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व्हाट्सअप ग्रुप के ज़रिये ग्रामीण इलाकों में ज़िंदगियाँ बचा रहे हैं ये डॉक्टर्स!

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विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में डिसेबिलिटी और मौत का एक मुख्य कारण दिल का दौरा पड़ना भी है। एक स्टडी के मुताबिक देश में दिल की बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या 1990 में 2.57 करोड़ थी जो 2016 में बढ़कर 5.45 करोड़ हो गई। इन बीमारियों के चलते साल 1990 में मरने वाले लोग 13 लाख थे जो 2016 में बढ़कर 28 लाख हो गए।

साथ ही, हमारे देश में हार्ट अटैक के मरीज़ों के लिए ट्रीटमेंट का सामान्य वक़्त 360 मिनट है और यह मेडिकल विशेषज्ञों द्वारा मान्य 60 मिनट के ‘गोल्डन ऑवर‘ से कहीं ज़्यादा है। डॉ. पद्मनाभ कामत कहते हैं कि भारत में 360 मिनट के समय की धारणा गलत है। हार्ट अटैक झेल चुके व्यक्ति के लिए ट्रीटमेंट का वक़्त 10 से 13 घंटों के बीच में हो सकता है।

डॉ. कामत को आज भी पांच साल पहले घटी एक घटना याद है। चिकमगलूर में एक युवा ऑटो ड्राईवर को दिल का दौरा पड़ा और उसकी मौत हो गई, क्योंकि डॉक्टर समय पर उसका इलाज नहीं कर पाया था।

डॉ. पद्मनाभ कामत

डॉ. कामत बताते हैं कि वह ऑटो ड्राईवर सिर्फ़ 32 साल का था और उसके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। अपने परिवार के लिए कमाने वाला वह अकेला था। उसकी मौत की सिर्फ़ एक ही वजह थी कि उसके इलाज में देरी हो गई।

उस ऑटो-ड्राईवर की मौत की घटना ने डॉ. कामत को इस कदर झकझोर दिया कि उन्होंने ‘कार्डियोलॉजी एट डोरस्टेप’ के नाम से व्हाट्सअप ग्रुप्स शुरू कर दिए। इन ग्रुप्स में लगभग 800 डॉक्टर जुड़े हुए हैं जो ग्रामीण इलाकों के ऐसे लोगों की सहायता करते हैं जहाँ स्पेशलिस्ट नहीं पहुँच पाते हैं।

ये डॉक्टर दिल की बीमारियों से संबंधित अपनी सलाह और सुझाव मुफ़्त में देते हैं और साथ ही, ग्रामीण डॉक्टर्स द्वारा ग्रुप में सुझाव के लिए पोस्ट किए गए इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ECG) पढ़ने में भी मदद करते हैं। इसके अलावा, ये कार्डियोलॉजिस्ट छोटे अस्पतालों और प्राइमरी हेल्थ सेंटर में काम कर रहे डॉक्टर्स को रेफरल अस्पताल और नजदीकी कार्डियोलॉजिस्ट से जोड़ने में भी मदद करते हैं।

पिछले डेढ़ सालों में, 4 व्हाट्सअप ग्रुप्स के माध्यम से वे अब तक 8000 कंसल्टेशन कर चुके हैं। इन सभी ग्रुप्स में 3-3 कार्डियोलॉजिस्ट हैं। डॉ. कामत बताते हैं, “अब तक 500 हार्ट अटैक और 850 दिल की बीमारियों के केस सही तरह से ग्रुप में सुलझाए जा चुके हैं।”

ग्रामीण इलाके में स्वास्थ्य संबंधित परेशानियों पर CAD द्वारा आयोजित की गयी एक कॉन्फ्रेंस के दौरान

डॉ. कामत स्पेशलिस्ट से अपने नंबर भी ग्रुप्स में शेयर करने के लिए कहते हैं क्योंकि किसी के लिए भी 24 घंटे ऑनलाइन रहना मुमकिन नहीं।

“ग्रुप में पोस्ट होने वाले किसी भी ECG पर तुरंत प्रतिक्रिया दी जाती है और फिर इसे आर्काइव कर लिया जाता है। अगर ECG सामान्य नहीं है तो डॉक्टर को व्हाट्सअप के साथ-साथ फ़ोन भी किया जाता है और मरीज़ों के स्वास्थ्य के बारे में सुनिश्चित किया जाता है,” उन्होंने कहा।

इस ग्रुप ने पैसे इकट्ठा करके छोटे अस्पतालों और कुछ ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर 200 ECG मशीनें भी लगवाई हैं।

फंडिंग के बारे में बात करने पर डॉ. कामत कहते हैं, “मशीनों के लिए मरीजों, दोस्तों, रिश्तेदारों और कुछ नेक लोगों से फंडिंग मिलती है। बैंकिंग सेक्टर ने भी कुछ मशीनें दी हैं।”

उनकी पहल के चलते ही CAD ने भी लगभग 1000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को इमरजेंसी हार्ट अटैक किट्स दी हैं। इन किट्स में हार्ट अटैक के केस में दी जाने वाली दवाइयां हैं। इन दवाइयों को मरीज के तुरंत उपचार के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, जब तक कि मरीज को किसी बड़े अस्पताल न रेफर कर दिया जाए।

डॉ. कामत ने एक वाकये का जिक्र किया, जब ग्रुप के सदस्यों की वजह से वे किसी की जान बचा पाए।

“एक ग्रामीण आयुष डॉक्टर के भाई को सीने में बहुत ज़्यादा दर्द की शिकायत हो रही थी। यह रात के लगभग 8:30 बजे की बात है, वह व्यक्ति अपने दूरगामी इलाके ईश्वरमंगल में बने फार्महाउस पर थे। डॉक्टर ने CAD द्वारा दी गई मशीन से उनका ECG किया और उनकी रिपोर्ट को ग्रुप में शेयर किया। डॉक्टर्स ने तुरंत उन्हें हार्ट अटैक बताया और उन्हें अपने भाई के पास मंगलुरु जाने के लिए कहा। जैसे ही वह मरीज मंगलुरु पहुंचे, डॉक्टर्स की टीम पहले से ही उनकी एंजियोप्लास्टी करने के लिए तैयार थी।”

फ़िलहाल, डॉ. कामत और उनकी टीम कर्नाटक के 14 जिलों में अपनी सर्विस दे रहे हैं। लेकिन उनकी योजना दूसरे राज्यों में भी पहुँचने की है। उन्होंने केरल के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में भी 12 ECG मशीनें डोनेट की हैं।

इसके अलावा, डॉ. कामत दिल से संबंधित इमरजेंसी स्थितियों के लिए एक मुफ्त व्हाट्सअप हेल्पलाइन (9743287599) भी चलाते हैं। साथ ही वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि यह हेल्पलाइन सिर्फ़ एक ऑनलाइन परामर्श के लिए है, न कि किसी तरह के क्लिनिकल ज्ञान और निर्णय देने के लिए।

“मेरा उद्देश्य इसे अपने जैसे कार्डियोलॉजिस्ट के साथ मिलकर और देश के बड़े बिज़नेस हाउस से डोनेशन की मदद से पूरे भारत में ले जाने का है। यह बिल्कुल एक गेम चेंजर होगा,” डॉ. कामत ने अंत में कहा।

संपादन: भगवती लाल तेली 
मूल लेख: अंग्रिका गोगोई 


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इस कलाकार की थेवा कृति पर जारी हुआ है डाक टिकट, आज है अंतरराष्ट्रीय पहचान!

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राजस्थान के 33वें जिले के रूप में मान्यता प्राप्त मालवा अंचल के प्रतापगढ़ जिले की विशिष्ट ‘थेवा कला’ आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब नाम कमा रही है। विशेष प्रकार की दुर्लभ और अद्भुत कला होने के कारण इसका उल्लेख ‘एनसायक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका’ में भी हुआ है। इस कला को दुनिया तक पहुँचाने का श्रेय ‘राजसोनी’ परिवार के कलाकार गिरीश को जाता है, जो 400 साल पहले अपने पूर्वजों के द्वारा शुरू की गई इस खास कला को सहेज रहे हैं।

प्रतापगढ़ के परम्परागत कलाविद् एवं सुशिक्षित परिवार में सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक घनश्यामलाल वर्मा के घर 1959 में 5 सितम्बर को जन्मे गिरिश कुमार ‘राजसोनी’ ने इस कला को अंतरराष्ट्रीय ऊंचाइयां दी हैं।

 

थेवा कला के ‘आदि पुरूष’ कहे जाने वाले नाथूजी के इस परिवार में आगे चलकर रामलालजी हुए, जो गिरिश के ‘दादाजी’ थे। गिरीश ने इन्हीं के मार्गदर्शन एवं पिता की प्रेरणा से कला में विशिष्टता प्राप्त की। 

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गिरीश राजसोनी।

गिरीश 20 साल की उम्र से इस काम में हैं। उनके दादा रामलाल राजसोनी सुनारी की दुकान करते थे, गिरीश ने दादा से कला की बारीकियां सीखीं थी। उन्होंने अपने मामाजी के कहने पर अपने कुछ रिश्तेदारों को भी यह कला सिखाई है। आज 8 लोग इस कला को करते हुए अपने घर गृहस्थी की गाड़ी को खींच रहे हैं। मध्यप्रदेश के मंदसौर में ‘थेवा आर्ट ज्वेलरी एंड फैशन गैलेरी’ के नाम से उनकी शॉप है। यहीं से वे अपने उत्पाद बेचते हैं। वे 2 पुत्रियों और एक पुत्र के पिता हैं। इंजीनियरिंग कर चुकी दोनों पुत्रियों की शादी हो चुकी हैं। पुत्र दुकान में पिता का सहयोग करते हुए हाथ बंटाता है।

वे कहते हैं, “पूरे जीवन में संघर्ष ही किया है। कार्य सीखने के दौरान संघर्ष की शुरुआत हुई। फिर कला की टेक्नीक सीखने में संघर्ष किया। काम में दक्षता होने पर भी आसानी से ग्राहक नहीं मिले, यहां भी संघर्ष ने पीछा नहीं छोड़ा। फिर प्रदर्शनियों में जाने के संघर्ष का दौर, जिसमें समय पर भोजन भी नहीं मिलता है, शिल्प मेले या कला प्रदर्शनियां दूर से लुभावनी लगती हैं।”

पिछले तीन दशकों से इस कला को सहेज रहे गिरीश ‘ग्रेजुएट’ होने के बावजूद भी अपने दिलो-दिमाग में कभी सरकारी नौकरी का ख्याल नहीं लाए। उनका मकसद इस कला को सहेजना और इसे आगे ले जाना था। अपने पूर्वजों की इस खास उपलब्धि को और अधिक ऐतिहासिक व महान बनाने के लिए वे आज भी निरन्तर आगे बढ़ते हुए प्रयत्नशील हैं।

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अपनी कलाकृति के साथ गिरीश राजसोनी।

 

‘थेवा कला’ में राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाले दूसरे व्यक्ति

दुर्लभ ‘थेवा’ कला को लोकप्रिय बनाने वाले गिरीश को 1993-94 में जिला एवं राज्य स्तरीय सिद्धहस्त शिल्पी पुरस्कार मिला तो 1998 में तत्कालीन राज्यपाल नवरंगलाल टिबरेवाल ने उन्हें सम्मानित किया। 2001 तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. कृष्णकांत के हाथों 3 अगस्त 2001 को 1999 का सिद्धहस्त शिल्पी का राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। ‘थेवा’ कला में राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाले वे देश के दूसरे व्यक्ति हैं। फरवरी 2003 में हरियाणा के सूरजकुंड मेले में गिरीश को ‘कलामणि’ की उपाधि प्रदान की गई। वे शिल्पगुरु सम्मान से भी विभूषित हैं। केंद्रीय वस्त्र मंत्रालय की ओर से जनवरी, 2004 में अमेरिका जाकर भी इस कला का प्रदर्शन कर चुके हैं।

जिस ‘थेवा’ कलाकृति पर इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला, उसी 8 इंचीय थेवा प्लेट पर भारत में हस्तशिल्प के पुनरूत्थान की स्वर्ण जयंति के मौके पर 15 नवम्बर 2002 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने 5 रुपए का ‘डाक टिकट’ जारी कर इस कला के साथ-साथ इसके कलाकार गिरीश को भी विशिष्ट गौरव प्रदान किया।

 

यह सम्मान दर्शाता है कि इनके अथक लगन और परिश्रम को किस कद्र सराहा गया है।

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गिरीश की ‘थेवा’ कलाकृति पर जारी डाक टिकट।

यह होती है ‘थेवा’ कला     

यह प्रतापगढ़ की प्रसिद्ध ललित कला है जिसे ‘थेवा’ के नाम से जाना जाता है। इसका मूल उद्गम स्थल प्रतापगढ़ का देवलिया है जो स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत की रियासतों में से एक हुआ करता था। इस बारे गिरीश विस्तार से बताते हैं।

“थेवा ‘राजसोनी’ परिवार की एक पारम्परिक कला है। इस कला में रंगीन शीशे (बेल्जियम ग्लास ) की ऊपरी सतह पर सोने से थेवाकारी व सोने से नक्काशी की जाती है, इसे ही थेवा कहा जाता है। इस कला को मूर्तरूप देने से पहले सोने के पतरे पर कोरा चित्र बनाया जाता है, फिर कंडारने एवं जाली काटने के बाद रासायनिक एवं तापन प्रक्रिया की सहायता से कांच को डिजाईन के अनुरूप ढाल दिया जाता है। उसके बाद चांदी की फ्रेम तैयार कर उस पर सोने की पॉलिश कर दी जाती है, कांच पर सोने से तैयार किए गए चित्र को इस फ्रेम में जड़ दिया जाता है।”

 

प्रतापगढ़ के रियासतकालीन इतिहासकार अप्पा मनोहर ठाकरे ने अपनी पुस्तक में लिखा है,‘‘यहां के सुनार लोग कांच पर सोने का ‘थेवा’ ऐसा बनाते हैं कि सारे ‘हिन्द’ में कहीं भी ऐसा नहीं होता। यूरोपियन लोग इसको बहुत ही चाव से खरीदते, पसंद करते और विलायत भेजते हैं।”

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थेवा कलाकृति।

गिरीश दावा करते हैं कि ‘थेवा’ की कृतियां देखने के बाद आप इसकी तुलना सुई से पहाड़ खोदने या सोने से खुश्बू आने जैसी उपमाओं से करना पसंद करेंगे। इसकी नक्काशी बहुत ही कड़ी मेहनत के बाद पूरी होती है।

 

पत्नी ने भी सीखी ‘थेवा’ कला  

थेवा कला की उपलब्धियों का दायरा यहीं पर नहीं सिमट जाता। लगभग 400 साल से चली आ रही इस खास कला का सृजन आज तक पुरूषों के हाथों में था। बदलते वक्त की नब्ज़ को समझते हुए गिरीश ने अपनी पत्नी उषा को भी इस कला की बारीकियां सिखाने में अपना योगदान दिया। उनकी मानें तो उषा इस क्षेत्र की प्रथम महिला थेवा शिल्पकार हैं।

1983 में गिरिश से वैवाहिक सूत्र में बंधने वाली उषा ने अपने पति को अपना गुरू बनाकर घर-गृहस्थी के कामों से समय निकाल पूरी लगन एवं आत्मविश्वास से इस कला की बारीकियां सीखीं। उषा ने पति के प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन में ही इस कला में अल्प समय में ही निपुणता प्राप्त की।

 

इस जोड़े को कदम से कदम मिलाकर ‘थेवा’ कला क्षेत्र में चलने के कारण प्रथम युगल (दम्पति) भी कहा जा रहा है।

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पत्नी उषा के साथ गिरीश।

उनकी दक्षता का परिणाम है कि उषा को थेवामय कृति ‘दर्पण’ के लिए मध्य प्रदेश हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम ने 2003-04 का श्रेष्ठ शिल्पी का राज्यस्तरीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया। 2005 के नेशनल मैरिट सर्टिफिकेट के लिए भी उन्हें नॉमिनेट किया गया था।

उषा बताती हैं, “इस शिल्प में सभी के लिए कुछ न कुछ है। नारी के सौन्दर्य और रूप में चार चाँद जड़ने के लिए थेवा कला में गले का हार, पेंडेंट, मंगलसूत्र, टीका, टॉप्स, लटकन, अंगूठी, करघनी, पांछी, पायजेब तो पुरूषों के लिए टाई-पिन, कोट और कमीज के बटन, कफलिंक इत्यादि बनते हैं।”

श्रृंगारिक वस्तुओं के अतिरिक्त भी कला में अपने चाहने वालों के लिए बहुत कुछ है। आपके कमरों की सजावट के लिए फोटो फ्रेम, प्लेट, डिब्बी, बॉक्स, गुलदस्ते हैं तो विभिन्न प्रयोग की वस्तुएं जैसे कंगा,आईना, इत्रदानी, एश-ट्रे, गिलास आदि भी इस कला से तैयार किए जाते हैं।

 

इस कला से महिलाओं के लिए विशेष आभूषण तैयार किए जाते हैं, जो उन्हें खूब पसंद आते हैं।

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थेवा कला से बने महिलाओं के आभूषण।

 

मुग़ल शैली का भी दिखने लगा मिश्रण 

अब इस कला में मुग़ल शैली का ‘मिश्रण’ भी देखने को मिलने लगा है। अब तैयार होने वाली कलाकृतियों में शिकार का चित्रण, राजा-महाराजाओं की सवारियों का वर्णन जिसमें प्यादों एवं मंत्रियों के आखेट गमन के दृश्य होते हैं, जो देखते ही मन मोह लेते हैं।

इसके अलावा इस कला से विभिन्न देवी-देवताओं की सुन्दर छवि भी बनाई जाती हैं। थेवा में बनने वाली कृतियों में ज्यामितिय चित्र, विभिन्न पुष्पों, पौधों सहित पशु-पक्षियों की आकृतियां हाथी, घोड़े, हिरण, शेर, मोर भी स्तम्भ के रूप में पहचान पा चुके हैं।

थेवा कला से बनीं आकर्षक कलाकृतियां।

 

यूं कहलाए ‛राजसोनी’

इस कला के जन्मदाता राजसोनी वंश के पूर्वज थे। आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व की बात है, उस वक्त प्रतापगढ़ रियासत में महाराजा सांवतसिंह का राज था। इस वंश के पूर्वजों द्वारा कुछ कलाकृतियां दरबार में महाराजा को भेंट की गई। अनुपम, मोहक कला को देख महाराज अचंभित हुए, महाराज के अलावा पूरे मंत्रिमण्डल ने भी इस कला की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।

खुश होकर राजा ने उन कलाकारों को राज सम्मान के तौर पर बड़ी जागीर और स्वर्ण जड़ित डोली भेंट की। उस दिन के बाद से ये सोनी कलाकार ‘राजसोनी’ कहलाए।

महाराजा सावंतसिंह ने इस कला के प्रोत्साहन की शुरुआत की तो भूतपूर्व दरबार रघुनाथ सिंह और राम सिंह भी इस कला की प्रगति और प्रचार-प्रसार के लिए आगे आए। इन्होंने अपने विदेशी मित्रों सहित देशी राजा-महाराजाओं को ‘थेवा कला’ में बने हुए स्वर्णाभूषण भेंट किए। तब से लेकर आज का दिन है, विदेशी कला प्रेमी भी इस कला को खूब पसंद करते हैं।

अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी और आप गिरीश राजसोनी से संपर्क करना चाहते हैं तो 09399883317 पर पर बात कर सकते हैं। आप उनसे फेसबुक पर भी जुड़ सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली

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कभी फीस के लिए नहीं होते थे पैसे, आज 4 हज़ार बच्चों को निशुल्क पढ़ा चुके हैं यह शख्स!

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“मैं शुरुआत में बच्चों से कोचिंग के बाद कुछ पैसे विशेष क्लास के लेता था। एक दिन एक बच्चा सिक्के इकट्ठा करके लाया। मैं हँसा और मुझे उस पर गुस्सा भी आया। मैंने उससे पूछा ऐसा क्यों, तो बोला कि माँ दूसरों के घर झाड़ू-पोछा करती है। उनकी बचत में से पैसे लाया हूँ । वह दिन था और आज का दिन है, मैंने उसके बाद कभी किसी बच्चे से पढ़ाने के पैसे नहीं लिए।”

यह शब्द है एक ऐसे अध्यापक के जो पिछले 4 साल से उन गरीब, जरूरतमंद बच्चों को निशुल्क पढ़ा रहे हैं, जिनमें काबिलियत तो है लेकिन घर की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं कि किसी बड़े कोचिंग संस्थान पर मोटी फीस देकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर सके।

संजय लुणावत नाम के यह शख्स आज मेवाड़-वागड़ (दक्षिणी राजस्थान) के लिए सुपर 30 के किसी आनंद कुमार से कम नहीं हैं। इनके पास अब तक राजस्थान के 13 जिलों के बच्चे पढ़ चुके हैं। कभी 20 बच्चों से शुरू होने वाले इनके ‘माय मिशन’ कोचिंग सेंटर से अब तक 4 हज़ार बच्चे पढ़कर निकल चुके हैं।

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बच्चों को पढ़ाते संजय।

उस बच्चे के फीस में सिक्के देने वाले किस्से ने भले ही संजय को अंदर तक झकझोर दिया हो और उन्होंने फ्री में कोचिंग देने का फैसला किया हो, लेकिन संजय को मानवता की सेवा के संस्कार बचपन से ही मिल गए थे।

संजय बताते हैं, “मेरे पिता ने नेत्रदान किया था। उनके आँखों का कॉर्निया दो व्यक्तियों को लगाया गया। आज पिताजी नहीं है, लेकिन वे दो लोग उनकी बदौलत दुनिया को देख पा रहे हैं। मेरे पिता को सरकार ने मरणोपरांत सम्मानित किया। उन्हीं से मैंने लोगों की सेवा के भाव सीखे थे।”

मूलतः बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़ के रहने वाले संजय सेकंड ग्रेड मैथेमेटिक्स टीचर बनने के बाद 2013 में प्रधानाध्यापक परीक्षा की कोचिंग के लिए उदयपुर आए थे। वे यहाँ ऐसे कोचिंग सेंटर की तलाश करते हैं जहाँ अच्छी पढ़ाई भी होती हो और फीस भी कम हो। लेकिन संजय को उदयपुर में ऐसा कोचिंग सेंटर नहीं मिलता है। ऐसे में वे खुद पढ़ने के बजाय किसी कोचिंग सेंटर पर पढ़ाने लग जाते हैं।

कोचिंग सेंटर पर पढ़ाने के दौरान वे देखते हैं कि कोचिंग सेंटर पर कोर्स को पूरा करवाने की जल्दी रहती है। किसी भी सब्जेक्ट को ज्यादा समय देकर अच्छे से नहीं पढ़ाया जाता है। ऐसे में बच्चों को अच्छी कोचिंग नहीं मिल पाती है, साथ ही कोचिंग सेंटर की फीस इतनी ज्यादा होती है कि एक आम बच्चा वहां कोचिंग ही नहीं कर सकता है।

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सेंटर पर बच्चों के साथ संजय।

इधर, कोचिंग सेंटर पर अच्छी कोचिंग नहीं होने के चलते कुछ बच्चे संजय के पास अलग से पढ़ने आते थे। जिसके बदले संजय उनसे कुछ रुपए अलग से लेते थे। संजय इस बात को स्वीकार करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते हैं कि बाकी लोगों की तरह उनमें भी शुरू-शुरू में पैसे कमाने की भूख थी। लेकिन एक दिन ऐसे ही कोचिंग के बाद बच्चे उनको फीस दे रहे होते हैं और एक बच्चा फीस के लिए सिक्के इकट्ठे कर लाता है और पूरी कहानी पलटकर रख देता है।

बच्चे के फीस में सिक्के लाने की बात करते हुए संजय अपने बचपन के दिन बताने लगते हैं, “मेरे पिताजी अनाज का व्यापार ज़रूर करते थे लेकिन कई बार ऐसी नौबत भी होती थी कि हमारे पास फीस भरने के पैसे नहीं होते थे। मेरा एडमिशन स्कूल में इसलिए जल्दी करवा दिया गया ताकि मेरे भाई के कपड़े और किताबें मेरे काम आ सके।”

अपने बचपन के दिन बताते हुए संजय ठहर से जाते हैं। कुछ पल के बाद वे नॉर्मल होते हैं और बात को आगे बढ़ाते हैं।

वर्ष 2014-15 में संजय का चयन प्रधानाध्यापक के लिए हो जाता है और उनकी पहली पोस्टिंग उदयपुर जिले के महाराज की खेड़ी में होती है। चयन के कुछ ही समय बाद वे उदयपुर के सवीना में किराये का मकान लेकर 20 बच्चों के साथ ‘माय मिशन’ नाम से निशुल्क कोचिंग सेंटर शुरू कर देते हैं। उनके सेंटर पर धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगती हैं और सेंटर चल पड़ता है।

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सेंटर पर बच्चों को पढ़ाते संजय।

2016 में संजय का ट्रांसफर शहर के पास ही कानपुर गाँव में होता है। संजय वहां पर भी निशुल्क कोचिंग सेंटर शुरू करते हैं और बच्चों को पढ़ाने लगते हैं। यहाँ उनके पास करीब 150 से ज्यादा विद्यार्थी कोचिंग के लिए आते हैं, इनमें गृहणियां तक शामिल होती हैं। सेंटर ग्राम पंचायत के एक कमरे में लगता है।

कानपुर में कोचिंग के कुछ महीनों बाद सेंटर पर एक ऐसा वाकया होता है जो दिल जीत लेता है। गुरु पूर्णिमा के दिन सेंटर के बच्चे गुरु दक्षिणा में संजय को कुछ गिफ्ट देने की बात करते हैं। इस पर संजय खुद के लिए नहीं बल्कि समाज को कुछ देने के लिए कहते हैं। काफी सोच-विचार के बाद बात नेत्रदान पर आकर खत्म होती है। बच्चे गुरु दक्षिणा में नेत्रदान का निर्णय लेते हैं।

संजय बताते हैं, “सेंटर के बच्चे नेत्रदान करना चाह रहे थे। उन्होंने मेरे पिता के नेत्रदान करने की बात सुन रखी थी। मैंने बच्चों से उनके माँ-बाप से अनुमति लेने के लिए कहा, बच्चे अनुमति ले आए। अगले दिन सेंटर के 80 बच्चों ने आई बैंक वालों के समक्ष नेत्रदान का संकल्प लिया। यह मेरे और सेंटर के लिए बड़ी उपलब्धि थी। यह फीस से कहीं ज्यादा था मेरे लिए।”
संजय की पहल ‘माय मिशन’ से अब 10 लोग और भी जुड़ चुके हैं। पहले वे अकेले ही पढ़ाते थे लेकिन अब नए लोग जुड़ने से बच्चों को ज्यादा फायदा हुआ है। सेंटर पर प्रशासनिक सेवा, पटवारी, राजस्थान पुलिस, शिक्षक भर्ती, क्लर्क आदि की तैयारी करवाई जाती है। ‘माय मिशन’ पर सुबह 5 बजे से लेकर रात 8 बजे तक कक्षाएं चलती हैं। वर्तमान में उनके पास 150 बच्चे पढ़ने आ रहे हैं। इनके पास पढ़ने आने वाले अधिकतर बच्चे गांवों और गरीब परिवारों से हैं। सेंटर से अब तक करीब 400 बच्चे विभिन्न सेवाओं के लिए चयनित हो चुके हैं।
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माय मिशन सेंटर पर पढ़ते बच्चे।

संजय वर्तमान में उदयपुर के मनवा खेड़ा स्थित उमावि में प्रिंसिपल है। सेंटर का प्रबंधन उनके भाई शुभम देखते हैं। शुभम भी IAS की तैयारी कर रहे हैं और बच्चों को राजस्थान का इतिहास, संस्कृति, कला और रीजनिंग पढ़ाते हैं। शुभम के अलावा लवलीत सोनी, मनीषा शर्मा, लव वर्मा, वैभव पितलिया, आफ़रीन बानो भी निशुल्क सेवाएं दे रहे हैं।

‘माय मिशन’ पर सुपर 30 की तर्ज़ पर एक बैच में 30 बच्चों को ही लिया जाता है। हालाँकि कभी-कभार यह संख्या अधिक भी हो जाती है, क्योंकि बच्चे पढ़ने की ज़िद करते हैं और संजय उनको मना नहीं कर पाते हैं। लेकिन उनकी कोशिश रहती है कि बड़ी परीक्षा की तैयारी के लिए सीमित बच्चे ही हो। संजय का बच्चों के चयन करने का और कक्षा में टेस्ट लेने का तरीका भी अलग है।

संजय कहते हैं, “हम बच्चों में सिर्फ योग्यता नहीं, उनका जज़्बा देखते हैं। बच्चा अगर योग्य होगा तो वह कैसे भी, कहीं भी पढ़ लेगा। हम कक्षा में टेस्ट लेते वक्त एक खेल खेलते हैं। हम बच्चे से सवाल पूछते हैं, बच्चा सही जवाब दे देता है तो हम उसे एक-एक रुपए के तीन सिक्के देते हैं और अगर गलत जवाब देता है तो हम उससे एक रुपया लेते हैं। हमारा मक़सद उनसे पैसा कमाना नहीं, बल्कि उनको प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयार करना है।”

‘माय मिशन’ पर बच्चों को एक-एक रुपए के तीन सिक्के देने और एक रुपया लेने की कहानी प्रतियोगी परीक्षा में नम्बर्स से जुड़ी है। बच्चे को सही जवाब पर रुपए देने का अर्थ तीन नंबर से है और गलत जवाब पर एक रुपया लेने का अर्थ माइनस मार्किंग से है। संजय क्लास में जो भी पढ़ाते हैं उसकी ऑडियो रिकॉर्डिंग की जाती है। रिकॉर्डिंग को व्हाट्सअप के जरिये ग्रुप्स में भेजा जाता है। ऑडियो रिकॉर्डिंग करने की वजह उन गृहणियों और बालिकाओं की मदद करना है जो घर के काम के चलते कोचिंग सेंटर नहीं आ पाती हैं लेकिन सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करना चाहती है। यहाँ पढ़ने आने वाले बच्चे भी इनकी पहल से खुश नज़र आते हैं।

डूंगरपुर से आई सुगमा परमार बताती हैं, “मैं उदयपुर में बीएड करने आई थी। व्हाट्सअप पर संजय सर और ‘माय मिशन’ के बारे में सुना। मेरी बीएड हो गई है। अब मैं संजय सर के पास पटवारी परीक्षा की तैयारी कर रही हूँ। मेरे पापा गाँव में खेती करते हैं, ज्यादा फीस नहीं दे सकते हैं। माय मिशन जैसे कोचिंग सेंटर से हम जैसे ज़रूरतमंद बच्चों को मदद मिलती है।”

संजय पढ़ाई के नोट्स बनाकर भी विभिन्न ग्रुप्स में भेजते हैं, जिनकी पहुंच 50 हज़ार छात्रों तक हैं। संजय अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से भी बच्चों का मार्ग दर्शन करते हैं। सेंटर चलाने के लिए संजय किसी से भी आर्थिक मदद नहीं लेते और न ही उन्होंने कोई एनजीओ बना रखा है। सेंटर का सारा खर्च संजय अपनी सैलरी से खुद उठाते हैं।

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संजय लुणावत।

“प्रिंसिपल के रूप में पोस्टेड हूँ। अच्छी सैलरी मिलती है। गरीब और जरूरतमंद बच्चों की मदद करके सुकून मिलता है, इसलिए करता हूँ,” संजय ने कहा।

संजय तीन बार RAS यानी राजस्थान प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास कर चुके हैं लेकिन अच्छी पोस्ट नहीं मिलने के चलते उन्होंने ज्वाइन नहीं किया था। संजय की कोशिश है कि ‘माय मिशन’ एक ऐसा हब बने जहाँ राजस्थान भर के जरूरतमंद बच्चे पढ़ने आए।

जो गरीब है उन्हें यह नहीं लगे कि उनके लिए ऐसा कोई कोचिंग सेंटर नहीं है जहाँ फ्री में सरकारी नौकरी की तैयारी करवाई जाती हो। वे चाहते हैं कि ऐसे बच्चों के लिए ‘माय मिशन’ सदा विकल्प के तौर पर मौजूद रहे।

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है और आप संजय जी से संपर्क करना चाहते हैं तो उनसे इस नंबर 7688962220 पर बात कर सकते हैं।


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कचरे से खाद, बारिश के पानी से बगीचा और बिजली बिल में लाखों की बचत हो रही है यहाँ!

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मुंबई के कांदिवली ईस्ट इलाके में 19 माले की बिल्डिंग, भूमि आर्केड के निवासी जो हर दिन इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल लाइफस्टाइल के लिए कदम उठा रहे हैं, वह वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं। बिल्डिंग पर लगे सोलर पैनल धूप में यहाँ सूर्य की ऊर्जा संचित करते हैं, तो बसंत ऋतू में ख़ूब पेड़-पौधे लगाए जाते हैं और बारिश का मतलब है ख़ूब सारा वर्षा-जल संचयन। यहाँ हर मौसम में ये लोग पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करते हैं।

साल 2010 में सोसाइटी के सेक्रेटरी हरीश शंकर कते के नेतृत्व में यहां रहने वाले 76 परिवारों ने पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया था। उनका यह संकल्प रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के साथ शुरू हुआ, फिर वेस्ट मैनेजमेंट और कुछ साल बाद स्वच्छ उर्जा इस्तेमाल करने तक पहुँच गया।

“हमेशा से ही मेरा झुकाव हरित क़दमों की तरफ रहा है। जब सरकार ने रेनवॉटर हार्वेस्टिंग और वेस्ट मैनेजमेंट की पॉलिसी शुरू की, बस तभी मैंने ठान लिया कि ये सब मैं अपनी बिल्डिंग में भी करूँगा। मुझे बस इसके फायदों के प्रति लोगों की आँखे खोलनी थी और फिर वे भी साथ हो गए,” हरीश ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया।

सोसाइटी की सस्टेनेबल प्रैक्टिस

रेनवॉटर हार्वेस्टिंग

साल 2010 से ही सोसाइटी में बारिश का पानी इकट्ठा किया जा रहा है। बारिश के पानी को टेरेस पर इकट्ठा किया जाता है और फिर पाइप के ज़रिए इसे छत पर लगे टैंक में भेजा जाता है। इस टैंक से सभी घरों में टॉयलेट के लिए पानी सप्लाई किया जाता है।

“अगर पूरे मानसून सीजन में, 10 मिमी की सामान्य बारिश हो, तब भी ऊपर बने टैंक में 13, 000 लीटर पानी इकट्ठा होता है। इसके अलावा, फ्लश टैंक की सालाना ज़रुरत पूरी करने के बाद बचा पानी 68 दिनों तक निवासियों की अन्य ज़रुरतों के लिए पर्याप्त है,” उन्होंने कहा।

सभी घरों के नलों पर वॉटर एयरेटर लगाए गए हैं, जो कि पानी के फ्लो को कंट्रोल करते हैं। इससे लगभग 60% तक पानी की बर्बादी को बचाया जा सकता है। बाकी भविष्य में सोसाइटी खुद गंदे पानी को साफ़ करने के मैकेनिज्म पर काम करने के बारे में भी सोच रही है।

कचरा-प्रबंधन

कचरे को अलग-अलग इकट्ठा करने की तकनीक शुरू करने से पहले उन्होंने सोसाइटी में लोगों को जागरुक करने के लिए कचरा-प्रबंधन के एक्सपर्ट्स को बुलाया। उन्होंने बताया कि लोगों को यह समझाना ज़रूरी था कि कचरे को अलग-अलग करना क्यों ज़रूरी है। अगर वे गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग इकट्ठा करेंगे तो यह पर्यावरण के लिए उपयोगी है।

कचरा-प्रबंधन यूनिट

हर एक फ्लैट को गीले और सूखे कचरे को इकट्ठा करने के लिए दो स्टेनलेस स्टील डस्टबिन दी गई हैं, सभी पर फ्लैट नंबर लिखे हुए हैं। रिसाइक्लेबल वेस्ट को फिर से प्लास्टिक, ग्लास, इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट, पेपर आदि में अलग-अलग किया जाता है। हर दो हफ्ते में सूखे कचरे को स्थानीय कबाड़ वाले को बेच दिया जाता है।

इसी के साथ, सोसाइटी का कम्पोस्टिंग सिस्टम हर महीने 900 किलो गीले कचरे को डीकम्पोस्ट करके 150 किलो खाद तैयार करता है, जिसे यहाँ के बगीचे में डाला जाता है।

सोलर पैनल

बिल्डिंग पर 40 सोलर पैनल लगे हुए हैं, हर एक की क्षमता 12 किलोवाट की है और ये प्रतिदिन 55-60 यूनिट्स बिजली उत्पादन करते हैं। इस उर्जा का उपयोग कॉमन लाइट, पंखे, लिफ्ट और वॉटर पम्पिंग सिस्टम को चलाने के लिए किया जाता है।

गर्मियों में उर्जा का उत्पादन 500 यूनिट्स तक जाता है जबकि सोसाइटी की ज़रुरत सिर्फ़ 120 यूनिट्स की है।

सोलर पैनल

वे आगे बताते हैं कि बाकी बची हुई बिजली को बिजली वितरण करने वाली कंपनी को बेचा जाता है और इन यूनिट्स को हर महीने सोसाइटी के बिजली बिल में क्रेडिट कर दिया जाता है। हमने एक नेट मीटर भी इंस्टॉल किया है, यह चेक करने के लिए कि कितनी इलेक्ट्रिसिटी यूनिट्स को बिजली बिल में क्रेडिट किया गया है।

सोलर पैनल लगाने के एक साल बाद से ही सोसाइटी ने 2.6 लाख रुपए बचाए हैं। इसके अलावा, कॉरिडोर और लिफ्ट में सेंसर लाइट इस्तेमाल की जाती है।

इस प्रोजेक्ट को हर महीने जमा की गई रखरखाव राशि से फंड किया जा रहा है। निवासियों को अलग से कोई राशि देने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। कम्पोस्टिंग यूनिट्स, टैंक और सोलर पैनल के रख-रखाव का सभी कार्य हाउसिंग स्टाफ द्वारा किया जाता है।

सोसाइटी में कचरा-प्रबंधन, प्लास्टिक बैन पर अलग-अलग वर्कशॉप होती हैं

इन सभी इको-फ्रेंडली पहलों के बीच, सोसाइटी में प्लास्टिक को छोड़ री-यूजेबल बैग के इस्तेमाल पर भी जोर है। “साल 2018 में महाराष्ट्र में प्लास्टिक बैन होने के बाद हमने 1000 री-यूजेबल बैग भी बांटे थे। सोसाइटी में पटाखे चलाना और कचरा जलाना भी बैन है।”

जगह और आर्थिक साधनों की कमी के बावजूद, जल-संरक्षण, कचरा प्रबंधन और अन्य इको-फ्रेंडली गतिविधियों के प्रति इस सोसाइटी के निवासियों में जो प्रतिबद्धता है, उससे हम सभी को प्रेरणा लेनी चाहिए।

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: गोपी करेलिया


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कहानी उन शिक्षक की, जिनकी विदाई पर रो पड़ी पूरी केलसू घाटी!

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ये दृश्य न तो किसी बेटी के ससुराल जाने का था, न नंदा देवी राजजात यात्रा में नंदा की डोली का कैलाश विदा होने का। बल्कि ये दृश्य एक शिक्षक की विदाई समारोह का था जिसमें लोग इनसे गले मिलकर रो रहे थे। क्या बच्चे, क्या बुजुर्ग, सबकी आंखों में आँसू थे। सबको अपने इस शिक्षक के तबादला हो जाने पर यहाँ से चले जाने का दुःख था।

विदाई की यह कहानी है रूद्रप्रयाग जनपद निवासी आशीष डंगवाल की, जिनका तबादला टिहरी जनपद के गढखेत में प्रवक्ता पद पर होने के बाद उनके विदाई समारोह में एक-दो नहीं बल्कि पूरी केलसू घाटी के 7 गांवों के ग्रामीण और स्कूल के बच्चे फफककर रोए थे।

 

हर किसी की आँखों में आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी। शायद ही अब उन्हें उनके जैसे शिक्षक मिल पाए।

ashish dangwal
आशीष का विदाई समारोह। photo – facebook 

सीमांत जनपद उत्तरकाशी के केलसू घाटी के राजकीय इंटर कॉलेज, भंकोली में तैनात शिक्षक आशीष डंगवाल की जो विदाई हुई वैसी विदाई हर कोई शिक्षक अपने लिए चाहेगा। फूल माला और ढोल दमाऊं के संग कभी न भूलने वाली विदाई।

अपने विदाई समारोह के बाद आशीष ने फेसबुक पर एक मार्मिक पोस्ट शेयर की। इस फेसबुक पोस्ट और विदाई समारोह की तस्वीरें देखकर भला किसकी आंखों में आँसू नहीं आएंगे।

“मेरी प्यारी केलसू घाटी, आपके प्यार, आपके लगाव, आपके सम्मान, आपके अपनेपन के आगे, मेरे हर एक शब्द फीके हैं। सरकारी आदेश के सामने मेरी मजबूरी थी मुझे यहां से जाना पड़ा, मुझे इस बात का बहुत दुःख है। आपके साथ बिताए 3 वर्ष मेरे लिए अविस्मरणीय है। भंकोली, नौगांव, अगौड़ा, दंदालका, शेकू, गजोली, ढासड़ा के समस्त माताओं, बहनों, बुजुर्गों, युवाओं ने जो स्नेह बीते वर्षों में मुझे दिया, मैं जन्मजन्मांतर के लिए आपका ऋणी हो गया हूँ। मेरे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन एक वादा है आपसे कि केलसू घाटी हमेशा के लिए अब मेरा दूसरा घर रहेगा। आपका यह बेटा लौट कर आएगा। आप सब लोगों का तहेदिल से शुक्रिया। मेरे प्यारे बच्चों हमेशा मुस्कुराते रहना। आप लोगों की बहुत याद आएगी।”

ashish dangwal
आशीष के विदाई समारोह में बिलखते बच्चे। photo – facebook

आशीष तीन सालों से केलसू घाटी के अतिदूरस्थ भंकोली में तैनात थे जो आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। जहां आज लोग दुर्गम स्थानों पर नौकरी नहीं करना चाहते हैं वहीं आशीष ने दुर्गम को ही अपनी कर्मस्थली बना डाला और उसे अपनी मेहनत से सींचा और संवारा।

आशीष ने सेवा की नई परिभाषा गढ़ी है जो शिक्षा महकमे सहित अन्य सरकारी सेवकों के लिए नज़ीर है, उन्होंने एक मिसाल पेश की है। एक ऐसी मिसाल जिसमें उनके काम और सेवा भाव से गाँव के लोग इतने प्रेरित हुए कि उनको गाँव से जाने ही नहीं देना चाहते थे।

 

आप सोच रहे होंगे कि आखिर आशीष ने गाँव में ऐसे कौनसे काम किए जिससे ग्रामीणों के लिए यह शिक्षक किसी देवता से कम नहीं थे।

Ashish Dangwal
आशीष के विदाई समारोह के दौरान बिलखती महिला। photo – facebook

आशीष भंकोली में ही कमरा किराये पर लेकर रहा करते थे और वे छुट्टियों में भी अपने घर नहीं जाते थे। वे हर शाम बच्चों को खेल-खेल में पढ़ाते थे। जरूरतमंद बच्चों को अलग से भी पढ़ाते थे। उन्होंने स्कूल के बच्चों में शिक्षा के प्रति रूचि उत्पन्न की और वहां के लोगों को शिक्षा का महत्व बताया। बच्चों और ग्रामीणों को शिक्षा से जोड़ा। बच्चों के मन से शिक्षा के प्रति डर को दूर किया और शिक्षा को बोझ नहीं बल्कि सरल बनाने की कोशिश की। वे बच्चों को पढ़ाने के बाद उनसे फीडबैक भी लेते थे और बच्चों से विषयों से संबंधित टाॅपिक पर समूह चर्चा करवाते थे। उन्होंने बच्चों की गुणवत्ता परक और कम्प्यूटर शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया।

आशीष ने लोगों का रुझान सरकारी स्कूल की तरफ बढ़ाने का भी काम किया।

स्कूल के बच्चों के साथ आशीष।
स्कूल के बच्चों के साथ आशीष। photo  – facebook 

आशीष को पूर्व प्रधानाचार्य आशीष चंद्र रमोला ने सबसे ज्यादा प्रेरित किया। जिनकी वजह से ही वे स्कूल के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने में सफल हुए। जब आशीष की पहली पोस्टिंग राजकीय इंटर कॉलेज, भंकोली में हुई तो उस समय वहां पहुँचने के लिए सड़क नहीं थी, लेकिन आज उनके प्रयासों से वहां सड़क बन चुकी है। उनके इन नेक कामों के चलते उत्तराखंड सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया।

आज के दौर में ऐसी विदाई हर किसी को नसीब नहीं होती है। आशीष डंगवाल को हमारी ओर से ढेरों बधाइयां। आपने गुरू शिष्य परंपरा का निर्वहन कर समाज में एक मिसाल पेश की है। धन्य है वह स्कूल जो आपके जैसे गुरूओं की कर्मभूमि बनेगी।

अगर आप आशीष से संपर्क करना चाहते हैं तो इस नंबर 9897777708 पर बात कर सकते हैं। आप उनसे उनके फेसबुक से भी जुड़ सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली


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आर्थिक मदद नहीं, स्वावलंबी बनाकर मेरी फीस का किया था इंतजाम; आज भी ऋणी हूँ आपका सर!

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ब भी स्वाधीनता दिवस या गणतन्त्र दिवस आता है, मुझे अपना स्कूल याद आ जाता है। जब भी बसंत पचंमी आती है, अपना स्कूल याद आ जाता है। जब भी स्कूलों में शैक्षणिक शुल्क जमा करने की तारीख आती है, मुझे अपना स्कूल याद आ जाता है और याद आ जाते हैं वे सभी शिक्षकगण, प्रधानाचार्य जिन्हें मुझ पर अटूट विश्वास था, जो सिर्फ मुझे ही नहीं, हमारे परिवार, माता-पिता, भाई-बहन के जीवन-संरक्षण के लिए हमेशा चिन्तित रहते थे। वे हमेशा यह प्रयास करते थे कि हम सब के चेहरों पर मुस्कान रहे। हमारी आर्थिक दरिद्रता इतनी अधिक थी कि वे सभी चाहते थे कि माध्यमिक परीक्षा के बाद मुझे स्कूल में भी कोई नौकरी दे दें ताकि भरण-पोषण होता रहे।

स्कूल था पटना के अशोक राजपथ पर स्थित 1869 में स्थापित ‘टी के घोष अकादमी’, जहाँ भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, संविधान सभा के सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. बिधानचन्द्र रॉय जैसे लोग पढ़ चुके थे। यह विद्यालय और यहाँ के तत्कालीन शिक्षकगण न जाने कितने विद्यार्थियों को बालक से महान व्यक्तित्व बना चुके हैं, वे सभी मेरे लिए पूजनीय हैं।

बात साठ के दशक के पूर्वार्द्ध की है जब मैं अपने मामा के घर (गढ़बनैली, पूर्णिया) से पाटलिपुत्र आया था। कहते हैं माता-पिता कितने भी अर्थ से कमजोर हो, अपने संतानों को अपने से अलग नहीं रखना चाहते, परन्तु समय क्या चाहता है, उन्हें भी नहीं पता।

मैं कोई 6 साल का था जब पटना आया था, साल था 1964 और मेरे पिताजी पटना के ही एक प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता ‘नोवेल्टी एंड कंपनी’ में छोटे मुलाज़िम के रूप में कार्य करते थे। यह दुकान दो मंजिला थी और इसी की सीढ़ी के एक ओट में पिताजी अपना आशियाना बनाए हुए थे। मैं पिताजी के साथ ही रहता था।

दुकान पर रहते-रहते किताबों की सुगंध धीरे-धीरे नाक के सहारे मेरे मस्तिष्क में जाने लगी। मेरे अंदर पढ़ने की इच्छा जागृत होने लगी। सुबह-सवेरे जब बच्चों को पढ़ने जाते देखता, मन में स्कूल और पढ़ने के प्रति लालसा बढ़ने लगी थी। मैंने अपने पिता से अपनी यह इच्छा व्यक्त की, जब वे दुकान बंद कर देर रात अपने आशियाना में आए।

पिताजी मेरी बात बहुत ही ध्यान से सुन रहे थे। मेरी पढ़ने की बात सुनकर उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे। उन दिनों पिता की मासिक तनख्वाह 40 रुपये थी। मेरी बात सुनने के बाद पिताजी बहुत ही भावुक स्वर में बोले, “तुम्हे पढ़ने की इच्छा है तो फिर तुम्हे इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं रोक सकता।”

दूसरे दिन हम पिता-पुत्र अशोक राजपथ स्थित राजा राममोहन रॉय स्कूल गए। इस विद्यालय में अमीर लोगों के बच्चे पढ़ते थे। वैसे तो इस विद्यालय के प्रत्येक सदस्य पिताजी को जानते थे, परन्तु मन में एक भय पिताजी के कपाल पर साफ़ दिखाई दे रहा था। वे अर्थ से दीन थे और यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों के माता-पिता संपन्न थे। कहते हैं लड़ाई अंतिम सांस तक लड़नी चाहिए, पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और विद्यालय गेट में प्रवेश किया। मेरा नामांकन इस विद्यालय में हो गया।

तीन महीने बाद फीस नहीं देने के कारण मेरा नाम विद्यालय से हटा दिया गया। उस ज़माने में प्राथमिक कक्षाओं के लिए इस विद्यालय में जो प्रधानाचार्या हुआ करती थीं, उन्होंने भृकुटि को तानते मुझे हिदायत दी, अगर पिता की शुल्क जमा करने की क्षमता नहीं है तो मछुआटोली स्थित नगर निगम के विद्यालय में प्रवेश दिलाने बोलो।”

कुछ दिन उदासी में बचपन बीता। इधर, दुकान  में सभी मुझे ढूंढते थे क्योंकि मैं बहुत छोटा था और दुकान में चाय, पान, पानी, कागज़, रस्सी, चाकू लाने-ले जाने के लिए टेनिया की कमी हो रही थी। सभी मुझसे काम कराते थे और दो पैसे, तीन पैसे, पांच पैसे-दस पैसे दे दिया करते थे।

पढ़ने की भूख, पेट की भूख से अधिक प्रबल हो रही थी। एक दिन सुबह के कोई तीन बज रहे होंगे। पिताजी सोए थे, मैं उनके बक्से से पांच रुपए निकालकर दबे पाँव निकल पड़ा, गंतव्य था पटना के गाँधी मैदान स्थित बस अड्डा।

बस अड्डा पहुंचकर अपनी जेब से पिता के बक्से से चोरी किये पांच रुपए निकाले, फिर अपनी दूसरी जेब से कुछ पैसों के सिक्के निकाले, अब मेरे पास कुल 5 रुपए 40 पैसे थे।

बस अड्डे पर पटना से प्रकाशित समाचार पत्र ‘सुबह-सवेरे’ आया करता था। मैंने सब पैसों से अख़बार खरीदे और बेचने लगा। उन दिनों अखबार का मूल्य पांच पैसे से बारह पैसे तक था। ऐसे-ऐसे करके अख़बार बेचकर मैंने कुल 9 रुपए 60 पैसे इकट्ठे किये यानी 4 रुपए 20 पैसे का मुझे फायदा हुआ।

वापस दुकान आया तो पिताजी से आँखें नहीं मिला पा रहा था इसलिए मैं इधर-उधर हो रहा था। रात में पिताजी ने बुलाया और पूछा, इसमें से पांच रुपए निकाले हो? मैंने “नहीं” कह दिया। फिर क्या था, पिताजी ने मुझे बहुत पीटा।

दूसरे दिन भी दिन-भर पिताजी से बात नहीं हुई। न उन्होंने खाना खाया और न ही मैंने। उन्होंने रात में मुझसे पूछा, क्या किया पैसों का? इसे गाँव (माँ को) मनीऑर्डर करना था, पैसे नहीं भेजेंगे तो वह क्या खाएगी?

“मैं फफककर रो दिया और पिताजी के हाथ में कुल 9 रुपए 60 पैसे रख कर पूरी बात बताई और यह भी बताया कि “मैं पढ़ना चाहता हूँ।” मेरी बात सुनते ही पिताजी भी रो पड़े। उन्होंने मुझसे पाँच रुपए वापस नहीं लिए और सर पर हाथ रखते हुए बोले, चलो खाना खाते हैं।”

अगले सप्ताह मैंने 1968 में पटना के टी के घोष अकादमी विद्यालय के छठे वर्ग में प्रवेश लिया। मैं इस विद्यालय की मिट्टी से परिचित था। शिक्षकों को भी चेहरे से जानता था क्योंकि शाम में कभी-कभार यहाँ खेलने आता था।

विद्यालय में मेरे प्रवेश के साथ ही जैसे शिक्षकगण इस बात का फैसला कर चुके थे कि वे मुझे अधिकाधिक कार्य सिखाएंगे और इसी विद्यालय में माध्यमिक परीक्षा के बाद मुझे नौकरी भी देंगे ताकि परिवार का भरण-पोषण हो सके।

छठे वर्ग से ही प्रत्येक माह की 15 और 30 तारीख को छात्रों का शुल्क-जमा करने का कार्य, बच्चों के विद्यालय नहीं आने पर लगने वाला दंड-शुल्क (दो नया पैसा) इकट्ठा करना इत्यादि कार्य मैं करने लगा। जैसे-जैसे वर्ग बढ़ने लगा वैसे-वैसे अन्य कार्यों का भार, जैसे पुस्तकालय की देख-रेख, किसी भी कार्यक्रम में शिक्षक के साथ लेखा-जोखा करना, सरस्वती पूजा में भण्डार की जबाबदेही भी मेरे हिस्से थे।

उस ज़माने में पटना विश्वविद्यालय के सैकड़ों विद्यार्थी जो छात्रावास में रहते थे, मेरे ग्राहक थे। प्रिंसिपल से लेकर प्रोफेसर तक मुझसे अखबार लेते थे। कभी किसी ने पैसे देने में भी किच-किच नहीं की। अलबत्ता, सबने कुल राशि से पचास पैसे, एक-दो रुपए अधिक ही दिए ताकि किताब, कॉपी, कलम, पेन्सिल खरीदने के लिए मेरी पढ़ाई में कभी कोई कमी नहीं रहे।

आज भी जब मैं अपने समय के एकमात्र जीवित शिक्षक राम नरेश झा से बात करता हूँ तो वे कहते हैं, “शिवनाथ, हमें आप पर गर्व है” और मैं जबाब में कहता हूँ, “…और मुझे आपकी शिक्षा पर सर।”

 

लेखक – शिवनाथ झा 

Shivnath Jha
शिवनाथ झा।

 

 

 

 

 

 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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भैंस-बकरी चराने वाले बच्चे आज बोलते हैं अंग्रेज़ी, एक शिक्षक की कोशिशों ने बदल दी पूरे गाँव की तस्वीर!

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त्तराखंड के हल्द्वानी जिले के रहने वाले भास्कर जोशी अल्मोड़ा जिले के एक गाँव, बजेला में सहायक शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं। हाल ही में उन्हें NCERT द्वारा नवाचारी शिक्षकों की श्रेणी में सम्मान से नवाज़ा गया है। यह सम्मान न सिर्फ भास्कर के लिए, बल्कि पूरे बजेला गाँव के लिए गर्व की बात है।

क्योंकि अल्मोड़ा जिले से लगभग 50-60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गाँव तक पहुँचने के लिए आपको सड़क मार्ग के आलावा, छह किमी का पैदल पहाड़ी रास्ता और एक नदी भी पार करनी पड़ती है। भास्कर बताते हैं कि यह गाँव ऐसे दुर्गम क्षेत्र में है जहाँ सरकारी सुविधाएँ भी नहीं पहुँच पाती और शायद इसीलिए छह साल पहले तक यहाँ की तस्वीर कुछ और ही थी।

साल 2013 में भास्कर को अपने शिक्षक करियर की पहली पोस्टिंग बजेला गाँव के राजकीय प्राथमिक विद्यालय के सहायक अध्यापक के तौर पर मिली। यहाँ अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए भास्कर बताते हैं,

“जब मैं यहाँ आया तो स्कूल की हालत एकदम बदहाल थी। मुश्किल से 10 बच्चों का नामांकन था और वो भी स्कूल नहीं आते थे। इस गाँव के बच्चों के माता-पिता भी शिक्षा के प्रति जागरुक नहीं थे। इसलिए वे बच्चों को स्कूल भेजने की बजाय, पशुओं को चराने के लिए भेज देते थे ताकि बच्चे उनकी कमाई में कुछ मदद कर सके।”

शिक्षक भास्कर जोशी को नवाचारी शिक्षक सम्मान से नवाज़ा गया है

2005 से संचालित इस स्कूल में भास्कर से पहले जो भी शिक्षक नियुक्त हुए, उनकी कोशिश यही रही कि कैसे वे इस दुर्गम क्षेत्र से अपना तबादला करवाएं। इसलिए किसी ने भी स्कूल की हालत सुधारने पर ध्यान नहीं दिया। भास्कर जब यहाँ पहुंचे थे तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उनके मन में भी यही उधेड़-बुन थी कि अब क्या किया जाए?

“बुरा तो लग रहा था हालातों पर। लेकिन फिर मैंने सोचा कि अगर मैं भी इस स्थिति से भागूंगा तो कभी बदलाव नहीं होगा। बस इसलिए मैंने ठान लिया कि जब तक मेरी पोस्टिंग यहाँ है, तब तक मैं यहाँ बदलाव के तत्पर रहूँगा,” भास्कर ने कहा।

उन्होंने गाँव के हर एक घर में जा-जाकर माता-पिता को समझाया और उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए कहा। उन्होंने न सिर्फ़ बच्चों को शिक्षित करने की ज़िम्मेदारी ली, बल्कि उनके माता-पिता को भी जागरुक करने का बीड़ा उठाया। भास्कर भले ही इस गाँव के हित के लिए बात कर रहे थे, पर फिर भी उनकी राह आसान न थी। वे हंसते हुए बताते हैं कि कैसे लोग उन्हें अपनी स्थानीय भाषा में गालियां तक देते थे क्योंकि वे उनके बच्चों को बकरियों को चराने से मना करके स्कूल ले जाते थे।

“लोगों का अपने प्रति इस तरह का रवैया काफ़ी परेशान भी करता था। पर फिर मैं सोचता था कि आज मेरा पेट भरा हुआ है इसलिए मैं इन्हें सही-गलत का ज्ञान दे रहा हूँ। पर जिसका पेट ही नहीं भरा, जिसे दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं होती है, वो कैसे शिक्षा को प्राथमिकता देंगे,” भास्कर ने बताया।

पर कहते हैं न कि ‘कोशिश करने वालों की हार नहीं होती’ और भास्कर की कोशिशें भी रंग लाई। आज इस प्राथमिक विद्यालय में 25 बच्चे पढ़ रहे हैं और सबसे अच्छी बात है कि ये सभी छात्र-छात्राएं स्कूल में रेग्युलर आते हैं। गाँव के लोगों की सोच में भी काफ़ी बदलाव आया है और भास्कर के प्रयत्नों से प्रशासन ने भी स्कूल की सुध ली है।

पहाड़ पर है स्कूल

 

उन्होंने बताया कि जब अल्मोड़ा जिले के सरकारी स्कूलों के लिए प्रशासन ने ‘रूपांतरण परियोजना’ शुरू की तो उनके स्कूल को उसमें शामिल ही नहीं किया गया था। क्योंकि यह स्कूल बहुत ही दुर्गम क्षेत्र में है। ऐसे में, उन्होंने जिले के डीएम को पत्र लिखा और उन्हें बताया कि कैसे पिछले कई सालों से उन्होंने अकेले ही स्कूल का स्तर सुधारा है। अगर प्रशासन की मदद उन्हें मिलती है तो आने वाले सालों में इस स्कूल का नाम वे न सिर्फ़ उत्तराखंड बल्कि पूरे देश में चमका सकते हैं।

डीएम ने भी भास्कर की जी-तोड़ मेहनत को देखते हुए, यहाँ रूपांतरण करने के आदेश दिए और आज इस स्कूल में बच्चों के लिए कंप्यूटर, स्मार्ट क्लास, फर्नीचर, पेयजल, खेलकूद का सामान और प्रोजेक्टर आदि उपलब्ध हो गया है। साथ ही, स्कूल की इमारत को भी सुधारा गया है। अगर आप स्कूल की छह साल पुरानी और आज की तस्वीर देखेंगे तो यकीन ही नहीं कर पाएंगे।

भास्कर जोशी के प्रयासों से हुई कायापलट

स्कूल से बच्चों को जोड़े रखने और शिक्षा में रूचि बनाने के लिए भास्कर ने बहुत से इनोवेटिव तरीके अपनाए हैं। उन्होंने अपने इन तरीकों के बारे में बात करते हुए बताया कि वे कैसे शिक्षा, खेल और अन्य गतिविधियों को मिलाकर बच्चों के लिए कोर्स तैयार करते हैं। वे बच्चों की बौद्धिक क्षमता के साथ-साथ कलात्मक और रचनात्मक क्षमता पर भी काम कर रहे हैं।

उन्होंने बच्चों के पाठ्यक्रम को अलग-अलग श्रेणी में बांट रखा है जैसे भाषा दिवस, प्रतिभा दिवस, बाल विज्ञान उद्यान, हरित कदम, नशा-मुक्ति अभियान, सामुदायिक सहभागिता, नो बैग डे आदि।

खेल-खेल में पढ़ाया जाता है बच्चों को

बाल विज्ञान उद्यान के तहत बच्चों को खेल-खेल में विज्ञान से जुड़े बेसिक कॉन्सेप्ट समझाए जाते हैं। तो वहीं प्रतिभा दिवस के कार्यक्रमों में आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स से जुड़ी गतिविधियां शामिल हैं। साथ ही, इसमें बच्चों को बहुत से गणित के खेल खिलाए जाते हैं और बच्चों में लेखन प्रतिभा के विकास के लिए कहानियां और कविताएं लिखवाई जाती हैं।

‘बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट’ में भी बच्चे बहुत-सी क्रियात्मक चीज़ें बनाते हैं, जैसे कि टॉफ़ी के रेपर को इकट्ठा करके सजावट की सामग्री, कागज और पॉलिथीन से गुलदस्ता आदि बनाना। भास्कर ने बताया कि उनके बच्चे पर्यावरण को लेकर भी काफ़ी सजग हैं। समय-समय पर बच्चे उनके साथ मिलकर विद्यालय में ही पौधारोपण करते हैं और इसके अलावा, उनके स्कूल का किचन गार्डन भी काफ़ी प्रसिद्ध है।

बच्चों को मिड-डे मील में पौष्टिक भोजन देने के उद्देश्य से भास्कर ने स्कूल के प्रांगण में ही सब्जियों के अलग-अलग पौधे लगाकर किचन गार्डन तैयार कर लिया। मिड-डे मील में बच्चों के लिए सब्जियों की आपूर्ति इसी गार्डन से हो जाती है। साथ ही, बच्चों को इस गार्डन में थोड़ी खेती-बाड़ी पर प्रैक्टिकल नॉलेज भी दी जाती है।

मिड-डे मील के लिए किचन गार्डन में उगाते हैं सब्जियां

बाल रचनात्मकता और पहाड़ी बोली को बढ़ावा देने के लिए भास्कर समय-समय पर अपने छात्रों द्वारा सामुदायिक रेडियो कुमाऊवाणी के लिए प्रोग्राम भी करवाते हैं। उनका मानना है कि आज की आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ बच्चे अपनी मातृभाषा और संस्कृति से भी जुड़े रहने चाहिए। इसलिए उन्हें जहाँ भी मौका मिलता है वे अपने छात्रों को उनकी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

इस सबके अलावा, बच्चों में भाषा विकास के लिए (हिंदी , इंग्लिश,संस्कृत) गतिविधि आधारित शिक्षण दिया जाता है। भास्कर बताते हैं कि बच्चों के लिए पढ़ाई को मजेदार बनाने की दिशा में उनके कुछ नवाचार, दीवार पत्रिका, कॉमिक निर्माण, मेरी दीवार, मास्क निर्माण, पपेट शो, बॉक्स फ़ाइल निर्माण, रोल प्ले, कहानी शिक्षण, भ्रमण, बाल अख़बार, स्वरचित कहानियां, स्वरचित कविताएं, किस्सा गोई, कहानी रूपांतरण, चित्रों से कहानी निर्माण, आओ बच्चों मुखौटे लगाए, कबाड़ से जुगाड़, MAD का प्रयोग आदि हैं।

स्कूल में होती हैं अनेकों गतिविधियाँ

अपने इन्हीं नवाचारों के ज़रिए वे पहाड़ी इलाके के लोगों को नशे की लत छुड़ाने के लिए भी जागरुक कर रहे हैं। समय-समय पर वे बच्चों के साथ गाँव में नुक्कड़ नाटक या फिर नशे के विरोध में रैली आदि करते हैं। इससे बच्चों को तो सीखने को मिल ही रहा है, साथ ही, उनके माता-पिता की सोच में भी परिवर्तन आ रहा है।

हर दिन भास्कर की शुरुआत इसी उद्देश्य से होती है कि वे कैसे अपने छोटे-छोटे प्रयासों से इन बच्चों के भविष्य को संवारने में भूमिका अदा कर सकते हैं। बेशक, आज जहाँ प्रशासन और नागरिकों की अनदेखी के चलते सरकारी स्कूल बदहाल हो रहे हैं, वहां एक शिक्षक का अकेले पूरे गाँव में बदलाव का परचम लहराना, वाकई काबिल-ए-तारीफ है।

इस बारे में भास्कर सिर्फ़ इतना ही कहते हैं,

“मैं सरकारी शिक्षा के गौरव और गरिमा को फिर से स्थापित करना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य बहुत सादा सा है कि शिक्षा का उत्थान और शिक्षकों का सम्मान। पिछले कुछ सालों में, सरकारी शिक्षकों की लापरवाही और भ्रष्टाचार के चलते सरकारी शिक्षा से लोगों का भरोसा उठ गया है। इसीलिए प्राइवेट स्कूलों का बोलबाला इतना हो गया कि आज शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। ऐसे में, अमीरों के बच्चे तो शिक्षा पा लेते हैं पर गरीबों का क्या? इसलिए मेरी कोशिश सिर्फ़ इतनी है कि फिर से लोगों का भरोसा सरकारी स्कूल और शिक्षकों पर कायम हो और इसके लिए मैं दिन-रात प्रयत्नशील रहूँगा।”

यकीनन, शिक्षक भास्कर जोशी की सोच व कार्य काबिल-ए-तारीफ़ है। देश के हर एक सरकारी स्कूल में शिक्षकों की सोच यदि उनके ऐसी हो एक दिन सरकरी स्कूलों का स्तर खुद-ब-खुद ऊपर उठ जायेगा। आप उनके स्कूल में होने वाली दिन-प्रतिदिन की गतिविधियाँ फेसबुक पेज ‘Education for Underprivileged’ पर देख सकते हैं!

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संपादन: भगवती लाल तेली


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इन सरपंच की बदौलत हरियाणा के 9 हज़ार घरों के बाहर लगी है बेटी के नाम की प्लेट!

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“साल 2012, वह जनवरी की 24 तारीख थी जिस दिन मेरी बेटी नंदिनी ने जन्म लिया। अस्पताल में मेरी बेटी के जन्म की खबर लेकर आई नर्स ने बड़े हल्के मन से बुदबुदाया, बेटी हुई है। नर्स की हल्की-पतली सी आवाज मुझे सुनाई दे गई थी। नर्स के अनुसार यह निराशा वाली खबर थी, मगर मेरे लिए यह सबसे ज्यादा खुशी के पल थे। अस्पताल से घर जाते वक्त जब मैं नर्स को अस्पताल में मिठाई बांटने के लिए कुछ पैसे देने लगा तो उन्होंने शर्माते हुए कहा, ‘रहने दीजिए सर, लड़का होता तो ले लेती, अब स्टाफ गुस्सा करेगा। मैंने खुशी से उन्हें पैसे पकड़ाकर कहा कि मेरी तरफ से सभी को मिठाई खिलाइएगा और कहिएगा कि बीबीपुर गाँव के सरपंच को बेटी हुई है।”

यह किस्सा याद करते हुए हरियाणा के जींद जिले के बीबीपुर गाँव के पूर्व सरपंच सुनील जागलान की आँखे खुशी से चमक उठती हैं और दोनों गालों पर हंसीनुमा लाली चढ़ आती है।

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सुनील जागलान।

सुनील जागलान पेशे से गणित अध्यापक रहे हैं, लेकिन अपनी बेटी के जन्म के बाद उन्हें गाँव के गिरते लिंगानुपात के बारे में पता चला तो उन्होंने उसी दिन से खुद को बेटी और महिला सशक्तिकरण के लिए समर्पित कर दिया। अपनी बेटी के जन्म के बाद जब वे पहली बार गाँव के सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र गए तो उन्होंने देखा कि गाँव का लिंगानुपात बहुत खराब है। फिर सोच-विचार कर उन्होंने गाँव में महिला पंचायत बुलाई। पंचायत में महिलाओं ने खुद स्वीकारा कि वे विभिन्न दबावों के चलते भ्रूण हत्याएं करवाती हैं। जिसके बाद उन्होंने गाँव में 42 लोगों की एक कमेटी बनाई जिसका कार्य गर्भवती महिलाओं के आंकड़े और रिकॉर्ड रखना था। उनके इस प्रयासों से एक साल में ही बहुत सुधार देखने को मिले।

सुनील ने जिस साल यह अभियान शुरू किया था उस साल उनके गाँव में 37 लड़कियों और 59 लड़कों का जन्म हुआ। लेकिन अभियान के एक साल बाद गाँव में 42 लड़कियों और 44 लड़कों का जन्म हुआ। लिंगानुपात सुधरने की दिशा में यह अच्छे कदम थे, ऐसे में गाँव की महिलाओं में विश्वास जगा और महिलाएं ग्राम सभाओं में आने लगी। जिसके बाद पंचायत का 50% फंड महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया गया।

 

महिलाओं के फंड से गाँव में बेटियों के लिए पुस्तकालय खोला गया और लड़कियों को डिजिटल रूप से सक्षम बनाने के लिए कम्प्यूटर शिक्षा की शुरुआत की गई।

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गुडगांव के नया गाँव में खोला गया लाडो पुस्तकालय, जिसमें किताबों के साथ-साथ 5 लैपटॉप भी हैं

महिलाओं ने पंचायत में ही घरेलू हिंसा को खत्म करने के लिए एक कमेटी भी बनाई, जिसमें औरतें उनके साथ हुई घरेलू हिंसा को कमेटी के सामने रखती, जिस पर कमेटी एक्शन लेती थी। ऐसे में गाँव में घरेलू हिंसा का भी लगभग खात्मा हो गया। लेकिन जैसा होता आया है कि महिलाओं की बढ़ती भागीदारी पर हमारा पितृसत्तात्मक समाज विरोध किए बगैर नहीं रह सकता। सुनील को भी कई लोगों का विरोध झेलना पड़ा।

वह बताते हैं, “हमारे गाँव में हमने घरों के बाहर बेटियों के नाम की नेम प्लेट लगाई और इस अभियान की गूंज पूरे देश में फैली, लेकिन गाँव की पितृसत्तात्मक सोच के कारण कुछ लोगों ने इन नेम प्लेट्स को तोड़कर फेंक दिया, लेकिन हम रूके नहीं। हमने लोगों को जागरुक किया, ऐसे में सिर्फ हमारे ही नहीं दूसरे गाँव के लोगों ने भी घरों के बाहर बेटियों के नाम की नेम प्लेट लगाई। विभिन्न गांवों में आज करीब 9 हजार लोग अपने घरों के बाहर अपनी बेटियों के नाम से नेम प्लेट लगा चुके हैं।”

लगातार सफल कैंपेन चलाने के बाद सुनील जागलान और उनके गाँव बीबीपुर की धमक पूरे देश में सुनाई देने लगी। साल 2015 में उन्होंने सोशल मीडिया कैंपेन ‘सेल्फी विद डॉटर’ शुरू किया, जिसका प्रधानमंत्री ने 6 बार और राष्ट्रपति ने 3 बार जिक्र किया।

 

उन्होंने मेवात में ‘हाईटैक अंडर बुर्का’ नाम से महिलाओं के लिए डिजिटल साक्षरता अभियान भी चलाया है।

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सुनील के ‘सेल्फी विद डॉटर’ को काफी सराहा गया था।

इस अभियान के बाद साल 2016 में सुनील ने दूसरे गांवों में बदलाव लाने के लिए एक मॉडल तैयार किया। जिसका नाम था, ‘बीबीपुर मॉडल ऑफ विमेन एम्पावरमेंट एंड विलेज डवलपमेंट’, इस मॉडल का उद्देश्य महिला सशक्तिकरण के द्वारा ग्रामीण विकास करना था। इस उद्देश्य के साथ उन्होंने हरियाणा के 2 गाँव गोद लिए, जिनमें एक था जींद का तलोडा गाँव और दूसरा था करनाल का उडाना गाँव।

इन दोनों गांवों में भी यह मॉडल सफल रहा और इसकी गूंज राष्ट्रपति तक भी पहुंची। जिसके बाद तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सुनील को राष्ट्रपति भवन आने का बुलावा भेजा। राष्ट्रपति ने सुनील के मॉडल की तारीफ की और इन दो गांवों के विकास के लिए उन्हें 50 लाख रुपए भी दिए। इतना ही नहीं, उन्होंने उनके द्वारा गुड़गांव और मेवात के गोद लिए हुए 100 गांवों में सुनील के इस मॉडल को लागू करने की बात कही।

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सुनील को सम्मानित करते भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी।

तत्कालीन राष्ट्रपति के कहने पर सुनील ने इन 100 गांवों में भी काम करना शुरू कर दिया। इन गांवों में वह लड़कियों के लिए लाडो (लड़की) पुस्कालय, महिला सरपंचों और पंचायतों को जागृत करने, भ्रूण हत्या और लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाओं को रोकने के लिए टीम लाडो का गठन करने और घरों के बाहर लड़कियों के नाम की नेम प्लेट लगाने का कार्य कर रहे हैं।

पाटुका सरपंच अंजुम आरा बताती हैं, “एक समय ऐसा था कि गाँव की बहुत कम लड़कियां पढ़ाई कर पाती थी, मगर सुनील की मदद से सभी ग्रामीणों ने बेटियों को पढ़ाना शुरू कर दिया है। पहले गाँव के स्कूल में लड़कियों की संख्या कम थी, लेकिन अब सारी लड़कियां स्कूल जा रही हैं। अब गाँव में लड़कियों के लिए पुस्कालय भी बन रहा है। हमारे गाँव की ही बेटी मेहरुनिशा को ‘बेस्ट सेल्फी विद डॉटर’ के खिताब से भी नवाजा गया है। पंचायत में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ने से अब बहुत चीज़ें बदल रही हैं।”

 

मेवात के गाँव पाटुका के अधिकतर घरों के आगे लड़कियों के नाम की नेम प्लेट लगी हुई है।

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पाटुका गाँव में मुस्कान के परिवार के साथ सुनील, जिन्होंने अपनी बेटी के नाम की नेम प्लेट घर के बाहर लगाई है।

 

सुनील साधारण से प्रतीत होने वाले सैकड़ों अभियान चला चुके हैं, जिनका व्यापक असर हुआ है। वह उस आधी आबादी की लड़ाई बड़ी शिद्दत से लड़ रहे हैं, जिन्हें सालों तक मूलभूत आवश्यकताएं तक नहीं मिली। 36 साल के सुनील का लक्ष्य देश के हर गाँव में लड़कियों के लिए पुस्कालय खोलना और महिलाओं को उनके अधिकार दिलवाना है। उनके और उनके लक्ष्य को दिल से सलाम…

 

संपादन –  भगवती लाल तेली 


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आपका यह छोटा सा कदम बचा सकता है हमारी झीलों को!

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झाग से भरी झीलें अक्सर जब आग पकड़ लेती हैं तो हम ज़्यादातर प्रशासन और इंडस्ट्रीज को दोषी ठहराते हैं। पर कभी भी यह समझने की कोशिश नहीं करते कि पानी के स्त्रोत जैसे कि नदी, तालाब, झील आदि के प्रदुषण के लिए हम खुद भी ज़िम्मेदार हैं। पानी के प्रदुषण का एक मुख्य कारण हर एक घर में रोज़मर्रा के तौर पर इस्तेमाल होने वाली चीज़ है- डिटर्जेंट पाउडर।

डिटर्जेंट पाउडर में हानिकारक रसायन जैसे कि सोडियम लॉरिल सल्फेट और सोडियम लॉरेथ सल्फेट / सोडियम लॉरिल ईथर सल्फेट (SLS/SLES), फॉस्फेट, फॉर्माल्डिहाइड, क्लोरीन ब्लीच और अमोनियम क्वाटरनरी सेनिटाइजर आदि होते हैं।

इनकी वजह से हमें कैंसर, दिल से संबंधित बीमारी, फेफड़े या फिर किडनी में समस्या, ऑस्टियोपोरोसिस, एलर्जी, और त्वचा व आँखों में जलन हो सकती है। तो ऐसे में, यह सिर्फ़ प्रशासन की नहीं, बल्कि हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि हम अपनी दैनिक ज़रूरतों के लिए ऐसे प्रोडक्ट इस्तेमाल करें जो कि न सिर्फ़ हमारे लिए बल्कि पर्यावरण के लिए भी उचित हों।

आज द बेटर इंडिया पर हम आपको ऐसे ही कुछ इको-फ्रेंडली विकल्पों के बारे में बता रहे हैं, जो आपके परिवार और पर्यावरण, दोनों को स्वस्थ रखेंगें!

1.  केमिकल-फ्री डिटर्जेंट पाउडर

 

एक प्राकृतिक और प्रोबायोटिक बेस्ड यह कपड़े धोने का पाउडर, हाथों के लिए कोमल और स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है। यह बदबू और दाग-धब्बों के लिए बहुत ही कारगर है। आप इसे अपने रेग्युलर डिटर्जेंट पाउडर की जगह इस्तेमाल करके, अपनी और पर्यावरण, दोनों की सुरक्षा करेंगे। इस प्राकृतिक डिटर्जेंट को खरीदने के लिए यहाँ क्लिक करें!

 

2. प्राकृतिक लिक्विड लॉन्ड्री वॉश

 

‘त्वचा के लिए सुरक्षित’ यह लिक्विड वॉश हाथों से बनाया गया है। इसे बनाने के लिए नारियल के तेल, चावल की भूसी के तेल, अरंडी के तेल, पाम तेल, पानी, नमक और पौधों पर आधारित कुछ अन्य सर्फेक्टेंट्स का इस्तेमाल किया जाता है। इसे खरीदने के लिए कार्निवल डॉट कॉम पर क्लिक करें!

3. इको-फ्रेंडली लॉन्ड्री फ्रेग्रेन्स बूस्टर/ कपड़े धोने के बाद खुशबू बनाये रखने के लिए प्रोडक्ट

यह एक इको-फ्रेंडली प्रोडक्ट है और कपड़ों के लिए प्राक्रतिक सॉफ्टनर का काम करता है। इसे बनाने में प्राकृतिक तेल और महक का इस्तेमाल होता है। इसलिए अपने कपड़ों को धोने के बाद इस सॉफ्टनर में भिगो कर रखें और फिर सुखाए। इससे आपके कपड़ों में मनमोहक खुशबू और चमक बनी रहेगी। इसे खरीदने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

 

4. बायोडिग्रेडेबल पावर लॉन्ड्री पाउडर

हाथों और वॉशिंग मशीन, दोनों के लिए ही सुरक्षित यह पाउडर, पूरी तरह से बायोडिग्रेडेबल है। साथ ही, यह एक इको-फ्रेंडली व वीगन प्रोडक्ट है। यह प्रोडक्ट आप यहाँ पर खरीद सकते हैं!

 

5. बायो-लिक्विड कंसन्ट्रेट

 

नारियल, करंजा और रीठा जैसे प्राकृतिक चीज़ों को इस्तेमाल करके बनाये गये इस प्रोडक्ट से कपड़े धोने के लिए आपको बहुत ही कम पानी की ज़रूरत पड़ती है। क्योंकि यह आसानी से कपड़ों से निकल जाता है। इसे इस्तेमाल करने के लिए आपको इसे रात भर पानी में भिगो कर रखना पड़ेगा। इस प्रोडक्ट को खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें!

संपादन – मानबी कटोच 


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शुरुआत : भिक्षावृति में लिप्त नन्हें हाथों में कलम पकड़ा कर बदलाव लाने की ज़िद!

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शिकायत का हिस्सा तो हर बार बनते हैं, एक बार निवारण का हिस्सा भी बनते हैं।

यह पंक्ति उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के युवा अभिषेक शुक्ला पर सटीक बैठती है, जिन्होंने समाज में बदलाव लाने के लिए खुद शुरुआत की, न कि सरकार या प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया। अपनी टीम के जरिये उन्होंने छोटी-छोटी कोशिशों से गरीब एवं स्लम्स में रहने वाले बच्चों के जीवन में बदलाव लाने का काम किया।

जो बच्चे कभी रेलवे स्टेशन पर घूमते हुए भीख मांगते नजर आते थे। नशावृति और बाल अपराधों में जकड़े हुए थे, वे आज सबसे पहले ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। किताबों में अपने सपनों के रंग भरते हैं। खेलते-कूदते अंक ज्ञान के साथ ही नन्हे बच्चे बेसिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

अभिषेक उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में अपने संस्थान ‘शुरुआत-एक ज्योति शिक्षा की‘ के जरिये स्लम्स में रहने वाले 125 बच्चों को पढ़ा रहे हैं। इनमें 90 से ज्यादा लड़कियां हैं।

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स्लम के बच्चों के साथ ‘शुरुआत’ की टीम।

शुरुआत की क्लासेस कच्ची बस्ती में ही घरों के बाहर लगती हैं। अभिषेक की टीम बच्चों को पढ़ाई के साथ ही खेलकूद, आर्ट, म्यूजिक, डांस और आत्मरक्षा करना सिखाती हैं। बालिकाओं को मासिक धर्म से जुड़ी जानकारियां और सैनेट्री नैपकिन भी बांटे जाते हैं। बच्चों को गुड टच व बैड टच से भी अवगत कराया जाता है।

यह पूछने पर कि किस चीज़ या घटना ने उन्हें स्लम्स में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित किया, अभिषेक एक किस्सा सुनाने लगते हैं।

“तीन साल पहले रेलवे क्रॉसिंग पर मुझे एक बच्ची भीख मांगती हुई नज़र आई, पहले मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन उसके ज्यादा आग्रह करने पर मैं उससे बात करने के लिए राज़ी हो गया। उससे बातचीत में पता चला कि उसकी माँ नहीं हैं और पिता शराब के नशे में डूबे रहते हैं और वो 4 साल के अपने छोटे भाई का भी पालन-पोषण कर रही है। मुझे यह बात झूठी प्रतीत हुई और मैंने उसे उसके घर ले चलने के लिए कहा।”

 

बच्ची अभिषेक को रेलवे क्रॉसिंग के पास ही बनी बस्ती में ले गई। वहाँ का नज़ारा देखकर अभिषेक के पैरो तले जमीन खिसक गई।

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बच्ची को किताब देते अभिषेक।

बच्ची के घर जाकर अभिषेक ने देखा कि उसके पिता नशे में बेसुध थे जबकि छोटा भाई बैठा हुआ था। अभिषेक को विश्वास नहीं हो रहा था कि लोग ऐसा जीवन जीने के लिए मजबूर है।

अभिषेक ने बस्ती के लोगों से बात की और कहा कि अब वे बस्ती के बच्चों को पढ़ाएंगे और काबिल बनाएंगे। बस्ती के लोग उनकी बातों को अनसुना कर रहे थे।

“साहब! ऐसे कई लोग रोज़ यहाँ आते हैं, कुछ पैसे, खाना और कपड़े देकर फोटो खिंचवा कर चले जाते हैं। वे हमें मदद के लिए आश्वासन तो देते हैं लेकिन कुछ ही दिनों में गायब हो जाते हैं। अगर आप भी कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं तो कृपया करके हमारी मदद मत कीजिए।” बस्ती के लोगों ने कहा।

लोगों की इस बात ने अभिषेक को झकझोर दिया और देश में 52 लाख से ज्यादा एनजीओ और सामाजिक संस्थाओं की कार्यशैली पर सवाल खड़ा कर दिया। वे सोचने लगे कि उत्सवों एवं कुछ विशेष दिनों पर सेल्फी के लिए स्लम्स का दौरा ज़रूर किया जाता है।

 

लोग अगले दिन अखबार में अपनी फोटो देखकर खुश हो जाते हैं लेकिन स्लम्स के बच्चों की डबडबाई आँखे मदद को तरस जाती हैं। उसी दिन अभिषेक ने प्रण किया कि वे अब इन बच्चों को जरूर पढ़ाएंगे।

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बच्चों को पढ़ाते अभिषेक शुक्ला।

“मैं अगले दिन फिर स्लम्स में गया और पांच बच्चों के साथ पढ़ाने की शुरुआत कर दी। इन बच्चों को हम सीधे पुस्तक हाथ में नहीं दे सकते हैं इसलिए खेलकूद, नाच-गान और छोटे-मोटे प्राइज के जरिये शिक्षा के प्रति जागरूक किया। हम काम करते रहे और धीरे-धीरे बच्चों की संख्या 25 हो गई। अब हमारे लिए मैनेज करना मुश्किल हो रहा था, इसलिए हमने सोशल मीडिया से और अन्य लोगों से मदद की अपील की। इससे लोग मदद के लिए आगे आए और हमारा काम चल निकला,”अभिषेक ने कहा।

अभिषेक आज ‘शुरुआत संस्थान’ के जरिये बच्चों को पढ़ा रहे हैं। वे बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए कंप्यूटर शिक्षा, डांस एवं म्यूजिक और सेल्फ डिफेन्स की क्लासेज भी लगवाते हैं।

‘शुरुआत’ की टीम स्लम्स में रहने वाली औरतों को भी शिक्षित कर रही हैं। कई महिलाएं भी उनके साथ जुड़कर बच्चों को पढ़ाती हैं। यहाँ घरों में झाड़ू-पोंछा करने वाली महिलाओं से लेकर सत्तर साल की अम्मा भी पढ़ने आती हैं। वे बेसिक अंक ज्ञान एवं अपना नाम लिखना सीख रही हैं। अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए मेहनत के साथ ही स्वाभिमान से जी रही हैं।

 

‘शुरुआत’ की ओर से बेसिक शिक्षा के बाद बच्चों को निजी या सरकारी स्कूल में एडमिशन दिलवाया जाता है और उनकी पढ़ाई का सारा खर्च भी वहन किया जाता है। 

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स्कूल में एडमिशन के बाद ख़ुशी व्यक्त करते बच्चे।

संस्थान के कार्यों को देखते हुए जब बहुत बच्चे पढ़ने आने लगे तो संभालना मुश्किल हो गया। उनकी टीम ने वहां के करीब 20 बच्चों का स्कूल में एडमिशन करवाया, लेकिन ‘शुरुआत’ के युवा सब भी खुद पढ़ने वाले थे। ट्यूशन पढ़ा कर जितना मदद संभव थी उतनी की, लेकिन उसके बाद भी देखा कि काफी संख्या में बच्चे छूट रहे हैं, तो उन्होंने फंड इकट्ठा करने के लिए के अभियान चलाने की सोची।

ऐस में अभिषेक और टीम ने “दीजिए एक बच्चे को शिक्षा, जिससे कोई बच्चा ना मांगे भिक्षा“, कैम्पेन शुरू किया। उन्होंने सोशल मीडिया के जरिये सक्षम लोगों से निवेदन किया कि यदि हर व्यक्ति एक बच्चे की शिक्षा का खर्च जो हर महीने 350 रुपये आता है, उठा ले तो उन बच्चों की जिंदगी संवर जाएगी। इस अभियान को लोगों ने काफी सराहा और आगे बढ़कर मदद की।

 

‘शुरुआत’ के इस खास अभियान में बस्ती के बच्चों ने भी लोगों से मदद मांगी थी ताकि वे पढ़ सके।    

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‘शुरुआत’ के अभियान के तहत बच्चे मदद मांगते हुए ।

‘शुरुआत’ के जरिये पढ़ने वाले बच्चों की संख्या आज 125 पहुंच गई है और मदद के लिए काफी संख्या में लोग आगे भी आ रहे हैं। इस वक्त शहर के चार स्थानों गिरजा घर, रेलवे स्टेशन, सीएमपी के सामने और अलोपीबाग चुंगी के पास बच्चों को पढ़ाया जा रहा है। शहर के युवा जो खुद पढ़ रहे हैं लेकिन अपना कीमती समय निकालकर इन बच्चों के भविष्य को सुधारने में मदद कर रहे हैं।

अभिषेक कहते हैं, “16 सितंबर 2016 को मैंने अकेले ही स्लम एरिया के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। धीरे-धीरे कई लोगों ने सहयोग किया। लगभग सवा साल तक हम लोगों ने ट्यूशन पढ़ाकर अपने खर्चे पर इन बच्चों को पढ़ाने का काम किया। लेकिन अब बच्चों की संख्या बढ़ने लगी और उनकी सामान्य जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारे पास फंड नहीं थे।”

इसके बाद अभिषेक ने 13 अक्टूबर 2017 को “ शुरुआत-एक ज्योति शिक्षा की ” का रजिस्ट्रेशन करवाया। अब वे पहले की तुलना में ज्यादा सही तरीके से काम कर रहे हैं।

 

इनकी चाहत है कि बच्चों को बेहतर शिक्षा मिले और ये बच्चे जिंदगी के उच्च मुकाम को हासिल कर सके।

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बच्चों को पढ़ाते हुए ‘शुरुआत’ के सदस्य।

अभिषेक के इस अभियान से वे बच्चे भी जुड़े हैं जिन्होंने अपनी इच्छा से या किसी के प्रयास से 8वीं, 10वीं तक पढ़ाई तो किसी तरह कर ली लेकिन आगे की पढ़ाई करने में सक्षम नहीं थे। ये बच्चे भी स्लम एरिया के ही हैं। इस साल स्लम के काफी बच्चों ने हाईस्कूल और इंटर की परीक्षा भी दी, इसमें बच्चों ने 50 फीसदी से लेकर 84 प्रतिशत तक अंक हासिल किए। इन बच्चों में से कोई प्रशासनिक अधिकारी, कोई डॉक्टर तो कोई इंजीनियर बनना चाहता है।

यहाँ पढ़ने और पढ़ाने वालों में आधे से ज्यादा बेटियां हैं। तीन साल के अथक प्रयास से आधे से ज्यादा बच्चों ने भीख मांगना और नशा करना छोड़ दिया है, जो बचे हैं वे भी छोड़ने के कगार पर हैं। यह शुरुआत है, अभी भी स्लम एरिया की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। इसलिए अभी यहाँ बहुत कुछ करना बाकी है।

स्लम्स की बेटियां स्लम्स के बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आ रही हैं। ‘शुरुआत’ का मकसद उन्हें केवल शिक्षा देना ही न होकर अच्छा इंसान बनाना भी है ताकि वो अपने परिवार के साथ ही देश के निर्माण में अपनी भागीदारी निभाए।

 

अभिषेक के साथ इस नेक काम में आदित्य, शालिनी, प्रवर, अंजू, अंकिता, अंजलि, पूजा, आशिया, अंजलि, नितिन, नीरज, रुपेश, अमित, विकास, प्रिंशु,अमन, सिद्धार्थ, विकास, शोभित, रवि, विवेक शामिल है। इन युवाओं की टीम ही ‘शुरुआत’ को आगे बढ़ा रही हैं।

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शुरुआत की टीम के सदस्य और अभिषेक।

अभिषेक का कहना है कि समाज में बदलाव लाने की इस पहल में उनकी पूरी टीम का सहयोग है और उन्हीं के बलबूते 125 से ज्यादा बच्चों को वे पढ़ा पा रहे हैं। समाज में लोग मदद के लिए आगे आ रहे हैं। अगर आप भी मदद करना चाहते हैं तो करिए। समाज एवं देश को आपकी जरूरत है। बदलाव का हिस्सा बनिए।

अगर आपको अभिषेक की यह पहल अच्छी लगी और आप उनकी मदद करना चाहते हैं तो इस नम्बर 7007917085, 8005092910 पर संपर्क कर सकते हैं। आप ‘शुरुआत’ के फेसबुक पेज से भी जुड़ सकते हैं।

लेखिका – शालिनी यादव 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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मिलिए 3 साल में 1 लाख किलोमीटर की अकेली यात्रा करने वाली इस महिला यात्री से!

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ह कहानी है एक ऐसी सोच की जिसने घर पर बैठकर एक आम लड़की की तरह जीने के बजाय खुले आसमान में साँस लेने और सोलो ट्रेवलिंग के जरिये देश को जानना, समझना और प्रकृति के खूबसूरत नज़ारों को देखना चुना। वह चाहती तो किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करके घर पर बैठकर आराम कर सकती थीं लेकिन वे उन सभी लड़कियों के लिए एक उदाहरण बनना चाहती थीं जो डर और खुद को कमज़ोर समझकर घर से बाहर नहीं निकलती हैं। क़ायनात क़ाज़ी नाम की यह महिला आज उन हज़ारों लड़कियों के लिए प्रेरणा हैं जो घरों से बाहर निकलकर इस दुनिया के खूबसूरत नज़ारों को देखना चाहती हैं।

देश की महिलाओं को आगे आकर खुद को साबित करने और अपनी जगह खुद बनाने के लिए सालों से काम कर रहीं  डॉ क़ायनात काज़ी की सोच है,“यह देश महिलाओं का भी उतना ही है जितना पुरुषों का है। दरअसल, हम बेटियों को इतना प्रोटेक्ट करते हैं कि वे खुद की असली ताकत को ही भूल बैठती हैं और रही बात भय की तो वो हक़ीक़त से ज्यादा दिमाग़ों में भरा है।”

डॉ. क़ायनात ग्रेटर नोएडा की शिव नाडर यूनिवर्सिटी में कार्यरत होने के साथ ही विभिन्न कामों के लिए जानी जाती हैं। सोलो ट्रेवलर, जर्नलिस्ट, राइटर, फोटोग्राफ़र, ब्लॉगर और मोटिवेशनल स्पीकर होना उनके व्यक्तित्व के दूसरे आयाम हैं।

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क़ायनात काज़ी।

उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद में एक मुस्लिम परिवार में जन्मी क़ायनात सरकारी स्कूल में पढ़ीं। स्नातक तक की पढ़ाई वहीं कस्बे के कन्या विद्यालय में की। घर में अनुशासन के साथ ही शिक्षा पर भी जोर था। बचपन से ही उन्हें भूगोल का शौक़ रहा। जब क्लास के सारे बच्चे नक़्शे भरने में थक जाते, वहीं क़ायनात मज़े-मज़े में सबके नक़्शे तैयार कर देती थीं।
सामाजिक विज्ञान की किताब में छपे चीनी यात्री फ़ाहियान – ह्वेनसांग की तस्वीरें देखकर आश्चर्य से भर जाया करती थीं। उसी समय फैसला कर लिया था कि बड़ी होकर यायावर बनेंगी। उस छोटे से शहर में किताबें ही उनकी दोस्त हुआ करती थी।

पढ़ने के शौक़ ने उन्हें लिखना भी सिखा दिया। छोटी उम्र से ही कहानियां लिखती रहीं। हिंदी और बंगला साहित्य ने भाषा को परिमार्जित किया तो किसी तरह उनकी कहानियां आकाशवाणी केंद्र, आगरा तक पहुंची। पहली सोलो यात्रा घर से आगरा (40 किमी) की तय की। 12वीं में आते-आते आकाशवाणी के ‛युवावाणी’ कार्यक्रम में नियमित कहानियां पढ़ने लगीं।

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एक कार्यक्रम को संबोधित करती कायनात।

स्नातक में हिंदी साहित्य का दामन थाम लिया, फिर स्नातकोत्तर और पीएचडी भी हो गई। इसके बाद नोएडा के ‛जागरण इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन’ से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। इसी बीच विवाह हो गया और एक आम लड़की जैसी ज़िन्दगी जीने लग गई, ऐसी ज़िंदगी जिसमें दुनिया पति के इर्दगिर्द घूमती है।

उस दौरान वह बड़े कॉर्पोरेट में जॉब भी कर रही थीं, लेकिन ख़ुद को खोजने के चलते अन्दर से खुश नहीं थीं। एक काबिल दोस्त ने सलाह दी, आत्म-मंथन करो, खुद से पूछो? किसमें ख़ुशी मिलती है? अभी यह मत सोचो की जो चाहती हो, वो कैसे होगा?

दो दिन की मशक्क़त के बाद जवाब मिला, फोटोग्राफी और घूमना पसंद है, यही काम है जो ख़ुशी देता है। पहुंच गई फोटोग्राफी सीखने ओपी शर्मा जी के चरणों में, इन्हीं को गुरू बना फोटोग्राफी सीखी।

वे अब तक अकेली महिला यात्री के तौर पर देश के 19 राज्यों को नाप चुकी हैं।

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लद्दाख में क़ायनात काज़ी।

भारत को अपने नज़रिये से देखने की उनकी यात्रा आज भी बदस्तूर जारी है। उत्तर में कश्मीर और लद्दाख से लेकर पश्चिम में गुजरात और पूर्व में मणिपुर, दक्षिण में तमिलनाडु, केरल और आंध्रप्रदेश तक घूमी हैं।

अपने बचपन को याद करती हुई वह कहती हैं, “उस दौर में हम लोग ट्रेन से लम्बी यात्राएं करते थे। अभी भी यात्राओं के लिए ट्रेन ही मेरा पसंदीदा माध्यम है, लेकिन कई बार समय के अभाव में लम्बी दूरी की यात्राएं हवाई जहाज़ से करती हूँ। भारत के अलावा नीदरलैंड, पेरिस और स्वीडन देखा है। एम्स्टर्डम बहुत पसंद है।”

वे एक बात को बड़ी ही ईमानदारी के साथ शेयर करती हैं। जब वे ट्रेवल करना शुरू कर ही रहीं थीं, तब सोचती थीं ट्रेवल के लिए बहुत सारे पैसे चाहिए होते होंगे, लेकिन उनकी नज़र में यह सच नहीं है।

 

अगर आप ट्रेवल करने का जुनून रखते हैं तो आपको रास्ते खुद-ब-खुद बुला लेते हैं।  

राजस्थान में यात्रा के दौरान क़ायनात।

डॉ. को इस सवाल का जवाब हिंदी साहित्य में मिला, जब उन्होंने राहुल सांकृत्यायन जी को पढ़ा। वे कोई रईस नहीं थे, फिर भी उन्होंने दूर देश की यात्राएं की। आप खुद से पूछिए, आपको क्या चाहिए? बहुत सारा सुख-संतोष? या बहुत सारे पैसे? अगर आपका जवाब पहला वाला है तो आपको ट्रेवल से बेहतर कोई दूसरा माध्यम नहीं मिल सकता सुखी होने का।

अपनी प्रेग्नेंसी के दौरान भी यात्राओं का सिलसिला जारी रखने वाली क़ायनात इसका श्रेय अपने पति को देती हैं, जिन्होंने इनमें साहस भरा और समझाया,“तुम प्रेग्नेंट हो, बीमार नहीं। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसको लेकर चिंतित होने की ज़रुरत नहीं, यह खुशी का अवसर है। तुम जितनी यात्रा करोगी, बच्चा उतना स्वस्थ होगा। तुम जंगल में नहीं, लोगों के बीच जा रही हो। कुछ भी प्रॉब्लम होगी तो रास्ते चलता इंसान तुम्हारी मदद को आगे आएगा।”

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अपनी हिमाचल यात्रा के दौरान क़ायनात।

इसी सोच से मिले संबल के चलते उन्होंने गोवा और कश्मीर की यात्राएं की। गोवा में उन्होंने बाइक टैक्सी का प्रयोग किया। कश्मीर में स्नो स्टॉर्म में फंस गई थीं, कश्मीरी लोगों ने बहुत संभलकर बर्फ की मोटी चादर पार करवाई।

क़ायनात पर्यटन को सबसे बेहतर मेडिटेशन मानती हैं। अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलकर देश-दुनिया को देखना ही उनके लिए पर्यटन है। उनकी सोच है कि यात्राएं आपके भीतर की नकारात्मक उर्जा को ख़त्म कर आपको सकारात्मक बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं। यात्राएं आपके भीतर के कृतज्ञता भाव को जगाती हैं, लोगों पर भरोसा करना सिखाती हैं, फलस्वरुप आप प्रकृति का सम्मान करना सीखते हैं।

 

यात्राएं हम सबको बहुत कुछ सिखलाती हैं, इसलिए यात्रा से बड़ी कोई यूनिवर्सिटी इस दुनिया में हो ही नहीं सकती। जो अनुभव यात्राओं के चलते मिले हों, उसे दुनिया की कोई डिग्री नहीं सीखा सकती।

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कारगिल में सेना के जवानों के साथ क़ायनात।

क़ायनात मानती हैं कि यह खुशी की बात है कि एक तरफ पर्यटन का बाज़ार बढ़ रहा है, लेकिन इसके विपरीत दुःख इस बात का भी है कि उसी अनुपात में हमारे यहां डेस्टिनेशन विकसित नहीं हो पा रहे हैं। कब तक हम घिसी-पिटी परिपाटी पर डोलते रहेंगे? कब तक गोल्डन ट्राइंगल बेचते रहेंगे? देश में रुटीन ट्रेवल डेस्टिनेशन्स से हटकर कुछ नई जगहें भी विकसित किए जाने की ज़रुरत है। उदाहरण के लिए छुट्टियों में, ख़ासकर पहाड़ों पर शिमला, मसूरी, नैनीताल की बुरी हालत हो जाती है। अब जरुरत है  इन जगहों का बोझ हल्का किया जाए, कुछ नई जगहों को आबाद किया जाए जिसकी वजह से उस क्षेत्र के व्यापार को भी बढ़ावा मिले।

क़ायनात बताती हैं, “भारतीय पर्यटन इंडस्ट्री के इस साल के आंकड़े देखें तो हमें ख़ुशी होती है। देश में इस साल 28 करोड़ 88 लाख 60 हज़ार 600 देशी-विदेशी पर्यटक आए, जो पिछले वर्ष की तुलना में 21.60% अधिक हैं।”

क़ायनात की मानें तो यदि आपको एक अच्छा राहगीर बनना है तो सबसे पहले आपको एक ग्रुप में ट्रेवल करना चाहिए। एक दिन ऐसा आता है, जब आपको यह एहसास होता है कि अब आपको ग्रुप में यात्रा नहीं करनी, तब आप सही अर्थों में सोलो ट्रेवल के क़ाबिल बनते हैं। एक बात हमेशा याद रखें, आज़ादी हमेशा ज़िम्मेदारी को साथ लेकर लाती है। जब आप अकेले यात्रा कर रहे होते हैं, आपकी और आपके सामान की पूरी ज़िम्मेदारी आपकी होती है। सही फैसले लें और उन फैसलों पर कायम रहकर खुद को सही साबित करें।

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नई दिल्ली में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए।

क़ायनात कहती हैं, “महिलाओं को सिर्फ साक्षर होने की ज़रुरत है, स्वावलम्बी तो वह खुद हो जाएंगी। अपनी बेटियों को अकेले यात्रा करना सिखाएं, उनमें इतना साहस आ जाएगा कि वे जीवनभर सर उठाकर जी सकेंगी। यह देवियों का देश है। हमें देश की महिलाओं में शक्ति का संचार करना होगा। पूरे देश में अकेली घूमती हूँ, मेरे साथ अब तक कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। इन यात्राओं का उद्देश्य ही यह साबित करना है कि देश की सड़कें महिलाओं के लिए भी उतनी ही सुरक्षित है, जितनी किसी भी बड़े देश की होती है।”

क़ायनात मात्र 3 साल में 1 लाख किलोमीटर की यात्रा करने वाली देश की पहली महिला यात्री हैं। उन्होंने बाकायदा किलोमीटर की लोग बुक बना रखी है। ‛उत्तरप्रदेश बुक ऑफ़ रिकॉर्ड’ ने इसके लिए भी उन्हें सम्मानित भी किया है। साथ ही एबीपी न्यूज ने सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉगर अवार्ड दिया है। वुमन अचीवर्स अवार्ड, युवा पत्रकार पुरस्कार, मीडिया एक्सीलेंस अवार्ड, इंटरनेशनल चैंबर ऑफ मीडिया एंड एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री द्वारा फोटोग्राफी में नेशनल अचीवमेंट अवार्ड भी उनके खाते में हैं। ‛जोश टॉक’ के माध्यम से भी उन्होंने अपनी बात कही है।

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‘जोश टॉक’ में अपनी बात कहते हुए।

वे ‛एसोसिएशन ऑफ डोमेस्टिक टूर ऑपरेटर्स ऑफ इंडिया’ और ‛इंडियन एसोसिएशन ऑफ टूर ऑपरेटर्स’ में ट्रेवल एक्सपर्ट के तौर पर आनरेरी मेम्बर भी हैं। ‛भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थानीय कला समिति में भी बाहरी विशेषज्ञ के तौर पर जुड़ी हैं।

यात्रा वृतांत पर लिखे उनके लेख ‘द बेटर इंडिया’, ‛दैनिक जागरण’ और ‛प्रभात ख़बर’ के राष्ट्रीय संस्करणों में नियमित छपते हैं।

‛कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज’ और कहानी संग्रह ‛बोगनवेलिया’ सहित उनकी 2 पुस्तकें प्रकाशित हुई है। ‛सुदामा चरित्र’ जो कि बृज भाषा में है (संपादित), शीघ्र ही आएगी।

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अपनी बुक लॉन्च के मौके पर डॉ. क़ायनात व अन्य।

यात्राओं से मिले सुखद अनुभव उन्हीं की जुबानी, ऐसा देश है मेरा…

◆ केरल के फोर्ट कोच्ची में घूमने के दौरान एक मित्र मिलने आए जो काउच सर्फिंग के माध्यम से जुड़े थे। ज़बरदस्ती अपने घर ले गए क्योंकि वे शुद्ध केरली खाना खिलाना चाहते थे।

◆ एक बार लेह लद्दाख में हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का शिकार भी हुई, ऑक्सीजन की कमी के कारण 2 दिनों तक अस्पताल में रही, ऑक्सीजन लगाई गई। अस्पताल में अकेली थी, देखभाल फ़ौज के एक जवान ने की, जिससे मेरा कोई नाता नहीं था।

◆ एक बार में मणिपुर में इमा मार्किट की तस्वीरें लेने निकल पड़ी पर रास्ता भटक गई। एक मणिपुरी लड़की से पता पूछा जिसके दोनों हाथों में भारी सामान था, उसने मुझे अपने पीछे आने को कहा। लगा कि वह उसी दिशा में जा रही होगी, इसलिए उसके पीछे चल दी। करीब 500 मीटर बाद उसने इमा मार्किट छोड़ा और पलटकर वापस उसी रास्ते पर जाने लगी तो अहसास हुआ की सिर्फ मुझे छोड़ने की खातिर वह यहां तक आई। उसे हिंदी और अंग्रेजी नहीं आती थी और मुझे मणिपुरी। मैंने उसे गले लगाकर आभार व्यक्त किया।

अंत में देश की हर लड़की के नाम उनका यही संदेश है कि अपने सपनों को पालो, खुद को इस लायक़ बनाओ कि उन्हें पूरा कर सको। मत सोचो कि कोई दूसरा तुम्हारे लिए खुशियां लेकर आएगा, यह सोचो कि तुम कितनों के होठों पर मुस्कान लाने में कामयाब हो सकती हो।

अगर आपको डॉ. क़ायनात की इस कहानी से प्रेरणा मिली है और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो 9810971518 पर बात कर सकते हैं। आप उनसे उनके फेसबुक पर भी जुड़ सकते हैं। उनकी वेबसाइट भी विजिट कर सकते हैं।

संपादन – भगवती लाल तेली


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इन पाँच शहरों में रहते हैं, तो ज़रूर जुड़िये इन स्वच्छता हीरोज़ से!

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हते हैं कि जैसे बूंद-बूंद करके सागर भरता है वैसे छोटे-छोटे पर लगाटर उठाये गए अच्छे कदम एक दिन बड़े बदलाव की वजह बनते हैं। ज़रूरत है तो बस लोगों के नज़रिए को बदलने की। गली-मोहल्लों, पार्क आदि में कूड़े-कचरे के ढेर नज़र आते ही हम अधिकारियों और कर्मचारियों को कोसने लगते हैं। बेशक, यह उनकी ज़िम्मेदारी है, पर क्या देश के नागरिक होने के नाते देश की स्वच्छता के प्रति हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं?

आज सबसे ज़्यादा आवश्यकता लोगों में इसी आत्म-विश्लेषण की है। जो लोग इस ज़िम्मेदारी को समझ रहे हैं, वे बिना समय गंवाए अपने स्तर पर बदलाव की कहानी लिख रहे हैं। आज द बेटर इंडिया पर जानिए ऐसे कुछ संगठनों के बारे में, जो देश के अलग-अलग कोनों में स्वच्छता पर काम कर रहे हैं। इन संगठनों के साथ जुड़कर स्कूल-कॉलेज के बच्चों से लेकर बूढ़े-बुजुर्ग तक, सभी उम्र के लोग अपना योगदान दे सकते हैं!

इको-संडे (Eco Sunday)

इको-संडे की टीम

इको-संडे, वॉलंटियर ग्रुप है, जो हर रविवार बंगलुरु में अलग-अलग जगहों पर स्वच्छता ड्राइव करते हैं। इसे शुरू किया न्यू हॉरिजन कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग के दो सेकंड ईयर स्टूडेंट्स, 18 वर्षीय जेरोम रोबिन और 19 वर्षीय करतिन कनन ने। क्लाइमेट चेंज और बढ़ते प्रदूषण के मुद्दे पर हमेशा से सजग रहने वाले रोबिन और कनन ने लगभग 3 महीने पहले तय किया कि वे इस समस्या पर सिर्फ़ बात करने की बजाय कोई ठोस कदम उठाएंगे।

बस वहीं से शुरुआत हुई इको-संडे की। कभी सिर्फ़ 6 लोगों के साथ शुरू हुई उनकी इस पहल से हर रविवार नए लोग जुड़ रहे हैं। सोशल मीडिया पर तो उनके फॉलोअर्स लगातार बढ़ ही रहे हैं और उनके ग्रुप में भी ड्राइव के लिए हर बार 15 के करीब स्वयंसेवक जुड़ जाते हैं।

करतिन कहते हैं, “यह अभियान न सिर्फ़ स्वच्छता के उद्देश्य को पूरा कर रहा है पर बहुत से अंजान लोगों को आपस में जोड़ भी रहा है। जब वे ड्राइव के लिए आते हैं तो अजनबी होते हैं पर जब हम वापस जाते हैं तो सभी दोस्त होते हैं।”

ये सभी लोग हर रविवार बंगलुरु की अलग-अलग जगह जैसे कबोन पार्क, लालबाघ आदि की सफाई के लिए जुटते हैं। अब तक वे 12 स्वच्छता ड्राइव कर चुके हैं। लोगों के लिए अपने संदेश में वे कहते हैं, “करोड़ों बूदों से मिलकर समुद्र बन जाता है तो अगर हम लाखों लोग यक़ीनन एक-दूसरे के सहयोग से बदलाव ला सकते हैं। हमने ख़ुशी होगी अगर इको संडे से ज़्यादा से ज़्यादा लोग जुड़ें, पर अगर आप यह नहीं कर सकते तो अपने स्तर पर काम कीजिये। कचरे को अपने पीछे छोड़ने की बजाय, उसे वहां पहुंचाइये जहाँ उसकी जगह है।”

कोई भी बंगलुरु निवासी इनके इंस्टाग्राम पेज पर जाकर हर रविवार होने वाली इनकी गतिविधियाँ देख सकता है और साथ ही, इनसे जुड़ कर वॉलंटियरिंग कर सकता है।

क्लीन स्क्वाड प्रोजेक्ट (Clean Squad Project)

जगह-जगह जाकर स्वयंसेवक समूह साफ़-सफाई करते हैं

स्वच्छ भारत की दिशा में शुरू किया गया यह प्रोजेक्ट, भूमि नामक संगठन की एक पहल है। यह प्रोजेक्ट स्वयंसेवकों द्वारा चलाया जा रहा है। ये सभी लोग, हर शनिवार-रविवार इकट्ठा होकर अलग-अलग सार्वजनिक जगहों पर साफ़-सफाई करते हैं। साथ ही, लोगों को भी अपने देश को साफ़ रखने के लिए जागरुक करते हैं।

फ़िलहाल यह प्रोजेक्ट, बंगलुरु, चेन्नई और नई दिल्ली में चल रहा है। इसलिए इन शहरों के निवासी कभी भी इस प्रोजेक्ट में वॉलंटियर करके स्वच्छता में अपने भागीदारी दर्ज करा सकते हैं। इस संगठन से जुड़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

दृष्टि फाउंडेशन- स्वच्छ साबरमती

साभार: दृष्टि फाउंडेशन

दृष्टि फाउंडेशन के संस्थापक दिनेश गौतम का उद्देश्य अहमदाबाद की साबरमती नदी को फिर से स्वच्छ और निर्मल बनाना है। इस काम के लिए उन्हें उनकी बेटी से प्रेरणा मिली। द बेटर इंडिया से उन्होंने बताया कि कैसे उनकी बेटी ने साबरमती को देखकर कहा था, “कितनी गंदी है” और इस एक कटाक्ष ने दिनेश को कुछ करने के लिए प्रेरित किया।

अक्टूबर, 2018 में उन्होंने स्वच्छता अभियान शुरू किया था और अब उनके इस अभियान में बहुत से स्थानीय लोग जुड़ चुके हैं। हर सप्ताह सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक, स्वयंसेवकों के साथ मिलकर साबरमती की सफाई करते हैं। दिनेश कहते हैं कि स्वच्छता कोई राकेट साइंस नहीं है। इसके लिए बस अधिकारियों और सभी नागरिकों को साथ मिलकर काम करना होगा।

यदि आप अमदावादी हैं तो साबरमती को सफाई के लिए वॉलंटियर बन सकते हैं। अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें!

वी मीन टू क्लीन (We Mean To Clean)

दो साल पहले दिल्ली के कीर्ति नगर स्लम के डंपयार्ड की तस्वीर बदल दी इस एक अभियान ने (साभार)

साल 2014 से दिल्ली के हर एक कोने के स्वच्छता अभियान में जुटे इस संगठन की शुरुआत दो एमएनसी प्रोफेशनल स्वाति भल्ला और मनीष खुराना ने की। यह संगठन भी स्वयंसेवकों की मदद से ही अच्छे से काम कर रहा है, बस इनका तरीका जरा अलग है।

सबसे पहले, यह ग्रुप दिल्ली और एनसीआर के ऐसे क्षेत्र का मुआयना करते हैं, जहां पर स्वच्छता ड्राइव की ज़रूरत है। फिर ये लोग शहर के अधिकारियों की मदद से उस वार्ड या क्षेत्र के काउंसलर से संपर्क करते हैं। फिर वार्ड काउंसलर और इलाके के लोगों की मदद से जुट जाते हैं अपने सफाई अभियान में।

यदि आप दिल्ली निवासी हैं और इस नेक काम में अपना योगदान देना चाहते हैं तो इनके स्वच्छता ड्राइव्स से जुड़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!

बीच प्लीज (Beach Please)

‘बीच प्लीज’ टीम (साभार)

साल 2017 में अपने दोस्तों के साथ मिलकर मुंबई में दादर के रहने वाले मल्हार ने दादर बीच की सफाई का अभियान शुरू किया था। आज उनके इस अभियान से 20 हज़ार से भी ज़्यादा मुंबईकर जुड़ चुके हैं। बच्चों से लेकर बूढों तक, सभी उम्र के लोग बीच की साफ़-सफाई के लिए आगे आ रहे हैं।

21 वर्षीय मल्हार ने कहा कि अपने शहर को अच्छा या बुरा बनाने की ताकत हम में ही होती है। हम हमेशा सरकारी अधिकारियों को ही दोष नहीं दे सकते हैं। गणेश विसर्जन के दौरान मैंने देखा कि कैसे लोग बिना सोचे पानी के स्त्रोत को बर्बाद कर रहे हैं। मैं एक बदलाव लाना चाहता था और इस तरह से ‘बीच प्लीज’ शुरू हुआ।

यदि आप भी मुंबई को साफ़, स्वच्छ और स्वस्थ देखना चाहते हैं तो उनके इस अभियान में वॉलंटियरिंग करके अपना योदान दे सकते हैं। उनसे जुड़ने के लिए 9167660403 पर कॉल करें!

संपादन – भगवती लाल तेली


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सरकारी अस्पताल में हुआ शॉर्ट सर्किट, नर्स की सूझ-बूझ से बची नौ नवजात शिशुओं की जान!

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क्सर हम सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं की कमी और वहां के स्टाफ के लापरवाह व्यवहार की आलोचना करते हैं। लेकिन आज हमारे पास ऐसी एक कहानी है जो सरकारी अस्पतालों के बारे में आपके नज़रिए को थोड़ा बदल देगी। क्योंकि जब हम कमियाँ गिनाने से पीछे नहीं रहते तो कुछ अच्छा काम होने पर हौसला-अफजाई से भी पीछे नहीं रहना चाहिए।

हाल ही में, नागपुर के इंदिरा गाँधी सरकारी कॉलेज और अस्पताल में कार्यरत स्टाफ नर्स, सविता इखर ने नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट (NICU) में अकेले नौ प्री-मैच्योर बच्चों (4 लड़के और 5 लड़कियाँ) की जान बचायी।

31 अगस्त 2019 को सविता NICU के पोस्ट-बर्थ यूनिट से बाहर आ रही थीं, जब उन्होंने एक इलेक्ट्रिक स्पार्क देखा और इससे पहले कि वे कुछ प्रतिक्रिया कर पातीं, शॉर्ट सर्किट हो गया। “मैं उस वक़्त बिल्कुल अकेली थी वहां पर और कोई आस-पास नहीं था। मुझे सबसे पहले वार्ड में बच्चों का ख्याल आया जिनके पास उनके माता-पिता या रिश्तेदार कोई नहीं था। बिना समय गंवाएं मैं तुरंत वार्ड में पहुंची और मैंने नौ में से चार बच्चों को उठा लिया,” सविता ने बताया।

 

उन्होंने आगे कहा कि, “माता-पिता राज्य के अलग-अलग भागों से आते हैं, इसलिए वे अस्पताल के पास ही कहीं न कहीं रुकने के लिए जगह ले लेते हैं।

आईसीयु में इन्फेक्शन से बचने के लिए माता-पिता को अंदर जाने की इजाज़त नहीं होती है। एक बच्चे ने तो जन्म के समय ही अपनी माँ को खो दिया और उसके पास अब कोई रिश्तेदार ही है।”

सूझ-बुझ का परिचय देते हुए सविता ने सबसे पहले सारे ऑक्सीजन सिलिंडर को बंद कर दिया था। अगर वो ऐसा न करती तो परिणाम और भी भयानक हो सकता था। इसके अलावा, उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि बच्चों के नाम के टैग सही तरह से लगें ताकि बाद में कोई परेशानी न हो।

एक बार जब सविता ने बच्चों को सुरक्षित बाहर निकाल दिया तो एक और नर्स उनकी मदद के लिए आ गयीं। “हमने पहले चार बच्चों को एक कमरे में छोड़ा जहाँ वे सुरक्षित थे और इसके बाद मैं बाकी पांच को लेने गयी। उनको ऑक्सीजन मास्क लगे हुए थे,” सविता ने कहा।

अपने मोबाइल फ़ोन की टोर्च लाइट की मदद से वे आईसीयु तक पहुंची और दूसरे बच्चों को भी बचाया।

प्रतीकात्मक तस्वीर साभार: Graham Crouch/UNICEF

ये सभी बच्चे प्री-मैच्योर थे और इसलिये इन्हें ऑक्सीजन मास्क, आइवी ड्रिप आदि लगी हुई थी। सविता ने बच्चों को सुरक्षित जगह पहुंचा कर, फिर से उन्हें ऑक्सीजन मास्क और ड्रिप लगाये। उन्होंने सबसे पहले उस बच्चे को देखा जिसे सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन की ज़रूरत थी और फिर दूसरों को चेक किया। इन बच्चों की उम्र चंद घंटों से लेकर पंद्रह दिनों के बीच है। किसी भी बच्चे का वजन डेढ़ किलो से ज़्यादा नहीं था।

सविता ने फिर बच्चों के माता-पिता और रिश्तेदारों को बुलाकर घटना की जानकारी दी। अस्पताल के डीन डॉ. अजय केओलिया ने बताया कि सिर्फ शॉर्ट सर्किट हुआ था पर कोई आग नहीं लगी। उन्होंने कहा, “पूरे अस्पताल और स्टाफ को सविता की सूझ-बूझ पर गर्व है।”

इन बच्चों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सविता की नौकरी का हिस्सा है और उन्होंने ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई। हम उनके इस जज़्बे को सलाम करते हैं और उम्मीद करते हैं कि हम सभी अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए हमेशा ऐसे ही तत्पर रहें।

संपादन – मानबी कटोच 


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केवल खाने और कपड़ों का ही नहीं, सड़क पर पड़े भिखारियों की सफाई का भी ख्याल रखता है यह युवक!

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भोपाल के अयान खान से मिलने के बाद आपको इस पर यकीन हो जाएगा कि मदद करने वाले कैसे भी मदद कर लेते हैं। वे इस बात का इंतज़ार नहीं करते कि मैं यह कैसे कर पाउँगा या यह मुझसे कैसे होगा या फिर किसी की मदद के लिए ज्यादा पैसे चाहिए होते होंगे, लेकिन अयान ने इन सब चीज़ों का ख्याल किए बिना अपना जीवन बेसहारा लोगों की सेवा में लगा दिया।

अयान पिछले कई सालों से जरूरतमंद और बेसहारा लोगों की मदद करके मानवता का धर्म निभा रहे हैं। उन्हें यदि सोशल वर्क का ऑलराउंडर कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इंसान से लेकर बेजुबान तक, अयान के दिल में सबके लिए जगह है।

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अयान खान।

इस बार भोपाल में बारिश ने कई रिकॉर्ड तोड़े, साधन-संपन्न लोगों ने तो बारिश का जमकर लुत्फ़ उठाया लेकिन उनके लिए यह ‘राहत’ ‘आफत’ बन गई, जिनके पास सिर छिपाने तक के लिए जगह नहीं है। ऐसे में अयान ने उनकी ‘आफत’ को कुछ हद तक कम करने का प्रयास किया। उन्होंने गरीबों में रेनकोट बांटे। पेशे से कांट्रेक्टर अयान मौसम और ज़रुरत के हिसाब से बेसहारा लोगों की मदद करते हैं। जैसे सर्दियों में वह गर्म कपड़े बांटते हैं और गर्मियों में चप्पल ताकि अंगारों सी दहकती सड़कों पर किसी को नंगे पैर न चलना पड़े।

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लोगों को ओढ़ने के लिए देकर जीवन को बेहतर बनाने की एक कोशिश।

अयान ने केवल कपड़े आदि बांटने तक ही खुद को सीमित नहीं रखा है, उनके सामाजिक सरोकार का दायरा बेहद विस्तृत है। वह उन लोगों के लिए भी हरदम तैयार रहते हैं, जिनके पास जाना तक किसी को गंवारा नहीं। उदाहरण के तौर पर सड़क किनारे मटमैले और बदबूदार कपड़ों में बैठा व्यक्ति, जिसे देखकर ऐसा लग रहा है कि वो कई महीनों से नहाया तक नहीं। क्या आप उसकी मदद करेंगे? आपका फैसला चाहे जो हो, लेकिन अयान का जवाब हमेशा ‘हाँ’ होता है। वह ऐसे दर्जनों लोगों को नया रूप दे चुके हैं।

इस बारे में अयान कहते हैं, “बीमारियां गंदगी से जन्म लेती हैं, इसलिए मेरी कोशिश रहती है कि सड़क किनारे बैठने वाले भिखारी भी साफ़-सुथरे रहें। क्योंकि बीमार होने पर हमें इलाज मिल जाएगा, लेकिन शायद उन्हें न मिले। कुछ वक़्त पहले मुझे एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानकारी मिली थी, जिसके बाल गंदगी के चलते जुड़ गए थे और उनमें जुएँ हो गई थी। उसके पास दो मिनट खड़े होना भी मुश्किल था, वो जहाँ भी जाता, लोग भगा देते। मैंने सबसे पहले उसके बाल काटे, नहलाया और साफ़ कपड़े दिए।”

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बेसहारा व्यक्ति के बाल काटते अयान।

अयान कई ऐसे घायल लोगों का भी इलाज कर चुके हैं, जिनके लिए खुद अस्पताल जाना संभव नहीं था। वैसे तो अयान खान को बचपन से ही दूसरों के लिए कुछ करना अच्छा लगता था, लेकिन ‘परिवार के हीरो’ से ‘शहर के हीरो’ बनने की शुरुआत कुछ साल पहले तब हुई जब ठिठुरती रात में वह किसी काम के सिलसिले में बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने देखा कि फुटपाथ पर कुछ लोग बिना किसी गर्म कपड़े के बैठे हैं, वह तुरंत वापस गए और रजाई सहित गर्म कपड़े लाकर उन्हें दे दिए।

अयान कहते हैं, “मैं यह देखकर हिल गया कि जब मुझे जैकेट में इतनी सर्दी लग रही है तो उनका क्या हाल हो रहा होगा। इस वाकये के बाद से मैं लगातार सर्दियों में वूलन, गर्मियों में चप्पल और बरसात में रेनकोट आदि बांटता आ रहा हूँ।”

 

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बच्चे को रेनकोट पहनाते अयान।

गरीब-भिखारियों को साफ़-सुथरा रखने की उनकी शुरुआत एक घटना से हुई। एक दिन गरीबों को कपड़े बांटते-बांटते उनकी नज़र एक ऐसे शख्स पर गई जो सबसे दूर अकेले बैठे थे। जब वे उनके पास गए तो समझ आया कि बाकी लोग उनसे दूर क्यों हैं। उनके पैर में घाव था, शरीर से बदबू आ रही थी। अयान ने उनसे पूछा कि आपके बाल काट दूं, तो वह झट से तैयार हो गए। अयान ने उनका सिर शेव किया, घाव पर दवा लगाई और साफ़ कपड़े दिए। बस तभी से ये सिलसिला आज तक चलता आ रहा है।

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बेसहारा व्यक्ति का इलाज करते अयान।

इंसानों के साथ-साथ अयान बेजुबानों के भी हीरो हैं। वह अब तक अनगिनत जानवरों की जिंदगी बचा चुके हैं। जिसमें आवारा कुत्तों, गायों से लेकर सूअर तक शामिल हैं। अयान मुस्लिम समुदाय से आते हैं, जिसमें ‘सूअर’ जैसे पशुओं को नापाक माना जाता है। लिहाजा उनके लिए एक अलग राह पर चलना बिल्कुल भी आसान नहीं था।

इस बारे में वह कहते हैं, “जब आप समाज की सोच के विपरीत कुछ करते हैं, तो परेशानियां आती हैं फिर भले ही आपका इरादा कितना भी नेक क्यों न हो। हालांकि, मेरी कोशिश रहती है कि मैं लोगों को समझा सकूँ कि हर धर्म बेजुबानों पर दया की सीख देता है। इसलिए मैं जो कुछ कर रहा हूँ उसे किसी भी नज़रिए से गलत नहीं कहा जा सकता।”

अयान ऐसी दर्जनों गायों को भी ठीक कर चुके हैं, जो इलाज के अभाव में शायद दम तोड़ देतीं। गायों का मुद्दा पिछले कुछ समय से काफी संवेदनशील बन गया है, तो क्या कभी डर नहीं लगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘देखिये सच कहूँ तो डर लगता है, पर मैं डर के चलते किसी बेजुबान को तड़पते नहीं छोड़ सकता।’

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बेजुबान जीवों की सेवा करते अयान।

अयान ने पूरे भोपाल में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। इंसान से लेकर बेजुबान तक यदि किसी को मदद की दरकार होती है, तो सबसे पहला कॉल अयान को ही जाता है। दिन भर में उन्हें एनिमल इमरजेंसी से जुड़े 4-5 कॉल आ ही जाते हैं। अयान एयरपोर्ट रोड इलाके में रहते हैं, जो कि मुख्य शहर से काफी दूर है। ऐसे में काम के साथ-साथ समाज सेवा के लिए वक़्त निकालना उनके लिए मुश्किल भी होता है। एयरपोर्ट रोड से कोलार रोड यानी शहर के अनार का हिस्सा, की दूरी करीब 18 किलोमीटर है ऐसे में कभी-कभी उन्हें दिन में 3-4 चक्कर तक लगाने पड़ जाते हैं। काम के साथ-साथ मुश्किल होती है, लेकिन उनके लिए दोनों ही ज़रुरी है इसलिए मैनेज हो जाता है।

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बीमार की सहायता करते अयान।

जानवरों के इलाज से लेकर गरीब-बेसहारा लोगों की मदद तक का खर्चा अयान खुद ही उठाते हैं। वह अपनी कमाई का एक हिस्सा सोशल वर्क के लिए अलग से निकाल देते हैं फिर ज़रूरत के हिसाब से उन्हें खर्च करते रहते हैं। अयान खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्हें अपने इस अभियान में परिवार वालों का साथ मिला।

वह कहते हैं, “मेरे घरवालों ने कभी मुझे दूसरों की मदद करने से नहीं रोका, फिर चाहे वह बेजुबान जानवर हो या इंसान। हाँ, उनकी एक शिकायत हमेशा रहती है कि मैं उन्हें पर्याप्त समय नहीं दे पाता।”

अयान को अपने नेक कार्यों के लिए कई बार सम्मानित भी किया जा चुका है। वाकई अयान जैसे लोग हम सबके लिए एक मिसाल है। जिन गरीब, बेसहारा लोगों को देखने के बाद भी हम उनकी मदद नहीं कर पाते हैं ऐसे में अयान का इस तरह सेवा भाव से काम करना किसी प्रेरणा से कम नहीं है।

यदि आप अयान खान के इस अभियान का हिस्सा बनना चाहते हैं तो उनसे 9753360151 पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – भगवती लाल तेली 


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डॉ. के. सिवन: जानिए कैसे बन गया एक गरीब किसान का बेटा ‘इसरो का रॉकेट मैन’!

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देश का अहम मिशन, चंद्रयान-2 भले ही कुछ किमी की दूरी से सफलता को चूक गया हो, लेकिन पहली ही बार में सैटेलाइट को चाँद के इतने करीब पहुँचा कर, ISRO ने इतिहास रचा है। ISRO के वैज्ञानिकों की टीम की पूरी दुनिया में सराहना हो रही है और साथ ही इसरो के चेयरमैन, डॉ. के. सिवन के लिए भी दुनिया भर से शुभकामनाएं आ रही हैं।

तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के एक साधारण-से किसान के बेटे, और अब देश के सबसे बड़े स्पेस इंस्टिट्यूट, ISRO के चेयरमैन, डॉ. के. सिवन का सफ़र किसी प्रेरणा से कम नहीं है।

कन्याकुमारी के सराकल्लविलाई गाँव में खेतिहर किसान कैलाशवडीवू के घर 14 अप्रैल, 1957 को सिवन का जन्म हुआ। स्कूल की पढ़ाई तमिल माध्यम से सरकारी स्कूल में की। उनके घर में आर्थिक तंगी इतनी थी कि कॉलेज जाने तक सिवन के पास पहनने के लिए जूते-चप्पल भी नहीं थे। यहाँ तक कि उन्होंने पहली बार पैंट भी तब पहनी जब वे MIT गए। ग्रेजुएशन करते हुए कॉलेज में भी वे धोती पहनकर जाते थे।

डॉ. के. सिवन (विकिपीडिया)

पर इन सब परेशानियों को उन्होंने कभी भी अपने लक्ष्य के बीच नहीं आने दिया। नगरकोइल के एसटी हिंदू कॉलेज से बीएससी (गणित) की पढ़ाई करने वाले सिवन ने 100% अंकों से ग्रेजुएशन पास की। अपने पूरे परिवार में ग्रेजुएशन करने वाले वे पहले व्यक्ति थे।

एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बताया, “मुझे जो नहीं मिला, उसे लेकर मैं परेशान नहीं होता था। बल्कि जो कुछ भी मुझे मिला, मैंने उसी में बेहतर से बेहतर किया।”

“उस वक़्त गाँव में बहुत ही दिलचस्प ज़िन्दगी थी। स्कूल के अलावा, हमें खेतों पर भी काम करने जाना पड़ता था। मेरे पिता किसान थे। गर्मियों में वे आम का व्यवसाय भी करते थे। छुट्टियों में अपने पिता की मदद करने के लिए हम आम के बागानों में चले जाया करते थे । मैं उनकी मदद के लिए होता था तो उन्हें अलग से मज़दूर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी,” उन्होंने आगे बताया

इसलिए उनके पिता ने उनका दाखिला भी घर के पास के ही एक कॉलेज में करवाया। ताकि सिवन खेती में उनकी मदद कर सकें। लेकिन सिवन हमेशा अपने माता-पिता को धन्यवाद करते हैं कि कम से कम वे उन्हें दो वक़्त का खाना खिलाने में तो सक्षम थे।

सिवन हमेशा से इंजीनियरिंग करना चाहते थे पर घर के हालातों के चलते बीएससी ही कर पाए। लेकिन जब उन्होंने ग्रेजुएशन में 100% अंक हासिल किये तो उनके पिता ने खुद आगे बढ़कर उन्हें कहा, “एक बार मैंने तुम्हे वो करने से रोका जो तुम करना चाहते थे, पर इस बार मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। मैं तुम्हारी इंजीनियरिंग के पढ़ाई के लिए अपनी ज़मीन बेच दूंगा।”

साल 1980 में उन्होंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआइटी) से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की। इसके बाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज (आइआइएससी) से इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री हासिल की और 2006 में उन्होंने आइआइटी बॉम्बे से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

हालांकि, यह सब इतना आसान नहीं था। वे बताते हैं कि इंजीनियरिंग करने के बाद भी उन्हें नौकरी के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में जॉब मिलना आसान नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद वे सैटेलाइट सेंटर ज्वाइन करना चाहते थे, पर उन्हें विक्रम साराभाई सेंटर में जॉब मिली। यहाँ पर भी वे जिस ग्रुप में काम करना चाहते थे, वह न मिलकर उन्हें दूसरा ग्रुप मिला।

इस तरह से, उन्होंने जो चाहा वह कभी उन्हें नहीं मिला। पर इस बात से मायूस होने की बजाय सिवन ने इस बात पर ध्यान लगाया कि जो भी प्रोजेक्ट उनके हाथ में है वे उसमें अपना बेस्ट दें।

प्रतीकात्मक तस्वीर: इसरो वेबसाइट

साल 1982 में उन्होंने ISRO के साथ अपना सफ़र शुरू किया। यहां उन्होंने लगभग हर रॉकेट कार्यक्रम में काम किया। इसरो के अध्यक्ष का पद्भार संभालने से पहले वह विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (वीएसएससी) के निदेशक थे, जो रॉकेट बनाता है। उन्हें साइक्रोजेनिक इंजन, पीएसएलवी, जीएसएलवी और रियूसेबल लॉन्च व्हीकल कार्यक्रमों में योगदान देने के कारण ‘इसरो का रॉकेटमैन’ कहा जाता है।

साल 2017 में भारत के पीएसएलवी की एक ही उड़ान में 104 सैटेलाइट्स को लॉन्च करने के मिशन में भी उनकी अहम भूमिका रही। यह इसरो का विश्व रिकॉर्ड भी है। 15 जुलाई, 2019 को जब चंद्रयान-2 अपने मिशन के लिए उड़ान भरने ही वाला था कि कुछ घंटों पहले तकनीकी कारणों से इसे रोकना पड़ा।

इसके बाद सिवन ने एक ख़ास टीम बनाई, ताकि दिक्कत का पता लगाया जा सके और इसे 24 घंटे के अंदर ठीक कर दिया। सात दिनों बाद चंद्रयान-2 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया।

सिवन को अब तक कई सम्मानों से भी नवाज़ा जा चूका है, जिनमें सत्यभामा यूनिवर्सिटी से मिली डॉक्ट्रेट की उपाधि और श्रीहरी ओम आश्रम प्रेरित डॉ. विक्रम साराभाई रिसर्च अवॉर्ड भी शामिल हैं।

डॉ. के. सिवन का इसरो तक का सफ़र, हर उस भारतीय के लिए उम्मीद है जो सोचता है कि गांवों में रहने वाले गरीबों के बड़े सपने पूरे नहीं हो सकते हैं। आपको बस ज़रूरत है तो दृढ़ निश्चय और कड़ी मेहनत की। देश के इस अनमोल रत्न को द बेटर इंडिया का सलाम!

संपादन – मानबी कटोच 


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वह गुमनाम हीरो, जिसकी बनाई कम्पनी से पहुँचते हैं ISRO को उपकरण!

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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने देश के लिए जो उल्लेखनीय काम किए हैं वे वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं। ISRO मिशन को संभव बनाने वाले प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के अलावा कुछ लोग और संगठन ऐसे भी हैं जिन्होंने बाहर रहकर ISRO को आसमान में पहुँचाने में मदद की है।

ऐसा ही एक गुमनाम प्रतिष्ठान महाराष्ट्र स्थित वालचंदनगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड (WIL) है, जिसने 1973 के बाद से अब तक विभिन्न अंतरिक्ष अभियानों के लिए ISRO को महत्वपूर्ण उपकरण दिए हैं। 22 अक्टूबर 2008 को लॉन्च किए गए चंद्रयान1 से लेकर चंद्रयान 2 के रॉकेट ‘बाहुबली’ तक के लिए, WIL ने देश के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रमों को एक तरह से ईंधन देने का काम किया है।

अटकलें तो यहाँ तक भी हैं कि 2022 में भारत के पहले मानवयुक्त अंतरिक्ष अभियान गगनयान में भी WIL महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

Mars_Orbiter_Mission_-_India_-_ArtistsConcept (Source: Wikimedia Commons)
मंगलयान मिशन का कम्प्यूटर आधारित चित्र। (Source: Wikimedia Commons)

संस्थापक और उद्यमी वालचंद हीराचंद दोशी के बिना WIL की कल्पना मुश्किल थी, जिन्हें ‘आधुनिक भारतीय परिवहन के जनक’ के रूप में जाना जाता है।

23 नवंबर 1882 को महाराष्ट्र के शोलापुर में एक गुजराती जैन परिवार में जन्मे वालचंद ने WIL की 1908 में स्थापना से पहले परिवार के बैंकिंग और कपास के व्यापार में अपना करियर शुरू किया। इसके बाद, उन्होंने निर्माण व्यवसाय में भी बड़ी भूमिका निभाई, जिसमें मुंबई-पुणे मार्ग के लिए भोर घाटों के माध्यम से रेलवे सुरंगों का निर्माण और उन पाइपों को बिछाना, जो ठाणे जिले में तानसा झील से मुंबई तक पानी लाते थे।

1919 में प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद, उन्होंने अपने दोस्तों नरोत्तम मोरर्जी और किलाचंद देवचंद के साथ ग्वालियर के सिंधिया से एसएस लॉयल्टी स्टीमर जहाज खरीदा।

 

5 अप्रैल 1919 को, जहाज ने मुंबई से लंदन तक की अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा की। इस दिन को भारत में ‘राष्ट्रीय समुद्री दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह यात्रा भारत के नौवहन इतिहास के लिए एक महत्वपूर्ण पहल थी। 

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एसएस लॉयल्टी स्टीमर जहाज।

ऐसे समय में जब समुद्री मार्गों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण था, शिपिंग व्यवसाय में वालचंद ने बहुत अधिक गुंजाइश देखी, विशेष रूप से प्रथम विश्व युद्ध के अंत के बाद। ब्रिटिश कंपनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना और विश्व युध्द के समय अपने उद्यम को जीवित रखना मुश्किल काम था, इसके बावजूद वह अपने उद्यम को सफल बनाने की अपनी इच्छा पर अडिग रहे।

“कंपनी को सही अर्थों में पहली स्वदेशी शिपिंग कंपनी के रूप में मान्यता दी गई थी। महात्मा गांधी के ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडिया’ कॉलम में इसे स्वदेशी आंदोलन, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और असहयोग आंदोलन के रूप से संदर्भित किया था

वे इस कम्पनी में 1929 से 1950 तक अध्यक्ष रहे और स्वास्थ्य कारणों के चलते उन्होंने रिटायरमेंट ले लिया। हालांकि, तीन साल बाद, कंपनी ने 21% भारतीय तटीय यातायात पर कब्जा कर लिया था।

इससे पूर्व उन्होंने 1940 में विशाखापटनम में सिंधिया शिपयार्ड (हिंदुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड) की स्थापना करने की सोची, जो आजादी के बाद 1948 में देश के पहले जहाज ‘जल उषा’ का निर्माण करने की योजना पर आधारित थी।

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वालचंद हीराचंद। (Source: Twitter/Indianhistorypics)

उन्होंने उसी वर्ष बेंगलुरु में हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट (जिसे अब हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड कहा जाता है) भी शुरू किया और पांच साल बाद मुंबई में प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स की स्थापना की, जो पहली स्वदेशी ऑटोमोबाइल विनिर्माण कंपनी थी, जिसने 1949 से दिग्गज प्रीमियर पद्मिनी सेडान का उत्पादन किया था।

वालचंद भले ही वे एक व्यवसायी थे, जो निर्माण और बुनियादी ढाँचे के निर्माण में लगे हुए थे, लेकिन वालचंद स्वतंत्रता संग्राम से भी गहरे जुड़े थे। वह कांग्रेस के शुरुआती समर्थकों में से एक थे, जिन्होंने 1927 में एनी बेसेंट और एमआर जयकर के साथ स्थापित फ्री प्रेस ऑफ इंडिया को वित्तीय मदद दी थी। उन्होंने 1931 में महात्मा गांधी की रिहाई के लिए याचिका भी दायर की।

हालांकि, पेशे की प्रकृति के कारण, उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों के साथ अच्छे संबंध भी बनाए रखने पड़े और ऐसा करने में वे ज्यादातर सफल रहे। 1950 में रिटायरमेंट के तीन साल बाद ही 8 अप्रैल, 1953 को गुजरात के सिद्धपुर शहर में उनका निधन हुआ।

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पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ वालचंद हीरचंद।

“प्रत्येक उद्यमी जिसने अपने करियर में बाधाओं को दूर किया है, वह सेठ वालचंद हीराचंद का उत्तराधिकारी है। हीराचंद हर परिस्थिति में अच्छे से ढल जाते थे, वे इनोवेटिव थे। वे चुनौतियां लेने से कभी नहीं डरते थे। इसी उद्यमशीलता ने उन्हें शिपिंग, एविएशन और ऑटोमोबाइल्स में देश में ‘फादर ऑफ ट्रांसपोर्टेशन’ का खिताब दिलाया।” इंडिया टुडे प्रोफाइल के अनुसार।

भारत की कुछ सबसे बड़ी राष्ट्र निर्माण परियोजनाओं में वालचंद का योगदान यह था कि पश्चिमी महाराष्ट्र के एक गाँव का नाम उनके नाम पर रखा गया है। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार, वालचंदनगर गाँव की 15 हज़ार की आबादी में से 1400 कर्मचारी WIL के हैं और वहां का टर्न ओवर 400 करोड़ रुपए है।

पूर्व प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उनके योगदान को देखते हुए कहा था, “वालचंद हीराचंद एक सपने देखने वाले, दूरदर्शी, एक महान बिल्डर और उद्योग के एक महान लीडर थे। सबसे बढ़कर, वह एक  देशभक्त भी थे। वे स्वतंत्रता के लिए हमारे संघर्ष के एक प्रेरक नेता थे। मैं उनकी स्मृति को सलाम करता हूँ।”

 

मूल लेख – रिनचेन नोरबू वांगचुक 

संपादन – भगवती लाल तेली 

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तेज़ बुखार में दी UPSC की परीक्षा और पहली ही बार में हासिल की 9वीं रैंक!

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साल 2018 बैच की IAS अफ़सर, सौम्या शर्मा की कहानी, ऐसे बहुत-से प्रतिभागियों के लिए प्रेरणा है जो अक्सर मुश्किल की घड़ी में अपने लक्ष्य से पीछे हट जाते हैं। सौम्या बचपन से ही बहुत होनहार और प्रतिभाशाली छात्रा रहीं, लेकिन उनके लिए जीवन आसान नहीं रहा।

सौम्या अपने स्कूल में थीं, जब उनकी सुनने की क्षमता बिल्कुल ही चली गई, लेकिन फिर भी UPSC की परीक्षा में उन्होंने आरक्षण का कोई फायदा नहीं उठाया। बल्कि सामान्य वर्ग में परीक्षा देकर पहले ही प्रयास में पास कर ली और वह भी 9वीं ऑल इंडिया रैंक के साथ।

हालांकि, दिल्ली में पली-बढ़ी सौम्या ने कभी भी नहीं सोचा था कि वे एक दिन IAS अफ़सर बनेंगी। दे बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, “मेरे माता-पिता डॉक्टर हैं और मेरा भाई मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज, दिल्ली में अपने फाइनल ईयर में है। दसवीं कक्षा के बोर्ड एग्जाम के बाद, मैं भी इसी राह पर थी पर फिर मैंने लॉ करने का फ़ैसला किया। बेंगलुरु के नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी में दाखिला मिलने के बावजूद मैंने दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया।”

सौम्या बहुत ही मेधावी छात्रा थीं और लगातार अपनी क्लास में टॉप करती थीं। लेकिन अगस्त, 2010 में एक दिन अचानक उन्होंने अपनी सुनने की क्षमता खो दी। यह उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं था।

सौम्या शर्मा

वह बताती हैं कि उनकी सुनने की क्षमता अचानक से गई और एक पॉइंट ऐसा आया कि उन्हें अपनी आवाज़ तक सुनना बंद हो गई। “शुरुआत में इस नए सच को अपना पाना बहुत मुश्किल था। मेरी नौवीं कक्षा ज़्यादातर अस्पताल के चक्कर काटने में ही चली गई। लेकिन कहते हैं न कि दोस्तों की ज़रा-सी मदद से हम आगे बढ़ जाते हैं। मेरे परिवार, दोस्त और आधुनिक तकनीक का शुक्रिया कि मैं इससे बाहर आ पाई।”

सौम्या को सेंसरीन्यूरल हियरिंग लॉस है और एक हियरिंग इम्प्लांट कंपनी MED-EL के मुताबिक, यह अक्सर “कोक्लीआ में सेंसरी सैल (हेयर सैल) न होने के या फिर क्षतिग्रस्त होने के कारण होता है और यह परमानेंट है।” इसे ‘नर्व डेफनेस’ भी कहते हैं और निर्देशों के अनुसार इसमें हियरिंग ऐड या फिर मिडिल ईयर इम्प्लांट करवाया जाता है। 

“आधुनिक तकनीक बहुत तेजी से आगे बढ़ी है और अब हियरिंग ऐड की मदद से मैं अच्छे सुन और बात कर पाती हूँ। ये 2010 में संभव नहीं था पर अब चीज़ें काफ़ी बेहतर हुई हैं। बिल्कुल, बहुत बार होता है जब कई चीज़ें नहीं सुन पाती हूँ, लेकिन ये हियरिंग ऐड बहुत अच्छा काम कर रही हैं,” सौम्या ने कहा।

प्रशासनिक सेवा जॉइन करने का ख्याल उनके मन में लॉ स्कूल में कानून की पढ़ाई के दौरान आया।

सौम्या शर्मा

“जब आप कानून की पढ़ाई करते हैं तो प्राकृतिक तौर पर ही आपका झुकाव सामाजिक मुद्दों की तरफ होने लगता है। आप संवैधानिक कानून, मानवीय अधिकार और भी बहुत-सी चीज़ों के बारे में पढ़ते हैं, जो आपको समाज  के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित करती हैं। मैंने फरवरी 2017 से प्रशासनिक परीक्षा देने के बारे में गंभीरता से सोचा, तब उस साल का प्रीलिम्स चार महीने बाद होना था। लेकिन प्रशासनिक सेवाओं में जाना लोगों के लिए कुछ करने का सबसे अच्छा मौका है, “उन्होंने कहा।

अपने कॉलेज के आख़िरी साल में उन्होंने बिना किसी कोचिंग के परीक्षा की तैयारी शुरू की। अपने स्कूल के दिनों से ही करंट अफेयर्स पढ़ने वाली सौम्या को अपना रुटीन बनाने में बहुत वक़्त नहीं लगा। उनके कॉलेज का आख़िरी पेपर 2 जून 2017 को था और इसके सिर्फ़ 16 दिन बाद उन्होंने UPSC की प्रीलिम्स परीक्षा दी।

हालांकि, यहीं पर उनके लिए चुनौतियाँ खत्म नहीं हो गई। प्रीलिम्स क्लियर करने के बाद मेन्स की परीक्षा के लिए महीनों पढ़ने के बाद, परीक्षा के समय उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया। सौम्या ने बहुत ही मुश्किल से सिर्फ़ 3 घंटे की नींद लेकर निबंधात्मक परीक्षा दी। परीक्षा देकर जब वे घर लौटीं तो उनका बुखार 102 डिग्री तक जा चूका था।

“जनरल स्टडीज के पेपर के लिए रिवाइज करने की सारी प्लानिंग बेकार गई। मैं बिस्तर में पड़ी थी और बहुत मुश्किल से उठ पा रही थी और मुझे आईवी ड्रिप दी गई क्योंकि मेरा बुखार 102 डिग्री हो गया था। हर कोई मेरे परिवार में परेशान था कि मैं सुबह परीक्षा के लिए उठ भी पाऊँगी या नहीं, लेकिन किसी तरह मैंने मैनेज किया। जनरल स्टडीज के पेपर्स के बीच ब्रेक में मुझे कार में ही आईवी ड्रिप लगी, यह बहुत ही बुरा अनुभव था। जनरल स्टडीज के दूसरे पेपर के दौरान तो बुखार और थकान के चलते मैं लगभग बेहोश ही हो गई थी,” जैसा कि उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे माता-पिता ने स्थिति को बहुत अच्छे से संभाला। मैंने ठान लिया था कि अब मैं और किसी शारीरिक परेशानी के कारण पीछे नहीं रहूंगी। मैं नहीं चाहती कि बुखार मेरी इतने महीनों की मेहनत के रास्ते में आए। मैं बहुत खुश हूँ कि इतनी परेशानी के बाद भी मैंने अपने पहले प्रयास में अच्छा किया और अच्छी रैंक हासिल की।”

आज, वह असिस्टेंट कमिश्नर हैं और फिलहाल, साउथ-वेस्ट दिल्ली में जिला मजिस्ट्रेट के साथ अपने डिस्ट्रिक्ट ट्रेनिंग कर रही हैं।

हम सौम्या के जज़्बे और हिम्मत को सलाम करते हैं। उम्मीद है कि उनकी कहानी बहुत से लोगों के लिए प्रेरणा बनेगी।
संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक 


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कचरे से कमाल कर रहे हैं जयपुर के यह शख्स, अब तक बना चुके हैं 6822 तरह के उत्पाद!

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म सबने अपने जीवन में बहुत से जुनूनी लोग देखे हैं। अजीबोगरीब जोश और जुनून के सहारे कुछ लोग दुनिया में अपनी एक अलग ही पहचान बनाने में कामयाब होते हैं, उन्हीं में एक नाम है नवल डागा का।

गुलाबी नगरी जयपुर में जन्मे नवल डागा आज पर्यावरण संरक्षण का पर्याय बन गए हैं। पेड़, पानी, वन्य जीव सरंक्षण के लिए वे 13 जुलाई, 1977 से काम कर रहे हैं। रोजमर्रा की ज़िंदगी में काम आने वाली वस्तुओं पर पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के मुहावरे, दोहे और लोकोक्तियों को अनूठे अंदाज़ में प्रिंट करके उनको आमजन तक पहुंचाने, आमजन को पर्यावरण बचाने, उनकी रूचि और सहभागिता बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे ट्री, वॉटर, वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन जैसे विषयों से जुड़े 6822 प्रकार के आइटम बनाते हैं। उनके यहां निर्मित होने वाले इन आइटम्स पर 14 भारतीय भाषाओं में पर्यावरण संरक्षण पर कुछ न कुछ ज़रुर लिखा होता है।

 

इन उत्पादों को बनाने के लिए किसी भी पेड़ को नहीं काटा जा रहा। सभी आइटम रीसायकल किए गए पदार्थों से तैयार किए जा रहे हैं।

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नवल डागा के बनाए उत्पाद।

‛द बेटर इंडिया हिंदी’ से बात करते हुए वे कहते हैं, “इन उत्पादों को बनाने में 19 तरीके के मैटेरियल काम आते हैं। लकड़ी, कांच, प्लास्टिक, कागज, गत्ता, फ्लेक्स, विनाइल आदि। हम जलावन वाली लकड़ी काम लेते हैं, जिसे गुटखा लकड़ी कहते हैं। बड़े-बड़े आइटम नहीं बनाते, बेहद छोटे आइटम बनाते हैं। ठेकेदार द्वारा बॉयलर वालों को लकड़ी के जो टुकड़े जलाने के लिए दिए जाते हैं, हम उनमें से हमारे काम के टुकड़े छांटकर लाते हैं, चूंकि उनको तो लकड़ी जलानी होती है इसलिए साइज से कोई मतलब नहीं होता, कि हम किस तरह के टुकडे ले जा रहे हैं।”

वे साल भर तक इन टुकड़ों को धूप में रखते हैं। इस दौरान बरसात आती है, सर्दी पड़ती है, गर्मी होती है। लकड़ी जितनी फटनी होती है, फट जाती है। इस लकड़ी द्वारा तीनों मौसम सहन करने के बाद एक हिसाब से उसकी सीज़निंग हो जाती है।

 

यह लकड़ी उन्हें 4 रुपए किलो में मिलती है, उनके काम में आने के बाद भी लकड़ी 4 रुपए प्रति किलो में ही वापस बिक जाती है।

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नवल डागा बॉयलर में जलाने के लिए दी जाने वाली लकड़ी का उपयोग करते हैं। photo – steamtherm boilers / google

इस लकड़ी से बनाए जाने वाले उत्पादों की गिनती नहीं है। पेन स्टैंड, मोबाइल स्टैंड, टेबल स्टैंड, चाबी स्टैंड जैसे बहुत से आइटम्स हैं, पचासों तरह की साइज है। जो लकड़ी उपलब्ध होती है, उसी आधार पर आइटम्स बनते हैं। वे खुद की मनमर्जी से कोई आइटम नहीं बनाते। उनका मुख्य उद्देश्य यही है कि लोगों को बताएं कि इन उत्पादों के निर्माण के लिए पेड़ नहीं काटे गए। जो लकड़ी काम में ली गई, वह भी जलावन लकड़ी थी।

उनके द्वारा बनाए गए लकड़ी के उत्पाद 25 से 100 रुपए के बीच बेचे जाते हैं। बड़े आइटम नहीं बनाए जाते, क्योंकि उसके लिए बड़ी लकड़ी की जरुरत होती है। लकड़ी के इन उत्पादों में किसी भी तरह की कील का कोई उपयोग नहीं किया जाता क्योंकि लकड़ी छोटी और पतली होती है, इसलिए कील लगाने की प्रक्रिया के दौरान यह फट जाती है, इसलिए वैक्यूम क्रिएट कर उसे चिपकाया जाता है।

उनके द्वारा बनाए जा रहे उत्पादों में एक उत्पाद किताब भी है। रीसायकल पेपर द्वारा तैयार अधिकतर किताबें 3 से 6 रुपए के बीच की है तो कुछ किताबों की कीमत 8-9 रुपए है। सब किताबें 32 पेज की हैं।

 

वे अब तक 557 किताबें लिख चुके हैं, जिनकी प्रिंटिंग भी उन्होंने ही की है।

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नवल डागा की पर्यावरण संरक्षण पर अधारित पुस्तकें।

इतनी छोटी और सस्ती पुस्तकों को लिखने की प्रेरणा उन्हें 1969 में कर्पूरचंद कुलिश (हिन्दी समाचार राजस्थान पत्रिका समूह के संस्थापक, प्रख्यात कवि एवं लेखक) के एक आर्टिकल को पढ़कर मिली, जिसमें लिखा था कि बड़ी किताब नहीं छपनी चाहिए। उनकी किताब बहुत छोटी है, ताकि कोई भी आसानी से पढ़ सके। उनके अनुसार बड़ी किताब को कोई भी आदमी शर्म की वजह से खरीद भले ले, घर जाकर पढ़ने का भी बोले, पर पढ़ नहीं पाता। किताबें घर की अलमारी में ही पड़ी रहती हैं, जिसके भी घर में पड़ी हैं, उनको संतोष रहता है कि घर में रामायण है, महाभारत है। नवल की किताबें पेड़, पानी, जीव, रक्तदान, गाय और पर्यावरण पर केंद्रित हैं।

वह कहते हैं, “अब लोगों का पढ़ने का हाजमा खत्म हो चुका है, व्हाट्सएप-फ़ेसबुक ने सब बिगाड़ दिया, टीवी ने लोगों की पढ़ने की प्रवृत्ति को भुला दिया। अब व्हाट्सएप पर आए मेंसेज पढ़ने में भी तकलीफ़ होती है। यूट्यूब वीडियो का ज़माना है, इंसान केवल कानों से काम निकालना चाहता है।”

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नवल डागा।

वे कचरे में से बीने गए कागज से किताबें छापते हैं, आइटम बनाते हैं, उनके इस काम से निम्न तबके के गरीब लोगों को रोजगार मिलता है। उनकी सोच है कि शहर का कचरा बीनने वालों को इनाम और पद्मश्री जैसा सम्मान मिलना चाहिए। जो लोग प्लास्टिक, कचरा, लोहा, लकड़ी बीनते हैं, इसकी वजह से कुछ चीजों के भाव कम होते हैं, गंदगी नहीं रहती, एक्सीडेंट नहीं होते। जो लोग कचरा उठा रहे हैं, उन लोगों को सब्सिडी देनी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे पढाई की फीस में छूट दी जाती है। ऐसा करने से यह लोग मोटिवेट होकर ज्यादा कचरा इकट्ठा करेंगे, जिससे ज्यादा कचरा रीसायकल होगा। देश का पर्यावरण हित होगा।

क्या-क्या है ख़ज़ाने में…?

उनके द्वारा कपड़े पर बुनाई करके संदेश लिखे जाते हैं, संभवत इस तरह का कार्य शायद ही कोई दूसरा कर रहा हो। इस प्रकार के संदेश वाले उनके पास 302 से ज्यादा प्रकार के कुशन है। देशवासियों की गौत्रों से जुड़े 546 प्रकार के आइटम्स हैं। 1000 से ज्यादा प्रकार की श्रद्धांजलियां हैं। 100 तरह के झोले हैं, जो कन्धों पर लटकाए जाते हैं। 60 विषयों का संदेश देते चैकबुक कवर सहित विभिन्न उत्पाद हैं।

इन उत्पादों का सबसे बड़ा ग्राहक पूरे देश में फैला फॉरेस्ट डिपार्टमेंट है। कुछ आइटम्स तो सिर्फ गिफ्ट्स देने के लिए ही बनते हैं। कुछ साल पहले जब गिने गए तो पता चला कि, 1269 आइटम सिर्फ गिफ्ट देने के काम आते हैं। गिफ्ट दिए जाने वाले आइटम्स पर पर्यावरण संरक्षण का संदेश होता है।

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पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देते उनके बनाए गिफ्ट्स।

नवल इस बात पर जोर देते हैं कि भले ही 2 साल तक पौधरोपण मत करो, लेकिन जो पेड़-पौधे लगे हैं उन्हीं को बचा लो, तो भी पर्यावरण संरक्षण हो जाएगा। लोग 100-100 पेड़ लगाने में लगे हैं। मान लो एक पेड़ को लगाने में 10 रुपए का खर्चा आता है तो इसमें 1000 रुपए खर्च हुए। यदि 10 पेड़ ही लगाए, 100 रुपए का ही खर्चा करें तो भी बहुत कुछ किया जा सकता है। सिर्फ 10 पेड़ों को ही बड़ा कर लीजिए, यह भी कोई छोटा काम नहीं।

“अब विश्वयुद्ध हुआ तो पानी की वजह से होगा। पीने को पानी नहीं है, नल से टपक टपककर भी यदि एक बाल्टी पानी भर जाता है तो देश में कितने घरों में ऐसा हो रहा होगा? नलों को सही करने की व्यवस्था करनी होगी। कपड़े वॉशिंग मशीन में सूखाते हैं, पानी जल जाता है, धूप में सूखाने पर वो बादल तक जाता और बादल आपके यहां नहीं तो कहीं और तो जाकर तो बरसेंगे। सभी ऐसा कर रहे हैं, यह हमारी नहीं, पूरे विश्व की समस्या है, ” नवल ने कहा।

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नवल डागा ने पेड़ों की रक्षा के लिए चिंतित नज़र आते हैं।

सारा सृजन पिताजी की देन…

उनके पिताजी कृष्णभक्त थे। वे जब तक रहे, नवल डागा कभी भी सुबह 4 बजे से पहले नहीं सोए, उन्होंने इतनी बातें अपने पिताजी से की। वे जो भी कर रहे हैं, सारा सृजन उनके दिवंगत पिताजी की देन है। उनके पिताजी कहा करते थे, “भाग्य की रोटी तो कुत्ते भी खाते हैं, वो ऊपर बैठा ईश्वर सबको भूखा उठाता है, भूखा नहीं सुलाता है, पेट भराई उसका काम है। रोटी के लिए काम मत करो, काम मिनख जूण का करो। ऐसा लिख जिसको लोग पढ़ते रहे और ऐसा कर जिसपे लोग लिखते रहे। मेरे जाने के बाद भी तेरी वजह से लोग मुझे याद करे।”

उनके पिता कुर्ते की जेब में सदैव पोस्टकार्ड, पेन और कागज़ रखते थे, जब तक 10 पोस्टकार्ड नित्य न लिख लेते, भोजन ग्रहण नहीं करते। पिताजी के लिखे 36,600 पोस्टकार्ड आज भी इनके संग्रह में सुरक्षित हैं। पिताजी का ध्येय वाक्य था, “पेपर इस द बेस्ट सैक्रेटरी।”

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नवल डागा के लिखे दोहे, जो पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दे रहे हैं।

घर को ही बना रखा है गार्डन, छत पर उगाते हैं सब्जियां

नवल न सिर्फ पुरानी चीज़ों से उत्पाद बनाकर और उस पर पर्यावरण संरक्षण का सन्देश लिखकर प्रकृति को बचाने में अपना सहयोग दे रहे हैं बल्कि उन्होंने अपने घर को भी पर्यावरण अनुकूल बना रखा है। कम से कम जगह का अधिक से अधिक सदुपयोग कैसे हो? यह देखने के लिए एक बार सबको इनके घर आना चाहिए।

नवल डागा के यहां एसी नहीं है। जब कभी गर्मी की दोपहर में 42, 44, 46 डिग्री तापमान होता है, इनके घर जाकर बाहर और अंदर के तापमान में अंतर का जायजा ले सकते हैं। बाहर के तापमान और इनके घर के अंदर के तापमान में कम से कम 9 से 13 डिग्री का फर्क होता है। पूरे घर को गिलोय और जीवंती की बेलों से ढक रखा है।

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नवल डागा का पर्यावरण अनुकूल घर।

वे अपने घर की छत पर सब्जियां उगाते हैं। उनके पास 395 गमले हैं, जहाँ ड्रिप से मात्र 9 मिनट में पानी पिलाया जाता है। हर गमले पर नम्बर है, गमले के नीचे उसी नम्बर का टब है। सभी गमलों और टबों पर दोहे हैं, कुल 176 दोहे हैं, एक भी दोहा दोहराया नहीं गया है।

उनके यहाँ छत पर 10 फ़ीट ऊंचा लोहे का स्ट्रक्चर बनाया गया है, जिसमें 100 मीटर लम्बी एलइडी लाइट्स लगाई गई है। 40 आदमी एक साथ बैठ सके, ऐसी व्यवस्था है। इस पर्यावरण घर में आईएएस, आईएफएस, रेंजर्स की क्लासेज लगती है।

दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण पर सिद्धार्थ कक्कड़ और रेणुका शहाणे द्वारा होस्ट किए गए ‛सुरभि’ कार्यक्रम में 1990 में नवल के घर और दफ्तर की पर्यावरण सरंक्षण आधारित गतिविधियों को दिखाया गया था। इसके लिए नवल को 1 लाख रुपए का इनाम भी मिला।

 

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संपादन – भगवती लाल तेली 


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2 बीघा खेत पर शुरू की थी जीरे की खेती, आज 60 करोड़ का है टर्न ओवर!

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फलता की यह कहानी राजस्थान के जालोर जिले के उस युवा किसान की हैं जिसके घरवाले चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी करें, लेकिन वह मन बना चुका था कि खेतीबाड़ी में ही अपना भविष्य तलाश करेगा। इस नौजवान का नाम योगेश जोशी हैं, जिन्होंने अपने पिता भीखाराम और चाचा पोपटलाल की लाख समझाइशों के बावजूद भी सरकारी नौकरी के बारे में एक बार भी नहीं सोचा और जुट गए जैविक खेती करने में।

योगेश की खेती में रूचि उनकी पढ़ाई के दौरान जगी। योगेश ने ग्रेजुएशन के बाद ऑर्गेनिक फार्मिंग में डिप्लोमा किया था। परिणाम यह हुआ कि खेती में उनका इंटरेस्ट जाग उठा, पर घर वाले चाह रहे थे कि योगेश गवर्नमेंट जॉब की तैयारी करें। उनसे यह तक कहा गया कि यदि खेती का शौक ही चढ़ आया है तो एग्रीकल्चर सुपरवाइजर बनकर खेती और किसानों की सेवा करनी चाहिए, सीधे तौर पर किसान बनकर खेती करने का जोखिम मत उठाओ।

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योगेश जोशी।

 

योगेश कहते हैं,“मैंने 2009 में खेतीबाड़ी की शुरुआत की। घर से मैं ही पहला व्यक्ति था, जिसने इस तरह का साहसिक लेकिन जोखिम भरा क़दम उठाया। मुझे यह कहते हुए बिल्कुल अफसोस नहीं होता कि खेती के पहले चरण में मेरे हाथ सिर्फ निराशा ही लगी थी।”

चूंकि उस वक़्त जैविक खेती का इतना माहौल नहीं था, इसलिए शुरुआत में योगेश ने इस बात पर फोकस किया कि इस क्षेत्र में कौनसी उपज लगाई जाए जिससे ज्यादा मुनाफ़ा हो, बाज़ार मांग भी जिसकी ज्यादा रहती हो। उन्हें पता चला कि जीरे को नगदी फसल कहा जाता है और उपज भी बम्पर होती है, उन्होंने इसे ही उगाने का फैसला किया। 2 बीघा खेत में जीरे की जैविक खेती की, वे असफल हुए पर हिम्मत नहीं हारी।

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जीरे के पौधों के साथ योगेश।

केवल 7 किसानों को समझाइश के बाद जैविक खेती से जोड़कर शुरुआत करने वाले योगेश की शुरुआती राह आसान नहीं रही। उनसे जुड़े किसानों को तो इस बात का भी भरोसा नहीं था कि बिना यूरिया, डीएपी, पेस्टिसाइड्स डाले खेती संभव भी हो सकती है?

ऐसे में योगेश ने जोधपुर स्थित काजरी के कृषि वैज्ञानिक डॉ. अरुण के. शर्मा से संपर्क किया, वे इनके गाँव सांचोर आए और जैविक खेती के संबंध में प्रशिक्षण दिया। पहली बार इन किसानों को जीरे की फसल में कामयाबी मिली।

किसी वक़्त में बड़ी मुश्किल से 7 किसानों के साथ हुई शुरुआत ने आज विशाल आकार ले लिया है। योगेश के साथ आज 3000 से ज्यादा किसान साथी जुड़े हुए हैं। 2009 में उनका टर्न ओवर 10 लाख रुपए था। उनकी फर्म ‛रैपिड ऑर्गेनिक प्रा.लि’ (और 2 अन्य सहयोगी कंपनियों) का सालाना टर्न ओवर आज 60 करोड़ से भी अधिक है। आज यह सभी किसान जैविक कृषि के प्रति समर्पित भाव से जुड़कर केमिकल फ्री खेती के लिए प्रयासरत हैं।

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किसान को जीरे की खेती के बारे में बताते योगेश जोशी।

योगेश के नेतृत्व में यह सभी किसान अब ‛सुपर फ़ूड’ के क्षेत्र में भी कदम रख चुके हैं। योगेश चिया और किनोवा सीड को खेती से जोड़ रहे हैं, ताकि किसानों की आय दुगुनी हो सके। अब वे ऐसी खेती पर कार्य कर रहे हैं, जिसमें कम लागत से किसानों को अधिक मुनाफा, अधिक उपज हासिल हो।

आज इन किसानों के कार्यों की धूम विदेशों तक भी पहुंच गई है। योगेश की पहल के चलते इंटरनेट के माध्यम से एक जापानी कंपनी से संपर्क हुआ। उनके प्रतिनिधि गाँव आए, खेतों की विजिट की। पूरी तरह से जांच-परख के बाद एक करार किया। इसके बाद किसानों ने उन्हें जीरे की सप्लाई की, इस खेप को जापान में सराहना मिली। कंपनी ने एक टाई-अप किया, जिसके चलते उनको जीरा, सौंफ, धनिया, मैथी इत्यादि भी सप्लाई करनी थी। इसी तरह अमेरिका को भी इन किसानों ने मसालों की सप्लाई की।

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जापानी प्रतिनिधि के साथ योगश जोशी।

इन दिनों हैदराबाद की एक कंपनी ने इन किसानों के साथ उनके ही खेतों में 400 टन किनोवा की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का करार किया है। इस खेती में बीज से लेकर फर्टीलाइजर तक सभी कुछ यही किसान मुहैया करवा रहे हैं। पूरी तरह से यह बायबैक खेती है, एग्रीमेंट के साथ।

अब जैसे-जैसे योगेश और उनसे जुड़े 3000 किसान आगे बढ़ रहे हैं, उन्हें देखकर दूसरे किसानों में भी उनके साथ जुड़ने का उत्साह है। पहले जहां किसान सहभागिता के नाम पर कतराते थे, अब खुद ही जुड़ने को आतुर नज़र आते हैं। योगेश की टीम के 1000 किसान पिछले 6-7 सालों से जैविक प्रमाणित हैं। दूसरे 1000 किसान अभी कन्वर्जन-2 में हैं, अंतिम 1000 किसान सी-3 फेज से गुज़र रहे हैं।

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किसानों से बात करते योगेश जोशी।

वे बताते हैं,“जैविक सर्टिफिकेशन को गंभीरता से लेते हुए सभी को जैविक खेती से जुड़ी ट्रेनिंग करवाई और खेतीबाड़ी की बारीक से बारीक बात को भी हल्के में न लेनी की सलाह दी। किसानों के ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन के खर्चे को कंपनी ने ही वहन किया।”

ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन होने पर किसानों की उपज को खरीदा जाता है। जिस किसान के पास सर्टिफिकेशन नहीं होता, उसे अपनी उपज बेचने के लिए दिन-रात एक करने पड़ते हैं। इस समस्या के लिए भी योगेश ने एक उपाय निकाला, जिसे इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट नाम दिया है।

इस सुविधा के तहत जिन किसानों के पास सर्टिफिकेशन नहीं होता, पर वे पूरी तरह से जैविक खेती कर रहे होते हैं, वे उनकी उपज भी खरीदते हैं। अमेरिका की एक कंपनी इनके साथ इसी तर्ज पर जुड़ी है। कंपनी की पहली शर्त यही है कि उपज केमिकल फ्री हो।

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जीरे की खेती के सम्बन्ध में करार करने आए विदेशी प्रतिनिधियों के साथ योगेश।

आज किसानों का यह समूह जीरे के अलावा वरियाली, धनिया, मैथी, सुआ, कलौंजी, किनोवा, चिया सीड, गेंहू, बाजरा, मस्टर्ड सहित पश्चिमी राजस्थान में आसानी से हो सकने वाली सभी फसलों की जैविक खेती कर रहा है। फर्म ‛रैपिड ऑर्गेनिक’ देश की पहली कंपनी है जो जीरे को लेकर ट्रेड फेयर में उतर रही है।

योगेश बताते हैं, “जो किसान जैविक कृषि कर रहे हैं, उनके लिए यही संदेश है कि भले थोड़ी कठिनाई हो पर भविष्य हितकारी है। किसानों को सलाह है कि 3 से 4 साल जैविक खेती को अपनाएं, आप जान जाएंगे कि केमिकल से मिली उपज से ज्यादा उपज जैविक खेती से प्राप्त होती है। सारी बात धैर्य की है, इसे टूटने न दें। जैविक खेती में आपके दूसरे खर्चे भी कम होंगे, मुनाफा भी बढ़ेगा।”

वे जुड़े हुए किसान साथियों से समन्वय और तालमेल बनाए रखने के उद्देश्य से हर 3 माह में मीटिंग का आयोजन करते हैं, उनके दु:ख-सुख का साथी बनते हैं। उनकी नज़र में कामयाबी का पहला सूत्र यही है कि किसानों के साथ रिश्ते मधुर एवं आत्मीय हो। योगेश को कृषि क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए विभिन्न जगहों पर सम्मानित भी किया गया है।  इसके अलावा उन्हें विभिन्न कृषि सम्मेलनों में किसानों को सम्बोधित करने के लिए भी बुलाया जाता है।

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पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह से सम्मानित होते योगेश।

निकट भविष्य में अपने किसान साथियों के साथ मिलकर एक अरब रुपए के टर्न ओवर की मंशा रखने वाले जोशी जल्द ही एफपीओ बनाने जा रहे हैं। ‛रैपिड ऑर्गेनिक’ भी इस एफपीओ से माल खरीदेगी। खर्चे निकालने के बाद बचे मुनाफे को किसानों में वितरित किए जाने की योजना है।

वे हर साल सीएसआर की मदद से 10 से 20 लाख रुपए किसानों के लिए और साथ ही उनकी संतानों के लिए मेडिकल कैम्प, शिक्षा आदि पर खर्च कर रहे हैं।

अगर आपको योगेश जोशी की यह कहानी अच्छी लगी और आप उनसे बात करना चाहते हैं तो 9549651201 पर संपर्क कर सकते हैं। आप योगेश से उनके फेसबुक  पर भी जुड़ सकते हैं या फिर उन्हें ई-मेल  भी कर सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली


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100 साल पुराने घर की चीज़ों का दोबारा इस्तेमाल कर दिया नया रूप!

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चंद लकड़ियों और ईंटों को जोड़ कर, उसे छत से ढक देने से एक इमारत तो बन जाती है, पर घर नहीं बनता। घर वो है जो अपनी चारदीवारों में यादों को सँजो के रख पाए। बंगलुरु का राघवन परिवार भी अपने घर से जुड़ी यादों को संभालना चाहता था। इसलिए जब दीवारों पर दरारें दिखनी शुरू हुई, तो यह परिवार चिंता में पड़ गया। यह परिवार इस घर को पूरी तरह बदलना नहीं चाहता था, क्योंकि इसके पुराने स्वरूप के साथ उनकी कई यादें जुड़ी हुई थी। ये बदलाव तो चाहते थे, पर पुराने घर को पूरी तरह नष्ट किए बिना!

और यहीं से इनका सफर शुरू हुआ शरत आर नायक के साथ। शरत बंगलुरु स्थित बायोमी एनवायरनमेंटल सोल्यूशन नाम के डिज़ाइन फर्म में एक आर्किटेक्ट है। यह फर्म परिस्थितिक रूप से संवेदनशील और टिकाऊ घर बनाने के लिए जाना जाता है।

शरत ने राघवन परिवार के साथ मिलकर एक नया घर डिज़ाइन किया जिसका निर्माण अधिकतर पुराने घर की चीजों का प्रयोग करके करना था।

 

दूसरे शब्दों में इस प्रोजेक्ट का मकसद पुराने ढांचे नष्ट करने की बजाय उसके हिस्सों को इस तरह से दुबारा व्यवस्थित करना था जिससे नए घर में उसका प्रयोग हो पाए।

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पुराने घर की उपयोगी चीज़ों से बना राघवन परिवार का आशियाना।

रिटायर्ड विंग कमांडर केवीपी राघवन व मैथिली राघवन की बेटी शोभा का मानना है कि अगर पुराना ढांचा खराब नहीं हुआ होता, तो ये उसे कभी नहीं तोड़ते। पर जब ऐसा करने का समय आया, तो इन्होंने सुनिश्चित किया कि इसमें कार्बन फूटप्रिंट कम हो।

बंगलुरु के बीचोबीच स्थित यह घर परिवार की ज़रुरत के हिसाब से विस्तृत होते-होते 3500 वर्गफीट के क्षेत्र में फैल गया था। इस प्रक्रिया में यह घर कमजोर होता चला गया और इसमें दरारें, नमी, रिसाव आदि जैसे लक्षण आए दिन देखे जाने लगे। इसी के साथ घर में प्रकाश व हवा की आवाजाही में रुकावटें आने लगी थी।

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पुराने घर के अंदर के ढांचे को इस तरह बनाया गया है, ताकि पुरानी यादें भी ताज़ा रहे और रिसाव भी न हो।

आर्किटेक्ट शरत के लिए चुनौती थी कि इस घर को उन्हें ध्वस्त नहीं करना था, बल्कि एक नया स्वरूप देना था। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए, शरत ने एक डिज़ाइन टीम, इंजीनियर्स और ठेकेदारों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया।

शरत कहते हैं, “ऐसी परियोजनाओं में लचीली योजना की ज़रुरत पड़ती है क्योंकि आपको लगातार सोचते रहना पड़ता है और साथ-साथ सुधार करते रहना होता है। इसलिए, दीवारों को हमने दो तरीके से बनाने का निर्णय लिया। एक हिस्सा हमने पुरानी नींव से पत्थरों का उपयोग करके बनाया और दूसरा हिस्सा पुरानी ईंटों को प्लास्टर करके बनाया। पुराने ढांचे में दीवारों को चूने से बनाया गया था, जिस कारण यह आसानी से टूट गया और पुनः प्रयोग भी हो गया। इसके अलावा हमने पुराने घर में मिले ग्रेनाइट स्लैब का प्रयोग सीढ़ियां बनाने में किया।”

पुरानी दीवारों की ईंट, कंक्रीट से लेकर घर के खिड़की दरवाजों तक को नए घर में प्रयोग कर इसे नया रूप दिया गया। पर, इस कार्य का पहला चरण था एक मजबूत नींव तैयार करना। जब इस घर को तोड़ा गया तब पाया कि मिट्टी कमजोर और कम क्षमता वाली थी।

 

तब एक गड्ढा खोदने का निर्णय लिया गया, जिसमें नष्ट किए गए कंक्रीट को भरा जाने लगा और बाद में उसे मलबे से निकाल कर उपयोग किया गया। अब नींव के बाद, अगला कदम दीवारों को खड़ा करना था।

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मिट्टी की क्षमता बढ़ाने के लिए खोदे गए गड्ढे।

पुराने घर के खिड़की और दरवाजे जो उच्च कोटी के सागवान की लकड़ियों के बने थे, उन्हे भी पुनः प्रयोग किया गया। शरत व उनकी टीम ने यह सुनिश्चित किया कि सभी चीजों की गुणवत्ता व मजबूती की जांच शुरुआत में ही कर ली जाए। इसके बाद छोटे दरवाजों और खिड़कियों को बदलने का काम आरंभ किया गया। दरवाजों के लिए बची हुई लकड़ियों को नई लकड़ियों के साथ जोड़कर प्रयोग में लाया गया। यह पूरा डिजाईन पहले से बेहतर और हवादार था।

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पुरानी खिड़कियों की तरह ही नई खिड़कियां बनाई गई हैं ताकि हवा का आवागमन होता रहे।

शोभा कहती हैं, “घर में जहां एक ओर परिवार के सदस्य एक-दूसरे के साथ समय बिताना पसंद करते हैं, वहीं दूसरी ओर हम सबका अपना स्वतंत्र जीवन है। इस घर की बनावट इस बात को दर्शाती है। निचला व प्रथम तल दो हिस्सों मे बना है जिसे ज़रुरत के हिसाब से खुला भी छोड़ सकते है या एक दूसरे से अलग भी कर सकते हैं।”

घर के चारों ओर हरियाली होने के साथ ही, इसके भीतर एक प्रांगण भी है, जिससे परिवार को अंदर बैठे-बैठे बाहर की हरियाली का अनुभव होता है।  शरत के अनुसार घर के बीचो-बीच खुले प्रांगण (मुत्रम) के डिज़ाइन का विचार उन्हें छत्तीसगढ़, केरल व तमिलनाडु के गाँव के खुले हवादार घरों को देख कर आया। यह बनावट परिवार के सार्वजनिक व निजी स्थान के बीच एक समन्वय बैठाने के विचारों का प्रतिबिंब है।

 

बीच का प्रांगण हर इकाई का केंद्र है, जिससे लिविंग रूम में उचित रोशनी व हवा का बहाव होता है।

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राघवन परिवार के घर के बीच का प्रांगण, जिसे ‘मुत्रम’ कहा जाता है।

नए डिज़ाइन में दो मंज़िले हैं व चार घर है, जिसमें हर घर के अपने अलग किचन, लिविंग व डाईनिंग रूम है। पारंपरिक ‘तिननई’ (घर के प्रवेश पर उभरा चबूतरा) और ‘मुत्रम’ को घर वालों की इच्छानुसार इस नए घर में जगह दी गई है।

शोभा बताती है कि तिन्नई की प्रेरणा उन्हें अपने पुश्तैनी घर जो कि श्रीरंगम, तिरुचिरापल्ली में स्थित है, वहाँ से मिली, जहां इनके दादाजी कई लोगों से मिला करते थे।

‘एक आदर्श घर वही है जहां से गुजरने वाला व्यक्ति वहाँ बात करने को रुक पाए’ – इसी विचार से उन्होंने नए घर में भी ऐसी ही एक जगह बनाने की सोची। पुराने घर की नींव से निकला ग्रेनाइट, तिन्नई के लिए बिलकुल सही था, लेकिन कई अनोखी परियोजनाओं के जैसे, यह भी चुनौतियों से परे नहीं था।

 

महीनों की कड़ी मेहनत के बाद, आखिरकार 2014 में यह प्रोजेक्ट पूरा हुआ और यह अतीत, वर्तमान और भविष्य का एक सुखद मिश्रण बन कर सामने आया।

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राघवन परिवार का घर, नए निर्माण से पहले और बाद में।

शरत मानते हैं कि अब वह समय आ गया है कि ऐसे अनोखी परियोजना को आम बनाया जाए। शरत को इसे बनाने में अधिक मेहनत करनी पड़ी, पर अंततः वह सफल हुए। इस परियोजना ने उन्हें यह सीख दी कि यदि हम चाहे तो पुराने ढांचे हमारे नए संसाधन बन सकते हैं। इनका मानना है कि अधिक से अधिक आर्किटेक्ट व आर्किटेक्चर इंस्टिट्यूट को इन संसाधनों के प्रयोग पर ध्यान देना चाहिए ।

अंत में शोभा कहती है, “हमारा घर नया और चमकदार नहीं दिखता है। हमने नया फ़र्निचर नहीं खरीदा और न ही घर को सजाने में पैसे खर्च किए। फिर भी यह ऐसी जगह है जो आरामदायक, अनुकूल है। ऊपरी मंजिल का एक हिस्सा रचनात्मक गतिविधियों के लिए छोड़ा गया है जैसे मानवाधिकार व सामाजिक मुद्दों पर बात करने के लिए थिएटर के जैसे प्रयोग करना। यह मेरा कार्यक्षेत्र होने के साथ ही एक ऐसी जगह भी है जहां मेरे दोस्त आ कर रह सकते हैं या हम छोटे आयोजन या उत्सव मना सकते हैं।”

 

मूल लेख – अनन्या बरुआ 

संपादन – भगवती लाल तेली 


 

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