‘सीड बॉल’ के रूप में पर्यावरण-संरक्षण का उपाय ढूंढा। उन्होंने स्कूल में अपने सहपाठियों और अन्य लोगों को ‘सीड बॉल’ के बारे में जागरूक करना शुरू किया। उन्होंने न सिर्फ़ अपने स्कूल में बल्कि जिले के दूसरे स्कूलों में जाकर भी असेंबली में छात्रों और अध्यापकों को इस समस्या के प्रति आगाह करते हुए ‘सीड बॉल’ के बारे में बताया।

सीड बॉल

बोधि के ‘सीड बॉल प्रोजेक्ट’ को उसे स्कूल के प्रोग्राम में तो सराहना मिली ही, बल्कि राज्य-स्तरीय मेलों में भी महाराष्ट्र के विभिन्न नामी-गिरामी लोगों ने भी उनकी सराहना की। अमृता और बोधि ने इस प्रोजेक्ट को हक़ीकत बनाने के लिए भोस गाँव के पास के जंगलों में जाकर कई बार ‘सीड बॉल’ से पौधारोपण का अभियान भी चलाया।

‘सीड बॉल’ के अलावा अब बोधि ने ‘मैजिक सॉक्स अभियान’ भी शुरू किया है। दरअसल, एक बार बोधि अपनी माँ के साथ ‘स्ट्रॉबेरी फार्मिंग’ देखने के लिए गए। वहां पर उन्होंने देखा कि एक किसान अपने खेत में स्पंज बिछाकर, फिर उसके ऊपर मिट्टी डालकर स्ट्रॉबेरी की खेती कर रहा है। स्पंज की मदद से भले ही फसल को पानी कम मिले लेकिन नमी ज़्यादा दिनों तक बरकरार रहती है। इससे बीजों का अंकुरित होना आसान हो जाता है।

यह बात बोधि के दिमाग में रह गई और उन्होंने ऐसे ही एक छोटे से एक्सपेरिमेंट के तौर पर अपने किसी पुराने जुराब/सॉक्स में थोड़ी-सी गीली मिट्टी और दो-तीन बीज भरकर उसमें गांठ बांध दी। उन्होंने उस जुराब को अपने बगीचे में एक गमले में रख दिया। कुछ दिनों बाद अमृता और बोधि ने देखा कि वे बीज अंकुरित होने लगे थे। बोधि ने अपने इस एक्सपेरिमेंट को ‘मैजिक सॉक्स’ नाम दिया।

इस एक्सपेरिमेंट की सफलता देखकर बोधि ने अपने स्कूल की असेंबली में इस पर एक प्रेजेंटेशन दी और यवतमाल के कई स्कूलों ने अपने छात्रों से घरों से फटे-पुराने सॉक्स लाने के लिए कहा। अमृता व बोधि ने भी बच्चों के साथ मिलकर बहुत सारे मैजिक सॉक्स तैयार किए और फिर आसपास के जंगलों में जाकर फेंक दिए।

‘मैजिक सॉक्स’ बनाते बच्चे

अमृता बताती हैं, “अगर आपने कभी गौर किया हो तो इंसान के पौधारोपण से कहीं ज़्यादा क्षमता प्रकृति की स्वयं पौधारोपण की है। मुंबई-पुणे के बीच ट्रेन से सफर करते हुए आप देखेंगे कि रास्ते में बहुत बड़े और घने पेड़ हैं। वहां किसने पौधारोपण किया? यह प्रकृति का कमाल है और जो बीज बिना किसी बाहरी देख-रेख के सिर्फ़ प्रकृति के सहारे पनपता है वह बहुत बड़े और छायादार पेड़ में विकसित होता है। इसलिए हमारे यहाँ ‘सीड बॉल’ या फिर ‘मैजिक सॉक्स’ जैसी तकनीक बड़े पैमाने पर कामयाब हो सकती है। बस हमें लगातार कोशिश करने की ज़रूरत है।”

बोधि को पर्यावरण संरक्षण के कार्यों के लिए बहुत से सम्मान और अवॉर्ड से नवाज़ा जा चूका है। साल 2014 में तो उन्हें महाराष्ट्र के एक सोशल इवेंट में चीफ गेस्ट के तौर पर भी बुलाया गया था। इसके अलावा, उन्हें राज्य के ‘4 करोड़ पौधारोपण’ अभियान में सबसे पहला पौधा लगाने का सम्मान भी मिला है।

जगह-जगह उन्हें ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज पर संबोधन के लिए भी बुलाया जाता है। यवतमाल, विदर्भ और आसपास के क्षेत्रों में ‘सीड बॉय’ के नाम से पहचाने जाने वाले बोधि अब ‘आविष्कारक’ के तौर पर भी पहचाने जाने लगे हैं।

साल 2017 में बोधि ने एक ‘आटोमेटिक छननी’ बनाई, जिसकी मदद से कोई भी अनाज बहुत ही कम समय में बिना किसी ख़ास मेहनत के आसानी से साफ़ किया जा सकता है। अपने इस इनोवेशन के बारे में बोधि ने बताया कि कई बार उन्होंने अपनी मम्मी और गाँव की औरतों को हाथ से अनाज साफ़ करते देखा। इस काम में बहुत वक़्त भी लगता और फिर थकान भी काफ़ी हो जाती थी।

पहले लकड़ी और फिर लोहे से बनायीं गयी आटोमेटिक छननी

बोधि को महसूस हुआ कि उन्हें इस समस्या पर कुछ करना चाहिए और फिर उन्होंने एक ऐसी ‘मैकेनिकल छननी’ का मॉडल बनाया, जिससे सैकड़ों किलो अनाज भी बहुत ही आसानी से चंद घंटों में साफ़ किया जा सकता है। इस छननी को कोई भी 500 रुपए से भी कम की लागत में बनवा सकता है। इस छननी से ग्रामीण महिलाओं को काम करने में आसानी हो रही है। साथ ही, उनके लिए रोज़गार का साधन भी खुल गया है।

“अगर आप कभी गाँव में रहे हैं तो आपको पता होगा कि बड़े किसान अक्सर गाँव के मजदूरों को अपने खेतों का अनाज साफ़ करने के लिए दिहाड़ी पर रखते हैं। इनमें ज़्यादातर महिलाएं होती है। पहले ये महिलाएं हाथ से अनाज साफ़ करती थी तो उन्हें बहुत समय लगता था और वे एक दिन में कुछ किलो ही अनाज साफ कर पाती थी। लेकिन अब इस छननी की मदद से वे दिन में 20 किलो से भी ज़्यादा अनाज साफ़ कर सकती है। इससे उनकी मेहनत कम हुई है और आय बढ़ी है,” अमृता ने बताया।

बोधि के इस आविष्कार को सबसे पहले यवतमाल के अमोलकचंद महाविद्यालय के आविष्कार मेला में प्रदर्शित किया गया। यहाँ पर इस इनोवेशन की ख़ूब तारीफ हुई। इसके बाद बोधि के माता-पिता ने 92वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन में लगभग 40 मैकेनिकल छननी ऐसी महिलाओं को मुफ़्त में प्रदान की, जिनके किसान पतियों ने आत्म-हत्या कर ली थी।

किसान-विधवाओं को छननी भेंट करते हुए बोधि

यवतमाल के पास बसे पाहुर गाँव की 65 वर्षीय महिला किसान प्रद्न्या बापट लगभग 1 साल से यह छननी इस्तेमाल कर रही हैं। द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, “फसल के बाद जो अच्छा और मोटा अनाज होता है उसे किसान मंडी में बेच देते हैं। वे ज़्यादातर बाद के बचे हुए अनाज को घर के लिए रखते हैं, जिसमें थोड़ी मिट्टी, कंकड़ रहते हैं। इसलिए उसको साफ़ करके ही इस्तेमाल करना पड़ता है। इस काम में बड़ी मेहनत लगती है, छोटी वाली छननी से साफ़ करो तो पूरा दिन जाता है एक बोरी अनाज साफ़ करने में।”

लेकिन जबसे वे बोधि की बनाई छननी इस्तेमाल कर रही हैं तो उनकी मेहनत और समय, दोनों बच रहे हैं। वे बताती हैं कि इस छननी से वे बहुत ही आराम से कहीं भी बैठकर अनाज साफ़ कर लेती हैं। गेंहू के लिए तो छननी एक दम सही है बाकी ज्वारी जैसे थोड़े बारीक अनाज के लिए वे पतली वाली छननी लगाती हैं।

छननी इस्तेमाल कर रही एक और महिला आशा बाई का कहना है कि इस छननी में अनाज साफ़ करते हुए उन्हें घंटों बैठने की ज़रूरत नहीं है और इससे उनके कंधों और कमर के दर्द से भी राहत मिली है। साथ ही, अब एक ही दिन में काफ़ी ज़्यादा अनाज साफ़ हो जाता है।

इन महिलाओं का मानना है कि बोधि का यह आविष्कार भले ही छोटा-सा है। लेकिन किसान के घर में बहुत ही काम की चीज़ है। इस छननी को चलाने के लिए किसी बिजली की ज़रूरत नहीं, आप ज़मीन पर या फिर कुर्सी पर, कैसे भी बैठकर थोड़ी देर में ही अनाज साफ़ कर सकते हैं।

आशाबाई आटोमेटिक छननी इस्तेमाल करते हुए

अमृता कहती हैं कि वे बोधि को हमेशा सबको अपने साथ लेकर चलने के लिए प्रेरित करती है। अगर हम अकेले किसी बदलाव की राह पर बढ़े तो बहुत ज़्यादा समय तक चल नहीं पाएंगे क्योंकि साधन सीमित हैं। लेकिन अगर समुदाय आगे बढ़कर लोगों की मदद करे तो यक़ीनन हम कुछ कर सकते हैं।

इसलिए जब भी कोई समस्या होती है तो बोधि अपने स्कूल-प्रशासन की मदद से अन्य छात्रों का साथ मांगते हैं। अपने गाँव के एक गरीब कैंसर पीड़ित बच्चे की मदद भी बोधि ने इसी तरह की। उन्होंने अपने स्कूल में ‘सिक्का अभियान’ चलाया। उन्होंने छात्रों और शिक्षकों से अपील की कि सभी को सिर्फ़ एक रुपया दान करना है और जो भी फंड इकट्ठा होगा, वह हम उस बच्चे को दे देंगे।

बोधि के इस अभियान से सिर्फ़ एक दिन में आठ से दस हज़ार रुपए इकट्ठा हो गए। किसी भी आम आदमी के लिए एक बार में इतने पैसे किसी की मदद के लिए देना आसान नहीं होता है। लेकिन जब सब साथ में आए तो बिना किसी परेशानी के मदद हो गई।

बोधि को बहुत से सम्मानों से नवाज़ा गया है

अपने बेटे को समाज के लिए जीना सिखाने वाली अमृता अन्य माँओं के लिए सिर्फ़ यही कहती हैं कि अपने बच्चों को शिक्षा, खेल और अन्य गतिविधियों में तेज बनाने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ-साथ उन्हें समाज के प्रति भी जागरूक बनाओ। बच्चे देश का भविष्य होते हैं और अगर आप अभी से उनमें समाज-कल्याण की सोच के बीज डालेंगी तभी तो कल वे परिवर्तन के पौधे बनेंगे।

हम अमृता की सराहना करते हैं, जो अपने बेटे को इस छोटी उम्र से ही बेहतर समाज और बेहतर भारत बनाने में अपना योगदान देने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

अमृता खंडेराव और बोधिसत्व खंडेराव को संपर्क करने के लिए 9503112114 पर डायल करें!

‘आटोमेटिक छननी’ कैसे काम करती है यह देखने के लिए यह विडियो देख सकते हैं:

संपादन: भगवती लाल तेली  


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संघर्ष से जीत तक : वर्ल्ड पैरा-बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतने वाली मानसी जोशी की कहानी!

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भारत की पैरा-बैडमिंटन प्लेयर मानसी जोशी ने अपने करियर की पहली वर्ल्ड चैंपियनशिप जीतकर देश का नाम ऊँचा किया है। 24 अगस्त 2019 को इस चैंपियनशिप का फाइनल था और इसमें उनके सामने तीन बार वर्ल्ड चैंपियन रह चुकीं पारुल परमार थीं।

न्यूज़ 18 की खबर के मुताबिक, मानसी इससे पहले पारुल से कई टूर्नामेंट्स में हार चुकी थीं और इस वजह से किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे चैंपियनशिप जीत पाएंगी। पर 21-12 और 21-7 के स्कोर से मानसी ने पारुल को मात दी।

पर इस वर्ल्ड चैंपियन का यहाँ तक का सफ़र बिल्कुल भी आसान नहीं था। साल 2011 में एक सड़क दुर्घटना में उन्होंने अपना एक पैर खो दिया। लेकिन उन्होंने ज़िंदगी से हार नहीं मानी और आज अपनी मेहनत और जज़्बे के दम पर एक नई पहचान हासिल की है।

मानसी जोशी

अपने सफ़र के बारे में उन्होंने Humans of Bomaby को बताया, जो कि आप यहाँ नीचे पोस्ट में पढ़ सकते हैं!

“उस वक्त मैं अपने टू-व्हीलर से अपने ऑफिस जा रही थी, जब एक ट्रक ने मुझे टक्कर मारी और मेरे पाँव को बुरी तरह कुचल दिया। इसमें ड्राईवर की गलती नहीं थी – वहां एक पिलर था जिस से वह आगे देख नहीं पाया। वहां मौजूद लोगो ने मुझे फ़ौरन अस्पताल पहुँचाया जहाँ मेरा ऑपरेशन 5:30 बजे किया गया जबकि यह दुर्घटना लगभग 9:30 बजे हुई थी। डॉक्टर ने मेरे पाँव को बचाने की पूरी कोशिश की पर कुछ दिनों बाद ही उसमे इन्फेक्शन हो गया और उसे काटना पड़ा। जब डॉक्टर ने मुझे बताया तब मैंने उनसे कहा, “आपने इतनी देर लगायी ही क्यों। मुझे पहले से पता था की ये होना है।”

इस पूरी परीक्षा से निकलने में जिस चीज़ ने मेरी मदद की वह थी – स्वीकृति- कि यह मेरी नियती है, और अब यह मुझे चुनना है कि इस पर रोऊँ, या इसे एक चुनौती की तरह स्वीकार करके आगे बढूँ। मैंने दूसरा विकल्प चुना। जब लोग मुझे मिलने अस्पताल आते थे और मेरी हालत देखकर रोने लगते थे, तब मैं ही उन्हें कोई चुटकुला सुना कर हंसाया करती थी!

फिर मैंने फिजियोथेरेपी ली, और एक बार फिर से चलना सीखा। मेरा सबसे बड़ा डर था कि मैं बैडमिंटन नहीं खेल पाऊँगी जो बचपन से मेरा शौक रहा है – पर पता नहीं कैसे मैं उस समय भी खेल पा रही थी, जब मुझे चलने में भी कठिनाई हो रही थी। मैंने कॉर्पोरेट बैडमिंटन टूर्नामेंट जीतना शुरू किया और अपने एक दोस्त की सलाह पर नेशनल लेवेल पर खेला। मैंने नेशनल स्तर पर कई पदक जीते और इस साल इंग्लैंड में हुए पैरा बैडमिंटन वर्ल्ड चैंपियनशिप मे रजत पदक जीता। मैं दिन में 5 घंटे की ट्रेनिंग लेती हूँ, अपने सॉफ्टवेयर इंजीनियर के जॉब में रहते हुए, स्कूबा डाइविंग में ट्रेनिंग लगभग पूरी कर चुकी हूँ और लगभग पूरा भारत घूम चुकी हूँ। जब लोग मुझसे पूछते हैं, ” आप इतना कुछ कैसे कर लेती हैं?” मैं उनसे बस एक सवाल करती हूँ —–
“आपको किस बात ने रोका हुआ है?”

“I was on my way to work on a two wheeler one day when a trucked rammed into me and completely crushed my leg. It wasn’t…

Humans of Bombay ಅವರಿಂದ ಈ ದಿನದಂದು ಪೋಸ್ಟ್ ಮಾಡಲಾಗಿದೆ ಬುಧವಾರ, ಡಿಸೆಂಬರ್ 9, 2015


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पुरानी जींस को फेंकिए मत, इन्हें दीजिये, यह बस्ते और चप्पल बनाकर गरीब बच्चों को बाटेंगे!

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प और हम आए दिन सकारात्मक घटनाओं से जन्म लेने वाली सफलता की कहानियां पढ़ते हैं, जो हम में उत्साह का संचार करती हैं। इस तरह की पॉजिटिव वाइब्स वाली सक्सेस स्टोरीज से समाज के दूसरे युवाओं में भी कुछ कर गुजरने का जज़्बा पैदा होता है। यह कहानी भी ऐसे ही 3 दोस्तों की है, जिनकी सोच से समाज में बदलाव की एक बयार शुरू हुई।

फैशन डिजाइनिंग में अपनी डिग्री पूरी कर अपने प्रोजेक्ट में लगी रहने वाली मृणालिनी राजपुरोहित को एक दिन अचानक यह ख़्याल आया कि वह ऐसा क्या करे कि रात को सुकून की नींद सो सके, वह कह सके कि समाज को हमने कुछ दिया है। यह बात मृणालिनी ने अपने दोस्तों अतुल मेहता और निखिल गहलोत को बताई। अतुल और निखिल ने मृणालिनी की इस सोच में उसका साथ दिया और तीनों ने मिलकर ऐसा स्टार्टअप करने की सोची जो गरीब और जरूरतमंद बच्चों के लिए काम करेगा।

 

इन्होंने पुरानी जीन्स, डेनिम से बच्चों के लिए स्कूल सामग्री बनाने की सोची। सबसे पहले पुरानी डेनिम जींस से कुछ बैग, चप्पल, जूते और पेंसिल बॉक्स बनाए गए।

बाएं से दायें – अतुल मेहता, निखिल गहलोत और मृणालिनी राजपुरोहित

इसके बाद इस बात पर विचार किया गया कि अब आगे क्या किया जा सकता है?

इन दोस्तों ने लोगों की मदद से पैसे जुटाकर सरकारी स्कूलों में यह उत्पाद देना शुरू किया। फिर विचार आया कि यदि इस काम को एक बड़े लेवल पर ले जाना है तो क्यों न एक स्टार्टअप बनाकर कंपनी की शुरुआत की जाए और इस काम को सीएसआर के माध्यम से आगे बढ़ाया जाए। इस विचार के साथ एक स्टार्टअप की शुरुआत हुई जिसे ‘सोलक्राफ्ट’ नाम दिया गया।

 

‘सोलक्राफ्ट’ को शुरू हुए अब तक 9 महीने से ज्यादा हो चुके हैं। डोनशन और अन्य माध्यमों से लगभग 1200 स्कूली बच्चों तक ‘सोलक्राफ्ट’ अपने उत्पाद पहुंचा चुका है।

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सोलक्राफ्ट के उत्पाद के साथ बच्चे।

‘सोलक्राफ्ट’ की टीम ने ज़रूरतमंद बच्चों तक अपने उत्पाद पहुंचाने के अलावा लोगों को रोज़गार देने का भी काम किया है। अभी 5 कारीगर सोलक्राफ्ट के साथ जुड़कर अपणी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं और हर महीने 20 हज़ार रुपए तक कमा रहे हैं।

मृणालिनी बताती हैं, ”गरीब बच्चों के लिए सस्टेनेबल फैशन, यह हमारा टैगलाइन है। हमने पुरानी और काम में नहीं आ रही जीन्स पेंट्स और डेनिम को टारगेट किया है। किसी भी जींस या डेनिम को लोग कुछ साल से ज्यादा इस्तेमाल नहीं करते। चूंकि इस कपड़े की खासियत यह होती है कि बहुत बार पहने जाने के बाद भी यह फटता, घिसता नहीं और मजबूत बना रहता है। हमने तय किया कि जब डेनिम को पहनना छोड़ दिया जाता है, तब क्यों न हम उसे किसी काम में लेकर अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभाएं?”

बात तो सही है। जीन्स/डेनिम को पहनना छोड़ देने के बाद भी उसकी अहमियत कम तो नहीं हो जाती न? इसी सोच को अमलीजामा पहनाते हुए इन दोस्तों ने अपसाइकिल के जरिए एक एजुकेशन किट बनाया और निकल पड़े उदास चेहरों पर मुस्कान लाने।

गांवों की सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे आज भी कुछ बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं, यह किट उन बच्चों के लिए विशेष तौर पर डिज़ाइन किया गया है। इन बैग्स को यह लोग खुद भी प्रयोग कर रहे हैं। मृणालिनी तो इन चप्पलों को पहन भी रही हैं। उन्होंने अपने द्वारा निर्मित इन चप्पलों को पहन कई तरह के रास्तों से गुजरकर इस बात को परखा कि यह कितनी चल सकती है? पूरी तसल्ली के बाद ही इन्होंने यह किट बांटे हैं।

 

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इनकी कोशिश रहती हैं कि बुनियादी सुविधाओं से वंचित क्षेत्रों में रहने वाले उन बच्चों की मदद की जाए, जिनके पास अच्छा बैग और चप्पल नहीं है। 

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बच्ची को जींस की चप्पल पहनाती मृणालिनी।

इसके लिए टीम ने स्कूल बैग, चप्पल, ज्योमैट्री बॉक्स को मिलाकर एक किट तैयार की है। यह सभी उत्पाद डेनिम फैब्रिक को अपसाइकिल करके बनाए गए हैं। इसके अलावा टीम सालभर के दौरान बांटे गए किट्स को जाकर देखती है कि उनके उत्पाद कितने उपयोग किए गए। यदि बैग, चप्पल या अन्य कोई उत्पाद फट गए हैं या कुछ और परेशानी है, तब भी कोशिश रहती है कि उन्हें बदल दे। फ़िलहाल इन दोस्तों की मुहिम जोधपुर और उसके आसपास के गांवों और सरकारी स्कूलों तक सीमित है लेकिन इन युवाओं का सपना है कि यह फैलती जाए।

‘सोलक्राफ्ट’ के मेंटर एडवाइजर देवेश राखेचा कहते हैं, ” गाँव के बच्चों के पास पहनने के लिए उनकी साइज की चप्पल तक नहीं है। वे बहुत छोटी या फिर किसी बड़े की चप्पल पहनकर टेढ़े-मेढ़े पथरीले रास्तों से गुजरते हैं। यदि हम इस तरह के बच्चों की कुछ मदद कर पाते हैं, उनकी जिंदगी को संवार पाते हैं, तो यह कितना बेहतर है। हाथ पर हाथ धर के बैठे रहने या कुछ ना करने से तो बेहतर है कुछ करना।”

टीम का लक्ष्य है कि आने वाले 2 साल में एक लाख से ज्यादा बच्चों तक यह किट पहुंचे। एक किट की कीमत ₹399 रुपए है। अभी तक बांटे गए ज्यादातर किट्स के लिए इन दोस्तों ने आपस में ही रुपए जुटाए हैं। लेकिन अब सीएसआर फंड के जरिए यह काम आगे बढ़ने वाला है। आने वाले दिनों में ‛डेनिम कलेक्शन ड्राइव’ शुरू होने जा रही है, ताकि काम में न आ रही जींस/डेनिम आसानी से मिलना शुरू हो जाए। कुछ बड़े कॉर्पोरेट घरानों से सीएसआर फंड को लेकर बातचीत जारी है।

इसी सहयोग के आधार पर एक लाख किट बांटने का उद्देश्य रखा गया है, इसके लिए 10 टन डिस्कार्ट डेनिम जींस को अपसाइकिल किया जाना है।

अपने इसी उद्देश्य से सोलक्राफ्ट की टीम बच्चों की स्कूली जिंदगी से जुड़ी कुछ ऐसी ही परेशानियों को आसान करने की कोशिश कर रही है। कई बार ऐसा हुआ है, बच्चों की आंखें नम हुई हैं, चेहरे पर मुस्कान उभरी है। यही मुस्कान इन दोस्तों को बेहतर, और बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है।

एक घटना के बारे में बताते हुए निखिल गहलोत (चीफ इन्नोवेशन ऑफिसर) कहते हैं, ”बासनी की एक स्कूल में हम लोग डिस्ट्रीब्यूशन के लिए गए हुए थे। हमने वहां पर एक बच्चे के आधी कटी हुई चप्पल पहनी देखी, उसके आधे पाँव जमीन पर और आधे चप्पल में थे। उस बच्चे के पास बैग भी नहीं था और वह हाथों में किताबें लेकर स्कूल आया था। हमने बच्चे को सोलक्राफ्ट से बैग और चप्पल दिलवाई। उस दिन वो बच्चा सबसे ज्यादा खुश हुआ। उस लम्हे की एक यादगार फोटो हमारे पास आज भी सुरक्षित है।”

सोलक्राफ्ट में फ़िलहाल बैग, चप्पल और पेंसिल बॉक्स उपलब्ध है लेकिन धीरे-धीरे ट्रैवलिंग किट, चश्मे का कवर, जिम बैग, शू कवर, कार्ड होल्डर, बोतल कवर, पासपोर्ट कवर, लेपटॉप बैग, आईपेड कवर, मैट्रेसेज, एप्रिन सहित कई तरह के उत्पाद बनाए जाने का विचार है। कुर्सियों के कवर बनाने की भी सोची गई है। कॉर्पोरेट गिफ्टिंग के लिए भी कुछ उत्पाद बनाने जा रहे हैं।

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किट मिलने पर खुशी मनाते बच्चे।

अगर आप भी ‘सोलक्राफ्ट’ से जुड़ना चाहते हैं तो ‘सोलक्राफ्ट’ की वेबसाइट पर वॉलिंटियर्स फॉर्म और इंटर्नशिप के माध्यम से जुड़ सकते हैं। आप प्रमोशन में भी मदद कर सकते हैं। किसी स्कूल या कॉलेज में एंबेसडर बनकर वहां से डेनिम कलेक्शन करवाकर भी दे सकते हैं।

आप सोलक्राफ्ट की किसी तरह से मदद करना चाहते हैं या उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो उनके फेसबुक , ई-मेल, वेबसाइट  के माध्यम से जुड़ सकते हैं। या फिर इन नंबर 08559840605, 08387951000 पर कॉल भी कर सकते हैं।

संपादन – भगवती लाल तेली

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दिवंगत सैनिकों के परिवारों तक मदद पहुंचाकर आज भी देश सेवा में लगे हैं यह रिटायर्ड कर्नल!

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रिटायर्ड कर्नल शंकर वेम्बू हमेशा से भारतीय सेना में शामिल होना चाहते थे। उनके दिल में देश की सेवा करने की भावना बचपन से ही थी। इसलिए उन्होंने पहले एनडीए और फिर आईएमए जॉइन किया।

साल 1997 में उन्हें भारतीय सेना में कमीशन किया गया था। फिर साल 1998 में जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में आतंकियों को हटाने के लिए सेना के एक ऑपरेशन के दौरान उनकी बहादुरी के लिए उन्हें शौर्य चक्र से नवाज़ा गया। इसके बाद उन्होंने 1999 में कारगिल युद्ध के ऑपरेशन विजय में भी अपनी सेवाएँ दीं।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए कर्नल शंकर ने कहा कि ऑपरेशन विजय के अनुभव ने उनकी ज़िंदगी बदल दी। “उस वक़्त मैं युवा अफ़सर था, सिर्फ़ दो साल हुए थे सेना में। खुशकिस्मती से, हमारी यूनिट से कोई घायल नहीं हुआ था जबकि भारतीय सेना ने ऑपरेशन के दौरान अपने 500 से भी अधिक सिपाही और अफ़सर खोए थे।”

कर्नल शंकर ने सिर्फ़ 20 साल ही सेना में नौकरी की और फिर उन्होंने रिटायरमेंट ले ली।

रिटायर्ड कर्नल शंकर वेम्बू (साभार: फेसबुक)

वे बताते हैं कि बिना किसी युद्ध या फिर हमले की स्थिति के भी भारतीय सेना सर्विस के दौरान किसी न किसी दुर्घटना के चलते अपने सैनिकों को खो रही है। ऐसे सैनिक और अफ़सरों को मरने के बाद ‘शहीद’ होने का मुक़ाम भी नहीं मिलता है। ऐसे में, इन सिपाहियों के घर वाले ज़्यादातर सेना द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। कोई नहीं पूछता कि इन सैनिकों का परिवार इनके बाद कैसे गुज़र-बसर कर रहा है।

इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी खत्म होने से पहले ही रिटायरमेंट ले ली क्योंकि उन्हें लगा कि इन सैनिकों के परिवारों की मदद करना भी देश की सेवा है। उन्होंने फ़ैसला किया कि वे सैन्य ट्रैनिंग या फिर अपनी नौकरी के दौरान किसी दुर्घटना में मरे सैनिकों और अफ़सरों के घरों तक सेना से मिलने वाली सभी तरह की मदद को पहुंचाएंगे।

उनकी इस पहल का नाम उन्होंने ‘प्रोजेक्ट संबंध’ रखा। यह 1000 दिनों का एक प्रोजेक्ट है, जिसमें वे भारतीय सेना के इन दिवगंत सिपाहियों के परिवारों से संपर्क कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि भारतीय सेना ने साल 2019 को सैनिकों के परिवार का साल घोषित किया है।

कर्नल शंकर ने अपने इस प्रोजेक्ट को अपनी ड्यूटी से रिटायरमेंट लेने से पहले 15 अगस्त 2017 को ही शुरू कर दिया था और यह प्रोजेक्ट 11 मई 2020 को खत्म होगा।

हर साल किसी दुर्घटना, बीमारी, आत्महत्या आदि के चलते भारतीय सेना के 1500-2000 सैनिकों की जान चली जाती हैं। जहाँ शहीदों के परिवार की मदद के लिए बहुत से लोग आगे आते हैं तो वहीं इस तरह की स्थिति में जान गंवाने वाले सैनिकों के परिजन सिर्फ़ एक पेंशन के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। उन्हें न तो कोई आर्थिक मदद मिलती है न ही भावनात्मक!

बहुत बार इन सैनिकों की पत्नी और बच्चे घर से अलग हो जाते हैं। जिसके चलते सेना के लिए उनका रिकॉर्ड रखना मुश्किल होता है।

इस वजह से भारतीय सेना और सैनिकों के इन निकटतम परिजनों के बीच का संपर्क लगभग टूट ही जाता है। ऐसे में, ये परिवारजन अपने सैनिक पति और पिता की मृत्यु के बाद मिलने वाली कई तरह की स्कीम और सुविधाओं से अनभिज्ञ रहते हैं।

प्रोजेक्ट संबंध का उद्देश्य इन परिवारजनों के प्रति सैन्य अधिकारियों और आम नागरिकों में जागरूकता फैलाना है। हालांकि, इस राह में बहुत-सी चुनौतियाँ हैं जिनका सामना कर्नल शंकर हर दिन बहादुरी से करते हैं।

साभार: फेसबुक

सबसे पहली मुश्किल है इन सैनिकों के परिजनों का पता लगाकर उन तक पहुंचना, फिर वेरीफाई करना और यह सुनिश्चित करना कि सभी तरह की मदद उन तक पहुंचे। पिछले दो सालों में उन्होंने कुछ ऐसे ही परिवारों की जानकारी इकट्ठा की और फिर अच्छे से समीक्षा करके उन परिवारों को भी जोड़ा है जिनका नाम रिकार्ड्स में दर्ज नहीं है।

उन्होंने अब तक ऐसे 27,000 परिवारों को ढूंढ निकाला है और अब उनका यह प्रोजेक्ट अपने आख़िरी चरण में है। साथ ही, उनके इस काम से उन सैन्य अधिकारियों की जागरूकता भी काफ़ी बढ़ी है जिन पर इन परिवारों तक सभी सुविधाएँ पहुँचाने की ज़िम्मेदारी है।

“बहुत मेहनत से जो भी जानकारी मैंने इकट्ठा की है और जो भी डाटा तैयार किया है, उसे इस्तेमाल करके मुझे मेरे गाँव (तंजावुर जिले में) के पास का एक नाम मिला। सिर्फ़ स्वर्गीय सैनिक (हवलदार के. पोंमुदी) का नाम और एक पता, मैं उनके घर गया। वहां पर, दिवंगत सैनिक का भाई मुझे मिला, जो सैनिक की पत्नी (सरस्वती) और बेटे (नंद बाला) के प्रति बहुत कटु था। उसने मुझे बताया कि वे लोग अब उनके साथ नहीं रहते और उस विधवा को किसी भी तरह की मदद की ज़रूरत नही है,” कर्नल शंकर ने पिछले दिसंबर यह बात अपने फेसबुक पोस्ट में साझा की।

सैनिक के भाई के व्यवहार से कर्नल काफ़ी हैरत में थे और उन्हें समझ आया कि क्यों सैनिक की पत्नी और बेटे को उन सुविधाओं के बारे में नहीं बताया जा सका, जिन पर उनका हक़ है। इसलिए उन्होंने उस यूनिट में संपर्क किया, जहाँ दिवंगत सैनिक थे और बहुत कोशिशों के बाद उन्हें सरस्वती और उनके बेटे के बारे में पता चला। वे लोग चेन्नई के छोटे से घर में रह रहे थे।

साभार: फेसबुक

जब कर्नल शंकर उनसे मिलने गए तो उन्हें पता चला कि आर्थिक तंगी के चलते उस माँ ने कितना संघर्ष किया है और साथ ही, हर दिन कैसे वह समाज का सामना करती हैं। सरस्वती ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया, “मैंने आख़िरी बार अपने पति से दिसंबर, 2014 में बात की थी और जब मैंने उनसे बात की थी तो वे थोड़े परेशान लग रहे थे। उसके लगभग एक महीने बाद मुझे सेना से अपने पति की मौत की खबर मिली।”

कर्नल शंकर ने आगे लिखा कि सरस्वती का घर उनके बेटे की ख़बरों से भरा पड़ा था। हवालदार के. पोंमुदी का बेटा नंद बाला चेन्नई के केन्द्रीय विद्यालय में नवीं कक्षा का छात्र है। उस बच्चे की क्षमता का पता इस बात से ही लगाया जा सकता है कि सिर्फ़ 3 साल की उम्र में उसे सभी देशों के नाम और उनकी राजधानियों के नाम मुंहज़ुबानी याद थे। बहुत से सॉफ्टवेयर उसने खुद सीखे, कर्नाटिक म्यूजिक की ट्रेनिंग ली है और तमिलनाडु के जूनियर शूटिंग चैंपियनशिप में प्रतिनिधित्व किया है।

“मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई यह जानकर कि उन्होंने इतने सालों में अपने लिए उपलब्ध किसी भी एजुकेशनल स्कॉलरशिप के लिए अप्लाई नहीं किया है। लेकिन उनके पास सभी कागजात थे तो मैंने उन्हें सभी स्कीम समझाई और तीन मिनट के अंदर उनका फॉर्म भर दिया। उन्हें स्कॉलरशिप का दावा करना चाहिए। पैसे भी ज़्यादा, यह एक तरह का संपर्क बनाये रखने का ज़रिया है,” उन्होंने कहा।

नंद बाला फ़िलहाल नीट परीक्षा की कोचिंग कर रहा है वह संगीत में अपनी प्रतिभा को आगे बढ़ाने के अलावा, शूटिंग में भारत के लिए पदक जीतने की इच्छा भी रखता है। कर्नल शंकर के प्रयासों के कारण, उसकी कोचिंग के लिए स्पोंसरशिप मिल रही है जबकि बहुत से अन्य लोग उसकी शूटिंग कोचिंग को स्पोंसर करने के लिए भी तैयार हैं।

एक सैनिक के बच्चों के लिए फॉर्म भरते हुए कर्नल शंकर (साभार: फेसबुक)

“ज़्यादातर वेलफेयर स्कीम शिक्षा के लिए है और कुछ वोकेशनल व सोशल है। शिक्षा के लिए विशेष रूप से, इन सैनिकों के जो बच्चे स्कूल या कॉलेज जा रहे हैं वे छात्रवृत्ति जैसे लाभों के हकदार हैं। कक्षा एक से आठवीं तक के लिए उन्हें प्रति वर्ष 10,000 रुपए मिलते हैं। 9वीं से 12वीं कक्षा तक उन्हें प्रति वर्ष 14,000 रुपए मिलते हैं। इसके अलावा ग्रेजुएशन करने वालों को 20,000 रुपए, पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए 25,000 रुपए और प्रोफेशनल कोर्स के लिए 50,000 रुपए सालाना मिलते हैं। सोशल स्कीम में, उदाहरण के लिए, अगर कोई सैनिक की विधवा फिर से शादी करती है, तो उसे 1,00,000 रुपए मिलते हैं। इन सुविधाओं को प्राप्त करना बहुत ही आसान है,” विजय दिवस पर द फ़ेडरल को एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बताया।

यह एक पेज का फॉर्म है जिसे सैनिकों के निकटतम परिवारजन www.indianarmyveterans.gov.in से डाउनलोड कर सकते हैं।

ऐसा ही एक और उदाहरण याद करते हुए उन्होंने बताया कि उन्हें जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के सुंदरबनी गाँव में भी एक सैनिक की विधवा के बारे में पता चला। शादी के दो साल बाद ही उसने अपने पति को दिल का दौरा पड़ने से खो दिया। पति के मौत के बाद दो साल की बेटी की ज़िम्मेदारी भी उसी पर आ गई ।

कर्नल को इस केस पर छानबीन करने पर पता चला कि अधिकारियों ने उसके पति की मौत का कारण गलत बताया था और उसे कुछ भी नहीं मिला सिवाय चंद रुपयों की पेंशन के।

“माँ के साथ उसकी बेटी भी थी जिसने अपने पिता को सिर्फ़ दो साल की उम्र में खो दिया था। उसने अपना हाथ मिलाने के लिए बढ़ाया और अपना नाम निहारिका बताया। अब 15 साल की यह बच्ची बिल्कुल अपने नाम की तरह है। जब मैंने उससे पूछा कि वह क्या बनना चाहती है तो उसने तुरंत जबाव दिया ‘कार्डियोलॉजिस्ट’,” कर्नल शंकर ने अपनी एक और फेसबुक पोस्ट में यह बात साझा की।

निहारिका के साथ कर्नल शंकर

वैसे तो उस माँ ने टीचर की नौकरी ले ली और अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा रही हैं, पर उनके लिए भी ज़िंदगी आसान नहीं रही। यहाँ पर कर्नल शंकर ने एक बार फिर एक सैनिक के परिवार को सेना से जोड़ दिया। इस परिवार को न सिर्फ़ उनके हक़ की मदद मिली बल्कि उस यूनिट ने भी उनसे संपर्क किया जहाँ दिवंगत सैनिक तैनात थे।

कर्नल शंकर का यह 1000 दिन का प्रोजेक्ट खत्म होने के कगार पर है और उसके बाद क्या?

इस सवाल के जबाव में वे कहते हैं, “मुझे विश्वास है कि ज़रूर कुछ सकारात्मक होगा। मुझे उम्मीद है कि जागरूकता फ़ैलाने की मेरी इन कोशिशों का असर पॉलिसी लेवल पर भी दिखेगा, जिसके बाद इन परिवारजनों को और बेहतर सुविधाएँ मिलेंगी। अभी के लिए, मेरा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ये 1000 दिन भारतीय सेना और इन सैनिकों व अफसरों के परिवारों के बीच एक वास्तविक संपर्क स्थापित करें।”

कर्नल शंकर को उम्मीद हैं कि इन 1000 दिनों के बाद इन सैनिकों के परिवार स्वस्थ और खुश रहेंगे। बेशक, भारतीय सेना में देश की सेवा करने वाले सैनिकों के परिवार हर तरह की मदद के हक़दार हैं!

कर्नल शंकर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें theprojectsambandh@gmail.com पर मेल कर सकते हैं और उनकी वेबसाइट www.projectsambandh.com देख सकते हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक


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हौसले से भर देगी इस क्रिकेटर की कहानी, अक्षमता के बावजूद बना चैंपियन!

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हते हैं, जहां चाह है वहां राह है! इस बात का सफल उदाहरण देखना है तो 21 साल के अमन रिज़वी से मिलिए। अमन जब अपना बल्ला हवा में घुमाते हैं और धड़ाधड़ स्ट्रोक मारते हैं तो भले उसकी आवाज उनके कानों तक नहीं पहुंचती, लेकिन दर्शकों की बजने वाली तालियों को वे जरूर महसूस कर लेते हैं। लखनऊ के रहने वाले अमन रिज़वी जन्म से ही सुनने और बोलने में असक्षम हैं लेकिन उनकी ये कमी कभी उनके हौसलों को कमजोर नहीं कर पाई।

90 फीसदी मूक बधिर होने के बावजूद अमन क्रिकेट चैंपियन हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी, लखनऊ का यह हरफनमौला खिलाड़ी जब स्टेडियम में उतरता है तो हर किसी की उम्मीदें इसी पर लगी होती हैं और अमन का शानदार प्रदर्शन देखकर हर कोई उनका मुरीद हो जाता है।

 

अमन से उन सभी दिव्यांग जनों को प्रेरणा लेनी चाहिए जो ये सोचकर हिम्मत हार जाते हैं कि ईश्वर ने उन्हें फलां क्षमता नहीं दी।

Aman Rizvi
अमन रिज़वी।

एक आम बच्चे की तरह अमन को भी बचपन से ही क्रिकेट का शौक था। वह अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेला करते थे। जब अमन के पिता सैय्यद इमाम ने अमन की क्रिकेट में रूचि देखी तो उनका क्रिकेट अकादमी में एडमिशन करवा दिया। तब से लेकर अमन बीते दस साल से क्रिकेट खेल रहे हैं और लखनऊ के यूनिटी क्रिकेट अकादमी से प्रशिक्षण ले रहे हैं। अमन रेग्युलर प्रैक्टिस करते हैं और बाएं हाथ से स्पिन गेंदबाज़ी भी करते हैं।

अमन क्रिकेट ही नहीं बल्कि पढ़ाई में भी अच्छे हैं। वे कोई भी चीज झट से सीख लेते हैं। अमन के पिता का कहना है कि उनके दो बेटे हैं, लेकिन अमन पर उन्हें ज्यादा गर्व है क्योंकि अमन ज्यादा समझदार है। वे अमन को लेकर निश्चिंत रहते हैं।

अमन ने अपनी जीत का पताका सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी फहराया है। साल 2016 में दुबई में आयोजित डेफ इंटरनेशनल क्रिकेट चैंपियनशिप में उन्होंने साउथ अफ्रीका के खिलाफ शानदार बैटिंग की और इंडियन टीम को जीत दिलाई थी। इस मैच में वे मैन ऑफ द मैच भी थे। इसके बाद वर्ष 2017 में एशिया डेफ कप में बांग्लादेश और नेपाल के खिलाफ अच्छी पारी खेलने पर उन्हें फिर मैन ऑफ द मैच चुना गया। इस मैच में उन्होंने 74 रन बनाए और 7 विकेट लिए थे। इस शानदार प्रदर्शन के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पूरी टीम को सम्मानित भी किया था।

 

साल 2018 में अमन आईपीएल पंजाब में ‘मैन ऑफ द मैच’ के अलावा ‘मैन ऑफ द सीरिज़‘ भी थे और उन्हें ईनाम में कार दी गई थी।

Aman Rizvi cricketer
डीफ इंडियन क्रिकेट लीग में मैन ऑफ द सीरीज रहे अमन।

जब अमन का जन्म हुआ और उनके माता-पिता को यह पता चला कि उनका बेटा बोल और सुन नहीं सकता है वे बहुत परेशान हो गए। किसी भी माँ-बाप के लिए ये दुख की ही बात होगी। उन्होंने कई डॉक्टरों से इसके बारे में बात की कि शायद कोई इलाज हो, लेकिन हर जगह निराशा ही मिली। डॉक्टर्स का कहना था कि अभी तक ऐसी कोई मशीन नहीं बन पाई है जिससे इस कमी को दूर किया जा सके, ऑपरेशन एक विकल्प हो सकता है लेकिन उसकी कोई गारंटी नहीं है। ऐसे में वे इतना बड़ा रिस्क नहीं लेना चाहते थे। तब उन्होंने सोचा कि हम अपने बेटे की परवरिश इतनी अच्छी करेंगे कि उसे इस कमी का अहसास ही नहीं होगा।

”जब लोग उससे आकर हाथ मिलाते हैं और सेल्फी लेते हैं तो हम वह दिन एक बार फिर याद करते हैं, जब डॉक्टर ने हमसे कहा था कि हमारा बेटा बोल और सुन नहीं सकता। आज अमन भले कुछ बोलता, सुनता न हो लेकिन उसे हजारों लोग सुनते हैं, ” अमन रिज़वी के पिता ने कहा।

Aman Rizvi cricketer
इंटरनेशनल डेफ क्रिकेट टीम में अमन (बीच में)।

साल 2019 में लखनऊ में आयोजित विश्व दिव्यांग दिवस पर तत्कालीन राज्यपाल राम नाइक ने आठ अलग-अलग श्रेणियों में 16 दिव्यांग जनों को उनके सराहनीय कार्यों को देखते हुए सम्मानित किया था, जिसमें अमन रिज़वी भी शामिल थे। अमन नेशनल और इंटरनेशनल मिलाकर अब तक 20 पदक जीत चुके हैं। अमन अब तक अंडर 16 और अंडर 19 में चयनित हो चुके हैं और अब वे आईपीएल भी खेलना चाहते हैं।

अमन के पिता सैय्यद इमाम अली कहते हैं, ”परेशानी इस बात की है कि अमन नॉर्मल ट्रेनिंग लेते हैं और नॉर्मल खिलाड़ियों के साथ ही खेलते हैं। लेकिन जब चयन की प्रक्रिया होती है तो कोच ये सोचकर उसे टीम में लेने से कतराते हैं कि वो सुन और बोल नहीं पाएगा तो परेशानी होगी। वे लखनऊ डिवीजन तक तो खिलाते हैं लेकिन उसके आगे जब स्टेट लेवल की बात आती है तो पीछे हट जाते हैं। जबकि ये गलत सोच है क्योंकि क्रिकेट खेलने के लिए बोलना और सुनना बहुत जरूरी तो नहीं है। अमन जैसे बच्चों के पास भी बहुत प्रतिभाएं होती हैं लेकिन जब तक इन्हें मौका नहीं मिलेगा, ये आगे कैसे बढ़ेंगे।

aman rizvi cricketer
विश्व दिव्यांग दिवस पर अमन रिज़वी को तत्कालीन राज्यपाल राम नाइक सम्मानित करते हुए

अमन ही नहीं बल्कि उनके जैसे कई ऐसे बच्चे हैं जो सही अवसर की तलाश में रहते हैं। देश में BCCI के पास ऐसे बच्चों के लिए अभी तक कोई सुविधा नहीं है, जिससे वे क्रिकेट के क्षेत्र में आगे बढ़ सके। इंटरनेशनल डेफ क्रिकेट एकेडमी ऐसे बच्चों को मौका देती है लेकिन उसके लिए भी खिलाड़ियों को खर्च खुद ही उठाना पड़ता है।

अमन एक्टिंग के भी शौकीन हैं। इसके अलावा वे कार और बाइक भी अच्छे से चला लेते हैं। अमन के माता-पिता को अपने इस होनहार बेटे पर बहुत नाज़ है।

 

संपादन – भगवती लाल तेली


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मंदिर के कचरे में ढूंढा व्यवसाय का खज़ाना, खड़ा कर दिया करोड़ों का कारोबार!

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गुजरात के बनासकांठा जिले में स्थित अम्बा जी मंदिर देशभर में मशहूर है। लगभग 1200 साल पुराने इस मंदिर में हर साल दूर-दूर से लाखों श्रद्धालु आते हैं और पूजा-आराधना करते हैं। लोगों की श्रद्धा और विश्वास के साथ-साथ ये मंदिर गुजरात की सांस्कृतिक विरासत में भी ख़ास स्थान रखता है।

जितनी इस मंदिर की महत्ता है और यहाँ लोग अपनी आस्था प्रकट करने पूजा सामग्री लेकर आते हैं। उससे हर साल, मंदिर से लाखों टन कचरा भी निकलता है। इसमें मंदिर में भेंट चढ़ी चीज़ें जैसे कि नारियल के छिलके, चुनरी, फूल, बचा हुआ प्रसाद आदि शामिल होता है। यह वेस्ट मंदिर से निकलकर डंपयार्ड या फिर लैंडफिल पहुँचता है। ऐसे में आपने कभी सोचा है कि प्रकृति पर इसका क्या असर पड़ता है?

जहाँ हम बहुत से लोग इस बारे में कभी सोचते भी नहीं है, वहीं एक शख्स पिछले 20 सालों से यह सुनिश्चित कर रहा है कि मंदिर में चढ़ाई जाने वाली हर एक चीज़ को नया जीवन मिले। क्योंकि जो हमें कचरा नज़र आता है, उसमें 52 वर्षीय हितेंद्र रामी को व्यवसाय नज़र आया!

हितेंद्र रामी

साल 1998 से अम्बा जी मंदिर के बिल्कुल बाहर रामी की दुकान है, जहाँ आज वे दो हज़ार से भी ज़्यादा हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स बेचते हैं। हैरत की बात यह है कि ये सभी प्रोडक्ट्स मंदिर से निकलने वाले कचरे को ही रीसायकल करके बनाए जाते हैं। जी हाँ, इस दुकान में आपको 50 रुपए से लेकर 5 लाख रुपए तक के प्रोडक्ट मिलेंगे, वो भी वेस्ट से बने हुए।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए हितेंद्र रामी बताते हैं, “वैसे तो हम मूल रूप से मेहसाणा के रहने वाले हैं और मैं गार्डन मैनेजमेंट का काम करता था। हमारी इस मंदिर से बहुत श्रद्धा थी इसलिए जब भी हम कहीं बाहर काम के लिए जाते थे तो यहाँ दर्शन करते हुए जाते थे।”

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साल 1997 में रामी यहाँ नैनीताल में अपने एक प्रोजेक्ट से पहले दर्शन करने ही आए थे और जब वे बाहर निकल रहे थे तो अचानक एक नारियल का छिलका उनके पैर में आकर लगा। वह कहते हैं कि जैसे ही वो छिलका उन्हें लगा तो अचानक उनके मन में आया कि लोग इसे यूँ ही फेंकने की बजाय किसी काम में क्यों नहीं ले लेते।

“जो दूसरों को कचरा लगता है उसमें मुझे एक अच्छा व्यवसाय दिखा और बस मैंने ठान ली कि मैं इसी से अपना कारोबार बनाऊंगा,” उन्होंने कहा।

उन्होंने सबसे पहले बेसिक रिसर्च की कि वे नारियल के छिलके को कैसे फिर से इस्तेमाल कर सकते हैं। और एक बार जब उन्हें समझ में आ गया कि वे इस छिलके से हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट बनायेंगें तो उन्होंने अम्बाजी मंदिर के सामने ही दुकान खोलने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने व्यवसाय को ‘नंदनवन’ नाम दिया।

2, 000 से भी ज़्यादा प्रोडक्ट्स बना रहे हैं रामी

आज वे नारियल के छिलकों से चप्पल, सजावट की चीजें जैसे झूमर, टोकरी और तो और मूर्तियाँ भी बना रहे हैं। उनकी दुकान में आपको 5 फीट से लेकर 12 फीट तक की नारियल के छिलकों से बनी गणपति की मूर्ति मिल जाएगी।

अपना व्यवसाय शुरू करते समय उन्होंने सबसे पहले नारियल विक्रेताओं से बात की कि वे नारियल के बचे हुए छिलके उन्हें दे दें। “नारियल वाले मुझे छिलके तो देते ही और फिर उनके यहाँ से ‘कचरा’ हटाने के पैसे भी देते थे। फिर धीरे-धीरे मैंने मंदिर प्रशासन से भी बात की और वहां से मुझे कचरा इकट्ठा करने का काम मिल गया। अब मेरे व्यवसाय के लिए कच्चा माल तो तैयार था बस मुझे इससे ऐसे प्रोडक्ट बनाने थे जो की प्रकृति के अनुकूल हो और आकर्षक भी हो,” रामी ने आगे कहा।

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जब नारियल के साथ उनका एक्सपेरिमेंट सफल रहा तो उन्होंने अन्य चीज़ों जैसे ध्वजा, चुनरी, फूल-प्रसाद आदि की भी रीसाइक्लिंग करके प्रोडक्ट्स बनाना शुरू किया। आज उनकी दुकान का नाम देश-विदेशों तक फैला हुआ है। 400 से ज़्यादा लोग रेग्युलर तौर पर उनके साथ काम करते हैं और इसके अलावा, समय-समय पर और भी कारीगर उनसे जुड़ते ही रहते हैं।

इको-फ्रेंडली गणपति बप्पा

रामी बताते हैं कि जब उन्होंने यह काम शुरू किया था तब से ही उनका एक सिद्धांत था कि वे जो भी करें उससे लोगों को रोज़गार मिलना चाहिए। इसलिए वेस्ट इकट्ठा करने से लेकर प्रोडक्ट्स आदि बनाने के लिए वे अम्बा जी के आसपास के आदिवासी गांवों में रहने वाले लोगों, ख़ासकर महिलाओं से जुड़े हुए हैं।

उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों को ट्रेनिंग दी और फिर उन्हें अपने घरों में ही रहकर काम करने के लिए कहा। रामी उनके यहाँ कच्चा माल पहुंचाते हैं और फिर वे लोग प्रोडक्ट्स बनाकर ‘नंदनवन’ पर पहुंचा देते हैं। सभी कारीगरों को प्रति प्रोडक्ट के हिसाब से पैसे मिलते हैं। उनके साथ जुड़ा हुआ हर एक कारीगर परिवार महीने के 10 से 12 हज़ार रुपए प्रति माह कमा रहा है। बाकी अलग-अलग सीजन के हिसाब से भी उनकी आय पर फर्क पड़ता है।

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रामी कहते हैं कि उनकी ‘वॉललेस फैक्ट्री है’ क्योंकि उनके साथ काम करने वाले लोग अपनी सुविधा के अनुसार अपने घरों में रहकर ही काम करते हैं। इससे उनके आने-जाने का किराया आदि भी बचता है। परिवार के सभी सदस्य मिलकर काम करते हैं तो ज़्यादा प्रोडक्ट्स बनते हैं और पारिवारिक आय भी ज़्यादा होती है। इस तरह से उनका कॉन्सेप्ट ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का है।

रामी को अब निजी और सरकारी संगठनों द्वारा देशभर से ट्रेनिंग के लिए बुलाया जाता है। अब तक उन्होंने देश के लगभग सभी राज्यों में 18 हज़ार से भी ज़्यादा लोगों को ट्रेनिंग दी है और स्टार्टअप शुरू करने में भी मदद की है। उनका अपना सालाना टर्नओवर दो करोड़ रुपये से ऊपर है।

स्कूल-कॉलेज के बच्चों को भी ट्रेनिंग देते हैं रामी

अंत में हितेंद्र रामी सिर्फ़ इतना ही कहते हैं, “किसी भी इंसान में काम करने की लगन और तमन्ना होनी चाहिए। हमारे देश के हर हिस्से में अनगिनत मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, शांतिपीठ, दरगाह आदि है। इन सब जगहों पर न जाने कितने लोग क्या-क्या चढ़ाते हैं और फिर यह सब वेस्ट में जाता है। आपको बस थोड़ी-सी अलग सोच और हिम्मत की ज़रूरत है। आप अपने गाँव, शहर में रहकर ही अपना व्यवसाय शुरू कर सकते हैं। यदि किसी इस काम में मेरी मदद चाहिए तो बेहिचक संपर्क करें।”

बेशक, हितेंद्र रामी जैसे लोग विरले ही होते हैं जिन्हें वेस्ट में सिर्फ़ बेस्ट दिखाई देता है। उनसे संपर्क करने के लिए 9408729910 पर डायल करें!


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पहाड़ी इलाकों के किसानों तक पहुँचाए लोहे के हल, 14 हज़ार पेड़ों को कटने से बचाया!

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त्तराखंड के पर्वतीय जिलों में लंबे समय से कृषि कार्यों के लिए लकड़ी से बने उपकरण हल, नहेड़, जुंआ, दनेला आदि का प्रयोग होता आया है। इन उपकरणों के बनाने के लिए पहाड़ का कल्पवृक्ष माने जाने वाला बांज, उतीस, फल्यांट, सानण आदि चौड़ी पत्ती प्रजाति के हरे पेड़ों का उपयोग किया जाता है। किसी भी प्रकार के उचित विकल्प के अभाव व मजबूरी में किसानों द्वारा हर वर्ष बड़ी संख्या में जल संरक्षण, जैवविविधता और पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बांज, उतीस, फल्यांट, सानण आदि चौड़ी पत्तीदार पेड़ों को काटा जाता है। जिसके चलते इन पेड़ों की संख्या साल दर साल कम होती जा रही है।

चौड़ी पत्ती प्रजाति पेड़ों के कटान से जंगलों में मौजूद जल स्रोतों, जैवविविधता के ह्रास के रूप में सामने आ रहा है। वन्य जीवों के आहार और आवास पर भी इसका विपरीत असर पड़ रहा है। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों की गैर हिमालयी नदियों, जल स्रोतों में पानी का स्तर साल दर साल कम होने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि इन नदियों के जल संभरण क्षेत्रों में चौड़े पत्तीदार पेड़ पहले की तुलना में काफी कम रह गए हैं।

v l syahi hal
हल बनाने के लिए काटा गया पेड़।

इन पेड़ो से भरे मिश्रित जंगल, जिन्हें वर्षावन भी कहा जा सकता है, वर्षा जल को भूजल में बदलने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। मानवीय आवश्यकताओं के लिए इन जंगलों का अनियंत्रित और अवैज्ञानिक दोहन होने से जंगलों की वर्षा जल को भूजल में बदलने की प्रक्रिया बाधित हो गई है, परिणाम स्वरूप जंगलों से निकलने वाले जल स्रोतों, नदियों में पानी का स्तर भी कम हो गया है।

कृषि उपकरणों के लिए ग्रामीणों की जंगलों पर निर्भरता कम करने के लिए राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लंबे समय से प्रयास होते आ रहे हैं। लेकिन यह प्रयास स्थानीय स्तर तक ही सीमित होने और सफल नहीं होने से किसानों को इसका फायदा नहीं मिल पा रहा और पेड़ो की कटाई भी नहीं रुक रही।

ऐसे में स्याही देवी विकास समिति, शीतलाखेत ने 2012 में विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा के साथ मिलकर वी.एल.स्याही लोह हल (विवेकानंद लैब स्याही हल) का निर्माण किया। समिति पिछले 12 साल से जंगल बचाओ-जीवन बचाओ अभियान चला रही है, जिसके तहत बांज व चौड़ी पत्ती वाली प्रजातियों को बचाने के लिए जोर दिया जा रहा है, क्योंकि यह पर्यावरण व जल संरक्षण में खासी भूमिका निभाते हैं।

vl syahi hal
वीएल स्याही हल के साथ किसान।

 

समिति की पहल पर विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने कुछ साल पहले वी.एल.स्याही लोह हल तैयार किया था। वी.एल.स्याही हल दूसरों से कुछ मायनों में अलग है। इसकी खासियत यह है कि इसे बैल की ऊंचाई के अनुरूप बढ़ाया-घटाया जा सकता है। खुदाई के अनुसार फाल की धार बदली जा सकती है। इसका वजन 12 किलो है।

शुरुआत में इन हलों को दानदाताओं व संस्थाओं की मदद से किसानों को बांटा गया ताकि किसान इसका उपयोग करने की आदत डालें। पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट के प्रयासों से लगभग 500 हल चमोली जनपद में, ग्राम्या के उपनिदेशक बी.एस. बर्फाल के प्रयासों से लगभग 200 हल टिहरी गढ़वाल में , राष्ट्रीय बीज निगम के सहयोग से 40 हल पौड़ी जिला में, कृषि विभाग और ग्राम्या के सहयोग से लगभग 200 हल बागेश्वर जनपद में , कृषि विभाग के सहयोग से लगभग 100 हल पिथौरागढ़  में और कृषि विभाग, वन विभाग, भूमि संरक्षण विभाग, आजीविका, अमन, ईको पाथ, स्याही देवी विकास समिति के प्रयासों से अल्मोड़ा जनपद में लगभग 3,500 हल किसानों को बांटे गए।

 

इनमें से करीब 2 हजार हल निशुल्क वितरित किए गए थे और बाकी किसानों ने खुद खरीदे। हल की वर्तमान कीमत 1715 रुपए है, जिसमें राज्य सरकार पचास प्रतिशत सब्सिडी देती है।

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लकड़ी से बनाया गया हल।

समिति से जुड़े गजेन्द्र पाठक बताते हैं कि,  ”अब तक किसान लकड़ी से बने हल प्रयोग कर रहे थे। इसके लिए वे पूरे पेड़ को ही काट देते थे क्योंकि पेड़ के नीचे वाले हिस्से का उपयोग वे हल की फाल यानी खेत में खुदाई करने वाले हिस्से को बनाने के लिए करते थे। ऐसे में हर साल बड़ी संख्या में पेड़ हल की फाल बनाने के नाम पर मज़बूरी में काट दिए जाते थे। राज्य के 11 पहाड़ी जिलों में 6 लाख 45 हज़ार किसानों के द्वारा हर साल ढाई लाख पेड़ काटे जा रहे हैं। लेकिन लोहे का हल बांटने से इसमें सुधार आया है , अब तक करीब 14 हज़ार से ज्यादा पेड़ पिछले कुछ सालों में कटने से बचे हैं।”

लंबे अरसे से चौड़ी पत्ती प्रजाति पेड़ों के अनियंत्रित और अवैज्ञानिक दोहन और वनाग्नि के कारण गैर हिमानी नदियों, गधेरों, जल स्रोतों में पानी की मात्रा साल दर साल कम होने से राज्य के अधिकांश गाँव, शहर तेजी से जल संकट की ओर बढ़ रहे हैं।

जल स्रोतों के सूखने से चिंतित राज्य सरकार द्वारा रिस्पना और कोसी नदी के पुनर्जीवन के लिए अभियान चलाया जा रहा है जिसमें मुख्य रूप से चाल, खाल, गड्ढे बनाकर वर्षा जल को रोक कर भूजल में बदलने और पौधारोपण पर कार्य किया जा रहा है।

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ऐसे हो रही पेड़ों की कटाई।

स्याही देवी विकास समिति ने कोसी नदी पुनर्जीवन अभियान में ग्रामीणों की जंगलों पर निर्भरता खत्म करने के लिए कोसी नदी के जल संभरण क्षेत्र में मौजूद सभी गांवों के किसानों को वी.एल.स्याही हल देने और गैस कनेक्शन से वंचित परिवारों को गैस कनेक्शन देने का निर्णय लिया है। नदी पुनर्जीवन योजना में वी.एल. स्याही हल को शामिल करने से यह उम्मीद जगी है कि कोसी नदी के जल संभरण क्षेत्र में खेती से जुड़े लगभग 14,000 परिवारों को यह हल दिए जाने के बाद लकड़ी का हल बनाने के लिए काटे जा रहे हजारों पेड़ों की रक्षा हो पाएगी और सूख रहे जल स्रोतों को भी बचाने में मदद मिलेगी।

 

अगर आप भी वी.एल.स्याही हल के संबंध में कोई जानकारी लेना चाहते हैं तो 9690783211 नम्बर पर बात कर सकते हैं।

लेखक – गजेंद्र कुमार पाठक, शीतलाखेत, अल्मोडा़

 

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90 किमी/चार्ज : इस इलेक्ट्रिक बाइक को कर सकते हैं घर-ऑफिस में भी चार्ज!

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क्टूबर 2018 में लॉन्च हुआ, ‘जेमोपाई रायडर’ एक इलेक्ट्रिक स्कूटर है जो कि ईंधन से चलने वाले दुपहिया वाहनों का एक अच्छा विकल्प है। इस स्कूटर को लॉन्च किया है उत्तर प्रदेश के नोएडा में स्थित कंपनी ‘जेमोपाई इलेक्ट्रिक्स’ ने। जेमोपाई इलेक्ट्रिक्स, दिल्ली के स्टार्टअप ‘गोरीन ई-मोबिलिटी’ और 15 साल से इलेक्ट्रिक व्हीकल के क्षेत्र में काम कर रही ‘ओपाई इलेक्ट्रिक कंपनी’ का जॉइंट वेंचर है।

जेमोपाई रायडर लिथियम आयन बैटरी से चलने वाला एक स्कूटर है, जिसकी कीमत लगभग 60 हज़ार रुपए है। पूरे देश में 50 से भी ज़्यादा डीलरशिप के साथ, यह इलेक्ट्रिक स्कूटर सही मायनों में ग्रीन मोबिलिटी की तस्वीर को सच कर रहा है।

जेमोपाई इलेक्ट्रिक्स के को-फाउंडर अमित राज सिंह ने द बेटर इंडिया से बताया कि जेमोपाई रायडर की लिथियम आयन बैटरी को चार्ज करने के लिए बाहर भी निकाला जा सकता है, क्योंकि यह रिमूवेबल बैटरी है। यह इलेक्ट्रिक स्कूटर एक चार्जिंग के बाद 90 किमी तक चल सकता है।

जेमोपाई रायडर (साभार: जेमोपाई इलेक्ट्रिक्स)

पांच रंगों में उपलब्ध इस स्कूटर में और भी बहुत-सी खूबियां है जैसे कि हाइड्रोलिक सस्पेंशन, डिस्क ब्रेक्स, डिजिटल स्पीडोमीटर, एलईडी हेडलाइट, कीलेस एंट्री, एंटी-थेफ़्ट अलार्म और मोबाइल के लिए यूएसबी चार्जिंग का विकल्प आदि। इसके अलावा, इस इलेक्ट्रिक स्कूटर को बहुत ज़्यादा सर्विस की ज़रूरत भी नहीं होती है।

लेकिन जब भी हम इलेक्ट्रिक वाहनों की बात करते हैं तो भारत में सबसे बड़ी समस्या है चार्जिंग की। बैटरी चार्ज होने में कितना वक़्त लेती है और फिर हर जगह चार्जिंग की सुविधा भी नहीं मिल पाती है क्योंकि भारत में अधिकांश जगहों पर इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए चार्जिंग स्टेशन नहीं है। ऐसे में, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाली ज़्यादातर कंपनियों की कोशिश यह रहती है कि वे इन वाहनों में रिमूवेबल बैटरी लगाए।

इस बारे में बात करते हुए सिंह ने आगे कहा, “इलेक्ट्रिक स्कूटर के बारे में ग्राहकों का सबसे ज़रूरी सवाल बैटरी ही होता है। इसलिए जब हमने रायडर लॉन्च की तो सबसे पहले हमने इस समस्या को हल करने के लिए बैटरी को रिमूवेबल और छोटा बनाया। हमारी बैटरी काफ़ी हल्की है लेकिन उसकी क्षमता काफ़ी अच्छी है, लिथियम आयन बैटरी पोर्टेबल है और चार्ज की जा सकती है। अब हम दो और इलेक्ट्रिक स्कूटर लॉन्च करने की सोच रहे हैं ताकि अपने पोर्टफोलियो को बढ़ा सकें।”

आप इस स्कूटर की बैटरी को 4 घंटे में पूरा चार्ज कर सकते हैं और इस बैटरी को घर, ऑफिस और तो और लैपटॉप से भी चार्ज कर सकते हैं!

मैन्युफैक्चरिंग यूनिट नोएडा में स्थित है (साभार: जेमोपाई इलेक्ट्रिक्स)

रिमूवेबल लिथियम आयन बैटरी बारे में द फाइनेंसियल एक्सप्रेस के एडिटोरियल में भी लिखा है,

“…रिमूवेबल बैटरी आने से लोगों के लिए चीज़ें आसान हुई है क्योंकि इसे कहीं भी चार्ज किया जा सकता है। ज़रूरी नहीं कि आप वाहन को भी वहां तक लेकर जाएं, इससे न सिर्फ़ वक़्त बचता है बल्कि आपको कोई चार्जिंग पॉइंट ढूंढने में भी मेहनत करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बैटरी को चार्ज होने में भी ज़्यादा समय नहीं लगता है, यह सिर्फ 2 से 4 घंटों में चार्ज हो सकती है। जब आप लंबी यात्रा करते हैं तो सुविधा के लिए मॉल, रेस्तरां आदि भी चार्जिंग स्टेशन के एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। वाहन की क्षमता पर फोकस करके और बैटरी बदलने की सुविधा देकर, इलेक्ट्रिक वाहनों की प्रति किमी लागत भी कम होकर ईंधन से चलने वाले वाहनों के बराबर हो गई है।”

इस बात में कोई शक नहीं है कि परिवहन का भविष्य इलेक्ट्रिक है, ख़ासकर शहरी क्षेत्रों में। अच्छी चार्जिंग क्षमता, स्पीड (ज़्यादा ट्रैफिक वाली जगहों पर) और अन्य फीचर के साथ, जेमोपाई रायडर आपके पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाले स्कूटर का एक अच्छा विकल्प है। फ़िलहाल तो सवाल बस यह है कि अब कितनी जल्दी ग्राहक अपने पुराने वाहनों को छोड़ इलेक्ट्रिक वाहन अपनाने के लिए तैयार होते हैं।


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डूबने से हुई थी बेटे की मौत, जलाशयों को सुरक्षित बना रहे हैं माता-पिता!

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पनों को खोने का गम शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। कुछ लोग इस गम में पूरी जिंदगी गुज़ार देते हैं, जबकि कुछ इस गम को अपनी ताकत बनाकर कुछ ऐसा कर गुजरते हैं जिसकी कल्पना भी मुश्किल है। भोपाल निवासी प्रतिभा और विश्वास घुषे भी ऐसे ही लोगों में से हैं। 21 मार्च 2015 का दिन घुषे दंपत्ति के जीवन का सबसे काला दिन था। इस दिन उन्हें अपने छोटे बेटे मंदार की मौत की खबर मिली थी।

10वीं में पढ़ने वाला मंदार अपने दोस्तों के साथ केरवा डैम गया था, जहां ‘मौत के कुएँ’ में डूबने से उसकी मौत हो गई। डैम के एक हिस्से को ‘मौत का कुआँ’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि मंदार से पहले भी वहाँ करीब 175 ज़िंदगियां पानी में समा गई थीं। प्रतिभा और विश्वास इस हादसे से पूरी तरह टूट गए थे, लेकिन वह जानना चाहते थे कि आखिर उनके घर का चिराग उनसे दूर क्यों चला गया, उसे क्यों बचाया नहीं जा सका? और इसी चाहत ने उनसे वह सब कुछ करा दिया, जिसके बारे में कोई दूसरा नहीं सोच सका।

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मंदार।

विश्वास एवं प्रतिभा घुषे समस्या की जड़ तक पहुंचे और उसके हल के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया। ये उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि 21 मार्च 2015 के बाद से लेकर आज तक ‘मौत के कुएँ’  में फिर किसी के घर का चिराग नहीं बुझा। हालांकि, घुषे दंपत्ति यहीं नहीं रुके, उन्होंने इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए पहले ‘मंदार एंड नो मोर’ अभियान छेड़ा और 2018 में इसे फाउंडेशन का रूप दिया, ताकि अभियान के दायरे को विस्तृत किया जा सके। हाल ही में फाउंडेशन ने इंदौर के पाताल-पानी के बारे में भी एक रिपोर्ट बनाकर सरकार को सौंपी है।

केरवा डैम को ‘मौत के कुएँ’ से मुक्त करने का काम बिल्कुल भी आसान नहीं था। यह सुनने में जितना सामान्य लगता है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल था। एक तरफ सोया हुआ प्रशासन और दूसरी तरफ बदहाल व्यवस्था। विश्वास अच्छे से जानते थे कि प्रशासन को नींद से जगाने में लंबा वक़्त लग जाएगा, इसलिए उन्होंने पहले बदहाल व्यवस्था को दुरुस्त करने का बीड़ा खुद उठाया।

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मंदार के पिता विश्वास और माँ प्रतिभा।

उनके सामने सबसे पहली चुनौती यह पता लगाना थी कि आखिर पानी में उतरने वाले लोग वापस क्यों नहीं लौट पाते? पेशे से मैनेजमेंट कंसल्टेंट विश्वास रोटरी क्लब से जुड़े हुए हैं और इस काम में क्लब के सदस्यों का भी उन्हें पूरा सहयोग मिला।

विश्वास एवं प्रतिभा के कई दिनों के शोध में यह बात निकलकर सामने आई कि पानी के नीचे बड़े-बड़े गड्ढे हैं, जो ऊपर से दिखाई नहीं देते और इन्हीं में फंसने से लोगों की मौत हो जाती है।

केरवा डैम का वह हिस्सा जहां डूबने से मंदार की मौत हुई थी.

इसके अलावा, यहाँ न लाइफ गार्ड है और न ही सुरक्षा उपकरण, इतना ही नहीं लोगों को खतरे से आगाह करने वाले साइन बोर्ड तक नदारद है। अपने शोध को घुषे दंपत्ति ने रिपोर्ट के रूप में संबंधित विभागों को सौंपा, लेकिन जैसा कि अंदेशा था प्रशासन की नींद नहीं टूटी।

इस बारे में विश्वास कहते हैं, “हमारा बेटा तो चला गया, वो वापस नहीं आएगा। हम केवल इतना चाहते हैं कि किसी दूसरे परिवार को यह दर्द न सहना पड़े। इसी उद्देश्य से हमने ‘मंदार एंड नो मोर’ अभियान शुरू किया है। जब प्रशासन ने हमारी रिपोर्ट पर ध्यान नहीं दिया, तो बुरा लगा, दुःख भी हुआ, लेकिन हमने हार नहीं मानी।”

इसके बाद उन्होंने अपने खर्चे पर लाइफ जैकेट जैसे सुरक्षा उपकरण खरीदें और आसपास रहने वाले तैराकों को वहाँ तैनात किया।

पुलिस को लाइफ जैकेट आदि प्रदान करते विश्वास और रोटरी क्लब के सदस्य.

साथ ही डैम पर आने वालों को लगातार जागरुक भी करते रहे। आख़िरकार उनकी सक्रियता देखकर प्रशासन की नींद टूटी और उनकी रिपोर्ट पर गौर किया।

इसके बाद वन, जल संसाधन और रेवेन्यू विभाग की मदद से ‘मौत के कुएँ’ को खाली किया गया और उसके गहरे गड्डों को पत्थर से भरा गया। चेतावनी बोर्ड एवं बैरिकेड भी लगवाए गए। तब से लेकर अब तक ‘मौत के कुएँ’ में कोई जानलेवा हादसा नहीं हुआ है। घुषे दंपत्ति के प्रयासों से केरवा पुलिस चौकी को भी पुन: जीवित किया गया है और यह इलाका अब डायल 100 के रूट में भी शामिल है।

मौत के कुएं में पत्थर आदि डालकर उसे काफी हद तक समतल बनाया गया.

चार महीने के अथक प्रयास से ‘मौत के कुएँ’ की जानलेवा अंदरूनी संरचना को दुरुस्त करने के बाद, विश्वास एवं प्रतिभा ने मोबाइल नेटवर्क की समस्या की तरफ प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया। केरवा डैम इलाके में मोबाइल का नेटवर्क नहीं आने से मुश्किल वक़्त में लोगों के लिए मदद मांगना संभव नहीं था। घुषे दंपत्ति ने फिर प्रयासों की मैराथन शुरू की, विभिन्न विभागों से लेकर अधिकारी और नेताओं तक को स्थिति से अवगत कराया, तब कहीं जाकर भारत संचार निगम लिमिटेड (BSNL) केरवा डैम इलाके में मोबाइल टावर लगाने पर सहमत हुआ।

10 जुलाई 2016 को लगे इस टावर का नाम भी ‘मंदार टावर’ रखा गया है।

केरवा डैम पर मोबाइल टावर लगवाया गया, जिसका नाम मंदार टावर है.

इस असंभव से काम को संभव बनाने में किस तरह की मुश्किल और चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

इस सवाल के जवाब में विश्वास कहते हैं, “जब हमें पता चला कि मंदार से पहले भी 175 लोग ‘मौत के कुएँ’ में जान गंवा चुके हैं तो लगा कि यदि प्रशासन पहले ही चेत जाता तो शायद हमारा बेटा हमारे साथ होता। उसी वक़्त हमने तय कर लिया था कि अब किसी और के साथ यह घटना नहीं होने देंगे। जहाँ तक मुश्किल की बात है तो आप यह समझ लीजिए कि हमें बिना किसी सहारे के पहाड़ चढ़ना था। हम कई बार फिसले, लेकिन प्रयास करते रहे और आख़िरकार सफल हुए।”

शुरुआत में घुषे दंपत्ति ने दो गोताखोरों को डैम पर तैनात किया, जिनका दो साल तक करीब 14 हज़ार मासिक वेतन अपनी जेब से दिया।

‘मंदार एंड नो मोर’ अभियान की शुरुआत के अवसर पर अपने बेटे मंदार की फोटो पर फूल चढ़ाते विश्वास.

इसके अलावा, उनके साथ ही पुलिस चौकी को लाइफ जैकेट और रेस्क्यू ऑपरेशन के लिए ज़रूरी सामान उपलब्ध करवाया, ताकि आपात स्थिति में तुरंत सहायता पहुंचाई जा सके। केरवा डैम को सुरक्षित बनाने के बाद ‘मंदार एंड नो मोर’ फाउंडेशन प्रदेश के अन्य जलाशयों को सुरक्षित करने के लिए प्रयासरत है। इसके अलावा, खासतौर पर बच्चों और युवाओं को जागरूक किया जा रहा है, क्योंकि डूबकर मरने वालों में इनकी तादाद सबसे ज्यादा होती है।

एक अनुमान के मुताबिक़, देश में हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगों की मौत डूबने से हो जाती है। फाउंडेशन द्वारा जागरूकता फैलाने के लिए भोपाल से स्पीति वैली (हिमाचल प्रदेश) तक करीब 3500 किमी की बाइक रैली भी निकाली गई थी। जिसमें शामिल बाइकर्स पूरे रास्ते लोगों को जलाशयों से जुड़े खतरों से आगाह करते रहे।

लोगों को जागरूक करते ‘मंदार एंड नो मोर’ फाउंडेशन के वॉलेंटियर.

‘मंदार एंड नो मोर’ फाउंडेशन की सरकार से मांग है कि जलाशयों को सुरक्षित करने के लिए नीति बनाई जाए और 5 अक्टूबर को जल दुर्घटना रोकथाम दिवस घोषित किया जाए। इसके लिए उन्होंने एक पेटीशन भी फाइल की है, जिस पर आप यहाँ साइन कर सकते हैं।

इस पर विश्वास कहते हैं, “डूबने से मौत की ख़बरें आप हर रोज़ अख़बारों में पढ़ सकते हैं, कहीं प्रशासन की लापरवाही होती है तो कहीं लोगों की गलती, लेकिन चूँकि यह आंकड़ा एक-एक, दो-दो मौतों का होता है, इसलिए इस विषय की गंभीरता को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। हमारा मानना है कि यदि नीति बनेगी तो प्रशासन संभवतः ज्यादा गंभीरता से काम करे।”

इस मुद्दे को व्यापक स्तर पर ले जाने के लिए एक डॉक्यूमेंट्री भी बन रही है। बाहुबली फिल्म के सिनेमेटोग्राफर यू.के. सेंथिल कुमार इसे तैयार कर रहे हैं। विश्वास के आग्रह पर सेंथिल भोपाल आए थे और उस जगह का दौरा भी किया जहाँ मंदार की मौत हुई थी। इसके बाद वे ‘मंदार एंड नो मोर’ फाउंडेशन से जुड़े और जलाशयों में होने वाली मौतों के संबंध में लोगों को जागरूक करने के लिए डॉक्यूमेंट्री पर काम करने लगे।

‘द बेटर इंडिया’ के माध्यम से विश्वास एवं प्रतिभा लोगों से कहना चाहते हैं कि जिंदगी अनमोल है, उसे थोड़े से रोमांच के लिए जोखिम में न डाले। जलाशयों से दूर रहें, क्योंकि पानी के नीचे क्या है, हम नहीं जानते। पैरेंट्स को भी चाहिए कि इस विषय में अपने बच्चों को जागरुक करें, जागरूकता ही बचाव की पहली सीढ़ी है।

यदि आप भी घुषे दंपत्ति के इस अभियान का हिस्सा बनना चाहते हैं तो उनसे 98270 57845 पर संपर्क कर सकते हैं।आप ‘मंदार एंड नो मोर’ फाउंडेशन के फेसबुक पेज से भी जुड़ सकते हैं।

संपादन – भगवती लाल तेली


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देश का पहला गाँव जहाँ लगा सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट, गाँववालों ने चंदा इकट्ठा कर किया विकास!

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पिछले कुछ सालों से देश की कई ग्राम पंचायत बदलाव की इबारत लिख रही हैं। एक आदर्श और स्मार्ट गाँव बनने की जो कवायद गुजरात के पुंसरी गाँव से शुरू हुई थी, वह देश के कई और गांवों तक जा पहुंची है। इस लिस्ट में उत्तर प्रदेश के हसुड़ी औसानपुर गाँव, गुजरात के जेठीपुरा और दरामली गाँव, राजस्थान के घमुड़वाली गाँव और छत्तीसगढ़ के सपोस गाँव जैसे कुछ नाम शामिल है।

इन गांवों में हुए विकास कार्यों के चलते यहाँ की ग्राम पंचायतों का नाम न सिर्फ़ देश में, बल्कि विदेशों तक पहुँच गया है। सबसे अच्छी बात यह है कि इन गांवों की बदली हुई तस्वीर, यहाँ के लोगों की मेहनत और लगन का परिणाम है। इन गाँव वालों ने अपने गाँव के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझी और अपने गाँव को स्मार्ट गांवों की फ़ेहरिस्त में ला खड़ा किया।

आज हम ऐसे ही एक और गाँव के बारे में बता रहे हैं, जहाँ की ग्राम पंचायत और गाँव वालों ने अपने हित को परे रखकर गाँव के हित के लिए काम किया है। उनकी पहल का नतीजा यह है कि आज इस गाँव में पानी की एक-एक बूंद बचाई जा रही है।

हम बात कर रहे हैं पंजाब के मोंगा जिले में स्थित गाँव रणसिह कलां की। एक वक़्त था जब इस गाँव में जगह-जगह कचरे के ढेर लगे होते थे, सड़कें नालियों के गंदे पानी से लबालब भर जाती थी और भूजल स्तर काफ़ी नीचे होने से खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कमी होने लगी थी। लेकिन साल 2013 के बाद यह स्थिति बदल गई।

दूसरी बार गाँव के सरपंच चुने गए 29 वर्षीय प्रीत इंदरपाल ने बताया, “साल 2013 में मैं पहली बार गाँव का सरपंच बना, क्योंकि मुझे अपने गाँव के लिए कुछ करना था। मैं चाहता था कि हमारा गाँव भी एकदम साफ़-सुथरा व हरा-भरा हो और इसके लिए मैंने अपने स्तर पर ही छोटे-छोटे कदम उठाने शुरू कर दिए।”

सरपंच प्रीत इंदरपाल सिंह

अपने गाँव के लिए कुछ करने की प्रीत की भावना इस कदर थी कि वे कनाड़ा से भी वापस आ गए। साल 2010 में अपनी ग्रेजुएशन के बाद प्रीत कनाड़ा गए थे और वहां की साफ़-सफाई और सिस्टम देखकर एकदम दंग ही रह गए। प्रीत बताते हैं कि पंजाब के हर युवा की तरह उन्हें भी हमेशा से कनाड़ा जाने का मन था। लेकिन जब वे वहां पहुंचे और उन्होंने कनाड़ा की खूबसूरती को देखा तो उन्हें लगा कि ये खूबसूरती हमारे अपने पिंड/गाँव में क्यों नहीं हो सकती?

“इसका जवाब तो सीधा सा था जी कि लोग समझदार हैं, अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं। इसलिए देश भी खूबसूरत है। बस अपने गाँव और अपने देश के लिए कुछ करने की चाह मुझे वापस ले आई। गाँव लौटकर मैंने सरपंच का चुनाव लड़ा और जीत गया,” प्रीत ने बताया।

उन्होंने सरपंच बनते ही सबसे पहले स्वच्छता पर काम करना शुरू किया। गाँव के युवाओं को ग्राम पंचायत से जोड़ा और फिर महीने में चार बार, सभी के साथ मिलकर गाँव की साफ़-सफाई करना शुरू किया। उनके लिए गाँव की सड़कों को झाड़ू मारना, कचरा इकट्ठा करके एक जगह जमा करना और प्रबंधन के लिए भेजना तो भले ही आसान था, पर उनके सामने जो समस्या थी वह थी ओवरफ्लो नालियां और सड़कों पर भरा गंदा पानी।

जाहिर सी बात है, गांवों में सीवरेज सिस्टम तो होता नहीं है, ऐसे में घरों से निकलने वाला पानी नालियों में जमा होता था। फिर नालियों में कूड़ा-कर्कट भी जाता था तो इस वजह से नालियां जाम हो जाती थी और पानी ओवरफ्लो हो कर सड़कों पर आ जाता था। इसलिए ग्राम पंचायत ने पूरे गाँव में सीवरेज सिस्टम डालने का निर्णय किया।

गंदी नालियों को किया साफ़

प्रीत ने बताया कि सीवरेज सिस्टम डालने का प्लान तो कर लिया, लेकिन वे जानते थे कि सरकार से जो फंड ग्राम पंचायत को मिलता है, वह इस काम के लिए बहुत ही कम है। ऐसे में, उन्होंने सामुदायिक स्तर पर काम किया और गाँव के लोगों से चंदा माँगा।

“जब आप कुछ अच्छा करने की कोशिश करते हैं तो अक्सर लोग पहले आप पर हंसते हैं, आपका विरोध करते हैं। लेकिन अगर आप अपनी कोशिशों में लगे रहें तो लोग आपकी सुनेंगे और आपका साथ भी देंगे। फिर जब आप कामयाब होते हैं तो आप पर हंसने वाले लोग ही आपकी तारीफ़ करते हैं। बस हमारे इस काम में भी कुछ ऐसा ही हुआ,” प्रीत ने कहा।

गाँव के लोगों ने शुरू में ग्राम पंचायत के इस सुझाव पर कोई गौर नहीं किया। कुछ लोग तो प्रीत को पागल तक कहते थे कि इस काम के लिए इतने पैसे कहाँ से लाएगा? लेकिन प्रीत पीछे नहीं हटे और फिर गाँव के ही कुछ एनआरआई लोगों से उन्हें मदद मिली। एक से दो, दो से तीन, तीन से पांच और इस तरह करते-करते पूरे गाँव के लोगों ने 100 रुपए से लेकर 1 लाख रुपए तक चंदा देकर ग्राम पंचायत की मदद की।

जब पर्याप्त पैसे इकट्ठे हो गए तो सबसे पहले गाँव में सीवरेज लाइन पड़ी और फिर सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट लगवाया गया। आज गाँव में हर दिन 4 लाख लीटर गन्दा पानी साफ़ किया जा रहा है।

5 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुए सीवरेज सिस्टम

ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुँचने से पहले, गंदा पानी तीन कुओं में जाता है, पहले कुएँ में सॉलिड वेस्ट इसमें से अलग किया जाता है। दूसरे कुएँ में तेल, शैम्पू, साबुन आदि की गंदगी को इसमें से फिल्टर करते हैं और फिर तीसरे कुएँ में पानी के लेवल को बराबर करते हैं।

जब पानी से ये सभी अशुद्धियाँ हट जाती हैं तो फिर इसे तीन तालाबों में छोड़ा जाता है। इन तालाबों में ख़ास बैक्टीरिया, मछली और कछुए होते हैं, जो कि पानी में बचीकुची अशुद्धि को दूर करते हैं। ये तीनों तालाब ट्रीटमेंट प्लांट से जुड़े हुए हैं, इनमें से होते हुए पानी आखिर में यहाँ पहुँचता है और फिर इसमें ट्रीट हुए पानी को सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

प्रीत बताते हैं कि रणसिह कलां देश का पहला गाँव है, जो खुद अपने पानी को इस तरह ट्रीट करके खेती के लिए इस्तेमाल कर रहा है और उन्हें इस बात पर गर्व है। इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए गाँव ने लगभग 5 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इस पूरी रकम में 20% सरकार का और 80% गाँव के लोगों का योगदान है।

दिलचस्प बात यह है कि इस काम के लिए ग्रामीणों ने न सिर्फ़ आर्थिक दान दिया है बल्कि श्रमदान भी किया है। गाँव के युवा और बुजुर्ग, दोनों ही पीढ़ियों ने इस काम में भागीदारी निभाई है। प्रीत का कहना है कि गाँव के इस श्रमदान के चलते उन्होंने लेबर कार्य के 30 लाख रुपए से भी ज़्यादा बचाए हैं।

गाँव की सभी नालियों को अंडरग्राउंड करके, सड़कों को इंटरलॉक टाइल्स लगाकर पक्का कर दिया गया है। इसके अलावा, गाँव के डंपयार्ड को आज एक खूबसूरत पार्क की शक्ल दे दी गई है। यहाँ गाँव के लोग सैर के लिए आते हैं और बच्चों के लिए खेलने की अच्छी जगह भी हो गई है।

प्रीत बताते हैं कि कचरा-प्रबंधन पर काम करते हुए, अब गाँव में गीले और सूखे कचरे को अलग इकट्ठा किया जाता है। गीले कचरे को खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी तरह, गाँव के पुराने सूख चुके और कचरे से भरे तालाब को भी श्रमदान करके गाँव वालों ने साफ़-सुथरा कर दिया है, जिसमें वे बारिश का पानी इकट्ठा करके, वर्षाजल संचयन पर भी कार्य कर रहे हैं।

गाँव के सरकारी प्राथमिक स्कूल की दशा पर भी ग्राम पंचायत ने काम किया है और इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारा है। साथ ही, गाँव के पढ़े-लिखे युवाओं से भी सरकारी स्कूल में पढ़ रहे बच्चों का मार्गदर्शन करने के लिए आग्रह किया जाता है। इतना ही नहीं, सरपंच भी खुद हर रोज़ स्कूल में बच्चों की एक क्लास लेते हैं।

हरा-भरा हो रणसिह कलां

गाँव के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्राम पंचायत ने महिलाओं के 10 स्वयं सहायता समूह बनाए हैं और किसानों के लिए भी एक सहकारी समिति बनाई है। अब वे गाँव में एक ऐसा महिला बैंक बनाना चाहते हैं, जो कि पूर्णतः महिला कर्मचारियों द्वारा ही चलाया जाए।

“धीरे-धीरे हमारी कोशिश गाँव में ही रोज़गार के साधन लाने की है, ताकि हमारे गाँव से कोई भी अपने मन में शहर या फिर कनाड़ा जाने का ख्याल न लाए, उन्हें उनका कनाड़ा यहीं, गाँव में ही मिल जाए। इसके लिए हम सब मिलकर काम कर रहे हैं। अंत में मैं बस यही कहूँगा कि पानी की एक-एक बूंद बचाइए, क्योंकि अगर पानी रहेगा तभी मानव जीवन रहेगा,” प्रीत ने अपने संदेश में कहा।


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हम उम्मीद करते हैं कि रणसिह कलां गाँव की तरक्की की दास्ताँ पूरे देश में फैले और यह सबके लिए प्रेरणास्त्रोत बने!

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मिलिए रिटायरमेंट के बाद 9 हज़ार लोगों का फ्री इलाज करने वाले डॉ. रणबीर दहिया से!

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रिटायरमेंट लेने के बाद इंसान आराम करने की सोचता है। काम छोड़ चैन से बैठकर उम्रभर की गई नौकरी की थकान उतारता है। लेकिन हरियाणा के रोहतक शहर में एक डॉक्टर हैं, जिन्होंने रिटायरमेंट के बाद चैन से बैठना मुनासिब नहीं समझा और लोगों के बीच जाकर उनका फ्री इलाज करने लगे और मुफ्त में दवाएं बांटने लगे।

 

लोगों का मुफ्त इलाज करने वाले इन डॉक्टर का नाम है रणबीर सिंह दहिया। डॉ. दहिया रोहतक की किशनपुरा चौपाल में हर सप्ताह मंगलवार और शुक्रवार को लोगों का मुफ्त इलाज करते हैं।

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मरीज़ों का इलाज़ करते डॉ. दहिया।

डॉ. दहिया रोहतक के हुमायूंपुर गाँव में भी 1 बजे से लेकर 3 बजे तक फ्री मरीज़ जांचते हैं। इसके अलावा वे दो-तीन महीने में एक बार आसपास के गाँवों में जाकर कैंप भी लगाते हैं। उनके काम में मेडिकल कॉलेज और सिविल अस्पताल के कुछ डॉक्टर भी मदद करते हैं।

वह बताते हैं, “मैं 2014 में रिटायर हुआ था। उसी साल अक्टूबर में ही मैंने सप्ताह के दो दिन मंगलवार और शुक्रवार को यहां मुफ्त ओपीडी लगानी शुरू कर दी थी। हम यहां मरीज़ों का चेकअप तो करते ही हैं, साथ ही फ्री दवाईयां भी वितरित करते हैं। हमारे कई दोस्त कुछ हज़ार रुपए की दवाईयां हर महीने दे देते हैं, जिससे हमारे पास आने वाले मरीज़ों को थोड़ा फायदा हो जाता है।”

लोगों का फ्री इलाज करने की प्रेरणा पर उनका कहना था कि, मैंने जो कुछ भी सीखा, इन्हीं गरीब लोगों का इलाज करते हुए सीखा। इन्हीं लोगों का इलाज करते हुए मुझे इनके लिए काम करने की प्रेरणा मिली। इनसे सीखा हुआ अगर मैं रिटायरमेंट के बाद बेचूं, तो यह अच्छी बात नहीं हैं।

डॉ. दहिया अब तक करीब 9 हज़ार मरीज़ों का इलाज मुफ्त कर चुके हैं। उन्होंने अपनी इस मुहिम का नाम जन स्वास्थ्य अभियान रखा है। वे अपने इस मिशन में मुफ्त ओपीडी और दवाइयां देने के अलावा लोगों को उनके स्वास्थ्य के प्रति जागरुक भी करते हैं, क्योंकि जागरूकता ही बीमारियों से बचने का पहला स्टेप है। वे पेम्पलेट्स और सूचना-पत्र निकालते हैं और बीमारियों से जुड़ी आम जानकारियां लोगों को देते हैं, जैसे कि बीमारियों के लक्षण क्या हैं, हम बीमार क्यों पड़ते हैं और विभिन्न बीमारियों से कैसे बचा जा सकता है आदि। पिछले साल उन्होंने 2 हज़ार पर्चे बांटे थे और इस बार भी वे 2 हज़ार पर्चे बांट चुके हैं, इस काम में उनके साथी रमणीक मोहन जी काफी मदद करते हैं।

 

डॉ. दहिया 2014 में रिटायर होने से पहले पीजीआई रोहतक में कार्यरत थे। उस समय भी लोग उन्हें छुट्टी वाले दिन भी काम करने वाला डॉक्टर कहकर पुकारते थे।

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गाँव में कैंप के दौरान डॉ. दहिया।

वे अपनी छुट्टियों में गाँव-गाँव जाकर हेल्थ कैंप लगाते थे और स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरुक करते थे। जन स्वास्थ्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के बारे में पूछने पर उनका जवाब कुछ इस प्रकार होता है।

“आप किसी बीमार या परेशान इंसान को देखेंगे तो आप भी उसकी मदद करने का प्रयास करेंगे। अमीर इंसान के पास तो सब सुविधाएं हैं अपने इलाज के लिए खर्च करने की, मगर एक किसान, मजदूर या गरीब आदमी क्या करे, कहां जाए? इनकी परेशानियां देखकर एक बेचैनी होती है। यह बेचैनी ही लगातार हमें समाज के गरीब वर्ग के बीच जाकर काम करने के लिए धकेलती रहती है।”

हरियाणा में बढ़ते नशे को लेकर भी डॉ. दहिया काफी चिंतित नज़र आते हैं। बढ़ते नशे के खिलाफ लड़ने के लिए वह नशे के नुकसान बताने वाले पर्चे भी लोगों में बांटते हैं और लोगों को जागरुक करते हैं। वे एक हेल्थ बुलेटिन पत्रिका भी निकालते हैं, जिसका नाम ‘हेल्थ डायलॉग’ है। इस पत्रिका में वे सरकार की हेल्थ पॉलिसियों के बारे में बताते हैं। अगर कोई अच्छी पॉलिसी होती है तो उसे अच्छी बताते हैं और अगर कोई लोगों के हित में नहीं होती तो उसकी आलोचना भी करते हैं।

जब हम रोहतक की किशनपुरा चौपाल में उनसे बातचीत करने के लिए पहुंचे तो वहां हमारी मुलाकात डॉ. दहिया की मदद कर रहे डॉ. आज़ाद सिंह से भी हुई, जो एक रिटायर्ड सीनियर फार्मासिस्ट हैं।

उन्हें दवाइयों में क्षेत्र में लंबा अनुभव है जिससे मरीजों को बहुत फायदा पहुंचता है।

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सहयोगी डॉ. आज़ाद के साथ डॉ. दहिया।इस मिशन से जुड़ने को लेकर उन्होंने अपने अनुभव साझा किए।

“मैं 2014 से ही डॉ. दहिया के साथ मिलकर काम कर रहा हूँ। इन्हीं से प्रेरित होकर मैं इनसे जुड़ा था। गाँव -देहात में हम देखते हैं कि कई लोग ऐसे होते हैं जिनकी कोई देखभाल नहीं करता, इसलिए हम कोशिश करते हैं कि ऐसे लोगों का इलाज हम कर सके।”

उनके पास हरियाणा के दूर-दराज इलाकों से भी मरीज़ आते हैं। उनके पास आने वाले ज्यादातर मरीज़ ऐसे होते हैं जिनका लंबे समय तक इलाज चला होता है। कई बार किसी मरीज़ के पास दवाइयों के पैसे नहीं होते हैं, तो वे लोगों से चंदा इकट्ठा कर उनकी मदद करने की भी कोशिश करते हैं।

डॉ. दहिया से चेकअप करवाने आने वाले लोग बेझिझक उनसे बात करते हैं, अपनी परेशानी बताते हैं। 

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लोगों का इलाज़ करते डॉ. दहिया।

चेकअप करवाने आए महावीर सिंह बताते हैं, “मैं डॉक्टर जी के पास दो साल से आ रहा हूँ। मुझे शुगर की तकलीफ थी, पहले मैं बहुत जगह घूमा, इलाज के लिए खूब पैसे खर्च किए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जब से इनके पास आ रहा हूँ, मुझे काफी आराम मिला है और कोई पैसे भी खर्च भी नहीं हो रहे। मैं कभी भी डॉक्टर साहब को फोन लगा देता हूँ और सलाह ले लेता हूँ। गजब के आदमी हैं डॉक्टर साहब, कितने ही सवाल उनसे पूछते रहो, कितना ही तंग करते रहो, वह कभी गुस्सा नहीं होते।”

डॉ. दहिया के इस नेक काम में डॉ. ओमप्रकाश लठवाल, डॉ. एचपी चुघ, डॉ. पूनम, डॉ. सोनिया, डॉ. जेपी चुघ, डॉ. कुंडू, डॉ. नताशा, डॉ. मरवाहा भी समय-समय पर मदद करते हैं। उन्हें कई डॉक्टरों की मदद मिलती रहती है, जिनकी वजह से वे हेल्थ कैंप लगा पाते हैं और जन स्वास्थ्य मिशन को आगे बढ़ाते हैं।

डॉ. रणबीर दहिया जैसे लोग वाकई मिसाल हैं। आखिर न कोई फीस और न कोई अपॉइंटमेंट का झंझट! निजी स्वास्थ्य सेवाओं की मोटी फीस और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के बीच अगर कोई शख्स लोगों का मुफ्त में इलाज करे और दवा भी फ्री में दे तो लोग क्यों न उन्हें सर-आँखों पर बैठाएं। डॉ. दहिया को दिल से सलाम।

अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है और आप डॉ. दहिया की किसी तरह से मदद करना चाहते हैं तो उनसे इन नंबर 9812139001 पर संपर्क कर सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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ट्रैफिक के साथ सिग्नल पर भटकते बच्चों का जीवन भी संभाल रही है अहमदाबाद की ट्रैफिक पुलिस!

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“यहाँ आते हुए डेढ़ बरस हुआ, अब हम हिंदी, गुजराती, अंग्रेजी सब पढ़ते हैं। सुबह और दोपहर खाना भी मिलता है। अब थोड़ी देर में दीदी आ जाएंगी तो पढ़ाएंगी….मजा आता है यहाँ। हम आपको प्रार्थना गाकर सुनाते हैं, हर रोज़ हम प्रार्थना करते हैं और फिर पढ़ते हैं।”

इतना कहकर सभी बच्चे जल्दी से अपनी-अपनी जगह बैठ गए और एक साथ हाथ जोड़कर प्रार्थना गाने लगे। ये नज़ारा था अहमदाबाद के पकवान इलाके में स्थित ट्रैफिक पुलिस चौकी का।

ये सभी बच्चे इस इलाके की झुग्गी-झोपड़ियों से आते हैं और इनके माता-पिता दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। एक वक्त था जब ये बच्चे सड़कों पर आने-जाने वाले लोगों से पैसे मांगते थे या फिर उन्हें गुब्बारे, खिलौने आदि बेचते थे। इनके माता-पिता को भी यह नहीं पता होता था कि उनके बच्चे कहाँ है, क्या कर रहे हैं?

लेकिन पिछले डेढ़ साल से तस्वीर बिल्कुल बदल गई है। आज ये बच्चे न सिर्फ़ शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं बल्कि उन्हें यहाँ खाना भी दिया जाता है और यह सब मुमकिन हो पा रहा है अहमदाबाद ट्रैफिक पुलिस की ‘पुलिस पाठशाला’ के जरिये।

पुलिस पाठशाला

‘पुलिस पाठशाला’ अहमदाबाद ट्रैफिक पुलिस की एक सामाजिक पहल है, जिसके अंतर्गत यह विभाग ग़रीब और ज़रूरतमंद बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे रहा है। सबसे पहले यह पहल पकवान ट्रैफिक पुलिस चौकी से ही शुरू हुई थी। चौकी के प्रांगण में ही पीछे की तरफ इन बच्चों के लिए कुछ बेंच, ब्लैकबोर्ड आदि लगाकर एक क्लास तैयार की गई है।

हर सुबह एक रिक्शावाला इन बच्चों को इनके घरों से चौकी लेकर आता है और फिर छुट्टी होने पर इन्हें वापस घर भी छोड़कर आता है। सुबह 9 बजे से दोपहर 2 बजे तक ‘पुलिस पाठशाला’ चलती है। सुबह में क्लास से पहले इन बच्चों को ब्रेकफास्ट दिया जाता है और फिर दोपहर में छुट्टी से पहले इन्हें लंच दिया जाता है।

डेढ़ साल से ‘पुलिस पाठशाला’ का कार्यभार देख रहे ट्रैफिक पुलिस में तैनात लोक रक्षक सिपाही नितिन राठौर ने बताया,

“यह प्रोग्राम साल 2018 में तत्कालीन ट्रैफिक पुलिस एसपी नीरजा गोत्रू राव (आईपीएस अफ़सर) और अहमदाबाद पुलिस कमिश्नर ए. के. सिंह के प्रयासों से शुरू हुआ था। ये उनकी ही सोच है कि शिक्षा के जरिये इन बच्चों की ज़िंदगी को बेहतर बनाया जाए। इससे कम से कम इनका भविष्य तो संवरेगा।”

इस प्रोग्राम की शुरुआत में, पुलिस विभाग ने सबसे पहले इलाके का सर्वे करके झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले परिवारों से मुलाकात की। उन्होंने बच्चों के माता-पिता को इन बच्चों को उनके पास भेजने के लिए कहा। नितिन बताते हैं कि भले ही यह प्रोग्राम पुलिस विभाग चला रहा है लेकिन फिर भी इन बच्चों को कक्षा तक लाना उनके लिए आसान नहीं रहा।

रिंकल पटेल (बाएं) और नितिन राठौर (दाएं)

पुलिस के रुतबे के चलते माता-पिता ने बच्चों को भेजना तो शुरू कर दिया था लेकिन इन बच्चों को पढ़ाई के लिए ढालना भी किसी चुनौती से कम नहीं था।

“शुरुआत के कुछ महीने तो बच्चे यहाँ आकर सिर्फ़ खाना खाते और खेलते थे। फिर खेल-खेल में उन्हें थोड़ा-बहुत पढ़ाना शुरू किया। इस प्रक्रिया में हमें 4-5 महीने लगे, लेकिन फिर एक बार जब ये बच्चे रेग्युलर हो गए और हमारे पास स्कूल-कॉलेज के कुछ बच्चे वॉलंटियर करने आने लगे तो हमारी क्लास अच्छे से चलने लगी,” नितिन ने कहा।

इस प्रोग्राम की कॉर्डिनेटर रिंकल पटेल ने बच्चों में आई तब्दीली के बारे में विस्तार से बात की। उन्होंने कहा कि इन बच्चों में व्यवहारिक बदलाव लाने में भी उन्हें पूरा एक साल लगा है। लेकिन आज आलम यह है कि ये बच्चे ज़िम्मेदार बन रहे हैं। पाठशाला पहुँचने के बाद इधर-उधर भागने की बजाय बच्चे सबसे पहले अपनी बेंच सही करते हैं, ब्लैकबोर्ड पर दिन-तारीख़ आदि लिखते हैं और तो और अपने टीचर के लिए कुर्सी भी खुद ही लगाते हैं।

इसके अलावा, अगर कोई बाहर से उनसे मिलने भी आए तो हिचकिचाने की बजाय अपने रूटीन के बारे में अच्छे से बात करते हैं।

“जब हमने देखा कि बच्चों में काफी बदलाव है और ये मैनस्ट्रीम शिक्षा से जुड़ सकते हैं तो हमने पकवान सेंटर पर आने वाले 22 बच्चों में से 17 बच्चों का थलतेज म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन स्कूल में दाखिला करवाया। वहां पर बच्चों का नामांकन तो हो चूका है लेकिन अभी भी ये बच्चे हमारे पास ही पढ़ने के लिए आ रहे हैं। लेकिन अब ये बच्चे परीक्षा में बैठते हैं और कुछ समय बाद, जैसे ही हम निश्चिंत हो जाएंगे कि ये बच्चे स्कूली माहौल में ढल सकते हैं, हम इन्हें स्कूल भेजना शुरू कर देंगे,” रिंकल ने आगे बताया।

पकवान ट्रैफिक पुलिस पाठशाला की सफलता के बाद विभाग ने शहर के और तीन इलाकों, दानिलिमड़ा, कांकरिया और किशनपुर में भी पुलिस पाठशाला शुरू की है। इन चार जगहों पर अभी लगभग 100 बच्चे शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पकवान सेंटर से बच्चों का नामांकन सरकारी स्कूल में होने के बाद, अब केंद्र सरकार के ‘स्पेशल टीचिंग प्रोग्राम’ के तहत इस सेंटर पर सरकार की तरफ से एक प्रोफेशनल टीचर, किरण पांचाल भी नियुक्त की गई हैं।

बाकी सेंटर पर, फ़िलहाल वॉलंटियर ही बच्चों को पढ़ा रहे हैं। इसके अलावा, इन बच्चों की पढ़ाई का सभी खर्च ज़्यादातर पुलिस विभाग के अधिकारी और कुछ अन्य लोगों द्वारा मिल रहे फंड से चल रहा है। रिंकल बताती हैं कि अब छोटे-बड़े निजी संगठन भी ‘पुलिस पाठशाला’ प्रोग्राम में मदद के लिए आगे आ रहे हैं।

“जब इन बच्चों ने यहां पर आना शुरू किया था तो लगभग सभी कुपोषण का भी शिकार थे। हम उन्हें खाना तो दे रहे थे पर फिर भी और पोषण की उन्हें ज़रूरत थी। ऐसे में, जब एक निजी कंपनी ‘विशाखा ग्रुप’ ने ट्रैफिक पुलिस से अपने सीएसआर के तहत सम्पर्क किया तो विभाग ने उनसे इन बच्चों के लिए कुछ करने के लिए कहा। तब से ही विशाखा ग्रुप की तरफ से हर दिन इन बच्चों के लिए अलग-अलग तरह के फल भेजे जा रहे हैं,” रिंकल ने कहा।

अहमदाबाद ट्रैफिक पुलिस के इस प्रोग्राम की सब जगह सराहना हो रही है और इस प्रोग्राम को पूरे शहर में लागू करने पर काम हो रहा है। आने वाले महीनों में, कोशिश है कि थलतेज, पंचवटी और शिवरंजनी क्षेत्र में भी यह पुलिस पाठशाला शुरू हो जाए।

अंत में रिंकल द बेटर इंडिया के माध्यम से सिर्फ़ यही संदेश देती हैं कि जिस तरह यह पहल पुलिस ने की, वैसे कोई भी अपने आस-पास कर सकता है। कोई आम नागरिक, कोई छोटा समूह या कोई संगठन, कोई भी इस बदलाव में भूमिका निभा सकता है। आप अपने आस-पास ऐसे बच्चों को अनदेखा करने की बजाय, एक छोटी-सी पहल करें और यदि आप अहमदाबाद में हैं तो किसी भी तरह की मदद के लिए आप ट्रैफिक पुलिस से संपर्क कर सकते हैं।”

इसके अलावा, यदि कोई भी आम नागरिक इस पहल में योगदान करना चाहता है तो पुलिस पाठशाला का यह वॉलंटियर फॉर्म भरने के लिए यहाँ क्लिक कर सकता है!

संपादन: भगवती लाल तेली


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इस 50 रुपये के डिवाइस से घर में बचा सकते हैं 80% तक पानी!

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म सबके घरों में ऐसे नल होते हैं जिनसे काफ़ी पानी बर्बाद होता है। उदाहरण के लिए जब भी आप कोई बर्तन जैसे प्लेट आदि धोने के लिए नल चलाते हैं तो काफ़ी मात्रा में पानी यूँ ही बह जाता है। पर अगर आप नल बंद किये बिना ही, पानी के फ्लो को कंट्रोल कर पाएं तो?

वॉटर सेविंग/पानी बचाने वाले अडैप्टर

आज हम आपको पानी बचाने वाले इस बेहतरीन डिवाइस के बारे में बताएंगें।

यह डिवाइस बहुत ही आसानी से आपके नल के ऊपर फिट हो जाता है, और इसकी मदद से आप लगभग 80% तक पानी बचा सकते हैं, जो वरना यूँ ही बर्बाद हो जाता है। इसके बारे में अधिक जानने और खरीदने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

कैसे लगाएं?

इस डिवाइस को नल में लगाना बहुत ही आसान है। 1 मिनट से भी कम समय में आप इसे लगा सकते हैं और आपको किसी प्लम्बर या फिर मैकेनिक की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी!

आप नीचे दिए गए दिशा-निर्देश देख सकते हैं,

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इस डिवाइस के साधारण इंस्टॉलेशन और अच्छे स्प्रे के कारण इसे अपने दैनिक जीवन में अपनाना बेहद आसान है। कभी हमारे नल सूख न जाएं, इसके लिए ज़रूरी है कि सभी परिवार अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए इस तरह के स्मार्ट डिवाइस का इस्तेमाल करें!

अच्छी बात यह है कि इस प्रोडक्ट को प्लास्टिक-फ्री रीसाइकल्ड कार्डबॉर्ड में पैक किया गया है!


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स्लम में पला-बढ़ा यह डेंटिस्ट आज आदिवासी छात्रों को कर रहा है साइकिल गिफ्ट!

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सुबह जल्दी उठकर, जंगल पार करके या फिर घुटनों तक पानी से भरी नदी पार करके या फिर घंटो पैदल चलकर स्कूल पहुंचने की बहुत-सी कहानियाँ हम सबने अपने दादा-दादी से सुनी हैं। उनकी बातें सुनकर लगता था कि जैसे जन्मों पुरानी बात है, अब थोड़े ही ऐसा होता है। भला कौन पैदल जाता है स्कूल इतना चलकर, अब तो बस या कैब लेने आती है।

लेकिन भारत के बहुत से इलाकों में आज भी बच्चे इसी तरह की मुश्किलों को पार करके स्कूल पहुँचते हैं। बहुत बार स्कूल आने-जाने का साधन उपलब्ध न होने के कारण बच्चों का स्कूल छूट जाता है।

ऐसी ही कुछ कहानी है, महाराष्ट्र के कोसबाड गाँव के पद्मश्री अनुताई वाघ माध्यमिक स्कूल के 20 बच्चों की। जिन्होंने साल 2018 में आई भयंकर बारिश के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया था। दरअसल, ये सभी बच्चे गाँव के बाहरी इलाके में रहते हैं। इस वजह से इनके घर और स्कूल के बीच की दूरी लगभग 8 किमी है।

पद्मश्री अनुताई वाघ माध्यमिक स्कूल के बच्चे

बारिश की वजह से गाँव के कच्चे रास्तों में बुरी तरह से कीचड़ हो गया और साथ ही, गड्डों में घुटनों तक पानी भरे होने के कारण इन बच्चों का स्कूल जाना दूभर हो गया था। फिर पूरे छह महीने के गैप के बाद, जनवरी 2019 से इन बच्चों ने एक बार फिर स्कूल जाना शुरू किया।

यह भी पढ़ें: सौ रूपये से भी कम लागत में, गाँव-गाँव जाकर, आदिवासी महिलाओं को ‘सौर कुकर’ बनाना सिखा रहा है यह इंजीनियर!

और सबसे अच्छी बात है कि अब इन छात्रों को पैदल चलकर जाने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अब इन सबके पास अपनी साइकिल है।

इन बच्चों की ही तरह, पालघर जिले के भी 500 आदिवासी छात्र-छात्राओं के लिए भी साइकिल होने के कारण अपने घर से स्कूल तक की दूरी तय करना आसान हो गया है। इस वजह से स्कूल में ड्रॉप आउट रेट भी कम हुआ है।

इस बदलाव का श्रेय जाता है डॉ. सुवास दार्वेकर को, मुंबई के एक डेंटिस्ट, जो साल 2015 से ‘साइकिल फॉर चेंज’ अभियान चला रहे हैं।

साइकिल डोनेट करने के नेक काम को करके डॉ. सुवास उस नेकी को वापस लौटा रहे हैं जो कभी उन्हें बचपन में मिली थी। डॉ. सुवास मुंबई की झुग्गी-झोपड़ियों में पले-बढ़े, जहाँ दो वक़्त की रोटी मिलना भी बड़ी बात है और पढ़ाई कर पाना तो बहुत अच्छी किस्मत। लेकिन परेशानियां चाहें जितनी भी रही हों, डॉ. सुवास ने पढ़ाई के साथ समझौता नहीं किया।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए वे बताते हैं,

“मैं अपने घर से स्कूल पहुँचने के लिए रोज़ बस पकड़ता था। कम उम्र में ही मुझे शिक्षा का महत्व समझ में आ गया था और इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए, मैं कोशिश करता था कि एक दिन भी मेरा स्कूल न छूटे। स्ट्रीटलैंप के नीचे बैठकर पढ़ना, फटी हुई वर्दी पहनना और नंगे पैर चलना, मैंने ये सब किया है।”

डॉ. सुवास दार्वेकर

“आज मैं एक डेंटिस्ट हूँ क्योंकि मेरे स्कूल के दोस्तों, शिक्षकों, पड़ोसियों और कुछ नेक दिल अजनबियों ने मेरी मदद की। अब जब मैं टेबल के दूसरी साइड हूँ तो मैं अपनी तरफ से जो भी कर सकता हूँ, वह करने की कोशिश करता हूँ,” उन्होंने आगे कहा।

डॉ. दार्वेकर अपने एनजीओ संगीता दार्वेकर चैरिटेबल ट्रस्ट के तहत जब वे पालघर जिले में कैंप आयोजित कर रहे थे, तब उन्हें बच्चों को साइकिल देने का आईडिया आया।

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“हम बहुत समय से इन आदिवासी इलाकों में मुफ़्त मेडिकल कैंप लगा रहे हैं। इन कैंप के दौरान मैं ऐसे एनजीओ से मिलता रहता था जो इन बच्चों को स्टेशनरी आदि देते हैं। इनसे बातचीत करते समय मुझे पता चला कि ट्रांसपोर्ट की कमी के कारण स्कूल में ड्रॉप आउट रेट बढ़ रहा है। हर कोई स्कूल के बच्चों की मदद करना चाहता है पर कोई नहीं सोचता कि इन बच्चों को स्कूल कैसे पहुँचाया जाए। इस तरह साइकिल डोनेशन प्रोजेक्ट शुरू हुआ,” उन्होंने कहा।

डॉ. दार्वेकर कहते हैं कि यदि कोई मदद करना चाहता है तो या तो साइकिल डोनेट कर दे या फिर आर्थिक मदद भी लोग कर सकते हैं!

शुरू में, वे बच्चों को मुफ़्त में साइकिल दे रहे थे पर फिर उन्हें पता चला कि बहुत-से बच्चों के माँ-बाप साइकिल बेच देते हैं और बच्चों को फिर पैदल चलना पड़ता है। इसलिए, अब वे साइकिल मुफ़्त देने की बजाय उनसे 1500 रुपए लेते हैं और बाकी पैसे वे खुद या फिर डोनेशन से जुटाते हैं।

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अगले महीने से, डॉ. दार्वेकर एक नया साइकिल बैंक प्रोजेक्ट शुरू करने जा रहे हैं। इस प्रोग्राम के तहत वे बच्चों से लिए गए पैसों को स्कूल पूरा होने पर वापस कर देंगे और फिर उनसे साइकिल लेकर किसी दूसरे बच्चे को दे दी जाएगी।

डॉ. दार्वेकर द्वारा लिए जा रहे नेक कदम, इस बात का प्रमाण है कि अच्छा काम चाहे छोटा हो या बड़ा, पर किसी की भी ज़िंदगी बदल सकता है। यदि आप साइकिल डोनेशन फण्ड में डॉ. सुवास दार्वेकर की मदद करना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें!

संपादन: भगवती लाल तेली 
मूल लेख: गोपी करेलिया 


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मुंबई के इन दो शख्स से सीखिए नारियल के खौल से घर बनाना, वह भी कम से कम लागत में!

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क मार्केटिंग प्रोफेशनल मनीष अडवाणी और एक आर्किटेक्ट जयनील त्रिवेदी ने दो ऐसी समस्याओं का हल निकाला, जो कि एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं- एक कम लागत के घर और दूसरा डेंगू से बचाव। लेकिन इन दोनों समस्याओं का हल एक है नारियल के खौल!

मनीष काफ़ी समय से मुंबई में कचरे की समस्या से लड़ रहे हैं और उन्हें यह आईडिया तब आया जब उनके बेटे को शहर में बढ़ते कचरे के ढ़ेरों के चलते सांस की तकलीफ होने लगी। मनीष बताते हैं कि उन्हें डॉक्टर ने बताया कि उनके बेटे को तकलीफ शहर में प्रदूषण और कचरे के ढ़ेरों की वजह से हो रही है।

ऐसे में, मनीष ने कचरा प्रबंधन के तरीके खोजना शुरू किया। वे बताते हैं कि उन्होंने सबसे पहली शुरुआत अपने घर के कचरे को कम्पोस्ट करने से की।

मनीष आडवानी (दायीं तरफ)

“एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे नारियल का खौल कम्पोस्ट करने के लिए दिया और मैं सोच में पड़ गया। मुझे नहीं पता था कि इसे कैसे कम्पोस्ट करूँ। नारियल के खौल काफ़ी सख्त होते हैं और इसे डीकम्पोज होने में बहुत वक्त लगता है। इसलिए मैंने इस बारे में रिसर्च की तो मुझे पता चला कि नारियल के खौल अगर डीकम्पोज न हो तो, बहुत से बीमारी फैलाने वाले मच्छर-मक्खियों का घर बन जाते हैं। हम में से बहुत से लोगों को नहीं पता कि इसके चलते स्वास्थ्य के लिए डेंगू जैसा बहुत बड़ा खतरा उत्पन्न हो सकता है,” मनीष ने बताया।

मनीष ने इन खौल को फिर से इस्तेमाल करने के तरीके ढूँढना शुरू किया। उनका पहला आईडिया खौल को पौधे लगाने के लिए इस्तेमाल करना था। इस खौल को नीचे से हल्का काटकर, उसमें पानी जाने के लिए एक छेद बनाना और फिर इसमें मिट्टी भरकर पौधे लगाना। इस तरह से यह बहुत ही आसान और प्राकृतिक तरीका है पौधों के लिए गमले तैयार करने का।

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यह आईडिया मुंबई के कई कॉर्पोरेट ने अपनाया। फिर नारियल के खौल के और क्या इस्तेमाल हो सकते हैं, इस पर विचार-विमर्श करने के दौरान आईडिया मिला इनसे घर बनाने का। मनीष ने अपने इस आईडिया को जयनील को बताया, जो कि सस्टेनेबल होम में विश्वास करते हैं।

यह उन दोनों के आईडिया और मेहनत का ही नतीजा था कि नारियल के खौल से कम लागत वाले इको-फ्रेंडली घरों का कॉन्सेप्ट निकल कर आया।

इन दोनों ने इस नारियल के घर का प्रोटोटाइप बनाने के लिए सोमैया कॉलेज के 20 छात्रों को अपने साथ जोड़ा। इन छात्रों ने वेस्ट में फेंके हुए नारियल के खौल को इकट्ठा किया और फिर 18 दिन तक उन्हें सूखाया। इसके बाद उन्होंने इससे घर बनाना शुरू किया। फ्रेम बनाने के लिए उन्होंने वेस्ट मेटल और लकड़ी का उपयोग किया। इन खौल को आधा काटा गया ताकि इनसे दीवार बन सके और फिर मिट्टी, नारियल और बांस के मिश्रण को जोड़ के लिए इस्तेमाल करके, एक साथ लगाया गया। घर की दीवारों का बाहरी हिस्सा, वर्टीकल गार्डन के लिए भी उपयोगी है।

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जयनील बताते हैं कि उन्होंने इस नारियल के घर में एयर कैविटी के सिद्धांत का इस्तेमाल किया है। नारियल के खौल में प्राकृतिक तौर पर कैविटी होती है और इसलिए जब इसे घर की दीवार और छत बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा तो घर का तापमान खुद-ब-खुद ही कम रहेगा। इससे तापमान 4-5 डिग्री तक कम हो जाता है। ऐसे में खौल से दीवार और छत बनाने के बाद किसी तरह के AC और कूलर की भी ज़रूरत नहीं होगी, जो कि बहुत पानी और उर्जा लेते हैं।

इस प्रोटोटाइप को बनाने में सिर्फ़ 10 हज़ार रुपए का खर्च आया और यह बहुत ही कम लागत का हाउसिंग आईडिया है।

ग्रीन एप्पल अवॉर्ड में जयनील त्रिवेदी

मनीष और जयनील के इस आईडिया को बहुत-सी जगह सराहा गया है। इंटरनेशनल ग्रीन एप्पल अवॉर्ड्स में उन्हें ब्रॉन्ज़ मेडल मिला। यह अवॉर्ड दुनिया की सबसे बेहतर पर्यावरण पहल को दिया जाता है।

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नारियल के घर के अलावा भी, यह टीम नारियल को इस्तेमाल करने के और भी कई बेहतर और क्रिएटिव तरीकों पर काम कर रही है। इनमें एक है नारियल को मल्चिंग के लिए इस्तेमाल करना, इससे खेती के लिए पानी और उर्वरक की खपत को काफी कम किया जा सकता है।

आप मनीष से संपर्क करने के लिए manish.advani@mahindrassg.com पर और जयनील से संपर्क करने के लिए jayneeltrivedi@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली 
मूल लेख: रंजिनी शिवास्वामी 


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पानी पर बसे हैं घर, चम्बा के इस गाँव में पर्यटन का अलग है अंदाज!

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फलता की यह कहानी हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले के चमिनो गाँव के उन उत्साही युवाओं की है, जो अपनी ग्रामीण विरासत को सहेजने के लिए एकजुट होकर आगे आए हैं। यह उत्साही युवा देशभर के ऐसे हिस्सों को राहगीरों के सामने रख रहे हैं जो नक़्शे पर दिखाई ही नहीं देते। वे यह कार्य एक स्टार्टअप के जरिये कर रहे हैं। जिसकी शुरुआत मनु शर्मा और कुमार अनुभव ने की है।

इस स्टार्टअप का नाम है ‛नॉट ऑन मैप’। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वह जगह जो मानचित्र पर नहीं है या वह लोग जो मुख्य धारा से कटे हुए हैं। ऐसी ही जगहों और ऐसे लोगों को नक्शे पर लाना इन युवाओं का काम है।

‛नॉट ऑन मैप’ की शुरुआत 2015 में हुई थी। स्टार्टअप का मुख्य उद्देश्य देश के हृदय स्थल कहे जाने वाले गांवों में बसने वाली आम जनता तक ऐसे लोगों को पहुँचाना हैं, जो गांवों को जानना, उसकी संस्कृति को समझना और उससे जुड़ना चाहते हैं। इनकी सोच है कि सही मायनों में भारत जिस सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, वही सुंदरता लोगों को दिखाई जाए।

जो लोग प्रकृति प्रेमी हैं, गांवों के प्रेमी हैं, गांवों को देखना, समझना चाहते हैं, गांवों की आत्मा को छूना चाहते हैं, अनछुए-अनदेखे भारत को देखना चाहते हैं, वे इनके जरिये इस सपने को पूरा कर सके। 

इस इनिशिएटिव के तहत कुछ गांवों को गोद लिया गया है, जिनमें यहाँ के ग्रामीणों से मिलकर आपसी समझाइश के बाद सामुदायिक आधारित पैटर्न को बढ़ावा दिया जा रहा है।

मनु शर्मा बताते हैं, “मैं हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के चमिनो गाँव का रहने वाला हूँ। ‛नॉट ऑन मैप’ नाम से हमारा इनिशिएटिव है जो इसी गाँव से शुरू हुआ था। आज हमारा यह विचार भारत के 8 राज्यों में काम कर रहा है। बुकिंग डॉट कॉम वेबसाइट द्वारा हमारे इनिशिएटिव को वर्ल्ड के टॉप 10 बूस्टर स्टार्टअप्स में शामिल किया गया था, जहाँ प्रतियोगिता में हमने पूरी दुनिया में तीसरा स्थान प्राप्त किया।”

चमिनो – ‘नॉट ऑन मैप’ का पहला गाँव

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चमिनो गाँव के ग्रामीण।

चमिनो गाँव चंबा जिले बरौर पंचायत में आता है, जिसमें पांच उप वार्ड है। तकरीबन 300 से 400 की जनसंख्या वाले इस गाँव में चंबा स्टाइल में बने 200 साल से भी ज्यादा पुराने घर हैं। इतना समय बीतने के बाद भी इन मकानों में किसी तरह का कोई रिनोवेशन नहीं किया गया है और न ही किसी चीज़ से छेड़खानी की गयी है। वे घर के कॉन्सेप्ट पर काम करते हैं, इसलिए डुप्लेक्स हाउस को भी प्राथमिकता देते हैं, ताकि एक पूरा परिवार आसानी से रह सके।

जब मनु और कुमार ने इस इनिशिएटिव की शुरुआत की थी, तब तक लोग चमिनो का नाम तक नहीं जानते थे। ऐसे में इन्होंने तय किया कि जितने भी लोग यहाँ आये, क्यों न उन लोगों को ठीक वैसी ही सुविधाएं दी जाएं, जो पहले इन गांवों में हुआ करती थीं। ठीक वैसी ही बुनियादी सुविधाएं फिर से प्रदान करें, वही संस्कृति फिर से जिंदा करके दिखाएं, ताकि लोग उनसे जुड़ सके।

ऐसे में उन्होंने ‘नॉट ऑन मैप’ की कल्पना को धरातल पर उतारा और टूरिस्ट्स को ऐसे गांवों से जोड़ने के अपने उद्देश्य में लग गए।

एचटूओ हाउस – वॉटर मिल्स को बचाने की एक कोशिश

बाएं – नीचे पानी के घराट, दायें – ऊपर बनें खूबसूरत H2O हाउस

मनु और कुमार का उद्देश्य अपने स्टार्टअप  के ज़रिये विलुप्त हो रही पुरानी घराट यानी वॉटर मिल्स को बचाना भी था, जोकि लगातार होती पानी की कमी के कारण खात्मे की ओर हैं। इसके लिए इन युवाओं ने इन जगहों पर रुकने की कुछ आधारभूत व्यवस्था की, जिससे इन वॉटर मिल्स को बचाया जा सके। वॉटर मिल्स पर बनें इन घरों का नाम रखा गया एचटूओ हाउस (H2O House)।

“चमिनो गाँव के इस एचटूओ हाउस की बात करें, तो यह हमारे पूर्वजों की संपत्ति है। यहाँ वर्षों पुरानी घराट अर्थात वॉटर मिल्स हैं। पूरे हिमालय में तकरीबन 4 से 5 लाख वॉटर मिल्स हुआ करती थी, जो अब लगभग विलुप्त हो चुकी हैं। इस घर का नाम एचटूओ हाउस रखने का कारण भी यही था कि पानी इस घर के नीचे से गुजरता हुआ चारों दिशाओं में बिखरता है। पानी की कलकल के बीच यहाँ रहना एक नैसर्गिक आनंद का अनुभव देता है,” मनु शर्मा ने बताया।

 

युवाओं का पलायन रोक, यहीं दिया रोज़गार 

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‛नॉट ऑन मैप’ से जुड़े चमिनो गाँव के युवाओं की टीम।

‘नॉट ऑन मैप’ की इस पूरी सोच के पीछे जो दूसरा उद्देश्य काम कर रहा था, यह था कि गाँव के युवाओं को जोड़कर उन्हें समझाया जाए कि बाहर जाने से बेहतर है आप अपने गाँव में, अपने घरों में रहकर अनूठे किस्म का रोजगार विकसित करें।

खजियार के पास भलोली गाँव है, जहाँ पहुंचने के लिए तकरीबन एक घंटा पैदल चलना पड़ता है। इस गाँव के ज्यादातर युवा रोजगार के चलते बाहर रहते हैं।

वैसे तो यह सभी युवा किसी न किसी रूप में टूरिज्म के काम से जुड़े थे, लेकिन किसी अन्य शहर या राज्य में जाकर काम कर रहे थे। ऐसे में उनकी उसी स्किल्स को उनके ही घर-गाँव में काम लेकर उनको स्वरोजगार से जोड़ने का कार्य इनकी टीम ने किया।

‛नॉट ऑन मैप’ की बदौलत पहले जो युवा बाहर जाकर नौकरों के रूप में कार्य करते थे, अब वही युवा अपने ही गाँव-घर में मालिक की तरह काम कर रहे हैं। इन युवाओं की टोली आर्थिक रूप से सुदृढ़ हुई है और आज अपने ही गांवों को विकसित करने में अपना अमूल्य योगदान दे रही है। 

 

पुरानी चीज़ों का सम्मान करना जानते हैं ये युवा 

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पुरानी झोंपड़ी को सजा कर नया रूप दिया गया है।

‛नॉट ऑन मैप’ की सोच पर इन युवाओं ने गाँव को रिस्ट्रक्चर किया। इसके तहत पूरे मामले में गाँव को नया नहीं बनाना था, लेकिन गाँव में मौजूद कुछ व्यवस्थाओं में सुधार करना था ताकि लोगों को गाँव की ओर आकर्षित किया जा सके। किसी भी पुरानी संपत्ति से किसी तरह की कोई भी छेड़खानी न करते हुए, यहाँ की वॉटर मिल यानी घराट के ऊपर फैमिली रूम तैयार किया गया। पुरानी पहाड़ी स्टाइल पर ऐसे घरों को बनाया गया, जिनकी हाइट थोड़ी कम होती थी। इन घरों में देवदार की लकड़ियों का प्रयोग किया गया। अलमारी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए पाइनवुड को इस्तेमाल किया गया। छत भी पुराने समय की देवदार की लकड़ी से बनायी गयी। टूटे हुए पेड़ के तने को टेबल का रूप दिया, तो पुराने जमाने के शटर वाले टीवी को किचन के सर्विस विंडो के रूप में काम में लिया गया।

 

शानदार व्यवस्था की जगह सच बताकर बुलाया जाता है टूरिस्ट को

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गाँव की महिला से रोटी बनाना सीखता एक पर्यटक।

 

 

‛नॉट ऑन मैप’ का टैगलाइन ‛लिव लाइक लोकल्स’ है। जिसका अर्थ है आप लोग स्थानीय लोगों की तरह ही आए, यहाँ के लोगों की तरह रहें और यहीं की जिंदगी को जिए, यही इस स्टार्टअप का उद्देश्य भी है।

‛नॉट ऑन मैप’ में गांवों की वही तस्वीर टूरिस्ट को दिखाई जाती है जैसा गाँव होता है, कुछ भी गलत या जो नहीं है उसे दिखाने की कोशिश कभी नहीं की जाती। यहां आए टूरिस्ट, टूरिस्ट न होकर परिवार का हिस्सा होते हैं। जिस तरह यह ग्रामीण अपने परिवार में काम करते हैं, उसी तरह यह टूरिस्ट भी इन ग्रामीणों के साथ रहकर इनके कामों में सहभागी बनते हैं।

इसे लेकर मनु कहते हैं, “हो सकता है गाँव में आने वाले टूरिस्ट को 2 दिन तक लाइट ही न मिले क्योंकि लाइट की व्यवस्था हमारी सुविधाओं से बाहर है। हम टूरिस्ट को किसी भी तरह का झूठ बोलकर या सुविधाओं के नाम पर बरगला कर अपने गाँव में कभी नहीं बुलाते, उन्हीं टूरिस्ट पर फोकस करते हैं, जिनके दिलों दिमाग में प्रकृति, ग्रामीण जीवन देखने के सपने होते हैं और वे असली भारत की छवि देखना चाहते हैं।”

टूरिस्ट भी बन जाते हैं मेज़बान 

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चमिनो गाँव में आए पर्यटक स्थानीय लोगों के साथ।

गाँव के युवाओं को इस कार्य के लिए प्रशिक्षित करने तक के खर्च को भी ‛नॉट ऑन मैप’ वहन करता है। उनकी कोशिश रहती है कि वे गाँव के युवाओं को भी एक्सपोजर दिलाने में मदद करें। साथ ही कुछ बाहर से युवा आकर भी यहाँ के घरों को रिस्टोर करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही महाराष्ट्र के सातारा से आई श्रद्धा भी इन घरों को बदलने के लिए काम कर रही हैं।

वह कहती हैं, “मैं पेशे से एक आर्किटेक्ट हूँ। पिछले सालभर से घूमकर गांवों को समझ रही हूँ। पहले लद्दाख में थी, फिर कश्मीर में और अभी हिमाचल में हूँ। पुराने घरों को रीस्टोर करने में मेरी रूचि है, इसलिए मैं यहां कार्य कर रही हूँ। मेरी इच्छा है कि इस तरह के काम के लिए देश के बाकी युवाओं को भी आगे आना चाहिए, ताकि हमारी संस्कृति बच सके।”

 

प्रॉफिट शेयर मॉडल, जिसमें ग्रामीणों को रखा गया सबसे ऊपर!

‛नॉट ऑन मैप’ का प्रॉफिट शेयर मॉडल कुछ इस तरह डिजाईन किया गया है कि बुनियादी खर्चों को रखकर बाकी का 70 से 75% पैसा ग्रामीणों को दे दिया जाता है, ताकि ग्रामीण अपने गाँव की बुनियादी सुविधाओं में और सुधार कर सके, जिसकी वजह से अधिक से अधिक टूरिस्ट इन गांवों की ओर रुख करें और गांवों के साथ-साथ ‛नॉट ऑन मैप’ का काम भी फले-फूले।

गाँव के लोग ‛नॉट ऑन मैप’ में दो तरीके से काम करते हैं – पहला तो यह कि वह पूरी तरह उन्हीं के साथ काम करें, दूसरा यह कि वे सीधे तौर पर भी टूरिस्ट को अपने घरों में रोक सकते हैं और उन्हें गाँव की ज़िंदगी से रू-ब-रू करवा सकते हैं। इसके लिए भी ‛नॉट ऑन मैप’ ने एक नया विचार तैयार किया है कि अगर कोई टूरिस्ट किसी के यहाँ रुक गया हैं तो वह खाना किसी और व्यक्ति के घर खाए ताकि बराबर रूप से गाँव वालों को आमदनी हो सके।

अब आती है पैकेज की बात कि वे टूरिस्ट से किस तरह डील करते हैं तो इसका सीधा जवाब यही है कि अभी तक ऐसा कोई प्रारूप तैयार नहीं किया है कि किस टूरिस्ट से कितना पैसा लेना है। देशभर में उनके इनिशिएटिव से जुड़े स्थानों पर रुकने के लिए 300 रुपए से लेकर 2000 रुपए प्रति दिन तक का टैरिफ है।

अंत में मनु कहते हैं, “हम किसी भी रूम को प्रमोट नहीं करते। हम सिर्फ इतना कहते हैं, आइये, अपने घर में रुकिए और घर की फीलिंग लीजिए। जिस तरीके से 200 साल पहले हमारे बुजुर्ग इनमें रहते थे, आप भी उसी आनंद को अनुभव कीजिए।”

बेशक, ‘नॉट ऑन मैप’ की यह मुहीम लोगों को उस भारत से मिलाने में कारगर साबित होगी जो वाकई देश के सुदूर क्षेत्रों के गांवों में बसता है। साथ ही गाँव के लोगों की संस्कृति को बचाने और उनको रोजगार के साधन उपलब्ध कराने में भी उनकी यह मुहीम बड़ी भूमिका निभा सकती है।

अगर आपको ‘नॉट ऑन मैप’ की मुहीम अच्छी लगी और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो 96630 15029 पर बात कर सकते हैं। आप उन्हें ई-मेल भी कर सकते हैं।

 

संपादन : भगवती लाल तेली


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74 वर्षीय पूर्व सैनिक ने उगाए पहाड़ों पर सेब, रोका किसानों का पलायन!

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क और हमारे पहाड़ के गाँव बदस्तूर पलायन से खाली होते जा रहे हैं, वहीं हमारे बीच कई ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो गांवों में रहकर ही किसी मिसाल से कम नहीं है। रोंग्पा घाटी भ्रमण के दौरान मेरी मुलाकात एक ऐसी ही शख्सियत एप्पल मैन इंद्र सिंह बिष्ट से हुई। विगत 30 बरसों से वे पलायन के खिलाफ चट्टान की तरह अडिग हैं। जिस उम्र में अधिकतर लोग दवाइयों के सहारे जीवनयापन करते हैं उस उम्र में ये विषम परिस्थितियों में अपने एप्पल गार्डन की देखभाल करते हुए नज़र आते हैं।

उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की रोंग्पा-नीति घाटी में बसा एक बेहद खूबसूरत गाँव है झेलम। इंद्र सिंह यहीं के रहने वाले हैं। 74 वर्षीय इंद्र सिंह ने अपनी मेहनत, दृढ इच्छा शक्ति, धैर्य, जज्बे से सीमांत की बंजर और बेकार पड़ी भूमि को ऐसा सींचा की बंजर भूमि भी सोना उगने लग गई।

इंद्र सिंह सेना में रहे हैं और 80 के दशक अपनी नौकरी छोड़कर गाँव आ गए थे। गाँव आने पर उन्होंने यहीं रहकर रोजगार के साधन तलाशने शुरू किए। वे एक बार 1983 में हिमाचल गए, जहाँ उनको वहाँ के सेब के बागानों ने बहुत प्रभावित किया और उसी दिन उन्होंने झेलम में भी सेब की खेती करने का मन बना लिया।

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अपने बगीचे में एप्पल के पेड़ के साथ इंद्र सिंह बिष्ट।

हिमाचल से वापस आने के बाद उन्होंने 1988 में क़र्ज़ लेकर 20 हज़ार रुपयों का बंदोबस्त किया। इन रुपयों से उन्होंने गाँव में अपनी बेकार और बंजर पड़ी भूमि पर 50 नाली में 100 सेब के पेड़ लगाए।

इंद्र सिंह ने कभी हार नहीं मानी और पहाड़ों पर रहकर 10 साल तक सेब के पेड़ों की रक्षा की। इतना लम्बा इंतज़ार भी उनके हौसले को डिगा नहीं पाया। जिसकी परिणति ये हुई की आज लोग उन्हें एप्पल मैन के नाम से जानते हैं।

कहानी को थोड़ी पीछे ले जाते हैं, इंद्र सिंह साल में छह महीने के लिए गाँव आया करते थे लेकिन 80 के दशक में जब वे गाँव आए और सेब उगाने शुरू किए तो गाँव वाले हैरान थे। गाँव वालों का सोचना था कि जब सारे लोग गाँव छोड़कर जा रहे हैं तब ये यहां सेब उगा रहे हैं और तो और छह महीने बाद उन सेब के पेड़ों की रक्षा कौन करेगा।

इंद्र सिंह कहते हैं, “जब मैंने सेब उगाना शुरू किया तो लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया। मुझसे कहा गया कि यहाँ पर सेब के पेड़ कैसे उग सकते हैं? लोगों ने इसे बेवकूफी भरा कदम बताया। लेकिन मैंने हार नहीं मानी और 1988 से लेकर 1998 तक इन पेड़ों की हिफाजत खुद से भी ज्यादा की।”

इंद्र​ सिंह छह महीने बाद भी वापस नौकरी पर नहीं गए और वहीं बस गए। उन्होंने बिना कोई केमिकल उपयोग किए सेब उगाकर गांवों के उस भ्रम को तोड़ दिया जो कहता था कि बंजर पहाड़ पर सेब कैसे उगेंगे।

उनके सेब की खेती शुरू करने से पहले लोगों को सेब के पेड़ों की रक्षा का डर था क्योंकि प्राकृतिक आपदा आदि के चलते उन पहाड़ों पर सेब के पेड़ों की रक्षा बड़ा काम था। साथ ही लोग संशय में भी थे, उनका मानना था कि यह भूमि बंजर है इस पर सेब की खेती नहीं हो सकती है। लेकिन इंद्र सिंह इस बात की परवाह किये बिना सेब उगाने के लिए 10 साल तक डटे रहे। पेड़ों की रक्षा की, उनको सींचा और आज परिणाम सबके सामने है।

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पहाड़ी पर एप्पल पेड़ के पास से मिट्टी हटाते इंद्र सिंह बिष्ट।

10 साल बाद उन्हें पहली ख़ुशी तब मिली जब उनके लगाए गए सेब के पेड़ों ने फल देना शुरू किया। ऐसा लगा जैसे उनका देखा सपना सच हो गया। बस उसके बाद इंद्र सिंह ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

इंद्र सिंह के पहाड़ों पर सेब उगाने का परिणाम यह निकला कि लोगों ने उनको होते मुनाफे को देख अपनी बेकार पड़ी ज़मीन पर भी सेब की खेती शुरू कर दी। जो लोग कभी उनका मजाक बनाया करते थे वे लोग आज उन्हीं का अनुसरण कर अपने-अपने गांवों में सेब की खेती कर रहे हैं। जो युवा गाँव छोड़कर नौकरी की तलाश में समतल में जाते थे वे भी आज अपनी पहाड़ियों पर सेब उगा रहे हैं। आज घाटी में इंद्र सिंह पहाड़ों में रहकर भी स्वरोजगार करने का एक उदाहरण बनकर उभरे हैं। आसपास के कई गांवों के लोग आज उनसे सीखकर पहाड़ों पर सेब की खेती कर रहे हैं।

आज 28 साल बाद उनके पास सेब का एक पूरा बगीचा है। हर साल उनके पास सेब की बहुत मांग आती है। आज स्थिति यह है कि सीजन से पहले ही उनके पास सेब की पूरी डिमाण्ड आ जाती है। कभी-कभी लोगों की डिमांड भी पूरी नहीं हो पाती है। इंद्र सिंह के झेलम के सेब की मिठास व गुणवत्ता हिमाचल और जम्मू-कश्मीर से भी बढ़िया है।

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इंद्र सिंह बिष्ट की बंजर भूमि पर लगा एप्पल का पेड़।

उनके बगीचे में रॉयल डेलिसिस, गोल्डन, राइमर, स्पर और हेरिसन जैसी प्रजातियों के सेब हैं। इसके अलावा उन्होंने अपने बगीचे में उच्च गुणवत्ता की नाशपाती और बादाम के पेड़ भी उगाए हैं, जो उन्हें अच्छी खासी आमदनी देते हैं।

उन्होंने इन सेबों को सबसे पहले लोकल मार्केट में बेचा और फिर धीरे-धीरे देहरादून, सहारनपुर, दिल्ली की मंडियों तक पहुँचाने लगे। आज वह हर साल अकेले ही करीब 100 क्विंटल सेबों का उत्पादन करते हैं। उनके हर साल की कमाई करीब 8 से 10 लाख रुपए है।

इंद्र सिंह ने गाँव से पलायन करने के बजाय वहीं पर स्वरोजगार कर इस बात को साबित किया कि पहाड़ में रहकर भी बहुत कुछ किया जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने पलायन को आईना दिखाया है। वीरान पहाड़ों में जहाँ शीतकाल में आपको कोई भी नहीं दिखाई देता, वहीं इंद्र सिंह साल के 12 महीने अपने एप्पल गार्डन की देखभाल करते नजर आ जाएंगे।

एप्पल मैन के हौसले और जज्बे को सलाम, आज वे उन लोगों के लिए नज़ीर हैं जिन्हें पहाड़ केवल ‘पहाड़’ नज़र आते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली

 

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8वीं पास किसान ने बनाई ऐसी मशीन, ऑटोमैटिक ही हो जाएगी संतुलित बुवाई!

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फलता की यह कहानी जोधपुर जिले के सालावास गाँव के प्रगतिशील किसान गोपाल दवे की है, जिन्होंने एक ऐसी मशीन बनाई है जिससे आप बीजों की बुवाई भी कर सकते हैं और खाद भी डाल सकते हैं। इस मशीन की सहायता से किसानों को अब यह सुविधा हो गई है कि वे सभी किस्म के बीजों और दो से तीन किस्म के मिश्रित व संतुलित बीजों की बुवाई भी इससे एक साथ कर सकते हैं।

गोपाल दवे कहते हैं, “मैं बड़ी विकट परिस्थितियों में बड़ा हुआ हूँ। वैसे तो किसान परिवार से हूँ पर खेत के नाम पर ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा ही था, जो पूरे परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं था। चूँकि ब्राह्मण कुल से हूँ, इसलिए पिताजी खेती के साथ-साथ शिव मंदिर में पूजा पाठ का काम भी करते थे। 8वीं पास करते-करते मैंने घर के माली हालातों को ध्यान में रखते हुए मजदूरी करना शुरू कर दी थी। एक समय आया जब खेती से घर का खर्च पूरा नहीं पड़ा तो हमने गाँव छोड़ शहर का रूख किया।

ये उन दिनों की बात है, जब वे उनके पिताजी के साथ खेतों पर जाया करता थे। किसानों को मरते-परेशान होते देखते थे। उन्होंने तभी निर्णय कर लिया था कि कुछ ऐसा करेंगे कि उनके किसान भाइयों को खेती-बाड़ी की रोजमर्रा की समस्याओं से मुक्ति मिल जाए। शहर में आकर 19 साल की उम्र में उन्होंने प्लास्टिक के आइटम बनाने की एक हाथ से संचालित होने वाली मशीन लगाकर काम शुरू किया। 1991 में कास्टिंग लाइन से भी जुड़े। कास्टिंग को इंजीनियरिंग की नींव माना जाता है।

 

फिर उन्होंने सोचा कि शहर में कुछ करने की बजाय अपने पूर्वजों की माटी पर ही जाकर कुछ करूं और कामयाब होऊं तो उनकी आत्मा को भी खुशी मिलेगी और वे गाँव आ गए।

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प्रगतिशील किसान गोपाल दवे।

गोपाल के मन में शुरू से ही किसानों के लिए कुछ नया करने की सोच पल रही थी पर वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर करें क्या? एक दिन ऐसे ही बैठे-बैठे मन में ख्याल आया कि किसानों के लिए हल पर बैठकर बुवाई करना बड़ी समस्या है। फिर बहुत सोच विचार के बाद पाया कि बुवाई के लिए उपयोग में आने वाले बीजों की मात्रा की समस्या बड़ी है।

हल पर बैठकर बीज डालने से कहीं बीज ज्यादा गिर जाते हैं तो कहीं कम गिरते हैं। हल पर बैठे किसानों के लिए यह तालमेल बैठाना बड़ा जोखिम भरा होता है कि वे या तो बीजों के बराबर गिरने पर ध्यान दे या खुद का बैलेंस बनाए रखें, खुद को गिरने से बचाएं। इन सबके चलते बुवाई भी ठीक-ठाक नहीं होती है और फसल भी असंतुलित होती है।

1993 की बात है, उन्होंने लकड़ी का एक जुगाड़ देखा जिसकी सहायता से कई किसान बिजाई करते थे। लेकिन समस्या तो यहां भी यही थी, वो कोई यंत्र तो नहीं था, था तो जुगाड़ ही, इससे भी बिजाई ठीक से नहीं होती थी।

गोपाल ने इसी जुगाड़ के सहारे एक तकनीक विकसित करने की सोची। उन्होंने सबसे पहले एल्युमिनियम कास्ट में एक मॉडल तैयार किया। मशीन की मदद से बीजों को आठों हलों में गिरने की स्थिति को बराबर किया। उन्होंने सबसे पहले 2 ही मशीनें बनाई, जिसे दो किसानों को देकर उपयोग में लेने के लिए कहा। किसानों के लिए वे मशीनें उपयोगी सिद्ध हुई।

 

मशीनों की सहायता से अच्छे से बुवाई होने लगी तो उन्होंने अगले वर्ष 30 मशीनें बनाई और मात्र लागत कीमत पर किसानों को इस्तेमाल करने के लिए दी।

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बाईं मशीन पहले उपयोग होती थी जिस पर बैठकर बुवाई करते थे। दाईं ओर की नवीन मशीन, जिससे ऑटोमैटिक बुवाई होती है।

गोपाल बताते हैं कि उनके द्वारा सृजित बुवाई के इन यंत्रों को मात्र लागत कीमत पर किसानों को दिए जाने की वजह से काफी प्रसिद्धि पाने लगे।

2004 में ऑटो पावर व रॉड की मदद से ट्रैक्टर के पीटोओ सॉफ्ट से मशीन को चलाया, लेकिन स्पीड ज्यादा होने के कारण बीजों के टूटने की समस्या उत्पन्न हो गई। फिर भी बीजों का वितरण ऑटोमैटिक रूप से होना सफल रहा। इसके बाद मशीन को जमीन से पावर देकर बीज तोड़ने की समस्या का निपटारा किया गया। इस कार्य को सफलता तक लाने का जुनून इतना था कि गोपाल ने बाकी सारे काम बंद कर दिए थे, वे कास्टिंग के जरिये इसे उन्नत करने में जुट गए थे।

और फिर एक दिन वह भी आया जब अनेकों परिवर्तनों के बाद उनकी यह मशीन कामयाब हो गई। उनकी मेहनत का नतीजा रहा कि 2007 में 80 किसानों ने इसे सफल मानते हुए इसकी सराहना की। यही वह समय था, जब गोपाल ने दिन-रात एक कर दिए थे।

 

किसानों के खेतों में जा जाकर वे मशीन की सेटिंग अपने हाथों से करते। कन्धे से कन्धे मिलाकर बिजाई में किसानों के साथ जुटे रहते थे।

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मशीन देने के बाद किसानों के साथ गोपाल।

उनका एक ही सपना था कि वे एक ऐसा यन्त्र विकसित करने में कामयाब हो जाएं जो सभी तरह के बीजों की बिजाई विशिष्ट मात्रा में समान्तर और जरूरत के मुताबिक कर सकने में सक्षम हो, जिससे निम्न दर्जे के किसानों को कम कीमत में बुवाई की अच्छी प्रणाली और मशीन मिल जाए। कुछ ऐसा हो जिसकी वजह से किसानों के समय और पैसे की बचत हो।

लगातार जद्दोजहद करने के बाद वे कामयाब हुए थे। उन्होंने ‘ऑटोमैटिक सीड ड्रिल कम फर्टिलाइजर मशीन’ बनाने में सफलता हासिल की थी। आज की तारीख में इस मॉडल के हजारों पीस बन रहे हैं। देश भर के करीब 5 हज़ार किसान उनकी बनाई मशीन का उपयोग कर रहे हैं।

इस मशीन में 6, 7, 8 और 9 हल की सुविधा है। इसकी खूबी यह है कि जैसे ही मशीन का पॉवर व्हील मिट्टी के सम्पर्क में आता है, उसके ऊपर लगे स्टॉक ड्रम से विशिष्ट अनुपात में बीज गिरने लगते हैं। एक फायदा यह भी है कि जब ट्रैक्टर खेत में मुड़ता है तो एक भी बीज बेकार नहीं होता।

 

मशीन में फ्लेक्सिबल रॉड लगी है, जिसके चलते खेत की ऊँची-नीची जमीन में भी मशीन संतुलित रहते हुए चलती है।

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गोपाल दवे की बनाई ‘ऑटोमैटिक सीड ड्रिल कम फर्टिलाइजर’ मशीन।

इस मशीन से मिक्सर बीजों की बुवाई के साथ-साथ बाजरा, सरसों, रायड़ा, तिलहन, मूंग, मोठ, ज्वार, गेहूं, चंवला, मक्की, मूंगफली और अरण्डी आदि बीजों की बुवाई भी संतुलन के साथ हो सकती है।

मशीन की मुख्य बॉडी एल्युमिनियम से बनी है, जिसकी वजह से बरसाती सीजन में मशीन को जंग भी नहीं लगता। मशीन की एक ख़ूबी यह भी है कि हल पर लगी ड्रिल के साथ लगा चक्र जमीन के सम्पर्क में आते ही घूमता है। हल से जुड़ी 16 नलियों से बीज और खाद मिट्टी में दब जाते हैं।

फलस्वरूप किसान भाईयों को बुवाई से पूर्व खाद-बीज डालने के लिए बार-बार मेहनत नहीं करनी पड़ती। इस मशीन से आप 50 ग्राम बीजों की भी बुवाई कर सकते हैं। जोधपुर संभाग स्तर सहित प्रदेश के कई जिलों के किसान इसे अपना चुके हैं। अब गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक सहित कई राज्यों के किसानों ने भी इसे अपनाया है। उनके इस शोध के लिए उन्हें अनेक सम्मान मिल चुके हैं।

राजस्थान सरकार के कृषि विभाग द्वारा इस पर 50 प्रतिशत अनुदान भी दिया जा रहा है। ‘ऑटोमैटिक सीड कम फर्टिलाइजर मशीन का मूल्य 22,000 रुपए है तो केवल बीज बुवाई के लिए सीड ड्रिल की कीमत 14,000 रुपए है। प्रोग्रेसिव फार्मर गोपाल दवे ने इस मशीन का पेटेन्ट भी करवा लिया है। गोपाल दवे ने इस वर्ष 12-13 लाख का रिटर्न फाइल किया। काम ज्यादा होने पर उन्होंने 20 से 25 लाख रुपए भी साल के कमाए हैं। ‛श्री आर्ट एंड एग्रीकल्चर उद्योग’ के नाम से उनकी फर्म है। आप इस ई-मेल के माध्यम से उनके प्रोडक्ट्स के बारे में जानकारी ले सकते हैं।

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पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद पवार को अपनी बनाई मशीन की जानकारी देते गोपाल।

यह खूबियां भी हैं मशीन में

इस मशीन की सहायता से किसान छोटे-छोटे बीजों की जरूरत अनुसार बुवाई कर सकते हैं, क्योंकि सीड ड्रिल में साधारण मैकेनिकल सिस्टम के तहत एक टेपर बर्मा लगा हुआ है, जिसे ज्यों-ज्यों नीचे उतारते हैं, अनाज की मात्रा में वृद्धि होती रहती है। इसी प्रकार बर्मा ऊपर उठाने पर अनाज की मात्रा में कमी भी होती है। जैसे एक बीघा भूमि में 1 किलो बाजरे की बुवाई करने वाले किसान 500, 600, 700, 800 और 900 ग्राम 3 नम्बर से 4 नम्बर तक किलो की मात्रा निश्चित कर सकते हैं। इस नवीन तकनीक से मिश्रित (भेलिया) मसलन बाजरा, मोठ, तिल आदि की बुवाई एक साथ सरल रूप से हो सकती है, जबकि दूसरी मशीनों में ऐसा नहीं होता।

Automatic seed dril cum fertilizer machine
‘ऑटोमैटिक सीड ड्रिल कम फर्टिलाइजर’ मशीन।

इस मशीन से कम मात्रा के बीजों की बुवाई भी संभव है। मात्र 100 ग्राम बीज डालने पर भी मशीन पूरी तरह से काम करती है। जबकि दूसरी मशीनों में कम से कम 10-20 किलो बीज डालने होते हैं। इतना ही नहीं, बुवाई के बाद भी 2-4 किलो बीज रह जाता है, जिसे निकालने में किसानों को अधिक मेहनत लगती है। इससे अपनी जरूरत अनुसार बुवाई कर सकते हैं। जबकि दूसरी मशीनों में फिक्स हॉल होते हैं, जैसे 3 नम्बर पर चलाने से एक बीघा में एक किलो बीज ही निकलता है। किसान चाहकर भी उसे किलो से सवा या डेढ़ किलो नहीं कर सकते। इस मशीन में खेत के बॉर्डर पर (माट) बीज ऑटोमैटिक न गिरने का सिस्टम है, जिसके चलते किसानों के कीमती बीज व्यर्थ नहीं जाते, दूसरी मशीनों में संभवत: ऐसी कोई सुविधा नहीं है। इस मशीन की स्टॉक क्षमता 50 किलो बीज व 50 किलो तक खाद की है।

 

अगर आपको गोपाल दवे की यह कहानी अच्छी लगी और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो उनसे 09460249145, 09660811148 नंबर पर बात कर सकते हैं। आप उन्हें ई-मेल भी कर सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली


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गुटखा छोड़, उन पैसों से 7 साल में लगाए 1 हज़ार पौधे!

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रोज़ 30-40 रुपए का गुटखा खा जाना एक आम बात है। लोग स्वाद-स्वाद में लगी इस आदत के कब गुलाम बन जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता। ऐसे में कितना भी चाहें पर वे अपनी इस आदत को छोड़ नहीं पाते हैं और आगे चलकर कई भयावह बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। लेकिन राजस्थान के एक साधारण व्यक्ति ने नशा छोड़, गुटखा के पैसों से वो कर दिखाया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

ग्राम सहण, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी, राजस्थान के रहने वाले महावीर प्रसाद पांचाल ने गुटखा खाना छोड़, उन पैसों से 1000 पौधे लगा यह साबित कर दिया कि ठान लो तो कुछ भी मुश्किल नहीं।

आज वह लगातार पौधारोपण कर रहे हैं। उन्होंने एक हनुमान वाटिका बनाई है, जिसमें  61 प्रजातियों के 1000 पौधे लहलहा रहे हैं। आइए सुनते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की ज़ुबानी…

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महावीर प्रसाद पांचाल।

मैं महावीर प्रसाद पांचाल सहण का रहने वाला हूँ। जिला मुख्यालय से 60 किलोमीटर की दूरी पर मेरा गाँव है। पेड़-पौधों से मुझे बचपन से ही लगाव था। बचपन में जब हम घर बनाना खेलते थे तो मेरा घर सबसे सुंदर होता था। मैं मेरे घर को कनेर, नीम और कुआडिया की टहनियों से सजाता था। बचपन से ही मेरा सपना था कि मैं खूब पेड़ लगाऊं। जब मैं बस से बून्दी या कोटा जाता तो खिड़की के पास बैठकर पर्वतमाला को निहारा करता था। बारिश के दिनों में आम, जामुन, इमली के बीज कहीं भी लगा देता था। हालांकि ये कभी बड़े नहीं हुए, क्योंकि मैं गलत जगह पर इन्हें लगाता था। खैर, बचपन कब निकल गया पता ही नहीं चला।

पढ़ाई-लिखाई और बाद में घर की जिम्मेदारियों में यह शौक दब गया। पढ़ाई के बाद मैंने गाँव में ही किराने की दुकान खोल ली। उसके बाद 2010 में मैंने पास के कस्बे देई में ऑटो पार्ट्स की दुकान खोली और चलाने लगा। 20 जून 2013 की बात है, मैं दुकान पर फुर्सत में बैठा हुआ था, अतीत की स्मृतियां मेरे सामने आ गई।

मैंने सोचा आधी उम्र बीत गई। जिंदगी की भागा दौड़ी में पेड़-पौधों का शौक पीछे छूट गया। उसी समय मेरे एक मित्र पीताम्बर शर्मा दुकान पर आए। मैंने मेरे शौक के बारे में उन्हें बताया तो उन्होंने गाँव में स्थित हनुमान जी के मंदिर की बेकार पड़ी 100 बीघा जमीन पर पौधारोपण की सलाह दी।

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हनुमान वाटिका में अपने लगाए पेड़ों के पास खड़े महावीर और पेड़ों पर आए फल।

मन ने गवाही दी, लेकिन इतने बड़े स्तर पर पौधारोपण के लिए जेब इजाज़त नहीं दे रही थी। दूसरे दिन, मेरे एक मित्र लादू लाल सेन जो दुर्व्यसन मुक्ति मंच के नाम से एनजीओ चलाते थे, किसी काम से दुकान पर आए। मेरे मुँह में गुटखा भरा हुआ था और मैं उनकी बातों का जवाब अजीब सी आवाज में दे रहा था। उन्होंने मुझे गुटखा छोड़ने की सलाह दी और कहा कि इन पैसों को काजू-बादाम खाने में खर्च करो या घर खर्च में लगाओ। क्या मिलता इन्हें खाने से?

उनके जाने के बाद मैंने सोचा कि बात तो सही है। क्या मिलता है गुटखा खाने से। क्यों न गुटखा पर खर्च होने वाली राशि पेड़-पौधे पर लगाई जाए। उन दिनों मैं प्रतिदिन 30-40 रुपए का गुटखा खा जाया करता था। मुझे दिशा मिल चुकी थी। दूसरे दिन, मैं दृढ़ निश्चय के साथ हनुमान जी के मंदिर पहुँचा। हाथ में कुदाली और कुल्हाड़ी थी। वहाँ एक सौ बीघा ज़मीन है जो अंग्रेजी बबूल की झाड़ियों से भरी पड़ी थी।

 

मैंने अंग्रेजी बबूल की झाड़ियों को काटा और गड्ढे खोदे। हाथों में छाले पड़ गए, लेकिन एक जुनून ही था कि मैं अपने काम में लगा रहा। मैं प्रतिदिन सुबह डेढ़ से दो घंटे काम करता था।

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हनुमान वाटिका में सफाई करते महावीर प्रसाद पांचाल।

मैंने उस वर्ष लगभग 2 बीघा ज़मीन से अंग्रेजी बबूल साफ़ किया और उस जगह को हनुमान वाटिका का नाम दिया। उसके बाद मैं सरकारी नर्सरी से पौधे खरीदकर लाया और पौधारोपण किया।

“मेरे लगाए पौधे फलने-फूलने लगे। लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं था, इसमें भी बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ा। कुछ अनुभव की भी कमी थी। गड्ढे ज्यादा गहरे खुद गए थे और पौधे छोटे थे। ऐसे में ज्यादातर पौधे पानी से गल गए। लेकिन मैंने हार नहीं मानी और फिर उन गड्ढों में पौधे लगाए। इस तरह मेरे पौधारोपण का कार्य चलता रहा। नीलगाय और बकरियों ने मुझे बहुत परेशान किया। न जानवर पौधों को नुकसान पहुँचाने से पीछे हटते और न ही मैं हार मानता। खैर, इस तरह पौधे बड़े होते गए।”

29 फरवरी 2016 को मेरे छोटे बेटे अर्जुन का जन्मदिन था। मैं इस दिन से एक नई शुरुआत करना चाहता था। मैंने सोचा हम बच्चों को जन्मदिन पर महंगे-महंगे तोहफे देकर उन्हें भौतिकवादी बनाते हैं और अनजाने में ही उन्हें गलत पाठ पढ़ा देते हैं कि जो महंगे तोहफे देता है, वह ज़्यादा प्यार करता है, जबकि प्रेम और महंगे तोहफों का कोई सम्बन्ध नहीं होता।

 

मैं अपने बच्चे को कीमती तोहफे की जगह जीवनभर काम आने वाली सीख देना चाहता था, इसलिए मैंने निश्चय किया कि मैं इस अवसर पर पौधारोपण कर अपने बच्चे को पर्यावरण संरक्षण से जोडूंगा। 

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महावीर प्रसाद की पर्यावरण संरक्षण की मुहीम में भागीदारी करता उनका बेटा अर्जुन।

इतिहासकार डॉ. एस.एल. नागौरी, मेरे मार्गदर्शक विट्ठल सनाढ्य, लादू लाल सेन सहित ग्रामीणों की मौजूदगी में बेटे के जन्मदिन पर 51 पौधे लगाए गए और इस तरह मेरे कार्य की ख्याति जिले से बाहर भी होने लगी।

लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। 1 मार्च 2016 को हनुमान वाटिका के बीच से गुजर रही 11 हज़ार केवी लाइन के तार टूटने से वाटिका में आग लग गई और 200 पौधे जलकर राख हो गए। उस दिन मैं इतना रोया, जितना शायद अपनी माँ की मौत के समय भी नहीं रोया था। इष्ट मित्रों ने सांत्वना दी। शेष बचे पौधों की सुरक्षा टेढ़ी खीर थी। एक ही दिन में बाड़ करनी थी वरना जानवर पौधों को खा जाते। मेरे बच्चों ने मुझे सोच में देखकर आपस में सलाह की और मुझसे बोले, पापा आप एयरटेल के डिश को हटाकर फ्री वाला डिश लगा दीजिए और उन पैसों से पौधों की सुरक्षा के लिए तार की जाली ले आइए।

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हनुमान वाटिका के लिए बाढ़ बनाते महावीर प्रसाद।

दिल भर आया था मेरा। खैर, जैसे-तैसे करके जाली से पौधों की सुरक्षा की। पौधे लगाने का क्रम अनवरत जारी रहा।

मेरे कार्य को देख कर मेरे फेसबुक मित्रों ने एक पौधा उनके नाम से लगाने का अनुरोध किया। चूँकि, हनुमान वाटिका में मैंने किसी का सहयोग नहीं लिया, इसलिए वाटिका के सामने मैंने चार-पांच बीघा जमीन चुनी और उसे फेसबुक वाटिका का नाम दिया। राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों के मित्रों ने मुझे ऑनलाइन कुछ रुपए भेजे। मैंने उनके नाम से पौधे लगाए। इसके अलावा मैं पिछले पांच-छह वर्षों से सीडबॉल बनाकर सहण से देई मार्ग पर (10km) फेंक रहा हूँ। इस विधि से लगभग 200-250 नीम लग चुके हैं।

 

इस काम में मेरे बेटे चर्मेश, अर्जुन और बेटियाँ निशा, अम्बिका और मेरी पत्नी मंजू देवी भी मेरा सहयोग करती हैं।

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महावीर प्रसाद को उनके काम में बेटे चर्मेश, अर्जुन और बेटियाँ निशा, अम्बिका व पत्नी मंजू भी साथ देती हैं।

“मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ और न ही कोई संस्थान हूँ, लेकिन मैं जिस भी लायक हूँ उसे इस प्रकृति माँ को सौंपना चाहता हूँ। मेरा सपना है कि मेरा गाँव हरा-भरा हो। मैं गाँव से समीपस्थ कस्बा देई तक (10km) सड़क के किनारे पेड़ लगाकर एक ग्रीन बेल्ट तैयार करूँगा।

मैं विशेष अवसरों पर गाँव के लोगों को पौधारोपण के लिए प्रेरित कर उनसे जन्मदिन, शादी की वर्षगाँठ, नौकरी लगने की खुशी, पूर्वजों की स्मृति आदि में फेसबुक वाटिका में पौधे लगवाता हूँ।

आज हनुमान वाटिका में पेड़ों पर फल आने लग गए हैं, लेकिन इन फलों को मैं अपने उपयोग में नहीं लेता। ये सिर्फ पक्षियों के लिए है। मोर, कोयल, तोते, पपीहे, तीतर और नाना प्रकार के रंग बिरंगे पक्षी यहाँ बसेरा करने लगे हैं। खरगोश भी आने लगे हैं। हनुमान वाटिका पक्षियों की प्रजनन स्थली बन गई है। फिल्म कलाकर प्रदीप काबरा, जिला वन संरक्षक सतीश कुमार जैन भी वाटिका में अपने हाथों से पौधे लगा चुके हैं।

 

मुझे ग्राम पंचायत, उपखण्ड अधिकारी, जिला कलक्टर द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। रणथंभौर टाइगर रिजर्व ने भी मुझे सम्मानित किया था। मुझे जिला वृक्षवर्धक पुरस्कार भी मिल चुका है।

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हनुमान वाटिका में पौधरोपण के बाद महावीर प्रसाद को विभिन्न जगहों पर सम्मानित किया गया।

महावीर प्रसाद का काम वाकई सराहनीय है। देश के हर व्यक्ति को उनकी तरह सोच रखते हुए नशा छोड़कर, नशे में लगने वाले पैसे किसी नेक काम में खर्च करने चाहिए। महावीर प्रसाद हम सब के लिए एक प्रेरणा है।

अगर आप भी महावीर जी के इस नेक काम में अपनी ओर से कुछ योगदान दे पर्यावरण को बचाना चाहते हैं तो उन्हें नीचे लिखे पते पर संपर्क कर सकते हैं। आप इस नंबर 96801 03086, 94149 63450 पर उन्हें कॉल भी कर सकते हैं।

महावीर पांचाल
पांचाल ऑटो पार्ट्स
बून्दी रोड देई, तहसील नैनवाँ,
जिला – बून्दी, राजस्थान

 

संपादन – भगवती लाल तेली


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Watch : इस हैदराबादी की वजह से आज बिहार के पूर्णिया में हैं आम, लीची और अमरुद के बागान!

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प जब बिहार के पूर्णिया जिला की तरफ आएंगे तो आपको हर जगह हरियाली दिखेगी। पूर्णिया को बिहार का दार्जिलिंग भी कहा जाता है। खुशनुमा मौसम और हरियाली के बीच यहाँ हैदराबाद का एक परिवार बसा हुआ है, जो पिछले चार दशक से इस इलाके में हरियाली को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है। वीडियो में देखिए इनकी पूरी कहानी…


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