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शिक्षकों और गाँववालों ने चंदा इकट्ठा करके सरकारी स्कूल को बनाया ‘स्मार्ट’!

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साल 2002 में जगजीत सिंह वालिया को पंजाब के मानसा जिले में मूसा गाँव के राजकीय प्राथमिक स्कूल में नियुक्ति मिली। जगजीत सिंह जब इस स्कूल में पहुंचे तो स्कूल की हालत देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उनकी जगह अगर कोई और शिक्षक होता तो शायद तबादला लेने के बारे में सोचता। पर जगजीत ने स्कूल बदलने की बजाय, उसी स्कूल में बदलाव लाने की राह चुनी।

जगजीत सिंह बताते हैं कि जब वे पहली बार यहाँ आए थे तो स्कूल बिल्कुल जर्जर हालत में था। सिर्फ़ चार कक्षाएं बनी हुई थी, न कोई शौचालय, न साफ़-सफाई और न ही स्कूल में कोई गेट था। बच्चे या तो स्कूल आते नहीं थे और जो आते थे, वे कक्षाओं में कम दिखाई पड़ते थे। साथ ही, स्कूल जानवरों के लिए भी खुला मैदान था।

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वैसे तो, भारत में सरकारी स्कूल की बात हो तो अक्सर ऐसी ही तस्वीर हमारी कल्पना में आती है और हम प्रशासन को दोष देना शुरू कर देते हैं। पर जगजीत सिंह ने किसी और पर दोष डालने से पहले खुद अपनी ज़िम्मेदारी निभाने की ठानी। उन्होंने बताया,

“सबसे पहले तो जी मैंने अपने स्तर पर काम करना शुरू किया। बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ अन्य खेल-कूद और रचनात्मक गतिविधियों से जोड़ा। इसके अलावा, स्कूल की कोई छोटी-मोटी ज़रुरत होती थी तो मैं अपनी जेब से कुछ पैसे खर्च कर देता।”

जगजीत सिंह वालिया

उन्होंने बच्चों में स्कूल आने के प्रति रूचि बढाने के लिए पंजाब की संस्कृति का अहम हिस्सा, ‘भांगड़ा’ का सहारा लिया। उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ भांगड़ा सिखाना भी शुरू किया क्योंकि वे अपने कॉलेज के दिनों में थिएटर और लोक-कला आदि से काफ़ी जुड़े हुए थे। 42 वर्षीय जगजीत बताते हैं कि बच्चे डांस और नाटक आदि के चाव में रेग्युलर स्कूल आने लगे।

उनकी इन छोटी-छोटी पहलों ने न सिर्फ़ छात्रों को, बल्कि अन्य स्कूल के शिक्षकों को भी प्रेरित किया। जब उन्हें स्कूल के पूरे स्टाफ का साथ मिलने लगा तो जगजीत सिंह ने स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर पर काम करना शुरू किया। पर इस राह में चुनौती थी फंड्स की।

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सरकार से मिलने वाले फंड्स के इंतज़ार में बैठने का कोई फायदा नहीं था। इसलिए जगजीत ने सामुदायिक सहभागिता का रास्ता अपनाया। उन्होंने स्कूल के विकास कार्यों के लिए गाँव से चंदा इकट्ठा करने की ठानी।

“हालांकि, मुझे गाँव के ही कई लोगों ने इस फ़ैसले से पीछे हटने के लिए भी कहा क्योंकि उनका कहना था कि कोई भी इस काम में मदद नहीं करेगा। पर मुझे पता था कि मुझे यह करना है। मेरा काम था कि हम लोगों को भरोसा दिलाएं कि यह उनके अपने बच्चों के लिए ज़रूरी है,”उन्होंने बताया।

जगजीत सिंह ने स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में अपनी टीम के साथ जाकर गाँव के हर घर से चंदा इकट्ठा किया। वे हर सुबह घर-घर जाकर लोगों को समझाते कि अगर वे थोड़ी भी मदद करके सरकारी स्कूल को ही सुधरवा दें तो उन्हें अपने बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूल में भेजने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। उनकी ये कवायद रंग लाई और धीरे-धीरे गाँव के लोग उनकी मदद के लिए आगे आने लगे।

वे बताते हैं कि उन्होंने गाँव से लगभग 15 लाख रुपए चंदे के तौर पर इकट्ठे किए और खुद अपनी जेब से लगभग 2 लाख रुपए दिए। स्कूल के अन्य स्टाफ ने भी आर्थिक मदद की और इस तरह से स्कूल की पूरी काया ही पलट गई।

स्कूल की बदली तस्वीर

जगजीत बताते हैं कि आज उनका स्कूल पंजाब के 3400 स्मार्ट स्कूलों की लिस्ट में आता है और स्कूल में छात्रों की संख्या 230 है। स्कूल में आठ कक्षाएं हैं, छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के लिए शौचालय, स्मार्टक्लास, कंप्यूटर क्लासेस, लाइब्रेरी, खेलने का मैदान, वर्कशॉप लैब और एक एजुकेशनल पार्क भी है।

वैसे तो स्कूल का औपचारिक समय सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक का है। लेकिन स्कूल शाम के 8 बजे तक खुला रहता है।

“हमारे बच्चे स्कूल की छुट्टी के बाद एक-डेढ़ घंटे के लिए घर जाते हैं और फिर कुछ देर खाना खाकर, आराम करके, फिर से स्कूल आते हैं। यहाँ पर वे पहले अपना होमवर्क आदि पूरा करते हैं और फिर शाम में बच्चों के लिए कबड्डी और एथलेटिक्स की प्रैक्टिस होती है,” जगजीत ने बताया।

खेल-कूद के साथ-साथ बच्चों की म्यूजिक क्लास भी होती है। इसके लिए स्कूल ने प्राचीन कला केंद्र नामक एक संगठन से टाई-अप किया हुआ है। इस संगठन के ज़रिए सभी छात्र-छात्राओं को संगीत के क्षेत्र में अपने स्कूल और गाँव का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलता है।

खेल-कूद के साथ अन्य गतिविधियाँ भी

जगजीत सिंह फ़िलहाल स्कूल के इन-चार्ज हैं और उनके अलावा, पांच और शिक्षक स्कूल में अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहे हैं। हालांकि, उनके लिए उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इस स्कूल से पढ़े बच्चे, जो आज कॉलेज तक पहुँच चुके हैं, आज भी स्कूल में आकर नई पीढ़ी को पढ़ाने में उनकी मदद करते हैं। वे आगे बताते हैं,

“अब हम स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के लिए नई-नई तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। हमने स्कूल में ही एक एजुकेशनल पार्क बनवाया है, जहाँ पर ट्रैफिक सिग्नल, एयरोप्लेन आदि के मॉडल बनाए गए हैं। इस सबके ज़रिए हम बच्चों को प्रैक्टिकल तौर पर पढ़ाते हैं ताकि उन्हें हर चीज़ अच्छे से समझ में आए।”

आज स्मार्ट टेक्नोलॉजी की वजह से कहीं न कहीं बच्चों की सोचने की क्षमता सीमित होती जा रही है। इसलिए जगजीत सिंह की कोशिश है कि वे बच्चों को दुनिया के विभिन्न पहलुओं से अवगत करवाएं ताकि बच्चे अपनी सोच और बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल करें और उस विषय पर सोचे।

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मानसा से स्कूल के लिए हर रोज़ 10 किमी का सफ़र करने वाले जगजीत बताते हैं कि जैसे-जैसे स्कूल का स्तर सुधरा, गाँव के सभी लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही भेजना शुरू कर दिया। यह उनके लिए बहुत गर्व की बात है कि आज गाँव का कोई भी बच्चा प्राइवेट स्कूल में नहीं जाता है, और तो और पैसे कमाने के लिए गाँव में जो दो-चार छोटे-बड़े प्राइवेट स्कूल खुले थे, वे भी अब बंद हो गए हैं।

पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई गाँव के सभी बच्चे इस सरकारी स्कूल में ही करते हैं। इसके बाद, आगे की पढ़ाई के लिए उनका कहीं और दाखिला करवाया जाता है। पर इसके लिए भी स्कूल की कोशिश है कि बच्चे आगे भी अच्छे स्कूल जैसे कि जवाहर नवोदय स्कूल आदि की परीक्षा पास करके वहां पढ़ने जाए। इस बार भी स्कूल के 2-3 बच्चों ने यह परीक्षा पास की है।

जगजीत सिंह को उनके प्रयासों के लिए पंजाब सरकार ने सम्मानित भी किया है। साथ ही, साल 2018 में इस स्कूल को स्मार्ट स्कूल घोषित किया गया। स्कूल के उत्थान के लिए जगजीत सिंह मूसा गाँव के निवासियों, शिक्षकों और पंजाब सरकार के शिक्षा विभाग के साथ का तहे दिल से शुक्रिया करते हैं। वे कहते हैं कि अगर आपका समुदाय और साथी आपके साथ हो और प्रशासन में अच्छा अधिकारी हो तो बदलाव और विकास की राह काफ़ी आसान हो जाती है।

“मेरा मानना है कि बच्चे वाकई भगवान का रूप होते हैं। उनका मन एकदम साफ और सच्चा होता है। इसलिए अगर आपको किसी के लिए कुछ नेक काम करना है तो बच्चों के लिए करो। अगर आज आप उनके लिए कुछ करेंगे तो आप भविष्य की राह तय करते हैं। इसलिए शिक्षक होने के नाते हमें हर सम्भव प्रयास करना चाहिए कि हमारे बच्चों को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का मौका मिले,” उन्होंने अंत में कहा।

द बेटर इंडिया, जगजीत सिंह वालिया की सोच और जज़्बे को सलाम करता है और उम्मीद है कि देश के अन्य शिक्षक भी इसी तरह अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए बदलाव की इबारत लिखेंगे।

संपादन – भगवती लाल तेली


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10 साल तक लगातार संशोधन से तैयार की प्याज की उम्दा किस्म, मिला राष्ट्रीय सम्मान!

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हाराष्ट्र के पुणे के पास पाटस गाँव के रहने वाले संदीप विश्राम घोले एक इनोवेटिव किसान हैं, जिन्होंने प्याज की एक ख़ास तरह की किस्म इजाद की है। हल्के लाल रंग की प्याज की इस वैरायटी में पर्पल ब्लोटच यानी कि बैंगनी धब्बों के रोग की प्रतिरोधक क्षमता है और साथ ही, इसकी सेल्फ लाइफ भी बाकी किस्मों से ज़्यादा है।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए 34 वर्षीय संदीप ने बताया कि ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने अपने बुजुर्ग पिता का हाथ बंटाने के लिए लगभग 10-12 साल पहले खेती शुरू की थी। उनके यहाँ ज़्यादातर गन्ने और प्याज की खेती होती है। जब संदीप ने किसानी शुरू की तो उन्होंने अपने पिता और अन्य किसानों की तरह पारम्परिक तरीकों से ही फसल उगाई।

“उस वक़्त कोई ख़ास बचत नहीं होती थी। लगातार कई सालों से प्याज की पैदावार बिल्कुल भी अच्छी नहीं हो रही थी। ऐसे में, मैंने साल 2008 में महाराष्ट्र के ही एक सफल किसान दत्ता राव वने के बारे में पढ़ा। उनसे मिलकर मैंने उनसे नवाचारी खेती के बहुत से गुर सीखे। उन्होंने मुझे बताया कि हमें किसानी में भी ऑडिट के कॉन्सेप्ट के बारे में सोचना होगा। हमें अपने खेतों की मिट्टी, खाद, उर्वरक, बीज, सिंचाई आदि सभी कृषि संबंधित चीज़ों पर गौर करना होगा,”संदीप ने कहा।

संदीप विश्राम घोले

वने से मिलने के बाद, संदीप ने उनके सिखाए हुए सभी गुरों को अपनी 12 एकड़ ज़मीन पर इस्तेमाल करना शुरू किया। उन्होंने सबसे पहले अपने खेतों की मिट्टी को उपजाऊ करने के लिए धीरे-धीरे उर्वरकों की जगह जैविक खाद डालना शुरू किया। इसके अलावा, उन्होंने अपने खेतों में अदल-बदल कर खेती की, जैसे कि जिस एक एकड़ में इस सीजन में गन्ने की खेती की है, उसमें अगले सीजन में मूंगफली की खेती करेंगे।

साथ ही, उन्होंने अपने खुद के देसी बीज बनाना शुरू किया। काफ़ी समय तक उन्होंने अपने प्याज की फसल पर फोकस किया। उन्होंने महाराष्ट्र के कई इलाकों में उगाई जाने वाली स्थानीय प्याज की वैरायटी फुरसुंगी में लगातार संशोधन किए। उन्होंने फसल में से उन पौधों को छांटा, जो आकार में बड़े थे, जिसमें कई परतें थी और जिसमें पत्तियों का एक ही गुच्छा था। पूरे दस साल तक उन्होंने प्याज के इन बीजों को इकट्ठा किया और फिर आखिरकार, साल 2016 में उन्होंने इस वैरायटी को स्टेबल कर लिया।

उन्होंने आगे बताया कि प्याज की इस किस्म से उन्हें फसल उत्पादन में अच्छे परिणाम मिले। इसके बाद उन्होंने अपनी इस वैरायटी को नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF) में भेजा। यहाँ पर विशेषज्ञों ने उनकी वैरायटी की जाँच के लिए बीजों को डॉ. बालासाहेब सावंत कोंकण कृषि विद्यापीठ, दापोली, महाराष्ट्र भेजा। साथ ही, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र-प्रदेश और कर्णाटक आदि राज्यों के किसानों को भी ये बीज दिए।

संदीप प्याज

पूरे तीन साल की जाँच के बाद, NIF ने संदीप के प्याज की वैरायटी को संशोधित वैरायटी प्रमाणित किया। यहाँ पर उन्हें अपने इस नवाचार के लिए सम्मानित किया गया और साथ ही, इस वैरायटी को ‘संदीप प्याज’ का नाम दिया गया।

‘संदीप प्याज’ की ख़ासियत है कि ये प्याज बहुत जल्दी खराब नहीं होती और आप इन्हें लगभग 8-9 महीने तक स्टोर कर सकते हैं। साथ ही, हर एक प्याज का वजन, आकार और रिंग्स की संख्या भी सामान्य प्याज की किस्मों से ज़्यादा होती है। एक एकड़ में, सामान्य तौर पर 42-45 टन प्याज की फसल आप ले सकते हैं।

हालांकि, संदीप के नवाचार सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं हैं। वे अपनी पूरी खेती इनोवेटिव तरीकों से करते हैं। संदीप बताते हैं,

“मैंने अपने खेतों में ड्रिप और स्प्रिन्क्ल इरिगेशन सिस्टम लगाया हुआ है। इससे हम खेतों को सिर्फ़ उतना ही पानी देते हैं जितनी फसल को आवश्यकता है। इसके अलावा, पिछले कई सालों के लगातार प्रयासों से, मैंने अपनी ज़मीन को 80% तक जैविक बना दिया है। ज़रूरत के हिसाब से अब मैं सिर्फ़ 20% तक ही रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करता हूँ।”

ड्रिप-सिस्टम से होती हैं सिंचाई

संदीप की सफलता देखकर, उनके आसपास के किसान भी उनसे प्रेरित हो रहे हैं। आज संदीप व्हाट्सअप के ज़रिए लगभग 500 किसानों से जुड़े हुए हैं, जो उनसे खेती से संबंधित राय लेते रहते हैं। संदीप कहते हैं कि वे हमेशा कृषि से संबंधित कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि यदि आज हम खेती में नवाचार करेंगे तभी आगे बढ़ पाएंगे।

सिर्फ़ खेती से ही आज संदीप विश्राम घोले का सालाना टर्नओवर लगभग 10 लाख रुपए है। ‘संदीप प्याज’ वैरायटी के बीज खरीदने के लिए दूर-दूर से किसान उनके पास आते हैं। सामान्य वैरायटी के लिए जहाँ किसानों को प्रति किलो बीज पर 1500 रुपए देने होते हैं तो वहीं ‘संदीप प्याज’ के एक किलो बीज का मूल्य 2000 रुपए तक जाता है।

संदीप कहते हैं कि उन्हें अपनी प्याज की अलग से मार्केटिंग करने की भी ज़रुरत नहीं पड़ती है। क्योंकि जो भी किसान उनसे जुड़े हुए हैं और जिनके खेतों में उनकी सलाह के चलते आज पहले से ज़्यादा उत्पादन हो रहा है, वे खुद अन्य किसानों को संदीप से जोड़ते हैं।

मिला नेशनल इनोवेशन अवॉर्ड

अंत में संदीप सिर्फ़ यही कहते हैं,

“सबसे पहले तो किसानों को अपनी मिट्टी को स्वस्थ बनाना होगा। जिस तरह से किसान बिना किसी नाप-तोल के रासायनिक उर्वरक खेतों में डाल रहे हैं, उससे उनकी लागत ज़्यादा आती है और पैदावार कम। इसलिए सबसे पहले तो धीरे-धीरे करके हमें अपने खेतों को रसायन की जगह जैविक खाद पर लाना होगा। इसके बाद, सिंचाई के तरीकों में फसल की ज़रुरत के हिसाब से बदलाव करना होगा और साथ ही, बीजों की वैरायटी पर भी बात करनी होगी। अगर सभी किसान पारम्परिक खेती की जगह इनोवेटिव तरीके अपनाएं, तो बेशक हम किसानी से कम लागत में ज़्यादा कमा सकते हैं।”

संदीप विश्राम घोले, हर संभव तरीके से किसानों की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। इसलिए किसी भी तरह के सुझाव और सलाह के लिए आप उन्हें 8390773654 पर कॉल कर सकते हैं!

संपादन – भगवती लाल तेली


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नौकरी मांगने आते थे दिव्यांग जन, कलेक्ट्रेट में ही खुलवाकर दे दिया ‘कैफ़े’!

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पीजेसुराजा तमिलनाडु के थूथुकुडी के कलेक्ट्रेट में बने ‘कैफ़े एबल’ पर काम करते हैं।

दस साल पहले, एक दुर्घटना में अपना दाहिना पैर खोने के बाद, 38 वर्षीय जेसुराजा के जीवन में एक ठहराव सा आ गया था। अपनी शारीरिक दुर्बलता के कारण उन्हें कोई रोजगार नहीं मिल पा रहा था और ऐसे में उन्होंने एक फोटोकॉपी की दुकान खोल ली, लेकिन इसमें भी उन्हें कोई विशेष फायदा नहीं होता था।

इस साल 7 जुलाई को, उनके दशक भर के संघर्ष का अंत तब हुआ जब उन्हें एक ‘कैफ़े’ में सफाई करने और सब्जी काटने की नौकरी मिल गई, जहाँ उन्हें हर महीने एक फिक्स वेतन मिलने लगा।

जेसुराजा उन 12 लोगों में से एक हैं, जिन्होंने ‘कैफ़े एबल’ में रोजगार पाया है। यहाँ 11 लोग लोकोमोटर दिव्यांग यानी पैरों से चलने में असमर्थ हैं और एक बहरे हैं।

 

‘कैफ़े एबल’ में ये दिव्यांग जन हेड शेफ, जूस मास्टर, टी मास्टर, बिलिंग क्लर्क सहित कई पदों के लिए नियुक्त किए गए हैं।  

IAS Sandeep Nandoori
कलेक्टर संदीप नंदूरी ‘कैफ़े एबल’ के दिव्यांग कर्मचारियों के साथ।

‘कैफ़े एबल’ की सोच के पीछे थूथुकुडी के जिला कलेक्टर संदीप नंदूरी का दिमाग है।

“मुझे अक्सर अलग-अलग दिव्यांग जनों से नौकरियों के लिए याचिकाएँ मिलतीं, लेकिन सभी को सरकारी नौकरी देना संभव नहीं था। इसलिए, हमने एक ‘कैफ़े’ खोलने के विचार के साथ उन्हें अपना उद्यम चलाने में सक्षम बनाने का फैसला किया,” संदीप नंदूरी ने ‘द बेटर इंडिया’ को बताया।

उन्होंने सबसे पहले एक स्वयं सहायता समूह का गठन किया, जिसमें वे दिव्यांग जन थे जिन्होंने उनसे नौकरी के लिए अनुरोध किया था। फिर, उन्होंने राजापलायम में ऑस्कर होटल मैनेजमेंट कॉलेज से बात कर इन दिव्यांग जनों को होटल मैनेजमेंट के 45 दिवसीय प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में दाखिला दिलाया।

 

जहाँ ‘कैफ़े एबल’ की ‘ड्रीम टीम’ को ग्राहकों को संभालना, संकट के समय निपटना और पैसों के प्रबंधन आदि के बारे में सिखाया गया।

‘कैफ़े एबल’ में काम करते दिव्यांग कर्मचारियों के साथ संदीप नंदूरी।

इसके बाद तीन निजी कंपनियों के सीएसआर फंड और जिला प्रशासन द्वारा धन जुटाकर कलेक्ट्रेट परिसर में ही ‘कैफ़े’ बनाया गया। जिला प्रशासन ने इन दिव्यांग जनों से ज़मीन के किराए की भी उम्मीद नहीं रखी क्योंकि दिव्यांग जन ‘कैफ़े’ का किराया भरने में सक्षम भी नहीं थे और जिला प्रशासन का मकसद भी इन दिव्यांग जनों को आत्मनिर्भर बनाना ही था।

‘कैफ़े एबल’ के पास आज रसोई के लिए सभी नवीन संसाधन उपलब्ध है। स्वादिष्ट दक्षिण भारतीय नाश्ते, दोपहर और रात के भोजन, गर्म पेय पदार्थों से लेकर जूस तक, इनके पास सभी चीजें उचित दरों पर उपलब्ध है।

दिव्यांग जनों के प्रति लोगों की सोच को बदलने के लिए संदीप नंदूरी अक्सर कैफे में चर्चा और बैठकें करते हैं।

“हम वहां से स्टाफ मीटिंग के लिए खाने की चीजें भी मंगवाते हैं और जिला अधिकारियों को भी वहां भोजन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, “संदीप नंदूरी ने कहा।

 

संदीप नंदूरी की इस पहल के चलते ‘कैफ़े’ के ग्राहकों में भी वृद्धि हुई है। आज ‘कैफ़े’ के प्रतिदिन की कमाई लगभग 10 हज़ार रुपए है।

IAS sandeep nanduri
‘कैफ़े एबल’ पर खाना खाते कस्टमर्स।

‘कैफ़े’ में वित्त प्रबंधन इस तरह से किया गया है कि लाभ का आधा हिस्सा बैंक में जमा किया जाता है जहाँ से दिव्यांग कर्मचारियों को वेतन मिलता है। बाकी के पैसे सामग्री खरीदने के लिए उपयोग में लिए जाते हैं।

“कुछ शुरुआती सहायता की आवश्यकता थी, इसके बाद जल्द ही यह दिव्यांग कर्मचारी अपने दम पर ‘कैफ़े’ का प्रबंधन करने में सक्षम हो गए। आज, सैकड़ों लोग रोज़ाना ‘कैफ़े’ जाते हैं। लंच का समय आम तौर पर इनके लिए सबसे व्यस्त समय होता है,”संदीप नंदूरी ने कहा।

 

संदीप नंदूरी का मानना है कि एक महीने से अधिक समय हो गया है और ‘कैफ़े’ सही तरीके से संचालित हो रहा है। यह समावेशिता और स्वीकृति की दिशा में एक बड़ा कदम है।

ias sandeep nanduri
कैफ़े एबल।

संदीप नंदूरी ने इन दिव्यांग कर्मचारियों के रवैये में भी बदलाव देखा है और यह उनके लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है। जब प्रशिक्षण शुरू हुआ था तब दिव्यांग जनों में आत्मविश्वास की कमी थी और वे असफलता से डरते थे। आज, उनके व्यवहार में भारी बदलाव आया है। उद्यम में सफल होने के लिए उनके डर को विश्वास की भावना से बदल दिया गया है।

 

संपादन – मानबी कटोच 

मूल लेख – गोपी करेलिया 


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पिता से सीखा ऑर्गेनिक अचार बनाने का गुर, नौकरी छोड़ कर शुरू किया स्टार्टअप!

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निहारिका भार्गव के लिए उनके बचपन की सबसे खूबसूरत याद है घर में ताजा संतरों से बनाये गए अचार की खुशबू। वैसे तो ज़्यादातर भारतीय घरों में औरतें अचार आदि बनाने का काम करती हैं, लेकिन निहारिका के यहाँ यह काम उनके पापा करते थे। उनके पापा खुद अपने हाथों से अचार बनाते थे और फिर उसे अच्छे से बोतलों में पैक कर नाते-रिश्तेदारों के यहाँ भिजवाते।

“यह सिर्फ़ स्वाद नहीं था जो उनके अचार को ख़ास बनाता था, बल्कि बात तो उस प्यार और प्रयास की थी जो अचार बनाने में लगता था। अचार के लिए इस्तेमाल होने वाले संतरे हमारे घर के बगीचे में ही उगते थे,” निहारिका ने द बेटर इंडिया को बताया।

26 वर्षीय निहारिका दिल्ली में पली-बढ़ी हैं और उन्होंने लंदन के एक बिज़नेस स्कूल से मार्केटिंग स्ट्रेटेजी एंड इनोवेशन में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। किसी ने भी नहीं सोचा था कि निहारिका एक अच्छी-ख़ासी नौकरी छोड़कर अपने पापा के शौक को अपना व्यवसाय बना लेंगी।

निहारिका भार्गव

23 साल की उम्र में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपना खुद का स्टार्टअप, “द लिटिल फार्म कंपनी” शुरू किया। आज यह स्टार्टअप अचार से लेकर डिप्स, चटनी, सुपरफूड और मुरब्बा आदि बेच रहा है। ये सभी प्रोडक्ट्स ‘पारम्परिक’ रेसिपी से तैयार किये जाते हैं। साथ ही, उनके प्रोडक्ट्स पूरी तरह से ऑर्गेनिक और फार्म फ्रेश हैं। इनमें किसी भी तरह के आर्टिफिशियल प्रेजरवेटिव का इस्तेमाल नहीं होता।

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इन प्रोडक्ट्स की खास बात यह है कि इन्हें बनाने के लिए सब्ज़ियाँ, फल, तेल और मसाले आदि मध्य-प्रदेश के पहाड़ापूर्वा गाँव में स्थित उनके फार्म में उगाया जाता है। इस फार्म को उनके पिता ने ख़रीदा था। 400 एकड़ के इस फार्म में 100 एकड़ पर खेती होती है। इस फार्म के दो तरफ सरकारी ज़मीन है और तीसरे किनारे पर नदी बहती है, जो कि प्राकृतिक स्त्रोत है पानी का।

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निहारिका ने अपनी नौकरी छोड़ने के बाद सभी चीज़ों पर काम करना शुरू किया, जिसमें रिसर्च और डेवलपमेंट, रेसिपी बनाना, ब्रांडिंग करना और कंपनी का रजिस्ट्रेशन शामिल था। फिर उन्होंने मार्किट को समझने के लिए घर पर बने प्रेजरवेटिव-फ्री अचार के छोटे-छोटे सेट तैयार किए।

Little Farm Co -Mandarin Orange Pickle

“मैं संदेह में थी कि अचार काम करेगा या नहीं। क्योंकि ज़्यादातर भारतीय घरों में अचार बनाने की परम्परा है। लेकिन मार्केट रिसर्च से पता चला कि टियर 1 और 2 शहरों में लोगों को भले ही घर पर बना अचार खाना पसंद है पर उनके पास इसे बनाने का वक़्त नहीं होता है। साथ ही बाज़ार में भी जो अचार उपलब्ध है उनमें आर्टिफिशियल प्रेजरवेटिव और एडीटिव्स की मात्रा बहुत अधिक होती है, जिससे उनकी सेल्फ-लाइफ कम हो जाती है और साथ ही, स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। जब मैं और मेरे पापा अपने प्रोडक्ट्स के साथ एक प्रदर्शनी में गए और वहां स्टॉल लगाया तो लोगों की प्रतिक्रिया बहुत अच्छी थी। क्योंकि सभी लोग ऐसा कुछ चाहते हैं जो कि आर्टिफिशियल प्रेजरवेटिव से मुक्त हो। हमारा स्टॉक कभी भी नहीं बचा और इससे हमारा आत्म-विश्वास काफी बढ़ा है,” निहारिका ने बताया।

उन्हें पता था कि उन्हें इस काम के लिए दिल्ली और पहाड़ापूर्वा की बार-बार यात्रा करनी पड़ेगी, इसलिए उन्होंने अपनी ड्रीम टीम बनाना शुरू किया, जिसमें ज़्यादातर महिलाएं हैं।

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उन्होंने सामाजिक संगठन, आशा के साथ टाई-अप किया। आशा ने उन्हें ऐसी महिलाओं से मिलवाया जिन्हें रोज़गार की तलाश थी और उनमें यह काम करने का कौशल भी था।

फार्म में उनकी टीम

आज, उनके फार्म में 13 लोग काम करते हैं जिनमें से 10 महिलाएं हैं और ये सभी न सिर्फ जैविक खेती करना बल्कि अचार बनाना भी जानती हैं। उनके सबसे ज़्यादा बिकने वाले प्रोडक्ट्स में से एक जैलेपनो गार्लिक डिप की रेसिपी इन्हीं औरतों में से एक बुजुर्ग महिला, चम्पा ने बनाई हैं। चम्पा के दोनों पैर भले ही एक दुर्घटना में कट चुके हो पर ज़िन्दगी जीने का उनका जज़्बा कभी कम नहीं हुआ है।

वे बताती हैं,

“हमारे सभी प्रोडक्ट्स फार्म में ही हाथों से बनाए जाते हैं पर पैकेजिंग यूनिट गुरुग्राम में है। हम प्रोडक्ट्स की ज़रूरत की ज़्यादातर सभी चीज़ें अपने फार्म में ही उगाते हैं। कुछ चीज़ें जो हम नहीं उगा सकते, ऑर्गेनिक सप्लायर्स से मंगवा ली जाती हैं।”

उनकी यूएसपी

“हम अपने सभी प्रोडक्ट्स के लिए प्राकृतिक प्रेजरवेटिव के अलग-अलग कॉम्बो का उपयोग करते हैं। हम कोई आर्टिफिशियल मिठास नहीं डालते। हम चीनी के लिए खांड और गुड़ का पाउडर इस्तेमाल करते हैं। हमारे अचार में कोई सिंथेटिक सिरका या सफेद नमक नहीं है। हम गन्ने के सिरके, ताज़े कोल्ड-प्रेस्ड सरसों या तिल के तेल और सेंधा नमक का इस्तेमाल करते हैं, “निहारिका ने कहा।

उनके यहां फलों और सब्जियों को प्राकृतिक रूप से पकने दिया जाता है और अचार बनाने की प्रक्रिया शुरू होने के दो घंटे पहले ही उन्हें तोड़ा जाता है। सूखाने के लिए भी मशीन की बजाय उन्हें धूप में सूखाया जाता है।

मिक्सर-ग्राइंडर के अलावा, महिलाएं प्रोडक्शन यूनिट में किसी भी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट का इस्तेमाल नहीं करती हैं। लेकिन जैसे-जैसे उनका काम बढ़ रहा है, वे सब्जी-फल को काटने आदि के काम के लिए मशीन लाने की सोच रही हैं।

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यह उनके गुणवत्ता से भरपूर खाद्य सामग्री का कमाल है कि अब निहारिका सिर्फ अपने तैयार उत्पाद जैसे कि अचार से ही नहीं बल्कि कच्चे पदार्थ जैसे कि ट्रेल मिक्स, कद्दू के बीज, चिया बीज, सन बीज, सूरजमुखी के बीज, मसाले, गन्ने का सिरका और तेल आदि से भी अपना व्यवसाय आगे बढ़ा रही हैं।

पर सभी प्रोडक्ट्स ऑर्गेनिक हैं तो उनके स्लेफ़ लाइफ बहुत कम होगी?

“हम प्राकृतिक प्रेजरवेटिव इस्तेमाल करते हैं और इससे अचार खराब नहीं होता है। लेकिन ऑयल-फ्री प्रोडक्ट्स की सेल्फ-लाइफ कम होती है। हमारे सभी बोतल पर दिशा-निर्देश लिखे होते हैं कि गीली चम्मच का इस्तेमाल न करें और पानी से दूर रखें,” उन्होंने कहा।

फ़िलहाल वे 70 प्रोडक्ट्स बेच रहे हैं और जो कम्पनी 3 लाख रुपए से शुरू हुई थी और वह आज 7 लाख रुपए का सालाना टर्नओवर कमा रही है।

इस कंपनी के साथ काम करने वाली सभी महिलाएं अपने गाँव में परम्पराओं को बदल रही हैं क्योंकि यह बहुत ही कम होता है कि घूँघट रखने वाली महिलाएं काम करे। पिछले तीन साल से यहां काम कर रही 40 वर्षीया श्याम बाई बताती हैं कि वे इस फार्म पर काम करके उन्हें बहुत ख़ुशी मिलती है क्योंकि अब वे किसी और पर निर्भर नहीं हैं।

यशोदा

तो वहीं 35 वर्षीया यशोदा, जो अपनी बेटियों के साथ यहां काम कर रही हैं, कहती हैं कि अब वे और उनकी बेटियां अच्छी ज़िन्दगी जी सकते हैं। क्योंकि यहां काम करने से उनका घर चल रहा है, दो वक़्त का खाना मिल रहा है और बच्चे स्कूल भी जा पा रहे हैं। इससे ज़्यादा उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए।

इसी तरह एक और कर्मचारी, बालकुमारी दो साल से काम कर रही हैं। वे कहती हैं, ” मेरे पति एक किसान हैं और दिन-रात मेहनत करते हैं। यहां काम करके मैं उनका कुछ बोझ तो कम कर ही सकती हूँ।”

यह भी पढ़ें: बैग भी डेस्क भी! IIT ग्रेजुएट के इनोवेशन से एक लाख गरीब बच्चों को झुककर बैठने से मिली राहत!

निहारिका अंत में सभी महिला उद्यमियों के लिए सिर्फ एक ही सन्देश देती हैं, “मैं अक्सर ऐसी बहुत-सी महिलाओं से मिलती हूँ जिनके पास स्टार्टअप के लिए अच्छे आइडियाज हैं पर फिर उनके पास बीसों बहाने हैं कि उनके आईडिया क्यों नहीं चलेंगे। लेकिन आपको तब तक पता नहीं चलेगा जब तक कि आप शुरुआत न करें। जब आप अपनी मार्केट रिसर्च करके काम शुरू करते हैं तो आपको 99 वजह मिल जाएंगी कि यह क्यों चलेगा। आपको सिर्फ एक कोशिश करनी है। अगर आपके पास कोई आईडिया है तो उस पर काम करना शुरू करो।”

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संपादन – भगवती लाल तेली
मूल लेख: जोविटा अरान्हा 


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यूट्यूब से हर महीने 2 लाख रुपए कमाता है हरियाणा का यह किसान!

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रियाणा के किसान दर्शन सिंह प्रतिमाह लगभग दो लाख रुपए कमाते हैं,

लेकिन खेती से नहीं।

तो आप पूछेंगे कैसे?

YouTube से

जी हाँ, आपने सही सुना।

अम्बाला जिले के नारायणगढ़ तहसील के पाटवी गाँव के रहने वाले दर्शन का चैनल फार्मिंग लीडर YouTube पर सबसे प्रभावशाली कृषि चैनलों में से एक है। अपने लॉन्च के एक साल के अंदर ही यह 2 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर्स हासिल करने में कामयाब रहा है और हर दिन लाखों लोग इनके चैनल पर वीडियोज देखते हैं।

इनोवेटिव, देसी खेती के जुगाड़ से लेकर फसलों को उगाने के विज्ञान तक, डेयरी फार्मों की स्थापना और कृषि उत्पादों की समीक्षा करने के लिए, दर्शन का चैनल किसानों के उन सभी जवाबों को खोजने के लिए एक मंच है, जिनकी उन्हें आवश्यकता है।

एक कृषि परिवार में पले बढ़े दर्शन को पता था कि वे खेती को एक पेशे के रूप में आगे बढ़ाना चाहते हैं। 2015 तक, उन्होंने पढ़ाई के साथ ही अपने 12 एकड़ के खेत में कृषि का अभ्यास करना शुरू कर दिया।

 

ऐसे समय में जब उनके आस-पास के अधिकांश किसान रासायनिक खेती कर रहे थे, तब दर्शन ने जैविक खेती करने का फैसला किया।

darsan singh farming leader
दर्शन सिंह।

हालाँकि अब दर्शन ने अपने खेत का काम एक दोस्त को हस्तांतरित कर दिया है, जिनके साथ वे पार्टनरशिप में औषधीय खेती कर रहे हैं।

जब उनसे पूछा गया कि YouTube चैनल शुरू करने का विचार उन्हें कैसे आया, तो वे कहते हैं, “एक आवश्यकता से।”

“2017 में, मैंने अपनी आय को बढ़ाने के लिए डेयरी फार्मिंग शुरू करने का फैसला किया, तब मेरे सामने अपने मवेशियों को प्रशिक्षित करने से लेकर सही तरह का चारा तैयार करना, उनका इलाज आदि करना, जैसी कई तरह की चुनौतियां थी। ऐसे में जब मैंने इसके समाधान के लिए ऑनलाइन चीज़ें सर्च करनी शुरू की तो इंटरनेट पर ऐसी सामग्री मिली जिसमें खेती के बारे में कोई विस्तार से जानकारी नहीं थी।”

ऐसे में एक किसान के रूप में दर्शन ने महसूस किया कि कुछ सीखने का एकमात्र तरीका यह है कि इसे मौके पर ही जाकर देखा जाए। इसलिए उन्होंने पंजाब और हरियाणा के सफल किसानों से मिलना शुरू कर दिया। अपनी यात्रा के दौरान, दर्शन ने खेती से जुड़ी ऐसी चीज़ों के बारे में सोचना शुरू किया जो सुलभ हो सकती थी और किसानों को लाभान्वित कर सकती थी।

darshan singh farming leader
किसानों के साथ दर्शन सिंह।

सफल किसानों से मिलने के दौरान उन्हें इन किसानों की सफलता और इनके द्वारा अपनाए गए तरीके दूसरे किसानों तक पहुंचाने का ख्याल आया।

“मैंने सोचा कि क्यूँ न मैं उन सफल किसानों के वीडियो रिकॉर्ड करना शुरू करूँ, जिनसे मैं मिलता हूँ और उन्हें YouTube पर पोस्ट करूँ?,”दर्शन ने कहा।

दर्शन ने चैनल बनाया और वीडियो पोस्ट करने लगे। इस प्रकार, फार्मिंग लीडर की शुरुआत सितंबर 2017 में हुई।

दर्शन शुरुआत में अपने फोन पर ही वीडियो शूट करते थे। लोगों की अच्छी प्रतिक्रिया को देखते हुए उन्होंने एक कैमरा व लैपेल माइक खरीदा और सप्ताह में तीन से चार वीडियो पोस्ट करना शुरू कर दिया। यह काम वे खेती के दौरान ही कर रहे थे। चैनल लॉन्च होने के छह महीने के अंदर ही उनके वीडियोज को लाखों व्यूज मिलने लगे और मार्च 2018 तक चैनल मॉनिटाइज भी हो गया।

 

दर्शन को जब YouTube से होने वाली आय खेती की कमाई से अधिक लगी, तो उन्होंने YouTube को अपना पूर्णकालिक पेशा बनाने का फैसला किया। आज उनके चैनल पर 500 से अधिक वीडियोज हैं।

darsan singh farming leader
1 मिलियन सब्सक्राइबर्स होने पर ख़ुशी मनाते दर्शन सिंह।

इन वीडियोज ने किसानों के जीवन पर जो प्रभाव डाला, उसे समझने के लिए ‘द बेटर इंडिया’ ने ऐसे दो किसानों से संपर्क किया, जो अब अपने गांवों में मिनी YouTube स्टार बन गए थे।

सिरसा, हरियाणा में एसआर कमर्शियल बकरी फार्म के मालिक संदीप सिंह, जिनके वीडियो ने 1.4 मिलियन व्यू प्राप्त किए हैं, कहते हैं:

“दर्शनजी ने हमारे वीडियो को 1.5 साल पहले शूट किया था, उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया हमें मिली, वह मन को लुभाने वाली थी। हमारे ग्राहकों की मांग इस हद तक बढ़ गई है कि हमारे लिए उनसे मिलना मुश्किल हो रहा है। YouTube के माध्यम से हम सात से अधिक राज्यों के किसानों को प्रशिक्षित करते हैं। उन्होंने हमें अपना YouTube चैनल बनाने में भी मदद की, जिसके अब 40,000 सब्सक्राइबर्स हैं।”

संदीप सिंह की तरह ही हरविलास सिंह के वीडियो को भी 5 मिलियन बार देखा गया है। हरविलास सिंह डेयरी फार्म क्षेत्र में वर्षों से काम कर रहे हैं और ऐसी तकनीकों को अपना रहे हैं जिससे मवेशी स्वस्थ रहें। वीडियो आने से पहले उनके काम के बारे में कोई नहीं जानता था। लेकिन दर्शन सिंह के चैनल पर वीडियो आने के बाद देश भर से उनके पास कॉल आते हैं। वीडियो ने उनके व्यापार को तीन गुना बढ़ा दिया है।

darshan singh farming leader
एक खेत पर वीडियो शूट करने से पूर्व दर्शन सिंह।

दर्शन की खासियत यह है कि वे क्लिकबाइट सामग्री बनाते हैं यानी जिसे देखते ही उस पर क्लिक करने का मन करे। वह किसानों के पास जाते हैं, उनकी खेती की प्रक्रिया को पूरा समझते हैं। उसके बाद ही वह वीडियो को अपने चैनल पर अपलोड करने का फैसला करते हैं।

सबसे यादगार शूटिंग के अनुभवों में से एक को याद करते हुए, दर्शन कहते हैं,

“एक बार जब मैं एक किसान कार्यक्रम के लिए जयपुर गया, तो मुझे पूरे राजस्थान के कुछ सबसे सफल और प्रेरणादायक किसानों से मिलने का सौभाग्य मिला। उन्होंने अपने क्षेत्रों में जिन तकनीकों और नवाचारों को शामिल करने में कामयाबी हासिल की थी, उससे साबित होता है कि किसान सचमुच कृषि-वैज्ञानिक हैं। एक दिन में मैंने 30 से अधिक किसानों का साक्षात्कार लिया। उन वीडियोज में से प्रत्येक में लगभग एक मिलियन व्यूज हैं।”

दर्शन सिंह उन विषयों को समझने के लिए बड़े पैमाने पर यात्रा करते हैं जिनके बारे में किसान अधिक जानना चाहते हैं। अक्सर, वह विभिन्न चैनलों या फेसबुक पर सफल किसानों की कहानियां देखते और पढ़ते रहते हैं। इस दौरान अगर उन्हें लगता है कि वह किसान कुछ अनोखा और अलग कर रहे हैं और उनकी विधि सफल और नैतिक है तो वे उनसे संपर्क कर शेड्यूल तय करते हैं।

 

कभी-कभी किसान की व्यस्तता के चलते इसमें हफ़्तों लग जाते हैं, लेकिन जब वीडियो शूट हो जाता है तो उसे एक दिन में ही एडिट कर अपलोड कर दिया जाता है।

darshan singh farming leader
वीडियो शूट करने के दौरान अपने सहयोगी के साथ दर्शन सिंह।

दर्शन हमेशा सीखने की कोशिश करते रहते हैं। उनका ध्यान हमेशा प्रामाणिक जानकारी देने पर रहता है ताकि किसान को कोई गलत या भ्रामक जानकारी नहीं मिले।

अपनी बात के अंत में दर्शन किसानों के लिए विपणन की आवश्यकता पर जोर देते हैं। वे कहते हैं कि किसान हमारी सभी बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय किसान कुछ भी उगा सकते हैं, लेकिन उनमें उद्यमशीलता की भावना की कमी होती है। इसलिए उन्हें अपनी उपज का विपणन करना, ऑन-ग्राउंड मार्केटिंग करना, ग्राहकों से मिलकर अपना नेटवर्क बनाना सीखना होगा। इसके बाद ही वे अपनी फसलों और उत्पादों का सही बाजार मूल्य प्राप्त कर पाएंगे।

अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी और आप दर्शन सिंह से सम्पर्क करना चाहते हैं तो उन्हें  ई-मेल कर सकते हैं। उनके YouTube चैनल को देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।

संपादन – मानबी कटोच 

मूल लेख – जोविटा अरान्हा 


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15 की उम्र में शादी, 18 में विधवा : कहानी भारत की पहली महिला इंजीनियर की!

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क मध्यम वर्गीय तेलगु परिवार में जन्मी ए ललिता की शादी तब कर दी गई थीं जब वह मात्र 15 वर्ष की थीं। 18 साल की आयु में ये एक बच्ची की माँ बनीं और दुर्भाग्यवश इसी के चार महीने बाद ही उनके पति का निधन हो गया। 4 माह की श्यामला अब पूरी तरह से अपनी विधवा माँ की ज़िम्मेदारी थी।

हालांकि मद्रास में तब सती प्रथा का चलन नहीं था फिर भी एक विधवा को समाज से अलग, एक निर्वासित व कठिन जीवन जीना पड़ता था। प्रगतिशील विचारों व दृढ़ निश्चय वाली ललिता ने वैसे समय में समाज के दबाव में न आकर अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने की ठानी और इंजीनियरिंग करने का फैसला किया। यहीं से शुरू हुआ उनका वह सफर जिसने उन्हें भारत की पहली महिला इंजीनियर बना दिया।

27 अगस्त 1919 में जन्मी ललिता अपने माता-पिता की पांचवी संतान थीं। सात बच्चों के इस परिवार में एक ओर जहां लड़कों को इंजीनियर बनने की शिक्षा दी गई, वहीं दूसरी ओर लड़कियों को बुनियादी शिक्षा तक ही सीमित रखा गया।

 

ललिता के पिता ने ललिता को भी 10वीं तक ही पढ़ाई कराई ताकि उनकी पढ़ाई उनके वैवाहिक जीवन के आड़े न आए।

A lalitha first woman engineer
ए ललिता। Source: Women of College of Engineering, Guindy/ Facebook.

एक माँ का संकल्प जो इतिहास बन गया

ललिता की बेटी श्यामला चेनुलु अमेरिका में रहती हैं और आज भी उनके दिमाग में वो यादें ताजा हैं जिसमें उनकी माँ ने अपने आगे आई हर एक चुनौती का सामना हौसले से किया।

श्यामला बताती हैं, “जब मेरे पिता का निधन हुआ, उसके बाद मेरी माँ को वो सब सहना पड़ा जो उन्हें नहीं सहना चाहिए था। उनकी सास ने अपना 16वां बच्चा खोया था और इसका गुस्सा वे इस कम उम्र की विधवा पर निकालती थीं। परिस्थिति से जूझने का यह एक तरीका था और मैं आज समझ सकती हूँ कि उन पर क्या बीत रही थीं। हालांकि मेरी माँ ने सामाजिक दबावों के आगे न झुकने की ठानी। वह आगे पढ़ना और एक अच्छी नौकरी पाना चाहती थीं।”

उन दिनों चिकित्सा की पढ़ाई औरतों के बीच प्रचलित थी। पर इस प्रोफेशन में आपको 24 घंटे उपलब्ध रहने की आवश्यकता पड़ती है और ललिता ऐसी नौकरी में नहीं जाना चाहती थीं जिसमें उन्हे अपनी बेटी को बीच रात में छोड़ कर निकलना पड़े। उन्हें 9 से 5 बजे वाली नौकरी ही चाहिए थी जिससे वे अपना बाकी का समय अपनी छोटी बच्ची के साथ बिता पाए।

अपने पिता और भाइयों की तरह ललिता ने भी इंजीनियर बनने का फैसला किया। ललिता के पिता पप्पू सुब्बा राव, मद्रास विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, गिंडी (CEG) में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे। उन्होने वहाँ के प्रधानाचार्य केसी चाको, पब्लिक इन्सट्रक्शन के निदेशक आरएम स्ताथम से बात की।

 

दोनों ने इस कॉलेज में एक महिला को दाखिला देने का समर्थन किया। यह CEG के इतिहास में पहली बार होने वाला था।

first woman engineer of india
अपने कॉलेज के दिनों के दौरान ए ललिता।  (फोटो साभार – श्यामला)

श्यामला बताती हैं, “लोगों की सोच के विरुद्ध, कॉलेज के विद्यार्थी का रवैया बहुत सहयोगपूर्ण था। सैकड़ों लड़कों के बीच वह अकेली लड़की थीं पर उन्हें कभी किसी ने असहज नहीं होने दिया। वहाँ अधिकारियों ने उनके लिए एक अलग हॉस्टल का प्रबंध भी किया। जब वह कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर रही थीं तब मैं अपने अंकल के पास रहती थी और वो सप्ताह के अंत में मुझसे मिलने आया करती थीं।”

1940 में अपनी पढ़ाई शुरू करने के कुछ महीनों बाद ही ललिता ने शिकायत की कि उनके हॉस्टल में उन्हें अकेला महसूस होता है, हालांकि कॉलेज में उन्हें कोई परेशानी नहीं थी। ऐसे में उनके पिता ने अन्य महिलाओं को इंजीनियरिंग करने के लिए प्रेरित करने और CEG में महिलाओं के दाखिले का प्रचार करने का काम किया। जल्द ही लीलम्मा जॉर्ज और पीके थ्रेसिया ने सिविल इंजीनियरिंग के कोर्स में दाखिला लिया।

वैसे तो दोनों ललिता से एक वर्ष जूनियर थीं पर फिर भी ये तीनों एक साथ ग्रेजुएट हुए। दरअसल, 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था और उस कारण इस विश्वविद्यालय ने इंजीनियरिंग कोर्स को कुछ महीनों पहले पूरा करने का निश्चय किया था।

भारत की पहली महिला इंजीनियर बनने के बाद का सफर

CEG से स्नातक होने के बाद, कुछ समय के लिए, ललिता ने शिमला में सेंट्रल स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन और साथ ही चेन्नई में अपने पिता के साथ भी काम किया।

 

ललिता, थ्रेसिया और लीलम्मा के स्नातक होने पर इनके लिए CEG को अपने पहले से छ्पे हुए प्रमाणपत्रों में ‘HE’ को हटा कर ‘SHE’ लिखना पड़ा था।

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ए ललिता के कॉलेज की डिग्री, जिस पर HE को हटाकर SHE लिखा गया है। (फोटो साभार – रूट्स एंड विंग्स /डॉ शांता मोहन। )

उनके पिता राव ने जेलेकट्रोमोनियम ( एक विद्युत संगीत वाद्ययंत्र) और इसके अलावा इलेक्ट्रिक फ्लेम प्रोड्यूसर व धुआँ रहित चूल्हे का आविष्कार किया। ललिता इस काम के दौरान अपने पिता के साथ थीं। लेकिन अपने पिता के वर्कशॉप में 9 माह काम करने के बाद ही ललिता आगे बढ़ने के अन्य रास्ते तलाशने लगी और जल्द ही कोलकाता के एसोसिएटेड इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्रीज में काम करने लगी।

“मेरी आंटी कोलकाता में रहती थी जिनका बेटा मेरी उम्र का था। उनसे हमारे काफ़ी नजदीकी रिश्ते थे इसलिए माँ काम पर जाते समय मुझे उनके पास छोड़ जाती थी। मैं इसी तरह बड़ी हुई। हालांकि, आज मैं समझ पा रही हूँ कि मेरी माँ भारत में महिला शिक्षा के इतिहास में और साथ ही इंजीनियरिंग के इतिहास में भी कितनी महत्वपूर्ण हैं। उस समय, मैं बस इतना जानती थी कि मेरी माँ एक इंजीनियर हैं,” श्यामला ने कहा।

आगे के वर्षों में ललिता के उपलब्धियों की सराहना अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी की गई।

 

उदाहरण स्वरूप, 1964 में न्यूयॉर्क में आयोजित पहले इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑफ वुमन इंजीनियर एंड साइंटिस्ट (ICWES) में उनको आमंत्रित किया गया।

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अमेरिका में कॉन्फ्रेंस के दौरान साथी प्रतिभागियों के साथ ए ललिता। (बाएं से प्रथम) (फोटो –  Mathisarovar/ Dr. Shantha Mohan )

इसी कॉन्फ्रेंस के दौरान श्यामला को अपने माँ के प्रोफेशन का महत्व पहली बार पता चला।

श्यामला कहती हैं, “उनके जीवन से मैंने कुछ सीखा है तो लोगों के प्रति उनका असीम धैर्य और बोलने के बजाय कर दिखाने का उनका गुण। उन्होंने कभी दूसरी शादी नहीं की और न मुझे मेरे जीवन में एक पिता की कमी महसूस होने दी। उनका मानना था कि लोग हमारे जीवन में किसी उद्देश्य के लिए आते हैं और जब वह पूरा हो जाता है, तो वह चले जाते हैं। मैंने उनसे कभी नहीं पूछा कि उन्होंने दूसरी शादी क्यों नहीं की। जब मेरे पति ने पूछा था, तब उन्होंने उत्तर में कहा था, “क्या एक वृद्ध की दोबारा देखभाल करने के लिए ? नहीं, शुक्रिया!”

अपने पूरे करियर में ललिता ने दो बातों का हमेशा ख्याल रखा – पहला, उनकी बेटी का पालन पोषण प्यार भरे माहौल में हो और दूसरा, एक पुरुष प्रधान समाज में उनका औरत होना किसी भी प्रकार की रुकावट न बने। न्यूयॉर्क कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा भी था, “अगर मैं 150 साल पहले पैदा हुई होती तो मुझे मेरे पति के साथ चिता की आग में जला दिया गया होता।”

भारत की महिलाओं के लिए यह सौभाग्य की बात है कि उन्होंने एक ऐसा कदम बढ़ाने की हिम्मत दिखाई जिससे आगे अन्य महिलाओं के लिए इंजीनियर बनने के रास्ते खुल गए। मात्र 60 वर्ष की आयु में ललिता ने इस दुनिया से विदा ले ली पर अपने पीछे एक ऐसी प्रेरणा छोड़ गयीं जो आगे की पीढ़ी के लिए अनमोल है।

 

संपादन – मानबी कटोच

मूल लेख – तनवी पटेल 


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मेस में खाने की बर्बादी देख छात्रों ने की पहल, अब 30 अनाथ बच्चों को मिल रहा है खाना!

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बंगलुरु के रहने वाले सिद्धार्थ संतोष, निखिल दीपक, वरुण दुरै, सौरव संजीव और कुशाग्र सेठी, द अमात्रा एकेडमी में 12वीं कक्षा के छात्र हैं। वैसे तो साल का यह वह वक़्त है जब बच्चे बाकी सब बातों से ध्यान हटाकर अपने टेस्ट, इंटरनल और आगामी परीक्षाओं की तैयारी में लग जाते हैं।

पर इन पांच दोस्तों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ कुछ और भी ज़रूरी है। ये छात्र अपनी पढ़ाई के साथ 800 किलोग्राम खाने की बर्बादी भी रोक रहे हैं। द बेटर इंडिया से बात करते हुए, सिद्धार्थ ने इस बारे में विस्तार से बताया,

“हमारे स्कूल में हर दिन ताजा खाना बनता है और बहुत बार, काफ़ी मात्रा में खाना वेस्ट जाता है क्योंकि पूरा इस्तेमाल नहीं होता है। हम पांचों हर दिन इतना खाना बेकार होते हुए देखते थे।”

अनाथआश्रम में कुछ बच्चों के साथ सिद्धार्थ

उन्होंने इस बारे में कुछ करने की ठानी।

रिसर्च करने पर उन्हें कुछ चौंका देने वाले फैक्ट्स पता चले, जैसे कि भारत में हर दिन बहुत से लोग सिर्फ़ भूख के कारण मर जाते हैं। सिद्धार्थ ने कहा,

“हम चाहते थे कि यह खाना उनके पास पहुंचे, जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत है और इस तरह से ‘वेस्ट नॉट (Waste Nought)’ की शुरुआत हुई।”

उन्होंने सबसे पहले अपने मेस के इंचार्ज से बात ही और वे तुरंत मान गए।

लेकिन खाना बनने के बाद उसे ट्रांसपोर्ट करना आसान नहीं था, इसलिए उन्होंने तय किया कि उन्हें यह काम स्कूल के आस-पास ही करना होगा। इसके बाद उन्होंने ऐसी जगहों की तलाश की जहाँ वे इस खाने को दे सकते थे।

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कई सारे एनजीओ और अनाथालयों से बात करने के बाद, उन्हें बंगलुरु के बत्तराहल्ली में श्री कृष्णाश्रय एजुकेशनल ट्रस्ट के बारे में पता चला। इस अनाथ आश्रम में 30 बच्चे, 27 लड़के और 3 लड़कियाँ रहते हैं। इन सबकी उम्र 5 से 18 साल के बीच है। उन्हें समझ में आ गया कि इस आश्रम के बच्चों के लिए खाना भेजना बिल्कुल सही रहेगा और साथ ही, स्कूल से आश्रम की दूरी भी बहुत ज़्यादा नहीं है।

इसलिए, अब हर रविवार, Waste Nought टीम स्कूल की कैंटीन से बचे हुए खाने को पैक करती है और इस आश्रम में बच्चों के लिए पहुँचाती है।

वरुण दुरै (बीच में) खाना ले जाते हुए

इस अनाथ आश्रम के मैनेजिंग ट्रस्टी, पुष्पराज कहते हैं,

“ये लड़के एक साल से भी ज़्यादा समय से यहाँ आ रहे हैं और ये हमारे बच्चों के लिए बहुत-सी खुशियाँ लाते हैं। यहाँ तक कि अब आश्रम के बच्चे बासमती चावल की बिरयानी और कभी-कभी आने वाली मिठाई का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं।”

पर स्कूल से एक घंटे की दूरी पर स्थित इस आश्रम तक पहुँचते-पहुँचते क्या खाना खराब नहीं होता?

इस पर पुष्पराज कहते हैं,

“बच्चों को जो भी दिया जाता है वह सबसे पहले हम चेक करते हैं। जब भी बहुत ज़्यादा गर्मी होती है तो हम उनको किसी भी तरह की करी/सब्जी लाने से मना करते हैं क्योंकि यह गर्मी से खराब हो सकती है।”

सिद्धार्थ और उनके दोस्तों की यह पहल सिर्फ़ अपने स्कूल और इस एक अनाथालय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वे और भी लोगों से बात कर रहे हैं जो बचा हुआ खाना अलग-अलग कैंटीन से ले जाकर ज़रूरतमंदों में बाँट सकते हैं। इससे पूरे शहर में लोगों की मदद होगी।

सिद्धार्थ कहते हैं कि उन्हें अच्छा लगता है जब बच्चे उन्हें देखने के लिए और खाने के लिए उत्साहित होते हैं। इन बच्चों की ख़ुशी से हर हफ्ते उन्हें जो सुकून मिलता है उसका कोई मुकाबला नहीं। बेशक, Waste Nought की यह पहल काबिल-ए-तारीफ़ है।

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यह कहानी उदाहरण है कि दूसरों की मदद करने की कोई उम्र नहीं होती है। यह भले ही हमारे लिए सिर्फ़ एक वक़्त का खाना हो, पर जिनके पास इतना भी नहीं है उनके लिए यह बेशकीमती है।

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: विद्या राजा


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एशिया की वह पहली महिला, जो पीडब्ल्यूडी विभाग में बनीं चीफ इंजीनियर!

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भारत में इंजीनियरिंग का क्षेत्र आज भी पुरुष-प्रधान है। उच्च शिक्षा पर एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार, आर्ट्स और साइंस के बाद इंजीनियरिंग में सबसे ज़्यादा दाखिले होते हैं, जिनमें सिर्फ़ 28.6% महिलाएं हैं। यह स्थिति सिर्फ़ भारत में ही नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में है।

इसलिए, आज की पीढ़ी को उन महिलाओं की कहानी जानना बहुत ज़रूरी है जिन्होंने भारत में सबसे पहले इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके, इस क्षेत्र में अपनी जगह बनाई। यह उनकी हिम्मत और जज़्बे का ही कमाल है कि आज लगातार इंजीनियरिंग करने वाली लड़कियों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है।

मद्रास यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से ग्रेजुएशन करने वाली पहली तीन महिलाओं में से एक पी. के. थ्रेसिया थीं। ललिता और लेल्लम्मा बाकी दो इंजीनियर ग्रेजुएट थीं। इन तीनों में से ललिता देश की पहली लड़की थीं जिन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की।

द बेटर इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में, ललिता की बेटी श्यामला ने बताया कि भले ही थ्रेसिया और लेल्लम्मा, ललिता से एक साल जूनियर थीं पर उन तीनों को डिग्री साल 1944 में साथ में ही मिली थी। क्योंकि, द्वितीय विश्व युद्ध के चलते यूनिवर्सिटी को क्लासेस बंद करनी पड़ी थीं।

स्त्रोत: (बाएं से दायें) थ्रेसिया, लेल्लम्मा और ललिता- भारत की पहली महिला इंजीनियर्स

थ्रेसिया ने सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री की और उन्होंने कोचीन में ब्रिटिश राज के अंतर्गत पब्लिक वर्क कमीशन में सेक्शन ऑफिसर के तौर पर नौकरी ली। इसके बाद, वह साल 1971 में केरल के पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट में पहली महिला चीफ इंजिनियर नियुक्त हुईं। इस पद पर उन्होंने आठ साल काम किया। किसी भी राज्य के पीडब्ल्यूडी डिपार्टमेंट में बतौर चीफ इंजिनियर काम करने वाली वह पूरे एशिया में पहली महिला थीं।

साल 1971 में जब उनका प्रमोशन हुआ तो केरल के मलयालम मनोरमा को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, “मैं सिर्फ़ 3 महीने के लिए ही ऑफिस में थी। पर तब मैंने समझा कि एक इंजीनियर की ज़िंदगी इतनी भी कठिन नहीं है जितना कि औरतें इसे समझती हैं।”

पीडब्ल्यूडी में अपनी नियुक्ति के कुछ समय बाद ही, थ्रेसिया को केरल के मुलकुन्नत्तुकावू में टी.बी. सैनाटोरियम के लिए असिस्टेंट कंस्ट्रक्शन इंजीनियर के पद पर प्रमोट कर दिया गया। इस बाद साल 1956 में उन्हें एग्जीक्यूटिव इंजीनियर बना दिया गया और वह एर्नाकुलम आ गई।

पी. के. थ्रेसिया (भारत की पहली इंजीनियर)

थ्रेसिया ने अपने चीफ इंजीनियर के कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्माण कार्यों को किया। उन्होंने हर साल लगभग 35 नए पुल और सड़क-निर्माण प्रोजेक्ट कमीशन किए। साथ ही, उन्होंने कोड़िकोड मेडिकल हॉस्पिटल से जुड़े हुए महिला और बच्चों के अस्पताल के निर्माण का कार्यभार भी संभाला।

थ्रेसिया निर्माण कार्यों में एक्सपेरिमेंट करने में भी पीछे नहीं रहती थीं। उन्होंने केरल में रबरयुक्त बिटुमन (डामर) सड़कों का निर्माण शुरू करवाया। उन्हें भारतीय सड़क कांग्रेस की सदस्य बनने का मौका भी मिला।

12 मार्च 1924 को एक इसाई परिवार में जन्मी थ्रेसिया अपने छह भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर थीं। उनके पिता, कक्काप्पन, केरल के त्रिशूर जिले के एडथिरुथी गाँव में किसान थे। थ्रेसिया के इंजीनियरिंग करने के सपने में उनका सबसे ज़्यादा साथ उनके पिता ने दिया। उन्होंने कत्तुर के सैंट मैरी हाई स्कूल से अपनी पढ़ाई की और उसके बाद मद्रास के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में दाखिला लिया, क्योंकि उस वक़्त केरल के इकलौते इंजीनियरिंग कॉलेज में लड़कियों को दाखिला नहीं मिलता था।

उनके माता पिता

थ्रेसिया के इंजीनियरिंग पूरी करने के दो साल बाद ही उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उनकी माँ ने उनके पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी संभाली।

थ्रेसिया ने अपनी पूरी ज़िंदगी अपने काम और सपनों को दे दी और उन्होंने कभी भी शादी नहीं की। केरल के पीडब्ल्यूडी में लगभग 34 साल काम करने बाद 1979 में उन्होंने रिटायरमेंट ली। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपनी कंपनी, ‘ताज इंजिनियर्स’ शुरू की।

एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा था, “मैंने उस समय काम करना शुरू किया जब महिलाओं का सर्विस में होना बहुत ही बड़ी बात थी। लेकिन, मुझे कभी इस बात पर पछतावा नहीं हुआ कि मैं एक महिला हूँ।”

द बेटर इंडिया, भारत की इस बेटी को सलाम करता है। थ्रेसिया आज हर उस लड़की के लिए प्रेरणा हैं जो कि इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपना करियर बनाने का सपना देखती है!

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: अंग्रिका गोगोई 


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JEE MAINS टॉपर कल्पित वीरवाल से सीखिए एग्जाम क्रैक करने का तरीका!

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27अप्रैल 2017 को उस साल के JEE MAINS का परिणाम घोषित होता है। हर साल की तरह इस साल भी IIT की तैयारी कर रहे छात्र रिजल्ट देखने, टॉपर्स का नाम जानने को उत्साहित नज़र आते हैं। देशभर के छात्रों की निगाह कोटा पर होती है कि इस बार भी कोटा के किसी कोचिंग सेंटर का कोई स्टूडेंट टॉप कर जाएगा। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होता। इस बार टॉप करने की खबर राजस्थान के उदयपुर से आती है और वह भी JEE MAINS के अब तक के आए परिणामों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए।

IIT में कोटा के दबदबे को तोड़ते हुए उदयपुर के कल्पित वीरवाल ने JEE MAINS 2017 में टॉप कर इतिहास रचा दिया था। यह पहली बार था कि किसी छात्र ने JEE MAINS में 360 में से 360 अंक हासिल किए थे।

kalpit veerwal
टॉप करने के बाद कल्पित का अभिवादन करते हुए।

साथ ही उदयपुर से भी पहली बार कोई IIT की परीक्षा में पहले स्थान पर आया था। कल्पित के टॉप करने की खबर उनको CBSE के अध्यक्ष आर. के. चतुर्वेदी ने सुबह फोन करके दी थी।

 

कैसे कि 100% लाने की तैयारी?

अपनी इस उपलब्धि से लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में नाम दर्ज कराने वाले कल्पित बगैर कोई स्ट्रेस लिए हर दिन पांच से छह घंटे पढ़ाई करते थे। कल्पित ने कोचिंग ‘8वीं क्लास’ से ही लेनी शुरू कर दी थी। JEE में टॉप करने से पहले ‘इंडियन जूनियर साइंस ओलंपियाड’ और ‘नेशनल टैलेंट सर्च’ जैसी बड़ी परीक्षाओं में भी कल्पित टॉप कर चुके थे।

17 साल के कल्पित को अपनी सफलता का तो पूरा यकीन था, लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि वे शत प्रतिशत अंक लाएंगे।

कल्पित बताते हैं, ”मुझे हर कोई सलाह देता था कि मुझे कोचिंग के लिए कोटा या हैदराबाद जाना चाहिए, लेकिन मैं पढ़ाई को लेकर कोई बर्डन नहीं लेना चाहता था, इसे एन्जॉय करना चाहता था, इसलिए मैंने उदयपुर में ही रहने का फैसला किया और यहीं के कोचिंग सेंटर को जॉइन किया।”

 

कल्पित का पढ़ाई के लिए दिन भर का शिड्यूल तय होता था। लेकिन वे वीकेंड पर क्रिकेट खेलने और म्यूज़िक सुनने से नहीं चूकते थे।

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कल्पित वीरवाल।

टॉपर कल्पित महंगे मोबाइल रखने और सोशल साइट्स जैसे शौक से दूर रहे हैं। उनका कहना है कि किसी भी टेक्नोलॉजी का प्रयोग तब तक ही करना चाहिए जितनी आपको जरूरत है।

बचपन से ही अच्छी बातों के प्रति जागरूक रहने वाले कल्पित ने प्राइमरी से लेकर अब तक की सभी कक्षाओं की परीक्षा के लिए तैयारी नियमित तौर पर की। चाहे उन्हें इसके लिए रोज का एक घंटा मिला तो एक घंटे पढ़ाई की और ज्यादा समय मिला तो ज्यादा घंटे पढ़ाई की, लेकिन पढ़ने के मामले में लापरवाही नहीं बरती।

कल्पित IIT MAINS के लिए रोजाना 7 घंटे पढ़ते थे। सुबह स्कूल जाने से लेकर देर शाम घर आने तक का उनका शिड्यूल तय रहता था। कल्पित स्कूल का काम स्कूल में ही खत्म कर देते थे ताकि स्कूल के काम के चलते कोचिंग और सेल्फ स्टडीज में कोई बाधा नहीं आए। वे स्कूल में मिलने वाले स्पोर्ट्स और दूसरे खाली पीरियड्स में भी पढ़ते थे। जिसमें नोट्स बनाना, होम वर्क आदि शामिल होता था।

स्कूल से लौटने के बाद वे MAINS की कोचिंग करने जाते थे जो कि करीब 4 घंटे तक चलती थी। कोचिंग से लौटने के बाद घर पर थोड़ी देर आराम कर, स्पोर्ट्स, गाने सुनने के बाद करीब 3 घंटे वे सेल्फ स्टडीज करते थे।

kalpit veerwal
विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करते कल्पित।

कल्पित ने फिजिक्स, मैथ्स और कैमिस्ट्री तीनों सब्जेक्ट में 120 में से 120 नंबर प्राप्त किए थे। कल्पित ने भले ही 7 घंटे पढ़ाई की हो, लेकिन वे रोजाना छह घंटे की पढ़ाई को पर्याप्त मानते हैं। कल्पित ने अपने रोल मॉडल के रूप में अपने बड़े भाई हार्दिक का अनुसरण किया था। हार्दिक वर्तमान में एम्स में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं।

पिता के साथ क्रिकेट और बैडमिंटन खेलने का शौक रखने वाले कल्पित के अनुसार सफलता के लिए शिक्षकों के बताए अनुसार नोट्स को पूरी समझ से अध्ययन करना जरूरी है।

क्या आपने कभी IIT टॉप करने के बारे में सोचा था? इसका जवाब कल्पित कुछ इस प्रकार देते हैं।

“एक बार मैं साइंस ओलम्पियाड के लिए मुंबई गया। वहां मैंने अपने सीनियर्स को टॉप करते देखा, उन्हें देखकर मुझे भी टॉप करने का ख्याल आया। लेकिन मैं पढाई एन्जॉय करना चाहता था।”

 

सपनों की उड़ान की शुरुआत 

कल्पित के पिता पुष्कर लाल उदयपुर के एमबी हॉस्पिटल में कंपाउंडर हैं, जबकि माँ पुष्पा मावली में सेकेंडरी स्कूल में टीचर हैं।

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अपने माता-पिता के साथ कल्पित।

कल्पित मूलतः उदयपुर जिले के ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं। उनके पिता घर की विपरीत परिस्थियों में डॉक्टर बनने का सपना लेकर उदयपुर आए थे, लेकिन वे कम्पाउण्डर ही बन सकें। कल्पित बचपन से ही डॉक्टर बनकर पिता का सपना पूरा करना चाहते थे। कल्पित के बड़े भाई हार्दिक और कल्पित ने इस सपने के साथ पढ़ाई पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया था।

कल्पित की शुरू से ही गणित में रूचि थी। आठवीं तक आते-आते कल्पित का मन मेडिकल से हटकर इंजीनियरिंग की और बढ़ गया। इसी बीच उनके भाई ने एमबीबीएस के लिए एडमिशन ले लिया। ऐसे में उनके पिता का सपना पूरा करने का ज़िम्मा जब कल्पित के बड़े भाई ने उठा लिया तो कल्पित इंजीनियरिंग के लिए IIT की तैयारी में जुट गए।

 

दूसरे बच्चों की मदद के लिए शुरू क्या ब्लॉग 

कल्पित ने जब टॉप किया तो उन्हें देश भर से IIT की तैयारी कर रहे बच्चों से सोशल मीडिया पर बहुत से मैसेज आए। उन्हें इंटरनेट पर भी बहुत खोजा गया। उनसे पढ़ाई के शेड्यूल, बुक्स, नोट्स के लिए पूछा जाता था। बच्चे लास्ट डे प्रिपरेशन, एग्जाम में गाइड करने के लिए बोलते थे। इनमें से कई बच्चे देश के दूर-दराज इलाकों से थे। कल्पित को ख्याल आया कि क्यों न इन बच्चों के लिए एक ऐसा प्लेटफार्म तैयार किया जाए जिससे देश के सुदूर इलाकों से आने वाले बच्चे भी ऑनलाइन तैयारी कर अपने सपनों को पूरा कर सकें।

“मैंने ऐसे बच्चों के लिए सबसे पहले ब्लॉग लिखना शुरू किया, जहाँ पर वे किताबें और नोट्स मौजूद थे जिससे मैंने पढ़ाई की थी, “कल्पित ने बताया।

आप उनके ब्लॉग को यहाँ पढ़ सकते हैं।

 

देश में रहकर लोगों की सेवा करना है लक्ष्य

अंत में कल्पित कहते हैं कि वे विदेश नहीं जाना चाहते। उनका सपना अपने देश में ही रहकर लोगों के लिए कुछ करने का है। वे शिक्षा के क्षेत्र में कुछ खास करना चाहते हैं। वे उन बच्चों के लिए एक ऐसा प्लेटफार्म तैयार कर रहे हैं जो पैसे देकर अच्छी कोचिंग नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा उन्होंने न्यूरा नाम से एक एप भी बनाया है जो हिंदी पर्सनल असिस्टेंट के रूप में काम करेगा। यह आम लोगों को इंटरनेट उपयोग करने में मदद करेगा।

 

यह महत्वपूर्ण लिंक्स कर सकती हैं मदद

यहाँ हम आपको कल्पित की बताई कुछ ऐसी लिंक्स बताने जा रहे हैं जो IIT MAINS सहित अन्य परीक्षाओं की तैयारी में आपकी मदद कर सकती हैं।

 IIT Bombay से कम्प्यूटर साइंस में बीटेक कर रहे कल्पित के 12वीं में रिवीजन, इम्पोर्टेन्ट शार्ट नोट्स, JEE MAINS और JEE ADVANCE परीक्षा से पूर्व 40 दिन का प्रिपरेशन, दोनों परीक्षाओं में लास्ट मिनट्स टिप्स से जुड़ी इम्पोर्टेन्ट जानकारी आप इस लिंक पर जाकर ले सकते हैं।

इसके अलावा जिन किताबों, वेबसाइट्स के जरिये कल्पित ने JEE MAINS की तैयारी की, उन किताबों की जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। आप यहाँ से उन किताबों को ख़रीद भी सकते हैं।

कम्प्यूटर साइंस, मेडिकल, ओलंपियाड, NTSE (नेशनल टैलेंट सर्च एग्जामिनेशन) से जुड़ी तैयारी के लिए आप कल्पित की वेबसाइट की मदद ले सकते हैं।

अगर आप कल्पित से सम्पर्क करना चाहते हैं तो उनसे फेसबुक पर जुड़ सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच 


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विज्ञान में 90%+ अंक लाते हैं इस सरकारी स्कूल के बच्चे, शिक्षक के तरीकों ने किया कमाल!

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5 सितंबर 2019 को ‘शिक्षक दिवस’ के मौके पर, कर्नाटक के नेलमंगला जिले में यलेकैतनहल्ली गाँव के गवर्नमेंट हाई स्कूल के विज्ञान के अध्यापक, शशिकुमार बी. एस. को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पूरे गाँव में ‘शशि सर’ के नाम से प्रसिद्ध, शशिकुमार बहुत ही अनोखे और दिलचस्प तरीके से अपने छात्रों को पढ़ाते हैं।

अपनी ज़िम्मेदारी और छात्रों के भविष्य के प्रति सजग शशिकुमार हर दिन अपने घर से स्कूल तक 60 किमी तक की दूरी तय करते हैं। फिर स्कूल की छुट्टी होने के बाद, वे स्कूल में बच्चों को एक्स्ट्रा क्लास पढ़ाने के लिए भी रुकते हैं। मूल रूप से, तुमकूर के रहने वाले शशिकुमार न सिर्फ़ बच्चों को विज्ञान के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि उनके प्रयासों के चलते आज इस स्कूल में एक साइंस लैब भी है।

शशिकुमार बताते हैं कि वे कभी भी अपने छात्रों को सिर्फ़ किताबों में से डिक्टेट नहीं करते हैं बल्कि वे हर एक कॉन्सेप्ट पर थ्योरी के साथ-साथ प्रैक्टिकल करवाकर बच्चों को समझाते हैं। इन एक्सपेरिमेंट्स के आधार पर वे छात्रों को अपने नोट्स खुद बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे बच्चों को परीक्षा के समय काफ़ी आसानी होती है।

राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित शशिकुमार

पिछले 16 साल से बतौर शिक्षक काम कर रहे 42 वर्षीय शशिकुमार एक किसान परिवार से हैं। बचपन से ही वे पढ़ाई में काफ़ी अच्छे रहे। उन्होंने बॉटनी विषय में मास्टर्स की और फिर बीएड, एमफिल भी किया। पढ़ाई के बाद उन्होंने मोरारजी देसाई रेजिडेंट स्कूल से अपना शिक्षण कार्य शुरू किया।

“मैंने जो कुछ भी अपनी पढ़ाई के दौरान सीखा, वो सब मैं अपने छात्रों को सिखाना चाहता हूँ। इसके लिए मुझे अगर थोड़ी ज़्यादा मेहनत भी करनी पड़े, तब भी मैं खुश हूँ। इसलिए मैं हमेशा कोशिश करता हूँ कि बच्चे अपनी दैनिक ज़िंदगी में विज्ञान के विषय को समझें,” उन्होंने आगे कहा।

यह शशिकुमार की कोशिशों का ही नतीजा है कि आज उनके स्कूल में बच्चों के विज्ञान विषय में हमेशा अच्छे नंबर आते हैं। ज़्यादातर बच्चे 90% से ऊपर ही स्कोर करते हैं।

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बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ शशिकुमार अपने ही जैसे और भी बहुत से शिक्षकों के मार्गदर्शक भी हैं। वे राज्य सरकार द्वारा आयोजित किये जाने वाले सेशन में अन्य शिक्षकों को ट्रेनिंग भी देते हैं। उन्होंने ख़ास तौर पर शिक्षकों के लिए 8 मोड्यूल तैयार किये हैं। इसके अलावा, उन्होंने ‘कर्नाटक साइंस टीम’ के नाम से शिक्षकों के लिए एक व्हाट्सअप ग्रुप भी बनाया हुआ है।

वे बताते हैं कि वे जो भी एक्टिविटी अपने स्कूल में बच्चों को करवाते हैं, उसकी विडियो और फोटो लेकर ग्रुप में शेयर करते हैं। इससे अन्य शिक्षकों को भी प्रेरणा मिलती है। उन्होंने अपना एक ब्लॉग और यूट्यूब चैनल भी शुरू किया है।

उनके प्रयासों से बनी स्कूल में साइंस लैब

इस सबके अलावा, शशिकुमार ने बहुत ही सरल और स्पष्ट भाषा में लगभग 10 विज्ञान के स्टडी मोड्यूल लिखे हैं और इन मोड्यूल को उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रही सामाजिक संस्थाओं को दिया है, वह भी बिल्कुल मुफ़्त। आज उनके लिखे हुए इन नोट्स से तीन हज़ार से भी ज़्यादा गरीब छात्रों को फायदा मिल रहा है।

“साल 2011 में मेरी इस स्कूल में नियुक्ति हुई थी। तब स्कूल में बच्चे बहुत ही कम थे, अभी हमारे पास आठवीं, नौवीं और दसवीं कक्षा में कुल 60 बच्चे पढ़ रहे हैं।”

बच्चों की संख्या कम होने के चलते सरकार की तरफ से स्कूल के लिए कोई ख़ास फंडिंग नहीं आती है। पर शशिकुमार का मानना है कि बच्चे चाहे 10 हो या 100, हर एक का भविष्य हमारे लिए ज़रूरी होना चाहिए। इसलिए जितने भी बच्चे हों, उनके लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध करवाना हमारी ज़िम्मेदारी है।

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इसलिए शशिकुमार ने अपने स्तर पर ही गाँव वालों, सामाजिक संगठनों और कुछ निजी दानदाताओं की मदद से स्कूल में कई सुधार कार्य करवाएं हैं। बच्चों के लिए प्रोजेक्टर, कंप्यूटर, लैब और अन्य तरह की गतिविधियों के लिए बहुत-सी ज़रूरी चीज़ें उन्होंने सबकी मदद से जुटाई हैं। शशिकुमार का उद्देश्य अपने छात्रों को ‘कम लागत और जीरो लागत’ के मॉडल तैयार करवाना है, जिससे वे विषय को समझे भी और साथ ही, ‘बेस्ट आउट ऑफ़ वेस्ट’ की एक्टिविटी भी हो जाए।

छात्रों को सभी कॉन्सेप्ट प्रैक्टिकल करके समझाते हैं

आज उनके पढ़ाए हुए कई छात्र मेडिकल और इंजीनियरिंग क्षेत्र में अच्छे कॉलेज में पढ़ रहे हैं। मैसूर से एमडी की पढ़ाई करने वाले डॉ. नरेशचारी, मोरारजी देसाई स्कूल में उनके छात्र थे। वे आज भी विज्ञान विषय में अपनी रूचि का श्रेय अपने शिक्षक शशिकुमार को देते हैं।

शशिकुमार का अपने छात्रों से रिश्ता सिर्फ़ स्कूल तक सीमित नहीं है। वे पढ़ाई से परे जाकर भी बच्चों की मदद करते हैं।

शाम को 6:30 बजे तक चलने वाली एक्स्ट्रा क्लास के बाद, जिन भी बच्चों के घर दूर हैं, उन्हें वे खुद घर छोड़कर आते हैं और बहुत बार उनके रिक्शे से आने-जाने का किराया खुद भरते हैं। क्योंकि ये सभी बच्चे गरीब परिवारों से आते हैं। वे बताते हैं कि किसी-किसी बच्चे का घर तो दस किमी से ज़्यादा दूर है।

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शशिकुमार सिर्फ़ पढ़ाई के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यों में अपने छात्रों का मार्गदर्शन करते हैं। समय-समय पर स्कूल में जल-संरक्षण, पौधारोपण, प्लास्टिक-फ्री सोसाइटी जैसे प्रोग्राम होते रहते हैं, ताकि बच्चों को पर्यावरण के प्रति जागरुक किया जा सके।

शिक्षक दिवस पर शशिकुमार को सम्मान मिलने से अब इलाके के बहुत से लोग उन्हें जानने लगे हैं। कई निजी संगठन स्कूल के विकास कार्यों में योगदान देने के लिए भी आगे आ रहे हैं। इस पर शशिकुमार सिर्फ़ एक ही बात कहते हैं,

“आपका व्यवहार बदलाव लाता है। कभी किसी सम्मान के लिए काम मत करो बल्कि उन छात्रों के लिए करो जिनका भविष्य तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम अपने काम के प्रति ज़िम्मेदार और सजग रहोगे तो सम्मान खुद ब खुद तुम्हारे पास आ जाएगा।”

संपादन – भगवती लाल तेली


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जब ‘मानव कंप्यूटर’शकुंतला देवी ने पति के लिए लड़ी समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई!

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‘मानव कंप्यूटर’ और ‘मेंटल कैलकुलेटर’ जैसे उपनामों से मशहूर भारतीय गणितज्ञ शकुंतला देवी सिर्फ़ 3 साल की थीं, जब उनकी गणित की संख्या और अंकों के साथ दोस्ती हुई। सर्कस में करतब दिखाने वाले उनके पिता, अक्सर उनके साथ जादू का खेल खेलते थे। उन्हें लगता था कि उनकी नन्हीं सी बेटी को उनकी मैजिक ट्रिक्स समझ नहीं आएँगी, लेकिन उन्हें हैरानगी तो तब हुई जब शकुंतला ने उन्हें उनके ही खेल में मात दी।

शकुंतला के पिता एक कन्नड़ ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे, लेकिन सर्कस में काम करने के अपने सपने को पूरा करने के लिए वे घर से भाग आये थे। यहाँ पर जैस ही सर्कस के परदे गिरते तो शकुंतला के पिता उनके साथ वक़्त बिताते और कार्ड्स का खेल खेलते।

इस खेल में जब शकुंतला ने उन्हें हराया तो पहले-पहले उन्हें लगा कि ज़रूर शकुंतला ने चुपके से कार्ड्स देख लिए हैं। पर फिर उन्हें एहसास हुआ कि उनकी बेटी बहुत ख़ास है क्योंकि वह कितनी भी संख्याओं को सिर्फ़ एक बार देख कर याद कर सकती है।

तब उन्हें पता चला कि उनकी बेटी में गणित के विषय में विलक्षण गुण है। इसके बाद, उन्होंने अपना काम छोड़कर अपनी बेटी की योग्यता को और निखारने पर काम किया।

शकुंतला देवी

उन्होंने सबसे पहले रोड शो से शुरू किया, जहाँ शकुंतला बड़ी से बड़ी संख्याओं को बिना किसी कैलकुलेटर की मदद से अपने दिमाग में ही हल करती और सेकंड्स में जबाव दे देती। शकुंतला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई, पर फिर भी अपने ज्ञान से वे बड़े-बड़ों को चौंका देती थीं।

गणित के सवालों को हल करने में वे सिर्फ़ 5 साल की उम्र में एक्सपर्ट बन गयीं और फिर छह साल की उम्र में, यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसूर में उनका बड़ा शो हुआ। साल 1980 में लंदन के इम्पीरियल कॉलेज में उन्होंने 13-13 अंकों की दो संख्याओं को बिल्कुल सही गुणा किया और मात्र 28 सेकंड्स में जवाब दे दिया। अचम्भे की बात यह थी कि इन 28 सेकंड्स के भीतर उन्होंने 26 अंकों की संख्या के इस परिणाम को बता भी दिया था।

ये संख्या थे – 7,686,369,774,870 और 2,465,099,745,779 जिनको कंप्यूटर द्वारा रैंडमली सेलेक्ट किया गया था और इन्हें गुणा करने पर 18,947,668,177,995,426,462,773,730 संख्या मिलती है!

इसके बाद उन्हें गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स के 1982 एडिशन में जगह मिली और साथ ही, ‘ह्यूमन कंप्यूटर’ (मानव कंप्यूटर) का नाम मिला।

साभार: फेसबुक

गणित के विषय में शकुंतला की इस अद्भुत प्रतिभा और सवालों को हल करने की उनकी गति का कोई सानी नहीं। लेकिन सिर्फ़ एक यही वजह नहीं है उन्हें याद रखने की और उनका सम्मान करने की।

गणित की इस विदुषी को एक और बड़ी वजह से याद किया जाता है और वह है समलैंगिकता के समर्थन में उनका संघर्ष।

60 के दशक के मध्य में शकुंतला लंदन में अपनी प्रतिभा साबित करके भारत लौटीं और यहाँ आकर उन्होंने कोलकाता के एक आईएएस अफ़सर, परितोष बैनर्जी से शादी की। उनकी ज़िंदगी में सब कुछ ठीक चल रहा था, जब तक उन्हें अपने पति की सेक्शुयालिटी के बारे में पता नहीं चला था।

आज भी हम इस विषय पर खुलकर बात नहीं कर सकते तो सोचिये साल 1970 में क्या स्थिति होगी?

कोई भी इस बात का अंदाज़ा लगा सकता है कि जब उन्हें पता चला होगा कि उन्होंने एक ‘गे’ (समलैंगिक) आदमी से शादी की है तो उनकी ज़िंदगी कैसे बदल गयी होगी। बेशक यह किसी सदमे से कम नहीं था, पर शकुंतला इस सबसे ऊपर उठीं और उन्होंने न सिर्फ अपने पति को समझा बल्कि भारत में इस समुदाय के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ आवाज़ भी उठायी।

उन्होंने अपने स्तर पर समलैंगिक समुदाय के लोगों से बात करके, उनके बारे में जानना शुरू किया। सेम-सेक्स दंपत्तियों के बारे में, जो यहां रह रहे हैं या फिर बाहर, उनसे बात की, उनसे पूछा कि वे समाज से क्या चाहते हैं और उनके अनुभवों को लिखा।

सेक्शन 377 भले ही कुछ समय पहले हटा, पर शकुंतला ने अपनी रिसर्च के बाद साल 1977 में ही इसे हटाने की मांग की थी।

अपनी रीसर्च और अपने साक्षात्कारों को उन्होंने अपनी किताब, ‘द वर्ल्ड ऑफ़ होमोसेक्शुअल्स‘ में लिखा है। इस किताब के ज़रिये उन्होंने समलैंगिकों के संघर्ष को समाज के सामने रखने की कोशिश की। भले ही उस समय उनकी बातों और विचारों को ज़्यादा तवज्जो नहीं मिली, लेकिन आज उनका नाम उन लोगों में शामिल होता है, जिन्होंने देश में समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू की।

उन्होंने लिखा, “इस किताब को लिखने के लिए मेरी योग्यता सिर्फ यही है कि मैं एक इंसान हूँ।”

इसके साथ ही, उन्होंने समलैंगिकता के लिए किसी सहानुभूति की नहीं बल्कि पूर्ण रूप से स्वीकृति की बात की है।

यह किताब साल 1977 में आयी और इसके दो साल बाद शकुंतला और उनके पति ने तलाक के लिए अर्जी दी। इसके बाद, शकुंतला ने अपना सारा समय अपने गणित की प्रैक्टिस को दिया। उन्होंने बच्चों के लिए इस विषय को दिलचस्प बनाने के लिए खास टेक्सट-बुक भी लिखें।

आज जब हम उन्हें गणित के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए याद करते हैं तो ज़रूरी है कि हम समलैंगिकता पर उनके काम के लिए भी उन्हें याद करें।

शकुंतला देवी के प्रेरणात्मक किरदार को अब अभिनेत्री विद्या बालन बड़े परदे पर निभाने जा रही हैं। बॉब हेयर कट और प्यारी-सी मुस्कान और उतने ही कॉन्फिडेंस वाले अंदाज़ के साथ वह बिल्कुल शकुंतला देवी की छवि लग रहीं हैं। यह फिल्म तो साल 2020 में रिलीज़ होगी, लेकिन शकुंतला देवी के फैन्स को अभी से इसका बेसब्री से इंतजार है।

संपादन – मानबी कटोच 


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गाँधीजी का वह डाइट प्लान जिसे सुभाष चंद्र बोस ने भी अपनाया!

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रल जीवनशैली और दृढ निश्चय के साथ हमें स्वतन्त्रता दिलाने वाले महात्मा गाँधी की उपलब्धियां कई हैं। वस्त्र के नाम पर शरीर पर एक धोती और हाथ में एक छड़ी पकड़ हमें आज़ादी दिलाने के मार्ग पर जब ये चले तो मंज़िल कठिन थी पर अहिंसा, नैतिकता और उपवास के जरिये इन्होंने इसे कैसे सफल बनाया इसकी कहानी हम कई बार सुन चुके हैं।

पर हममें से कुछ ही लोग ये जानते होंगे कि स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान गाँधीजी ने करीब 17 उपवास किए थे जिनमें से सबसे लंबा उपवास 21 दिनों तक चला था। चाहे मिल मजदूरों के हक की लड़ाई हो या हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन करना, अहिंसा व सत्य की अपनी इस लड़ाई में बापू ने उपवास को अपना शस्त्र बनाया।

ऐसे कई इतिहासकार हैं, जिन्होंने स्वतन्त्रता के लिए किए गए इनके लंबे संघर्ष की प्रशंसा की। लेकिन ऐसे कुछ ही इतिहासकार हैं जिनका ध्यान इनकी जीवनशैली व खान पान पर गया।

अपने खान-पान के बारे में बापू का कहना था, “यह मेरे जीवन का शौक रहा है। यह मेरे लिए उतना ही ज़रूरी रहा है जितना समय-समय पर मुझे व्यस्त रखने वाले अन्य काम।”

यहाँ बापू के खान-पान को समझने की हमने छोटी सी कोशिश की है।

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आहार ग्रहण करते महात्मा गाँधी।

वैष्णव परिवार में जन्मे महात्मा के लिए शुरू से ही मांसाहारी भोजन निषेध था। हालांकि बचपन में विद्रोह स्वरूप इन्होंने कभी-कभी मांस भी खाया था, पर अपने इस कार्य पर बापू को बाद में पछतावा होने लगता था जिस कारण आखिरकार उन्होंने पूर्ण रूप से इसे त्याग दिया।

कानून की पढ़ाई के लिए लंदन जाने तक गाँधीजी ‘रिवाज व परंपरा से शाकाहारी’ थे। अपनी पुस्तक, ‘गाँधी बिफोर इंडिया’ (Gandhi before India) में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखा है कि किस प्रकार हेनरी साल्ट की ‘प्ली फॉर वेजिटेरियनिज्म’ (plea for vegetarianism) की एक पतली सी पुस्तक ने गाँधी को ‘स्वेच्छा से शाकाहारी’ बनने में मदद की।

लंदन में अपने रूममेट जोसिया ओल्डफील्ड के साथ गाँधीजी ने ‘लंदन वेजिटेरियन सोसाइटी’ का पता लगाया। वहाँ जाने पर उन्होंने देखा कि भारत ने पूरे विश्व के कई लोगों को शाकाहारी बनने के लिए प्रेरित किया है। कैसे अंग्रेज सैनिक बीयर और बीफ के बिना रह नहीं पाते थे, जबकि भारतीय सैनिक दाल व चावल जैसे समान्य भोजन खा कर भी पूरी बहादूरी के साथ जंग के मैदान में उतरते थे।

गाँधी और जोसिया ने मिल कर 52, सेंट स्टीफन गार्डन, बायसवॉटर होम में ऐसी पार्टियां भी दी, जिसमें मेहमानों को दाल चावल और किशमिश परोसे गए।

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एक अंग्रेज अधिकारी के साथ महात्मा गाँधी। photo – gettyimages

गाँधीजी ने स्वास्थ्य और खान-पान पर कई किताबें भी लिखी हैं, जैसे ‘डाइट एंड डाइट रिफॉर्म्स’ (diet and diet reforms), ‘द मॉरल बेसिस ऑफ वेजिटेरियनिज्म’ (The moral basis of vegetarianism) और ‘की टू हैल्त'(Key to Health) प्रमुख हैं।

शाकाहारी गाँधीजी ने आगे चलकर हर तरह के मसालों का प्रयोग भी छोड़ दिया और उबली हुई सब्जियों को अपना आहार बना लिया। डेयरी व्यवसाय में जानवरों के साथ हो रहे बर्तावों से दु:खी हो, उन्होंने गाय व भैंस के दूध को छोड़ बकरी के दूध का सेवन करना आरंभ कर दिया।

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भोजन ग्रहण करने के दौरान महात्मा गाँधी। photo – indiatvnews

साबरमती आश्रम में रह रहे इनके परिवार के अन्य सदस्यों के लिए गाँधीजी के इन नियमों को अपनाना इतना असान नहीं था। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के एक लेख में डॉ. विक्रम ने लिखा है कि ऐसे आहार तालिका का पालन करना परिवार की महिला सदस्यों के लिए कितना कठिन हो जाता था।

गाँधी के दूसरे बेटे, मनीलाल की पत्नी सुशीला भी उन लोगों में थीं जिन्हें साबरमती आश्रम में ऐसे आहार पर रहना पड़ता था। उनकी पोती, उमा धुपेलीया मिस्त्री, जिन्होंने मनीलाल की जीवनी ‘Gandhi’s Prisoner’ लिखी है, उनसे बात करते हुए सुशीला ने बताया, “मुझे आज भी वो भोजन याद है, उबले हुए बैंगन, उबले हुए चुकंदर, करी में उबली हुई सब्जियां, मक्खन, घी के बिना सूखे ब्रेड, मैं उनको दवा की तरह खाया करती थी”।

सुशीला की सबसे छोटी बेटी ईला जब पाँच वर्ष की थी तब उसने बापू से कहा था कि आश्रम का नाम बदल कर कोलग्राम रख देना चाहिए। वह वहाँ के उबले कद्दू खा कर ऊब चुकी थी।

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भोजन करते महात्मा गाँधी। photo – quara

सालों बाद विक्रम से बात करते हुए ईला ने एक राज उजागर किया। सेवाग्राम में सब का खाना एक ही रसोईघर में बनता था जिसे गाँधीजी व उनके अनुयायी खाते थे। पर ‘बा’ (कस्तूरबा गाँधी) का एक निजी रसोईघर हुआ करता था जहां वह अपने नाती-पोतो के लिए मिठाइयां बनाया करती थीं।

इसका प्रमाण 1942 में बापू द्वारा आश्रम प्रबन्धक को लिखा हुआ पत्र है जिसमें बापू ने कहा है, “मिल की चीनी नहीं खरीदी जानी चाहिए, पर जब तक बा हैं, इसे जारी रखना होगा।”

अपने अनुयायियों के अलावा गांधीजी अक्सर दूसरों को भी खान-पान संबंधी सलाह दिया करते थे। अपनी किताब Gandhi: An Illustrated Biography में प्रमोद कुमार ने 300 तस्वीरों के माध्यम से महात्मा के मानवीय पक्ष को और अधिक उजागर करने का प्रयास किया है। इसमें एक ऐसी तस्वीर भी है जिसमें सन 1936 में गांधी ने अपने समकालीन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के लिए आहार तालिका भी तैयार की थी।

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सुभाष चंद्र बोस के साथ महात्मा गाँधी। photo –bbc/gettyimages

इस डाइट प्लान में उन्होंने लिखा, “पश्चिम में कच्चे प्याज और लहसुन खाने की सलाह दी जाती है। मैं ब्लड प्रेशर के लिए नियमित रूप से कच्चा लहसुन खाता हूँ। यह सबसे अच्छा एंटीटोक्सिन है। क्षय रोगियों को इसे खाने की सलाह दी जाती है।”

वे आगे बताते हैं कि मुझे लगता है इन दो सब्जियों के विरुद्ध जन्मा पूर्वाग्रह इनके गंध के कारण है। आयुर्वेद अनायास ही इन दोनों की प्रशंसा करता है। लहसुन को गरीबों का कस्तुरी कहा जाता है। मुझे पता नहीं ग्रामीण बिना प्याज व लहसुन के प्रयोग के कैसे रहेंगे।

बापू ने अपने जीवन की तरह अपने आहार को भी सरल रखा। कहा भी गया है, “आप वही बनते हैं जो आप खाते हैं!” गाँधीजी को देखें तो यह कथनी सिद्ध होती दिखाई पड़ती है।

 

संपादन – भगवती लाल तेली 

मूल लेख – जोविता आरन्हा 


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दो बहनों ने बनाया गृहिणी माँ को सोशल मीडिया स्टार!

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ज के डिजिटल जमाने में किसी के लिए भी अपनी स्किल और टैलेंट को दुनिया को सामने रखना बहुत आसान हो गया है। पहले लोगों के गुर और ख़ासकर कि गृहिणियों के गुर सिर्फ़ दो-चार गली-मोहल्लों तक ही सीमित होते थे, फिर वो चाहे अच्छे पकवान बनाने का हो, घर को सजाने का हो, सिलाई-कढ़ाई या फिर कोई और कला।

आज सोशल मीडिया की मदद से बहुत-सी गृहिणियां न सिर्फ़ बाहर की दुनिया से जुड़ रही हैं, बल्कि अपनी कला को भी चारदीवारी से निकाल कर दुनिया तक पहुंचा पा रही हैं। इस फ़ेहरिस्त में आज हम बात कर रहे हैं सोशल मीडिया स्टार, मंगलम श्रीनिवासन की।

52 वर्षीय मंगलम अपने फेसबुक पेज My Mom’s Art Gallery के ज़रिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं और वह भी अपने खूबसूरत कोलम/रंगोली बनाने के हुनर के चलते। वे हर त्यौहार पर चावल, आटा या फिर चॉक पाउडर का इस्तेमाल करके रंगोली के डिजाईन बनाती हैं।

मंगलम की बनायी एक रंगोली

तमिलनाडु के त्रिची में श्रीरंगम की रहने वाली मंगलम के फेसबुक पेज के एक लाख से भी ज़्यादा लाइक हैं। उनका फेसबुक पेज उनकी बेटियों ने साल 2013 में शुरू किया था। आज दिल्ली से लेकर मलेसिया, यूएस तक उनके फॉलोअर्स हैं और आए दिन उन्हें मेसेज-कमेंट करते हैं ताकि उनकी कला के बारे में और अधिक जान पाएं।

मम्स एंड स्टोरीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उनकी बनाई रंगोली का आकार कुछ इंच से लेकर 11 फीट तक का होता है। सबसे बड़ी कोलम (11 फीट की) जो उन्होंने बनाई थी, वह शिवजी की थी। इसके अलावा उन्होंने जयललिता के निधन के बाद, दूसरे दिन उनकी भी कोलम बनाई। अक्सर, वे अपने डिजाईन पर 1 से 12 घंटे तक काम करती हैं और कभी-कभी यह इससे ज़्यादा भी हो जाता है।

उनकी बेटी भार्गवी बताती हैं कि उनकी माँ रंगोली और वाटर-कलर पेंटिंग बनाने में माहिर हैं। बचपन से ही वे और उनकी बहन, अपनी माँ के इस हुनर पर गर्व करते हैं। मंगलम ने रंगोली बनाने की कला अपनी माँ से सीखी और तंजौर पेंटिंग सीखने का मौका उन्हें तमिलनाडु सरकार से मिला।

तंजौर पेंटिंग बनाते हुए

वैसे तो उनकी यह कला उनके घर तक ही सीमित थी, पर फिर एक दिन उनकी बेटियों को उनकी कला को सहेजने के लिए सोशल मीडिया का ख्याल आया। इस एक ख्याल से बना उनका फेसबुक पेज, जिस पर वे मंगलम की बनाई कोलम या फिर पेंटिंग की तस्वीरें और विडियो शेयर करते हैं। इस काम में मंगलम को उनके पूरे परिवार का साथ मिल रहा है।

उनकी बेटियों का कहना हैं कि मंगलम का यह शौक उन्हें बहुत ख़ुशी देता है और इसके चलते वे शारीरिक और मानसिक तौर पर स्वस्थ रहती हैं।

मंगलम का परिवार

मंगलम की शादी 20 साल की उम्र में हुई थी। उनके पति एक पब्लिक-सेक्टर कंपनी में काम करते हैं। भार्गवी और ऐश्वर्या, उनकी दोनों बेटियों की शादी हो चुकी है और वे उनके साथ ही रहती हैं। उनके पति, उनकी रंगोली और पेंटिंग्स की विडियो शूट करते हैं और फिर उनकी बेटियाँ इसे अपलोड करती हैं।

मंगलम की ख्वाहिश है कि उनकी कला के लिए उन्हें चाहे कोई छोटा ही सही पर सरकार की तरफ से कोई सम्मान मिले। हम उम्मीद करते हैं कि उनका यह सपना जल्द से जल्द पूरा हो।

संपादन – भगवती लाल तेली


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कॉल सेंटर की नौकरी से लेकर IPS बनने तक का सफर!

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ह कहानी एक कॉल सेंटर में काम करने से लेकर IPS ऑफिसर बनने वाले सूरज सिंह परिहार की है। अपने दादा-दादी के साथ रहते हुए, सूरज ने जौनपुर, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव से पांचवीं तक पढ़ाई की। सूरज अपने दादा से ऐसे महापुरुषों की कहानियों को सुनते हुए बड़े हुए थे जिन्होंने देश और समाज की सेवा की थी। यहीं से उनको भी देश सेवा और लोगों के लिए कुछ खास करने की प्रेरणा मिली।

कक्षा पाँच के बाद, वह अपने माता-पिता के साथ कानपुर के जाजमऊ उपनगर चले गए और एक हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला ले लिया। सूरज पढ़ने में ही नहीं बल्कि खेल और रचनात्मक लेखन में भी माहिर थे। साल 2000 में, उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर नारायणन के हाथों रचनात्मक लेखन और कविता के लिए राष्ट्रीय बाल श्री पुरस्कार भी जीता था।

साल 2001 में यूपी बोर्ड की कक्षा 12 में उन्होंने 81 प्रतिशत अंक प्राप्त किए और सभी पाँचों विषयों में डिस्केटिंक्शन साथ कॉलेज टॉप किया। इससे सूरज के लिए बेहतरीन कॉलेज के रास्ते खुल सकते थे लेकिन सूरज कुछ अलग करना चाहते थे।

 

सूरज ने IPS बनने का सपना देखा था, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छे कॉलेज से रेग्युलर पढ़ने की इजाज़त नहीं दे रही थी।

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सूरज सिंह परिहार।

उनका संयुक्त परिवार था और पिता एकमात्र कमाने वाले। ऐसे में सूरज घरेलू आय में अपना योगदान देना चाहते थे। उन्होंने प्राइवेट स्टूडेंट के तौर पर एक कॉलेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई शुरू कर दी और अपने दोस्त अश्विनी के साथ मिलकर एक किराए के कमरे में अंग्रेजी सिखाने का कोचिंग संस्थान शुरू किया।

सूरज ने अपने दोस्त के साथ मिलकर अंग्रेजी सिखाने का कोचिंग सेंटर तो शुरू कर दिया, लेकिन इससे पहले तक उनकी खुद की अंग्रेजी भी इतनी अच्छी नहीं थी। बाल श्री अवार्ड के जोनल और राष्ट्रीय स्तर पर चयन के दौरान वे अपने से मिलने वाले बच्चों से हीन महसूस करते थे, क्योंकि वे बच्चे सहजता से अंग्रेजी बोल सकते थे और सूरज नहीं।

हालांकि, सूरज अच्छी तरह से अंग्रेजी पढ़, लिख और समझ सकते थे, लेकिन बातचीत कर पाना बड़ा मुश्किल था। सूरज के स्कूल और घर में अंग्रेजी बोलने का माहौल नहीं था।

इसके बाद सूरज ने अंग्रेजी समाचार पत्रों को पढ़ना, अंग्रेजी चैनलों को देखना और आईने के सामने खड़े होकर खुद से बातचीत करना शुरू किया और अपने दम पर अंग्रेजी सीखी।

“मेरे आसपास के लोग मेरा मज़ाक उड़ाते, जब वे मुझे आईने से बातें करते हुए देखते। लेकिन इस बात ने मुझे ऐसा करने से कभी नहीं रोका, “वह कहते हैं।

सूरज के शुरू किए कोचिंग सेंटर में कुछ समय में ही करीब 100 रजिस्ट्रेशन हो गए थे, लेकिन मकान मालिक से विवाद के चलते सेंटर बंद करना पड़ा। सेंटर बंद होने के बाद सूरज ने हिन्दुस्तान यूनिलीवर में मार्केटिंग की नौकरी जॉइन की लेकिन असफल रहे।

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IRS की नौकरी के दौरान सूरज सिंह।

इसके बाद एक जगह उन्होंने नौकरी के लिए विज्ञापन देखा। EXL में कॉल सेंटर एक्जीक्यूटिव के लिए नौकरी थी। तब बीपीओ सेक्टर को सबसे अच्छे पे-मास्टर के रूप में जाना जाता था।

उन्होंने कॉल सेंटर में जॉब के लिए अप्लाई किया और सात राउंड के बाद उनका चयन ट्रेनिंग के लिए हो गया। 19 साल की उम्र में, नौकरी करने के लिए सूरज नोएडा चले गए। सूरज का शॉर्ट टर्म गोल घर भेजने के लिए पैसा कमाना जरूर था, लेकिन उनका बड़ा लक्ष्य ग्रेजुएशन पूरा करना और IPS बनने के लिए UPSC की अच्छी तैयारी करना था।

सूरज कॉल सेंटर की ट्रेनिंग के लिए नोएडा आ गए, जहाँ आवाज और उच्चारण को लेकर उनका प्रशिक्षण हुआ। लेकिन इसके बाद हुए टेस्ट में वे फेल हो गए। जब उन्हें कम्पनी से जाने के लिए कहा गया तो उन्होंने अपने प्रबंधक, कनिष्क से एक आखिरी मौका देने की विनती की।

उन्हें एक महीने का अल्टीमेटम दिया गया। उस एक महीने में, सूरज ने इतनी मेहनत की, कि उन्होंने न केवल री-टेस्ट पास किया, बल्कि ’द वॉल ऑफ फेम’ में भी जगह बनाई। उन्हें कम्पनी में 60 प्रतिशत अप्रेजल मिला। लेकिन वे इससे खुश नहीं थे और उन्होंने अपने मुख्य लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने की ठानी।

वे कहते हैं, “क्योंकि मैं जानता था कि यह मेरा लक्ष्य नहीं है। इसलिए मैंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया।”

सूरज के नौकरी छोड़ने के फैसले पर EXL के उपाध्यक्ष ने उनका इंक्रीमेंट दोगुना कर देने की पेशकश की, लेकिन सूरज नहीं माने। अपनी नौकरी के दौरान सूरज ने जो पैसे बचाए थे उसे लेकर 2007-08 में वे UPSC की कोचिंग करने के लिए दिल्ली चले गए। लेकिन लगभग छह महीने में ही उनके पैसे खत्म हो गए।

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एक पुलिस कार्रवाई के बाद सूरज सिंह और टीम ।

आर्थिक परेशानी का दबाव बढ़ने लगा तो उन्होंने आठ बैंकों में पीओ की परीक्षा के लिए आवेदन किया और सभी को क्रैक भी कर लिया। उन्होंने बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र में नौकरी जॉइन कर ली, जहाँ उन्होंने ठाणे की शाखा में चार महीने तक काम किया।

इसी दौरान उनका चयन SBI में भी हो गया। उन्होंने इस परीक्षा में AIR-7 हासिल की थी। SBI के साथ उन्होंने आगरा, दिल्ली और रुड़की में एक साल तक काम किया। जब उन्हें चमोली में बैंक प्रबंधक के रूप में पदोन्नत किया गया, तब उन्होंने एक बड़ा निर्णय लिया।

“यह एक बड़ा काम था और मुझे पता था कि अगर मैं चमोली चला गया तो अपने सपने से पूरी तरह कट जाऊंगा। इसलिए, मैंने एक बार फिर नौकरी छोड़ने का फैसला किया,” सूरज ने बताया।

हालाँकि इसी दौरान उन्होंने सीमा और उत्पाद शुल्क विभाग में एक निरीक्षक के पद के लिए AIR-23 के साथ SSC की परीक्षा भी पास कर ली।

 

SBI के विपरीत, इस नई नौकरी में उनके पास वीकेंड ऑफ था, ऐसे में उन्होंने खुद को पूरी तरह से UPSC की तैयारी के लिए समर्पित कर दिया।

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अपने साथियों के साथ सूरज सिंह परिहार।

नौकरी करते हुए UPSC क्रैक करने के सवाल पर वे कहते है, “मैं पहले प्रयास में सफल नहीं हुआ।”

उनका पहला प्रयास 2011 में असफल हुआ जब वे SBI के लिए काम कर रहे थे। इस परीक्षा में वे साक्षात्कार तक तो पहुंचे लेकिन एक मामूली अंतर से चूक गए। उन्होंने 2012 में दूसरी बार फिर से परीक्षा दी, लेकिन इस बार वे मुख्य परीक्षा में रह गए।

अपने तीसरे और अंतिम प्रयास में, उन्होंने परीक्षा तो पास कर ली लेकिन उनका चयन भारतीय राजस्व सेवा में हुआ। उनका सपना IPS बनने का था। जब वे अंतिम प्रयास में IPS में आने को लेकर संशय में थे, सरकार ने परीक्षा देने की सीमा को पांच बार कर दिया और आयु सीमा में भी दो वर्ष की वृद्धि कर दी। ऐसे में सूरज को परीक्षा देने के लिए दो मौके और मिल गए। उन्होंने चौथी बार UPSC की परीक्षा दी और AIR 189 प्राप्त की। सूरज 30 साल की उम्र में IPS अधिकारी बन गए।

“ग्रेहाउंड्स के साथ जंगल में एक हफ्ते तक गुरिल्ला रणनीति सीखने से लेकर लॉन्ग रूट मार्च, कई किलोमीटर की दौड़, कॉम्बैट सर्किट, फायरिंग, घुड़सवारी, तैराकी आदि 30 की उम्र में करना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण था, लेकिन मैंने इसमें सर्वश्रेष्ठ दिया,” सूरज ने कहा।

 

उन्होंने पहले प्रयास में ही अपने सभी इनडोर और आउटडोर प्रशिक्षण को पास किया और अल्फा ग्रेड के साथ अपने कमांडो पाठ्यक्रम को भी पूरा किया।

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प्रशिक्षण के दौरान सूरज।

प्रशिक्षण के बाद, पहले 18 महीनों के लिए, सूरज को सिटी एसपी के रूप में रायपुर में तैनात किया गया। बाद में उन्हें पदोन्नत कर दंतेवाड़ा के रेड कॉरिडोर में एएसपी के रूप में नियुक्त किया गया।

सूरज बताते हैं, “नक्सल संबंधित हिंसा में सुकमा और बीजापुर के आसपास के जिलों के बाद दंतेवाड़ा तीसरे स्थान पर आता है। पिछले पांच महीनों में DGP, IG और SP के नेतृत्व में हमारी टीम ने लगभग एक करोड़ रुपए की इनामी राशि के नक्सलियों को गिरफ़्तार कर, उनसे मुठभेड़ और आत्मसमर्पण करवा उन पर लगाम लगाई है।”

सूरज इस क्षेत्र में सॉफ्ट एंड हार्ड पुलिसिंग से बदलाव लाने का प्रयास कर रहे हैं। माओ के दुष्प्रचार को रोकने की लिए उन्होंने अपनी रचनात्मकता का उपयोग करते हुए ‘नई सुबह का सूरज’ नाम से एक अवेयरनेस फिल्म भी बनाई है। उन्होंने नक्सल प्रभावित क्षेत्र में जागरूकता फैलाने के लिए कविताएं भी लिखी है और एक वीडियो गीत भी बनाया है।

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जरुरतमंद बच्चों को मदद करते सूरज।

सूरज अपनी बात इस सकारात्मक सन्देश के साथ खत्म करते हैं कि उनके पास पहुंचने वाले बहुत से आकांक्षी युवा IPS की नौकरी में मिलने वाली सुविधाओं के बारे में पूछते हैं, लेकिन वे उनसे एक ऐसी प्रेरणा खोजने के लिए कहते हैं जो सुविधाओं से ज्यादा मायने रखती है। भारतीय पुलिस सेवा नौकरी नहीं है, यह एक सेवा है। वे बेहतर लोगों की संगति रखने, रचनात्मक आलोचना को सकारात्मक रूप से लेने, अपनी गलतियों और दूसरों से सीखने के साथ ही जीवन में अच्छा करने के लिए काम, अध्ययन, शौक और खेल के बीच संतुलन बनाने के लिए कहते हैं।

 

अगर आपको उनकी यह कहानी प्रेरित करती है और आप उनसे जुड़ना चाहते है तो इस ई-मेल के जरिये उनसे सम्पर्क कर सकते हैं।


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इन 9 महिला खिलाड़ियों में से तय होंगे पद्म अवॉर्ड विजेता, जानिए इनका सफर!

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देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्म पुरस्कार है। पद्म पुरस्कारों की तीन श्रेणियां हैं।

-पद्म विभूषण (असाधारण और विशिष्ट सेवा के लिए),
-पद्म भूषण (उच्च-क्रम की प्रतिष्ठित सेवा) और
-पद्म श्री (प्रतिष्ठित सेवा) ।

भारतीय खेलों के इतिहास में पहली बार, इस बार जिनके नाम युवा मामले और खेल मंत्रालय द्वारा इस पुरस्कार के लिए भेजे गए हैं, वे सभी एथलीट महिलाएं हैं।

आइए, जानते हैं इन महिला एथलीट्स का सफर और उनकी कामयाबी के बारे में…

 

1. एम. सी. मैरी कॉम (मुक्केबाजी)

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एम सी मैरीकॉम। फोटो – source

भारत रत्न के बाद दूसरे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण के लिए मैरी कॉम की सिफारिश की गई है। उन्हें 2013 में पद्म भूषण और 2006 में पद्म श्री से सम्मानित किया जा चुका है। मैरी कॉम के नाम कई बड़े रिकॉर्ड हैं। वह 2014 एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला मुक्केबाज हैं और 2018 राष्ट्रमंडल खेलों में भी पदक जीत चुकी हैं।

इस वीडियो में जानिये मैरी कॉम की ज़िन्दगी से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें!

 

2. पुसरला वेंकट सिंधु (बैडमिंटन)

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पीवी सिंधु। फोटो – source

इस बैडमिंटन सुपरस्टार ने 2015 में पद्म श्री प्राप्त किया और अब इन्हें पद्म भूषण के लिए नामांकित किया गया है। इस साल की शुरुआत में उन्होंने BWF विश्व चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय बनने का गौरव हासिल किया। उन्होंने जापान की नोजोमी ओकुहारा को अड़तीस मिनट में हराकर यह कारनामा किया था।

जितनी प्रभावशाली उनकी जीत है उतना ही प्रेरणादायक उनका सफर भी रहा है। सिंधु ने पुलेला गोपीचंद की अकादमी जाने के लिए हर सुबह लगभग 56 किमी की यात्रा करती थीं, जहां वह हर दिन चार घंटे प्रशिक्षण लेती थीं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिंधु की सफलता में उनके गुरु गोपीचंद का बहुत बड़ा योगदान रहा है। गोपीचंद के लिए भी यह सफ़र इतना आसान नहीं था। आईये इस वीडियो में जाने उनके इस सफ़र के बारे में!

 

3. विनेश फोगाट (कुश्ती)

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विनेश फोगाट। फोटो – source

हरियाणा की यह पहलवान प्रतिष्ठित लॉरियस वर्ल्ड स्पोर्ट्स अवॉर्ड के लिए नामांकित होने वाली पहली भारतीय हैं। 2018 में विनेश ने राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक, एशियाई चैंपियनशिप में रजत और जकार्ता एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। अब 2020 टोक्यो ओलंपिक में उनसे देश के लिए पदक जितने की उम्मीदें हैं।

इस लेख में पढ़िए कि कैसे उनके चाचा महावीर फोगाट ने कड़ी मेहनत से उन्हें और उनकी बहनों को इस खेल की बुलंदियों तक पहुँचाया।

 

4. हरमनप्रीत कौर (क्रिकेट)

Harmanpreet-Kaur-Source-Facebook
हरमनप्रीत कौर। फोटो – source

2017 आईसीसी महिला विश्व कप में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ नाबाद 171 रन बनाने वाली क्रिकेटर हरमनप्रीत कौर का नाम खेल मंत्रालय ने इस साल पद्म श्री के लिए आगे किया है। क्रिकेट में भारत का प्रतिनिधित्व करने के सपने देखने वाली हरमनप्रीत ने 20 साल की उम्र में पाकिस्तान की महिला क्रिकेट टीम के खिलाफ अपने एकदिवसीय क्रिकेट में पदार्पण किया था। हरमनप्रीत जून 2016 में विदेशी T20 फ्रेंचाइजी द्वारा साइन होने वाली पहली भारतीय क्रिकेटर भी हैं।

 

5. रानी रामपाल (हॉकी)

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रानी रामपाल। photo – फोटो

छह साल की उम्र में हरियाणा की रानी रामपाल ने हॉकी के मैदान में कदम रखा। 14 साल की उम्र में, उन्होंने वरिष्ठ भारतीय महिला हॉकी टीम में अपनी सबसे कम उम्र की खिलाड़ी के रूप में पदार्पण किया। 2016 में, जब 36 साल के लंबे अंतराल के बाद भारत ने ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया, तब वह रानी ही थीं जिन्होंने विजयी गोल किया था।

रानी को खेल की दुनिया में कदम रखने के लिए संघर्ष से गुजरना पड़ा है। द बेटर इंडिया के साथ एक साक्षात्कार में, वह कहती हैं, “परिवार ने नहीं सोचा था कि खेल एक करियर हो सकता है, कम से कम लड़कियों के लिए नहीं। इसके अलावा, मेरे रिश्तेदार अक्सर मेरे पिता से कहते थे, वह हॉकी क्या खेलेगी? वह एक छोटी स्कर्ट पहने हुए मैदान के चारों ओर दौड़ेगी और अपने परिवार का नाम ख़राब करेगी।”

इस साल, खेल मंत्रालय ने पद्म श्री के लिए उनका नाम आगे किया है। आप यहाँ उनकी यात्रा के बारे में अधिक पढ़ सकते हैं।

 

6. मनिका बत्रा (टेबल टेनिस)

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मनिका बत्रा। photo – फोटो

जनवरी 2019 तक की रैंक के अनुसार, मनिका भारत की टॉप और दुनिया की 47वीं सबसे बड़ी खिलाड़ी हैं। मनिका ने राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय महिला टीम का नेतृत्व कर स्वर्ण पदक जीता था। उन्होंने सिंगापुर टीम पर 3-1 से शानदार जीत दर्ज की थीं। 24 साल की मनिका कई पुरस्कार जीत चुकी हैं। वह अंतरराष्ट्रीय टेबल टेनिस फाउंडेशन द्वारा “द ब्रेकथ्रू स्टार अवार्ड” प्राप्त करने वाली एकमात्र भारतीय हैं।

उनका नाम पद्म श्री के लिए नामित किया गया है। आप यहाँ उनके बारे में अधिक पढ़ सकते हैं।

 

7. सुमा शिरूर (निशानेबाज)

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सुमा शिरूर। फोटो – source

पद्मश्री के लिए नामांकित, सुमा एक पूर्व भारतीय शूटर हैं जिन्होंने 1990 में खेलना शुरू किया था। 2002 में उन्होंने मैनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स में 10 मीटर एयर राइफल (अंजलि भागवत के साथ) में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा था।

बुसान में 2002 के एशियाई खेलों में भी उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल टीम स्पर्धा में रजत जीता था।

 

8 – 9 ताशी और नुंग्शी मलिक (पर्वतारोहण)

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ताशी और नुंग्शी मलिक।

 

पर्वतारोहण के एक वेकेशन कोर्स के रूप में शुरू हुए सफर का ही परिणाम है कि अब इन जुड़वां बहनों को पद्म श्री के लिए नामित किया गया है। ताशी और नुंग्शी के नाम माउंट एवरेस्ट पर पहुँचने वाली पहली जुड़वां बहनों के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड है।

वह सेवेन समिट्स – माउंट किलिमंजारो (दक्षिण अफ्रीका), माउंट एवरेस्ट (एशिया), माउंट एल्ब्रस (यूरोप), माउंट एकॉनकागुआ (दक्षिण अमेरिका), माउंट कार्सेंत्ज पिरामिड (ऑस्ट्रेलिया और ओशिनिया), माउंट मैककिनले (अलास्का) को स्केल करने वाले पहली जुड़वां हैं।

साथ ही वे विश्व के पहले भाई-बहन, पहले जुड़वां और सबसे कम उम्र की महिलाएं हैं जिन्होंने ग्रैंड स्लैम और थ्री पोल्स चैलेंज पूरा किया। जुड़वां बहनों के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।

अब हमें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या, 2020 (25 जनवरी) तक इंतजार करना होगा कि इनमें से कौन से नामांकन स्वीकार किए गए और किन्हें सम्मानित किया जाएगा।

 

संपादन  – मानबी कटोच 

मूल लेख – विद्या राजा 


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पढ़ाई के साथ संभाली गाँव की ज़िम्मेदारी, 32 लाख का काम करवाया सिर्फ़ 8.5 लाख रुपये में!

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पंजाब के गुरदासपुर जिले के छीना रेलवाला गाँव के सरपंच पंथदीप सिंह छीना न सिर्फ़ देश के अन्य सरपंच बल्कि आम युवाओं के लिए भी एक प्रेरणा हैं। उनके विकास-कार्यों से प्रभावित होकर पंचायती राज मंत्रालय ने उन पर एक डोक्युड्रामा वीडियो बनाई है।

सिर्फ़ 21 साल की उम्र में सरपंच बनकर अपने गाँव की ज़िम्मेदारी लेने वाले पंथदीप को उनके विकास मॉडल और कामों के लिए प्रधानमंत्री द्वारा भी राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा जा चुका हैं। दूसरी बार, गाँव के सरपंच बनने वाले पंथदीप ने अपनी ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी हुई है। फ़िलहाल, वे जालन्धर से ‘पंचायती राज’ विषय पर पीएचडी कर रहे हैं।

बचपन से ही सामाजिक कार्यों के प्रति रूचि रखने वाले पंथ ने कभी भी सरपंच बनने के बारे में नहीं सोचा था। उनके घर में हमेशा पढ़ाई-लिखाई का माहौल रहा और इसलिए उन्हें भी अच्छा पढ़-लिखकर बाहर जाने का मन था। इसी सोच के साथ वे कुछ समय के लिए ऑस्ट्रेलिया गये भी, पर ज़िंदगी प्लानिंग के हिसाब से कहाँ चलती है।

उन्होंने बताया,

“मैं वहां कुछ समय के लिए ही था पर मुझे हमेशा यह रहता कि यार हमारा गाँव ऐसा क्यों नहीं बन सकता। इसलिए जब मैं वापस गाँव आ गया तो मैंने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ गाँव के लिए भी छोटे-बड़े कदम उठाने शुरू किए। अपने यार-दोस्तों के साथ मिलकर एक टीम बनाई और हम युवा गाँव में स्वच्छता, हरियाली आदि जैसे अभियान करने लगे।”

सरपंच पंथदीप सिंह

साल 2013 में पंथ ग्रेजुएशन के आख़िरी साल में थे और उनके गाँव में सरपंच के लिए चुनाव होने वाले थे। गाँव के सभी युवाओं ने राय रखी कि क्यों न पंथ को ही सरपंच बनाया जाए। पर पंथ इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे क्योंकि उन्हें यह सब झंझट लगता था और उनके परिवार में से भी कभी कोई इस क्षेत्र में नहीं रहा। लेकिन गाँव के लोग इसी बात पर अड़े रहे कि पंथ सरपंच बनें।

सभी गाँव वालों का प्यार और विश्वास देखकर पंथ के परिवार ने भी उन्हें यह ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेने के लिए प्रेरित किया। सर्व-सम्मति से सरपंच बने पंथ ने सबसे पहले पूरी ग्राम पंचायत के साथ, गाँव के लोगों के सामने शपथ ली कि वे न तो खुद किसी से रिश्वत लेंगे और न ही किसी को लेने देंगे। पंथ बताते हैं,

“मैं शुरू से ही इस बात पर अडिग था कि मुझे ग्राम पंचायत के स्तर पर से भ्रष्टाचार को बिल्कुल ही खत्म करना है। इतना ही नहीं, जिला स्तर पर भी मैं हमेशा भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ उठाता रहा। इस वजह से मैंने शुरुआती कार्यकाल में काफ़ी परेशानियां भी झेलीं, लेकिन जब भी मैं मायूस होता तो मेरी बहन, मनिंदर कौर मुझे समझाती और आगे बढ़ने का हौसला देती।”

गाँव के लोगों के साथ पंथदीप

उन्होंने अपने परिवार और दोस्तों के साथ से भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ़ प्रशासन को पत्र लिखे। धीरे-धीरे उनके इन पत्रों का असर दिखने लगा। एक बार जब प्रशासन का साथ उन्हें मिलने लगा तो उन्होंने गाँव के विकास पर काम करना शुरू किया। पंथ ने सबसे पहले गाँव में सीवेज लाइन पर फोकस किया। जब उन्होंने इस काम के लिए कॉन्ट्रैक्टर से संपर्क किया तो उसने पूरा खर्च लगभग 32 लाख रुपए बताया। पर ग्राम पंचायत के पास इतनी फंडिंग नहीं थी।

इसलिए पंथ ने अपनी टीम के साथ मिलकर कम लागत के प्लान पर काम किया। उन्होंने बताया, “हमने उन सभी लूप-होल्स पर काम किया, जहाँ ये कॉन्ट्रैक्टर पैसे खाते हैं। इस तरह से हमने हर स्टेप पर पैसे बचाए और पूरे काम को मात्र साढ़े आठ लाख रुपए में किया। इसी तरह 12, 000 रुपये की स्ट्रीट लाइट हमने 3, 500 रुपये में लाकर लगवाई।   आज भी देश में हमारे इस काम का उदाहरण दिया जाता है कि यदि एक ग्राम पंचायत सिर्फ़ एक-चौथाई लागत पर प्रोजेक्ट कर सकती है तो बाकी क्यों नहीं?”

सीवरेज सिस्टम के बाद, ग्राम पंचायत ने गाँव की सड़कों को इंटरलॉक टाइल्स लगवाकर पक्का करवाया और हर एक गली को अलग-अलग नाम दिए। साथ ही, आपको हर एक गली-चौराहे पर कूड़ा-कचरा डालने के लिए डस्टबिन, बैठने के लिए सीमेंट की बनी कुर्सियां, स्ट्रीट-लाइट्स और सीसीटीवी कैमरे मिलेंगे। गाँव के इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ ग्राम पंचायत, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार के लिए भी काम कर रही है।

सीवेज लाइन से लेकर इंटरलॉक टाइल्स की सड़क, डस्टबिन और स्ट्रीट-लाइट-सीसीटीवी तक

1600 की जनसंख्या वाले इस गाँव में आज समय-समय पर कन्या-भ्रूण हत्या के खिलाफ़, लड़कियों के प्रति हिंसा के खिलाफ़ और नारी सशक्तिकरण पर सेमिनार और बैठक होती हैं। छोटे बच्चों को आशा वर्कर घर-घर जाकर जरूरी टीके लगाती हैं और समय-समय पर गाँव वालों के लिए हेल्थ-चेकअप कैंप आयोजित किये जाते हैं। साथ ही, गाँव की लड़कियों के लिए ग्राम पंचायत सेनेटरी नैपकिन भी उपलब्ध करा रही है। सभी आशा कर्मचारियों को गाँव की लड़कियों को माहवारी से संबंधित जागरुक करने की ज़िम्मेदारी भी दी गई है।

गाँव के सरकारी स्कूल के स्तर को भी सुधारा गया है। ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि रेग्युलर तौर पर गाँव के दौरे करते हैं ताकि अटेंडेंस और मिड-डे मील पर नज़र रखी जाए। बच्चों को खाने में पोषण-तत्व मिले, इसके लिए ख़ास डाइट चार्ट पर काम किया गया है। इसके अलावा, ज़रूरतमंद बच्चों के लिए फ्री-ट्यूशन आदि की व्यवस्था भी की गई है। स्कूल से बच्चों की ड्रॉपआउट रेट भी अब एकदम न के बराबर है।

पंथ बताते हैं,

“हमारे यहाँ किसी भी तरह की पहल के लिए या फिर किसी भी फ़ैसले के लिए गाँव के सभी लोगों को शामिल किया जाता है। बड़े-बुजुर्ग और युवा, सभी से सलाह-मशवरा करके ही हम किसी मुद्दे पर काम करते हैं। इससे सामुदायिक सहभागिता बनी रहती है और जब-जब समुदाय साथ मिलकर आगे बढ़ता है तो यक़ीनन बदलाव आता है। बस इसी वजह से हमारा गाँव भी आगे बढ़ रहा है, क्योंकि लोग आगे आकर हर तरह से मदद कर रहे हैं।”

इन सब सुविधाओं से भी लैस है ग्राम पंचायत छीना

गाँव के विकास कार्यों के लिए ग्राम पंचायत को मिलने वाली ग्रांट के अलावा, गाँव के लोग भी आर्थिक मदद करते हैं। हालांकि, ग्राम पंचायत की कोशिश यही रहती है कि वे किसी से भी पैसे लेने की बजाय, उन्हें सिर्फ़ साधन उपलब्ध करवाने के लिए कहें। इससे किसी भी उद्देश्य को पूरा करना आसान रहता है।

छीना ग्राम पंचायत की एक सबसे बड़ी कोशिश गाँव के सभी लोगों को आत्म-निर्भर बनाना है। इसके लिए उन्होंने महिलाओं के सेल्फ-हेल्प ग्रुप बनाए हैं और उन्हें कई तरह के स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम से जोड़ा है। बेरोजगार और ज़रूरतमंद लोगों को ग्राम पंचायत ने बैंकों से बात करके छोटे-मोटे उद्यम जैसे कि दूकान, बुटीक, डेयरी, पार्लर आदि शुरू करने के लिए लोन भी दिलवाया है।

“इसके पीछे हमारा मकसद लोगों के आर्थिक स्तर को ऊपर उठाना है। अगर उनके घर में दो वक़्त की रोजी-रोटी होगी तो वे बाकी अच्छे कामों से जुड़ पाएंगे। आर्थिक सुरक्षा हो तो लोगों की सोच का स्तर खुद ब खुद उठता है। इसलिए हम इसी कोशिश में हैं कि गाँव में हर कोई, चाहे आदमी हो या औरत, किसी न किसी रोज़गार से जुड़ा हो,” पंथ ने कहा।

इसके अलावा, गाँव को नशा-मुक्त करने की पहल भी जोरों पर है। गाँव में नशा बेचने पर प्रतिबंध है और यदि कोई ऐसा करता है तो उस पर कड़ी कार्यवाही की जाती है। साथ ही, अगर कोई नशे बेचने वालों की सूचना देता है तो उसे ग्राम पंचायत 5, 100 रुपए इनाम स्वरुप देती है। इस विषय पर चर्चा के लिए ग्राम सभा के सभी सदस्य लगातार मिलते हैं और आगे की योजना पर काम करते हैं।

ड्रग्स के खिलाफ़ मुहिम और हेल्थ-चेकअप भी समय-समय पर होते हैं

यहाँ तक कि गाँव में चुनाव के दौरान भी शराब पर रोक लगाई गयी थी। यदि कोई व्यक्ति नशा छोड़ना चाहता है तो ग्राम पंचायत न सिर्फ़ उसे रिहैबिलिटेशन सेंटर भेजती है, बल्कि उसका खर्च भी उठाती है। स्कूल के बच्चे और युवा साथ में मिलकर इस मुद्दे पर नुक्कड़ नाटक आदि भी करते रहते हैं।

हरियाली और स्वच्छता के साथ-साथ गाँव में पक्षी और पशुओं के संरक्षण का भी ध्यान रखा जाता है। गाँव में एक सुझाव कम डोनेशन बॉक्स भी लगाया गया है। इसमें गाँव वाले अपने सुझाव दे सकते हैं और यदि ग्राम पंचायत की मदद करना चाहते हैं तो इस बॉक्स में पैसे भी डाल सकते हैं। ग्राम पंचायत को मिलने वाली फंडिंग को कहाँ और कैसे इस्तेमाल किया गया, इसका पूरा हिसाब एक नोटिस बोर्ड पर लगाया जाता है।

पंथ अपने सभी कामों में पारदर्शिता रखते हैं और इसीलिए आज वे इतना सब कुछ कर पा रहे हैं। उनके कामों के लिए उन्हें बहुत से अवॉर्ड जैसे कि यूथ आइकॉन ऑफ इयर 2018, इंस्पिरेशनल यूथ आदि से नवाज़ा गया है। अपने गाँव को इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए पंथदीप ने एक बार इंटरनेशनल कंपनी, तो एक बार सरकारी नौकरी को छोड़ा है।

बहुत-से सम्मान अब तक पंथदीप को मिल चुके हैं

लेकिन उन्हें इस बात का कोई दुःख नहीं है, बल्कि वे आगे भी अपने गाँव के विकास में ही लगे रहना चाहते हैं। अंत में वे सिर्फ़ यही कहते हैं,

“हमारी आबादी 125 करोड़ हैं और हम सिर्फ़ यही कहते हैं कि कुछ नहीं हो सकता। हमारे देश में जितने गाँव हैं, अगर हममें से सिर्फ़ उतने ही लोग भी अपने मन में ठान लें कि मुझे कुछ करना है तो यक़ीनन बहुत कुछ हो जाएगा। मैं अपने जैसे युवाओं से अपील करता हूँ कि किसी और को दोष देने की बजाय खुद आगे आओ और ज़िम्मेदारी उठाओ। हम बिल्कुल बदलाव ला सकते हैं।”

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप सरपंच पंथदीप सिंह से संपर्क करने के लिए उन्हें 9815821532 पर डायल करें!

पंथदीप सिंह के कार्यों के ऊपर पंचायती राज द्वारा बनाई गयी वीडियो आप यहाँ देख सकते हैं:

संपादन – भगवती लाल तेली


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धारावी में बन रहे हैं बचे-कुचे कपड़ों से ये ख़ूबसूरत और किफायती बैग्स!

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क सजग ग्राहक के तौर पर यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम वो प्रोडक्ट्स खरीदें, जो हमारे समाज और पर्यावरण के लिए कल्याणकारी हो। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि अपनी दैनिक ज़रुरतों के लिए ऐसी चीज़ें इस्तेमाल करें, जिससे कि किसी की ज़िंदगी पर सकारात्मक प्रभाव पड़े।

ऐसी ही एक कोशिश मुंबई की मैना महिला फाउंडेशन ने की है, जिसकी एक पहल की वजह से अब आपके पैड पाउच, ट्रेवल बैग या फिर हैंडबैग की खरीददारी धारावी की ज़रुरतमंद महिलाओं की आजीविका बन सकती है और इन सब चीज़ों की कीमत आपको 600 रुपए से ज़्यादा भी नहीं पड़ेगी।

मैना महिला फाउंडेशन की एक मैनेजर, मारिया ने हमें फाउंडेशन के उद्देश्य के बारे में बताया और साथ ही, यह भी बताया कि कैसे अब तक यह संगठन 20 महिलाओं की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधार चुका है।

“इन महिलाओं की सामाजिक स्थिति ऐसी है कि अगर पति ‘ठीक-ठाक’ कमाता है तो इन्हें काम करने की इजाज़त नहीं होती है। काम करने वाली महिलाओं को यहाँ परिवार के लिए शर्म समझा जाता है। पर यह सब कुछ भी गृहिणियों से उनका क्रेडिट नहीं छीन सकता है। वे बहुत ही हुनरमंद और बहुत ही कम उम्र से सिलाई-कढ़ाई के कामों में निपुण होती हैं। हम, मैना में उनकी इसी स्किल पर कम करते हैं ताकि वे पूरे सम्मान के साथ अपने परिवार की आजीविका में कुछ योगदान दे सकें।”

 

 

मैना फाउंडेशन का विचार साल 2009-2010 में आया, जब सुहानी जलोटा (तब 14 साल की थीं) अपने एक स्कूल प्रोग्राम में धारावी गई। यहाँ पर वे इन गरीब महिलाओं से मिलीं और उनसे बात की। तब सुहानी को इन जगहों पर रहने वाली महिलाओं के जीवन के बहुत-से पहलुओं के बारे में पता चला। उन्हें पता चला कि कितनी मुश्किलों और परेशानियों में ये महिलाएं अपनी ज़िंदगी गुजारती हैं।

यहाँ पर, शौचालय घर से दूर बने होते हैं तो ऐसे में शौच के लिए जाना भी परेशानी का सबब है क्योंकि उन्हें रास्ते में लोगों की गंदी नज़रों, फूहड़ बांतों और कई बार तो बदतमीजी का शिकार भी होना पड़ता है। माहवारी के दिनों में रुढ़िवादी मिथकों की वजह से महिलाओं और लड़कियों को और भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

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साथ ही, यहाँ पर महिलाएं और लड़कियां, असुरक्षित सैनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करती हैं। इसलिए उन्हें बीमारियां आदि होने का काफ़ी खतरा रहता है। सुहानी जो कि हमेशा से इकोनॉमिस्ट की पढ़ाई करना चाहती थीं, उन्होंने मैना फाउंडेशन शुरू करने का फ़ैसला किया, ताकि इसके ज़रिए इन महिलाओं को सुरक्षित सैनेटरी नैपकिन प्रदान किये जाएं और साथ ही, इन्हें आत्म-निर्भर बनाया जाएं।

 

 

ज़मीनी स्तर पर कड़ी मेहनत और शोध के बाद, सुहानी ने महिलाओं का एक समूह बनाया और उन्हें घर पर सूती कपड़े के पैड बनाने के लिए ट्रेन किया। इन री-यूजेबल पैड को घर पर इस्तेमाल करने के अलावा, मैना फाउंडेशन इन्हें बाहर भी बेचती है जिससे इन महिलाओं को आर्थिक मदद मिलती है।

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“हमने पैड्स के साथ शुरू किया और फिर धीरे-धीरे, एक टेक्सटाइल फैक्ट्री के साथ पार्टनरशिप कर ली, जो हमें अपना वेस्ट कपड़ा न्यूनतम रेट पर देने के लिए तैयार थी। हमारे मास्टर टेलर ने इस कपड़े से एक ट्रेवल पाउच का डिजाईन बनाया और यह ग्राहकों के बीच हिट हो गया। इसलिए हमने बचे-खुचे कपड़ों को रीसायकल करके पैड पाउच, हैंडबैग और ट्रेवल बैग बनाना शुरू कर दिया,” मारिया ने कहा।

 

 

इन बैग्स को फैक्ट्री से मिलने वाले बचे-कुचे कपड़े में से सिला जाता है। इसलिए बैग्स का रंग और पैटर्न एक जैसा नहीं होता। लेकिन जब भी कोई प्रोडक्ट बिकता है तो इन औरतों के चेहरे की ख़ुशी ‘अनमोल’ होती है।

हम लोगों के लिए ये भले ही छोटे-से बैग हैं पर इन महिलाओं के लिए ये ज़िंदगी की उम्मीद हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: तन्वी पटेल


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10वीं पास किसान का इनोवेशन, एक घंटे में 300 क्विंटल कंपोस्ट टर्न करती है यह मशीन!

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म सभी जानते हैं कि हमारा भारत असल में कृषि प्रधान देश है। देश आज भी किसानों की वजह से जाना जाता है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि खेतीबाड़ी में किसानों को आए दिन संघर्ष और तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है। किसानों की जगह यदि कोई और हो तो इन मुसीबतों से त्रस्त होकर खेती ही छोड़ दे, लेकिन हमारे अन्नदाता किसान हैं कि जुटे रहते हैं, डटे रहते हैं और आख़िरकार अपनी परेशानियों पर जीत हासिल कर लेते हैं।

यह कहानी भी एक ऐसे ही प्रगतिशील किसान जितेंद्र मलिक की है, जिन्होंने लाख असुविधाओं के बावजूद भी खेती में मन रमाए रखा और अंततः कामयाबी को गले लगाया।

‛ग्वार हब’ कहलाने वाले हरियाणा के पानीपत जिले के सींख गाँव में रहने वाले जितेंद्र मलिक बताते हैं, “मैंने 1995 में गाँव में सफेद बटन मशरूम की खेती शुरू की। दस साल तक तो जैसे-तैसे मशरूम की उपज लेता रहा, मगर मुझे खेती के इस काम में कोई उत्साह नज़र नहीं आ रहा था। मेरी परेशानी का सबब यह था कि मुझे हर रोज लेबर की समस्या पेश आ रही थी। मन इतना उठ गया था कि मैंने मशरूम की खेती से ही तौबा करने तक की सोच ली थी।”

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जितेंद्र मलिक।

लेकिन उनकी एक सोच यह भी थी कि यदि खेती से नाता तोड़ लूंगा तो करूंगा क्या? इसी सकारात्मक सोच के बलबूते उन्होंने ‛खुम्बी कंपोस्ट मिक्सचर मशीन’ बनाने की सोची। शुरुआती चरण में मशीन बनाने के बाद इस मशीन को ट्रैक्टर के पीछे जोड़कर ट्रायल लिया तो मन माफ़िक़ सफलता नहीं मिली। एक बार फिर से वह उन्हीं तकलीफ़ों के साथ बड़े भारी और बेमन से खेती में जुट गए पर अंदर ही अंदर कसक खाए जा रही थी कि मुझे कामयाब होना है।

 

शुरू से ही मन में मशीन निर्माण की चाह रही

नवाचार पसंद किसान जितेंद्र के मन में शुरू से ही कुछ क्रिएटिव करने की सोच रही थी। पढ़ाई के दौरान उनकी रुचि खेतीबाड़ी के कामों में कम ही थी, पढ़ाई में भी उनका मन कुछ खास लगा नहीं। अंततः दसवीं क्लास के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ ही दी।

“बचपन से ही मन में इच्छा थी कि खेतीबाड़ी में आने वाली समस्याओं के निवारण के लिए अपनी सूझबूझ का इस्तेमाल कर कोई ऐसी मशीन बनाऊं ताकि मेरे ही समान पीड़ित किसान भाइयों की कुछ मदद हो सके,” जितेन्द्र बताते हैं।

 

एक घटना ने बदल दी जीवन की दिशा

बात 2008 की है। एक दिन मशरूम उगाने के लिए उन्होंने तूड़ा भिगोया। उस दिन 4-5 लेबर को छोड़कर बाकी की सारी लेबर छुट्टी पर चली गई। इस पर जितेंद्र को तूड़ा खराब होने का अंदेशा सताने लगा। एक बार तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे आज तो मशरूम हाथ से गई, अब मशरूम उगाई भी न जा सकेगी। लेबर की दिन रात की समस्या के चलते उनका मन्न खिन्नता से भर गया। फिर वही ख्याल सताने लगा कि ऐसे कैसे होगी खेती? इस बार बुरी तरह से दु:खी होने के बाद और रोज की परेशानियों से पीछा छुड़वाने के उद्देश्य से एक बार फिर मन में मशरूम की मशीन बनाने का विचार हो आया।

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मशीन के साथ जितेंद्र मलिक।

इस बार उनके भाई साहब ने उन्हें हिम्मत बंधाई। मशीन बनाते वक़्त उनके मन में यही विचार चल रहे थे कि फसल तो खराब हो ही रही है, यदि इस बीच सफलता हाथ लग गई तो आनन्द ही आ जाएगा और यदि सफलता नहीं मिली तब भी फसल तो बर्बाद हो ही रही है।

“एक बात जो मुझे भीतर से मोटिवेट कर रही थी, यह थी कि कामयाबी मिल जाने पर भविष्य में न सिर्फ मुझे बल्कि मेरे जैसे ही कई किसान भाइयों को भी इस नवाचार से फायदा मिलना शुरू हो जाएगा,” वे बताते हैं।

भाई साहब द्वारा हिम्मत बंधाने पर मशीन निर्माण से जुड़े सभी उपकरणों को उन्होंने 15 दिन के अंदर ही जुटा लिया। मशीन तैयार की और ट्रायल लिया, इस बार किस्मत मेहरबान थी, सब कुछ सही हुआ। मशीन उस साल भरपूर इस्तेमाल की गई। अगले बरस उन्होंने उसमें कुछ मामूली बदलाव किए, जो आज तक कायम हैं। इसके निर्माण में 2 लाख रुपए खर्च हुए।

 

इस तरह काम करती है मशीन

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प्रदर्शनी के दौरान ‘खुम्बी कंपोस्ट मिक्सचर मशीन।

जितेंद्र ने इस मशीन को ‛कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ नाम दिया है। खेती से जुड़े होने के कारण उनको यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई कि उन्नत उपज के लिए उन्नत किस्म की कंपोस्ट का बहुत बड़ा योगदान होता है। यही बात उनके दिमाग में तब भी रही जब वे इस मशीन को बना रहे थे।

यह मशीन खाद डालने पर पड़ी हुई सभी गांठों को खोल देती है। इन गांठों को तोड़ने के लिए छत में एक जाली लगाई गई है जिसके सम्पर्क में आने से कंपोस्ट की गांठें भी टूट जाती हैं। यह अंदरूनी परत को बाहर तथा बाहरी परत को अंदर की तरफ धकेलने का भी काम करती है, जिससे अमोनिया की निकासी में बहुत सहायता मिलती है।

इस मशीन से क्वालिटी कंपोस्ट तैयार होता है। मशीन के चलते लेबर भी कम हुई है और उत्पादन भी बढ़ गया है। यह अकेली मशीन 50 लेबर के बराबर का काम एक दिन में कर सकती है। मशीन न होने की वजह से पहले 15 लेबर मिलकर 2000 मण भूसे का कंपोस्ट तैयार करते थे, अब 15 लेबर मिलकर 6000 मण भूसे का कंपोस्ट तैयार कर देते हैं। चूंकि खेती में लेबर से ही अधिक खर्च आता है, इससे न सिर्फ पैदावार बढ़ेगी बल्कि ख़र्च भी कम होगा। जो काम पहले 40-50 लेबर से होता था, वह अब मात्र 10 लेबर में ही हो जाता है।

इस मशीन द्वारा मात्र 60 मिनट में 500 से 600 मण यानी 300 क्विंटल के करीब कंपोस्ट बनती है। शुरू में कंपोस्ट पूरी तरह भीगता नहीं था, पर अब पाइप चलाने पर फंवारे से पानी मिल जाता है। मशीन को चलाना भी बड़ा ही आसान है। यह बिजली और डीजल दोनों से चल सकती है।

जितेंद्र ने बीते सालों में एक और मशीन बनाई, जो सवा 3 लाख की पड़ी। पहले वाली मशीन तैयार कंपोस्ट को सीधा एक ही लाइन में रखती जाती थी। नवनिर्मित मशीन मनचाही जगह दाएं-बाएं रखती है, ट्रॉली में भी लोड कर सकती है, ताकि दूसरी जगह ले जाया जा सके। नवनिर्मित मशीन जेसीबी की तरह का काम करती है।

 

बड़े मंचों पर सम्मानित हुए हैं मलिक

संघर्ष से गुजरकर जीतने वालों का यह दुनिया सम्मान करती आई है। अपने नवाचारों के लिए जितेंद्र को भी अब तक कई मान-सम्मान भी मिल चुके हैं। इसमें ‛राष्ट्रीय फार्म इन्नोवेटर मीट’ 2010 में आईसीएआर, हरियाणा के चौधरी चरणसिंह कृषि विश्वविद्यालय, सोलन के मशरूम निदेशालय, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन सहित तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी उन्हें ‛कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ के निर्माण के लिए 3 लाख रुपए का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया है।

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सम्मानित प्राप्त करते जितेंद्र मलिक।

जितेंद्र का यह इनोवेशन काफी सराहनीय है, इससे किसान भाइयों को मदद मिलेगी। जितेंद्र की शोध यात्रा निरंतर जारी है, वे अब भी यही सोचते हैं कि किस तरह अन्य समस्याओं से अपने किसान साथियों को मुक्त करे।

अगर आपको जितेंद्र की यह कहानी पसंद आई और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो 09813718528 पर बात कर सकते हैं। आप उन्हें ई-मेल भी कर सकते हैं।

 

संपादन – भगवती लाल तेली 


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बिहार में गरीब बच्चों को मुफ़्त कोचिंग दे रहा है न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से पढ़ा यह छात्र!

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बिहार के पटना में रहने वाले किसलय शर्मा को साल 2015 में अपनी पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में फुल स्कॉलरशिप पर इंटर्नशिप करने का मौका मिला। पढ़ाई में हमेशा से ही अव्वल रहे किसलय के परिवार और जान-पहचान वालों को लगा था कि वे शायद ही अब पटना में रहने के बारे में सोचें। उन्हें अच्छी नौकरी मिल जाएगी और वे कहीं बाहर ही सेटल हो जाएंगे।

लेकिन किसलय का प्लान कुछ और ही था। उन्हें भले ही न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप मिली, लेकिन उनके मन में हमेशा से ही अपने देश और समाज के लिए कुछ करने की भावना थी। उनकी यह भावना इतनी प्रबल थी कि आज वे लगभग सैकड़ों बच्चों को मुफ़्त में शिक्षा दे रहे हैं।

उनका उद्देश्य गरीब बच्चों को बेहतर शिक्षा देकर उन्हें एक बेहतर भविष्य के लिए तैयार करना है। द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया कि जब उन्हें स्कॉलरशिप मिली और लोग उन्हें बधाई दे रहे थे तो उनके मन में बहुत-से सवाल चल रहे थे।

“मैं सोच रहा था कि मेरे घर में तो हमेशा से पढ़ाई-लिखाई का माहौल रहा, इसलिए मुझे इस तरह की इंटर्नशिप, स्कॉलरशिप आदि का पता चलता रहा। पर बिहार में ऐसे बहुत से बच्चे हैं जिनमें काबिलियत तो है पर जागरूकता का अभाव है।”

किसलय शर्मा

4 महीने की इंटर्नशिप के बाद किसलय अपनी मास्टर्स की डिग्री पूरी करने के लिए पटना लौट आए। डिग्री पूरी होने के बाद, उन्हें फिर से एक रिसर्च के लिए न्यूयॉर्क जाने का मौका मिला। कुछ समय बाद, जब यूनिवर्सिटी ने उन्हें भारत में ही रहकर रिसर्च का काम करने की सुविधा दे दी तो वे फिर अपने वतन लौट आए। यहाँ आकर उन्होंने अपना शोध-कार्य जारी रखा।

28 वर्षीय किसलय बताते हैं कि वैसे तो साल 2012 से ही वे शिक्षण-कार्य से जुड़े हुए हैं क्योंकि उन्हें जब भी मौका मिलता तो वे बच्चों को ट्यूशन आदि पढ़ाते। लेकिन फिर कॉलेज और इंटर्नशिप के चलते यह रेग्युलर में नहीं चल पाया। इसलिए जब वे यूएस से वापिस आए तो उन्होंने ठान लिया कि अपनी इसी पहल पर आगे काम करेंगे।

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यहीं से उनके ‘जागृति अभियान‘ की शुरुआत हुई। इस अभियान की सबसे बड़ी प्रेरणा उनके अपने पिता, डॉ. वी. बी. शर्मा हैं। द बेटर इंडिया से बात करते हुए डॉ. शर्मा ने बताया,

“जिस जमाने में हमने पढ़ाई की, तब मुश्किलें बहुत थी। मुझे पढ़ने और पढ़ाने का हमेशा से शौक रहा। भले ही मैंने एमबीबीएस की, पर फिर भी बच्चों को पढ़ाना बहुत अच्छा लगता था। इसलिए हमारी कोशिश रही कि गरीब और ज़रुरतमंद बच्चों को जितना पढ़ा पाएं, उतना पढ़ाएं।”

जागृति के ज़रिए, कक्षा 9 से 12वीं तक के छात्रों को पढ़ाया जाता है। किसलय यहाँ पर गणित पढ़ाते हैं तो उनके पिता फिजिक्स के टीचर हैं। इसके अलावा अन्य विषयों के लिए भी उनके पास शिक्षक हैं क्योंकि शुरू से ही डॉ. शर्मा के कुछ दोस्त भी इस पहल से जुड़े रहे हैं। उन्होंने बताया कि पड़ोस में उनके एक दोस्त ने ही अपने घर में उन्हें जगह दी, जहाँ वे इन बच्चों को पढ़ाते थे।

अपने पिता डॉ. वी. बी. शर्मा के साथ किसलय

चंद बच्चों से शुरू हुई यह पहल आज लगभग 600 बच्चों तक पहुँच चुकी है। यहाँ पर किसलय का उद्देश्य इन बच्चों को सिर्फ़ कोचिंग देना ही नहीं है, बल्कि वे इन बच्चों को गुणवत्ता वाली शिक्षा देना चाहते हैं। वे कहते हैं,

“गरीब बच्चे तो सरकारी स्कूल या फिर छोटे-मोटे प्राइवेट स्कूल में ही जा सकते हैं। वहां पर शिक्षा का स्तर काफ़ी नीचे है क्योंकि बहुत बार तो शिक्षक बच्चों के बेसिक कॉन्सेप्ट ही क्लियर नहीं कर पाते हैं। इसलिए हम सभी बच्चों को उनके लेवल पर जाकर पढ़ाते हैं ताकि वे विषय को समझ पाएं और आगे की पढ़ाई के लिए अपना फ़ैसला खुद ले सकें।”

इसके लिए, समय-समय पर वे बच्चों का स्तर परीक्षा के माध्यम से जांचते हैं, क्योंकि फिर बच्चे के समझने के स्तर के हिसाब से वे उनके साथ काम करते हैं। उनका एक उद्देश्य बच्चों की दिलचस्पी और उनकी क्षमता के अनुसार उनकी करियर काउंसलिंग करना भी रहता है। हर साल देश में होने वाली कुछ मुख्य परीक्षाओं के अलावा भी ये बच्चों को अन्य कॉलेज और यूनिवर्सिटी के बारे में भी बताते रहते हैं। इससे बच्चों को बहुत से विकल्पों का पता चलता है जहाँ वे स्कूल पूरा करने के बाद जा सकते हैं।

उनके यहाँ गरीब और समृद्ध, दोनों ही तबके के बच्चे पढ़ते हैं। अच्छे घरों से आने वाले बच्चों से वे फीस लेते हैं जबकि गरीब बच्चे मुफ़्त में पढ़ते हैं!

किसलय कहते हैं कि उनके यहाँ पढ़ने वाले बच्चों ने अब तक IIT-JEE, NEET , KYPY, CA और NDA जैसी परीक्षाओं को पास किया है। बोर्ड की परीक्षाओं में भी उनके छात्र अव्वल अंकों से पास होते हैं।

उनके यहाँ आने वाले छात्रों में गरीब और ज़रुरतमंद छात्रों के साथ -साथ समृद्ध घरों के बच्चे भी पढ़ते हैं। इस पर किसलय कहते हैं कि

“हमारा उद्देश्य अच्छी शिक्षा देना है। इसलिए हम पैसा या गरीबी नहीं देखते। पर हां, गरीब बच्चों से हम कोई फीस नहीं लेते हैं। उल्टा यदि उन्हें ज़रूरत होती है तो हम उनकी मदद करते हैं।”

लेकिन फिर सवाल आता है फंड्स का, कि फंड्स कैसे मैनेज होते हैं?

इस बारे में किसलय ने बताया कि उनके पास ऐसे भी बच्चे पढ़ने आते हैं जिनके माता-पिता फीस दे सकते हैं। इसलिए हम सबसे पहले बच्चों का बैकग्राउंड वेरीफाई करते हैं और फिर जो भी माता-पिता कोचिंग फीस देने में सक्षम हैं, उनसे एक फीस ली जाती है। इन बच्चों की फीस में से बाकी बच्चों का खर्च भी निकल जाता है।

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पढ़ाई के अलावा भी ‘जागृति’ में बच्चों के लिए बहुत-से अलग-अलग इवेंट होते हैं, जैसे समय-समय पर क्विज प्रतियोगिताएं और काउंसलिंग सेशन आदि। काउंसलिंग सिर्फ़ बच्चों की ही नहीं बल्कि उनके माता-पिता की भी होती है। हर तीन महीने में बच्चों के माता-पिता को बुलाया जाता है ताकि उन्हें भी अपने बच्चे की ग्रोथ के बारे में पता रहे।

“मेरा पूरा फोकस है कि बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता को भी जागरुक किया जाए। फ़िलहाल हम इसी कोशिश में हैं कि छात्रों को 8वीं कक्षा से 12वीं कक्षा तक कोचिंग करवाएं। क्योंकि अगर उन्हें यहाँ पांच साल अच्छी शिक्षा और मार्गदर्शन मिलता है तो वे आगे के जीवन के बारे में बेहतर निर्णय ले सकते हैं,” उन्होंने कहा।

किसलय को अब तक कई पुरस्कार मिल चुके हैं

साथ ही, वे बच्चों के लिए बैंकिंग सेक्टर की कोचिंग क्लास भी शुरू करना चाहते हैं। क्योंकि उनके पास ज़्यादातर जो बच्चे आते हैं वे इस तरह के बैकग्राउंड से हैं जिनके पास बहुत ज़्यादा समय नहीं होता। उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद तुरंत अपने घर की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है। ऐसे में, बैंकिंग सेक्टर की परीक्षा सबसे बेहतर है क्योंकि इसके लिए आप काम करते हुए तैयारी कर सकते हैं।

इसके अलावा, किसलय अपने इस अभियान को पटना से बाहर और भी शहर और गांवों तक ले जाना चाहते हैं। उनका मानना है कि हम उस दिन सभी मायनों में कामयाब होंगे, जब हमारे यहाँ सभी बच्चों को बराबरी की शिक्षा और मौके मिलेंगे।

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है और यदि पटना में आपकी जानकारी में ऐसे छात्र हैं जिन्हें मार्गदर्शन की ज़रूरत है तो किसलय कुमार से संपर्क करने के लिए 8809600234 पर कॉल करें! उनके कुछ छात्रों के बोर्ड परीक्षा व एंट्रेंस एग्जाम के परिणाम आप उनके फेसबुक पेज पर देख सकते हैं!


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‘गीली मिट्टी’के ज़रिए भूकंप और फ्लड-प्रूफ घर बना रही है यह युवती!

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क्या बिना सीमेंट और ईंटों के घर बनाना सम्भव है? क्या सूरज, हवा और बारिश पर निर्भर रहकर हम अपनी मूलभूत ज़रुरतें पूरी कर सकते हैं? या फिर अपना खाना खुद जैविक तरीकों से उगाना सम्भव है और साथ ही, अपने घर के कूड़े-कचरे से खाद बनाना?

इन सब सवालों के जबाव में हम बहुत से लोग शायद ‘न’ ही कहें। पर आप ऐसा एक उदाहरण दिल्ली के वसंत कुंज की सिन्धी बस्ती में देख सकते हैं। यहाँ पर ज़रुरतमंद बच्चों के लिए एक छोटा-सा स्कूल बनाया गया और वह भी पूरी तरह से सस्टेनेबल। इस स्कूल को बनाने के लिए Earthen Bag Technique का इस्तेमाल किया गया है।

लक्ष्यम एनजीओ के साथ मिलकर इस स्कूल को बनाया है ‘गीली मिट्टी‘ की संस्थापक शगुन सिंह ने।

इस तकनीक में बैग्स को मिट्टी से भरा जाता है और इन्हें ईंटों की तरह इमारत बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह तकनीक 60 के दशक में एक ईरानी-अमेरिकन आर्किटेक्ट नादेर खलीली द्वारा ईजाद की गयी थी। यह बहुत ही कम लागत और सस्टेनेबल घर-निर्माण की तकनीक है।

37 वर्षीया शगुन सिंह इसी तकनीक का इस्तेमाल करके, उत्तराखंड, दिल्ली और हरियाणा के कुछ भागों में आज प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल घर और अन्य ज़रुरत की इमारतें बना रही हैं।

 

शगुन सिंह

 

मूल रूप से बिहार की रहने वाली शगुन ने अपनी पढ़ाई दिल्ली से की। लगभग 10 साल तक कॉर्पोरेट सेक्टर में काम किया और फिर अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर लौट आईं अपनी जड़ों की ओर।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए शगुन ने बताया,

“सब कुछ बढ़िया था- घर, गाड़ी, जायदाद- बहुत कम समय में बहुत कुछ हासिल कर लिया था। लेकिन फिर भी एक सुकून नहीं था। हमेशा लगता था कि इतना सब कुछ किसके लिए कर रहे हैं, न साफ हवा है, न साफ पानी और न ही स्वस्थ खाना-पीना। इसलिए सोचती थी कि कुछ अलग करूंगी कभी। पर अच्छे काम का कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता। इसलिए जब दिल में आ जाये तभी उस पर काम करना चाहिए, वरना हम कभी चीज़ों से बाहर नहीं निकल पाते हैं।”

बस इसी सोच के साथ शगुन ने अपनी नौकरी छोड़ी और बस खुद पर विश्वास किया। सबसे पहले तो उन्होंने नौकरी छोड़ने के बाद उन सब चीज़ों को सीखना शुरू किया, जो उन्हें पसंद थी। उन्होंने मार्शल आर्ट सीखा और आज बहुत जगह लड़कियों को आत्म-रक्षा के गुर भी सीखा रही हैं।

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इसके बाद उन्होंने आर्किटेक्चर में हाथ आज़माया। उन्होंने अलग-अलग तरह की आर्किटेक्चर वर्कशॉप लीं और जाने-माने लोगों से सस्टेनेबल घर बनाने की बहुत-सी तकनीक सीखीं। शगुन ने फैसला किया कि उन्हें शहर में नहीं रहना है और संयोग से उन्हें उत्तराखंड में नैनीताल से 14 किलोमीटर दूर पंगोत के पास एक गाँव, मेहरोरा में ज़मीन मिल गई।

 

लड़कियों को सिखाती हैं आत्मरक्षा के गुर

 

“मैंने शहर में जो भी मेरी प्रॉपर्टी थी, सभी कुछ बेच दी और गाँव में अपना घर खुद बनाने का निश्चय किया। इस दौरान में गाँव के ही किसी न किसी परिवार के साथ रहने लगी। सबसे अच्छी जान-पहचान हो गई। वहां के स्थानीय लोगों को मैंने अपने साथ काम में लगा लिया और यह उनके लिए भी रोज़गार हो गया। पर वहां जिस बात ने मुझे सबसे ज़्यादा परेशान किया वह थी कि लोग अपने पुराने प्राकृतिक रूप से बने घरों को तोड़कर ‘पक्के घर’ बनाने में लगे थे,” शगुन ने बताया।

‘पक्के घर’ का कांसेप्ट हमारे यहां सिर्फ ईंट और सीमेंट से बने घरों तक ही सीमित है जबकि पक्के घर से अभिप्राय ऐसे घर से होना चाहिए, जो कि पर्यावरण के अनुकूल हो और जिसमें प्राकृतिक आपदाओं को झेलने की ताकत हो जैसे कि बाढ़, भूकंप आदि। अर्दन तकनीक से बने घरों में ये सभी खूबियां होती हैं। शगुन बताती हैं कि नेपाल भूकंप के दौरान सिर्फ़ इस तकनीक से बने घर ही भूकंप को झेल पाए थे और गिरे नहीं थे।

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इसलिए जब शगुन ने यहां इस तरह का चलन देखा तो उन्होंने इस विषय पर कुछ करने की ठानी। उन्होंने अपने घर को लोगों के लिए एक उदाहरण बनाने का फैसला किया। उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करके सस्टेनेबल के साथ-साथ मॉडर्न लुक वाला घर बनाया। इस घर की चर्चा इतनी हुई कि आज दूर-दूर से लोग इसे देखने आते हैं और यहीं पर साल 2015 में नींव रखी गई ‘गीली मिट्टी’ की।

शगुन के संगठन ‘गीली मिट्टी’ के दो हिस्से हैं- एक गीली मिट्टी फार्म और दूसरा गीली मिट्टी फाउंडेशन। गीली मिट्टी फार्म के ज़रिये वे लोगों को फिर से अपनी जड़ों और प्रकृति से जोड़ना चाहती हैं। वे इसे एक सेंटर के तौर पर विकसित कर रही हैं, जहां पर लोगों को प्राकृतिक भवन-निर्माण की तकनीक सिखाई जाएगी। साथ ही, यहां पर लोगों को सस्टेनेबल लिविंग के तरीके भी सिखाये जाएंगे जैसे कि खुद जैविक खेती करना, किचन गार्डन, खाद बनाना, सौर-ऊर्जा और वर्षा जल संचयन आदि।

 

Earthen Bag Technique

 

हमारे देश में अगर इमारतों और किलों की बात करें तो हमारी विरासत बहुत ही समृद्ध है। आज भी वर्षों पुराने भवन ज्यों के त्यों खड़े हैं क्योंकि उन्हें बनाने के लिए स्थानीय तकनीकों का इस्तेमाल हुआ है। शगुन कहती हैं,

“लोगों को सिर्फ़ कच्चे मकान और सीमेंट के मकान के बारे में पता है। हर कोई पक्के और मॉडर्न घर के नाम पर ऐसी इमारत बनवा लेता है जहां दीवारें सांस तक नहीं ले पाती। इसलिए जब मैंने अलग-अलग आर्किटेक्ट की एकदम ज़मीनी तकनीकों को जाना तो लगा कि हमारा आर्किटेक्चर हमेशा से कितना आगे था, बस हम ही पिछड़ते जा रहे हैं।”

अगर हम चाहे तो सिर्फ आर्किटेक्चर के माध्यम से घर के तापमान को बहुत हद तक नियंत्रित कर सकते हैं। इसलिए शगुन ने अपने घर को लोगों के लिए एक प्रेरणा बनाया। वे बताती हैं कि मेहरोरा गाँव में मौसम की स्थिति बहुत ही ख़राब है, बहुत ठण्ड और हद से ज़्यादा बारिश, पर उनके घर को यह सब प्रभावित नहीं कर रहा। गोल आकार में बना यह घर आज यहां आकर्षण का केंद्र है और गाँव के लोगों ने इसे नाम दिया है ‘गोल घर’!

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यहीं पर शगुन अपनी टीम के साथ मिलकर लोगों के लिए आर्किटेक्चर तकनीक पर वर्कशॉप आयोजित करती हैं। उनकी वर्कशॉप 2 दिन से 45 दिनों तक की होती हैं। जो लोग अच्छे-खासे परिवारों से हैं और फीस दे सकते हैं, उनके लिए ये वर्कशॉप फीस के साथ होती हैं। पर कुछ ग्रामीण और गरीब लोग, जो पैसे नहीं दे सकते, उन्हें शगुन मुफ्त में सिखाती हैं।

 

 

इन वर्कशॉप से मिलने वाले पैसों से वे ‘गीली मिट्टी फाउंडेशन’ के सोशल प्रोजेक्ट्स को फंड करती हैं। शगुन बताती हैं कि वे खुद पर निर्भर होकर किसी के लिए कुछ करना चाहती हैं। उनका उद्देश्य है कि अपने प्रोजेक्ट्स को सेल्फ-सस्टेनेबल बनाएं ताकि उन्हें किसी से डोनेशन मांगने की ज़रुरत न पड़े।

इसके लिए, वे गाँव के लोगों को ट्रेनिंग देकर उन्हें इको-टूरिज्म और ऑर्गेनिक फार्मिंग के लिए तैयार कर रही हैं। क्योंकि अगर गाँव में ही अच्छे रोज़गार के साधन होंगे तो पलायन नहीं होगा। लोग सिर्फ चंद टूरिस्ट पैलेस देखकर लौटने की बजाय इन गांवों में आकर एक-दूसरे की संस्कृति से रू-ब-रू होंगे। फ़िलहाल, उनका जोर इको-फ्रेंडली होम-स्टे तैयार करने पर है ताकि घूमने आने वाले लोग होटल की बजाय इन स्थानीय लोगों के यहां रुके।

उनका एक और प्रोजेक्ट है स्कूल, कॉलेज और कॉर्पोरेट के लोगों को अपने यहां ट्रिप्स के लिए आमंत्रित करना। इससे छात्रों और युवाओं को इस तरह की संस्कृति के बारे में पता चलेगा और कहीं न कहीं हम आगे की पीढ़ी को हमारी पुरानी पीढ़ी की धरोहर के बारे में बता सकते हैं।

 

शगुन और उनकी टीम द्वारा बनाये गये घर

 

शगुन की टीम में गाँव के कुछ स्थानीय लोग, वर्कशॉप के लिए आने वाले छात्र-छात्राएं और कुछ ऐसे लोग हैं जो उनसे सीख चुके हैं और अब अपने-अपने क्षेत्र में इस काम को आगे बढ़ाना चाहते हैं। इसके लिए उत्तराखंड के अलावा, उनका एक ऑफिस हरियाणा के गुरुग्राम में भी है। यहां पर वे लड़कियों के लिए सेल्फ-डिफेन्स का ट्रेनिंग-सेंटर चलाते हैं, तो शगुन भी सरकारी स्कूल और स्थानीय पुलिस विभाग के साथ मिलकर, गांवों में लड़कियों को आत्मनिर्भर बना रही हैं।

अंत में शगुन सिर्फ इतना कहती हैं कि हमें अपने ही मिथकों से बाहर निकलने की ज़रुरत है। हमेशा से ही हमारी क्षमताओं को सीमित किया गया है, जैसे कि हमें लगता है कि हमनें जब आर्किटेक्चर पढ़ा ही नहीं तो हम कैसे कर सकते हैं? पर ऐसा नहीं है, आपमें बस कुछ सीखने की लगन होनी चाहिए, आप कोई भी काम कर सकते हैं।

और कुछ अच्छा करने के लिए आपको कुछ बहुत बड़ा करने की भी ज़रुरत नहीं है। बस आपकी जो लाइफस्टाइल है, उसी में ऐसे-ऐसे छोटे-छोटे बदलाव कीजिए जोकि हमारे समाज और पर्यावरण के हित में हो। इससे आप अपने दायरे में रहकर भी अपना योगदान एक अच्छे समाज की दिशा में दे सकते हैं।

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इस बार अगर नैनीताल घूमना हो तो मेहरोरा गाँव का टूर करना न भूलियेगा। यहाँ पर आप न सिर्फ़ गोल घर देख पाएंगे, बल्कि चाहे तो अपने दोस्तों और परिवार के साथ आर्किटेक्चर की एक वर्कशॉप भी अटेंड कर सकते हैं। इस बारे में अधिक जानने के लिए आप शगुन सिंह से 9891300013 पर संपर्क कर सकते हैं और उनका पता है:

Geeli Mitti Farms
Mahrora Village, Pangot (Post Office)
Nainital, Uttarakhand
Pincode – 263001, India

संपादन – भगवती लाल तेली


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